Tuesday 19 February 2013

छत्तीसगढ़ी लोकगीतों के विविध रूप

इतिहास के पृष्ठों में छत्तीसगढ़ का वैभव, ऐश्वर्य एवं सांस्कृतिक उत्थान का विशद वर्णन मिलता है। छत्तीसगढ़ अंचल में विभिन्न भाषाओं, संस्कृतियों एवं धर्मों के लोग निवास करते आ रहे हैं। यहाँ समय-समय पर जो विभिन्न जातियाँ बाहर से आकर बस गईं, उनमें एक पारिवारिक स्नेह का संबंध निर्मित हो गया। इसी कारण छत्तीसगढ़ों का ही नहीं अपितु छत्तीस जातियों का भी मिलन-स्थान बन गया है। यह अंचल उपज एवं प्राकृतिक संसाधन की दृष्टि से राष्ट्र का महत्वपूर्ण अंग रहा है, किन्तु इसके भाग्य में छल और पक्षपात ही लिखा हुआ है।
छत्तीसगढ़ी जनभाषा आंचलिकता की दृष्टि से एक अत्यंत प्राचीन संस्कृति की उपज है। यह जनभाषा छत्तीसगढ़ अंचल के घरों के विचार-वहन का अधिकांश दायित्व संभाले हुए हैं। इस क्षेत्र की संस्कृति एवं जन जीवन का परिचय प्राप्त किए बिना छत्तीसगढ़ी  जनभाषा के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान लगभग असंभव है। किसी भी राष्ट्र या प्रदेश की संस्कृति का अभिज्ञान वहाँ के लोक जीवन के माध्यम से होना है और उसको पूरी तरह से जानने एवं समझने के लिए उस अंचल में व्यवहृत लोक साहित्य का अध्ययन अनिवार्य हो जाता है।
छत्तीसगढ़ी लोकगीत- इस प्रदेश के जन जीवन के निर्माण में इसके लोक-साहित्य का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। छत्तीसगढ़ी जनता के वर्तमान जीवन को समझने के लिए भी यह लोक-साहित्य बहुत उपयोगी है। इस अंचल में बिखरा हुआ अपार लोक-साहित्य अभी भी पूर्ण से प्रकाशन के अभाव में कम प्रकाश में आया है। छत्तीसगढ़ी लोक साहित्य की तीन प्रमुख धाराएं है -
1. लोकगीत
2. लोकगाथा
3. प्रकीर्ण साहित्य
अंचल की अभिव्यक्ति को मुखरित करने में अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने नि:संदेह अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है, वे हैं- छत्तीसगढ़ी, मयारु माटी, छत्तीसगढ़ सेवक, छत्तीसगढ़ी-संदेश, लोक मंजरी एवं लोकाक्षर। इन पत्र पत्रिकाओं के प्रकाशन से लोकगीत, लोककथा एवं लोक मानस से संबद्ध अभिव्यक्तियों का अध्ययन और विश्लेषण को नया स्वरूप मिला जिसके कारण छत्तीसगढ़ी लोक साहित्य और लोक संस्कृति का अध्ययन क्रमश: अपने प्रतिमान स्थापित करता हुआ प्रगति पथ पर अग्रसर हो रहा है। इस संदर्भ में डॉ. (श्रीमती) शकुंतला वर्मा, डॉ. दयाशंकर शुक्ल, डॉ. हनुमंत नायडू, डॉ. भालचंद्र राव तैलंग एवं श्री दानेश्वर शर्मा की कृतियाँ महत्वपूर्ण हैं।
विश्व का शायद कोई कोना ऐसा मिलेगा जहाँ मानव हों और गीत न हों। लोकगीतों की यह परंपरा मानव-जीवन के आदिकाल से चली आ रही है। समय की छाप उसके भावों एवं विचारों पर पड़ी और वह अपनी जीवन को ईमानदारी से भाषाओं के माध्यम से अभिव्यक्ति किया, जो किसी न किसी रूप में आज भी प्रवाहमान है। उसने समय-समय पर शोषण के विरुद्ध गीतों के माध्यम से इतना ही नहीं उन्होंने मन के अंदर छिपी हुई मीठी बातों के सुख और दुख को भी गीतों के माध्यम से व्यक्त किया।
मानव-समाज अपने साथ गीतों को संजोए रखता है और उसे संवार पाना उसकी सभ्यता या प्रकृति पर निर्भर करता है। इस अंचल में लोकगीतों की अतुल संपत्ति है, अनंत भंडार है और वह शाश्वत है। छत्तीसगढ़ में प्रचलित लोकगीतों को उनके स्वरूप के आधार पर संस्कार गीत, पर्व गीत, श्रृंगार गीत, भक्ति गीत, खेल गीत आदि नामों में वर्गबद्ध किया गया है। शहरी सभ्यता से इतर विभिन्न लोकगीत छत्तीसगढ़ी जनभाषा के विभिन्न बोलियों और क्षेत्रीय रूपों में अपने अलग-अलग स्वरूप को लिए हुए आज भी विद्यमान है। आंचलिक लोकगीतों में क्षेत्रीय संस्कृति की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। ये आंचलिक लोकगीत, सरगुजिया, पंडो, लरिया, बिंझवारी, हलबी, गोंडी, भतरी, मुरिया, दोरली, परजी, गदबा, डंगचगहा, देवार आदि अनेक बोली रूपों में प्रचलित हैं।
छत्तीसगढ़ी लोकगीतों का वर्गीकरण निम्नानुसार किया जा सकता है-
1. नारी गीत
(1) संस्कार विषयक गीत
(अ) जन्म गीत (ब) विवाह गीत
(2) नृत्य गीत (अ) सुआ गीत
(3)   पर्व गीत
(अ) भोजली गीत
(ब) गौरा गीत
(4) अन्य गीत
(अ) ददरिया (ब) सोहरगीत (स) लोरी
2. पुरुष गीत
(1) नृत्य गीत
(अ) डंडा (ब) करमा (स) मड़ई (द) नाचा (ई) रास
(2) जातीय गीत
(अ) बांस (ब) देवार
(3) धार्मिक गीत
(अ) जँवारा  (ब) भजन
(4) ऋतु गीत
(अ) बारहमासा (ब) वर्षा गीत
3. बालक गीत
(1) बड़ों के खेल गीत
(2) शिशुओं के खेल गीत
(3) बालिकाओं के खेल गीत
4. प्रबन्ध गीत
(1) नारी विषयक गीत
(अ) अहिमन रानी (ब) रेवारानी (स) कँवला रानी
(द) फुलबासन (ई) पण्डवानी
(ए) देवी की गाथा
(2) पुरुष विषयक गीत
(अ) वीर सिंह (ब) कल्याह शाह (स) लोरिकी
(द) सीताराम नायक (इ) भैरोलाल (ई) रसालू
(ए) सरवन
प्रस्तुत आलेख में समस्त छत्तीसगढ़ी लोकगीतों को सीमाबद्ध करना एक जटिल कार्य है। अत: संक्षेप में छत्तीसगढ़ में प्रचलित लोकगीतों का विवरण निम्नानुसार है -
1. संस्कार गीत- जन्म से लेकर मृत्यु तक विभिन्न संस्कार किए जाते हैं। हमारे जन्म से लेकर मृत्यु तक कुल सोलह संस्कारों का उल्लेख कर्मकांड  के आधार पर मिलता है। इस अंचल के लोक जीवन में दो संस्कारों से संबंद्ध लोकगीत अधिक मात्रा में मिलते हैं। पहला  'जन्मÓ है और दूसरा है 'विवाहÓ।
अ: सोहर या जन्म गीत - जन्म संस्कार के गीत को सोहर गीत कहते हैं। इस गीत की प्रचुरता विशेषकर 'पुत्रÓ जन्म के समय ही रहती है। इन गीतों का विषय प्राय: खुशी, बधाई, आशीष, बंध्या जीवन की अनुभूति आदि रहती है, जैसे-
धिरे-धिरे बांजथे मोर अनंद बधइया
बाजे अनंद बधइया हो
हमरो भाई के होय हवै लाले
हम काजर आँजे ल जाबोन हो।
ब. विवाह गीत- छत्तीसगढ़ में जन्म संस्कार के बाद महत्वपूर्ण है- विवाह संस्कार। विवाह संस्कार का बीजारोपण मंगनी से होता है। इन उत्सवों के अवसर पर आनंद और हर्ष से उन्मत स्त्रियों द्वारा मिलकर गीत गाए जाते हंै। जिस दिन तेल या हल्दी चढऩी होती है, उससे आठ दिन पूर्व ग्राम के बाहर स्थित तालाब या किसी विशिष्ट नियत स्थान से स्त्रियाँ मिट्टी लाती हैं और उसका चूल्हा बनाती है। इस अवसर पर दूल्हा या दुल्हन के फूफा या जीजा मिट्टी खोदता है स्त्रियाँ गीत गाती हैं-
तोला माटी कोड़े ल नइ आवै मीत
धीरे-धीरे तोर कनिहा ल ढील धीरे-धीरे
जतके पोरसय ओतके ल लील
तोर बहिनी ल तीर धीरे-धीरे
विवाह के तीसरे दिन बाराती है घराती सम्मिलित होकर हरदाही खेलते है -
खेल में गांदा जियत भर ले
चल चोला नइ आवे घेरी-बेरी
खेल ले गोंदा जियत भर ले
गीत गाते हुए हल्दी और रंग लगाते हैं, साथ ही उमंग में नाचते हैं।
2. पर्व गीत- छत्तीसगढ़ में अनेक पर्व एवं उत्सव मनाए जाते है। प्रत्येक पर्व में प्राय: कोई न कोई गीत प्रचलित है।
अ. सुआ गीत- सुआ गीत केवल स्त्रियों का नृत्य गीत है। ये गीत 'तोता अर्थात सुग्गेÓ को संबोधित करके गाए जाते हैं। इन गीतों में स्त्री जाति की आत्मा बोलती है। नारी-जीवन की सुख-दुख की जाने कितनी ही बातें वे कह  जाती हैं। इस नृत्य को 'छत्तीसगढ़ का गरबाÓ कहा जाता है।
1. पंइया परत हौ मैं चंदा सुरुज के
मोला तिरिया जनम झनि देय सुआ रे
तिरिया जनम मोर अति कलपना रे।
मोला तिरिया जनम झानि दे सुआ रे।
2. तरी तरी न हो, नारे सुआ न
न तरी नरी न ह नां
पहिली गवन कर डेहरी बैठारे रे सुवना
तोला छोडि़ के चलेंव बनजार
ब. गौरा गीत- दीपावली के अवसर पर गोंड़ जाति की स्त्रियाँ गौरा का विवाहोत्सव मनाती हैं। इन गीतों में ऐतिहासिक या पौराणिक घटना का उल्लेख रहता है प्रस्तुत  गीत में दुर्गा देवी की सेवा में भेट समर्पित है -
एक पतरी रैनी झैनी, राय रतन दुर्गा देवी।
तोरे शीतल छाँव माय, जागौ गौरी जागौ गौरी।
स. देवी सेवा गीत- सेवा गीत की परंपरा इस अंचल में बहुत पुरानी है। नवरात्रि के समय माँ दुर्गा देवी की आराधना में लोकगीत के माध्यम माता के यशोगान का वर्णन उल्लेखनीय है-
जयश्री शीतला सुनतेव तुम्हरे
आगमन हो माय।
आपन अजिन लिपाय सुगंधित
गूँगुर  कपूर जरातेंव
जाय इन्द्रधर कला वृक्ष औं
देवतन नेवत बुलातेंव
लाके सुभ पधराय मातु को
जय-जय शब्द बोलातेंव
द. होली गीत- होली के अवसर पर फाग गाया जाता है। ढोल, मांदर, मंजीरे आदि के साथ जन समूह नृत्य करते हैं और फाग गाते हैं-
बजै नगारा दसों जोड़ी, हाँ राधा किशन खेलंै होरी।
दूनो हाथ धरय पिचकारी, रंग गुलाल धर के झोली।
इ. मड़ई गीत- पुरुषों को लोक नृत्य गीतों में 'मड़ईÓ का महत्वपूर्ण स्थान है। मड़ई लोकगीतों में कोई बहुत अधिक काव्य प्रतिमा अथवा चमत्कार नहीं होता परंतु भावों की सरल, स्वाभाविक और अतिशय अभिव्यक्ति के कारण उनमें हमें इस अंचल के जन-जीवन की झाँकी का चित्र मिल जाता है-
1. पानी संग पवन लड़े, भीत-भीत संग लड़े कपाट।
हाट बाजार तिरिया लड़े, मरद लड़े दरबार।।
2. सब के लौड़ी रींगी-चिंगी मोर लौड़ी कुसुवा।
धर बांध के डौकी लानेंव, उहू ल लेगे मुसुवा।।
3. श्रृंगार गीत- छत्तीसगढ़ी लोकगीतों में एक ओर श्रृंगार और प्रेम की प्रधानता है तो दूसरी ओर सामाजिक तत्वों की प्रमुखता भी है-
अ. ददरिया- यह छत्तीसगढ़ का प्रमुख प्रणय गीत है। इसमें सजीवता, रसात्मकता तथा साहित्यिक कल्पना का अद्भुत सामंजस्य मिलता है। इन गीतों में यह भावना स्पष्ट होती है कि 'नारी को सदैव पुरुष की प्रतीक्षा रही है।Ó निष्ठुर प्रेमी दगा देगा यह किसको मालूम था-
1. गयेल पहाड़, देइेल टेही,
नइ जानेंव संगी, मोला दगा देही।
2. मारे ल मछरी, धरे ल सेहरा
आंखी-आंखी मं झूल थे, राजा के चेहरा।
ब. बारहमासी गीत- इन गीतों में बारह महीनों की विशेषता का भावात्मक चित्र प्रस्तुत किया जाता है-
सावन महिना बिरहिन रोवै जेकर सैंया गये हे परदेस
अभी कहूं बालम घर म रहितिस
तब सावन के करतेंव सिंगार भादो महिना रडिय़ा रोवै
कुकुर रोवत मं लगै  कुंवार।
4. अन्य गीत- छत्तीसगढ़ी लोकगीतों की विशाल श्रृंखला है, जिनमें करमा गीत, बांस गीत, भोजली गीत, डंडा गीत, रासगीत, देवारगीत, जंवारा गीत, भजन बालक, गीत शिशुओं के खेलगीत, बालिकाओं के खेल गीत, फुगड़ी आदि गीतों का प्रचलन आज भी इस अंचल में निरंतर प्रवाहमान है। छत्तीसगढ़ी लोकगीतों में वह शक्ति है जो सब तरह से पीडि़त, पददलित जनता की कमर को टूटने नहीं देती। लोकगीतों की आवाज कानों में पड़ते ही लोगों के बुझे हुए चेहरे खिल उठते हैं, आँखों में एक दिव्य आदिम ज्योति छा जाती है और हृदय में गुदगुदी पैदा होती है।
अंत में विस्तार को यहीं विराम देते हुए कहा जा सकता है कि छत्तीसगढ़ ग्रामों का प्रदेश है। प्राकृतिक हरियाली उसे सहज ही प्राप्त हो गई है। लोकगीतों में प्राकृतिक सौंदर्य की झलक दिखाई पड़ती है। संध्या की बेला में ग्राम-समाज का मेल जोल अगीत साहित्य की रक्षा में सहायक सिद्ध हुआ है, किन्तु अब यह प्रवृत्ति धीरे-धीरे मृतप्राय की ओर अग्रसर हो रही है-
'वही है नास्तिक पक्का जो स्वयं को न पहचाने।
दया का पाठ जो पढ़ता नहीं वह धर्म क्या जाने ?Ó
बढ़ा ले ज्ञान अपना सीख कर भाषा अनेक मगर वह छत्तीसगढ़ का वासी नहीं, छत्तीसगढ़ी न जो जाने।
धन्य है यह छत्तीसगढ़, जिसने अपने अंचल की समस्त भाषाओं, बोलियों, उपबोलियों एवं क्षेत्रीय रूपों में लोकगीत, लोककथा एवं लोकगाथाओं का निर्माण  करके न केवल इस अंचल के विद्वानों, साहित्य-साधकों को अपितु देश एवं प्रदेश के अन्याय विद्वानों, शोधार्थियों एवं विदेश के साहित्यकारों को भी प्रभावित किया है।
साभार-, रऊताही 2002

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