Tuesday 19 February 2013

रावत नाच का प्रारंभ

आज की उपभोक्तावादी संस्कृति ने जहां टी.वी., प्रिंट मीडिया व समाचार युग में सिमटकर लोक संस्कृति अपनी अस्मिता व अस्तित्व के लिए संघर्षरत है वहीं अनेक लोक परंपराएं अपने जीवंतरुप में आज भी विद्यमान हैं। वहीं लोक नृत्य में पंडवानी गम्मत व रावत नाचा जीवन में नया प्राण फूंक रहे हैं जिनमें रावत नाच शौर्य और संस्कृति को अपने में समेटे कलात्मकता का परिचय दे रहा है।
सिर में धोती का पागा उसमें लगी मोर पंख की कलगी मुंह में पीली मिट्टी आंखों में काजल, गाल में डिठोनी माथे में चंदन का टीका और कपड़े के रंगीन जूते, मोजे बंधी गोटिस के ऊपर घुंघरु घुटने के ऊपर तक कसा हुआ चोलना व उस पर फुंदरी, कमीज की जगह पूरे आस्तीन का रंगीन सलमा सितार युक्त आस्किट, जिसके ऊपर कौडिय़ों से बनी पेटी एवं बाहों में कौडिय़ों बांधे तेंदू की लाठी एक हाथ में, दूसरे हाथ में सुरक्षारुपी लोहे या तांबे की फरी जब रावत चलता है तो ऐसा लगता है मानो युद्ध के लिए श्रीकृष्ण की सेना रण  पर चल पड़ी हो। उनके थिरकते पांवों से सारा जहां रुक जाता है। वे नृत्य में अपनी लाठी द्वारा शौर्य प्रदर्शन करते हंै और अपने आंगन में देवउठनी एकादशी के दिन दस्तक देते हैं।
राउत नाचा की उत्पत्ति का कोई निश्चित प्रमाण उपलब्ध नहीं है। लेकिन पौराणिक गाथाओं के आधार पर जो धारणा प्रचलित है उसके अनुसार कार्तिक शुक्ल की एकादशी के दिन श्रीकृष्ण ने कंस के अत्याचार से पीडि़त जनता को मुक्ति दिलाई, तब से यदुवंशियों द्वारा मुक्ति  का पर्व मनाते हुए उत्सव का आयोजन किया गया। सम्भवत: तभी से राउत नाचा की शुरुआत हुई।
यह नाच द्वापर में श्रीकृष्ण और ग्वाल बाल द्वारा अत्याचार के विरुद्ध विजय पर उल्लास के रूप में मनाया जाता है। श्रीकृष्ण का जन्म सूरसेन जनपद में हुआ था और उस समय मथुरा में कंस का शासन था, उस राज सत्ता पद लोलुप अन्यायी ने अपने पिता उग्रसेन को बंदी बना मथुरा का सिंहासन हथिया लिया था। श्रीकृष्ण के पिता वासुदेव ययाति वंश के वंशज थे। इन्हीं के वंश में कृष्ण, मधु, यदु और हैहय उत्पन्न हुए। वृषण के वंशज वृषिण मधु (माधव) (यदु) (यादव) और हैहयवंश कहलाएं। इसी वृष्णि वंश में श्रीकृष्ण पैदा हुए वैसे उनकी माता यदुवंशी राजा उग्रसेन की लड़की थी। वसुदेव जी कुल 14 भार्याओं में पुरुवंशीय रोहिणी, देवकी अतिरिक्त अन्य भर्याय रोहिणी के ज्येष्ठ पुत्र बलराम हुए। रोहिणी की दो कन्याएं थीं बड़ी का नाम चित्रा और छोटी का नाम सुभद्रा था जिसे अर्जुन ने हरण कर लिया था। वासुदेव जी का पैतृक राज्य तत्कालीन भूगोल के अनुसार आधुनिक ईराक-ईरान के पास स्थित था। यहां ऋषि कश्यप ने एक विशाल झील बनवाया था जिसे आज कैस्पियन सागर के नाम से जाना जाता है। उग्रसेन की कन्या से विवाह पश्चात वासुदेव मथुरा में निवास करने लगे।
आकाशीय भविष्यवाणी के अनुसार देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवां बालक आतातायी कंस का विनाश करेगा। कंस का अंत जनता के विरुद्ध अत्याचार करने के कारण वह अलोकप्रिय होने लगा उसके विरुद्ध क्रांति की स्थिति पैदा हो गई नारद ने कंश के समक्ष कमल पुष्प रखकर यह कहा कि इस कमल पुष्प की आठवीं पखुंड़ी कौन सी है यह बतलाना कठिन है।
यह कोई नहीं जानता इस घटना से उत्तेजित होकर वह सभी देवकी पुत्रों की हत्या करता चला गया। जिससे धीरे-धीरे इस घटना से जनता में कंस के प्रति विद्रोह और घृणा के भाव आ गए। परन्तु वह आठवें पुत्र श्री कृष्ण का वध करने में असफल रहा, श्री कृष्ण का जन्म होते ही उसे रात्रिकाल में नंद महाराज के यहां गोकुल में पहुंचा दिया गया,  वहीं उसका पालन पोषण हुआ। जब इस बात की जानकारी कंस को हुई तब उसने उसके खिलाफ मारने के लिए अपने षडय़ंत्र रचे परन्तु कृष्ण की चमत्कारी लीला सामने वे सभी के सभी धीरे-धीरे कालकलवित होते चले गए। उस समय आसपास दानव-दैत्यों और नागों का राज्य चल रहा था। देवताओं और मनुष्यों से उनके पारस्परिक युद्ध चलते रहते थे। इन्द्र अपनी विलासिता के कारण दुर्बल होता चला गया उसके अधीन करदाता राज्य धीरे-धीरे पकड़ से बाहर हो रहे थे।
श्रीकृष्ण ने इस विलासिता का विरोध किया और गोकुल के प्रतिवर्ष की भांति होने वाली इन्द्र की पूजा का विरोध किया और समझाया कि गोवर्धन की पूजा की जाये न कि देव इंद्र की क्योंकि गोवर्धन पर्वत पशुओं के लिए चारा और जीवों की जीविकोपार्जन और हमारी जीविका का साधन है अत: गोवर्धन की पूजा करना ही श्रेष्ठ है, श्री कृष्ण ने आगे कहा ब्राह्मण मंत्र यज्ञ को प्रधानता देते है। कृषकों के यहां कुल पूजा होती है और हम गोप के लिए गिरि यज्ञ वांछनीय है।
श्री कृष्ण ने समझाया कि वर्षा का देव इन्द्र नहीं, मेघ तो वैज्ञानिक विधि से निर्मित होते हंै वर्षा प्राकृतिक नियमों के अनुसार होती है। इन्द्र पूजा बंद होने से क्रोधित हो उठा उसने यदुवंशियों पे चढ़ाई कर दिया। कृष्णा गोपों को अपनी गायों सहित शरण लेने को कहा तब पूरा जनसमूह व पशु ही देख इन्द्र को स्थिति समझ नहीं आई और वह हताश होकर वापस चला गया। तब कृष्ण ने पर्वत को उंगुली में उठा लिया। इन्द्र को पछतावा हुआ तब वह श्रीकृष्ण के चरणों में हाथ जोड़कर गिर पड़े और क्षमा याचना की। इस खुशी के अवसर पर श्रीकृष्ण सहित बाल गोपाल ने नृत्य करना प्रारंभ किया।
श्रीकृष्ण परमज्ञानी, तत्वदर्शी, दार्शनिक, एक अच्छे कूटनीतिक, राजनीतिक, महायोद्धा, रण कुशल, रासलीला के प्रर्वतक, नृत्य व बांसुरीवाद्य के अविष्कारक, अनेक परम अस्त्रों के ज्ञाता जिन्होंने पल-पल महाभारत युद्ध को प्रभावित किया जो कि पृथ्वी पर एकमात्र विकसित सम्पूर्ण वैभव व गरिमा से सम्पन्न संस्कृति इस युद्ध के पश्चात स्पष्ट हो गई।
रावत नाचा का प्रारंभ कार्तिक मास के एकादशी से प्रारंभ होता है लगातार पौष पूर्णिमा तक चलता है। इस नृत्य को अहीर लोग देवारी नाच से संबोधित करते हैं। रावतनाचा का प्रारंभ श्रीकृष्ण के द्वारा मथुरा राजा कंस के अत्याचार से जनसामान्य की मुक्ति पर एक उत्सव का स्वरुप प्रारंभ होता है क्योंकि कंस का वध कार्तिक शुक्ल पक्ष की कार्तिक एकादशी को हुआ था, इस मुक्ति के अवसर पर ग्वाल बाल यादव नृत्य कर उठे थे।
श्रीमद भागवत के अनुसार श्रीकृष्ण ने यमुना के तट पर बालक लिंग की स्थापना के अवसर पर यदुवंशियों ने 7 दिन तक नृत्य किया। रावत नाच उद्भव के मूल में पुराण संवत यह घटना ही सर्वमान्य है। रावत नाच अपने प्रारंभिक रूप से अब तक जीवित है परन्तु आधुनिक सभ्यता के प्रभाव से अछूता नहीं है। गांव में जब गोवर्धन पूजा मनाते हैं उसी दिन रावत नाचा पर्व की शुरुआत होती है इस अवसर पर सभी ग्रामवासी गोवर्धन पर्वत, गाय, बछड़े एवं रावत रौताइन की मूर्ति पवित्र गोबर से बनाकर उस सिलयारीघास, गेंदा फूल व धान से सजाते संवारते हैं और पूजा अर्चना करते है। यह इस बात का प्रतीक है, कि श्रीकृष्ण के नेतृत्व में अन्यायी शासक घमण्डी इंद्र का विद्रोह कर पहाड़ मैदान व चारागाह की पूजा की। अपनी इसी पशुधन पर्वत व चारागाह के लिए यादव ने इन्द्र व कुरु शासक कंस ने युद्ध किया। यह युद्ध किन्हीं दो शासकों के मध्य न होकर शासक के खिलाफ (विरुद्ध) सामाजिक युद्ध था जो कि शोषण व अत्याचार के विरुद्ध था।
यादव के संघर्ष गाथा अनुत्पदक तत्व और सामाजिक श्रम की उपयोगिता से जुड़ी है। यह संघर्ष किसी एक विशेष जाति का नहीं अपितु सभी वर्गों की मुक्ति के लिए था।
आज यह नाच छत्तीसगढ़ की संस्कृति का अभिन्न अंग है। जब भी कभी रावत नाच हमारे गली मुहल्ले से गुजरता है तब उनकी पारम्परिक वेशभूषा जो कि सिर से पैर तक आकर्षक नैनाभिराम वस्त्र धारण किये गुरदम बाजे के थाप पर उनके पैर थिरकते व एक लय में ऊपर उठते हैं जिनके हाथों में ढाल सुरक्षा रुपी फरी तथा दूसरे हाथ में तेंदुसार की लाठी 40 या 80 के समूह में लोग रहते हैं तथा एक या दो नर्तक भी होते हैं। बाजे की आवाज से संयुक्त रूप से जोश एवं आवेश साहस व उत्सव न केवल रावत के मन में अपितु देखने वाले के मन में उत्सव का संचार होता है।
साभार- रऊताही 2003

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