Sunday 24 February 2019

हिन्दी लोकगीतों के अनुषंग

लोकगीत मानव मन की अनुभूतियों की सरस रागात्मक अभिव्यंजना का लयात्मक उपहार है। लोक संस्कृति की सच्ची, मधुर, मनमोहक तथा स्वरमूला अभिव्यक्ति को 'लोकगीतÓ की संज्ञा से अलंकृत किया जा सकता है। यह लोक आस्था तथा लोकानुभूत सत्य का अकृत्रिम, सहज तथा नैसर्गिकी गीतात्मक उद्गार है। मनुष्य के सुखदुखात्मक, हर्ष-विषाद मूलक नोवेगों के आरोह-अवरोह की रसात्मक अभिव्यंजना है। लोकगीत लोकवाड्.मय की अनमोल धरोहर है। लोकगीत अपने विषय-वैविध्य के अलंकरण से अभिमंडित है। इसलिए यहाँ लोरियाँ में झूलता तथा सोचता बचपन, प्रेम के संयोग रंग में आकंठ निमज्जित यौवन, विरह से उद्दीप्त अनुराग, वैराग्य बोध से उद्बोधित वार्धक्य-सभी कुछ तो लोकगीतों के भाव-जगत में समाया हुआ है। सामाजिक मान्यताओं तथा वर्जनाओं का वृहद कोष लोकगीतों की विशाल सृष्टि में पग-पग पर सृजित होता हुआ दिखाई पड़ता है। प्रौढ़ावस्था तक आते-आते मनुष्य संसार के यथार्थ अनुभावों का खजाना बन जाता है और इन्हीं खजानों में से लोकगीत रत्नों की भाँति चमकते हुए हमें मिलते हैं। सभ्यता के आदिमकाल से ही इन लोकगीतों ने मानव चेतना तथा आस्था के तारों को अलंकृत किया है। लोकगीत प्राचीन होते हुए भी अर्वाचित है। चिर नवीन और चिर यौवन सौन्दर्य ही लोकगीतों की सबसे बड़ी विशेषता है। लोकगीतों में शास्त्रीय नियमों के बन्धनों की सीमा नहीं होती। आकाश की उन्मुक्तता, पवन की स्वच्छन्दता, सागर की गम्भीरता, सरिताओं की कल-कल नाद भरी सुंदरता, झरनों की चंचलता लिए हुए लोकगीत, मनोरंजक, मनोमाहक तथा मनोआहृलादकारी होते हैं। लोकगीतों में वर्ग या वर्ण का वैषम्य, अमीरी-गरीब का भेद या सम्पन्न विपन्न का अंतर नहीं होता है। लोकगीत सार्वजनिक सार्वदेशिक, सार्वलौकिक तथा सार्वजनीन हैं। देश-काल और परिस्थितियों की विभेदक लक्ष्मण रेखा लोकगीतों के लिए नहीं बनी है। किसी भी राष्ट्र की संस्कृति को प्रदीप्त करने वाली सुरीली बानगी ही लोकगीत है। लोकगीत बौद्धिकला के शुष्क तथा बेजान कटीले झाड़-झंखाड़ नहीं है। यह हृदय-महासागर में अनंत भावनाओं के मंथन के उपरान्त रसमय नवगीत है। लोकगीत सामान्य लोकजीवन की पाश्र्वभूमि में अचिन्त्य रूप से अनायास की फूट पडऩे वाली लयात्मक अभिव्यक्ति है। लोकगीतों में संगीत और काव्य का समन्वय होता है। लोकगीत हमारे जीवन-विकास का इतिहास है। लोकजन द्वारा विशेष परिस्थिति , स्थल, कर्म, तथा संस्कार के समय हुई अनुभूतियों की लयपूर्ण सामूहिक अभिव्यक्ति है। लय और ताल इसके अनुचर  तथा नृत्य इसका सहचर है। लोकगीत मसिकागढ़ जीवी नहीं कण्ठजीवी है। इसमें अलंकारों का घटाटोप एवं छंदों की बाधाएं नहीं होती। ये सर की अनुपम सरिताएँ हैं जहाँ भाव-माधुर्य के विविध कमल खिलते हैं। ये मनोरंजन के साथ ही साथ मनोबोधन के साधन भी होते हैं।
लोकगीत श्रुतिपरम्परा की देन है। लोकसंगीत वह विशाल वटवृक्ष है जिसकी जड़े धरती में कितनी गहराई तक धँसी है, कहानहीं जा सकता है। लोकगीत आज भी ग्रामीण कंठो ें अपने मौलिक रूप से सुरक्षित हैं। आज इनका विस्तार गाँवों से बढ़कर नगर और महानगर तक हो गया है। लोकगीतों की सीढ़ी चढ़कर बड़े-बड़े संगीत प्रख्यात हुए हैं। यद्यपि ये ग्राम्यगीत हैं तथापि इनमें शास्त्रीयता का पुट भी विद्यमान रहता है। यह और बात है कि लोकसंगीत गायक एक लम्बे समय तक इस सत्य से अनभिज्ञ रहे हैं। बड़े-बड़े शास्त्रीय संगीत गायकों ने लोकधुनों की मौलिकता को संरक्षित रखते हुए उसमें यत्किंचित् परिष्कार कर दुनिया के सामने रखा। बड़े गुलाम अली खॉं, पं. रामप्रसाद मिश्र, उर्फ रामूजी(गया वाले), बेगम अख्तर, शोभा गुर्ट गिरिजा देवी, आश्रया पाण्डेय, उर्मिला श्रीवास्तव आदि के स्वरों में कजरी, चैता, होली आदि सुनकर लोकगीतों की मौलिक बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है। किन्तु ये प्राय: अशास्त्रीय ही होते हैं। वास्तव में शास्त्रीय नियमों की परवाह न करके सामान्य लोक-व्यवहार के उपयोग में लाने के लिए मानव अपने आनंद की तरंग में जो छन्दोबद्ध वाणी सहज उद्भूत करता है, वही लोकगीत है। ये गीत लोक में प्रचलित, लोक-सर्जित तथा लोक विषयक होते हैं। इसका तात्पर्य यह है लोक में प्रचलित जनगीत ही वस्तुत: लोकगीत होते हैं। लोक-मानस से तादात्म्य स्थापित करके एक व्यक्तित्वविहीन कवितर की सृष्टि करना यह सिद्ध करता है कि उसमें एक व्यक्तित्व के स्थान पर लोक-व्यक्तित्व की प्रतिच्छाया होती है। इसीलिए समस्त जनसमूह(लोक) उसे अपनी रचना मानने लगता है और वही गति लोक का गीत हो जाता है और परम्परा के प्रवाह से होकर घिस-पिट कर जिस रूप में हमें प्राप्त होता है, उसे लोक की सृष्टि कहा जा सकता है। इसीलिए लोकगीत लोक मानस की लयात्मक अभिव्यक्ति होते हैं। इसमें लोक की स्वेच्छा की स्वत: स्फूर्तिजन्य अभिव्यक्ति होती है इसमें लोक प्रतिबिम्बित होता है। अत: लोकगीत लोक के लिए एक स्वराकार की स्वराधृत अभिव्यक्ति है।
लोकगीत की उत्पत्ति के विषय में सभी विद्वान प्राय: एकमत हैं कि यह निरक्षर जनता की सम्पत्ति रही है जो श्रुति परम्परा पर आधारित है, जिसका रूप वर्णमाला के उद्भव से भी पहले का माना जाता है। इसे कलात्मक साहित्य का अंग न कहकर जनश्रुति की परम्परा ही समझना अधिक समीचीन है। इस प्रकार लोकगीत की परम्परा श्रुति परम्परा ही साथ ही साथ वैदिक युग से आज तक चली आ रही है। लोकगीत की उत्पत्ति के संबंध में संगीत और कल्पनाओं को आधार माना जाता है। सुखदु:खात्मक भावावेश की अवस्था के चित्रण का माध्यम अश्रुपात, दीर्घ नि:श्वास, फलक और मुस्कान आदि अनुभाविक आंगिक चेष्टाओं तक ही सीमित न रहकर हर्ष और वेदना का रूप धारण कर कण्ठ के द्वारा साकार हो उठती है, तभाी गीतों के स्वर फूट पड़ते हैं। ये गीत किसी कवि के नहीं, अपितु सामान्य जनमानस की अज्ञात सृष्टि है।
भारत के लोकगीत वैदिक मंत्रों के ही उत्तराधिकारी कहे जा सकते हैं क्योंकि इनमें लोकगीतों के शब्द और भाव विद्यमान हैं। प्राचीन काल में पुत्रजन्म, यज्ञोपवीत, विवाहादि उत्सवों तथा विभिन्न पर्वों पर सरस तथा सुमधुर स्वर में गाये जाने वाले गीतों का निर्देश वैदिक ग्रन्थों में मिलता है। लोकगीत को वेदमन्त्रों के कालक्रमों द्वारा प्रकल्पित अनुवाद के रूप में स्वीकार किया जाता है। इसके सन्दर्भ ऋग्वेद(९०,८५.६)मैत्रायणी संहिता (३.६.३),गृहृासूत्र (१०,७), शतपथ ब्राम्हण (१.३.५.४.१३) तथा ऐतरेय ब्राम्हण(८.४)में विद्यमान हैं।
इसके पश्चात् बाल्मिकि रामायण में रामजन्म के समय तथा श्रीमद्भागवत में कृष्ण के जन्म के अवसर पर स्त्रियों द्वारा सामूहिक रूप से गाये जाने वाले गीतों का वर्णन मिलता है। इसके अतिरिक्त संस्कृत साहित्य के अनेक कवियों ने लोकगीत गाये जाने का वर्णन अपने काव्य में किया है। इनमें पर्व तक सीमित न रहकर मेहनत-मजदूरी, जैसे-चक्की पीसना, धान कूटना, खेत निराना, थकान दूर करने के लिए गीतों द्वारा अपने चित्त प्रसन्न करने का प्रयास दिखाया गया है। संस्कृत की सुप्रसिद्ध कवियित्री विज्जका ने धान कूटते समय गीत गाती हुई एक स्त्री का सुन्दर चित्र खींचा है जिसमें मूसल के उठाने और गिराने के कारण उसकी चूडिय़ाँ, झनझना रही हैं और उर स्थल हिल रहा है। मीठी हुंकार की ध्वनि तथा चूडिंयों की झंकार से उसका गाना एक विशिष्ट प्रकार का मनोरम आनन्द पैदा कर रहा है। जिससे उसके गीत और काम को गति मील रही है-
विलास मसृणोल्लास-मुसललोलादो:कन्दली-
परस्पर पर्रिस्खदु्रलयनि: स्वतोद्धन्धुश:।
लसन्ति कलहुंकृति सभयकम्पि तोरस्थल
त्रुटदगमकसड्कुसा कलभकण्ठनी गीतय:।।
संस्कृत के नैषधीयचरित महाकाव्य(२,८५)में भी श्री हर्ष ने स्त्रियों द्वारा गाये जाने वाले गीतों की प्रकृति में भी लोकगीतों की परम्परा का वर्णन किया है। राजा शालिवाहन हाल द्वारा संग्रहित गााधा सप्तशती तथा पालि के जातकों की कथा में भी लोकगीतों का प्रचलन बड़े जोर-सोर से बताया गया है। रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास ने भी जानकी के विवाह के अवसर पर स्त्रियों द्वारा गीत गाये जाने का उल्लेख किया है-
चली संग लै सूखी सयानी।
गावहिं गीत मनोहर बानी।।
इस प्रकार लोकगीतों का सृजन तो प्राय: कुछ ही व्यक्तियों के द्वारा होता है किन्तु उसकी अनुभूति ही व्यापकता जन-सामान्य के हृदय से मेल खाती है। प्रणय-सम्बन्धी सहज वृत्ति की तरह लोकगीत-सृजन की सहज-वृत्ति भी जनमानस में समान रूप स्पन्दित होती है। सुख और दु:ख में आशा-निराशा में, आसक्ति-विरक्ति में, उत्साह और भय में जब कभी मनुष्य भावातिरेक से तन्मय और विहृल सा हो जाता है तभी मानस से वेगवती स्रोतधारा फूट निकलती है। बस उसी क्षण लोकगीत की उत्पत्ति होती है। शब्द-विन्यास की सादगी, मर्मस्पर्शी , प्राकृतिक और आदि मनोराग, सूक्ष्म किन्तु, प्रभावोत्पादक, चरित्र-चित्रण, देशकाल का स्थूल अंकन, साहित्यिक कृत्रिमताओं का न्यूनातिन्यून प्रयोग या सर्वथा बहिष्कार सच्चे लोकगीतों की नितान्त आवश्यक विशेषताएँ हैं। लोक-गीतों में अभिव्यक्ति की भंगिमाओं, भावों और विचारों की विलक्षणता मिलती है। इसमें क्षेत्र विशेष की सभ्यता, संस्कृति और परम्परा की सच्ची झाँकी प्राप्त होती है। इसमें भारतीय जीवन की अन्तरंग आत्मा प्रवाहित होती है। विभिन्न संस्कारों, ऋतुओं और त्यौहारों से सम्बन्धित गीत लोकानुरंजन करने में सफल होते हैं। लोकगीत का मूल जातीय संगीत में है। गा्रमगीत प्रकृति गीत हैं। इनमें अलंकार नहीं केवल रस है, छन्द नहीं केवल लय है, लालित्य नहीं केवल माधुर्य है। ग्रामीण मानव के स्त्री. पुरूषो ं के मध्य हृदय नाम आसन पर बैठकर प्रकृति गान करती है। प्रकृति के ये ही गान ग्राम गीत है।
लोकगीतों का वर्गीकरण करना एक कठिन कार्य है। वास्तव में लोकगीतों में रूपात्मक वैविध्य एवं विषय-वस्तुगत व्यापकता इतनी अधिक है कि इसका सर्वमान्य वर्गीकरण असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। विद्वानों ने इसका वर्गीकरण करते हुए संस्कार सम्बन्धी गीतों को प्रधानता ही है। इसके अतिरिक्त ऋतु, उत्सव, जाति, वीरगाथा तथा खेती सम्बन्धी गीतों का विभाजन मिलता है। डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय ने लोकगीतों को सात प्रकारों में विभाजित किया है जो 1. संस्कार सम्बन्धी गीत 2. ऋतु सम्बन्धी गीत 3. व्रत सम्बन्धी गीत 4. जाति सम्बन्धी गीत, 5. श्रम गीत 6. देवी-देवताअेों के गीत तथा विविध गीत है। यद्यपि व्रत सम्बन्धी गीत एवं देवी-देवताओं से सम्बन्धित गीतों को एक ही श्रेणी में रखा जा सकता है।
संस्कार सम्बन्धी गीत:- भारतीय समाज धर्म से ओतप्रोत है। इसीलिए भारतीय(हिन्दु)को जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त नाना प्रकार के संस्कार करने पड़ते हैं। धर्मशास्त्रों में सोलह संस्कारों का विधान है किन्तु वर्तमान समाज में पुत्रजन्म संस्कार, मुण्डन संस्कार, यज्ञोपवीत संस्कार, तथा विवाह संस्कार का विशेष प्रचलन है। इन संस्कारों के अवसर पर स्त्रियाँ मधुर स्वरों में संस्कार सम्बन्धी गीत गाती हैं। सामान्य रूप से हमारे समाज में पुत्रजन्म के समय प्रसन्नता व्यक्त की जाती है मिठाई बाँटी जाती है। इस अवसर पर गाँव की स्त्रियाँ एकत्र होकर सोहर गीत गाती हैं। सोहर गाने वाली स्त्रियों को सामथ्र्य के अनुसार मिठाई पान आदि खिलाने की प्रथा है। कहीं-कहीं सोहर को मंगल भी कहा जाता हैं-
गावहु ए सखि! गावहु गाइ के सुनावहु हो।
सब सखि मिलि जुलि गावहु आजु मंगल गीत हो
आधि राति गइले महरराति होरिला जनम ले ले हो।
बाजे लागत अनंद बधावा, महल उठे सोहर हो।
सोहर लगातार बारह दिन तक गाने की परम्परा है। पुत्र-जन्म के गीतों में आनन्द और उल्लास का विशद वर्णन होता है। सोहर में नव प्रसूता स्त्री के हृदय में गुदगुदी पैदा करने वाले गीतों की झाँकी मिलती है। सोहर का प्रमुख वण्र्य संभोग श्रृंगार का वर्णन है। इसमें स्त्री-पुरूष की कामक्रीड़ा, गर्भाधान गर्भिणी की देह-यीष्ट, प्रसव-पीड़ा, दोहद, धाय का बुलाना और पुत्रजन्म का वर्णन होता है।
जन्म के पश्चात पहली बार जब बच्चे का मुण्डन कराया जाता है तो उसे मुण्डन संस्कार कहते हैं। इसे संस्कृत में चूड़ाकर्म हैं। कुछ लोग देव-स्थान में जाकर इस संस्कार को सम्पन्न कराते हैं। यदि गाँव पर ही यह संस्कार सम्पन्न कराना होता है तो किसी नदि या सरोवर के किनारे बच्चे के जन्म के बाद पहले तीसरे पाँचवे या साँतवें वर्ष में यह संस्कार सम्पन्न कराया जाता है। इस अवसर पर स्त्रियाँ जो गीत गाती है, उसे मुण्डन संस्कार गीत कहते हैं-
समवा बइठल राजा दसरथ, कोसिला अरज करे हो।
राजा राम के कर जग मूडऩ एहो सुख देखबि हो।
अरहिलबन केरे खरहिल कठइबो वृन्दावन केरो बाँस हो।
से दो पहिले माड़व छवइयो गजमोती चऊक पुरइबो हो।
हिन्दु समाज में यज्ञोपवीत(जनेऊ)संस्कार बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। वैसे तो ब्राम्हण, क्षत्रिय और वैश्य में यह संस्कार प्रचलित है, परन्तु ब्राम्हण और क्षत्रियों में यह संस्कार विशेष रूप से सम्पन्न किया जाता है। प्राचीन परम्परा के अनुसार यज्ञोपवीत संस्कार के पश्चात बालक गुरू के पास विद्याध्ययन के लिए जाता है। अब यह परम्परा केवल नाटकीय ढंग से सम्पन्न की जाती है। यज्ञोपवीत संस्कार के जो गीत गाये जाते हैं उसमें विविध विधानों का वर्णन मिलता है। कहीं पर ब्रम्हचारी किसी स्त्री को माता कहकर भिक्षा माँगता है तो कहीं वह विद्याध्ययन हेतु काशी या कश्मीर जाने के लिए उद्यत होता है। यज्ञोपवीत सम्बन्धी लोकसाहित्य लोकगीतों से आपूरित है। यज्ञोपवीत के सभी गीतों में एक प्रकार की ही भावधारा सारे देश में प्रचलित है।
कासी में ठाढ़ बरूअवा, बरूअवा पुकारेला हो।
केइ हव कासी के मालिक, जनेऊवा दियावसु हो।
कोइरिनि हरदी उपराजेली, अमुक बाबा बेसहेले हो।
अमुक बरूआ के सिखा चढ़ावल, हरदी सोहावन हो।
यज्ञोपवीत संस्कार व्यय: साध्य होता है। इस अवसर पर लोगों को भोजन कराया जाता है तथा ब्राम्हणों को दान दिया जाता है। व्यय साध्य संस्कार होने के कारण आजकल लोग प्राय: देवस्थान में इस संस्कार को सम्पन्न कराते हैं।
सम्पूर्ण मानव-जाति में विवाह संस्कार अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि इस संस्कार के सम्पन्न होने पर जीवन साथी की प्राप्ति होती है। अतएव इस अवसर पर नाना प्रकार के आयोजन होते हैं। मनुष्य के जीवन में जितना विवाह संस्कार महत्वपूर्ण है उतना अन्य संस्कार नहीं। विवाह के गीत वर और कन्या दोनों के घर में गाये जाते हैं। वर के तिलकोत्सव से ही इन गीतों का गायन आरम्भ होता है। वर तथा कन्या दोनों के घरों में गाये जाने वाले इन गीतों पार्थक्य दिखाई पड़ता है। जहाँ वर पक्ष के गीतों में उल्लास और उत्साह की प्रचुर मात्रा दिखाई पड़ती है, वहीं कन्या पक्ष के गीतों में विषाट् की गहरी रेखा पायी जाती है। विवाह को धार्मिक संस्कार माना जाता है। कन्यादान एक पुतीत कर्म माना जाता है-
अन्नदान के दान ना कहीं, सोना दान जगदीस जी।
कन्यादान उतिम बड़ बाबा जाहु मन राखहु ज्ञानजी।
हिन्दुओं में विवाह के समय गोत्र, पिंड और पूज्य का विशेष ध्यान रखा जाता है। वहाँ स्वर्ण विवाह ही मान्य है। सगोत्र और सपिण्ड विवाह नहीं होता है। विवाह के लिए कन्यापक्ष से पिता, भाई, ब्राम्हण, नाई आदि वरक्षा के लिए जाते हैं। इसके बाद तिलकोत्सव होता है। तिलकोपरान्त सगुन के गीत गाये जाते हैं। विवाह संस्कार में नेवता, माटीकोड़ा, हरदी, लावा भुजाना, भतवानि, नहकू-नहावन, ईमली घोटावन, परिछन, माड़ो गाडऩा, कोहबर, द्वारपूजा, लावा, मेलन, भाँवरि, सिन्दूरदान, हवन तथा लाजाहोम आदि कृत्य सम्पन्न होते हैं। विवोहपरान्त कन्य की विदाई होती है। विवाह के सुअवसर पर शुभगीतों(सगुन)का गायन होता है-
आरे आरे सगुनी, सगुनबा भल आइल।
तोहरे सगुनवा ए सगुनी, होरबेला बिआह।
आरे और कोइरिया हरदिया लेइरे आउ।
तोहरे हरदिया ए कोइदिनि होरबेला बिआह।
चुटुकी सेनुरवा महँग भइले बाबा, चुनरी भइल अनमोल।
चुटकी भरो सेनुरवा के कारन, बाबा छुटेला नगरिया तोहार।
भारत की प्रत्येक भाषा और बोली में इस संस्कार से संबंधित सभी रीति रिवाजों और परम्पराओं के गीत विद्यमान हैं। ये लोकगीत अवसरानुकुल कानों में रस घोलने की शक्ति रखते हैं।
ऋतु सम्बन्धी गीत:- भारत संस्कार का एक ऐसा अद्भुत भू-भाग है, जहाँ विभिन्न ऋतुएँ, अपने सम्मोहक रूप से भारतवासियों के मन को आन्दोलित करती हैं और अपने हृदय के उद्गार को वह संगीतमयवाणी देकर सहज भाव से लोकभाषा में अभिव्यक्त करता है। भारत में छह ऋतुएँ होती हैं तथा गर्मी, वर्षा, जाड़ा तीन मौसम होते हैं। प्रत्येक ऋतु और मौसम में अलग-अलग प्रकार के गीतों का प्रचलन है।
उत्तरी भारत में कजली, तीज, चैता, होली, फाग के गीत विशेष रूप से प्रचलित हैं। इन ऋतुगीतों के साथ बारह मासा के गीत गाये जाते हैं। सावन के मनभावन महीने में उत्तर प्रदेश में कजली गाने की विशेष प्रथा है। इस मास में प्रकृति सर्वत्र हरी-भरी दिखाई देती है। भक्तप्रवर सूरदास जी ने अपनी बंद  आँखों के माध्यम से प्राकृतिक छटा का मनोहारी चित्र प्रस्तुत किया है-
जहँ देखौ तहँ स्यायममयी है।
स्याम कुंज वन यमुना स्यामा, स्याम स्याम घनछटा छाई है।
वर्षा ऋतु में जब गगन-मंडल काले-काले मेघों से आच्छादित दृष्टिगोचर होता है, तब इसी प्राकृतिक परिवेश के निर्बन्ध वातावरण में कजली का गायन होता है। तब ऐसा प्रतीत होता है कि श्यामवर्ण के इन्ही मेघों के काल में गाये-जाने के कारण इन गीतों का नाम 'कजलीÓपड़ा। सावन तथा भादों की शुक्ल पक्ष की तीज-जिस दिन कजली के गीत विशेष रूप से गाये जाते हैं इनका नाम ही कजली तीज है। ये गीत श्रृंगार रस से ओत-प्रोत होते हैं। यद्यपि इन गीतों में श्रृंगार के दोनो पक्षों की झाँकी देखने को मिलती है किन्तु संयोग श्रृगार की ही प्रधानता अधिक है। वर्षा की फुहार के साथ कजली की गुहार हो ही जाती है। कजली की धुन की गुनगुनाहट सब के कंठ में घूमने लगती है। डाल पर लगे झूले के बिना कजली का गायन सूना लगता है। हृदय के उठे उमंग को प्राकृतिक रूप से हम कजली के माध्यम से ही व्यक्त कर सकते हैं। हरे रामा की टेक तो मील का पत्थर बन गयी है, जिससे ध्वनि स्वयं नर्तन करने लगती है।
गड़बड़ मिरजापुर की कजरिया चहुँ दिशि छाई बदरिया ना।
उत्तर में गंगाजी की लहरइ ताल तरंग चहूँ दिरिश छहरइ।
चमकइ रहि रहि के बीजुरिया, चहुँ दिशि छाई बदरिया ना।
यों तो उत्तरप्रदेश में सर्वत्र कजली गायी जाती है किन्तु मिर्जापुर की कजली विश्वप्रसिद्ध है। कजली का प्रमुख प्रतिमाद्य प्रेम है। ये गीत श्रृंगार रस से ओतप्रोत होते हैं।
फाल्गुन मास में होली के अवसर पर गीत विशेष गाये जाते हैं जिसे होली या फगुआ कहते हैं। ये फागगीत के नाम से प्रसिद्ध हैं। होली हिन्दुओं का प्रमुख त्यौहार है। इस त्यौहार को मनाने के पीछे होलिका की पौराणिक कथा है। जिस आदर्श और निष्ठा को बनाये रखने के लिए यह त्यौहार मनाया जाता है, वह आदर्श और उद्देश्य जब इस त्यौहार में नहीं है। परन्तु इतना सत्य है कि बसन्त पंचमी के आगमन के साथ ही होली का रंग लोगों पर चढऩे लगता है। राम-कृष्ण उत्तरी भारत के अवतारी पुरूष हैं, इसलिए वे यहाँ की संस्कृति में समाये हुए हैं। इसलिए लोक कंठ झूमकर गाता है-
होरी खेलैं रघुबीरा अवध में होली खेलैं रघुबीरा।
केकेर हाथ कनक पिचकारी केकरे हाथ अबीरा।
राम के हाथ कनक पिचकारी सीता के हाथ अबीरा।
होरी खेलैं रघुबीरा अवध में।
ब्रजमंडल की होली विश्वप्रसिद्ध है। इस त्यौहार में आनन्द और मस्ती का सवरूप दिखाई देता है। होली गीत में कही राधा और कृष्ण होली खेलते दिखाई पड़ते हैं तो कही शिव भी होली खेलते हैं।
ब्रज में हरि होरी मचाई।
इतते आवत नवल राधिका उतते कुँवर कन्हाई।
हिल मिल फाग परस्पर खेलत शोभा बरनि न जाई।
होली गीत परम्परागत तो हैं ही, इनमें राष्ट्रीय चेतना के स्वर भी मिलते हैं। १८५७ के प्रथम स्वाधीनता संग्राम सेनानी वीर कुँवर सिंह की वीरता का वर्णन भी होलीगीत में मिलता है।
भोजपुर अइसे होली मचाई।
गोली बारूद के रंग बनाये, तोपन के पिचकारी।
बीच भोजपुर में फाग मचल बा,
खेलैं कुँवर सिंह भाई।
होली के गीतों की गति, उनकी भाषा का बन्ध और स्वरों का संधान अत्यन्त मधुर होता है। प्रेम की रंगीन फुलझडिय़ाँ और वैभववती वन-वीथियों के नैसर्गिक चित्रण होली की संगीत महफिलों में ताने-बाने का काम करते हैं। होली के गीत चैत्र माह तक गाये जाते हैं। चैत के महीने में गाये जाने के कारण इस गीत को चैता कहा जाता है। लोकगीतों के विभिन्न प्रकारों में मधुरता, सरलता और कोमलता के कारण चैता अपनी सानी नहीं रखता। चैता भलकुटिया और साधारण दो प्रकार का होता है। दोनों हाथों में झाल नामक वाद्य के साथ समूह में गाया जाने वाला चैता झलकुटिया कहा जाता हैं। साधारण चैता वह है जिसे कोई व्यक्ति विशेष गाता हैं। जब चैता सामूहिक रूप से गाया जाता है तब गवैये दो दलों में विभक्त हो जाते हैं। पहला दल प्रथम पंक्ति कहता है तेा दूसरा दल उसके टेक पद को उच्च स्वर में गाता है। इसी प्रकार गीत का क्रम चलता रहता है। चैता प्रेम के गीत होते हैं। इसमें संयोग, श्रृंगार की कथा रागों में निबद्ध होती है। इनमें कहीं आलसी पति को सूर्याेदय के बाद तक सोने से जागने का वर्णन है, तो कहीं पति और पत्नी की प्रणय-कलह की झाँकी दृष्टिगोचर होती है। कही ननंद और भावज के पनघट पर पानी भरते समय किसी चरित्रहीन पुरूष द्वारा छेडख़ानी का उल्लेख है, तो कहीं सिर पर मटकी रखकर दही बेचने वाली ग्वालिनों से कृष्ण के द्वारा गोरस माँगने का वर्णन है। मैथिली में चैता को चैतावर कहते हैं। इसमें बसन्त की मस्ती और रंगीन भावनओं का अनुपम सौन्दर्य अंकित किया गया है। प्रिय वियोगिनी नायिका अपने प्रियतम का समाचार कौए से पूछती हुई कहती है-
ननदी के अँगना चननवा के गछिया हो रामा।
ताही तर कगवा बोलेला सुवहन हो रामा।
तोके देबो कगवा  दूध भात खोरवा हो रामा।
तनि एक सँइया के कुसल बतलावा हो रामा।
आलसी पति सूर्याेदय के पश्चात भी सोया हुआ है। उसे जगाने का अथक प्रयास उसकी पत्नी करती है तथा ननद से उसे जगाने के लिए कहती है-
रामा सांझहि के सुतल फूटली किरनिआ,
तंबो नहिं जागैले हमारे बहभुआ हो रामा।
रामा गोड़ तोरा लागी लें लहुरी ननदियाँ हो रामा,
तनि एक आपन भइया के जगइबो हो रामा
पावस ऋतु में जो गीत गाये जाते हैं उन्हें 'बारहमासाÓकहते हैं। इन गीतों में विरहिणी की वेदना की अभिव्यक्ति की जाती है। जीविकोपार्जन के लिए पति परदेश गया है, बहुत दिन हो गये किन्तु लौटकर नहीं आया है। वर्षाऋतु में उसका छप्पर चू रहा है, किन्तु उसको छाने वाला कोई नहीं है। ऐसी स्थिति में विरहिणी वेदना की पराकाष्ठा पर पहुँच जाती है और उसकी मनोव्यथा बारहमासे के रूप में प्रकट होती है। इन गीतों में पति के वियोग के कारण बारह महीनों में जो-जो कष्ट उठाने पड़ते हैं, उसका बड़ा ही माॢमकवर्णन होता है। इसीलिए इन विरह गीतों को बारहमासा कहते हैं।
हिन्दी साहित्य में बारहमासा लिखने की परम्परा प्राचीन है। सुप्रसिद्ध सूफी कवि जायसी ने पद्मावत में नागमती का वियोग वर्णन बारहमासा के अन्तर्गत किया है। अपभ्रंश कवि अब्र्दुरहमान ने संदेशरासक नायिका की विरहजन्य दशा का वर्णन इसी शैली में किया है। बारहमासा पावसऋतु का मधुर गीत है। इस लोकगीत में वियोगावस्था की करूण तथा विरहदशा की मार्मिक अभिव्यंजना मिलती है। बारहमासा आषाढ़ महीने से आरम्भ होकर ज्येष्ठाषाढ़ पर समाप्त होता है। इसमें विरहिणी की विरह व्यथा का मार्मिक चित्रण होता है-
सवनवा मोरा लेखे बैरी भइल।
भादौं भवन सोहावन न लोगे आसिन मोहि ना सुहाई।
कातिक कंत बिदेस गइल हो, समुझि समुझि पछिताई।
अगहन आइल ना, कहि गइल उधौ, पूस बितल भरि मास।
माघ मास जोवन के मातल, कइसे धरब जिऊ आस।
फागुन फरकेला नैन हमार, चैत मास सुनि पाई।
पियना ने अइहन एहि बैसाखे, फुलवन सेजिया सजाई।
जेठ मास में आकुल जैसे राधे, नाहिं बाड़े साम हमार।
सवनवा मोरा लेखे बैरी भइल असाढ़।
इस प्रकार बारहमासा लोकजन की विरहजन्य मनोवेदनाओं की अभिव्यक्ति है। इसमें वियोगिनी अपनी विरह व्यथा कहकर कुछ शान्ति का अनुभव करती है।
श्रमगीत:- श्रमगीत वे गाते हैं जो किसी काम को करते समय गाये जाते हैं। प्राय: देखा जाता है कि मजदूर लोग अपनी शारीरिक थकावट को दूर करने के लिए काम करते समय गाना भी गाते जाते हैं। इससे काम करने में मन लगा रहता है और परिश्रम का पता नहीं चलता। इस प्रकार के गीतों में जँतसार, रोपनी, सोहनी आदि के गीत प्रमुख हैं।
चक्की पीसते समय जो गीत गाये जाते हैं उन्हें जँतसार या जाँत के गीत कहा जाता है। धान की रोपाई का कार्य बहुधा स्त्रियाँ करती हैं। अत: बैठकर अथवा खड़े होकर यह कार्य करना कठिन है। यह कार्य झुककर किया जाता है। खेत की बोआई-रोपाई हो जाने के बाद अनावश्यक खर-पतवार खेत में उग जाते हैं। ऐसे अनावश्यक पौधों और घास को निकालने की क्रिया को सोनही या निराई कहते हैं। रोपनी करते समय जिस प्रकार स्त्रियाँ गीत गाकर अपनी थकान को दूर करती हैं, उसी प्रकार सोहनी करते समय भी गीत गाती हैं। खेतों में जब फसल पक जाती हैं तब किसान उसे काटने में जुट जाते हैं। कटाई का यह कार्य भी बहुत श्रमसाध्य होता है। दिन में भयंकर गर्मी और हवा के कारण यह कार्य भोर में ही आरम्भ कर दिया जाता है। खेत काटते समय जो गीत गाये जाते हैं उन्हें ''कटनीÓÓ  या ''कटियाÓÓ  के गीत कहते हैं।
जाँते पर आटा पीसते समय जँतसार गीत का पहले बड़ा प्रचलन था। जाँते का प्रचलन अब धीरे-धीरे समाप्त हो चला है। पहले घर में जाँता रहता था तथा भोर में उठकर स्त्रियाँ आटा पीसतीं थीं। जँतसार गीत में बन्ध्या स्त्री की वेदना तथा विधवा का करुण क्रन्दन मिलता है। पारिवारिक जीवन की करुण कथा भी इस गीत में मिलती है-
सेर भरि गेहुआँ रे सासु जोखि दिहली हो रामा,
अरे जतवाँ गड़वली गज ओबरि हो रामा,
जतवाँ धइले साँवरि भुराते हो रामा,
बाट बटोहिया तुहू मोरे, भइया हो रामा,
पिया से कहिहि सनेस धाइ के हो रामा।
जँतसार, रोपनी, सोनी के श्रमगीतों के अतिरिक्त अन्य श्रमगीत भी मिलते हैं जिन्हें गाकर लोग अपनी थकान मिटाते हैं। कोल्हू चलाते समय, पैदल चलते समय, धोबी कपड़े धाते समय, चरवाहे गाय चराते समय विभिन्न प्रकार के गीत गाकर अपने श्रम का परिहरण करते हैं।
त्यौहार एवं व्रत संबंधी गीत- हमारा देश एक धर्मप्रिय देश है। यहाँ के लोग विभिन्न धर्मों के अनुयायी हैं। हिन्दू धर्म में अनेक शाखाएँ एवं उपशाखाएँ विद्यमान हैं। यहाँ के नर-नारी विभिन्न देवी-देवताओं की उपासना करते हैं। यहाँ कोई न कोई्रवत या त्यौहार हर मास होता रहता है। इन अवसरों पर स्त्रियां विविध प्रकार के गीत गाती हैं। तीज, नागपंचमी, जन्माष्टमी, पिंडिया , गोधना, बहुरा, निउतिया, छठ आदि व्रतों के अवसर पर जो गीत गाये जाते हैं उन्हें व्रत तथा त्यौहार संबंधी गीत कहते हैं।
तीज विवाहित स्त्रियों का व्रत है जो भादो शुक्ल तृतीया को मनाया जाता है। सौभाग्यवती बनी रहने के उद्देश्य एवं सभी पापकर्मों के क्षय के लिए यह व्रत रखा जाता है। स्नानोपरांत स्त्रियाँ गौरी की उपासना करती हैं। जो स्त्रियाँ अपने मायके में रहती हैं उनके लिए ससुराल से पीली साड़ी, सिन्दूर, चूड़ी, मिठाई आदि भेजी जाती है। पति के मंगल कामना हेतु यह व्रत स्त्रियाँ रखती हैं। भोजपुरी और अवधी में समान उमंग और गौरव के साथ यह पर्व मनाया जाता है। हरितालिका तीज का व्रत विशेष रुप से शिवजी का व्रत है। इस व्रत के साथ शिव और पार्वती के विवाह संबंधित कथा प्रचलित है।
गौरी बियाहन आये भोला अब गौरी बियाहन आये।
आजन बाजन एकौ न देखौ डमरु बजाइ चले आये।
नलकी पलकी एकौ न देखौ बसहा बरद चढि़ आये।
गहना गुरिया एकौ न देखौ रुद्रमाला पहिन के आये।
मौर आ कलँगा एकौ न देखौ जटा जूट धरि आये।
''बहुराÓÓ  व्रत पुत्र की मंगल कामना के लिए किया जाता है। यह व्रत भाद्र पद कृष्ण चतुर्थी को किया जाता है। इसे ''बहुलाÓÓ  भी कहते हैं। इस व्रत की कथा की नायिका बहुला है। इसके नामकरण का यही कारण है। इस व्रत में स्त्रियाँ दिन भर व्रत करती हैं और संध्या समय स्नान करके गाय, बछड़ा और सिंह की प्रतिमा बनाकर पूजती हैं। इस अवसर पर गीत गाने का प्रचलन है। भोजपुरी क्षेत्र में बहुरा के जो गीत गाये जाते हैं वे श्रृंगार से आपूरित रहते हैं। बहुरा के गीतों में कथावस्तु के आधार पर माता का पुत्र के प्रति अकृत्रिम स्नेह तथा सत्य प्रतिज्ञा का जो स्वाभाविक उल्लेख होना चाहिए, वह उन गीतों में नहीं है। इस अवसर के गीतों में सास-बहू का विरोध, पति-पत्नी का प्रेम, किसी पुरुष का स्त्री के प्रति आकर्षण आदि का वर्णन अधिक पाया जाता है। निम्नलिखित गीत में रेशमी नामक स्त्री को बाजार में देखकर किसी राजा के आकर्षित हो जाने का वर्णन प्रस्तुत है-
पहिर ओहिर रेसमी चलती बजरिया
परि गइले रजवा की दीठि गोरिया रेसमी
किया गोरी रेसमी रे माँचवा के ढारल
किया तोरा गहेला सुनार, गोरिया, रेसमी
नाहीं मोरा रजवारे माँचवा के ढारल,
नाहीं हमरा के गहेला सोनार गोरिया रेसमी
जनम देता राम माई रे बायवा
सुरति उरेहे भगवान गोरिया रेसमी।
रेसमी श्रंृगार करके बाजार गयी है तो राजा उसके रंग रुप पर आकर्षित हो गया है। वह जानना चाहता है कि उसके स्वरुप को क्या किसी सुनार ने ढालकर गढ़ा है? इस पर वह स्त्री बड़े ही सरल स्वभाव से कहती है कि वह किसी साँचे में ढली हुई नहीं है और न ही उसे किसी सुनार ने ही तराशा है। उसे जन्म देने वाले उसके माता-पिता ही हैं और मेरी सूरत ईश्वर द्वारा ही निर्मित है। इस गीत में स्त्री की सरलता और उसका भोपालन अत्यंत मधुर है।
गोधन का व्रत कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को किया जाता है। ''गोधनÓÓ  शब्द गोवर्धन का अपभ्रंश है। प्राचीनकाल से ही गोवर्धन पूजा का उल्लेख मिलता है। सर्वप्रथम श्रीकृष्ण ने इन्द्र पूजा के विरोध में गोवर्धन पूजा का महत्व प्रतिपादित किया था। गोधन पूजा उसी गोवर्धन पूजा के प्रतीक के रुप में मनाया जाता है। इस व्रत में गोबर की बनी हुई मनुष्य की प्रतिमा इन्द्र की प्रतिकृति होती है। गोधन कूटने की यह प्रथा इन्द्र के मद को चूर्ण करने का प्रतीक स्वरुप है। इस व्रत का प्रमुख उद्ेश्य भाई-बहन में प्रेम-भावना की वृद्धि है।
गोधन बाबा अइले या हुनरे का ले बइठे के देऊँ।
चनन काठ के पिढइया रे उहै बैठे के देऊँ।।
इसी प्रकार गोधन पूजा के बाद पिंडिया का व्रत किया जाता है। यह व्रत कार्तिक शुक्ल पक्ष द्वितीया से प्रारंभ होकर अगहन शुक्ल पक्ष प्रतिपदा तक एक माह तक चलता है। इसमें गाँव की लड़किया किसी एक  स्थान पर गोबर की पिंडिया लगाती है। इस उत्सव को भाई के कल्याण के लिए किया जाता है।
लडुवा चिउवा से हम पूजबि पिडिअवा हो
तोहरि बधइया भइया पिडिया बरतिया हो।
पुत्रवती स्त्रियाँ अपने पुत्र के संकट निवारण के लिए जिउतिया का व्रत करती हैं। यह व्रत आश्विन कृष्ण अष्टमी के दिन होता है। इस व्रत की पूर्व संध्या पर स्त्रियाँ सरपुतिया की सब्जी खाती हैं। दिन भर व्रत के बाद स्नान करके नए कपड़े पहनती हैं तथा निर्दिष्ट जलाशय के किनारे गोठ में जाती हैं। नए धागे से गुंथी हुई चाँदी-सोनी की जिउतिया, लड्डू, नया वस्त्र, फल फूल आदि थाली में सजाकर गोठ में रखा जाता है। घी का दीपक जलाया जाता है। इसके बाद सभी स्त्रियाँ गीत गाती हुई अपने घर जाती हैं। अगले दिन नवमीं को अन्न जल ग्रहण के साथ पारणा होती है।
डाला छठ व्रत का प्रचलन मगध, मिथिला और भोजपुर में सर्वाधिक है। वैसे इसे बिहार प्रदेश का राष्ट्रीय व्रत माना जाता है। धीरे-धीरे इसका प्रचलन पूर्वी उत्तरप्रदेश में भी हो गया है। बिहार के जो लोग अन्य प्रांतों में रहते हंै वे लोग इस त्यौहार को वहीं मनाते हैं। यह पर्व कार्तिक शुक्ल षष्ठी को मनाया जाता है। इस  व्रत को ''छठ पूजाÓÓ  भी कहते हैं। यह व्रत जिउतिया के समान ही अत्यंत कठिन है। इस व्रत का प्रधान उद्देश्य पुत्र की प्राप्ति और उसका दीर्घायु होना है। वास्तव में छठ का व्रत भगवान सूर्य का व्रत है क्योंकि इन्हीं की पूजा के बाद स्त्रियाँ अन्न ग्रहण करती हैं। इस व्रत में सभी सामग्री एक डाला (टोकरी) में रखी जाती है, इसी से इसे ''डाला छठÓÓ  कहते हैं। इसमें दो दिन का निर्जला उपवस करना पड़ता है। पंचमी के दिन एक बार बिना नमक का भोजन कर व्रत प्रारंभ किया जाता है। षष्ठी को संध्या के समय सूर्य को अघ्र्य दिया जाता है। सप्तमी को उगते सूर्य को अघ्र्य देकर इसका समापन किया जाता है। सप्तमी को सूर्योदय के पूर्व अर्धरात्रि में ही स्त्रियाँ गीत गाती हुई नदी या पोखर के किनारे एकत्रित होती हैं। व्रती स्त्रियाँ एवं पुरुष कमर तक जल में खड़े होकर दो दिन के उपवास से शिथिल शरीर के साथ तीन-चार घंटे हाथ जोड़कर सूर्योदय की प्रतीक्षा करते हैं। सूर्योदय होने पर अघ्र्य के पश्चात व्रत समाप्त हो जाता है।
खोइका अछलावा गेडुववा जुड़ हो पानी,
चलली उरा देई आदित मनाव।
थोरा नाहि सेबो ए आदित, बहुतन मागि ले,
पाँच पुतवा एआपित हमरा के दीन्हि।
जाति सम्बन्धी (कौमी) गीत- लोकगीतों में कुछ ऐसे भी गीत हैं जो किसी जाति विशेष से जुड़ हुए हैं। इन्हें जातीय अथवा कौमी गीत कहा जाता है। ऐसे लोकगीतों का संबंध अधिकतर पिछड़ी एवं अनुसूचित जातियों से है। एक समय था जब ये जातियाँ जातीय लोकगीतों को गा-बजाकर विवाह आदि के समय अपना काम चला लेती थीं किन्तु नगरीय प्रभाव के कारण अब इनमें परिवर्तन हो गया है। अब ये लोकगीत किसी जाति विशेष के नहीं रह गए हैं। धनोपार्जन की लोलुपता से इन गीतों ने अन्य जाति के लोगों को भी आकर्षित किया है। फलस्वरुप रेडियो एवं कलाकार के रुप में सभी लोग इस होड़ में जुट गये हैं। फिर भी ये कौमी गीत आज भी अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं।
''बिरहा  अहीर जाति का प्रसिद्ध गीत है। शादी-विवाह के अवसर पर, रास्ता चलते समय, गाड़ी हाँकते समय, पशुओं को चराते समय, लोगों को बिरहा गाते हुए सुना जा सकता है। बिरहा की लोकप्रियता विदेशों में भी है। जो लोग भारत से जाकर विदेशों में बस गए हैं उनके साथ यहां के लोकगीत किसी न किसी रुप में जीवित हैं।
''बिरहा  की उत्पत्ति विरह शब्द से हुई है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारंभ में इन गीतों का वण्र्य-विषय विरह रहा होगा, किन्तु आजकल इन गीतों का प्रतिपाद्य विषय कोई भी वस्तु हो सकती है। डॉ. ग्रियर्सन के अनुसार यद्यपि इन गीतों का कोई साहित्यिक महत्व नहीं है तथापि जनता के मनोभावों और आकांक्षाओं के प्रतीक होने के कारण इनका सामाजिक महत्व अधिक है। बिरहा एक छोटा गीत है, परन्तु अपनी सुगठित पदावली और चुभती शैली के कारण सहृदय-हृदय को प्रभावित किए बिना नहीं रहता।
बिरहा के कई रुप हमें मिलते हैं। कुछ आकार में छोटै होते हैं तो कुछ बड़े होते हैं। छोटे बिरहा चार कडिय़ों के होते हैं जिन्हें ''चरकडिय़ाÓÓ कहते हैं ये बिरहा सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। लम्बे बिरहा गाथा के रुप में होते हैं, जिनमें रामायण तथा महाभारत की कथाएँ होती हैं अथवा ऐतिहासिक सामाजिक समस्याओं और घटनाओं का कोई महत्वपूर्ण विवरण रहता है। 
साभार - रउताही 2015

लोकगीतों में रस-व्यंजना

लोकगीतों में रस-परिपाक की दृष्टि से विचार करने पर यह ज्ञात होता है कि उसमें रस का अद्वितीय सागर हिलोंरे लेता हुआ परिलक्षित होता है। जन समुदाय के ये गीत रस से सने हुए हैं। इन गीतों की रसात्मकता के समक्ष बड़े-बड़े कवियों की सूक्तियां नीरस जान पड़ती हैं। ये लोकगीत रस से लबालब भरे हुए प्याले की भाँति होते हैं जिनके पीने से प्यास बूझने के बजाय और अधिक बढ़ती जाती है। रस की यह प्रक्रिया हिन्दी के लोकगीतों तक ही सीमित नहीं  है, अपितु बंगला एवं सभी प्रदेशों के लोकगीतों में यही रस का प्रवाह परिलक्षित होता है। लोकगीतों की अजस्र पयस्वनी जिस देश में प्रवाहित होती है, वह अपने तट पर स्थित वृक्षों को ही जीवन प्रदान नहीं करती, अपितु उसका शीतल प्रवाह सभी जनों को समान रुप से आनंद प्रदान करता है। अपनी इसी रसात्मकता के कारण ही लोक जीवन से संबंधित ये गीत मानव हृदय को इतना उत्प्रेरित करते हैं कि शुष्क हृदय भी इनको एक बार सुनकर द्रवित हुए बिना नहीं रहता है।
लोकगीतों में नारी जीवन का चित्र विशेष रुप से देखने को मिलता है। एक अबला जीवन की करुण कहानी सोहर, बारहमासा, कजली, झूमर में परिलक्षित होती है। इसी संदर्भ में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की पंक्तियां हमारे मानस-सागर में हिलोरें लेने लगती है।
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी
आंचल में है दूध और आँखों में पानी।।
पुत्र या पुत्री के जन्मोत्सव से लेकर गौना के गीतों तक स्त्री जीवन की किसी न किसी दशा का वर्णन इनमें उपलब्ध होता ही है, यों तो लोकगीतों में समस्त रसों का परिपाक दृष्टिगत होता है। वैवाहिक प्रसंगों के अंतर्गत हास्यरस का भी सम्मिश्रण रहता है। आल्हा-उदल से संबंधित लोकगीतों में वीर रस की प्रचुरता विद्यमान रहती है। सोरठी की कथा में अद्भुत रस निहित रहता है।
इस परिपाक की दृष्टि से लोकगीतों में सर्वाधिक श्रृंगार रस से संबंधित इतिवृत्त वर्णित किये जाते हैं। पे्रमी-प्रेमिका के मिलन एवं विछोह दोनों ही स्थितियों का चित्रण श्रृंगार का वण्र्य-विषय होता है। रसिक समाज  को यह भलीभाँति ज्ञात है कि श्रृंगार रस के दो भेद होते हैं। प्रथम संयोग श्रृंगार है तो दूसरा वियोग श्रृंगार। फलत: इसी के अनुरुप लोकगीतों में भी हमें श्रृंगार के दोनों पक्ष देखने को मिलते हैं। रीतिकालीन कवियों और लोकगीतकारों के गीतों में प्रयुक्त श्रृंगार रस में पर्याप्त अंतर पाया जाता है। लोकगीतों में जो श्रृंगार रस पाया जाता है, वह नितांत पवित्र संयमित शुद्ध एवं दिव्यता की पराकाष्ठा है, जबकि रीतिकालीन कवियों के काव्य में श्रृंगार रस को भद्दा, अश्लील एवं कुरुचिपूर्ण प्रदर्शन किया गया है। इसका मुख्यत: कारण यही है कि रीतिकाल के कवि लोग राज्याश्रित कवि होते थे। अत: उन्हें अपने आश्रयदाता को प्रसन्न करने के लिए श्रृंगारिक कविताओं की रचना करनी पड़ती थी। इसलिए उनमें श्रृंगारिकता का होना आवश्यक था जबकि लोकगीत स्वान्त: सुखाय ही लिखे जाते हैं।
लोकगीतों में श्रृंगार रस का स्वरुप हमें  ''सोहरÓÓ अथवा विवाह के गीतों में देखने को मिलता है। जिस प्रकार से महाकवि कालिदास ने रघुवंशम में गर्भवती सुदक्षिणा का वर्णन किया है, ठीक उसी प्रकार का वर्णन हमें लोकगीतों में भी देखने को मिलता है। गर्भवती स्त्री की देहयष्टि, दोहद तथा प्रसव के कष्टों का उल्लेख स्थान स्थान पर देखने को मिलता है। अधोलिखित गीत में एक गर्भवती स्त्री का सजीव चित्रण बहुत ही सुंदर ढंग से किया गया है-
सुपली खेलत तुहु ननदी, मोर पियारी ननदी रे।
ए ननदी आयन भइया देई बोलाई,
हम दरद बेआकुल रे
जुववा खेलत तुहु, भइया, अबस वीरन भइया हो
ए भइया प्रानप्यारी भउजी हमार
दरद से व्याकुल हो।
डांड मोर नथेला गाहा गहि, कहार मोर टनकेला हो।
ए प्रभु पिरिथवी मोरे सुझेली अलोपित
अंगुरी में दम बसे हो।
पुत्रोत्पत्ति के अवसर पर आनन्द और उत्साह का उल्लेख प्राय: सभी गीतों में परिलक्षित होता है। इसी अवसर पर सास रुपया लुटाती है ननद ब्राह्मणों को मुहर दान में देती है। अन्य स्त्रियाँ बन्धु-बान्धवों को अन्य वस्तुएं लुटा देती हैं। इन सभी स्वरुपों से युक्त गीत की पंक्तियाँ दर्शनीय है-
सासु जे आवेली गवइत, ननदी बजवइत रे
ललना गोतिनि आवेली विसाधल
गोतिन के घर सोहर रे
सासु लुटावेलि रुपैया
त ननदी मोहरवा रे
ललना गोतिनि लुटावे ली बनउरवा
गोतिनियां फेरिहे पाँइच रे
वैवाहिक गीतों में श्रृंगार रस का आनन्द अत्यधिक मात्रा में मिलता है। विवाह के बाद जब वर को ''कोहबरÓÓ में ले जाते हैं तब उस समय के गीत अधिक श्रृंगारिक हो जाते हैं। लेकिन श्रृंगारिक होने के बावजूद भी उनमें अश्लीलता एवं भद्दापन रंचमात्र भी नहीं झलकने पाता है-
झोप झोपरी रे फरेला सोपारी,
तर नरियरवा के बारी
कंचन सेज डसावेली कवन देई
केहूँ न आवेला केहू जाई।
धावत धूपत अइले कबन राम
मोहर दे गइले साई
आधी राति जानि अहइ मोरे राजा हो,
हम रउरा करब लेटाई।
निचवा रजाई रे उपरा बोलाई
ताहि बीचे हो खेला लटाई
अहो लाल ताहि बीचे खेला हो लटाई।
यद्यपि यह वर्णन संयोग श्रृंगार से संबंधित है, तथापि इसमें अश्लीलता कहीं नहीं है। यह अत्यंत शिष्ट और संयमित है।
करुणरस की अभिव्यक्ति परिस्थितिजन्य होती है। यह रस विशेष परिस्थिति में निष्पन्न होता है। जब कोई व्यक्ति भावावेश से पूर्ण होता है तो वही किसी व्यक्ति के पूछने पर फफक कर रोने लगता है। इसी सन्दर्भ में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने ''साकेतÓÓ के नवम सर्ग में कहा है कि
करुणे क्यों रोती है तू
उत्तर में तू और अधिक है रोई।
जब कभी किसी प्रिय जन का अभाव किसी को अखरने लगता है तब उसकी भावनाओं में कारुण्य परिलक्षित होने लगता है। लोकगीतों में भी करुणरस का उदे्रक सघन मात्रा में उपलब्ध होता है। करुणरस की अभिव्यक्ति लोकगीतों में तीन अवसरों  होता है। करुणरस की अभिव्यक्ति लोकगीतों में तीन अवसरों पर विशेष रुप से देखने को मिलती है-
1. विदाई
2. वियोग
और 3. वैधव्य
उपर्युक्त तीनों अवसरों पर सुखमय जीवन का अवसान होने लगता है तथा दु:ख का नवीन अध्याय प्रारंभ हो जाता है। जीवन के बसन्त में अचानक पतझड़ का साम्राज्य स्थापित हो जाता है। यह अवसर स्त्रियों के हृदय पर गहरी चोट करने के लिए पर्याप्त है। इस प्रकार के करुण गीतों को सुनकर किसका हृदय द्रवीभूत न होगा।
पुत्री जब अपने मायके से पति के घर जाती है तो उस समय विदाई का जो कारुणिक दृश्य उपस्थित होता है, उसका वर्णन वाणी के माध्यम से करना असम्भव है। पितृगृह के लाड-प्यार की स्मृतियाँ उसके हृदय को मसोसने लगती हैं। उसका भाव विह्ल हृदय आँसुओं के माध्यम से बह निकलता है। ऐसे अवसर पर धैर्यवान व्यक्तियों की आँखें भी नम हो जाती हैं। महाकवि कालिदास ने शकुंतला की विदाई के अवसर पर महर्षि कण्व के मुख से जिस प्रकार के हृदयोद्गार को व्यक्त कराया गया है, वह काव्य की अमूल्य धरोहर है।
लोकगीतों में पुत्री की विदाई के अवसर पर माता-पिता के रोदन का पारावार उमड़ पड़ता है। उन लोगों के रोदन से गंगा में बाढ़ आ जाती है। माता के रोदन से उसकी आँखों के सामने अँधेरा छा जाता है। भाई के रोदन से उसकी धोती और चरण तक भींग गये हंै, परन्तु भावज की आँखें गीली भी नहीं हुई हैं। इस परिवारिक स्थिति का करुण चित्रण अवलोकनीय है-
बाबा के रोवल गंगा बढि़ अइली
 आमा के रोवले अनोर
भइया के रोवले चरण धोती भीजै
भउजी नयनवा न लोर।
लोकगीतों में करुण रस की अभिव्यक्ति प्रिय वियोग के अवसर पर अत्यधिक मार्मिक हो जाती है। निम्नलिखित भोजपुरी में प्रेषितपतिका का नायिका अपनी दयनीय दशा को दर्शाती हुई कहती है कि-
धरावा रोवे धरिनि ए लोभियी,
बाहरवा राग हरिनवा
दाहारवा रोवे चाकवा चकइया
बिछोहवा कइले निखामोहिया।
लोकगीतों में पति को भौंरे के प्रतीक के रुप में चित्रित किया गया है, जो एक पुष्प के मकरन्द का पान करने के अंतर अन्य पुष्प से संबंध स्थापित करने चला जाता है। इसी आशंका से ग्रस्त स्त्री अपने पति से कहती है कि-
आजु के गइल भँवरा, कहिया ले लवटब
कतेक दिनवाँ हम जोहिब तोरि बटिया।
एक बन गइलीं दोसर बन गइली,
तीसरे बनवाँ मिलन गोरु चरवहवा।
गोरु चरवहवा तुही मोर भइया,
कतहू देखत ना, मोर भँवरवा परदेसिया।
इस गीत में वियोगिनी की व्याकुलता देखने योग्य है। प्रियतम की खोज में विरहिणी घर की सीमा तोड़कर बाहर निकल पड़ती है। अपने प्राणप्रिय को वन-वन खोजती है लेकिन कहीं पता नहीं चलता। ऐसी वियोगिनी की पीड़ा असह्य हो जाती है जो केवल अनुभवगम्य है।
वैधव्य के गीतों में करुणरस अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है। बाल-विधवाओं में कितना भोलापन भरा है जो अपने विवाह जैसी अजनबी चीज को जानती ही नहीं। उसकी दर्दभरी आहों से किसका हृदय विदीर्ण नहीं हो जाएगा। इनके गीतों में बड़ी तीव्र वेदना समाई हुई है। एक भोली-भाली बाल विधवा अपने पिता से लिपट कर रोती हुई पूछती है-
बाबा सिर मोरा रोवेला सेनुर बिनु
नयना कजरवा बिनु ए राम।
बाबा गोद मेरा रोवेला बालक बिनु
सेजिमा कन्हइया बिनु ए राम।
इसी प्रकार वैधव्यजनित अनेक गीतों में मार्मिक वेदना भरी पड़ी है जो कि परिस्थितिवश हुआ करती है।
लोकगीतों में शांत रस का परिपाक भी अपने भव्यतम रुप में दिखाई पड़ता है। भजनों में ऐहिक जीवन की नि:सारता और पारलौकिक जीवन की महत्ता प्रतिपादित की गई है। स्त्रियों की कामना के दो ही केन्द्र बिन्दु हैं- माँग और कोख अर्थात पति और पुत्र। इन दोनों के कल्याण के लिए वह अनेक देवी-देवताओं से मंगल की कामना किया करती हैं। इन देवियों में प्रमुख देवी षष्ठी माता (छठ माई) हैं जिनकी पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भोजपुरी प्रदेश में बड़े ही उमंग और उत्साह के साथ ही जाती है। कोई वन्ध्या स्त्री छठमाता से पुत्र की कामना करती हुई कहती है-
ए आमा के कोख पइसि सुते ले अदितमल
मोरे हो गइले बिहान
आरे हाली हाली उग ए अदितमल अरघ दिआऊ
फलवा फुलवा ले मालिनी बिटि ठाढ़
गोड़वा दु:खद तेरे, डांडवा पिरइले,
कब से जे हम बानी ठाढ़।
भजनों में शांत रस की प्रबलता परिलक्षित होती है। इसमें जीवन की अनित्यता और वैभव की क्षणभंगुरता का सुंदर प्रतिपादन मिलता है। लोकगीतों में हास्यरस का भी पुट देखने को मिलता है। यह आश्चर्य की बात है कि इन गीतों में ग्रामीण हास्य होते हुए भी ग्राम्यता नहीं है। वैवाहिक अवसरों पर ससुराल में वर एवं वधू के साथ जो हास-परिहास किया जाता है वह मधुर और विशुद्ध होता है। कहीं-कहीं इन गीतों में व्यंग्य इतना चुटीला होता है कि पाठक के हृदय पर उसका अमिट प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता।
भगवान शिव के विवाह के अवसर पर पार्वती की माता शिव की विचित्र तथा वीभत्स आकृति को देखकर डर जाती हैं और कहती हैं
धिया ले के उड़वी धिया के बुड़वी
धिया लेके खिलबो पाताल।
अइसन तपसिया के गउरा नाही देबो
बलु गउरा रहिहैं कुँआरि।
पार्वती अपनी माता से शिवजी की हुलिया का बखान करती है, जिसे सुनकर कोई भी व्यक्ति अपनी हँसी को रोकने में असमर्थ हो जाता है-
सूप अइसन दहिया ए आमा, बरघ अस आँखी।
उहे तपेसिया ए आसा, हमे भइल माई।
भँगिया विसत  ए आमा, जिया अकुलाई
धतुरा के गोलिया ए आमा, हथवा रे खिआई।
ऐसे हास्यपूर्ण चित्रण में हमारे लोकगीतकारों ने अपनी भावयित्री प्रतिभा का अद्भुत प्रदर्शन किया है।
जगनिक की अमर कृति ''परमाररासोÓÓ वीररस से संबंधित प्रसिद्ध लोककाव्य  है। आम जनमानस में यह कृति ''आल्हखंडÓÓ के नाम से प्रसिद्ध है। आल्हा का गायन करने वाले अल्हैत कहें जाते हैं। ये लोग जब आल्हा का सस्वर पाठ करते हैं, तब वृद्धों के हृदय में भी जोश हिलोरें लेने लगता है और उनके भुजदण्ड फड़कने लगते हैं तो युवा वर्ग की बात ही निराली है। जनकवि जगनिक द्वारा रचित ''आल्हखंडÓÓ आदिकालीन लोकगीत ही है। सिरसा गढ़ की लड़ाई का निम्नलिखित वर्णन दर्शनीय है जिसमें गाढ़बन्धता लाने के लिए कवि ने प्रसंगानुकूल उपयुक्त शब्दों का चयन किया है-
दोनों फौजन के अन्तर में, रहि गयो तीन पैग मैदान।
खट खट तेगा बाजन लागे, जूझन लगे अनेकन ज्वान।
बढ़े सिपाही दोनों दल के, सबके मारु मारु रटि लाग।
पैदल अभिर गये पैदल संग औ असवारन ते असवार।
हौदा के संग हौदा मिलि गये, हाथ्रि अड़ी दांत से दांत।
सूडि़ लपेटा हाथी होइगे और बहि चली रकत की धार।
प्रसिद्ध वीर कवि प्रसिद्ध नारायण सिंह ने भोजपुरी वीरकाव्य का सृजन किया है। सन् 1857 के विद्रोही नेता वीर कुंवर सिंह का वर्णन उन्होंने बड़ी ओजपूर्ण भाषा में किया है। अंग्रेजों के साथ कुंवर सिंह ने बड़े पराक्रम के साथ युद्ध किया और युद्धस्थल शत्रु के रक्त से लाल हो गया था-
छंद-छंद गोरन के काटि चलल
रनभूमि रकत से पाटि चलल।
सन् 1942 ई. में अंग्रेजों द्वारा पूर्वी उत्तरप्रदेश के बलिया जनपद में जो अत्याचार किये थे उसका सजीव स्वरुप कवि के द्वारा आधोलिखित रुप में व्यंजित कराया गया है-
सड़कन डालन से पाटि पाटि,
पूलन से दिहली काटि काटि।
तहसील खजाना लूट फूँकि,
अगवढि़ दिहनी तनख्वाह बाटि।
अपना खूनन से सींच सींच,
गड़ली हम झंडा जिला बीच।
गूंजल हमार जब विजय घोष,
आइल तब नेदर सोल नीच।
इस दृष्टान्त से यह अवश्य ही ज्ञात होता है कि कवि ने ओजस्वी भाषा का सहारा लेकर वीररस से अभिमंडित एक नहीं अनेक वीरगीतों का सृजन किया है। उनके ये गीत लोकसाहित्य की अक्षय्य निधि हैं।
उपर्युक्त रसों की पूर्ण व्यंजना के साथ लोकगीतों में अन्य रसों का भी सुंदर मंजुल परिपाक मिलता है। रस व्यंजना से परिपूर्ण ये गीत हृदय तंत्री को झंकृत कर देने में पूर्ण समर्थ हैं। लोककवियों ने लोकगीतों में विभिन्न रसों की अभिव्यक्ति करते हुए लोकसाहित्य को समृद्ध किया है। इन लोककवियों की रससंवेदना साहित्य की अनुपम धरोहर है। लोकगीतों में व्यंजित रसों की आस्वादकता शिष्ट साहित्य की रस व्यंजना से कथमपि न्यून नहीं है। जीवन के अनुभवों का यह रागात्मक अभिव्यंजन है। लोकगीत रस के निर्झर है। लोकगीतों स्वत: स्फूर्त भावोच्छ्वासों का सहज व सरल, अकृत्रिम एवं सगीतपूर्ण उद्गार है। यह लोक समाज का रसोद्वेग है। इन लोक गीतों की रसानुभूति में दुनिया को विश्रान्ति मिलती है। सहज रसात्मकता, स्वाभाविकता तथा स्पष्टता इन गीतों का प्राणतत्व है। यह रस-सरिता में निमज्जित करने वाली भावधारा है। गेयता तथा संगीतात्मकता इसकी रसमयी संप्रेषणीयता की मूल शक्ति है। लोकगीत अजातशत्रु हैं, अपराजेय है। कालचक्र भी इनके समक्ष नतमस्तक है।
साभार - रउताही 2015

लोकगीत

लोकगीत- जीवन का एक अद्भुत और अनोखा संसार है। माटी की सोंधी-सोंधी महक से आत्मा आत्मविभोर हो उठती है।
वेद भारतीय संस्कृति की अमृत धारा है। यदि वेदों में आत्मा-परमात्मा जीव जगत के बारे में गहन चिंतन मनन है तो लोकगीत इन्हीं धारणाओं को एक सूत्र में पिरोने का महान कार्य का एक नया आयाम है। लोकगीतों में सरस्वती को जिह्वा पर विराजने का आशीर्वाद माना जाता है। वेदों में शिव की स्तुति के संकेत है। लोकगीतकार ने उसे अपने ''बमलहरीÓÓ गीत में सजाकर गाया है। लोकगीतों में इन्द्र की स्तुति, उनसे अनुनय-विनय संबंधी अनेक गीत मिलते हैं। गृहय सूत्र और धर्मसूत्र साहित्य के आधार पर लोकगीतों में सांस्कृतिक परम्परा का निर्वाह निर्बाध गति से किया गया है। पुत्र जन्म और विवाह, यज्ञोपवित, संस्कार के समय का तो नारी-समाज ने पूरा साहित्य लोकगीतों के माध्यम से रच डाला। संतान जन्म के समय देवी देवताओं की स्तुतिगान और उनके प्रति कृतज्ञता के आभार व्यक्त की असंख्य लोकगीत मुखरित हो उठते हैं कभी गणपति वंदना तो कभी शिव-गौरी की कृपाकांक्षा कभी जातक में राम के गुणों की स्थापना है तो कभी कृष्ण की मनोहरता की। बालिकाएं, माताओं और बुजुर्ग महिलाओं के मधुर वाणी से लोकगीत सुनती हंै तो उनमें श्रेष्ठ संस्कारों का अंकुरण होता है। विवाह संबंधी लोक गीतों में भारतीय संस्कृति मुखरित हो उठती है। अचल दांपत्य, अंचल सुहाग, एक पत्नीनिष्ठ या पतिव्रता होना इन लोकगीतों का एक संदेश है।
कार्तिक माह में गाये जाने वाले लोकगीतों में राधा-कृष्ण गंगा स्नान तुलसी पूजन आदि मकर संक्रांति में गाये जाने वाले गीत, फाल्गुन में होली गीत, गंगा दशहरा, देवी जागरण के लोकगीतों की धारा प्रवाहित होती है। सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण के समय युगों से महिलाएं भक्ति तथा विरक्तिपरक लोकगीत गाती चली आ रही है। इनमें दो लोक गीत लोकप्रिय है। भर्तृहरि और सीता समाधि। राष्ट्रीय आंदोलन के समय नारियों ने गांधी आंदोलन और देश भक्ति गीतों से नवजागरण की ज्योत जलाई। लोकगीतों की यात्रा सदियों से चली आ रही है और जन मानस के मानस पटल में अंकित है, लोकगीतों में पारिवारिक संबंधों की मीठी तान मन को रोमांचित कर देती है। माता-पुत्र, पुत्री, सास-बहू, देवर-भाभी, भांजा, ननद, पति-पत्नी, जीजा-साली आदि। भाई-बहन संबंधी लोकगीतों का सुंदर चित्रण देखने को मिलता है। पारिवारिक संबंधों में करुणा, स्नेह, ठिठोली, व्यंग्य, आशीर्वाद, वात्सल्य, प्रेम की फुहार का मिश्रण होता है। ननद के पति, नंदोई, का रिश्ता सरहज के साथ ठिठोली, हास्य विनोद का होता है। लोकगीतों में बचपन की तोतली मीठी बातें, जवानी नयी उमंग और बुढ़ापा का एक सार्थक संयोग को रेखांकन, संगीतमय स्वरों से तन मन में उत्साह की एक लहर दौड़ पड़ती है। लोकगीतकारों में जवानी को फूलों की बगिया तो बुढ़ापा को ढलते सूर्य कहते हैं। सूर्योदय और सूर्यअस्त दोनों मानव जीवन का दर्शन होता है। यह भी सत्य है बुजुर्ग व्यक्ति से ही घर की शोभा है। लोकगीतों का विश्व में अथाह भण्डार है। इसे समेटने एवं आत्मसात करने की आवश्यकता है। गांव का जंगलों में दिन भर के कठोर परिश्रम के बाद थिरकते हुए कदम सारा वातावरण संगीत और लोकगीतों से झूम उठता है। एक जोश, स्फूर्ति, उमंग की अनुभूति करा जाता है।
पौराणिक साहित्य के आधार पर लिखित लोकगीतों और लोक कथाओं के सशक्त माध्यम से संस्कृति का संरक्षण होता है। हमारे साधु-संतों ने सगुण-निर्गुणधारा के गीत गाए हैं। सारा साहित्य संत साध लोक के लिए भक्तिपदों के माध्यम से तन्मय होकर जो भी गाया है। वह  लोकगीत ही है। गुरु गोरखनाथ, मंछदरनाथ, भरथरी, कबीर, मीरा, तुलसी, सूर बाबा गुरुघासीदास का नाम हर व्यक्ति के जिह्वा पर है।
खेत जाती महिलाएं झुण्ड में लोकगीत गाई जाती हंै। खेत में हल चलाता किसान मस्ती में झूमता हुआ गीत गुनगुनाता रहता है। लोकगीतों में वर्णित भक्ति का रुप बाह्य दिखावा मात्र नहीं है, बल्कि वह भक्तों के हृदय का अंतर्नाद है। गोस्वामी तुलसीदास ने ''रामलला नहछूÓÓ की रचना लोकगीत सूरदास द्वारा कृष्ण पर असंख्य लोकगीत हैं। जे. ऐबट ने सन् 1884 में पंजाबी लोकगीतों के संबंध में लेख लिखे, दक्षिण भारत के लोकगीतों का संग्रह सन् 1871 में चाल्र्स ई. गोवर ने किया। यह भारतीय लोकगीतों का सर्वप्रथम संग्रह माना जाता है। हिन्दी लोकसाहित्य के उत्कर्ष की अगली सीढ़ी देवेन्द्र सत्यार्थी ने रखी। वे भारत, वर्मा, श्रीलंका, आदि देशों में दो दशकों तक घूम-घूमकर तीन लाख लोकगीतों का संग्रह किया। सन् 1872 में आर.सी. कालवेन ने ''तमिल पापुलर पोइट्रीÓÓ नामक अपने लेख में तमिल भाषा में लोकगीतों पर प्रकाश डाला।
सन् 1884 ई में सर जार्ज ग्रियर्सन ने ''सब बिहारी फोक सौग्सÓÓ नामक लेख में बिहारी भाषा के विभिन्न प्रकार के लोकगीतों का संग्रह है। इन्होंने भोजपुरी लोकगीतों का संग्रह 1886 में प्रकाशन किया। जिसमें बिरहा, जंतसार, सोहन आदि गीतों का संग्रह है। आर.एम. लाफ्रनैस ने सन् 1899 में ''सम सांग्स ऑफ दी पोर्चगीज इंडियंसÓÓ में गोवा निवासी भारतीयों के लोकगीतों के संग्रह का प्रकाशन किया।
सन् 1905 में एक हान ने ''कुरुख फोकलोर इन ओरिजिनलÓÓ नामक पुस्तक में उरांव लोगों के 200 लोकगीतों का संग्रह किया। छ.ग. की पावन माटी में अनेक लोकगीतों की महक से सारा विश्व गमक रहा है। जन मानस में सुख दुख, जय पराजय, हर्ष, विषाद, आचार-विचार, रहन-सहन, रीति-रिवाजों परम्पराएं प्रतिबिंबित होती हैं। लोकगीतों में सहज - सरल, माधुर्यता के वीणा के झंझार गूंज उठती है। करमा, सुआगीत, पंथी गीत, भोजली गीत, ददरिया, यदुवंशियों की देवारी, दसमत कैना, गम्मतिहा, देवारों के लोकगीत, लोरिक-चंदा के  गीत, चंदैनी गोंदा, कारी, हरेली, संस्कार गीत, बिहाव गीत, बांस गीत, छेरछेरा, पुन्नी के दिन महिलाएं लोकगीत गाती है, गम्मत आदि लोकगीत छत्तीसगढ़ की अनमोल धरोहर है। लोकगीत की अमृतधारा अनवरत जनमानस में अमृत बनकर बहती रहेगी।
डॉ. छोटेलाल बहरदार ने ठीक ही कहा है कि लोकगीत सामान्य जन जीवन के बीच गूंजने वाली बांसुरी की तान है, उसके अंदर की धड़कन है और है, उसके सुख-दुख हर्ष-विषाद तथा संस्कृति की एक साफ सुथरी तस्वीर लोकगीतों में कृष्ण के सम्पूर्ण स्वरुपों का चित्रण हृदयस्पर्शी दिखाई पड़ता है। खाटू के श्याम तथा अन्य अनेक पौराणिक कथाओं, मानवजीवन के विविध पहलुओं से संबंधित लोकगीत गाये जाते हैं, जिससे तन-मन, प्रफुल्लित होकर आनंदरुपी सागर में गोते लगाता है ये लोकगीत कर्णप्रिय होते हुए जीवन में मार्गदर्शन का संदेश देते हैं। लोकगीत का प्रत्येक स्थान की प्रकृति भौगोलिक परिस्थिति रहन-सहन, रीति-रिवाज, खान-पान, आस्थाओं से ओत-प्रोत रचा बसा होता है। लोकगीत सभ्यता, संस्कृति का अभिन्न अंग है। लोकगीत कबीलों से निकलकर आधुनिक दौर पर भी शान से बढ़ता जा रहा है। लोकगीत की अमृतधारा जनमानस में सदियों तक बहती रहेगी।
 रउताही 2015

लोरी गीत और चंदा मामा

माँ की ममता और वत्सलता के प्रतीकार्थ प्रयुक्त ये लोकगीत शिशु के क्रमिक विकास के लिए पालन-पोषण के साथ संस्कार-संयोजन में भी सहायक सिद्ध होते हैं। सोते-जागते, घर और बाहर की दिनचर्या को निपटाते माता शिशु को एक पल के लिए भी तन और अंतर्मन से ओझल होने नहीं देती। लोरी के माध्यम से वह बच्चे की देख-रेख भी कर लेती है और गृहिणी के साथ आजीविका के निर्वाह हेतु श्रमसाध्य कर्म को भी संपादित कर लेती है। लोरी- लोकगीतों में लय का लालित्य ही महत्वपूर्ण होता है, इसलिए ध्वन्यात्मक शब्दों के समानांतर माँ की ममता से नि:सृत भावावेग से संपृक्त अटपटे-अजूबे स्फुट शब्दों की प्रचुरता होती है लेकिन जहाँ शब्द भी उल्लेखनीय हो जाते हैं, वहां वत्सलता सजीव हो उठती है। शिशुओं के व्यक्तित्व-विकास का वितान विनिर्मित करने वाले ये लोरी-लोकगीत अबूझ शब्दों को उपयुक्त लय और तुक प्रदान करके,  रोचकता के प्रवाह द्वारा कल्पना और यथार्थ का सुंदर सामंजस्य स्थापित करते हैं।
संतान सुख से संचरित संवेदना माँ की ममता का आवेग पाकर अभाव में भाव, कुंठाग्रस्त तंतुओं में पिघलाव और बेसुरे जीवन में बहलाव ढूंढ लेता है। यही कारण है कि मैली-कुचली और फटे-चिथड़ों में भी वह शिशु को पाकर छैल-छबीली यशोदा बन जाती है। इस यशोदा के पास कृष्ण को झुलाने के लिए कृत्रिम और मूल्यवान पालना न सही लेकिन पैरों के स्पंदन का प्राकृतिक पालना जरुर है। वह पैरों, घुटनों, हाथों और बाहों से झूले के विविध थाप देकर सुलाने और जनरंजन करने की युक्ति से सुपरिचित है। उसके पास श्लोक की समृद्ध परंपरा न हो लेकिन भाव-लोक की अकूत संपदा अवश्य है जिसके सहारे वह शिशु को लोरी की थपकी देती हैं।
बालक का मन मिट्टी की तरह कच्चा, लचीला, निराकार और बेडौल होता है। उसे पक्का, सख्त, साकार और सुडौल बनाने का कार्य माँ की ममता के रुप में लोरी लोकगीत पूर्ण करते हैं। यह एक साथ माँ की तरह वात्सल्यपूर्ण संस्कार, पिता की तरह उपदेशपूर्ण व्यवहार और गुरु की तरह शिक्षा-दीक्षा का आचार संजोता है। इस तरह यही लोरी लोकगीत क्रमश: विकसित होकर बाल-लोकगीत के रुप में सही-गलत के समीकरण की सीख, न्याय-अन्याय को निर्दिष्ट करने की तमीज और हृदयगत भावनाओं को बुद्धि से कसने की तासीर देता है। इस तरह समीक्षकों की दृष्टि से पाश्र्व में प्रस्थित यह लोकगीत माँ की ममतामयी छाया, अभिभावक की अभिनिर्देशित काया और ज्ञान-प्रदाता गुरु की अलौकिक माया भी प्रतीत होती है। मामा के  रुप में उपस्थित होकर इन लोरियों में जहाँ शिशु को प्रकृति से संबंध जोडऩे का संस्कार देता है, वहीं उनकी अनेकानेक समस्याओं का निदान भी सहज कर देता है। शिशु भोजन-ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं है। माँ उसे मनाते-मनाते थक जाती है। उसके हाथ में भोजन की थाली है। उसे यह भय  भी सता रहा कि भूखा बच्चा सो न जाए फिर गर्म दूध भात भी क्रमश: ठंडा होने जा रहा है। वह चंदा को भाई निर्दिष्ट करके और शिशु से मामा का नाता जोड़कर के दूध-भात का एक ग्रास बनाकर चंदा की ओर बढ़ाती हुई गीतोच्चार करती है-
चंदा मामा आवनी
दूध-भात लावनी
मोर बेटा के मुँह में-गुट ले
(हे चंदा मामा! तुम सन्निकट आओ और दूध-भात को ग्रहण करो। ऐसा करते हुए वह अनुभव करती है कि बच्चे का मुँह खुल जाता है और वह ग्रास उसके मुख में डाल देती है।)
इसी तरह जितनी बार वह इस क्रिया को लोकगीत के माध्यम से दोहराती है, शिशु आश्चर्य से उसे सुनता-गुनता और उस धुन में विधुन होकर ग्रास को क्रमश: गुटकता है। गीत- समाप्त होते ही शिशु तृप्त होकर सो जाता है। माँ का यह मनोपचार सफल सिद्ध होता है। सूरदास ने शिशु कृष्ण द्वारा चंद खिलौना लेने की जिद का निराकरण निर्दिष्ट कराया है जो माँ के द्वारा ही संभव है। यह भी प्रकारांतर में लोरी लोकगीत का ही प्रभाव कहा जा सकता है। माँ शिशु बनकर उसकी समस्याओं का निदान उसकी मानसिकता, परिवेश, भाषा और प्रकृति को ध्यान में रखकर खोजती है इसीलिए वह सफल होती है। इसमें जो व्यापक लोकानुभव है और अनेक युगों से ज्ञापित सत्य के अन्वेषण का प्रशस्त पथ है, वह इसे कालजयी और शाश्वत बनाए हुए है।
चंदा प्रकृति के रहस्यों से अनजान होने से अद्य पर्यंत बच्चों से मामा का रिश्ता निभाता आ रहा है तथा काले निशान से निर्दिष्ट चरखे से सूत कातती हुई बुढिय़ा भी दादी-नानी के रुप में वात्सल्य का वितान विनिर्मित करती हुई लोककथाओं में प्रचलित रही है। यह अनुभवी दादी-नानी की संकल्पना की उर्वर उपज की उपस्थिति और बाल मन की रुचि-प्रवृत्ति की जीवंत परिस्थिति के रुप में अद्यावधि अधिष्ठित है। यह दूर के ढोल सुहावने होते हैं लोकोक्ति को तो सार्थक सिद्ध करता ही है, कल्पनशीलता को प्रकृति के मानवीकरण के रुप में एक सुदृढ़ संबंध को भी चरितार्थ करता है। विज्ञान के सच के सामने आने के बाद क्या चंद्रमा बच्चों का मामा नहीं रहा या चरखे से सूत कातती हुई दादी-नानी व्यर्थ हो गई? इतना ही नहीं, हजारों वर्षों से सुंदर मुखड़े का मान रखता हुआ चंद्रमा का उपमान क्या मंद हो सका है? क्या किसी उबड़-खाबड़ अर्थात् अनगढ़ मुखड़े को देखकर किसी कवि, साहित्यकार, कलाकार या बुद्धिजीवी ने चंद्रमा के यथार्थ से तुलना की है? साहित्य या कला और विज्ञान के सत्य की दृष्टि में अंतर को समझना जरुरी है। इसका यह आशय भी नहीं है कि यथार्थ से साहित्य को असंपृक्त रखा जाए लेकिन यह भी अभिप्राय कदापि नहीं है कि परंपरा से प्रचलित सौंदर्य को विलोपित कर दिया जाये। साहित्य में यथार्थ और विज्ञान का समावेश ऐसा न हो कि साहित्य की अस्मिता ही विलोपित हो जाए, यथा-
चंदा मामा कहो तुम्हारी शान पुरानी कहाँ गयी?
कात रही थी बैठी चरखा, बुढिय़ा नानी कहाँ गयी?
सूरज से रोशनी चुराकर, चाहे जितनी भी लाओ,
हमें तुम्हारी चाल पता है, अब मत हमको बहकाओ
है उधार की चमक-दमक यह, निकली शान निराली है,
समझ गये हम चंदा मामा, रुप तुम्हारा जाली है।
चंदा से मामा का रिश्ता और चरखे से सूत कातती बुढिय़ा शिशु की लोरी और लोककथा की विषय वस्तु है जबकि उपर्युक्त काव्य-दृष्टि विकसित बालक की है जो द्वितीय या तृतीय चरण में ही संभव है। यह प्रथम चरण का विकास है जो हजारों वर्षों से ज्ञान-अनुभव के निष्कर्ष का उद्भास कहा जा सकता है। इस तरह शिशुओं से सपना छीनकर और सम्मोहनि शक्ति अधिग्रहित कर आखिर आधुनिक लेखक क्या संदेश देना चाहेंगे् उसे यथार्थ की मरु-भूमि में ले जाकर क्या आह और वेदना से रु-ब-रु नहीं कराएंगे? साहित्य जगत की खोज से ज्यादा अंतर्जगत का अन्वेषण है, भौतिकता से अधिक आध्यात्मिकता की गवेषणा है। शिशु-बालक और किशोर के क्रमिक विकास के समानांतर आदर्श से यथार्थ और कल्पना से वास्तविकता में पग धारण करेगा ही अत: उसे प्रारंभ से ही क्यों यथार्थ के आंगन में छोड़ दिया जावे। बाद में उसे छूट दी जावे कि वह जहाँ चाहे, आ- जा सके। यही उसके सहज विकास का उपक्रम प्रमाणित होगा।
रऊताही 2015

छत्तीसगढ़ी लोकगीत एवं सुआ नृत्य

यूँ तो सभी चेतन जगत की अपनी-अपनी भाषा होती है। परन्तु भोगे गये अनुभव अपनी संतति को हस्तांरित कर सके ऐसी समृद्ध भाषा का वरदान विधाता ने मनुष्यों को ही दिया है। आज तक विकसित सभ्यता, संस्कृति के मूल में यही अमोध वर है। लिपि के विकास के पहले भी वाचिक रुप से परंपराएं प्रथाएँ रुढिय़ां मनुष्य को उसके पूर्वजों के अर्जित ज्ञान से परिचित कराती थीं। उसे प्रारंभ से प्रयत्न की आवश्यकता कभी नहीं पड़ी। बस पूर्व ज्ञान में अगली कडिय़ाँ जुड़ती गई।
एक लंबे समय तक शिष्ट साहित्य के प्रमुख अंग वेद शास्त्र, उपनिषद भी वाचिक रुप में ही अस्तित्व में थे। ये शास्त्र गुरुकुलों में गुरु के द्वारा शिष्यों को कंठस्थ कराये जाते थे। इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए 5 वर्ष की आयु से ही बालक को गुरु गृह में रहना पड़ता था। चूंकि मशीनों के आविष्कार प्रारंभिक अवस्था में थे, अत: जीवनोपयोगी सारे कार्य मानव श्रम एवं समय पर आधारित थे। बचपन से ही जीवनोपार्जन में लग जाना आवश्यक था। कृषि कार्य या फिर कृषि में उपयोगी वस्तुओं के निर्माण के कार्य प्रमुख थे। जो लोग अपने बालक से काम न लेकर उसे गुरुकुल भेजने का त्यागपूर्ण निर्णय लेते थे, आमजन में उनका आदर अपने आप बढ़ जाता था। गुरुकुल से शिक्षा प्राप्त नागरिक अपने आप में ज्ञान का आगार होता था और उसके वाक्य स्वत: प्रमाणिक मानकर जनता उनको अपने आचरण का अंग बनाती थी। प्रति उपकार के रुप में अपने श्रम से अर्जित, अन्न धन में से कुछ दान करती थीं, जिससे पंडित का जीवन आसानी से चल जाता था। समय के साथ-साथ इनमें नई बातें जुड़ती गईं, और उनका आकार क्रमश: समृद्ध होता गया, उनके द्वारा रचित साहित्य कुछ नियमों से आबद्ध हुआ। जिसे शिष्ट साहित्य कहा गया। लिपि के विकास के साथ ये लिखित रुप में आये। टंकनकला के विकास के बाद तो ये सर्वसुलभ होने की स्थिति में आ गये हैं। आधा विश्व कही जानी वाली महिलाएं विभिन्न पारिवारिक, सामाजिक सुरक्षात्मक, कारणों से शिक्षा से दूर रहीं। परन्तु  भावनाएँ तो उनके भी हृदय में थीं। भाषा की शक्ति के साथ संस्कृति के विविध रंग उनके चहुँ ओर बिखेर हुए थे,  उन्होंने अपनी भावनाओं को लोककथाओं, लोकगीतों के रुप में प्रकट किया। निर्बन्ध, स्वतंत्र और कार्य के अनुरुप ये गीत अपने क्षेत्र के सम्पूर्ण संस्कार, संस्कृति, स्थानीय रीति रिवाज के साथ ही व्यक्तिगत सुख-दुख, राग-विराग, वात्सल्य, मिलन, विरह दुख दर्द आदि-आदि स्वयं में समाहित किये समय की अजस्रधारा में बहे जाते हैं।
भारत का हृदय कहे जाने वाले मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के बहुसंख्यक जनजाति गोड़ स्त्रियों द्वारा गीत के साथ नाचे जाने वाले सुआ नृत्य एवं गीत का अपना विशिष्ट महत्व है। इसमें इस क्षेत्र की सम्पूर्ण स्त्री समुदाय का भावपक्ष समेकित है। गाया-नाचा भले ही गोड़ स्त्रियों के द्वारा जाता है परन्तु स्वर सम्पूर्ण नारी जाति का होता है।
वर्षा के बाद शुभ शरद ऋतु का आगमन होता है। पंथ पंकविहिन, रातें, चाँद-सितारों से सुसज्जित $िफजा में भीनी-भीनी सी शीतलता, चहुँ ओर धान की खरही, खलिहानों में रौनक, कहीं ट्रेक्टर से मिसाइ हो रही, तो कहीं बैल या भैंसों से। दिन भर खेत खलिहानों में काम करने वाले लोग शाम को जब घर आते हैं तो थकान से अधिक धान घर लाने की प्रसन्नता से भरे होते हैं। शक्ति की पूजा के बाद आता है दीपावली का पर्व, इस दिन अयोध्या के राम तो घर आये ही थे, साथ ही अन्न परमेश्वरी ने भी तो कृषकों के भंडार भर दिये थे।
जनजातियों में अधिकांश त्यौहार व्यक्तिगत न होकर सामाजिक होते हैं। दीपावली के एक दिन पहले गोड़ लोग बाजा-गाजे के साथ कुम्हार के घर जाते हैं। स्त्रियाँ वहाँ से मिट्टी लाकर गौरी-गौरा का मृतिका विग्रह निर्मित करती हैं। इसके कई दिन पहले से सुआ गीत के साथ सुआ नृत्य प्रारंभ हो चुका होता है। इसमें टोले मोहल्ले की स्त्रियाँ उपलब्ध सामग्री से स्वयं को सजाये, दो पंक्तियों से खड़ी होती हैं। बीच में एक स्त्री एक टुकनी में मिट्टी का तोता, लाल कपड़े से ढांके खड़ी रहती है। वह बीच में बैठकर टुकनी पर से कपड़ा हटा देती है। सुआ के पास ही मिट्टी की दीया जला दिया जाता है। सभी सखियाँ ताली की ताल पर कमर से  झुकती हुई, एक विशेष लय में ताली बजातीं, गोल बना लेतीं हैं। यह गीत तीव्र वेग से गाया जाता है, जैसे दूर ऊंचे पर्वत से गिरता झरना। इन गीतों में स्त्रियों की समग्र भावनाओं का गुंफन होता है। ये जान पहचान, गणमान्य, लोगों के यहाँ नृत्य करती हैं। भेंट में कुछ द्रव्य या अन्न मिलता है, जिन्हें एकत्र कर गउरी-गउरा पूजन में खर्च किया जाता है।
गऊरी, गऊरा पूजन गोड़ों की उत्पत्ति की दंत कथा से संंबंधित है। एक समय शिव-गौरा प्रात: भ्रमण पर निकले, हरित वर्णी कानन विभिन्न वर्णी कंचन कुसुम, निर्मल बहती सरिता देख गउरा का मन स्नान हेतु मचल उठा। स्नानरत गउरा का शरीर सौष्ठव निरख शिवजी पर काम ने अपने बाण चलाये, प्रतिकूल स्थान, समय आदि का विचार करने पर भी वे अपना वीर्य स्खलन रोक न सके।
पार्वती से शिव की शक्ति का व्यर्थ जाना सहन न हुआ, जो कार्य वे देवी (मानवी) बनकर नहीं रह सकती थीं, वह पक्षी बनकर किया। तोते का रुप लेकर उन्होंने अपनी चोंच से भूमि पर गिरे वीर्य का पान कर लिया। फलस्वरुप उन्हें दो पुत्र प्राप्त हुए। बड़े होने पर उन्होंने माता से अपने पिता का नाम पूछा तब उन्होंने कहा- कल प्रात: तुम्हें जिस पुरुष के सर्वप्रथम दर्शन हों, उसे ही अपना पिता समझ लेना। जब वे दूसरे दिन निकले तो सबसे पहले शंकर भगवान के दर्शन हुए। यही गोड़ों के आदि पुरुष थे, दोनों भाइयों से गोड़ों की दो शाखाओं का विकास हुआ। गउरी-गउरा पूजन एवं उनका विवाह दोनों में प्रचलित है। गोडिऩे सुआ को पार्वती का रूप मानकर आदि शक्ति को अपने सारे सुख-दुख बताती हैं। मध्यकाल में स्त्री जीवन अनेक बंधनों में जकड़ा हुआ था, उसे सहज अभिव्यक्ति  की आजादी भी नहीं थी। चुप रहकर सारे दु:ख दर्द, अत्याचार, शोषण सह लेने वाली स्त्री ही आदर्श मानी जाती रही है। अपनी बात कहने वाली को वाचाल, लपरही आदि कहकर निन्दित किया जाता रहा है। संभवत: खेतों में श्रम करते, उनकी भेंट इस सुन्दर पक्षी से होती होगी, इसे सुरक्षित माध्यम मानकर सारी बातें उसके माध्यम से ही व्यक्त करना उचित लगा होगा।
सुआ गीत-
साथ-साथ तरी हरी नाना मोरे सुअना, तरी हरी नाना के सम्पुट से गाया जाता है।
दिन भर बारी में मेहनत करने के बाद भी मद्यपान के कारण पति को माता के क्रोध का सामना करना पड़ता है। घर बाहर पति के कार्यों में कंधे से  कंधा मिलाकर श्रम करने वाली गोंड़ महिला अपने पति से बहुत प्यार करती है- वह सास से प्रार्थना करती है
मोडि़ मोडि़ के अंगठी
मैं भांटा लगायेंव, मोर सुआ
झन गारी देबे, दाई तैं मातैं जँवरिहा ला झन
गारी देबे...
वह सुआ के माध्यम से अपनी सास से विनय करती है। माँ, दिन भर अंगुलियाँ मोड़-मोड़कर हमने बारी में भांटा, मिरचा, टमाटर आदि लगाया है। क्या हुआ यदि इसने शराब पी ली। अब तो यह नशे में है इस पर क्रोध मत करो इसे गाली मत दो।
इस गीत में स्त्री की श्रम शीलता एवं सहिष्णुता के प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं।
छत्तीसगढ़ कृषि संस्कृति वाला प्रदेश है, जीवन कृषि के ही आस-पास घूमता है, इस गीत में देखिये-
तरी हरी नाना रे सुआ भाई तरी हरी नाना रे ना,
नावा विहाव करेंव नवा भौजी नानेव ओ नवा भौजी नाने,
मोर सुआ मुचुर-मुचुर मुस्काए नारे
तरी हरी...।
भइया धरे नाँगर भौजाई धरे बिजहा
ओरी ओरी जोनधरा बोआये ना रे सुअना
तरी हरी नाना मोर
मैंने अभी-अभी अपने भाई की शादी की है, नई भाभी घर में मुस्कराने लगी है। मेरे भइया हाथ में नाँगर (हल) रखते हैं, भाभी बीज डालती है। भइया हल जोतकर ज्वार बोते हैं भाभी उसकी रखवाली करती है, और जब ज्वार की बालियों में दाने पड़ते हैं, तब तुम उसे अपनी चोंच से ठुनक-ठुनक कर खा जाते हो। इतने परिश्रम से उपजे, ज्वार को खाने का क्या हक है तुम्हारा? सुआ गीत के  माध्यम से युवा होती किशोरी को नैतिक शिक्षा देने के उद्देश्य से रचित यह सुआ गीत भी देखिए-
तरी हरी नाना.. मोर नाना सुआ मोर, तरी हरी नाना न मोर
फूलपारा जाबैं तैं मंदिर पारा जाबे सुआ मोर...ऽऽ
सेठ पारा झंनि जाबे सुआ मोर...पेठ पारा झनि जाबे
सेठ टुरा हे बदन एक मोहनी बदन एक मोहनी रे सुआ मोर...
कपड़ा म राखे लोभाय ना रे सुआ मोर...
राऊत टुरा हे बदन एक मोहनी बदन एक मोहनी से सुआ मोर
दूध म राखे लोभाय न रे सुआ मोर
से सुआ! गाँव में फूलपारा और मंदिरा पारा घूम लेना वे सुरक्षित हैं। परन्तु सेठ पारा मत जाना क्योंकि सेठ पुत्र बड़ा ही मनमोहक युवक है, अपने कपड़े लत्ते दिखाकर तुम्हें प्रलोभन में फंसा सकता है।
राउत पारा भी मत जाना राउत पुत्र बड़ा ही रसिया है दूध दही खिलाकर तुम्हें अपने प्रेम जाल में फांस सकता है।
इस गीत में सुआ के बहाने कुमारी कन्याओं को अपनी शील रक्षा के प्रति सतर्क रहने की शिक्षा दी गई है।
एक अन्य गीत देखिये-
तरी हरी नाना मोर नाना सुआ रे, तरी हरी नाना मोर ना
एड़ी बिछल गे गगरा ह गिरगे,
सासो ननद गारी देथे रे सुआ मोर सासो ननद गारी देथे,
खेलत-खेलत आवे कुंवर कन्हैया ओ कुँअर कन्हैया मोर सुआ हो
गगरा बेसाही लेई आय, मोर सुआ हो गगरा बेसही लेई आय।
ना रे सुआ मोर गगरा...
इस गीत में दाम्पत्य प्रेम के साथ ही पत्नी की सुरक्षा का दायित्व निर्वहन करते पति की छवि उभर कर आती है। युवती सुआ  से कहती है- हे सुआ मेरी एड़ी फिसल गई, जिसके कारण गगरा गिर कर टूट गया, अब तो सास नंनद का क्रोध फूट पड़ा, इतने में कुंअर कन्हाई (पति) बाहर से खेलकर आये, उन्होंने नया गगरा खरीद कर ला दिया। जिससे सास नंनद की नाराजगी दूर हो गई। इसमें इस जनजाति की जीवन शैली की हल्की सी झलक मिलती है- स्त्रियाँ, पानी, लकड़ी, अनाज, साग-सब्जी खेत खार में काम करती हैं और पुरुष मनो विनोद में समय व्यतीत करती हैं।
एक अन्य बिंब देखिए-
तरी हरी नाना मोर नाना सुआ मोरो समुन्दर के लहरा हे, चन्दन काठ के चउकी हे
जेमा उगरी नहाय, लहरा हे मोर... समुन्दर के
ईंटा कटइले मोर चउरा बेनइले मोरे समुन्दर के लहरा हे...
अर्थात- समुद्र की लहर में गउरी चंदन की चौकी पर बैठकर नहाती है। सुआ! ईंटा कटाकर चबूतरा बना दो ताकि गउरी आराम से समुद्र स्नान कर सकें। यूँ तो छत्तीसगढ़ में समुद्र नहीं है। परन्तु लगे हुए राज्य उडि़सा में समुद्र है। अवश्य गीत बनाने वाले ने या तो लहरों को देखा होगा या किसी से सुना होगा।
सुआ को संबोधित करता गीत....
तरी हरी नाना मोर नाना सुआ मोर तरी हरी हरी नाना मोर ना
जादू कइसे मारे रे मोर सुआ जादू कइसे मारे?
बर तरी बरस पीपर तरी देवता
वाह रे सुआ जादू कइसे मारे रे मोर सुआ जादू
ग्रामीण परिवेश का जीवन्त चित्रण बड़ के नीचे बरम बाबा का स्थान है पीपल के नीचे देवता का। ये सब हमारी रक्षा करते हैं, फिर भी हे सुआ तुम्हारे सुन्दर रुप ने मुझ पर कैसे जादू चला दिया। यौवन की दहलीज पर पाँव रखती युवती के मन की मुग्धावस्था का सरल सरल वर्णन है।
एक अन्य गीत-
तरी हरी नाना मोरे सुआ तरी हरी नाना मोर ना...
डोला रे डोला चाँदी के डोला
महानदी  म उतर गे दानी के डोला- तरी हरी नाना...
इस गीत में सुआ के बहाने दान की महिमा का वर्णन किया गया है।
चाँदी की डोली में यात्रा करने वाले दानी का डोला महानदी में उतर जाता है। अर्थात् दान से असंभव कार्य भी संभव होते हैं। दानी को मोक्ष की प्राप्ति होती है। हास परिहास के भाव से भी सुआ गीत अछूता नहीं है-
छ: सात भइसा बंधे रस्सी डोर म
ऐ बढ़े भइया अकल नईं ये तोर म..
बड़े प्यार से शक्तिशाली नासमझ पर निशाना साधा जाता है, सुआ के माध्यम से।
सुआ नाचने का मौसम आया नई किशोरियों के मन में भाव का समुद्र हिलोरें लेने लगता है, वे अपने अंगों को सजाने के लिए अपनी माँ से उसके वस्त्राभूषण माँगती है-
दे तो दाई झाँपी के लुगरा ला...
कहाँ जाबे...
सुआ नाचे... सुआ नाचे...
नारी हृदय की विरह वेदना का निदर्शन कराता यह सुआ गीत-
तरी हरी नाना ना मोर ना
चोंच तोर दिखत हावे लाली-लाली कुंदुर ने सुअना
आंखी दिखै मसुरी के दार नारे सुअना
जोन्हरी के पान साहि देना सम्हारे रे सुअना ले ई
जाबे तिरिया संदेश
सासु मोरी मारे ननद गारी देथे रे सुअना
जिंउरा म लागत हावै बान
लहुरा देवर मोरे जनम के बैरी रे सुअना
सइयां  मोरे गइन्हें विदेश न रे सुअना...
रइगढ़ नहक बे सरंगढ़ नहकबे रे सुअना
नहक जाबे रइपुर रइकेस न। रे सुअना नहक
उहाँ ले जाबे तैं रइया रतनपुर रे सुअना
उन्हें हावे सइयां हमार नारे सुआना...
उपरोक्त गीत में पारिवारिक परिस्थतियों के साथ ही विरहिणी के मनोगत भावों के भी दिग्दर्शन होते हैं। पति परदेशी हैं मन वैसे भी व्याकुल है, इधर सास ननद परेशान करती हैं। वह सुआ के रुप की प्रशंसा करते हुए निवेदन करती है, हे सुआ तुम्हारी चोंच पके हुए लाल-लाल कुंदरु जैसी और आँखों मसूर की दाल जैसी हैं। ज्वार के हरे हरे पत्तों जैसे तुम्हारे पंख हैं, तुम मेरा संदेश मेरे पति तक पहुँचा देना, पहले रायगढ़ फिर सारंगढ़ जाना रायपुर होते हुए रतनपुर पहुँचना, वहीं मेरे पति रहते हैं। तुम उनसे मेरी स्थिति का वर्णन करना और शीघ्र घर वापस आने की बात भी कह देना।
कई सुआ गीत स्फुट दोहों के जैसे होते हैं, जो तरी हरी नाना के संयोजन के द्वारा जुड़ते चले जाते हैं-
जैसे- तरी हरी नाना रे नाना सुआ मोर तरी
कोलकी के लाली भाजी लाली बइला खागे
देख तो परोसिन दीदी, मारे ला कुदाथे। तरी हरी नाना रे.
नाना रे ... नाना सुआ मोर
काँसे के लोटा कुंआ म गिरगे,
रानी दुरपति जुआ म हारी गे, मोर सुआ रे तरी हरी नानारे
पहले दोहे में- बाड़ी की लाल भाजी बैल चर जाता है, उसकी लापरवाही से क्षुब्ध पति मारने दौड़ाता है तब वह पड़ोसिन को अपनी रक्षा हेतु दीदी कहकर पुकार लेती है। इस दोहे में टोले मोहल्ले में जो एक पारिवारिक वातावरण रहता है उसका स्वाभाविक दर्शन होता है। दूसरे दोहे में पुराण में वर्णित पाण्डवों के द्वारा द्रोपदी को जुएं में हार जाने का उल्लेख है। प्राकान्तर से दीपावली के समय जुआ खेलने वालों को जुएं में परिणाम का स्मरण दिलाकर सतर्क करना ही मुख्य उद्देश्य है। इस प्रकार और भी हजारों सुआ गीत है जो गागर में सागर की तरह लोक संस्कृति को समेटे हुए हैं।
दीपावली के दूसरे दिन गउरी-गउरा का विसर्जन होता है। विवाह की सारी रस्में यथा बारात का स्वागत, भोजन टीकावन, पंवपूजी, कन्यादान आदि करने के बाद बेटी के विदा का समय आता है सारा गाँव गउरी के विछोह में आँसू बहाता है। माँदर, ढोल, मंजीरे, की मादक धुन के साथ सभी लोग सिर पर गउरी गउरा लिए चलती स्त्री के पीछे पीछे किसी नदी या सरोवर तक जाते हैं। वहाँ विग्रह का विसर्जन होता है।
छेरछेरा के समय भी सुआ नाचा जाता है। अब तो लोककला के रुप में सुआगीत एवं नृत्य बड़े समारोहों में स्थान बनाता जा रहा है। आधुनिक युग में दक्ष गायिकाओं के द्वारा गाए माँदर, ढोल, झांझ, मंजीरे एवं बाँसुरी के साथ सुआ गीत के कैसेट बहुत बड़ी मात्रा में बिकते हैं। इन्हें गाकर भी वर्तमान में नचकहारिनें नृत्य करती हैं। इससे इनका आनंद बहुगुणित होकर दर्शकों को भाव विभोर कर देता है।
रऊताही 2015

छत्तीसगढ़ी संस्कार गीत

संस्कार हमारे जीवन को सुसंस्कृत बनाते हैं। सुसंस्कारों के अभाव में मनुष्य जीवन पशुतुल्य हो जाता है। मनुष्य मात्र के आचारों, व्यवहारों व क्रियाओं से उसके संस्कारों का सहज ज्ञान, उसकी श्रेष्ठता या निकृष्टता का अनुमान लगाया जा सकता है। संस्कार, संस्कृति का द्योतक है। संस्कार मनुष्य की पहचान है, जो जीवन की मूल संक्रियाओं से उत्पन्न होते हैं और जीवन को संस्कारित करते हैं। संस्कार जीवन परिष्कार के आधार हैं। सौजन्य, सौहाद्र्र और समन्वय के स्त्रोत  भी।
विश्व में भारतीय संस्कृति का बड़ा सम्मान है। भारतीय जीवन संस्कारों से सराबोर है। भारतीय जीवन का शिष्ट पक्ष हो या लोक पक्ष, इनमें संस्कारों की संप्रभुता है। जन्म से लेकर मृत्यु तक भारतीय जन जीवन में संस्कारों का विशेष महत्व है। प्रत्येक कार्य में संस्कारों का विधान है। ये विधान हमें परम्परा से प्राप्त हुए हैं। हमारे धर्म शास्त्रों में सोलह संस्कारों का विधान है। इनमें गर्भाधान, सधौरी (पुंसवन) जन्म, मुण्डन, कर्ण छेदन, यज्ञोपवित, विवाह, मृत्यु संस्कार आदि प्रमुख हैं। ये संस्कार हमारे जीवन को आत्मोन्नमुखी और समाजोन्मुखी बनाते हैं और जीवन में नए अध्याय की शुरुआत करते हैं। छत्तीसगढ़ी लोक जीवन में जन्म संस्कार, विवाह संस्कार और मृत्यु संस्कार ही प्रमुख है।
जन्म संस्कार :
लौकिक व परलौकि दोनों ही दृष्टि से संतान प्राप्ति महान व पुण्य कार्य है। मनुष्य के पास कितनी ही अकूत चल-अचल संपत्ति क्यों न हो?  मान-सम्मान क्यों न हो? अगर वह संतानहीन है, तो सारी संपत्ति सारा मान-सम्मान वृथा है। संतान प्राप्ति मनुष्यमात्र की सबसे बड़ी इच्छा होती है। ऐसी मान्यता है कि संतानहीन व्यक्ति अपने पितृ ऋण से उऋण नहीं होता। उसका उद्धार नहीं होता। समाज में नि:संतान स्त्री हो या पुरुष  उसकी उपेक्षा और अवहेलना की जाती है। ऐसे लोग संतानहीनता के कारण दु:खी रहते हैं। संतान-सुख के सामने संसार के अन्य सारे सुख और आनंद निरर्थक लगते हैं। संतान प्राप्ति सौभाग्य का सूचक, आनंद और हर्ष का विषय है। संतान प्राप्ति के अवसर पर मनाया जाने वाला उत्सव इस बात का साक्ष्य है।
छत्तीसगढ़ में जन्म संस्कार की अपनी लोकव्यापी परम्परा है। यहां गर्भाधान से लेकर संतानोत्पत्ति तक आनंद और मंगल की बेला होती है।
सधौरी :
सधौरी संस्कार प्रथम गर्भाधान के सातवें माह में सम्पन्न होता है। इस समय मायके वालों को आमंत्रित किया जाता है। मायके  पक्ष के लोक सधौरी लेकर आते हैं। जिसमें वस्त्राभूषण व सात प्रकार के व्यंजन होते हैं। इन व्यंजनों में ठेठरी, खुरमी, पपची, लाडू, कुसली, सोहारी, करी होते हैं। गर्भवती स्त्री की ओली भरी जाती है और सात प्रकार के पकवान खिलाकर अन्य स्त्रियाँ भी पकवान खाकर साध पूर्ण करने की कामना करती हैं। स्त्रियाँ आनंद के इस क्षण में सधौरीगीत गाकर अपनी खुशियों का इजहार करती हैं-
महल म ठाढ़े बलम जी
अपन रनिया मनावत हो
रानी पी लो मधु पीपर
होरिल बर दूध आवे हो
कइसे के पियंव करु कासर
अउ करु कासर हो
कपूर बरन मोर दाँत
पीपर कइसे पियंव हो
मधु पीपर नई पीबे
त कर लेहूँ दूसर बिहाव
ओहिच पी ही पीपर हो
पीपर के झार पहर भर
सउत के झार जनम भर
सेजिया बंटाथे हो
कंचन कटोरा उठावव
पी लेहँ मधु पीपर हो
छट्ठी :
शिशु जन्म के पश्चात शिशु की रोदन किलकारी के साथ घरवालों के चेहरों पर हँसी-खुशी नाचने लगती हैं। नवजात शिशु के आगमन से सारा घर आलोकित हो उठता है। शिशु जन्म से लेकर कांके विसर्जन तक स्त्रियों द्वारा गीत गाए जाते हैं। इस बीच काँके पानी व छट्ठी (जन्मोत्सव) का नेंग सम्पन्न होता है। छट्ठी बड़ी धूमधाम से मनाई जाती है। इस समय गाए जाने वाले गीत ''सोहरÓÓ  गीत कहलाते हैं। छत्तीसगढ़ी जन्म गीतों में सोहर गीत ही प्रधान हैं। इन गीतों में महिलाओं के मनोभाव, ननंद भौजी के हास-परिहास, सास-ससुर, जेठ-जेठानी का सहयोग या उपेक्षा, उनकी हंसी खुशी, नोंक-झोंक ताने आदि समाहित हैं। रामकृष्ण जन्म से संबंधित गीतों की प्रमुखता है। यह लोक की ही उदारता है कि सामान्य परिवार में जन्म लेने वाले शिशु की तुलना राम और कृष्ण से की जाती है। सामान्य माता-पिता को कौशिल्या व दशरथ की संज्ञा दी जाती है। झोपड़ी या मिट्टी का घर भी महल का मान पाते हैं। यह छत्तीसगढ़ी सोहर गीतों का वैशिष्ट है-
काखर भए सिरिरामे
काखर भए लछमन हो
ललना काखर भरत भुवाल
सोहर पद गावँव हो।
कौसिल्या के भए सिरिरामे
सुमित्रा के लछमन हो
ललना केकई के भरत भुवाल
सोहर पद गावँव हो।
कोन घड़ी भए सिरिरामे
कोन घड़ी लछमन हो
ललना कोन घड़ी भरत भुवाल
सोहर पद गावँव हो-
सुभ घड़ी भए सिरिरामे
सुभ घड़ी लछमन हो
ललना सुभ घड़ी भरत भुवाल
सोहर पद गावँव हो-
छत्तीसगढ़ी लोक जीवन में मुंह जुठारना (अन्न प्रासन), झालर उतारना (मुंडन संस्कार) कान छेदना (कर्ण छेदन) के भी संस्कार होते हैं।  केवल सवर्णों में ही बरुआ (यज्ञोपवीत) संस्कार संपन्न होते हैं। कुछ पिछड़ी जातियों में विवाह के समय प्रतीक रुप में बरुआ संस्कार करने की परम्परा है। ब्राम्हण, क्षत्रिय और वैश्य जाति में बरुआ उपनयन संस्कार के गीत मिलते हैं। जिसे बरुआ गीत कहा जाता है। बरुआ गीत की बानगी
हाथे म धरो छतरंगी, खखोरी चिपे पाटी हो
बरुआ के बोलम मोर बरुआ भीखम लाल
हम का ब्राह्मण बनावा हो
पंडित के बोलेव मोर पंडित महंगूराम
हमका ब्राह्मण बनावा हो।
अइसन तपसी जातितेन बाबूराय
मूंगा-मोती सहेज रखितेनु हो
अइसन तपसी जातितेन भाँचा मोर
कामधेनु मंगा रखितेन हो।
विवाह संस्कार :
भारतीय संस्कृति में विवाह एक प्रमुख संस्कार है। विवाह के माध्यम से दाम्पत्य जीवन में बंधकर दो अपरिचित, दो आत्माएं एक हो जाती हैं। यह दो आत्माओं का पवित्र मिलन है। जिससे दो परिवारों के साथ ही अन्य परिजन और स्वजन आत्मीय बंधन में बंध जाते हैं। छत्तीसगढ़ में विवाह संस्कार के समय गाए जाने वाले गीत ''बिहाव गीतÓÓ  कहलाते हैं। गड़वा बाजा अर्थात सींग, दफड़ा, टिमकी, मोहरी और मंजीरा के साथ ये गीत हमारी आत्मा को संतृप्त करते हैं। छत्तीसगढ़ी विवाह में अनेक नेग होते हैं। जिनमें मंगनी, चुलमाटी, मड़वा, देवतला, तेलचघ्घी, हरदाही, चिकट, मायन, मायमौरी, नहडोरी, नकटा नाच, परघौनी, लालभाजी, कुंवर कलेवा, टिकावन-भाँवर, बिदा आदि प्रमुख नेग है। प्रत्येक नेंग कें अलग-अलग गीत हैं। कुछ प्रमुख नेंगों में गाए जाने वाले गीत इस प्रकार हैं-
मंगनी :
वैवाहिक नेंग (परम्पराएं) मंगनी के साथ प्रारंभ होती है। मंगनी अर्थात सगाई- यह वर कन्या के कुल खानदान के साथ ही उनकी जन्म कुण्डली आदि का मिलान कर सम्पन्न की जाती है। तब नारी कंठों से विवाह गीतों की अविरल धारा प्रवाहित होने लगती है।
सजन जोरन बर आयेन ये समधी
सजन जोरन बर आयेन
जोरे गठुरी झन छूटे ये समधी
जोरे गठुरी झन छूटे
लुगरा मंगायेंव सुघर चुक ले ये समधी
लुगरा मंगायेंव सुघर चुक ले
ओहू लुगरा हवय हल्का
ले जा तोर नाक म अरो ले ये समधी
ले जा तोर नाक मे अरोले
लगिन:
''लगिन बारातÓÓ के दिन लग्न देखकर पंडित की उपस्थिति में विवाह की तिथि (मुहुर्त) तय की जाती है। सुविधानुसार मंगनी का लगिन साथ-साथ संपन्न होती है-
तोरे अंगना म मैं आयेंव होई रे मैं आयेंव
तोर घर के दुआरी ल नई पायेंव होई रे होई रे
साते दुवारी पूछत आयेंव रे पूछत आयेंव
तोर घर के मुहारी ल नई पायेंव होई रे होई रे
बागे बगीचा बाबू के डेरा हो बाबू के डेरा
थोरिक पानी पिया दे, धरम के बेरा, होई रे होई रे
चुलमाटी :
चुलमाटी जाने के पूर्व आँगन में सुवासा व सुवासिनों द्वारा हरे बाँस का मड़वा विधि-विधान पूर्वक गड़ाया जाता है। दो बाँसों की जोड़ी बनाकर गड्ढे में सुपाड़ी हल्दी व सिक्का डालकर यह रस्म पूरी की जाती है। तत्पश्चात सुवासिनों व महिलाएं गांव के पवित्र स्थान यथा तालाब या गौठान से मिट्टी लाती हैं। तब महिलाएं चुलमाटी गीत गाती हैं।
तोला माटी कोड़े ल तोला माटी कोड़े ल
नई आवय मीत धीरे-धीरे
धीरे-धीरे तोर बहिनी के कनिहा ढील धीरे-धीरे
जतके ल परसे ततके ल लील धीरे-धीरे
तोला साबर धरे ल, तोला साबर धरे ल नई आवय मीत धीरे धीरे
धीरे-धीरे तोर तोलगी ढील धीरे-धीरे
जतके ल परसे ततके ल लील धीरे-धीरे।
मड़वा छवई:
छत्तीसगढ़ में विवाह  तीन तेल, पांच तेल या सात तेल चढ़ाकर सम्पन्न किया जाता है। चुलमाटी के दूसरे दिन आँगन को गुलर की डालियों से छाया जाता है। मंडपाच्छादन का यह कार्य सुवासा व अन्य लोगों द्वारा किया जाता है। जीजा या फूफा द्वारा ही सुवासा का कार्य किया जाता है। मंडप के कोने में हल गाड़ा जाता है। यह छत्तीसगढ़ की कृषि संस्कृति का द्योतक है। गुलर की डालियाँ छाने के साथ ही मंगरोहन व पिढली इसी लकड़ी से बनाई जाती है। यह लोक परंपरा गाँवों में आज भी जीवित है। मंगरोहन मंगल काष्ठ है। जो वर-वधु के मंगल का प्रतीक है। मंगरोहन गुलर की लकड़ी से ही बनाए जाने के पीछे यह किवंदती प्रचलित है कि महाभारत काल में गांधार नरेश की बेटी गांधारी जब विवाह योग्य हुई तब उसकी सगाई हुई, जिससे उसकी सगाई हुई उस वर की मृत्यु हो गई। पुन: सगाई होने पर दूसरा वर भी मृत्यु को प्राप्त हुआ। जिससे गांधारी की सगाई होती वह काल का ग्रास बनता। राजा ने पंडितों से इसका कारण जानना चाहा। पंडितों ने राजा को इस अपशकुन से बचने के लिए सलाह दी की पहले गांधारी का विवाह गुलर (डूमर) के पेड़ से करो। क्योंकि बचपन में गांधारी ने बात स्वभाव के अनुसार खेलते-खेलते गुलर पेड़ में बने घोंसले को तोड़कर चिडिय़ा के बच्चों को नुकसान पहुँचाया था। तब गुलर पेड़ ने उसे श्राप दिया था। यह जानकर राजा ने गांधारी का विवाह गुलर पेड़ से किया। लोक जीवन में यह परम्परा अपशकुन से बचने के लिए किया जाता है-
डूमर डारा के दाई मड़वा छवई ले
बरे बिहे के रहि जाय
के ये मोर दाई सीता ल बिहाये राजा राम
बखरी के तीर-तीर दाई पड़की परेवना
कनकी ल चुनि-चुनि खाय
के ये मोर दाई सीता ल बिहाये राजा राम।
देवतला :
लोक मानस आज भी अपने लोक देवी देवताओं को पूजा में प्राथमिकता देता है। विवाह में यह आमंत्रण देवतला कहलाता है। महिलाएं स्थानीय मंदिरों में जाकर ठाकुर देव, शीतला, साहड़ादेव, हनुमान आदि देवी-देवताओं को हल्दी व तेल का लेप चढ़ाती है। विवाह निर्विघ्न सम्पन्न होने की कामना कर आशीर्वाद लेती हैं तथा विवाह कार्य में शामिल होने के लिए आमंत्रित करती हैं। इस समय महिलाएं रास्ते में गीत गाकर व देवालयों में नाचकर अपनी खुशियों को व्यक्त करती हैं-
तोर घर आयेन बइठ नई केहे
का गुन का गोठियाबो रे भाई
आमा ल मारे झेंझरिया-झेंझरिया
अमली ल मारे तुसार रे भाई
बैगिन ल मारे बोली बचन में
के खड़े-खड़े पछताय रे भाई
खड़े-खड़े पछताये
तेल चघ्घी- मंडप को गोबर से लीपकर चौक पूरा जाता है। मंगल कलश जलाए जाते हैं। वर-कन्या को अलग-अलग उनके घरों में सुवासिनें हाथ में हल्दी लेकर अधोअंग से उपांग की ओर पांच या सात बार चढ़ाती हैं। इसे तेल चढ़ाना कहा जाता है-
एक तेल चढिग़े, एक तेल चढिग़े ओ हरियर हरियर
मड़वा म दुलरु तोर बदन कुम्हलाय।
रामे ओ लखन के दाई रामे आ लखन तेल चढ़त हे
जहवाँ के दियना मोर करय ओ अंजोर
कोन तोर लाने मोर हरदी-सुपारी
कोन तोर लाने काँचा तिलि के तेल
कोन चढ़ावे तोर तन भर हरदी
कोन देवय तोला अँचरा के छांव
फुफु चढ़ावे तोर तनभर हरदी
दाई देवय तोला अँचरा के छाँव
नहडोरी गीत :
वर का तेल उतारने के बाद नहडोरी का नेंग सम्पन्न होता है। उसे वस्त्राभूषण से अलंकृत कर उसके हाथ में कंकन बांधा जाता है-
दे तो दे तो दाई आसी ओ रुपैया
के सुंदरी ला लातेंव ओ बिहाय
के मोर दाई सुंदरी ल लातेंव ओ बिहाय
सुंदरी-सुंदरी बेटा तुम झन रटिहौ ग
के सुंदरी के देस बड़ दूर
के मोर बेटा सुंदरी के देस बड़ दूर
तोर बर लानिहौं दाई रंधनी-परोसनी
के मोर बर घर के सिंगार
के मोर दाई मोर बर घर के सिंगार
मौरसौंपनी :
दूल्हे के माथे पर मौर (मुकुट) बंधा जाता है। कमर में कटार, मुंह में पान का बीड़ा। सूरज की तरह दमकता दूल्हा का चेहरा। महिलाएं मौर सौंप कर दूल्हा को दुल्हन लाने के लिए बिदा करती हैं-
पाँचे ओ अंगुरी म दाई पानी छिटकारे
सउँपव दाई मोर माथे के मउर
पाँचे हाथे म सउंपव चंदा ओ सूरुज ल
पांचे हाथे व सउंपव मोर माथे के मउर
काजर अंजई ले सोने कजरउटी
सउंपव दाई मोर माथे के मउर
नकटा नाच :
बारात प्रस्थान करने के बाद घर में केवल महिलाएं रह जाती हैं। घर में कोई पुरुष सदस्य नहीं रह जाता। अत: महिलाएं रात्रि में नाना प्रकार का स्वांग नाच-गान करती हंै। पुरुष का वेश धारण कर हास-परिहास और मनो विनोद करती हैं। यह नकटा नाच कहलाता है। यह महिलाओं का आनंदोत्सव है-
उतरो-उतरो सुवना अरछिन-परछिन
फोलो चना कई दारे हो महारंगी सुवा
जीव नैना लड़ा के उडि़ चले
उडि़ चले नई तो भागि चले महारंगी सुवा
नई उतरन हम अरछिन-परछिन
नई फोलन चना कई दारे हो
हमतो उतरबो समधिन के अंगना
समधिन के रस लेबे हो महारंगी सुवा
भड़ौनी गीत :
बारात जब वधु के गाँव पहुँचती है, तब बारातियों का स्वागत किया जाता है। महिलाएं हास-परिहास युक्त भड़ौनी गीत गाकर प्रेम आनंद को अभिव्यक्त करती हैं-
बने-बने तोला जानेंव समधी
मड़वा म डारेंव बाँस रे
जाला-पाला लुगरा लाने
जरगे तोर नाक रे।
दार करे चाँउर करे
लगिन ल धराय रे
बेटा के बिहाव करे
बाजा ल डर्राय रे
मेछा हवय लाम-लाम
मुँह हवय करिया रे
समधी बिचारा का करे
पहिरे हवय फरिया रे।
टिकावन गीत :
मंत्रोच्चार के साथ वर-वधु का पाणिग्रहण सम्पन्न होता है। इस समय कन्या के माँ-बाप द्वारा टिकावन में पचहर (पांच बर्तन) व अन्य सामग्रियाँ दी जाती हैं। स्वजन, परिजन सभी यथाशक्ति टिकावन टिकते हैं-
हलर-हलर मड़वा डोले ओ
अवो दाई खलर-खलर दाईज परे ओ
कोन तोर टिके नोनी अचहर-पचहर
के कोन तोर टिके धेनु गाय
दाई तोर टिके नोनी अचहर-पचहर
के ददा तोर टिके धेनु गाय
कोन तोर टिके नोनी लिलि हंसा घोड़वा
 के कोन तोर टिके कनक थार
भाई तोर टिके नोनी लिलि हंसा घोड़वा
के भऊजी तोर टिके कनक थार
भाँवर गीत :
अग्नि की साक्षी में फेरे पड़ते हैं और दो आत्माएं एक हो जाती हैं। यह नेंग ''भॉवरÓÓ  कहलाता है। महिलाओं द्वारा ''भाँवरÓÓ  गीत गाए जाते हैं-
हलु-हलु पाँव धरौ ओ दुल्हिन नोनी
तुँहर रजवा के अंग झन डोलय वो
हलु-हलु पॉव धरौ हो दूल्हा बाबू
तुँहर रनिया के अंग झन डोलय हो
एक भाँवर एक जुग भइगे वो दुल्हिन नोनी
तुँहर रजवा के अंग झन डोलय ओ।
बिदाई गीत :
बेटी की विदाई का क्षण बड़ा हृदय विदारक होता है। माँ-बाप के हृदय में जहां बेटी के व्याह सम्पन्न होने की खुशी होती हैं, वहीं उसकी पराई होने, दूर जाने का गम होता है। आँखों के कोरों से आँसू छलक  पड़ते हैं। बिदा गीतों के माध्यम से करुणा की अजस्र धारा फूट पड़ती है। सभी सुबक-सुबक कर बेटी को बिदा करते हैं।
अलिन-गलिन म दाई मोर रोवय, दाई मोर रोवय
ददा रोवय मूसर धारे ओ दीदी, ददा रोवय मूसर धार
बहिनी बिचारी लुक-छिप रोवय, लुक छिप रोवय
भाई करे दण्ड पुकार, ओ दीदी भाई करे दण्ड पुकार
अंसुअन तुम झन ढारिहौ बहिनी ढारिहौ बहिनी
सबके दुख बिसराहौ दीदी, सबके दुख बिसराहौं।
मृत्यु संस्कार :
मृत्यु जीवन का शाश्वत सत्य है। जो आया है व जाएगा ही। मृत्यु से कोई बच नहीं सकता। छत्तीसगढ़ी लोक जीवन में मृत्यु संस्कार के समय गीत गाए जाने की परम्परा ''कबीर पंथीÓÓ  समुदाय में है। हमारे संत-महात्माओं ने इस शरीर को नश्वर तथा आत्मा को अनश्वर बताया है। इन गीतों में शरीर की क्षणभंगुरता और आत्मा की अनश्वरता का बखान होता है-
बंगला अजब बने रे भाई, बंगला अजब बने रे भाई
ये बंगला के दस दरवाजा, पवन चलावय हंसा
आवत-जावत कोनो नई देखे, ईश्वर कर मनसा।
हाड़ चाम के ईटा बनाए, लहू रकत के लोहा
रोवा केस के छानही बन हे, हंसा रहे सुख सोवा
गजब सुघ्घर बने हे बंगला, ऊपर चाम छाया
हंसा भुलागे इही बंगला म, छोड़ नई हे काया
करे पाप हंसा इहें रहिके, होवय नहीं इही बंगला
अग्नि कुंड म बासा करिहि, होवय नास इही बंगला
रइही अमरपुर में हँसा, करय रात दिन मंगला
बंगला अजब बने रे भाई...
छत्तीसगढ़ी संस्कार गीतों में लोक जीवन की समग्रता समाहित है। लोक जीवन के सुख-दुख, हर्ष विषाद, जय-पराजय आदि उसके कंठों से निसृत होने वाले लोकगीतों में स्पष्ट रुप से प्रतिबिम्बित होते हैं। लोकगीत लोकजीवन के लिए संजीवनी का  कार्य करते हैं। एक प्रकार से लोकगीत लोकजीवन के सहचर हैं।
जहां लोकजीवन है वहां लोकगीत है और जहां लोकगीत है वहां लोकजीवन। लोकजीवन में लोक संस्कारों की अपनी अलग ही महत्ता है। ये संस्कार लोकजीवन के आधार स्तंभ हैं। इन लोक संस्कारों में लोकगीतों की परिव्याप्ति है। जन्म संस्कार हो या विवाह संस्कार या फिर मृत्यु संस्कार सब में लोकगीतों का साम्राज्य है। लोकगीतों के बिना लोक का कोई भी कार्य संपादित नहीं होता। अत: ये लोकगीत हमारे संस्कारों के संवाहक हैं और संस्कार जीवन की
अनिवार्यता हैं।
साभार रऊताही 2015

कुमाउनी लोकगीत उत्तराखण्ड की शान

लोकगीतों को परिभाषित करना उतना ही कठिन कार्य है जितना सूर्य को दीपक दिखाना। लोकगीत जीवन की स्थूल सूक्ष्म और सहज स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। लोक संस्कृति मानव धर्म है और लोक गीत धरती के गीत हैं। मानव अपनी खुशी, हर्ष, उत्साह या दु:ख दर्द को गीतों के माध्यम से प्रकट करता है और जब यह भाव उसके मन से प्रस्फुटित होते हैं तो उसकी अपनी का ही चोला पहनते हैं और इसी से लोकगीतों का जन्म होता है।
लोकगीत वह है जो लोक का रंजन करे। कुमाउनी लोकगीत यहाँ की लोकसंस्कृति की अलग पहचान है। उत्तराखण्ड अपने विशिष्ट लोकगीतों, लोकनृत्यों और लोक वाद्ययंत्रों की धुन से परिपूर्ण और गुंजायमान है। जटिल भौगोलिक स्थिति में कठोर परिश्रम कर जीवन यापन करने वाले लोग, विभिन्न प्रकार के लोकगीतों के माध्यम से अपनी थकान को विस्मरित करते हैं। धर्म, संस्कार, प्रकृति, देवी देवता और पर्व लोकगीतों की रीढ़ बनते हैं।
गीत, वाद्य और नृत्य के समन्वय को संगीत कहा जाता है। लोकगीतों की सृष्टि गेयता के आधार पर होती है। गायन का वाद्य तथा नृत्य से अभिन्न संबंध होता है। कुमाऊ  के सभी लोकगीत गेय हैं और उनके साथ प्राय किसी न किसी वाद्य यंत्र का प्रयोग भी अवश्य होता है। अधिकांश लोकगीत नृत्य के साथ प्रचलित हैं। इसमें वाद्य यंत्रों की ताल इतनी ओजपूर्ण होती है कि पैर खुद ही थिरकने लगते हैं। अत: इस प्रकार के नृत्य से संबंधित लोकगीतों को नृत्य गीत कहना अधिक समीचीन रहेगा लोकगीतों के भावों के अनुरुप ही इसमें नृत्य का विधान रहता है।
प्रत्येक क्षेत्र की अपनी परंपरा है, अपने त्यौहार उत्सवों को मनाने का अपना तरीका है। भिन्न-भिन्न त्यौहारों उत्सवों पर आनन्द की प्राप्ति के लिए अपनी रचनाएं गीत आदि लोगों के द्वारा प्रस्तुत की जाती हैं। इन्हें विभिन्न वर्ग समूहों में बांटा गया है जैसे धार्मिक गीत, ऋतु गीत, संस्कार गीत आदि।
धार्मिक गीत- जैसे आन्ठू या अष्टमी में कुमाऊ में प्रचलित पर्व में गाये जाने वाले गमरा मैंसर (गौरा-ममेश्वर) के गीत।
संस्कार गीत- शादी-ब्याह, यज्ञोपवीत, नामकरण आदि में गाये जाने वाले गीत।
ऋतु गीत- जैसे होली, शरदोत्सव आदि में गाये जाने वाले गीत। कुमाउनी होली का लोक संगीत में अपना महत्व है। जिस प्रकार का वर्णन इन होलियों में है, वैसी होली सम्भवत ही भारत में कहीं गाई जाती है। कुमाउनी होली में अपने इष्ट से लेकर सभी देवी देवताओं का पूजन किया जाता है और उन्हें याद किया जाता है।
कृषि गीत-जैसे हुड़का बुल। खेतों की जुताई करते समय, कटाई करते समय कृषक का उत्साह ठण्डा न पड़े, या उसे अपने काम में थकान ना महसूस हो, इसलिए कृषि गीत गाये जाते हैं। जैसे हिटो दीदी हिटो भोला, हिट वे बैना घास कटैना, पार डाना....।
इसी प्रकार से कितने और न जाने लोकगीतों की रचना कुमाऊ की धरती की देन है। जिसे देखकर यही प्रतीत होता है कि जितना रंगीला कुआऊ है, उतने ही रंगीले यहां के लोग। कोई भी उत्सव गीत संगीत के बिना अधूरा सा लगता है। कठोर पर्वतों पर भी निवास करते हुए यहां के लोग अपने हृदय में एक कोमलता लिए हुए हैं। जिसकी देन है यहां का लोक संगीत, मन को लुभाता और एक जोश और उत्साह भरता लोक संगीत।
यहां के गीतों में जो रिदम होती है तथा वाद्य यंत्रों के साथ जो तारतम्य होता है उसको सुनकर पैर नृत्य के लिए खुद ही उठने लगते हैं। लोकगीत और लोकनृत्य लोक जीवन की अभिव्यक्ति के सशक्त माध्यम है। थोड़ा सा काम से फुरसत मिली कि थकान मिटाने और उल्लास व्यक्त करने के लिए नृत्य और गीतों की महफिल प्रारंभ हो जाती है। मेले इन गीतों के रंग स्थल है। अत: प्रत्येक व्यक्ति के मन में मेलों कौतिकों में जाने की उत्कट हौस रहती है। दो-दो, तीन-तीन दिन की पैदल यात्रा करके एक दिन के नाच गान के लिए वह मेले में जा पहुंचता है। लोक कवि  दो दिन के अस्थाई जीवन में नाचने गाने को अनिवार्य मानते हैं, कहते हैं- नाचि ल्हियो खेलि ल्हियो, दवि दिन वचन।
लोक नृत्य के बिना लोक गीतों का महत्व कम हो जाता है इसलिए कुछ लोक नृत्यों को नामांकित कर रही हूं।
1. छोलिया नृत्य - यह कुमाऊ का परंपरागत नृत्य है। हर पर्व उत्सव में प्राय: किया जाता है।
2. हिल जात्रा - हिल जात्रा पिथारोगढ़ जनपद के सौर क्षेत्र में मनाये जाने वाले उत्सव विशेष हैं। इसमें समूह में नृत्य किया जाता है।
3. हिरन चिन्तन- आन्ठू के अवसर पर अस्कोट पट्टी में हिरन चिन्तल नामक लोक नृत्य का आयोजन होता है। इसमें नगाड़े और दमाने एक  ही स्वर क्रम में बजते हैं और नृत्य मुद्राओं को प्रदर्शित करने तथा पदक्रम संचालन में सहयोग देते हैं।
4. छपेली चन्चल गति एवं क्षिप्रता से युक्त नृत्य गीत छपेली है। छपेली का आयोजन प्राय: मेलों एवं खेल कौतिकों में होता है। विषय की दृष्टि से छपेली प्रेम एवं श्रृंगार प्रधान नृत्य गीत है। इसका मुख्य वाद्य यंत्र हुड़का है। ''हाय तेरी रुमाल गुलाबी मुखडी...।ÓÓ
5. चीन्चरी - चीन्चरी कुमाऊ की प्रसिद्ध सामूहिक नृत्य गीत शैली है। चीचरी का आयोजन मुख्यत: मेलों, उत्सवों, पर्वों एवं मांगलिक कार्यों के अवसर पर होता है।
6. झोड़ा- गायन हेतु परस्पर हाथ जोड़कर दो दलों द्वारा गाये जाने के कारण ये गीत झोड़ा कहलाये जाते हैं।
7. भ्वीन- भ्वीन में पौराणिक एवं स्थानीय देवी देवताओं, राजाओं और ऐतिहासिक पुरुषों की गाथाएँ गाई जाती हैं।
8. उजागर नृत्य- इस नृत्य के मूल में लोक मानस का आदिम धार्मिक विश्वास निहित रहता है।
9. गमरा नृत्य - गमरा नृत्य का अर्थ है अष्टमी के दिन गौरा को लेकर किया जाने वाला नृत्य।
10. ठुलखेल- पिथौरागढ़ जनपद के अस्कोट क्षेत्र में इस नृत्य का विशेष प्रचलन है। ठुलखेल में रामकथा के विविध प्रसंगों को प्रबन्धात्मक रुप में गाया जाता है।
11. चैती-बसन्त आगमन पर ऋतु गीतों और रितुरेन गायन के साथ यह नृत्य चलता है।
12. भडा- भाट अथवा चारणों द्वारा गाई जाने वाली भटों की गाथा क को भडा कहा जाता है।
उत्तराखण्ड संगीत और वाद्य यंत्रों का विस्तार - कुमाउनी गीतों और नृत्यों का परस्पर अभिन्न संबंध है। कुमाउनी गीतों और वाद्यों ने न सिर्फ उत्तराखण्ड और भारत में अपनी पहचान बनाई वरन विदेशों में भी यह अपनी जगह और पहचान बना रहे हैं। अमेरिका के सिनसिनाटी विश्वविद्यालय के संगीत के प्रोफेसर स्टीफन सिओल ने उत्तराखण्ड के ढोल दमाऊ मसक जैसे वाद्य यंत्रों पर शोध करने का मन बनाया और 2010 में सोहनलाल और उनके भाई सुक्वारु दास के शिष्य बनकर अनेक वाद्य यंत्रों को सीखा। उनसे प्रभावित होकर इन्होंने अपना नाम फ्याली दास रख लिया। इन वाद्य यंत्रों को बजाते समय बोली जाने वाली वार्ताएं, जागर, चैत्वाली, ऐतिहासिक कथाएं और मांगलिक गीतों का भी प्रशिक्षण प्रापत किया। प्रश्ििाक्षत होकर अमेरिका लौटने पर इन्होंने ढोल मसक को पाठ्य क्रम में एक विषय के रुप में सम्मिलित करने का प्रस्ताव रखा जिसे मान लिया गया। सिनसिनाटी विश्व विद्यालय ने सोहन लाल और सुक्वारु डस को विजिटिंग प्रोफेसर के रुप में आमंत्रित किया है।
बेडू पाको बार मासा हो नाराय काफल पाकी चैता मेरी छैला (गीतकार स्व. ब्रजेन्द्र लाल शाह, संगीतकार स्व. मोहन उप्रेती) इस गीत को प्रथम बार 1952 में नैनीताल के जी.आई.सी. में गाया था। परन्तु जब तीन मूर्ति भवन दिल्ली में प्रादेशिक संस्कृतियों के समन्वय उत्सव पर गाया गया तो पंडित नेहरु ने इसे लोक संगीत तथा लोक गायन में सबसे बेहतर स्थान दिया।
चिपको आंदोलन में भी कुमाउनी लोकगीतों ने लोगों को बहुत प्रोत्साहित किया और चिपको आन्दोलन को आगे बढ़ाया। गीत की एक बानगी देखिए
जग्या हम बिज्या हम, अब नी चलली चोरों की।
घोर अपणू बीन अपणू, अब नी चलली औरों की।।
माटू विकिगी पाणी विकिगी, बिकी गया हमारा बौन भी।
हाथ खाली छन पेट खाली छ:, ठिकाणु नी रैगी रौन कू
इस तरह कुमाउनी लोक गीतों ने बहुत लोकप्रियता अर्जित की है। जहां तक लोक संस्कृति और लोकगीतों के विकास का प्रश्न है, मेरे विचार से इनके विकास के विषय में सोचना वैसे ही होगा जैसे हम किसी पूर्ण विकसित फूल को विकसित करने का विचार करें। हमें लोकगीतों को संरक्षित करने की, संजोने की आवश्यकता है। यह हमारी पहचान हैं।
वह लोकगीत जो हमारे बुजुर्गों के साथ-साथ काल कवलित होता जा रहा है, उसे नई पीढ़ी को एक नए कलेवर के साथ हस्तांतरित करें। वे लोक गीत एवं लोक वाद्य जिनकी गूँज से कभी वादियाँ झूम उठती थी, पैर थिरकने लगते थे, जन जीवन श्रम की थकान एवम् अपने कष्टों को भूलकर मदमस्त हो उठता था, शनै:शनै: उसके स्वर मंद पड़ते जा रहे हैं। वे मात्र पुस्तकों की और संग्रहालय की शोभा बढ़ा रहे हैं। जो कभी हमारे पूर्वजों की खोज, तपस्या एवं साधना का परिणाम था, हमारा अभिज्ञान था आज अपने वजूद के लिए संघर्ष कर रहे हैं। आज इन धरोहरों को आवश्यकता है हमारे ध्यानाकर्षण की, हमारी श्रद्धा की, संरक्षण के साथ-साथ इन लोकगीतों को पुन: उजागर करने की। इसके लिए जरुरी है कि देश के अन्य संगीतकारों, कलाकारों की भांति इन लोक कलाकारों को भी समय-समय पर पुरस्कारों से नवाजा जाए। विवाहादि शुभ अवसरों पर अपने लोक गायकों को आमंत्रित करना चाहिए। इससे उनमें उत्साहवर्धन के साथ-साथ मनोबल की भी वृद्धि होगी और अपने पूर्वजों की धरोहर भावी पीढ़ी को सौंपने में उन्हें गौरवानुभूति होगी। साथ ही भावी पीढ़ी भी उसे सहर्ष स्वीकार करेगी। इससे हमारी लोक प्रचलित कलाएं, परम्पराएं और संस्कृति स्वत: जीवन्त रहेंगी और पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रहेंगी।
साभार रऊताही 2015

Thursday 21 February 2019

लोकगीतों में सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् की प्रखर अभिव्यक्ति

छत्तीसगढ़ राज्य विविध लोकगीतों, लोकनृत्यों और बोलियों का संगम स्थल है। लोकगीतों में सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम्  की प्रखर अभिव्यक्ति इसकी विशिष्टता की परिचायक है। गीत साहित्य की अत्यंत सूक्ष्म एवं प्राणवंत विधा है। जबकि लोकगीतों ने हमारी सामाजिक व सांस्कृतिक विविधता को सजाए रखने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। गीतों का जन्म किसी अज्ञात कवि के मुख से लोक जीवन में हुआ। यही कारण है कि लोकगीत, लोकजीवन का श्रृंगार ही नहीं वरन् उसकी आत्मा का प्रतीक है। लोकगीतों में वस्तुत: कवि की नहीं वरन् जनसमाज की वाणी मुखरित होती है। छग में विभिन्न अवसरों पर अलग-अलग विविध तरह के गीत गाये जाते हैं। ये जनभावना के सच्चे प्रतीक होते है। सधौरी गीत, सोहर गीत, ददरिया, बांस गीत, फाग गीत, फूगड़ी गीत, करमा गीत, जसगीत, पंडवानी, पंथी, चूलमाटी, तेलमाटी, भांवर, विदा गीत, सुआ गीत, डण्डा गीत, देवी गीत, हरेली, गेडी गीत, छेरछेरा, भोजली गीत, गौरा गीत, जवारा गीत, मडई व राउत नाचा में गाये जाने वाले गीत व दोहे जैसे-आंचलिक लोकगीतों में आंचलिक बोलियों के सौंदर्य के साथ ही यहां के निवासियों के हृदय की निश्छलता, सहृदयता व भक्तिभावना की स्पष्ट झलक दिखाई पड़ती है। लोकगीतों की गंगोत्री आदिकाल से गतिमान है। सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम् की भावना के साथ युगों-युगों से प्रभावित यह अविरल निर्झरणी जन-जन के हृदय को सींचती है।
डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार- ''ग्राम गीत आर्येत्तर के वेद हैं।ÓÓ  जबकि आचार्य श्री रामचंद्र शुक्ल का मानना है कि ''मनुष्य लोकबद्ध प्राणी है।Ó उसकी अपनी सत्ता का ज्ञान लोकबद्ध है। लोक के भीतर  ही कविता का या किसी कला का प्रयोजन और विकास होता है।Ó  लोकगीतों में नारी, माता, पत्नी, बहन, आदि अनेक रुपों में सामने आती है। इन गीतों में नारी जीवन के दु:ख दर्द का वास्तविक चित्रण होता है। नारी गीतों में संगीत तत्वों का पर्याप्त समावेश होता है, जिसका वास्तविक मूल्यांकन लोकगीतों की मौलिक स्वर-लहरियों के आंचल में ही संभव है। जो गीत कर्णप्रिय हो, हृदय को झंकृत करें वह विशेष अंचल की बोली में जब गाया जाये और जन-जन के कंठ का हार बने वह लोकगीत कहलाता है। समाज लोकगीतों के दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब देखता आया है। लोकगीतों को गाकर मजदूर और कृषक जहां अपनी थकान मिटाते हैं, वही नारी इन्हीं गीतों के माध्यम से अपने जीवन के सुख-दु:ख का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है। नारी के सुआ गीत, भोजली, ददरिया आदि गीतों में उनके प्राणों के वेदना की स्पष्ट दिग्दर्शन होता है उन गीतों की प्रवाहशीलता में हृदय द्रवीभूत हो जाता है।
लोकगीतों में रंग-बिरंगे परिधानों में इन्द्रधनुषी छटा बिखेरते हुए ग्रामीणों में जीवन के प्रति आस्था के स्वर हिलोरे मारते दृष्टिगोचर होते हंै। लोकगीतों की अविरल धारा को प्रवाहित करते ये विभिन्न क्षेत्रों में गाये जाने वाले गीत अपनी अनुपम छटा इस प्रकार बिखेर रहे हैं।
1. चुलमाटी गीत-
तोला माटी कोड़े ल, नई आवय मित धीरे-धीरे
धीरे-धीरे तोर कनिहा ल ढील धीरे-धीरे
तेलमाटी-
एक तेल चढग़े वो हरियर-हरियर मोर हरियर-हरियर
मड़वा मा दुलरु तोर बदन कुम्हलाय।
3. भांवर गीत-
जनम-जनम गांठ जोर दे ये जोड़ी जनम-जनम गांठ जोर दे
4. बिदा-
अलिन-गलिन मा दाई रोवय ददा रोवय मूसरधार वो
बहिनी बिचारी लुक-छिप रोवय, भाई के दण्ड पुकार वो।
5. ददरिया गीत- बटकी मा बासी, अउ चुटकी मा नून
मय गावत हंव ददरिया, तंय कान दे के सुन
6. बांस गीत- कारी-कारी दिखे करिया, कारी भादो रात
बनेच करिया संग भांवर परगे, दिन भेटव ना रात।
7. राउत नाचा-
सोना मोल बेचागे चांदी, चांदी मोल मे ताम रे
माटी मोल बेचावत हवय अस मानुष के चाम रे।
8. सुआ गीत-
तरी हरी नाना मोर ना ना ना, मय का जानव, मय का करव
9. छेरछेरा गीत- छेरछेरा-छेरछेरा, कोठी के धान ल हेरते हेरा।
ग्रामीण जीवन अपने पर्वों का स्वागत लोकगीतों के माध्यम से करता है। छ.ग. का ददरिया, सावर-भादो की तरह नहीं बरसता वरन बारहमासी रस से रस विभोर करता है। सावन की भोजली, भादो शुक्ल की एकादशी से करमा, क्वांर शुक्ल में जवारा, कार्तिक मास में गौरी-गौरा तथा सुआगीत, बसंत ऋतु में डंडा गीत, फागुन में फागगीत, चैत्रशुक्ल में माता सेवा व रामनवमी में रामधुन के धुन में हमारी लोक संस्कृति महत्वपूर्ण लोकगीतों का श्रृंगार किये हुए दिखाई पड़ती है। विवाह के अवसर पर चुलमाटी, तेलमाटी, हरदाही, नहडोरी, परगहनी, रातीभाजी, समधीभेंट, भड़ौनी, भांवर, टीकावन, व बिदा गीत जैसे नेगो में भी लोकगीतों के सुन्दर छटा का दिग्दर्शन भंलीभांति होता है। घर की चौखट से गुड़ी के गोठ व चौपालों तक, खेत से खलिहानों तक बालक, युवा, वृद्ध और महिलाएं लोकगीतों की रसवंती धारा में निमग्न रहते हैं। लोकगीतों की मौखिक परंपरा श्रुति परम्परा ही रही है जो समय के साथ ही निरंतर आगे बढ़ रही है। लोकगीतों को समूचे काव्य की जननी माना गया है। लोकगीतों की परंपरा उतनी ही प्राचीन है जितनी मनुष्य जाति की। यही कारण है कि वाचिक परंपरा में लोकगीत, लोकहृदयों व कंठों में आज सुरक्षित है तभी तो लक्ष्मण मस्तुरिहा की ये रचना आज भी लोकप्रिय है- ''मय बंदत हव दिनरात वो मोर धरती मइया जय होवय तोर।ÓÓ
लोकगीतों का सफर नई पीढ़ी के नए भावों के साथ लोकगायकों, कलाकारों, कथाकारों, पत्रकारों, पारम्परिक त्यौहारों के माध्यम से निरंतर प्रवाहित हो रही है। इन लोकगीतों में ऐसी हजारों-हजार पंक्तियां है जिनमें विचार, सिद्धांत, व्याख्या के साथ ही नव रसों का सागर भी समाहित है। करुणा, व्यंग्य और श्रृंगार की बेजोड़ अनुभूति के साथ ही साथ आडम्बर, आध्यात्म, भ्रष्टाचार, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक विसंगतियों पर गहरे कटाक्ष भी हैं। लोकगीतों के महान गायक व प्रचारक के रूप में जिन महानविभूतियों का स्मरण मुझे आ रहा है मैं उनके नामों के अंकन का एक गिलहरी प्रयास कर रहा हूं। जिन महापुरुषों का नाम भूलवंश अंकन नहीं हो पाएगा वे अथवा उनके जानकार मुझे क्षमा करते हुए मेरे शब्द पुष्प का स्वीकार करेंगे। संत कवि पवन दीवान, संत कृष्णा रंजन, रामरतन सारथी, हीरलाल काव्योपाध्याय, प्यारेलाल गुप्त, चतुर्भुज देवांगन, द्वारिका प्रसाद विप्र, रामकैलाश तिवारी, विमल पाठक, डॉ. विनय पाठक, पं. श्यामलाल चतुर्वेदी, डॉ. पालेश्वर शर्मा, दानेश्वर शर्मा, मुकुंद कौशल, प्रभंजन शास्त्री, मेहतर राम साहू, ऊधोराम, बद्री विशाल, हरि ठाकुर, लाला जगदलपुरी, हनुमंत नायडू, पं. रविशंकर शुक्ल, दादू सिंग, नारायण लाल परमार, जीवन यदु, कोदूराम दलित, झाड़ूराम देवांगन, तिजन बाई, सुरेन्द्र दुबे, नंदकिशोर तिवारी, कृष्ण कुमार भट्ट, हेमनाथ यदु, बुधराम यादव, ममता चंद्राकर, लक्ष्मण मस्तुरिहा व प्रसिद्ध बांसुरी वादक तथा भरथरी गायक मेरे पूज्य पिता पं. चंदूलाल तिवारी जैसे महान हस्तियों ने छग महतारी के आंचल में बिखरे लोकगीतों की अनमोल मोतियों को संजाने संवारने का प्रयास किया है हमें निश्चित तौर पर लोक गीतों की महत्ता पर गर्व होना चाहिए इस परम्परा के निर्वहन में अपना तन मन धन समर्पित करने हेतु सदैव तत्पर रहना चाहिए।
साभार - रऊताही 2015

ओडिय़ा लोकगीतों में सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना

'लोक शब्द का अर्थ विश्व ब्रह्माण्ड की तरह व्यापक है। सामान्यत: लोक का अर्थ आम जनता या जन सामान्य के रुप में ग्रहणीय है। कन्ध, गण्ड, परजा, गदबा, कोल्ह, भूइयां सरीखे आदिवासी गिरिजनों से लेकर ग्राम शहर के अशिक्षित अर्धशिक्षित जन सामान्य इस लोक के परिसर में आते हैं। इस जन समुदाय की संस्कृति ही लोक संस्कृति है। लोक साहित्य, लोक कला, लोक संगीत, लोकाचार आदि लोक संस्कृति के अंग है। मूलत: लोक जीवन में प्रचलित साहित्य ही लोक साहित्य है। 'लोकÓ शब्द को परिभाषित करती हुई श्रीमती प्रमोदा पण्डा लिखती हैं- 'लोकÓ एक लाक्षणिक शब्द है। व्यक्ति, जन समुदाय, भूमण्डल आदि इसके शाब्दिक अर्थ है, पर पारिभाषिक अर्थ में इसकी संज्ञा स्वतंत्र है। इस लोक का तात्पर्य केवल जन समुदाय नहीं है। यह एक प्राचीन पारंपरिक, विश्वास निष्ठ, अन्त:सम्बन्ध संपन्न जन समुदाय को ही इंगित करता है। आधुनिक प्रगतिशील तथा व्यक्ति स्वातंत्रयवादी जन समुदाय के संदर्भ में यह प्रायोगिक नहीं है।
अंग्रेजी में 'लोकÓ शब्द के पारिभाषिक अर्थ के रुप में  स्नशद्यद्म शब्द व्यवहृत है। प्रारंभिक दौर में समाज के नीचे तबके के लोगों के लिए यह शब्द प्रयुक्त होता था। पश्चिमी विद्वान हॉर्डर (॥द्गह्म्स्रद्गह्म्) ने पहली बार व्यापक अर्थ में इस  स्नशद्यद्म शब्द का प्रयोग किया। इस शब्द को जर्मन विद्वान थॉमस  (ञ्जद्धशद्वड्डह्य) ने एक नई रुप रेखा दी और उन्होंने  स्नशद्यद्म रुशह्म्द्ग शब्द को लोक साहित्य के लिए इस्तेमाल किया। पाश्चात्य समाजशास्त्री बर्ने (क्चह्वह्म्ठ्ठद्ग) की नवीन आलोचना दृष्टि ने इस फोकलोर शब्द को मौखिक रुप से लोक साहित्य या लोककला के रुप में ग्रहण किया और फिर लोक साहित्य शास्त्री मर्यादा हासिल करने में कामयाब हुआ। इसके बाद फोण्र्टर, रथबेनिडिकेड, रेडफील्ड, पोटर, सरीखे पश्चिमी आलोचकों ने इसे व्यापक रुप दिया और साहित्य को लोक साहित्य एवं शिष्ट साहित्य के रुप में स्वतंत्र भागों में बांटते हुए इसे साहित्यिक प्रतिष्ठा दी।
ओडि़शा की लोक संस्कृति का तात्पर्य यहां के मूल निवासियों, अधिवासियों की कला, साहित्य, संगीत, परंपरा, आचार-विचार, रहन-सहन, तीज-त्यौहार, पर्वोन्सव आदि का समाहार है। ओडि़शा के सर्वप्राचीन मूल निवासी के रुप में शबर समुदाय कोमाना जाता है। शबर यहां के मूल निवासी है। इन शबरों द्वारा ओडि़शा वासियों के आराध्यदेव भगवान जगन्नाथ की प्रतिष्ठा व पूजा अर्चना शुरु हुई थी। उसके बाद यहां द्रविड़ आए और फिर आर्य आए, जिन समुदायों ने आर्यों की अधीनता स्वीकार कर ली, वे समाज के निम्न जाति के रुप में पहचाने जाने लगे। जिन लोगों ने उनके अधीन रहना पसंद नहीं किया और उनसे परास्त होकर वन जंगलों में जाकर रहने लगे वे गिरिजन या आदिवासी के रुप में परिचित हुए। इन जन समुदायों की सामूहिक जीवन जिज्ञासा ही ओडि़शा की लोक संस्कृति है।
लोक संस्कृति को अज्जीवित करने वाला साहित्य ही लोक साहित्य है। जो साहित्य लोकग्राह्य है, वही लोक साहित्य है। खुले आसमान में उड़ते पक्षी की तरह यह स्वतंत्र है, इसमें न तो कोई बंधन है और न ही कोई नीति नियम। यह प्रचारधर्मी नहीं है। लोक साहित्य के सर्जक गुमनाम रहते हैं। वे प्रतिष्ठा, ख्याति, यश के लोभी नहीं होते। परिपूरित मन के उन्मुक्त भाव इसके मूल सम्बल है। नित-नवीन रुप परिवर्तन इसका प्राणधर्म है। विशिष्ट ओडिय़ा समालोचक डॉ. गौरांग चरण दाश इसकी व्यापकता सिद्ध करते हुए कहते हैं- 'समाज  के प्रत्येक वर्ग की जीवन जिज्ञासा, जीवन आदर्श, जो मनुष्य के लिए ग्राह्य है जो अन्तरचेतना को अभिभूत कर सके। जिसके अंदर वे अपनापन तलाश सकें, वही उस जनसामान्य का साहित्य, कला संगीत तथा व्यापक पैमाने पर लोक हृदय का उद्गार ही लोक साहित्य है, वही लोकवेद है।
लोक साहित्य मनुष्य की बात करता है। मनुष्य की नित दिनचर्या के जीवन प्रसंग, सुख-दुख आंसू मुस्कान से यह साहित्य अतिरंजित है। प्रताप सहगल की इन स्पेष्टोक्तियों से इसे और बारीकी से समझा जा सकता है- लोक साहित्य में जितनी अनगढ़ता है, कच्चापन है, उतनी ही उसमें मिट्टी की खुशबू भी है। उसमें एक सम्मोहन है। मानवीय संवेदनाओं का वाहक है लोक साहित्य, वह कभी हिंसक नहीं होता, सांप्रदायिक भी नहीं, संकुचित भी नहीं। वह तो समूह धर्मी है, सामाजिक प्रतिबद्धता है उसमें। लोक साहित्य मौखिक वाचिक परंपरा में उज्जीवित है। इसमें लोक जीवन की सच्चाई प्राकृतिक रुप से रुपांकित होती है, अत: नैसर्गिकता इसका प्राण तत्व है।Ó
लोक साहित्य मनुष्य के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन का परिप्रकाश है। वसन्त के मलयानिल की तरह हमारे मन को आनन्दित, पुलकित करने वाला साहित्य है। यह हमेशा हमें अपने परिवेश से, अपनी परिस्थिति से तथा पूरी प्रकृति से रागात्मक संबंध कायम करता है। यह मनुष्य के बीच मुखा-मुख, कानों-कान वाचिक, मौखिक रुप से प्राणवन्त है। स्वच्छ, सरल, पवित्र, मन्थर गति से गतिशील निर्झर झरने की तरह हमारे तन मन को रसाप्लुत करते हुए युगों-युगों तक पाठक समाज को मोहाविष्ट करता यह लोक साहित्य चिर-प्राकृतिक है, शाश्वत है। इसमें ग्राम जीवन की आशा-आकांक्षाओं की मार्मिक अभिव्यक्ति, अपेक्षित है, अत: यह हृदयग्राही है। लोक साहित्य के तीन प्रमुख अंगों में लोकगीत, लोककथा  एवं लोक नाट्य में से लोकगीत का महत्व सर्वोपरि है।
लोकगीत मानव हृदय का प्रथम स्फुरण है। सबसे पहले मनुष्य के अन्तर्मन से गीतों के रुप में उसकी भावनाएँ व्यक्त हुई हैं। आदिम युगीन मनुष्य जब घने जंगल में जीवन जी रहा था, फल-फूल उसका आहार था, पेड़-पौधों का वल्कल उसका परिधान था। उस समय वह अपनी सभ्यता, संस्कृति से अनजान था। उस समय उसकी ज्ञान परिसीमा सीमित  थी। उस समय प्राकृतिक आरण्यक परिवेश, प्राकृतिक सुषमा, आकाश की नीलिमा, फूलों का सौरभ झरने की कल-कल नाद, पक्षियों का कूजन, बारिश की रिमझिम ध्वनि, विस्तृत हरीतिमा आदि मनुष्य के मन को न सिर्फ रम्य रंजित करते थे, वरन उसके अन्त:करण को उद्वेलित करते थे। उसी समय उसके कण्ठ से हृदय का उच्छवास उसके कण्ठ से गीतों के रुप में प्रस्फुटित होता था, यही प्रारंभिक गीत लोकगीत है। लोकगीतकार, प्रकृति के प्रागंण में बैठकर प्राकृतिक विषयों को लेकर गीत गाता चला गया है, अत: लोकगीत कृत्रिम न होकर प्राकृतिक है।
ओडिय़ा लोक साहित्य के अन्वेषक लोकरत्न डॉ. कुंजबिहारी दाश के शब्दों में, ''लोक गीत प्राचीन है, फिर चरि नवीन है। युगान्तर में बाह्य परिवेश होने पर भी प्राचीनधारा निरंतर प्रवाहित होती है। पुराने युगों का संदेश लोक गीतों के जरिए हमारे पास पहुंच सका है। इस दृष्टि से लोक साहित्य शिष्ट साहित्य का जनक है, नियामक है। लिपि उद्भावन से पहले यह मौखिक रुप से प्रचलित था, बाद में लिपिबद्ध हुआ। नए-नए रुप रंगों के साथ लोकगीत अतीत से वर्तमान, वर्तमान से भविष्य की ओर गतिशील होने लगा।ÓÓ अर्थात लोकगीत अतीत का साक्षी, वर्तमान का वाहक और भविष्य का रक्षक है। यह निराश मन में नई आशा-संचार करता है, जीवन जीने की कला सिखाता है। समाज को स्वस्थ, सुंदर बनाने के साथ-साथ यह हमारे अंदर प्रेम, सद्भाव, शांति, मैत्री की भावना भर देता है।
ओडिय़ा लोकगीत ओडि़शा के लोकजीवन का मौखिक इतिहास है। ओडिय़ा लोकगीतों में गिरि-कन्दराओं में, घने जंगलों में, गांव-देहातों में निवास कर रहे जन समूहों का सामाजिक जीवन मुखर है। ओडिय़ा लोकगीत लोकजीवन का पुष्कल परिप्रकाश है। यहां के लोकगीतों में केवल मनुष्य के लिए संवेदना व्यक्त नहीं हुई है, बल्कि समाज को कलुषित करने वाले असामाजिक तत्वों के प्रति कटुक्ति या व्यंग्योक्ति भी व्यक्त हुई है। लोक कवि उन्मुक्त भाव से गीत गाता चला गया है। गीत गाने की प्रक्रिया असीम है। अपने समाज, प्रकृति तथा मानव जीवन के सुख-दुख, हर्ष-उल्लास, आशा-आकांक्षा आदि को लेकर मुक्त कण्ठ से वह गाता चला गया है। इसकी भाषा अत्यंत सरल पर भाव अत्यंत गंभीर है। ओडिय़ा के लोक जीवन में हलवाला गीत गाड़ीवान गीत चरवाहा गीत, मल्लाह गीत, विवाह गीत, लोरी गीत, झूला गीत आदि लोकगीतों का विशिष्ट महत्व है-
1. हलवाहा गीत- ओडि़शा एक कृषि प्रधान ग्राम बहुल राज्य है। यहां के लोगों की मुख्य जीविका कृषि है। कृषि कार्य करते हुए किसान अपने खेत में गीतों का अम्बार लगा देता है। यहां का किसान-मजदूर दिन रात अपने खेत में जुटा रहता है चाहे जेठ की कड़ी दोपहरी हो या पूष की कंपकंपाती ठण्डी रात, वह कृषि कार्य में जुटा रहता है।  वह खून-पसीना बहाकर खेत में सोने की फसल उगाता है। सावन की झड़ी बरसात हो या जेठ की कड़ी धूप हो, हल चलाता हुआ हलवाहा गीतों की झड़ी लगा देता है, जिससे पूरा परिवेश झंकृत हो उठता है। वह पौराणिक कथा प्रसंगों को लेकर गीत संयोजन करता है, बशर्ते उन गीतों के शाब्दिक अर्थों से उसका कोई सरोकार नहीं होता। हल चलाता हुआ हलवाहा गा उठता है-
राम लक्ष्मण दुई गोटी भाई
के फान्दे लंगल, के फान्दे आड़ मई
पल्हा परशिबे राम जे लक्ष्मण
 सीतया जिबे रोई हो....
(राम लक्ष्मण दोनों भाई खेत में हल चला रहे हैं। फिर दोनों भाई धान पौधों को देवी सीता के पास पहुंचा रहे हैं। सीताजी धान रोपाई में लगी हुई हैं।)
2. चरवाहा गीत- गाँव के खेतों में, परती जमीन पर चरवाहा गाय-भैंस चराता हुआ गाता फिरता है- 'प्यारे मन की गठरी खोल, उसमें भरे लाल अनमोल।Ó गाय भैंसों का चरवाहा बारिश, गर्मी, सर्दी के दिनों में घर से दूर अपने साथियों के साथ समय बीताता है। बारिश के दिनों की मूसलाधार बारिश में, सर्दी के दिनों की कंपकंपाती ठण्ड में तथा गर्मी के दिनों की कड़ाके की धूप में अपने प्रवासी जीवन में थोड़ा सा आनंद संचार के लिए वह गीत गाने लगता है। गीतों के माध्यम से वह अपनी वियोग-व्यथा व्यक्त करके मन को थोड़ा  हल्का करता है। उसकी नजर के सामने अपनी प्रेयसी पत्नी का खूबसूरत मुखड़ा खिल उठता है। कई दिनों बाद जब वह अपने मवेशियों के साथ घर लौटता है, तो उसकी पत्नी मुंह लटकाई हुई बैठी रहती है। मुस्कुराती हुई एक शब्द भी नहीं बोल रही है, क्योंकि उसके पति की गैर मौजूदगी में सास-ससुर ने बहुत कुछ खरी-खोटी सुनाई है, इसीलिए वह अपने मायके चले जाने की जिद लिए बैठी है। चरवाहा अपनी हृदय साम्राज्ञी को मनाता हुआ गाता है- 'मईषि खाइले बिरि उठिआ लो
खरि पडिय़ा रे गोठ
दूहां बरडिय़ा अलगा कर लो
बोहू मड़ाइबे भार
माआ माइला कि बाआ माइला
काहा बोले गल रुषि
आणे पनिआ मा रे उकुणि
खंजा महुड़ा रे बीस।Ó
3. गाड़ीवान गीत- आज इक्कीसवीं सदी के प्रथम चरण में हमारी सभ्यता इतनी विकसित हो गई है कि गांव-देहात में बैलगाड़ी, घोड़ा-गाड़ी नोहर हो गई है। आज के मशीनी युग में अत्याधुनिक मनुष्य इतना मशीनी दास हो चुका है कि एक मील दूरी पैदल चलना भी उसके लिए दूभर हो गया है। धीरे-धीरे सायकिल  भी सड़कों पर कम चलती हुई दिखाई दे रही है। कहीं ऐसा न ही कि कुछ वर्षों बाद गांव-देहात की सड़कों पर सायकिल चलना बंद हो जाये, जिस खतरे के बारे में गांधी जी ने 'हिन्द स्वराजÓ में बीसवीं सदी के प्रारंभ में ही आगाह कर दिया था। पहले जमाने में बैलगाड़ी सवारी और सामान दोनों ढोने के लिए इस्तेमाल होती थी। दूर दराज में व्यापार करने तथा रिश्तेदार के घर जाने के लिए गाड़ीवान को दिन रात गाड़ी चलानी पड़ती है। रातभर की थकान से जब उसकी आंखें मूंदने को बेताब होती हैं, तब गाड़ीवान अपनी नींद भगाने के लिए गीत गाने लगता है। उसके गीतों की लय में अपनी थकान भूल कर बैल भी दौडऩे चलने लगते हैं। गाड़ीवान ऊंचे स्वर में गाने लगता है-
'दूर कु सुन्दर त परबत माल
गाँ कु सुन्दर त नडिय़ा गुआ ताल
बन्धु कु सुन्दर त दिशई दूर बाट
सिन्धु कु सुन्दर त लहड़ा भंगा घाट
सभा कु सुन्दर त पधान सान भाई
गोठ कु सुन्दर त दुहांलिआ गाई
घर कु सुन्दर जेबे लो धरणी
न जिबु बाप घर लो।Ó
4. मल्लाह गीत-(मांझी गीत) ओडि़शा नदियों का राज्य है। यहां की महानदी ओडि़शावासियों की जीवन रेखा है। महानदी पर निर्मित हीराकुंड बांध विश्व प्रसिद्ध जल परियोजना है जहां का बिजली उत्पादन पूरे राज्य को प्रकाशित करता है। नदियों में, समुद्र में नाव चलाते हुए मछली पकड़ते हुए मल्लाह जाति के लोग अपनी आजीविका चलाते हैं। नाव चलाते हुए मांझी सुमधुर स्वर में गीत अलापने लगता है। अपने मर्मस्पर्शी गीतों से वह सवारियों का मनोरंजन करता है। हवा अनुकूल होने पर नाव में पाल बांधकर पतवार पकड़े हुए नदी किनारे के लोगों को लक्ष्य करके गीतों की लहर छोड़ता है और जब हवा प्रतिकूल होती है तो अपने शारीरिक कष्ट से क्षणिक छुटकारा पाने के लिए गीत गाते लगता है। इसके अलावा नदी में स्नान कर रही किशोरी-युवतियों, कमर लचकाती हुई कलसी  से पानी ले जा  रही पनिहारिनों को देखकर मांझी आशु कवि बन जाता है। नदी किनारे कोई हल्दी उबटन लगाई हुई चावल धो रही युवती को देखकर मल्लाह का प्रेमी मन उद्वेलित हो उठता है और उसका प्रेम इन शब्दों में प्रकट होने लगता है-
'कि गीत गाइलु नाआ मंगे बसि
कान पारिथिब सोल बयसि
चाऊल धोई आसि हो...
कदली पतर बाआ कु फर-फर
ओदा लुगा पिन्धी गोरी बाहार
हल्दी जर-जर हो...Ó
5. डोली गीत - ओडि़शा के सामाजिक सांस्कृतिक जीवन में डोली गीतों की विशेष भूमिका रही है। विशेष रुप से शादी के समय और शादी के बाद कन्या इसी डोली में सवार होकर ससुराल से मायके और मायके से ससुराल आया करती है। प्राचीन युग में यह डोली ही दुल्हन के आने-जाने का माध्यम थे। इस डोली को चार लोग कन्धे पर लाद कर दूर-दराज का रास्ता तय करते थे। कहार अपनी थकान से निजात पाते के लिए  तथा यात्रा को सुगम बनाने के लिए अनेक गीत गाया करते हैं। इन गीतों को पहले तक कहार गाता है फिर बाकी तीनों उसकी आवृत्ति करते हैं। इन गीतों  में विविध सवाल जवाब, मौज-मजलिस तथा रसिकता पूर्ण वाक्यों  द्वारा कहार अपने पथ-परिश्रम व क्लान्ति भूल जाते हैं और गीतों का समां बांध देते हैं-
'पान भांगुथिबु खिलेई करि लो
चुनि चुनि गुआ खइर मिशालो
बड़ नई कूल बड़ उठाणो लो
केमिति काढि़बि खरारे पाणि लो?
गामुछा काणि रे आणिबि टाणिलो
अन्टा नक नक बाँऊश कणिलो।
6. बिदाई गीत- हमारे पारिवारिक सामाजिक जीवन में वैवाहिक-मांगलिक उत्सव विशिष्ट महत्व रखता है। विवाह के समय पूरा घर परिवेश खुशियों से भरापूरा रहता है। सभी के मन में खुशी की लहर उठ रही होती है। विवाह के दौरान बारात-आगमन कन्या पक्ष के लिए बड़ी हर्षोल्लास की घड़ी होती है। बारातियों तथा दूल्हेराजा के स्वागत में किशोरियाँ-युवतियाँ मंगलगान करती हैं और फूलों की बारिश करते हुए आनन्दातिरेक हो उठती हैं। कन्या अपनी सहेलियों के साथ छिप कर किसी भी तरह से अपने सपने के राजकुमार को देख लेती है और खुशियों से झूम उठती है। पूरे वैदिक रीति से विवाह संपन्न होता है। फिर विदाई की घड़ी आती है, जो प्रत्येक व्यक्ति के हृदय को हिलाकर रख देती है। कन्या बाबूल का आंगन छोड़ ससुराल के लिए कदम बढ़ाती है। इस गीतों में माँ-बाप, परिवार-स्वजन, सखी सहेलियों से बिछुडऩे की पीड़ा कन्या व्यक्त कर रही है।
'आहा कषि काकुड़ी
मुं त जाउछि छाडि़
मन रे पकाऊ थिब घड़ी की घड़ी
आहा संगात सखि
दया थिबटी रखि
नयनु न रहे नीर तुमकु देखिÓ
7.लोरी गीत- माँ के चरणों में जन्नत होती हैं। माँ तो धरती माता की तरह होती है, जो अपने वक्षस्थल  में सभी दुख संताप, हर्ष विषाद  को धारण करके त्याग बलिदान की प्रतिमूर्ति के रुप में चुनौतीपूर्ण जीवन जीती है। वह अपनी संतान को खून से सींचकर बड़ा करती है, अपने कलेजे के टुकड़े को सीने से दबाकर रखती है। ममतामयी माँ अपने बच्चे की परिवरिश में कोई कसर नहीं छोड़ती। वह अपने लाल को हल्दी-तेल मालिश करते, नहलाते, खिलाते, घुमाते, सुलाते समय अनेक गीत गाकर सुनाती है। माँ की लोरी और कोमल हाथ की थकान से बच्चे को नींद आने लगती है और माँ की गोदी में या पलंग पर वह सो जाता है। धीमी आवाज में शांत रस से सराबोर माँ इस तरह से गुनगुनाने लगती हैं-
धो रे बाया धो
जोऊ किआरि रे गहल माण्डिया
सेई किआरि रे शो...
झूला गीत- ओडि़शावासियों में बारह महीने में तेरह पर्व मनाने की सुंदर परंपरा है। यहां का लोक  जीवन तीज-त्यौहार, पर्व उत्सव मनाने में कोई कसर नहीं छोड़ता। होली, दिवाली, रज पर्व, चैत पर्व, फाल्गुन पर्व, नुआ खाई, प्रथमाष्टमी, जन्माष्टमी, रथयात्रा, झूलन यात्रा, धनु यात्रा, पौष पुन्नी, लक्ष्मी पूजा, मोरिया पूजा, जुड़ो पर्व इत्यादि जाने कितने पर्व उत्सव, तीज-त्यौहार यहां के ग्रामजनों, गिरिजनों में मनाए जाते हैं। यहां का ग्राम परिवेश इस अवसर पर नाच-गान, बाजे-गाजे से झंकृत हो उठता है। रजसंक्राति के अवसर पर बड़ी धूमधाम से रज पर्व मनाया जाता है। यह युवक-युवतियों का आनंद पर्व है। यह तीन दिनों तक चलता है। इस मौके पर युवतियां झूला लगाकर झूला झूलती हुई गीत गाती है। युवतियाँ-किशोरियां अपने संगी-साथी, प्रेमियों, भाभियों को इंगित करके सुमधुर स्वर में गीत गान करती हैं। किशोरी प्राण का यह सामूहिक गीत उनकी सुरीली आवाज से अत्यंत सरस-आकर्षक बन पड़ता है। किशोरियों भाव-विभोर होकर गाने लगती है-
कोइली डाकिला मो बुद्धि हजिला
धइली धसाई पशि
दोली उन्चे गला चालि
खसि आसु आसु किबा देखिलि
पराण समर्पि देलि
कटिली सुगन्धि बेणा
नास्ति करु करु धइले डेणा
करि न पारिलि मना
लोकगीत ओडिय़ा लोक जीवन में लोक वेद के रुप में परिचित है। इसकी भाषा सरल तथा भाव गंभीर है। जनमानस में प्रचलित मौखिक बोलचाल की भाषा में रचित लोकगीत सर्वग्रहणीय है। ओडिय़ा लोक गीत ग्राम जीवन की सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना की मार्मिक अभिव्यक्ति हैं। इसमें लोक जीवन के सुख-दुख, आशा-आकांक्षा, आस्था-विश्वास, सामाजिक सरोकार तथा सांस्कृतिक जीवन स्पन्दन चिर भास्वर है। निष्कर्ष के रुप में यह स्पष्टोक्ति रखी जा सकती है। ओडिय़ा लोकगीत भाव एवं रस का समाहार है। यह कला कल्पना की गगन चुम्बी मीनार है। यह पुराण, इतिहास और विश्वास बोध का त्रिवेणी संगम है। सत्य की ज्योति शिव की मंगलमयता एवं सौन्दर्य की मनोहरता से यह विमण्डित है। यह लोक गीत रह चलते राही की थकान ही दूर नहीं करता, नैराश्य हृदय में आशा का संचार करता है।
साभार - रऊताही 2015