Saturday 16 February 2013

छत्तीसगढ़ की लोकसंस्कृति

मध्यप्रदेश के दक्षिण पूर्वी अंचल में छत्तीसगढ़, दण्डकारण्य, महाकौशल, दक्षिण कौशल, गोंडवाना, झारख्ंाड आदि विविध अभियानों से समय-समय पर जाना जाता रहा हैं। यहां की संस्कृति अत्यंत प्राचीन है जिसमें आदिम सभ्यता के अवशेष सुरक्षित हैं। इस दृष्टि से यहां का लोक जीवन व संस्कृति परिपाश्र्च अत्यंत महत्वपूर्ण है।
संस्कृति शब्द ''संस्कृ ''शतु विराम प्रत्यय लगने से बना है। जिसका शाब्दिक अर्थ सुधरी अर्थात ''सुधरी हुई जाति है। संस्कार-सम्पन्नता, समाज सुसंस्कृत होता है। इस तरह संस्कार से संस्कृति का सीधा संबंध है। इसके अंतर्गत रहन-सहन, खान-पान, आचार-व्यवहार, रीति-रिवाज, पर्व, त्यौहार, उत्सव, मेले, व्रत, धर्म, कला व जीवन के वे समस्त क्रियाकलाप सम्मिलित हैं, जिससे जीवन सुधरता और संवरता है संस्कृति ग्राम और नागर, लोक और शिष्ट होती है। लोक का संबंध जहां लोक जीवन से हैं, वहीं शिष्ट का संबंध, विशिष्ट जन या सभ्यता से है।
आक्सफोर्ड के शब्द कोष में संस्कृति शब्द की परिभाषा का इस तरह वर्णन है- ''मन की अभिरुचि और आचरण का प्रशिक्षण, परिकरण सभ्यता का बौद्धिक संसार में जो कुछ सर्वोत्तम जाना और परखा गया है, उससे परिचय की संस्कृति है।ÓÓ
यहां की भौगोलिक सीमाओं में समय-समय पर परिवर्तन होता रहा है इसके बावजूद छत्तीसगढ़ लोक संस्कृति पर प्राय:  आर्य सभ्यता का ही प्रभाव दिखाई देता है यहां मुख्यत: आर्य, निषाद और द्रविड़ संस्कृति का प्रभाव ही रहा है।  प्रभाव के आधार पर यहां की संस्कृति आर्य और अनार्य दो भागों में विभाजित की जा सकती है प्रथम वे जो संस्कारी (शिक्षित) हैं जिनमें ब्राह्मण, वैश्य व क्षत्रिय आते हैं जिनका जीवन स्तर अपेक्षाकृत संस्कारी हैं, ये राम और कृष्ण की भक्ति करते हैं तथा रामलीला एवं कृष्णलीला के माध्यम से भगवान को प्रसन्न कर भक्ति और निष्ठा का प्रदर्शन करते हैं। इसके अतिरिक्त आंचलिक देवी-देवता हैं जो समय-समय पर विभिन्न जातियों व भूपतियों के धर्माचरण व प्रचार के प्रतीक हंै। इसके अतिरिक्त दूसरा वर्ग अनार्य अर्थात् अशिक्षित या अल्प संस्कारी जातियों का परिलक्षित होता है जिनमें सतनामी, रावत, अहीर, तेली, कुर्मी, पनिका (मानिकपुरी) आदि जातियां सम्मिलित हैं। पूरी पनिका (मानिकपुरी) जाति कबीर पंथी है। कबीरदास जी के संदर्भ में किवंदती है कि ये पानी में तिरते हुए अवतरित हुए, उसी पानी का है ये ''पनिकाÓÓ इसके अतिरिक्त अन्य जातियों में भी कबीर पंथी के अनुयायी पर्याप्त संख्या में है। दामा-दाम से व्युत्पन्न है और खेड़ा का अर्थ लघु है। वह लघु ग्राम जिसमें छत्तीसगढ़ के बीर पंथियों का धाम ''दामाखेड़ाÓÓ ही कबीर धाम अभियान से अभिहित होता है। कबीरधाम आधुनिक कवर्धा का नाम प्रतीत होता है। इसी तरह धर्म धाम धमधा कहा जाता है। इस प्रकार अनेक स्थान-नाम कबीर पंथ के प्रसार प्रचार की गाथा कहते हैं। संत धर्मदास कबीरदास के पटु शिष्य थे जिन्होंने दामाखेड़ा को अपना कार्य क्षेत्र बनाया। इसके अतिरिक्त संत गुरु घासीदास ने सतनाम पंथ को प्रारंभ किया और उस धर्म के अनुयायी सतनामी के नाम से जाने गए, इसी सतपथ को मानने के कारण ''पंथी-गीतÓÓ का प्रचलन हुआ। इनमें महात्मय और सात्विकता विशेष रूप से पायी जाती है जो उनकी पंथ के प्रति आस्था का प्रतीक है। डॉ. विनय कुमार पाठक के अनुसार छत्तीसगढ़ में हिन्दू धर्म के सिवाय बौद्ध, जैन , मुस्लिम व ईसाई धर्मों का प्रभाव भी रहा है। जहां ग्राम आरंग का जैन मंदिर प्रसिद्ध है वहीं रायपुर जिले के तुरतुरिया ग्राम में बसी बौद्ध भिक्षुणियों का बौद्ध विहार था। यहां स्थित जादू टोने और कुंभी पटिया सरीखी जमातों का अस्तित्व प्रयानी शाखा के प्रभाव की ओर इंगित करता है। मंडई क्षेत्र में स्थित वैष्णव, जिस प्रकार इंद्रधनुष सात रंगों के आनुपातिक संयोजन से ही मनोहर एवं अर्थवान प्रतीत होता है उसी प्रकार संपूर्ण छत्तीसगढ़ की सतरंगी संस्कृति में भारतीय संस्कृति की एक किरण अवस्थित है।
छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में यहां का लोक जीवन विशेष महत्व रखता है। इसके अनुशीलन से विचारों, भावनाओं तथा विश्वासों का आश्रय लेना एक स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। प्राचीन काल से ही तत्कालीन धर्म साधनाओं तथा जीवन के विविध सांस्कृतिक क्रिया-कलापों का इस अंचल में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभाव पड़ता रहा है। छत्तीसगढ़ में आर्य-अनार्य संस्कारों के संगम की पुष्टि डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र ने की है, उनके अनुसार ''छत्तीसगढ़ का लोक-जीवन आदिकाल से ही शिक्षा और सभ्यता का केन्द्र रहा है फिर भी यहां के संस्कार, कला, संस्कृति का स्त्रोत निरंतर प्रवाहमान रहा, इसके बावजूद छत्तीसगढ़ी संस्कृति की आत्मा गांवों में ही सुरक्षित रही है।ÓÓ यही कारण है कि नगरीय संस्कृति की अपेक्षा ग्राम्य अथवा लोक संस्कृति इस अंचल में अधिक सजीव और क्रियाशील है। यहां तक इस अंचल में आदिम प्रकृति सभ्यता एवं संस्कृतियों के संपर्क में आने के बाद भी यह स्वत्व की संजोए हुए इन सभी संस्कृतियों से पृथक अपना अस्तित्व निर्मित करती है। छत्तीसगढ़ में सात जिले और तीन संभाग हैं और यहां की लोक भाषा छत्तीसगढ़ी है और छत्तीस जातियों के मिलन का केन्द्र होने के कारण यह छत्तीसगढ़ है और यहां की संस्कृति छत्तीसगढ़ संस्कृति है।
अनेक राजनैतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक उथल-पुथल के बाद भी इनका जीवन एवं संस्कृति के मूल तत्व सर्वथा सुरक्षित हैं। छत्तीसगढ़ आर्य, द्रविड़ व निषाद संस्कृति का समन्वय स्थल है। छत्तीसगढ़ी लोक जीवन और लोकाचार में यह त्रिवेणी संश्लिष्ट है। उदाहरणार्थ यहां की यदुवंशियों की ''मड़ईÓÓ में अवस्थित मोर पंख व तोरण आर्य, कौड़ी द्रविड़ और बलि पूजा के लिए ऊपरी भाग में रखा मुर्गा निषाद संस्कृति का प्रतीक है। इस दृष्टि से यदि एक भी जाति यदुवंशियों की चर्चा करें तो भी उसमें छत्तीसगढ़ी संस्कृति और लोक जीवन का स्पंदन मिलता है। इसके अतिरिक्त विभिन्न जातियों का सामूहिक अवदान त्रिवेणी संस्कृति के पुण्य को प्रकट करता है। इस दृष्टि से यह अंचल महत्वपूर्ण है कि यहां भारतीय संस्कृति की आत्मा अक्षुण्ण है। इस आधार पर यदि इसे भारतीय संस्कृति का संक्षिप्त संस्करण कहें तो अत्युक्ति न होगी।
छत्तीसगढ़ में प्रारंभ से ही तंत्र-मंत्र की ओर झुकाव रहा इसका मुख्य कारण यह प्रतीत होता है कि यहां समय-समय पर विभिन्न प्रकार की जातियों का आगमन होता रहा है उनकी संस्कृतियों को आत्मसात भी किया जाता रहा है फिर भी उनका झुकाव जादू-टोने से दूर न हो सका। इसी संदर्भ में डॉ. पालेश्वर शर्मा का यह कथन समीचीन जान पड़ता है उनके अनुसार छत्तीसगढ़ तांत्रिका को गढ़ रहा है इसलिए प्रत्येक शुभ और महत्वपूर्ण कार्य के आरंभ में तंत्र-मंत्र, पूजा अर्चना जुड़ी हुई है। यहां नर-नारी, जानवर या पेड़ ही नहीं कुएं, तालाबों के भी विवाह प्रचलित हंै। कुंवारे आम का फल उसके विवाह के बिना खाना निषिद्ध है। आम्र तरु की भी हरदियाही, भांवर, की प्रथा है तो तालाब का विवाह अत्यंत श्रेष्ठ और महत्वपूर्ण माना जाता है।
विभिन्न प्रकार की लोकोक्तियां एवं मुहावरों से छत्तीसगढ़ संस्कृति और बहुरी लोकजीवन को निरख-परखा जा सकता है। यहां के वर्ग विभाजन की अधोलिखित पंक्तियों से प्राप्त हो जाती है-
भात-पेज-पसिया।
छत्तीसगढ़ी रसिया।।
ऐसा अद्भुत वर्ग विभाजन अन्यत्र कहां उपलब्ध होगा? भात खाने अर्थात् उच्च वर्ग है जो अपनी सामथ्र्य के आधार पर सुस्वादु भोजन प्राप्त कर पाता है, वहीं दूसरी ओर पेज अर्थात चांवल को पकाने के पश्चात जो उबला पानी चांवल में से निकाला जाता है उसे पीने के पश्चात मध्यम वर्ग का व्यक्ति संतुष्ट हो जाता है उसे अपने से पहले वाले की उच्चावस्था का रंच मात्र भी क्लेष नहीं होता। वह अपने आप में पूर्ण संतुष्टि का अनुभव करता बड़े आनंद से जीवन यापन करता चलता है। इसके विपरीत तीसरा वर्ग है जो पसिया अर्थात् यह भी चांवल का ही निकाला गया एक प्रकार का बासी पुराना पानी ही होता है जिसे पान करने के पश्चात पीने वाले की उदर पूर्ति हो जाती है और वह हर्षोल्लास से नृत्य और गायन का आनंद लेता हुआ जीवन का आनंदोत्सर्ग मनाता चलता है। स्पष्ट है कि छत्तीसगढ़ी के वासी दूसरों को संतुष्ट देखकर ही स्वयं संतुष्ट हो जाते हैं। दूसरों को आनंद देकर स्वयं आनंदित होने का गुण उनमें पूरी तरह पाया जाता है। दूसरों को अन्न, वस्त्र और गृह देकर स्वयं अभावग्रस्त रहकर भी ये जीवन के सुख का संपूर्ण आनदोनुभव प्राप्त कर लेते हंै। इससे यह कहावत चरितार्थ होती है कि-
छत्तीसगढिय़ा, सबसे बढिय़ा।।
स्पष्ट है, छत्तीसगढिय़ा छत्तीसगढ़ की ही मातृभूमि और जीवन का सर्वस्व मानता हुआ उक्त कथन को सार्थक करता है सच भी है जो क्षेत्र का होगा, वही देश का होगा।
राजनैतिक उतार चढ़ाव और ऐतिहासिक बदलाव के बावजूद छत्तीसगढ़ मूल प्रकृति को जीवित रख सका है। ऐतिहासिक परिदृश्य से ज्ञात होता है कि यहां मराठों के बाद भी ऐसे राजाओं का शासन रहा जिन्होंने कम से कम विदेशी या विजातीय प्रथा को अनावश्यक नहीं रोपा, परिणाम यह हुआ कि जो प्रचार आर्य और अनार्य सभ्यता के सम्मिश्रण से चला आ रहा था वहीं अक्षुण्ण रहीं और आज भी किसी न किसी रूप में वह विद्यमान है।
यहां के अधिकांश मामले ग्राम पंचायतें द्वारा ही सुलझाये जाते थे और कुछ स्थलों पर आज भी सुलझाए जा रहे हैं, इसलिए कहा जा सकता है कि ग्राम पंचायतों और गणतंत्र शासन ही इनकी प्रमुख प्रथा रही है। यहां का शासन कभी भी सामंत शासी नहीं रहा, इसका कारण यह था कि यहां की जनजातियां अपने में ही पूर्ण रही और इनकी धार्मिक पृष्ठभूमि इतनी सुदृढ़ थी कि उन्हें ईश्वर का भय हमेशा बना रहता था और इनके लिए राजा ही सबसे विश्वास पात्र रखा क्योंकि उनकी ऐसी मान्यता थी कि राजा ही संपूर्ण भूमि का नृप है और हमारी रक्षा करना उसका परम कत्र्तव्य है, ऐसा अटूट विश्वास जिसके साथ हो उसे किसी और कि क्या चिन्ता हो सकती है ? शासन और शासक के मध्य ऐसी व्यवस्था विद्यमान थी जो अन्यत्र दुर्लभ है।
यहां कि सामाजिक न्याय व्यवस्था कठोर नहीं थी। व्यवस्था के संबंध में यहां सदा ही उदारता पूर्ण दृष्टिकोण रहा। क्षत्रियों के अतिरिक्त ब्राह्मण और वैश्य भी राजा हो सकते थे। ब्राह्मण सर्वत्र पूज्य थे परंतु अपात्र ब्राह्मण भी दंड के भागी थे। वैवाहिक संबंध प्राय: सजातीय ही हुआ करते थे लेकिन प्रेम-विवाह को नकारा नहीं गया।
छत्तीसगढ़ हमेशा से ही समृद्धि का प्रतीक रहा है यहां उपजाऊ भूमि और मेहनत मजदूरों का मणि कांचन संयोग रहा है। यहां के उद्यमी कृषि के समानांतर लघु उद्योगों और पारस्परिक व्यवसायों के कारण आत्मनिर्भर हैं।
आर्य और अनार्य संस्कृतियों का समन्वय स्थल छत्तीसगढ़ अनेक प्रकार की कलाओं से सुसज्जित है। कबरा एवं सिंघनपुर के भित्ति चित्र अनार्य सभ्यता से द्योतक हैं। सिरपुर का हरिमंदिर भारतीय आर्य वास्तुकला का एक अतुलनीय प्रतीक है। संगीत और नृत्य के संबंध में यह भी प्रदेश उतना ही धनी है जितना कि वास्तुकला के संबंध में रहा है। यहां के संगीत और नृत्य का उल्लेखित स्थान रहा है। यहां के ुमुख्य नृत्य डंडा नृत्य, चांवर नृत्य, रावत नाच, मड़ई, सुआ नृत्य, करमा नृत्य आदि प्रसिद्ध हैं।
छत्तीसगढ़ में रकत की आरोपित रिश्तों के समानांतर आत्मिक संबंधों की संधारण भी मिलती है जो यहां की संस्कृति में जातीय महत्व की कट्टरता को शिक्षित करने और आस्मि भावनाओं को अभिव्यक्त करने का उपक्रम है। यहां ये आत्मिक रिश्ते पीढ़ी दर पीढ़ी संचालित नहीं होते, वरन जातीय घेरे से उठकर मानवीय भावनाओं की एक सूत्रता में ग्रंथित भी करते हैं। इस दृष्टि से महिलाएं परस्पर भोजली, गंगा-जल, दौना-पान, सखी-जंवारा, तुलसी-दल बदती हैं तथा पुरुष महाप्रसाद, मितान आदि के द्वारा आत्मिक रिश्तों को सुदृढ़ और सुपुष्ट करते हैं यहां दोनों का पारंपरिक नाम भोजली या मितान हो जाता है इस तरह से दो आत्माओं के एकत्व का यह उदाहरण दुर्लभ है।
छत्तीसगढ़ी संस्कृति एक ओर जहां भारतीय संस्कृति का अंग होने के कारण उसकी विशिष्टताओं को सहज ही अंगीकार करती है वहीं दूसरी ओर इसकी कुछ ऐसी आंचलिक विशिष्टताए भी हंै जो जीवन आदर्श और प्रेरणा का पुंज प्रमाणित होती है क्योंकि छत्तीसगढ़ की संस्कृति अत्यंत प्राचीन है, अत: इसके समृद्ध लोक साहित्य में उसका स्पंदन और आधुनिक लोक जीवन में उसकी छटा स्पष्ट परिलक्षित होती है।
साभार- रऊताही 1999

1 comment: