Tuesday 19 February 2013

लोक साहित्य : परम्परा और प्रयोग

लोक साहित्य ऐसी संश्लिष्ट रचना है जिसमें शिष्ट साहित्य-सदृश समग्र विधाओं को परिभाषित कर निरखना-परखना बाह्य दृष्टि से भले उचित हो, आंतरिक दृष्टि से कदापि संभव नहीं। यह जन-मन-जीवन-अनुभव का प्रारूप ही लोक द्वारा प्रदत्त एक सूत्र है जो प्रगीत-तत्वों से मिलकर लोकगीत तथा कथा से जुड़कर लोकगाथा बनती है। इसी तरह संवादों में ढलकर लोकनाट्य और किस्सा-गोई का वैशिष्ट्य लेकर लोककथा बनती है। इसके बावजूद वह भावनाओं व विचारों के प्रवाह में एक-दूसरी लोकविधाओं को स्पर्श करती है। यही कारण है कि लोककथा, लोकगाथा या लोकनाट्य मे विवाह का संदर्भ आने पर विवाह-गीत, प्रणय संपादन में ददरिया, विप्रलम्भ की स्थिति में सुवा-गीत, युद्ध के गीतों में पंडवानी आदि अन्यान्य गीतों व लोक छंदों का आगमन होता है। लोकसाहित्य का लोक अभिप्राय ही उसे शिष्ट साहित्य से पृथक करता है जो आंतरिक दृष्टि से एक होकर सार्वदेशिक तथा आंचलिक रंगों के प्रभाव से क्षेत्रिय बन जाता है। यही लोक अभिप्राय किसी लोकसाहित्य की आत्मा है जिनका तुलनात्मक अध्ययन लोक साहित्य के मूल स्वरूप को उद्घाटित करने के साथ उनके युगानुरूप परिवर्तन के इतिहास को प्रस्तुत करती है।
लोकसाहित्य परंपरा पोषक और संस्कृति-संवाहक होता है। इसमें युगानुरूप परिवर्तन बहुत धीमी गति से और आंशिक ही होता है। इसकी आत्मा को अक्षुण्ण रखकर यदि प्रयोग किए गए तो वे लोक-स्वीकृत और शिष्ट-समाहत हो सकतें हैं। कुछ समीक्षक लोक साहित्य को मूलरूप में विद्यमान होने के पक्षधर है। इसके अनुसार इनमें परिवर्तन या प्रयोग उसकी विकृति के परिचायक हैं लेकिन युगाग्रह और विकास को महत्व देने वाले परिवर्तन एवं प्रयोग के प्रतिष्ठापक हैं।
लोकसाहित्य लोक अर्जित भावनाओं के सरल-सहज उदगार हैं अत: उनमें परंपरा स्वत: संपृक्त हैं। शिष्ट साहित्य में परंपरा कृत्रिम और अपेक्षाकृत आरोपित होती है। जबकि लोक साहित्य में यही इसका प्राण है। यही कारण है कि इसमें कवि का श्रेय एक व्यक्ति न लेकर सभी लोकगायक ग्रहण करते हैं और इसका प्रत्येक गायक कवि नहीं, लोकगायक या लोकगीतकार कहलाता है। इसी आधार पर यह भाषा, बोली, जाति, वर्ण,पद के भेद को दूर करने में सक्षम और लोक को लोक बनाये रखने तथा समाज के प्रत्येक मनुज को समरस का सिद्धान्त संस्कार के रूप में प्रदान करने का संयोजन करता है। ये लोकगीत ही हमारे जीवन के अलिखित, व्यावहारिक शास्त्र हैं जो परंपरा से प्रचलित प्रतिष्ठित हैं। आज इसकी उपेक्षा के कारण ही मनुज लोक या समाज से हटा है, संस्कृति और भूमि से कटा है। ऐसे संक्रमणकाल में लोकसाहित्य की वापसी किसी न किसी बहाने लोग स्वीकार रहे हैं और प्रयोग के आधार पर ही सही, इसकी उपयोगिता का ग्रहण कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ी लोक साहित्य के आधार पर समय-सीमा को निरखते हुए सूत्र रूप में यहाँ अपनी बात प्रस्तुत कर रहा हूं।
छत्तीसगढ़ी लोकगीतों ने परंपरा, मर्यादा, नियम-अनुशासन के जो संस्कार दिए हैं वे अद्वितीय हैं। बेटी-बिदा-प्रसंग में पुत्री की मां, पिता,भाई और भाभी की वेदना को माप लिया गया है। माता की ममता असीम हैं अत: उसके रूदन से नदी बहने लगी। पिता की पीडा अपेक्षाकृत अल्प है, अत: उनके अश्रु से तडाग का निर्माण हुआ। भाई की भारवाहक व्यथा से डबरे भर गये लेकिन परायी घर से आयी भौजी के नेत्र सजल भी नहीं हो सके-
दाई के रोये नदिया बहत हे, ददा के रोये तलाव।
भाई के रोये डबरा भरत हे,  भौजी के नयन कठोर।।
शिष्ट काव्य में पीड़ा को मायने और मर्यादा को मथकर संस्कार देने की ऐसी लोकोपयोगी शिक्षा अलभ्य है। अधोलिखित पंक्तियों में द्रष्टव्य है कि बहन कटि को कसकर रो रही है जबकि भाई ग्रीवा को ग्रहण कर विलाप कर रहे हैं। यदि पिता मुख को ढाँपकर रूदनकर रहे हैं तो माँ गाय की तरह रंभाकर अर्थात् ''बोम-फारकरÓÓ रो रही है-
कनिहा पोटार के बहिनी रोवय, गर पोटार के भाई।
ददा बपुरा मुंह छपक के। बोम फार के दाई।।
यहाँ लोकगीतकार ने भाभी को हाशिये पर भी नहीं रखा है। रूदन की माप के आधार पर पीडा को प्रस्तुत करना लोकगीतकार को जितना अभीष्ट है, उतना ही वह वाणी के आधार पर भी व्यथा को व्यक्त करने और मापने का आग्रही है। अधोलिखित पंक्तियों में वह उद्घाटित करता है कि माँ बेटी को रोज आने, पिता छह माह में तथा भैया वर्ष में एक बार तीज-पर्व के अवसर पर लेने आने का तथ्य निवेदित करते हैं जबकि भौजी ननद को परायी होने का एहसास दिलाती हुई कहती है कि अब उसका इस घर में क्या काम है-
दाई कहे रोज आबे बेटी, ददा कहै छयमास हो।
भइया कहै तीजा-पोरा म, भौजी कहे कौन काम हो।
परम्परा- ग्रथित लोकगीत प्रकृति से प्रसूत और भूमि से उद्भूत हैं। यही कारण हैं कि इनके उपमान ओर प्रतीक अत्यन्त प्रभावी तथा समरस होते हैं। अधोलिखित छत्तीसगढ़ी सुवा-गीत में लोक गीतकार की उद्भावना हैं कि सुग्गे की चोंच टेढ़ी लाल कुंदरू फल सदृश है जिस पर मसूर की दो दालों की दो आँखे हैं। तन हरे भुट्टे की तरह है-
चोंच तोर दिखत हे, लाली-लाली कुंदरू,
रे मोरे सुवा, आँखी दिखे मसूरी के दार।
जोंधरी के पाना साँही,डेना-संवारें,
रे मोरे सुवा, सुन लेंबे बिनती हमार।।
नये उपमानों व प्रतीकों की शक्ल में कहीं एक प्रयोगवादी कविता पढ़ी थी। काली-कलूठी स्त्री की मोटी होंठ पर लिपिस्टिक को निरखकर कवि ने लिखा है--
तेरी काली-काली मोटी-मोटी
सुघर होंठ पर लिपिस्टिक ऐसी शोभा देती है
जैसे कोयले की खान में आग की ज्वाला सुलग गई हो।
उल्लेखनीय है कि कोयले की खान में ज्वाला सुुलगती देखकर एक काली महिला की मोटी होंठ पर लिपिस्टिक के लेप का बिम्ब नहीं उभरता जबकि उपर्युक्त छत्तीसगढ़ी, लोकगीत के उद्धरण में लाल कुंदरू फल, मसूर की दाल और भुट्टे के संयोजन से सुग्गा तैयार हो जाता है। प्रयोगवाद के नाम पर प्रस्थापित आज कितने उपमान व प्रतीक समरस हैं इसके विपरित नाम व यश लिप्सा से परे ये लोकगीतकार अर्थात् निरक्षर भट्टाचार्य अनेक आंचलिक उपमान व प्रतीक देकर लोकमानस में प्रतिष्ठित हैं। लोकगीतों में संस्कार रचे-बसे हैं जबकि शिष्ट साहित्य में यही संस्कृति से जुड़कर स्थायित्व प्राप्त करते हैं। छत्तीसगढ़ी लोकगीतों में व्यवहृत दो संस्कार-संपन्न लोकोक्तियों के उदाहरण से अपनी बात स्पष्ट करना चाहूंगा। हिन्दी में प्रचलित लोकोक्ति ''अंधा कानूनÓÓ यदि सचमुच अंधा होता तो ''अंधा पीसे कुत्ता खायेÓÓ की तरह धनी और गरीब दोनों के लिये सहायक होता। छत्तीसगढ़ी मड़ई गीत में मुझे एक मुहावरा मिला-''कनवा हे कानून अउ भैरा हे सरकार ग।ÓÓ  इसमें काना-कानून मुहावरा प्रयुक्त है जो सार्थक है। पूजीपतियों के लिए कानून का एक नेत्र खुला और गरीबों के लिये इसकी एक आंख बंद है। इसी तरह ''काला अक्षर भैंस बराबरÓÓ लोकोक्ति भी उचित जान नहीं पड़ती क्योंकि भैंस और अक्षर रंग साम्य ही रखते हैं जबकि भैंस का हितैषी निरक्षर है। छत्तीसगढ़ी में समाहत ''काला अक्षर साँप बरोबरÓÓ अधिक उपयुक्त है। अक्षर और सर्प दोनों टेढ़े-मेढ़े है। अशिक्षित सर्प की तरह प्रतीत होने वाले अक्षरों से बिदकते हैं। समाचार पत्रों में हम सब छोटे अक्षर से लोकर मोटे अक्षर तक रोज देखते-पढ़ते हैं। छोटे अक्षर सबसे लघु सर्प ''अंधा साँपÓÓ की मोटाई वाले तथा सबसे बड़े अक्षर अजगर सर्प की मोटाई वाले ही दृष्टिगत होते हैं। अक्षर और सर्प में जो साम्य है, उसे छत्तीसगढ़ी लोकगीतों में संरक्षित लोकोक्ति अक्षुण्ण रखती है जबकि ''आंख के अधूरे और गांठ के पूरेÓÓ हम शिष्ट साहित्य सर्जक और तथाकथित समीक्षक होकर भी संस्कार विपन्न भ्रम के भंवर में फंसे है। ऐसे अनेक उदाहरण है जिससे यह प्रमाणित होता है कि परंपरा पर आधारित लोकगीत अथवा लोकवार्ता की समग्र लोकविधाएं, जिजीविषा की उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करती है क्योंकि उन्हें मालूम है कि जब तक लोक रहेगा, लोक साहित्य जीवित रहेगा।
लोककलाएं प्रदर्शनकारी नहीं होती वे लोक के लिये अर्पित-समर्पित और सहज निर्मित स्फुरित लोकरचना होती है जो संस्कार व वातावरण के अनुरूप सहज-अभिव्यक्त होती है। इधर लोक कलाओं को प्रदर्शन और विचित्रता-निदर्शन का पर्याय मानकर उसे धिकृत-विकृत करने का जो उपक्रम किया जा रहा है, वह क्षम्य नहीं कहा जा सकता। यहां प्रदर्शनकारी लोककलाओं से आशय उसके जन-मन के मध्य लोकप्रिय होने और व्यवसाय के रूप में इसी पीढ़ी दर पीढ़ी संचालित रखने से है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि व्यवसाय समझकर कलाकार इस क्षेत्र में अग्रसित हों और लोकलाओं को प्रदर्शनकारी बना दें। लोक सांस्कृतिक कार्यक्रमों का महत्वपूर्ण संयोजन प्रदर्शन से संपृक्त होकर प्रकारान्तर में लोकनाट्य के प्रभाव  दबाव को ही व्यक्त करता है। उदाहरणार्थ नाचा या गम्मत लोकनाट्य है लेकिन लोककीर्तन की परंपरा में अवस्थित लोकगाथा पंडवानी भव्य मंचों में जाकर लोकनाट्य से संपृक्त हुआ तद्नुरुप पंडवानी-गायक (गायक और गायिका भी) अभिनय के द्वारा हाव-भाव की विविध अभिव्यक्ति करने लगे। इस तरह लोकगाथाओं पर अभिनेयता का आकर्षण बढ़ा। इसी भांति छत्तीसगढ़ी लोक गाथा लोरिक चंदा में एक अभिनय अथवा विविध पात्रों के द्वारा लोकगाथा के साथ नाट्य प्रस्तुति का प्रभाव उसकी प्रदर्शनीयता की ही प्रतीति है। इसके विपरीत ढोला मारू, सरवन, गोपी-चंदा आदि लोकगाथा के रूप में अक्षुण्ण है लेकिन निकट भविष्य में लोकनाट्य से ओतप्रोत होकर ये भी प्रदर्शनकारी होंगी, ऐसा विश्वास बनता है। लोरिक चंदा को जहां प्रदर्शनकारी लोकनाट्य का स्वरूप देते हुए श्री लक्ष्मण चंद्राकर ने नव्य प्रयोग किया, वहीं उसकी प्रारंभिक प्रस्तुति को अक्षुण्ण रखते हुए श्रीमती रेखा निषाद व सोनसागर चनैनी पाटी कचांटुर ने साभिनय प्रस्तुति के द्वारा इसका मनमोहक प्रदर्शन किया है। पंडवानी की ''बेदमती शाखाÓÓ जहां प्रदर्शनकारी लोककला की श्रेणी में आकर भी लोककीर्तन व लोकगाथा के सन्निकट है, वहीं इसकी कापालिक शाखा लोकनाट्य के अधिक समीप है। प्रथम शैली के प्रमुख लोककलाकारों में श्री झाड़ूराम देवांगन, पूनाराम निषाद आदि है, जबकि दूसरी शैली में पद्मश्री तीजनबाई प्रसिद्ध है। भरथरी व ढोला की लोककथात्मक प्रस्तुति जहां श्रीमती सूरूज बाई की विशिष्टता है, वहीं उसकी लोकनाट्य प्रस्तुति श्रीमती रेखा निषाद की निजता है।
लोकनाट्य की भाव-भूमि पर छत्तीसगढ़ी लोककलाएं प्रदर्शनकारी ही सिद्ध हुई है। यदि श्री हबीब तनवीर के इस प्रयास ने उन्हें अंतराष्ट्रीय ख्याति प्रदान की तो श्रीरामचंद्र देशमुख को ''चंदैनी गोंदाÓÓ कारी, से देशव्यापी प्रसिद्धि मिली। ''एक रात का स्त्री राजÓÓ लोकनाट्य ''डिंडबा नाचÓÓ का प्रयोगजन्य लोककला- रूप है जिसे श्री रामचंद्र देशमुख ने प्रस्तुत किया। यह लोकनाट्य महिलाओं तक सीमित था। इसे जन-जन तक प्रदर्शित करने का उपक्रम अभिनंदनीय है। ''अरे मायावी सरोवरÓÓ में डॉ. शंकर शेष ने छत्तीसगढ़ी लोकगीतों का प्रयोग किया है लेकिन उसका पर्यावरण प्रस्तुत करके उसे प्रस्तुत किया है। यही प्रयोग ग्राह्य है, जैसे कि ''भारत : एक खोजÓÓ दूरदर्शन धारावाहिक में पद्म श्री तीजन बाई के पंडवानी का प्रयोग अत्यंत प्रभावी है। श्री हबीब तनवीर के ''चरणदास चोरÓÓ और ''आगरा बाजारÓÓ को लोकसाहित्य का समावेश अर्थात् लोककथा और लोकगीत के अनुरूप परंपरा और परिवेश के परिपालन के कारण ही सफलता मिली है लेकिन यदि गांव के नाम ससुराल, मोर नाम दामाद में वे पिता द्वारा पुत्री- विक्रय की प्रथा की चर्चा करते हैं तो  जन-मन इसे अंगीकार नहीं करता।
इसी भांति सुवा गीत में बाह्य प्रयोग एक बार स्वीकृत है लेकिन उसे दु्रत गति से गाकर और शास्त्रीयता का पुट देकर आकर्षक ढंग की प्रस्तुति का दावा करने वालों को यह कहने में संकोच नहीं है कि लोकगीत में लोकसंगीत का रहना और लोकधुन विशेष के कारण उसकी पहचान है। प्रत्येक लोकगीत लोकछंद है जिन पर कविता लिखकर आंचलिक कवि लोकप्रिय हो सकता है। देश की अनेक भाषा बोलियों के कवि गायक लोकगीत-शिल्प विधि को आधार मानकर अपनी पहचान बना चुके हैं लेकिन इसका परिष्कार और ताम-झाम के हिसाब से आधुनिक रूप में प्रस्तुति का प्रवास उचित नहीं होगा।
साभार- रौताही 

यादवी संस्कृति की अनूठी कृति है : सोहई

मनुष्य अपने रहन-सहन, खान-पान, साज-श्रृंगार के साथ ही पशु-पक्षियों को अपना सहयोगी बनाना, उसकी बोली, आदतों को समझने की कला भी आती है। यहाँ गाय, बैल, भैंस, भैंसा, बकरी को पशुधन व लक्ष्मी की संज्ञा दी गई है। इसी के अनुरुप गोधन की देखभाल करने वाले राऊत जाति के लोग सुरक्षा के साथ श्रृंगार का भी विशेष ध्यान रखते हैं। छत्तीसगढ़ में कृषकों के साथ बड़ी संख्या में राऊत जाति के लोग निवास करते हैं, वे अपने को कृष्ण के वंशज मानने के साथ यदुवंशी होने पर गर्व करते हैं। साथ ही गोचारण करना पवित्र कार्य मानते हैं। भले ही गोधन उनका न हो पर ग्राम के किसानों के पशुधन को ही अपनी पूंजी मानते हैं। इनका देखभाल, साज-श्रृंगार व वृद्धि होने की कामना सतत् रूप से करते रहते हैं। दीपावली के अवसर पर जब कृषकों की फसलें पकने लगती हैं तब वे अपनी संपन्नता से खुश होकर घर में लक्ष्मी आने व उसके स्वागत की कई तरह से जो पशुधन चराते हैं वे लोग गोधन के श्रृंगार के लिए सोहई बनाते हैं और विशेष परंपरा के साथ मालिकों के गाय, भैंस को पहनाते हैं।
परंपरा- द्वापर युग से प्रचलित परंपरा आज भी अपने मौलिक स्वरूप में लोगों द्वारा स्वीकार्य है। माना जाता है कि ग्वाल-बाल पशुओं को जंगल में चराने ले जाते थे। इस समय वे घास-फूस व वानस्पतिक सामग्रियों से गोधन के लिए श्रृंगार सामग्रियां बनाए होंगे। इसकी सुंदरता बढ़ाने के लिए मोर पंखों को भी लगाया गया होगा क्योंकि श्रीकृष्ण को मोर पंख बहुत पसंद था। मथुरा-वृंदावन क्षेत्र में मोर बहुतायत से पाए जाते हैं। इस तरह सोहई बनाने व पहनाने की शुरुआत हुई। सोहई का शाब्दिक अर्थ 'सुंदर दिखने वालाÓ है। छत्तीसगढ़ में इसे सोहई ही कहा जाता है।
निर्माण- सोहई बनाने के लिए पलाश की जड़ों को खोदकर सुखाई जाती है। फिर लकड़ी के कुटेले से कूटकर ढेरे से आंटकर या अंगुलियों के सहारे बल देकर लपेटा जाता है। इसे चिट्ठा में एकत्र कर जरूरत के अनुसार उपयोग किया जाता है। यह सफेद रंग का काम करता है। दूसरा रंग काला की रस्सी बनाने के लिए पटुआ या लटकना के रेशों को एक सप्ताह तक पानी में सड़ा कर छिला जाता है फिर हीराकसी व पैरी के छिलके को भीगो कर उबाला जाता है। सूखने पर ढेरे से ऐंठकर सोहई बनाने में उपयोग करते हैं। सुंदरता बढ़ाने के लिए मयूर पंख, रेशमी धागे, रंग-बिरंगे कपड़े व रंगों का उपयोग करते हैं। इसे राऊत जाति के लोग स्वयं पशु चराते समय कर लेते हैं या गाँव में जो कुशल लोग रहते हैं वे भी सोहई बना देते हैं। इसे गोधन के डील-डौल के हिसाब से पहनाई जाती है। सोहई हमारे प्रदेश का विशिष्ट लोक-शिल्प है। इसमें प्रयुक्त की गई सामग्रियाँ मोर पंख, पलाश, पटसन, रेशमी धागे यहां पवित्रता व मंगल के सूचक हैं। यह पूरी तरह से हस्त-निर्मित होता है।
प्रकार-सोहई मुख्य रूप से दो प्रकार की बनाई जाती है। पहली मोर पंख व रस्सियों के उपयोग से दो से लेकर सोलह लडिय़ों की बनाई जाती है। सजावट के लिए बीच-बीच में रंगीन कपड़े, ऊन के झालर लगाए जाते हैं। इसे भागड़ सोहई कहते हैं। दूसरे में बांख, पलाश की जड़ और पटसन के उपयोग से बनाई जाती है। यह सफेद रंग की होती है। सुंदरता के लिए काले रस्सियों का उपयोग किया जाता है। इसे पचेड़ी सोहई कहते हैं। इसके अलावा पलाश की जड़ों व पटसन को काले रंग से रंगकर करेलिया नाम से सोहई बनाते हैं। इसे भैंस व छोटे आकार की सोहई बकरियों को पहनाते हैं।
अवसर- राऊत लोग दशहरा मनाने के पूर्व पलाश की जड़ों की खोज व सामग्री तलाशते हैं। दीपावली के दूसरे दिन देवारी व गोवर्धन पूजा के दिन से गोधन को सोहई पहनाना प्रारंभ करते हैं। इसके बाद देवारी के दिन ही कुछ ग्वाले मालिक के घर गाजे-बाजे के साथ जाकर गाय-भैंस को सोहई बांधते व सुखधना थाप कर मालिक की सुख-समृद्धि की कामना करते हैं। परंपरानुसार देवारी, देवउठनी व पुन्नी पूर्णिमा के दिन सोहई बांधते हैं। राऊत लोग अपने आस्था के प्रतीक खोड़हर पर भी सोहई चढ़ाकर श्रद्धा व्यक्त करते हैं।
आशीष परंपरा- सोहई केवल गोधनों के लिए श्रृंगार सामग्री ही नहीं है अपितु यह राऊत समुदाय की संवेदनशीलता व दूसरों के सुखों की चाह का प्रतीक है। इसी बहाने वे अपने पशुधन मालिकों के सुख-समृद्धि की मंगल कामनाएं करते हैं। संध्या होते-होते वे क्रमश: अपने मालिकों के घर व गौशाला जाकर गोधन को सोहई पहनाकर आशीष देते हैं।
अनधन भंडार भरे, तुम जियो लाख बरिसा।
जइसन जइसन के लिये दिये, वइसन देबा आसीसा।
इस तरह सोहई यादवी शिल्प की अनूठी कृति होने के साथ ही लोक मानस को आशीर्वाद देने का पवित्र माध्यम है।
शिल्प समृद्धि- सोहई प्रतिवर्ष राऊत समुदाय द्वारा परंपरा से बनाई जाती है। बढ़ते भौतिकवाद, गोधन की कमी, ग्रामीण क्षेत्रों में चारागन सीमाओं की कमी, मालिकों के कम उत्साह के बावजूद गोचारकों द्वारा परंपरा व शिल्प समृद्धि के दृष्टि से सोहई बनाई जाती है। ग्राम डोंगीतराई के रिखी राम यादव ने बताया कि उनके पिता के जमाने में आसपास के राऊत अपनी-अपनी सोहई को उन्हें लाकर दिखाते थे जिसकी सोहई बुनावट सबसे सघन व एक समान होता था उसे काफी प्रशंसा मिलती थी। साथ ही अन्य लोगों को भी उसी तरह से बनाने के लिए कहा जाता था। दोनों भाइयों में भी एक तरह से प्रतियोगिता होती थी कि कौन अच्छी सोहई बनाता है। बेटों को अपनी जातिगत शिल्प-कला को समृद्ध करने के लिए ऐसी प्रतिस्पर्धा करना बड़ा सुखद लगता था। आज भी यादवों द्वारा सोहई को शिल्प के रूप में सतत रूप से समृद्ध किया जा रहा है, जो छत्तीसगढ़ के मांगलिक प्रतीकों की तरह प्रयुक्त होने लगा है। प्रदेश की कला-शिल्पों में अभिरुचि रखने वाले लोग अपने घरों में सजावट की वस्तु की तरह सहेज कर रखने लगे हैं। सोहई की कच्ची सामग्रियाँ काफी महंगी होती जा रही है पर इसमें रुचि रखने वाले इस समुदाय के लोग अभावों के बावजूद प्राथमिकता से गोधन के श्रृंगार व मालिक की सुख समृद्धि की पवित्र कामना को ध्यान रखते हुए सोहई का निर्माण करते हैं, जो इनकी शिल्प समृद्धि के प्रति प्रतिबद्धता को स्पष्ट करता है। इस शिल्प को समृद्ध करने की दृष्टि से जनसमुदाय में प्रादेशिक शिल्प के रूप में प्रचारित करने की आवश्यकता है।
 साभार-, रऊताही 2012

लोक साहित्य के विविध रूप

अभी तक हमने लोकवार्ता के रूप को परखा है ओर उसके साथ लोक साहित्य के संबंध पर विचार किया है। अब लोक साहित्य के विविध रूपों पर हक्पात करना अप्रासंगिक न होगा। मोटे तौर पर हम इस साहित्य को तीन रूपों में प्राप्त करते हैं एक-कथा, दूसरा-गीत, तीसरा-कहावतें आदि। लोककथाओं की विभेदता भी तीन रूपों मेें मानी जाती है- धर्मगाथा,लोकगाथा तथा लोक कहानी। धर्मगाथा (माईथालाजी) पृथक अध्ययन का विषय है। शेष कथा के दो भाग रह जाते है लोकगाथा तथा लोक कहानी। डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय ने इन दोनों का पृथक-पृथक अस्तित्व स्वीकार करते हुए लोक साहित्य को चार रूपों में बांटा है एक-गीत, दूसरा-लोकगाथा, तीसरा-लोककथा तथा चौथा-प्रकीर्ण साहित्य जिसमें अवशिष्ट समस्त लोकाभिव्यक्ति का समावेश कर लिया गया है।
वैसे तो धर्मगाथाएँ पृथक अध्ययन का विषय है किन्तु लोक-कहानी और धर्मगाथा में जो विशेष अन्तर आ गया है उसे समझ लेना अहितकर न होगा। धर्मगाथा अपने निर्माण काल में एक सीधी-सादी लोक-कहानी ही होती है परन्तु उस कहानी में धर्म की एक विशेष पुट लग जाती है जो उसे लोक-कहानी के वास्तविक आधार से पृथक कर देती है। डॉ. सत्येन्द्र ने इस ओर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि धर्मगाथा स्पष्टत: तो होती है एक कहानी पर उसके द्वारा अभीष्ट होता है किसी ऐसे प्राकृतिक व्यापार का वर्णन जो उसके सृष्टा ने आदिम काल में देखा था ओर जिसमें धार्मिक भावना का पुट होता है। ये धर्म गाथाएँ हैं तो लोक साहित्य ही, किन्तु विकास की विविध अवस्थाओं में से होती हुई वे गाथाएँ धार्मिक अभिप्राय: से संबद्ध हो गयी हैं। अत: लोक साहित्य के साधारण क्षेत्र से इनका स्थान बाहर हो जाता है और यह धर्मगाथा संबंधी अंश एक पृथक ही अन्वेषण का विषय है। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'दि क्वीन ऑफ दि एअरÓ में जॉन रस्किन ने धर्मगाथा की मीमांसा देते हुए लिखा है कि यह अपनी सीधी-सादी परिभाषा में एक कहानी है जिससे एक अर्थ संपृक्त है और जो प्रथम प्रकाशित अर्थ से भिन्न है।
लोकगाथाएँ (अवसाद, किस्से या साके) वे काव्यमय कहानियाँ हैं जिनका आधार इतिहास है अथवा जिन्हें कालक्रम से ऐतिहासिक महत्व हासिल हो चुका है। लोक मानस की वे घटनाएँ जो कोरी कल्पना-जन्य हैं वह आगे चलकर ऐतिहासिक रूप प्राप्त कर जाती हैं। जिन जातियों का मानसिक विकास नहीं हुआ है उनमें थोड़े से चमत्कारपूर्ण कार्य करने वाले व्यक्ति युग-पुरूष अथवा ऐतिहासिक पुरूष की नाई पूजे जाते हैं। ठीक इसी प्रकार का एक किस्सा (अवदान, गाथा) हरफूल जाट जुलाणी वाले का है जिसने अपने जीवन की बाजी लगाा कर बधिकों से (कसाइयों से) गायें छुड़ा ली थीं। आज भी गोमाता के पुजारी प्रदेश हरियाणा की साधारण जनता हरफूल जाट के वीर रसात्मक किस्सों को गा-गाकर आनन्द मनाती है। अन्य जनपदीय जातियों में भी ऐसे अनेक किस्से आपकों मिल जायेंगे।
किस्सों की परख से यह स्पष्ट है कि इनमें इतिहास के अवशेषों को ही मरने से नहीं बचाया गया है पर साम्प्रतिक पुरूषों के किस्से भी चमत्कृत रूप में मिले हैं। अत: साके प्राचीन प्रवीरों और सिद्ध महात्माओं के ही हों ऐसी बात नही है, ये साके सामयिक पुरूष संबंधी भी हो सकते हैं, बल्कि होते भी हैं। यथा-'किस्सा हरफुल जाट जुलाण काÓ इन नये व्यक्तियों के संबंध में बड़ी अद्भुत कल्पनाएँ कर ली जाती हैं। सर आर. सी टेम्पल ने 'लीजेंड्स ऑफ दि पंजाबÓ में इन किस्सों को छ: भागों में बाँटा है। इन छ: चक्रों में से एक चक्र उन कथाओं का भी है जो स्थानीय वीरों से संबंध
रखती हैं।
हमने लोक गाथाओं को अवदान, साका, राग या किस्सा के नाम से अभिहित किया है। इस साहित्यिक विद्या का एक नाम राजस्थानी में ख्यात भी प्रचलित है। ये ख्यातें रासो से भिन्न वस्तु हैं। रासो साहित्यिक वीर कथाएँ हैं ओर ख्यातें मौखिक कथाएँ हैं। ये लोक गाथाएँ दो रूपों में मिलती हैं। एक प्राचीन पुरूषों की शौर्य की कहानियाँ है जिन्हें वीरकथा कहा जा सकता है। इन्हें ही 'पंवाराÓ भी कहते हैं यथा 'जगदेव का पंवारा।Ó इनमें पुराण पुरूषों का अस्तित्व निर्विवाद मान लिया जाता है। दूसरे-साके। ये उन पुरूषों के शौर्य से सम्बन्धित हैं जिनके प्रति इतिहास साक्षी है। साके में जीवन तथा शौर्य का विस्तार अपेक्षित है।
 लोककथा निस्संदेहात्मकतया लोकगाथा से भिन्न वस्तु है। जो विद्वान इन दोनों को एक लोक कहानी के ही लघु और विशाल रूप कहते हैं उन्होंने उनके मर्म को पहचानने का प्रयास नहीं किया। लोक साहित्य के ये दोनों रूप आपस में भिन्न हैं। लोक कथाओं में कहानियों के दोनों तत्व-मनोरंजन एवं शिक्षा पाये जाते हैं। जो कहानियाँ केवल शिक्षा के लिए ही निर्मित हुई हैं उनके लिए अलग नाम भी दिया गया है। इन कहानियों को भारतीय साहित्य में तंत्राख्यान या पशु पक्षियों की कहानियाँ कहा गया है। अंग्रेजी में ऐसी कहानियों का नाम फेबिल दिया गया है।
  'काल्पनिक कथाएँ, वास्तव में, वैसी नहीं जैसी दिखाई देती हैं। हमारे धर्मोपदेष्टा चूहे और मृगशावक भी हो सकते हैं। हम उपदेश सुनते-सुनते ऊँघने लगते हैं, किन्तु शिक्षाप्रद कहानियों को प्रसन्नतापूर्वक पढ़ते हैं और वर्णन का खूब आनन्द लेते हैं।Ó भारतीय कथा साहित्य में इस प्रकार के आख्यानों की कमी नहीं है। विष्णु शर्मा का पंचतंत्र और हितोपदेश शशश्रृगाल-काको लूक के मध्य चलने वाले जीवनोपयोगी आख्यान ही तो हैं। भारत के ये आख्यान संसार के श्रेष्ठतम फेबिलस् में से हैं। इनकी यही विशेषता है कि इनमें किसी न किसी प्रकार की शिक्षा अवश्य मिलती है।
यहाँ पर इतना और ध्यान दे लेना चाहिए कि प्रत्येक वह कहानी जिसमें पशु-पक्षी किसी भी रूप में आये है तंत्रमूलक अथवा नीतिमूलक कहानी नहीं कहला सकती। फेबलस् वे ही कहानियाँ हैं जिनमें नीति बतलाई गई है अथवा कोई सुनिश्चित उपदेश दिया गया है। बौद्ध जातकों में आई हुई वे पशु-पक्षी संबंधी कहानी कदापि तंत्राख्यान नहीं कहलायेंगी। कारण कि वे धर्मभावना को जागृत करके चुप हो जाती हैं और उनका आदर धर्म-श्रद्धा से होता है। यही स्थिति वेदों में मिलने वाली उन कहानियों की है जिनमें पशु-पक्षियों का नाम आया है।
 लोक साहित्य के कथा भाग पर विचार कर चुकने पर लोक गीत और लोक कहावतें, पहेलियाँ आदि रहती हैं। लोक गीत लोक मानस के वे अजस्त्र एवं निश्छल प्रवाह है जिनका प्रतिभा के द्वारा विभिन्न अवसरों पर निर्माण होता है एवं गान होता है। संक्षेप में लोकगीत लोक द्वार लोक के लिए गाया गया गीत होता है। लोक गीतों की संख्या उतनी हो सकती है जितने जीवन के पहलू हैं।
 प्रकीर्ण साहित्य में उस समस्त लोकाभिव्यक्ति का समावेश होता है जो लोककथा, लोकगाथा और लोकगीत की परिधि से बाहर पड़ जाती है। इस प्रकार इनमें लोक के वे सभी अनुभव जो समय-समय पर होते हैं आ जाते हैं। पहेलियाँ, सूक्तियाँ, बुझौबल, कहावतें, बालकों के खेलकूद के वाणी विलास आदि सब इसके अन्तर्गत आ जाते हैं। इनका विवेचनात्मक वर्णन भी यथास्थान दिया गया है।
लोक साहित्य की विशेषताएँ -लोक साहित्य जिसके रूपादि का ऊपर वर्णन हुआ है उसकी विशेषताओं पर दृक्पात करना असमीचीन न होगा। लोक साहित्य को कुछ विद्वानों ने लोक श्रुति (वेद) कहा है। वेद का नाम श्रुति इसी विशेषता के कारण पड़ा है कि यह शिष्य परंपरा श्रुतिबल से चलता आया है। लोक साहित्य भी इसी कर्ण परम्परा से आगे बढ़ता है।  वह दादी से पोती तक, नानी से धेवती तक श्रुति मार्ग से आया है। यही इसकी प्रथम एवं प्रमुख विशेषता मानी जाती है। इसके विपरीत प्रणीत साहित्य मौखिक परम्परा की अपेक्षा लेखनी परम्परा पर गर्व करता है। यदि लेखबद्धता का वह गौरव लोक-साहित्य को मिल जाये तो वह एक प्रकार से वह निष्प्राण हो जायेगा। लिपि का प्रसाद भले ही गीतों, गाथाओं, कथा-कहानियों को सुरक्षित रख ले परन्तु उनकी अनुप्राणिकाशक्ति उसी क्षण नष्ट हो जाती है जब कि वे लेखनी की नोक पर सवार होकर कागज की भूमि पर उतरना आरंभ करते हैं। उनको सुरक्षा, सौन्दर्य एवं सम्मान भले ही मिल जाये किन्तु उनमें वह स्वाभाविक उन्मुक्त प्रवृत्ति नहीं रहती जिसमें वे जन्में हैं, पनपे हैँ और पुष्ट हुए हैं। वह गमले के पौधे की भाँति हरा-भरा रहता हुआ भी अशक्त और भविष्यत् की उन्नति से विमुख रहता है। फें्रक सिजविक के ये शब्द कितने तथ्यपूर्ण हैं कि लोक साहित्य का लिपिबद्ध होना ही उसकी मृत्यु है। वस्तुत: लोकसाहित्य की मौखिकता ने ही उसे व्यापकता एवं अनेक रूपता प्रदान की है।
 इसी बात को प्रो. किटरेज ने 'इंगलिश और स्काटिश बैलेड्सÓ की भूमिका में इस प्रकार कहा है- लोक-साहित्य का शिक्षा से कोई उपकार नहीं होता...... जब कोई जाति पढऩा सीख लेती है, तो सबसे पहले वह अपनी परंपरागत गाथाओं का तिरस्कार करना सीखती है। परिणाम यह होता है कि जो एक समय सामूहिक जनता की संपत्ति थी वह अब केवल अशिक्षितों की पैतृक संपत्ति मात्र रह जाती है।
 एक दूसरी विशेषता, जो लोक साहित्य के पाठकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती है, वह है उसकी अनलंकृत शैली। शिष्ट साहित्य में सालंकारता के प्रति विशेष आग्रह होता है। यत्र-तत्र अनलंकृत भी क्षम्य है-'अनलंकृति: पुन: क्वापिÓ (मम्मट-काव्य प्रकाश, काव्य का लक्षण) पर लोक साहित्य में बनावट, सजावट, कृत्रिमता ओर अलंकरणप्रियता का आग्रह नहीं है। यह तो उस वन्य कुसुम के सदृश है जो बिना संवारे हुए भी अपनी प्राकृतिक आभा से दीप्तिवान है। इसमें नैसर्गिक रूक्षता (खुरदरापन) है किन्तु है एक लावण्य एवं सौन्दर्य से संयुक्त। सालंकार काव्य से लोक-गीतों का वैशिष्टय प्रदर्शित करते हुए पं. रामनरेश त्रिपाठी के ये शब्द चिरस्मरणीय रहेंगे-'ग्राम-गीत और महाकवियों की कविता में अंतर है।Ó-ग्राम-गीतो में रस है, महाकाव्य में अलंकार। ग्रामगीत हृदय का धन है और महाकाव्य मस्तिष्क का। ग्रामगीत प्रकृति के उद्गार हैं, इनमें अलंकार नहीं केवल रस है, छंद नहीं केवल लय है, लालित्य नहीं केवल माधुर्य है, -'कितने सार्थक हैं त्रिपाठी जी के ये शब्द। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि इनमें दंडी का पद लालित्य, भारवी का अर्थ-गौरव और कालिदास की अनूठी उपमाएँ न देखने को मिलें-बेशक, पर इनमें रस का एक पारावार लहरा रहा है जो सहृदय संवेद्य है।Ó 
 सादगी लोक कविता का सर्वस्व है। साहित्यिक कविता में ऊहा और कल्पना के वे रंग हैं जो कालान्तर में छूछे हो जाते हैं। लोक कविता अपने नैसर्गिक रंग में मानव के उष:काल से जीवित है और जीवित रहेगी। इस काव्य क्षेत्र में अलंकार बहिष्कार की शपथ नहीं ली गई है। ये तत्व अस्पृश्य एवं त्याज्य नहीं ठहराये गये हैं। अत: रीत्यलंकार पारखी अनावश्यक रूप से निराश व चिंतित न हों। उन्हें स्थान-स्थान पर बड़े भव्य एवं सुन्दर अलंकार चारों ओर बिखरे मिलेंगे। हमारा कहने का अभिप्राय: केवल यह है कि लोक साहित्य में शिष्ट साहित्य की भाँति रीत्यलंकारों के प्रति आग्रह नहीं होता।
 लोक साहित्य की तीसरी प्रमुख विशेषता है रचयिता और रचना काल का अज्ञात होना। दादी नानी से चली आती हुई दंतकथाओं और गीतों आदि की परंपरा किस युग से चली और किस कृति के पुण्यों का परिणाम है इसका हमारे पास कोई प्रमाण नहीं। यों तो सभी रचनाएँ किसी न किसी व्यक्ति की प्रतिभा का प्रसाद है किन्तु उसका व्यक्तित्व इस परंपरा में अज्ञातावस्था में है। वास्तव में, इन गीतादिकों के कत्र्ता वे निरीह जन हैँ जिन्होंने अपने नाम और ग्राम की चिंता न करते हुए समाज के लिए अपनी प्रतिभा की भेंट दी है। कालक्रम से अज्ञातनामा व्यक्ति विशेष की रचना में समुदाय ने भी अपना योगदान दिया और यह स्वाभाविक भी था क्योंकि वह वस्तुत समुदाय की है और समुदाय के लिए है। समुदाय का योग मिलना आवश्यक है। इसी से कविता के आरंभ पर विचार करते हुए कुछ विद्वानों ने कहा है कि आदि में कविता समस्त समुदाय के प्रयत्नों से बनी। किसी ने कुछ जोड़ा, किसी ने कुछ और एक पद बना। इसी प्रक्रिया से कविता आगे बढ़ी है। इससे एक कठिनाई अवश्य हुई है कि लोक साहित्य का कोई मूल पाठ नहीं मिलता। यह भी कहा जा सकता है कि संभवत: कोई निश्चित मूल पाठ रहा भी न हो। इसका एक विपरीत परिणाम यह भी हुआ है कि कई लोगों को घाघ, भड्डरी आदि की कहावतों की लोक साहित्य कहने में आपत्ति हुई है। किन्तु इन लोक कलाकारों का व्यक्तित्व इतना व्यापक और महान हो चुका था कि इनके नाम भी एक समुदायवाची बन गये हैं। इन्होंने 'स्कूल का रूपÓ  ले लिया है। सच पूछा जाये तो इन नामों में नाम की गंध न रह गई है। ये तो आप्त पुरूष के रूप में शेष हैं। भले ही वह पुरूष घाघ, भड्डरी हो, या हो अन्य कोई लोक नाट्यकार दीपचंद जैसा व्यक्ति। लखमी हरियाने का लोक सांगी इस रूप में है कि उसमें लोक नाट्यकार के लिए जिस सूझ, व्यक्तित्व और प्रतिभा की आवश्यकता होती है वे सब एक-एक करके विद्यमान हैं। उसकी कल्पना इतनी निराली और व्यापक तत्वों से समन्वित थी कि दर्शकवृन्द  'वाहा दादा, वाह दादाÓ कहकर पुकार उठते और रसानुभूति से उन्मत हो जाते थे। लोक साहित्य की अन्य विशेषता यह है कि यह प्रचार या उपदेशात्मक प्रवृत्तियों से अछूता है। विशुद्ध लोक साहित्य में प्रचार, प्रोपैगेन्डा अथवा उपदेश का अभाव रहता है। उसमें तो विरह, वीरता करूणादी के सात्विक भाव भरे होते हैं जो जन-जन को एक रूप से प्रिय एवं ग्राह्य हैं। यहाँ पर यह आपेक्ष किया जा सकता है कि लोकोत्तियों में भी तो उपदेशात्मक प्रवृत्ति है फिर वे लोक साहित्य का प्रमुख अंग क्यों कर हैं? विचारने पर प्रतीत होगा कि लोकोक्ति साहित्य का प्राण वह कोरा उपदेश ही नहीं है। लोकोक्ति तो वह विट् एवं चमत्कार है जो शत-शत अनुभवों के द्वारा प्राप्त हुआ है और किसी के मुख से चमत्कृत रूप में प्रसूत हुआ है। इसलिए लोकोक्ति केवल  'अभिव्यक्तिÓ पर जीवित है उपदेश पर नहीं। उपदेश तो वहाँ एक गौण तत्व है।
 लोक साहित्य की एक और विशेषता यह भी है कि उसमें साम्प्रदायिकता के लिए स्थान नहीं है। वह पक्षी व पवन के सदृश स्वच्छंद है। उसे शाक्त एवं वैष्णव की आलोचना से कुछ नहीं लेना देना है। उसे विष्णु भी उतने ही पूज्य हैं जितनी कि शक्ति या काली आराध्या। उसकी निर्गुण ब्रम्ह में उतनी ही आस्था है जितनी कि सीताराम, राधाकृष्ण और शिव-पार्वती में। लोक साहित्यों से महान बना दिया है।
 अंत में इस बात को समाप्त करते हुए हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं यदि कविता का कार्य पाठक को संवेदनशील बनाना, सोचने समझने की शक्ति देना और जीवन की रसमय व्याख्या करना है तो निश्चय ही शास्त्रीय कविताएँ अधिकांश में असफल रही हैं। लोकगीत चाहे जिस देश व जाति के हो कविता के वास्तविक उत्तरदायित्व को बहुत अंश में पूरा करते हैं, निभाते हैं।
लोक साहित्य का महत्व -उपरोक्त विवेचन से हम उस कोने पर पहुँच गये हैं जहाँ से सरलतया लोक साहित्य के महत्व  को आंका जा सकता है। लोकसाहित्य का महत्व बहुविध है। विचार करने पर पाठ को धर्मगाथा (माइ थालाजी), नृविज्ञान (एनथ्रापोलोजी), जाति विज्ञान (एथनोलोजी) और भाषा विज्ञान (फाइलालोजी) आदि क्षेत्रों में लोक साहित्य की महत्ता, विशेष रूप से अनुभव होगी। यदि हम कहें कि लोक साहित्य के सम्यक विवेचन के बिना इन क्षेत्रों का अध्ययन अपूर्ण एवं अद्र्धपूर्ण होगा तो कोई अत्युक्ति न होगी। लोक साहित्य धर्मगाथादिकों के अध्ययन के लिए आधारशिला का कार्य करता है। भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में तो लोक साहित्य की महत्ता सर्वविदित है।
 विश्व और मानव की रहस्यमय पहेली को सुलझाने के लिए, उसके प्राचीनतम रूपों की खोज के लिए और उसके यथार्थ स्वरूप को जानने के लिए जहाँ इतिहास के पृष्ट मूक हैं, शिलालेख और ताम्रपत्र मलीन हो गये हैं वहाँ उस तमसाच्छन्न स्थिति में लोक साहित्य ही दिशा निर्देश करता है। लोक साहित्य का गंभीर अध्ययन जीवन और जगत की मौलिक एवं प्राणाणिक खोज के लिए अत्यन्त आवश्यक है। आदिम मानव की आदिम प्रवृत्तियों को जानने का सबसे सरल, प्रामणिक एवं रोचक साधन लोक साहित्य ही तो है। इस स्थल पर एक ओर बात भी विचारणीय है कि सभ्य कही जाने वाली जातियों के वास्तविकतावादी लेखकों की भाँति अनेक असंस्कृत जातियों के मौखिक साहित्य में भोग व लिप्सा की दुर्गन्ध नहीं है। इनके गीतों में जीवन की निकृष्ट दशा को छोड़ जीवन के रमणीय पक्ष का प्रदर्शन हुआ है।
1. ऐतिहासिक महत्व - किसी देश व समाज के प्राचीन रूप को झांक देख लेने का अनुपम साधन लोक साहित्य है। जब श्रावण मास में चंदन के रूख पर रेशम की डोर से झूला डालने की मांग हरियाणों की नवोढ़ा करती है, बटेऊ  (अतिथि, विशेषकर जामाता) के पधारने पर सोने की कढ़ाई में पूरियाँ उतारने की बात कही जाती है तो बरबस मन समाज के विगत वैभव विलास की ओर खिंच जाता है। भले ही ये समाज की आदर्श कल्पनाएँ रही हों किन्तु जन मानस में ये वस्तुएँ रही अवश्य हैं। चन्दरावल तथा अन्यान्य पतिपरायणा महिलाओं के आदर्श पतिव्रत को प्रदर्शित करने वाले गीत तथा कामांध यवनों के निरीह जनता के गृहस्थ जीवन को पंकिल करने वाले कारनामे किस इतिवृत्त से अधिक प्रभावशील नहीं हैं?
 वर्णनात्मक दोहें जो ग्रामीण जनता के मुख में आसीन हैं बड़ी पते की बातें बतलाते हैं और पिछले इतिहास पर प्रकाश डालते हैं। हरियाणा के विषय में गुरू गोरख नाथ के पर्यटन से सम्बन्धित यह दोहा-   
'कंटक देश, कठोर नर, भैंस मूत्र को नीर।
करमां का मारा फिरे, बांगर बीच फकीर।Ó
 नाथ कालीन इस प्रदेश के इतिहास को अपने में समेटे हुए है। यह संस्कृत में प्राप्त उस वर्णन के प्रतिकूल है जहाँ हरियाणे को 'बहुधान्यकभू:Ó कहा गया है। इस स्थिति में पाठक एक विचिकित्सा में पड़ जाता है कि राजाश्रित किसी कवि की वह संस्कृतोक्ति सत्य है अथवा रमते राम बाबा गोरखनाथ की यह ठेठवाणी। सामयिक परिस्थिति एवं वातावरण को देखते हुए गोरख बाबा वाली बात ही यथार्थ बैठती है। ऐसे ही अन्य अनेक तत्व इतिहास की खोज में सहायक होते हैं।
 पाश्चात्य विद्वानों ने भारतीय साहित्य में यह कमी बतलाई है कि इसमें इतिहास विषयक सामग्री का एक तरह से अभाव है परन्तु उनका यह आक्षेप शिष्ट और लोक साहित्य दोनों पर लागू नहीं होता। लोक मस्तिष्क ने अपने इतिहास की कडिय़ाँ अपने गीतों में, अपनी कथाओं में जोड़ी हैं। लोकगाथाएँ तो एक रूप से इतिहास की प्रचुर सामाग्री से समपन्न हैं। उनमें अतिरंजना भले ही हो किन्तु इतिहास के विद्यार्थी को कुछ ऐसे तथ्य अवश्य मिल जायेंगे जो प्रसिद्ध इतिहास लेखकों की दृष्टि से छूट गये हंै।
2. सामाजिक महत्व - लोक साहित्य काक सामाजिक मूल्य बहुत अधिक है। समाज-शास्त्र के समुचित अध्ययन के लिए लोक साहित्य की महत्ता सुविदित है। भारतीय समजा का ढंाचा किस प्रकार का रहा है यह लोक-गीतों, लोककथाओं और लोकोक्तियों से भली-भांति समझ में आ जाता है। सास बहू का कटु संबंध, ननद भौजाई का वैमनस्य, विप्रयुक्ता तथा विधवा की दशा का मार्मिक एवं यथातथ्यपूर्ण वर्णन किसी लिखित रूप में उतना मार्मिक नहीं मिलेगा। भाई बहन के निरीह निश्छल कोमल प्रेम के उदाहरण क्या कल्हण की राजतरंगिणी, अष्टदश पुराण और टाँड राजस्थान आदि महान ग्रंथों में देखने को मिंलेगे? शिशु जन्म पर होने वाले सामाजिक कृत्यों के प्रति क्या इतिहास लेखकों का ध्यान कभी गया है? इन सबके समीचीन अध्ययन के लिए लोक साहित्य ही तो एक मात्र साधन है।
3. शिक्षा विषयक महत्व - ज्ञान एवं नीति की दृष्टि से यह साहित्य पर्याप्त समृद्ध है। ग्रामों में चाहे स्कूल, कॉलेज एवं उच्च शिक्षा का समुचित प्रबंध न हो,चाहे ग्रामीण जनता को अक्षर ज्ञान की कोई सुविधा न हो परन्तु जनता के ज्ञान में बराबर वृद्धि होती रहती है। इस ज्ञान को ग्रामीण जनता आँखों द्वारा न लेकर कानों द्वारा ग्रहण करती है। इस प्रकार यह शिक्षा दिन और रात का प्रात: ओर मध्याह्न का, तथा संध्या व प्रदोषकाल का कोई ध्यान न कर सहज रूप में वायु ओर आकाश के पंखों पर चढ़ नारद की भांति जन-जन के द्वार पर अलख जगाती  है। ग्राहक को इस शिक्षा के हृदयंगम करने के लिए किसी विशेष वातावरण एवं परिस्थिति की आवश्यकता नहीं पड़ती। यह कहना अनुचित न होगा कि ग्रामों में मौखिक विश्व विद्यालय खुले हुए हैं। परस (चौपाल) और पूअर (अलाव) इस ज्ञान-वितरण के लिए बड़े उपयुक्त स्थल हैं। इन संस्थाओं में शिक्षा के अलग-अलग स्तर हैं जहाँ आबालवृद्ध को आयु के अनुसार शिक्षा मिलती है। शिक्षार्थी को समयानुसार सब चीजें सीखने को मिलेंगी। कोर्स (पाठ्यक्रम) आयु के अनुसार चलता है। बचपन में बाल सुलभ और बुढ़ापे में बृद्ध सुलभ।
 इस शिक्षा वितरण के सर्वोत्तम साधन लोक-कथाएँ हैं। यों तो बालक की शिक्षा जननी की गोद में ही आरम्भ होती है। वहीं से वह चंदामामा, झूजू के म्याऊँ  के, आटे बाटे के द्वारा कुछ सीखता चलता है। कैसा सुन्दर ढंग है, शिक्षा की शिक्षा और मनोविनोद का मनोविनोद। घर-घर में किंडर गार्टन और मांटेसरी शालाएँ लगी होती हैं। माता-पिता, भाई-बहन, दादी-दादा, अड़ोसी-पड़ोसी अबोध बालक की ज्ञान झोली में कोई न कोई रत्न बिना मांगे डालते रहते हैं। बालक कुछ बड़ा होता है तो दादी-नानी की घरेलू कहानियाँ बालक को हुंकारे के साथ कभी आश्यर्च, कभी उत्साह और कभी उदारता के पाठ पढ़ाती चलती हैं। इन कहानियों में बालक के लिए परिचित कुत्ता, बिल्ली, कौंआ, मोर, तोता, सारस, गीदड़ और लोमड़ी आदि पात्र जीवन की व्याख्या बालक की मातृभाषा में करते चलते हैं। ये कहानियाँ श्रोता के सामाजिक व्यवहार का ज्ञान भी देती रहती हैं। इन ग्रामीण घरेलू कहानियों और पाठ्य-पुस्तकों में स्थान पाने वाली आधुनिक कहानियों में एक मौलिक अन्तर है। स्कूली कहानियों में पाश्चात्य सभ्यता व संस्कृति लहरें लेती है जब कि घरेलू कहानियों का पट उन्हीं तन्तुओं से निर्मित है जो पूर्णतया भारतीय हैं। वही-'एक राजा था। उसके सात छोरे थे और सात छोरियाँ थीÓ आदि पूर्व परिचित बातें हैं।
 बालिकाओं के दृष्टिकोण से देखें तो लोक साहित्य बड़ा उपयोगी मिलेगा। उनके लिए सामाजिक एवं कौटुम्बिक शिक्षा का समुचित प्रबन्ध यहाँ मिलता है। उदार जननी एवं सद्गृहस्थ बनना भारतीय पुत्रियों का प्रथम व पुरातन उद्देश्य रहा है। बालिकाएँ जीवन के आरम्भ से ही गुडिय़ों के साथ खेल-खेलकर अपना मनोरंजन करती हैं और गृहस्थ के अनेक रहस्यों को अनायास सीख लेती हैं, समझ लेती हैं। कुछ सयानी होती हैं तो गीतों की दुनिया में पदार्पण करती हैं। यह संसार उन्हें पर्याप्त मात्रा में शिक्षित कर देता है। यहीं से उन्हें ऐसे असंख्य नुस्खे (योग) मिलते हैं। जो भावी जीवन के लिए लाभप्रद एवं हितकर सिद्ध होते हैं। जिन बातों को ये गुड्डे-गुडिय़ों के रूप में कहती सुनती है उन्हीं से अपने भावी जीवन की दिशा निर्धारित करती चलती हैं। डॉ. वैरियर एलविन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'फोक्सांग्स् ऑफ मैकलल्स्Óि में एक स्थान पर लोक गीतों की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए लिखा है कि-'इनका महत्व इसलिए नहीं है कि इनके संगीत, स्वरूप और विषय में जनता का वास्तविक जीवन प्रतिबिम्बित होता है, प्रत्युत इनमें मानवशास्त्र (सोशियोलाजी) के अध्ययन की प्रामणिक एवं ठोस सामग्री हमें उपलब्ध होती है। Ó डॉ. एलविन के मत में एक सार है, एक तथ्य है।
4. आँचारिक महत्व - लोक में आचार का बड़ा महत्व है। लोक साहित्य में आचार संबंधी बातें यत्र-तत्र बिखरी मिलेंगी। यहाँ आचार संबंधी कितने ही अध्याय खुले पड़े हैं जिनमें एक लोकोत्तर नैतिक एवं आचारिक अवस्था का वर्णन है। सतीत्व का कितना ऊँचा आदर्श यहाँ उपलब्श होता है यह चन्दरावल के कथा-गीत से स्पष्ट है। लोक साहित्य में जिन उच्चादर्शों का वर्णन है जिन लोकोत्तर चरित्रों की कल्पना है उनमें राम, कृष्ण, शिव और सीता राधा, पार्वती को नहीं भुला सकते। वे हमारे आचार के केन्द्र हैं। इन्हीं आदर्शों को अपनाकर भारत भारत रह सकता है।
5. भाषा वैज्ञानिक महत्व - यह सत्य बात है कि 'भाषा-शास्त्रीÓ के लिए शिष्ट साहित्यिक भाषाएँ उतनी उपयोगी नहीं है जितनी कि  बोलचाल की भाषाएँ। इसलिए लोक साहित्य लोक-भाषा की वस्तु हाने के कारण भाषा-वैज्ञानिकों के लिए बड़ा महत्वपूर्ण है यही वह धरातल है जहाँ पर भाषातत्ववेत्ता भाषा के परतों को उघाड़कर देखते हैं और गंभीर से गंभीर स्तरों में प्रवेश पाते हैं।
 अर्थ परिवर्तन को समझने के लिए तथा शब्दों के इतिहास की खोज के लिए लोक साहित्य सर्वाधिक उपादेय है। पं. रामनरेश जी त्रिपाठी का यह कथन पूर्णतया सत्य है कि 'आधुनिक हिन्दी के जन्मदाता गाँव वाले हैं और उनका साहित्य इस भाषा को गढऩे के लिए टकसाल का काम दे रहा है। संस्कृत के शब्द किस प्रकार साधारण जन के लिए उपयोग सुलभ हुए हैं यह सब इस टकसाल का ही परिणाम है।Ó जब एक साधारण ग्रामीण किसी नई वस्तु या किसी नूतन प्राकृतिक व्यापार को देखता है तो उसे अपनी समझ से कोई न कोई नाम देना चाहता है। इसके लिए किसी पंडित व पुरोहित की अपेक्षा उसे नहीं होती। उसने साईकिल देखी। कभी नहीं सोचा कि यह अंग्रेजी अथवा ऐंग्लो-सेक्सन भाषा का शब्द है और उसके क्या मायने हैं। उसने देखा केवल एक नूतन व्यापार कि एक गाड़ी है और वह पैर से चलती है। अत: वह सहसा कह बैठा 'पैरगाड़ीÓ। यह एक साधारण शब्द है लेकिन कितना सार्थक एवं उपयोगी है।
 लोकमानस की शब्द निर्माण शक्ति की परख प्राय: क्रिया-विशेषण बनाने में सरलतया हो जाती है। जोर से गिरने के लिए 'धड़ाम से गिराÓ अधिक सार्थक एवं स्वत: बोधक है आदि। यदि हम किसी ग्रामीणजन को बोलता सुने तो हमें सहज ही ज्ञात हो जायेगा कि वह कितने ही ऐसे शब्द प्रयोग में लाता है जो भारतीय वातावरण में पनपे हैं यथा पौन (पवन) पौरख (पौरूष) वार (वारि) आदि ऐसे शब्द हैं जिनके अन्तस् में भारतीय वातावरण हिलोरें ले रहा है। एक सरल विवेचन से हम यह देख पायेंगे कि लोकभाषा शिष्ट भाषा से अधिक सम्पन्न और सरल भी बनेगी। हरियाणा लोक साहित्य का अध्ययन भी हिन्दी शब्दकोष की पर्याप्त अभिवृद्धि करेगा। इस बोली के उणियार (सदृश),ल्हास तथा दावें (पर्याप्त रूप से) आदि ऐसे शब्द हैं जो हिन्दी की भाव-प्रकाशिका को बढ़ायेंगे।
6. सांस्कृतिक महत्व -लोक साहित्य का सांस्कृतिक पक्ष बड़ा विशद है। विश्व की संस्कृतियाँ कैसे उद्भूत हुई, कैसे पनपी, इस रहस्य की कहानी अथवा इतिहास हमें लोक साहित्य के सम्यक् अध्ययन से मिलता है। संस्कृतियों के पुनीत इतिहास की परख अनेकांश में लोक साहित्य से सँभव है। सच पूछा जाये तो लोक साहित्य ही संस्कृति का अमूल्य निधि है।
महात्मा गांधी के निम्नलिखित शब्द जिनमें लोक साहित्य के सांस्कृतिक पक्ष की महत्ता प्रकट की गयी है, चिरस्मरणीय रहेंगे- 'हाँ, लोकगीतों की प्रशंसा अवश्य करूँगा, क्योंकि मैं मानता हूँ कि लोकगीत समूची संस्कृति के पहरेदार होते हैं।Ó गुजराती मनीषी काका कालेलकर ने लोक साहित्य के सांस्कृतिक पक्ष को इन शब्दों में व्यक्त किया है- 'लोक साहित्य के अध्ययन से, उसके उद्धार से हम कृत्रिमता का कवच तोड़ सकेंगे और स्वाभाविकता की शुद्ध हवा में फिरने-डोलने की शक्ति प्राप्त कर सकेंगे। स्वाभाविकता से ही आत्मशुद्धि संभव हैÓ अंत में यदि हम यह कहें कि लोक साहित्य जन-संस्कृति का दर्पण है तो अत्युक्ति न होगी।
 संस्कृति की आधारशिला पुरातन होती है। इसके मूल तत्वों के संबंध में जो तत्व सबसे महत्वपूर्ण एवं विचारणीय हैं, वह है विगत का प्रभाव। आज भी हमारा आदर्श हमारा अतीत है। झूला-झूलते, चाकी पीसते, यात्रा करते हमारे आदर्श राम-लक्ष्मण के पुण्य चरित्र ही हैं। यही लोक साहित्य का सांस्कृतिक पक्ष है।साभार- रऊताही 2011 (द्वि.खं.)

छत्तीसगढ़ी संस्कृति और नागतत्व

यह निर्विवाद है कि संस्कृति-निरपेक्ष साहित्य शाश्वत नहीं होता। साहित्य सांस्कृतिक तत्वों को लेकर ही उसका विवेचन-विश्लेषण करता है और निर्दिष्ट करता है- युगीन संदर्भों का सुंदर चित्रांकन यही कारण है कि साहित्य में विविध युगों के स्पंदन मिलते हैं। स्पष्ट है, जो साहित्य जितना प्राचीन होगा, उसमें उतनी ही पुरानी संस्कृति दृष्टिगत होगी। छत्तीसगढ़ी साहित्य एवं संस्कृति में तदनुरुप प्रागैतिहासिक काल से लेकर आधुनिक तत्व खोजे जा सकते हैं, संप्रति नागतत्व भी छत्तीसगढ़ी लोकसंस्कृति में अक्षुण्ण है।
नाग प्राचीन जाति थी जिसमें सर्प की विशेषता को निरखकर नाम के प्रतीकार्थ ही उसे संबोधित किया गया। कालांतर में अलौकिकता के साथ संशिलष्ट-संगुफित होकर यह जाति नाग के रूप में ही अभिहित हुई। नाग कर्मठ जाति थी जिन्हें रत्नों के संधान का अभ्यास था। पहले आर्यों से इनका संघर्ष हुआ और बाद में यह जाति उनके साथ मिल गई। यह जाति नाग की तरह सुंदर स्निग्ध और सुंदर थी। इसीलिए आर्यों से इनका सहज दाम्पत्य संबंध स्थापित हो गया। प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन-अनुशीलन से यह पता चलता है कि अनेक कार्य ऋषियों और राजाओं ने नाग कन्याओं से विवाह किया था। इनकी संतानें वैध मानी जाती थीं। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार 'कद्रूÓ पुत्र नागों के वंश में उत्पन्न अर्बुद नामक ऋषि ऋग्वेद के दसवें मंडल के चौरानबे सूक्त के रचयिता बताए गए हैं। 'एक और मंत्रदृष्टा ऋषि इरावत के पुत्र जरतकर्ण थे, जिन्हें सायण ने सर्प जाति का बताया है। नागों के प्रसिद्ध शत्रु माने जाने वाले जन्मेजय के पुरोहित सोमश्रवा थे जिनके विषय में परिचय देते हुए उनके पिता श्रुतश्रवा ने कहा था यह मेरा पुत्र नागकन्या के गर्भ से संभू्रत महातपस्वी स्वाध्याय सम्पन्न और मेरे तपोवीर्य से उत्पन्न हुआ है।
पृथ्वी का भार उठाने वाला शेषनाग पुराणों में देव के रूप में प्रतिष्ठित है। नागपंचमी भी नाग को देव के रूप में स्मरण किये जाने के प्रतीकार्थ मनाया जाता है। दीवारों पर नाग बनाये जाते हैं। इसकी पूजा की जाती है। नाग का दर्शन शुभ माना जाता है। उन्हें दूध पिलाया जाता है।
छत्तीसगढ़ भी नागवंशों की कीर्ति से गौरवान्वित प्रदेश रहा है। इतिहास के छात्र इसे अच्छी तरह से जानते हैं। श्री पद्युमन-विरचित छत्तीसगढ़ के नागवंश का इतिहास दो भागों में प्रकाशित भी है। यहां इन सबकी विशेष चर्चा न करते हुए भी एक उल्लेखनीय तथ्य लिखना उचित होगा। खैरागढ़ के नागवंशी परिवार के एक शिक्षित व्यक्ति ने मुझे बताया कि उनके वंश में सर्प किसको नहीं काटता और यदि किसी को काट भी लिया हो तो उसका प्रभाव नहीं हुआ। इस तथ्य को कोई अंधविश्वास भले कहे लेकिन यह वैज्ञानिक अनुसंधान के साथ नागवंश की विशिष्टता को स्वरित करने की अपेक्षा रखता है।
छत्तीसगढ़ी लोकथाओं में सर्प या नागतत्व प्रतीकार्थ समादृत है। किसी के धन पर सर्प बैठ जाने की घटना प्रकारांतर में व्यक्ति का लोभ ही है। जब तक उसमें कृपणता रहेगी, लोभ का सर्प अक्षुण्ण रहेगा, परिणामत: मनुज धन के सही उपयोग से वंचित हो जावेगा। कृपणता दूर होते ही नागतत्व सौम्य होकर मनुज का सहयोगी-सहभागी बन जाता है। सच भी है कि अर्थ की प्रचुरता मनुष्य को धन का सर्प बना देती है। उसका जीवन जटिल हो जाता है। इसे ही मनोवैज्ञानिक ढंग से हटाकर सरल-सहज जीवन निर्दिष्ट करना छत्तीसगढ़ी लोक कथाकार को अभीष्ठ है। नागपंचमी से संबंधित लोककथाओं में नाग अलौकिक शक्ति के रूप में वर्णित है जो कु्रद्ध होने पर जीवन नष्ट कर देता है और प्रसन्न होने पर मालामाल कर देता है। यह नाग भी मानव जाति की विशिष्टता को ही संसुचित करता है। एक छत्तीसगढ़ी लोककथा के अनुसार एक स्त्री मायके न जाने के कारण दुखी है। सर्प उसको बहन मानकर संतोष प्रदान करता है। इस लोकाख्यान में वर्णित सर्प मनुष्य ही है। इसी तरह सर्प का मानव रूप परिवर्तित कर लेना और फिर सर्प हो जाने विषयक अनेक छत्तीसगढ़ी लोककथाओं से भी नाग के मनुज होने का स्पष्ट आभास होता है। नाग जाति के लोगों का अन्य लोगों से संपर्क की कथा ही प्रकारांतर में उक्त भावना का मंतव्य है।
कुछ छत्तीसगढ़ी लोककथाओं में नागमणि और नाग कन्या की चर्चा मिलती है। मनुज नागमणि के माध्यम से जल में उतरते हैं। नागमणि की यह विशेषता है कि जल उसे मार्ग देता है। इसके बाद साहसी मनुज महल में प्रस्थित होकर नाग को परास्त कर नाग कन्या प्राप्त करता है। इससे यह तथ्य तो ध्वनिमत होता है कि आर्यों का नागों से संपर्क व संघर्ष हुआ। साथ ही यह भी आभास होता है कि नागजाति के लोग जल में महल बनाकर रहते थे। वे संपन्न थे और नागकन्याएं सुंदरता के लिए विख्यात थीं।
छत्तीसगढ़ी लोककथाओं में नाग अनेक रूपों में वर्णित होते हुए भी विविध रहस्यों को छुपाए हुए हैं। यदि शिक्षा के उद्देश्य से यह नीति की बात कहता है तो औत्सुक्य वृद्धि के लिए बालोपयोगी भी हो जाता है। कुछ लोककथाओं में यदि नाग मात्र मनोरंजन के रूप में वर्णित हैं तो कुछ में मानवीय आरोपण के रूप में समादृत। यद्यपि छत्तीसगढ़ी लोककथाओं में नागतत्व संश्लिष्ट-संगुफित है तथापि छत्तीसगढ़ी लोकगीतों व लोककथाओं में यत्र-तत्र संकेतार्थ संरक्षित है। छत्तीसगढ़ी कवि इन्हीं लोकतत्त्वों को समेट कर मौलिक सूझ-बूझ व चिंतन प्रक्रिया से संयुक्त कर, नए परिवेश में प्रस्तुत करते हैं। लोकसाहित्य का नागतत्व विशिष्ट साहित्य से उद्भूत होकर गौरवशाली सांस्कृतिक परंपरा को अक्षुण्ण रखने का उपक्रम निवेदित करता है। स्व. कपिल नाथ कश्यप ने छत्तीसगढ़ी लोक कथा के आधार पर 'हीराकुमारÓ नायक छत्तीसगढ़ खंडकाव्य का सृजन किया है। उन्हें उक्त लोककथा ग्राम सकराली निवासी श्री मुखा मानिकपुरी से सुनने को मिली थी जिसे कवि ने हृदयगत भावनाओं में डूबाकर प्रस्तुत किया है। छत्तीसगढ़ी प्रबंध काव्य परंपरा में 'हीराकुमारÓ ऐसी प्रथम कृति है जो नागतत्त्व से स्पर्शित होकर प्रकट होती है।
धनीराम साव नामक व्यक्ति अर्थाभाव होने के कारण अतिथि सत्कार न कर सकने की पीड़ा से अपनी पत्नी को मार डालने के लिए टोकरे में सर्प ले आता है। जैसी ही उसकी पत्नी उसे खोलती है, प्रकाशवान हीरा निरखकर उसे आश्चर्य होता है। उसे सेठ के माध्यम से नि:संदेह राजा प्राप्त करता है और रात्रि को शयनकाल शिशु के रोने की ध्वनि सुनकर एवं ईश्वरीय लीला देखकर स्ंतभित हो जाता है। हीराकुमार का विवाह रामकुमार की राजकुमारी तारा से नियत होता है, किंतु राजा की मृत्यु हो जाती है। मंत्री के षड्यंत्र को समझकर हीराकुमार को लेकर रानी उस स्थल पर पहुँचती है, जहां हीराकुमार की ससुराल थी। मदन पंडित हीराकुमार और तारा दोनों को पढ़ाते हैं। वहीं दोनों का परिचय होता है  और दोनों भागकर मालिन के पास पहुंचते हैं। जहां मालिन गिरजा द्वारा भेड़ बनाकर हीरा को छिपा दिया जाता है और बाद में तारा उसे प्राप्त करती है। मालिन के चतुराई के कारण जाति पूछकर पुन: नाग के रूप में परिवर्तित होकर हीराकुमार उससे विलग हो जाता है। तारा बनगवां की सहायता से पुन: उसे प्राप्त करती है।
प्रस्तुत कथा में नाग का हीरा हो जाना प्रतीकार्थ प्रयुक्त हुआ है। वास्तव में नागजाति के लोग संपन्न थे और भूमि में अवस्थित अमूल्य रत्नों के संधानकत्र्ता भी। इन जातियों का अधीन हो जाना या सहयोगी बनना मूल्यवान हीरे-सदृश सुख प्राप्त करना ही कहा जाएगा। इसी प्रकार शिशु के रूप में प्रकट होना, उसके मानव जाति होने का स्पष्ट प्रमाण है। नाग सुंदर और सुकुमार जाति रही है, प्रस्तुत खंडकाव्य के वर्णन से यह स्पष्ट है। आर्य जातियां इनसे घृणास्पद व्यवहार करती थीं। इसी कारण हीराकुमार की जाति छिपी रही लेकिन मालिन के दुव्र्यवहार और ईष्र्या के फलत: हीराकुमार की हीनता ग्रंथि ने उसे नागलोक में सहारा दिया। प्रेम शाश्वत होता है, स्थायी होता है। आर्य जाति की सुंदरी तारा के प्रेम को वह कैसे विस्मृत कर सकता था? और फिर सुंदरी के मन से तारा हीरा कुमार के प्रति प्रणयाधिक्य में अल्पता कैसे होती? प्रेम जाति के हल्के बंधन को झकझोर देता है। प्रेम के कारण ही आर्यजाति की सुकन्या को नागजाति के सुंदर राजकुमार हीराकुमार की खोज करनी पड़ती है और अंत में सफलता भी मिलती है। नाच-गान व वैभव-विलास लीला के बीच हीराकुमार को दृष्टिपात करना नागजाति के ऐश्वर्य जीवन को उद्भासित करता है। आर्य जाति की सुंदरी का नागजाति के राजकुमार के प्रति वरण और प्रेम की अदम्य लालसा दोनों जातियों के समन्वय और रक्त संबंध को प्रकट करता है। छत्तीसगढ़ी की अन्य लोककथाओं में नागजाति की प्रिया और आर्य जाति के पुरुषों की सुंदरता-पुष्टता अलौकिक है। अक्षत द्वारा हीरा को भेड़ बनाना छत्तीसगढ़ी तंत्र-मंत्र परंपरा का रूप है-
पीछू होके मारिस भँवर, कहिके तंय ह निचट लेढ़वा।
कारी-पिंउरी चांउर लगते, तुरते होइस हीरा भेड़वा।।
नागजाति मानव थी। निम्नपंक्तियों में उनका यही स्वरूप दिग्दर्शित होता है-
रंग-रंग के सांप निकर के बाहिर आइन,
मनसे के सब सुंदर-सुंदर भेख बनाइन
छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में नागलोक है। वर्षा-ऋतु में सर्प दंश से यहां हजारों की मृत्यु होती है। इसी तरह नागलदह, नागतरोई (राजनांदगांव), नागलसर (बस्तर), साँपधरा (सरगुजा), अजगर बहार (बिलासपुर), नागझर (सरगुजा), नागलदेही, नागलबुड़ा, नागिलबहरा, नागेश, अजगर खार (रायपुर) आदि ग्राम-नाम के महात्म्य को महिमा मंडित करते हैं। बिलासपुर जिलांतर्गत अकलतरा रेलवे स्टेशन से लगभग पच्चीस किलो मीटर पूर्व दिशा में अमोरा नामक गांव है। बहुत पहले वहां आश्चर्यजनक घटना यह हुई कि यहां की मुखिया की बहू ने एक छोटे से सर्प को जन्म दिया। बहू के स्तन पान से वह बढऩे लगा उसने कभी किसी को नुकसान नहीं पहुंचाया। वह अपने बाबा के साथ खेत जाता। उसके उत्पन्न होने के बाद से मुखिया का घर धन-धान्य से भर गया।
सर्प घर और खेत की रखवाली करता। सबके खाने के बाद जब चूल्हे की आग बुझा दी जाती, तब वह चूल्हे के भीतर सो जाता। एक दिन नाग चूल्हे में सोया हुआ था। जल्दबाजी में बहू ने उसमें आग डाल दी। सर्प मर गया। इस दुर्घटना से दुखी मुखिया ने एक चबूतरा बनाया जिसे नागचौंरा कहा जाता है। इसकी पूजा की जाती है। आसपास के ग्रामों में यदि किसी को विषैला सर्प डस ले तो 'नागचौराÓ की चुटकी भर मिट्टी खिला देने से वह व्यक्ति अच्छा हो जाता है। इसी तरह रायपुर के ब्राह्मण पारा के पंच मैयाराम के शुक्ला परिवार के किसी व्यक्ति को सर्प नहीं काटता। यदि किसी को काट भी ले तो उस परिवार के व्यक्ति की मृत्यु नहीं होती। आज के वैज्ञानिक युग में ऐसी घटना शोध का विषय है। छत्तीसगढ़ के लोकजीवन और साहित्य में नाग का प्रभाव घुला-मिला है।
साभार- (द्वितीय खंड)

इतिहास के पन्नों में संस्कृति

संस्कृति संसार भर में जो भी सर्वोत्तम और अच्छी बातें कही या जानी जाती हैं, उनसे अपने आप को परिचित करना संस्कृति है। भारतीय संस्कृति का रूप सामासिक है और उसकी प्रगति धीरे-धीरे हुई है। एक ओर तो इस संस्कृति का मूल आर्यों से पूर्व मोहनजोदड़ो आदि की सभ्यता तथा द्रविड़ों की महान सभ्यता तक पहुँचाता है, तो दूसरी ओर इस संस्कृति पर आर्यों की बड़ी ही गहरी छाप देखने को मिलती है।
हजारों वर्षों से एक ही भू-भाग में एक ही तरह की जलवायु तथा एक ही सामाजिक परिवेश और एक  ही आर्थिक पद्धति के भीतर जीते रहने के कारण भारतीय समाज के सभी लोगों के रंग-रूप, वेश-भूषा, भाव विचार, चिन्तन-सोच और जीवन-विषयक दृष्टिकोण में अद्भुत एकता आ गयी है।
एक चिन्तन के अनुसार भारत वर्ष में चार प्रकार के लोग मिलते हैं एक तरह के वे लोग हैं, जिनका कद छोटा, रंग काला, नाक चौड़ी और बाल घुंघराले होते हैं, जो वनों में निवास करते हैं। ये ही लोग उन आदिवासियों की संतान हैं, जो आर्यों और द्रविड़ों के आगमन के पूर्व इस देश में आकर बसे थे और जो शायद जंगली जीवन के आदी होने के कारण अब तक भी शहरों से दूर जंगलों में ही रहने में सुख मानते हैं। दूसरे तरह के वे लोग जिनका कद छोटा, रंग काला, मसल लम्बा, सिर के बाल घने और नाक खड़ी व चौड़ी होती है, रंग व कद में आदिवासियों से थोड़े भिन्न समानता रखते हैं, ये द्रविड़ जाति के लोग हैं। विन्ध्यांचल के नीचे, सारे दक्षिण भारत में इन्हीं लोगों की प्रधानता है इनके पूर्वज कदाचित आर्यों से भी पूर्व इस देश में आए थे और उन्होंने पहले पहल भारत में नगर सभ्यता की नींव डाली थी।
तीसरी जाति के लोगों का कद लम्बा, वर्ण गेंहुआ या गोरा, दाढ़ी-मंूछ घनी, मस्तक लम्बा तथा नाक पतली और नुकीली होती है, ये आर्य जाति के लोग हैं।
चौथे प्रकार के लोग बर्मा, असम, भूटान, नेपाल तथा उत्तरप्रदेश, पंजाब, उत्तरी बंगाल और कश्मीर के उत्तरी किनारें पर पाएं जाते हैं। इनका मस्तक चौड़ा, रंग काला, पीला, आकृति चिपटी तथा नाक चौड़ी और पसरी हुई होती। इस प्रकार अत्यंत प्राचीन काल में आर्य, द्रविड़, आदिवासी और मंगोल इन चार जातियों को लेकर भारतीय जनता की रचना हुई।
सामान्यतया यह  माना जाता है कि हिन्दुस्तान की जनसंख्या का एक प्रमुख भाग औष्ट्रिक जाति की देन है। ये औष्ट्रिक या आग्नेय नाम इनका इसलिए पड़ा कि ये लोग यूरोप के अग्निकोण में पाए जाते हैं।
डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी का कथन है कि 'आर्यों ने द्रविड़ों को ही दास, आग्नेय जाति वालों को कोल, भील और निषाद तथा मंगोल जाति के लोगों को किशत कहते हंै।Ó ईसा से 3000 हजार वर्ष पूर्व भूमध्य सागर से लेकर सिन्धु घाटी तक जो सभ्यता फैली हुई थी। वह बहुत कुछ समान थी। द्रविड़ों में जो मातृमूलक परम्परा है वह इमेलाइट लोगों में भी थी। देवदासी जैसी भी कोई प्रथा थी। सुमेरिया में एक ऐसे देवता की भी पूजा चलती थी, जिनका वाहन बैल था। अब सभी इतिहासकार यह मानने लगे हैं कि द्रविड़ जाति प्राचीन विश्व की अत्यंत सुसभ्य जाति थी और भारत में भी सभ्यता का वास्तविक प्रारम्भ इसी जाति ने किया था। जब द्रविड़ इस देश में आए यहां आग्नेय जाति वालों की प्रमुख्यता थी और कुछ नीग्रो जाति के लोग भी वर्तमान में थे। अत: एक अनुमान के अनुसार कि नीग्रो और आग्नेय लोगों की बहुत सी बातें पूर्व में द्रविड़ सभ्यता में आई और पीछे द्रविड़ आर्य मिलन होने पर आर्य सभ्यता में भी द्रविड़ों ने इस देश में कृषि का विकास किया, समुद्र यात्रा की परम्परा प्रारंभ की, सिंचाई के लिए नदियों को बांधने की प्रथा चलाई, बड़े-बड़े मंदिरों और भवनों का निर्माण किया तथा नगर सभ्यता की नींव डाली। वे समाज की मातृमूलक व्यवस्था के भी प्रवत्र्तक हुए और शैव तथा शाक्त धर्म तथा भक्तिवाद का भी उन्हीं ने विकास किया।
महाप्लावन की जो कथा हमारे पुराणों में मिलती है, वही कथा भारत से बाहर सामी  लोगों में भी प्रचलित है। भारत में इस प्लावन के नायक मनु है और सामी देशों में हजरत नूह, कहीं ऐसा तो नहीं है कि जिन दिनों यह प्लावन आया था, उन दिनों सामी लोगों के पूर्वज और प्राचीन आर्य एक ही स्थान पर रह रहे थे?
हिन्दू या भारतीय संस्कृति की नींव पड़े हजारों वर्ष हो गए। आग्नेय जाति की देन, चन्द्रमा को देखकर तिथि गिनने का रिवाज, पूर्णिमा के लिए राका और अमावस्या के लिए कुहू शब्द भी आग्नेय भण्डार से आए हैं। चांवल की खेती भी यहां उसी जाति के लोगों ने की थी और पुनर्जन्म की कल्पना भी फसल को देखकर उन्होंने ही प्रारम्भ की थी जो आगे चलकर आर्य चिन्तकों के द्वारा विकसित की गयी थी। पत्थर के रूप में देवता मानने की प्रथा भी यहाँ इसी जाति ने चलाई थी। सुनीति बाबू का अनुमान है कि 'गंगाÓ शब्द भी आग्नेय शब्द भण्डार से आया है अंधविश्वास रुढि़प्रियता, भीरूता और अन्य विचित्र-विचित्र आदतें हैं, वे सब की सब आग्नेय सभ्यता की यादगार है पक्षी-पालन, हस्ति पालन का समारम्भ भी भारत में इसी जाति के लोगों ने किया था।
देवर और देवरानी तथा जेठ और जेठानी की प्रथा भी शायद आग्नेय लोगों से आई है। सिन्दूर का प्रयोग और अनुष्ठानों में नारियल और पान रखने का रिवाज भी सम्भवत: आग्नेय रिवाजों की यादगार है। आग्नेय जाति के लोग देवता के सामने बलिदान किए गए पशु का रक्त मस्तक में लगाना शुभ मानते थे वही रिवाज सिन्दूर लगाने में बदल गया। सिन्दूर के विषय में आचार्य क्षिति मोहन सेन का भी यह मत है कि यह उपकरण आर्यों ने आर्येत्तर जातियों से लिया है।
विवाहादि के अवसर पर सिन्दूर एक अपरिहार्य पदार्थ है, इसके बिना विवाह पूर्ण नहीं होता। हितोपदेश, पंचतंत्र और जातकों में जो पशु-पक्षी विषयक कहानियाँ हैं उनमें से अनेक आग्नेय जाति के भण्डार से आए हुई हैं। अवतारों में से मत्स्य कच्छ और वराह अवतारों की कल्पनाएँ भी यदि आग्नेय कल्पना से आई हो तो इसमें आश्चर्य नहीं आग्नेय जाति के लोग अण्डे से सृष्टि के प्रारम्भ की बात सोचते थे। हिन्दूओं के ब्रह्माण्ड शब्द में अण्डा विद्यमान है हिन्दू समाज में आज दिन जिन देवताओं, तीर्थों और उत्सवों का प्रचार है उनमें से अधिकांश आर्येत्तर मूल हैं। होली या बसन्तोत्सव जैसे बहुत से उत्सव भी आर्येत्तर जातियों की देन है। आर्येत्तर लोगों के रिवाज में तुलसी, वट, अश्वत्थ, बिल्वादि वृक्ष पवित्र माने गए हैं। नदियों में अस्थियां नहीं बहाई जाएं तो आत्मा को शांति नहीं मिलती है। वैदिक या हिन्दू संस्कृति के मूलाधार जो जाति बाहर से आईं जैसे यूनानी पार्थियन, मंगोल, युची, शका,आमीर, हूण और मुस्लिम आक्रमण से पूर्व आने वाले तुर्क वे सब के सब हिन्दू संस्कृति के महासागर में विलीन हो गए और कालाक्रम में वे हिन्दू हो गए।
डेरियस (522-486 ई पूर्व)  के शिलालेख में भी हिन्दू शब्द का उल्लेख मिलता है। जो सदाचारी, वैदिक मार्ग पर चलने  वाला प्रतिमापूजक और हिंसा से दु:ख मानने वाला है वह हिन्दू स्वरोम्याँ रोला ने लिखा है कि 'अगर इस धरती पर कोई एक ऐसी जगह है जहां सभ्यता के प्रारम्भिक दिनों से ही मनुष्यों के सारे सपने आश्रय और पनाह पाते रहे हैं, तो वह जगह हिन्दुस्तान है।Ó
भारतवर्ष अपने भीतर अनेकों संस्कृतियों को समाहित किये हुये है। यही कारण है कि मिस्टर जोड ने भारत को विश्व मानवता के लिए सबसे बड़ा वरदान कहा है।
भारतवर्ष अपनी महानतम विरासत संस्कृति, सभ्यता, आर्थिक सम्पन्नता साहित्य के कारण महाशक्ति के रूप में अवतरित हो रहा है। सुप्रसिद्ध इतिहासकार मिस्टर डाडवेल ने लिखा है कि 'भारतीय संस्कृति महासमुद्र के समान हैÓ जिसमें अनेक नदियां आ -आकार विलीन होती रही हैं। भारत विश्व के मानवों के लिए आदर्श आचार्य (गुरू) है, जो सत्य, त्याग, बलिदान मानवता की अमृत धारा प्रवाहित करता है। अहिंसा का परम पुजारी हंै भारत में लेखन का प्रचार 3000 ई. पूर्व में भी था।
साभार- रऊताही 2011 (प्र.खं.)

साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में यदुवंशी

किसी भी वर्ग के निरंतर उन्नयन और प्रगतिशीलता के लिए जरूरी है कि विचारों का प्रवाह हो। विचारों का प्रवाह निर्वात में नहीं होता बल्कि उसके लिए एक मंच चाहिए। राजनीति-प्रशासन-मीडिया-साहित्य कला से जुड़े तमाम ऐसे मंच हैं, जहां व्यक्ति अपनी अभिव्यक्तियों को विस्तार देता है। आधुनिक दौर में किसी भी समाज राष्ट्र के विकास में साहित्य और मीडिया की प्रमुख भूमिका है, क्योंकि ये ही समाज को चीजों के अच्छे-बुरे पक्षों से परिचित करने के साथ-साथ उनका व्यापक प्रचार-प्रसार भी करती है। व्यवहारिक तौर पर भी देखा जाता है कि जिस वर्ग की मीडिया- साहित्य पर जितनी मजबूत पकड़ होती है, वह वर्ग भी अपनी बुद्धिजीविता के बल पर उतना ही सशक्त और प्रभावी होता है और लोगों के विचारों को भी प्रभावित करने की क्षमता रखता है। तमाम राजनैतिक-प्रशासनिक-सामाजिक क्षेत्रों में कार्यरत यदुवंशियों ने इस क्षेत्र में समय-समय पर अलख जगाई है। पूर्व केन्द्रीय मंत्री रहे देवनन्दन प्रसाद यादव, चन्द्रजीत यादव इत्यादि ने वैचारिक स्तर पर भी लोगों को जागरु करने का प्रयास किया। ललई सिंह यादव के नाम से भला कौन परिचित होगा। कानपुर देहात में जन्में ललई सिंह यादव (1 सितम्बर 1911 से 7 फरवरी 1993) को उत्तर भारत का पेरियार कहा जाता है। ललई सिंह ने वैचारिक आधार पर सवर्ण वर्चस्व का विरोध किया और साहित्य के व्यापक प्रचार-प्रसार द्वारा पिछड़ों दलितों में चेतना जगाई। पेरियार ने अपनी पुस्तक  'द रामायण ए टू रीडिंगÓ के उत्तर भारत में प्रकाशन का जिम्मा ललई सिंह यादव को सौंपा और उन्होंने इसे 'सच्ची रामायणÓ नाम से प्रकाशित किया। पुस्तक प्रकाशित होते ही हड़कम्प मच गया और  8 सितम्बर 1969 को उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा इसे जब्त करने का आदेश पारित कर दिया गया। अन्तत: इस प्रकरण पर लम्बा मुकदमा चला और हाईकोर्ट व सुप्रीकोर्ट  से ललई सिंह यादव की जीत हुई। प्रखर सामाजिक क्रांतिकारी ललई सिंह अम्बेडकर व पेरियार से काफी प्रभावित थे और दबी, पिछड़ी, शोषित मानवता को उन्होंने सच्ची राह दिखाई।
यादव समाज से जुडे तमाम बुद्धिजीवी देश कोने-कोने से पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन/ संपादन कर रहे हैं। जरूरत है कि इनका व्यापक प्रचार-प्रसार हो और इनके पाठकों की संख्या में भी अभिवृद्धि हो। यदि भारत में आज हिन्दी साहित्य जगत के मूर्धन्य विद्वानों का नाम लिया जाये तो सर्वप्रथम राजेन्द्र यादव का नाम सामने आता है।  कविता से शुरुआत करने वाले राजेन्द्र यादव आज अन्य विधाओं में भी निरंतर लिख रहे हैं। राजेन्द्र यादव ने बड़ी बेबाकी से सामंती मूल्यों पर प्रहार किया और दलित व नारी विमर्श को हिन्दी साहित्य जगत में चर्चा का मुख्य विषय बनाने का श्रेय भी उनके खाते में है। कविता में ब्राह्मणों का बोलबाला पर भी वे बेबाक टिप्पणी करने के लिए मशहूर है। मात्र 13-14 वर्ष की उम्र में जातीय अस्मिता का बोध राजेन्द्र यादव को यूं प्रभावित कर गया कि उस उम्र में 'चंद्रकांताÓ उपन्यास के सारे खण्ड वे पढ़ गये और देवगिरी साम्राज्य को लेकर तिलिस्मी उपन्यास लिखना आरंभ कर दिया। दरअसल देवगिरी दक्षिण में यादवों का मजबूत साम्राज्य माना जाता था। साहित्य सम्राट प्रेमचंद की विरासत व मूल्यों को जब लोग भुला रहे थे, तब राजेन्द्र यादव ने प्रेमचंद द्वारा प्रकाशित पत्रिका 'हंसÓ का पुनप्र्रकाशन आरम्भ करके साहित्यिक मूल्यों को एक नई दिशा दी। आज भी 'हंसÓ पत्रिका में छपना बड़े-बड़े साहित्यकारों की दिली तमन्ना रहती है न जाने कितनी प्रतिभाओं को उन्होंने पहचाना, तराशा और सितारा बना दिया, तभी तो उन्हें हिन्दी साहित्य का 'द ग्रेट शो मैनÓ कहा जाता है।
राजेन्द्र यादव के अलावा मराठी में ग्रामीण साहित्य को नई दिशा देने वाले एवं 1990 में उपन्यास जॉम्बी के लिए साहित्य अकादमी अवार्ड से सम्मानित मराठी साहित्यकार आनंद यादव शोध पत्रकार और राजनैतिक विश्लेषक योगेन्द्र यादव, अखिल भारत वर्षीय यादव महासभा के अध्यक्ष पूर्व सांसद कविवर उदय प्रताप सिंह यादव, समालोचक वीरेन्द्र यादव (लखनऊ), वरिष्ठ बाल साहित्यकार स्वर्गीय चन्द्र पाल सिंह यादव 'मयंकÓ (कानपुर) की सुपुत्री प्रसिद्ध साहित्यकार उषा यादव (आगरा) 30 वर्ष की उम्र में ही पाँच कृतियों की अनुपम रचना और व्यक्तित्व-कृतित्व पर जारी पुस्तक 'बढ़ते चरण शिखर की ओरÓ से चर्चा में आये भारतीय डाक सेवा के अधिकारी एवं युवा साहित्यकार कृष्ण कुमार यादव (आजमगढ़) व उनकी पत्नी साहित्यकार आकांक्षा यादव, वरिष्ठ समालोचक व कथाकार गोवर्धन यादव (छिंदवाड़ा), वरिष्ठ कवि व गजलकार केशव शरण (वाराणसी) कथाकार अनिल यादव (लखनऊ), शाइरा उषा यादव (इलाहाबाद), युवा कहानीकार योगिता यादव (जम्मू कश्मीर) जैसे तमाम लोग साहित्य के क्षेत्र में निरंतर सक्रिय हैं। यादवों द्वारा तमाम पत्र-पऋिकाओं में राजेन्द्र यादव (हंस), डॉ. शोमनाथ यादव (प्रगतिशील आकल्प), डॉ. कालीचरण यादव (मड़ई), योगेन्द्र यादव (सामयिक वार्ता), प्रो. अरुण कुमार (वस्तुत:) जगदीश यादव (राष्ट्रसेतु एवं छत्तीसगढ़ समग्र) मांघीलाल यादव (मुक्तिबोध), आर.सी. यादव (शब्द), गिरसंत कुमार यादव (प्रगतिशील उद्भव), पूनम यादव (अनंता), डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव (कृतिका), डॉ. सूर्यदीन यादव (साहित्य परिवार), डॉ. अशोक अज्ञानी (अमृतायन), रामचरण यादव (नाजनीन), श्यामल किशोर यादव (मंडल विचार), डॉ. रामआशीष सिंह (आपका आईना), प्रेरित प्रियंत (प्रियंत टाइम्स), रमेश यादव (डगमगाती कलम के दर्शन), ओमप्रकाश यादव (दहलीज), सतेन्द्र सिंह (हिन्द क्रांति), आनंद सिंह यादव (स्वतंत्रता की आवाज), पल्लवी यादव (सोशल ब्रेनवाश), नंदकिशोर यादव (बहुजन दर्पण) का नाम लिया जा सकता है।
इसके अलावा यादव समाज पर भी तमाम पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं। यादव समाज पर आधारित सबसे पुरानी पत्रिका 'यादवÓ  है। बताते हैं कि राव दलीप सिंह शिकोहाबाद से 'आभीरÓ समाचार पत्र का प्रकाशन करते थे। उनके बाद राजित सिंह यादव ने इसे गोरखपुर से प्रकाशित करना आरम्भ किया। 1923-24 में अखिल भारतीय यादव महासभा का गठन होने पर राजित सिंह ने 'आभीरÓ का नाम 'यादव मित्रÓ कर दिया और 1925 में पत्रिका का नाम 'यादवÓ हो गया। 1927 में राजित सिंह ने बनारस में एक प्रेस खरीदकर वहाँ से 'यादवÓ को प्रकाशित करना आरम्भ किया। 'यादवÓ अखिल भारतीय यादव महासभा की वैधानिक पत्रिका थी पर राजित सिंह के स्वर्गवास के बाद उनके पुत्र धर्मपाल सिंह शास्त्री ने इसे 'यादव ज्योतिÓ के रूप में निकालना प्रारंभ किया। इन पत्रिकाओं में बनारस से यादव ज्योति संपादक लालसा देवी, बनारस से ही अब बन्द हो चुकी यादवेश (संपादक स्व. मन्नालाल अभिमन्यु), दिल्ली से यादव कुलदीपिका (संपादक- चिरंजी लाल यादव), आगरा से यादव निर्देशिका सह पत्रिका (संपादक- सत्येन्द्र सिंह यादव), गाजियाबाद से यादवों की आवाज (संपादक डॉ. के.सी. यादव), सीतापुर से यादव शक्ति (संपादक राजबीर सिंह यादव), नोएडा से यादव दर्पण (संपादक एस.एन. यादव) एवं तमिलनाडु से नामाधु यादवम् उल्लेखनीय है। यादवों से जुड़े विभिन्न विषयों पर स्वामी सुधानन्द योगी, फ्ला. ले. रामलाल यादव, अनिल यादव, प्रो. आनंद यादव इत्यादि की पुस्तकें भी महत्वपूर्ण हैं। यादवों से जुड़े विभिन्न सामाजिक संगठनों द्वारा समय-समय पर जारी स्मारिकाएं भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही है।
अन्तर्जाल पर यादवों से जुड़ी पत्रिका 'यदुकुलÓ  का संचालन रामशिव मूर्ति यादव द्वारा कुशलता के साथ किया जा रहा है। प्रिंट मीडिया की जहाँ अपनी सीमाएं है वहीं इंटरनेट के माध्यम से यादवों के बीच संवाद आसानी से किया जा सकता है। पटना से वीरेन्द्र सिंह यादव ने साप्ताहिक पत्रिका आह्वान का संपादन नेट पर आरंभ किया है। अन्तर्जाल पर शब्द सृजन की ओर डाकिया डाक लाया (कृष्ण कुमार यादव), शब्द शिखर उत्सव के रंग (आकांक्षा यादव) युवा (अमित कुमार यादव) सार्थक सृजन (सुरेश कुमार यादव) पाखी की दुनिया (अक्षिता), हारमोनियम (अनिल यादव), नव सृजन (रश्मि सिंह), मानस के हंस (अजय यादव), चाय घर (ब्रजेश), आवाज यादव की (डॉ. रत्नाकर लाल), यादव जी कहिन (नवल किशोर कुमार), डॉ. वीरेन्द्र (डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव), मुझे कुछ कहना है (गौतम यादव) इत्यादि ब्लाग यदुवंशियों द्वारा संचालित है। मीडिया एवं साहित्य के क्षेत्र में तमाम चर्चित-अचर्चित यादव कुशलता से कार्य कर रहे हैं। इंडिया टुडे के श्याम लाल यादव व राहुल यादव, शुक्रवार के सिंहासन यादव, गृहलक्ष्मी की सहकार्यकारी संपादक अर्पणा यादव, दैनिक आज कानपुर के संपादक रामअवतार यादव, इलेक्ट्रानिक मीडिया में आईबीएन-7 के विक्रांत यादव, स्टार न्यूज की विनीता यादव, सहारा समय उ.प्र. के अनिरुद्ध सिंह यादव, ईटीवी उ.प्र. के आशीष सिंह यादव इत्यादि के नाम देखे सुने जा सकते हैं। इसके अलावा साहित्य की तमाम विधाओं में समय-समय पर उषा यादव (इलाहाबाद), मीरा यादव (जबलपुर), अरुण यादव (जबलपुर), रचना यादव (अहमदाबाद), कौशलेन्द्र प्रताप यादव (उ.प्र.) इत्यादि की रचनाएं पढ़ी जा सकती हैं। प्रसिद्ध साहित्यकार राजेन्द्र यादव की नृत्यांगना सुपुत्री रचना यादव अच्छा नाम कमा रही हैं। इसी प्रकार कला के क्षेत्र में सुबाचन यादव, रत्नाकर लाल एवं प्रभु दयाल इत्यादि के नाम उल्लेखनीय हैं। रत्नाकर लाल प्रतिष्ठित पत्रिका 'हंसÓ के रेखांकन से भी जुड़े हुए हैं। निश्चित: तमाम यदुवंशी देश के कोने-कोने में साहित्य-संस्कृति कला की अलख जगाए हुए हैं और वैचारिकता को धार दे रहे हैं।
साभार- रऊताही 2011 (द्वि.खं.)

छत्तीसगढ़ी संस्कृति का लोक पक्ष

सांस्कृतिक चेतना को विकसित, परिष्कृत एवं परिमार्जित करने में लोक-संस्कृति का बड़ा महत्व है। कोई भी लोक-कला न केवल लोक जीवन को व्यक्त करती है, अपितु उसमें उनकी संस्कृति, सभ्यता, रहन-सहन, खान-पान और व्यवहार इत्यादि का समावेश होता है। लोक संस्कृति में हमें राउत नाचा, सुआ गीत-नृत्य, देवार गीत-नृत्य, कर्मा गीत-नृत्य और बांस गीतों के रसास्वादन की मार्मिक अनुभूति होती है। अपने विचारों और संस्कारों को मूर्त रुप प्रदान करने में अंचल के लोक नायक, गीत, संगीत नृत्य और गाथाओं पर अवलंबित होते हैं। नृत्य गीत और संगीत की सरस और सुरूचि पूर्ण अभिव्यक्ति में लोक गाथाओं की अहं भूमिका होती है।
राउत नाचा, सुआ गीत, नृत्य और बांस गीत के उल्लेख के पूर्व छत्तीसगढ़ में प्रचलित कुछ प्रेम, भक्ति, वीरता, युद्ध पौराणिक गाथाओं का परिचय निम्नांकित पंक्तियों में किया जा रहा है
ढोला-मारु की कथा- ढोला मारु की कथा एक प्रेम कथा है, जिसमें ढोला मारु के प्रेम प्रसंगों का मनमोहक वर्णन है। ढोला-मारु के कथा का नायक, ढोला, नायिका मारु तथा खलनायिका रेवा नामक जादूगरनी है। ढोला एक वीर, बुद्धिमान तथा पुरुषत्व का धनी तथा मारु नारी जीवन की स्वाभाविकता से ओत-प्रोत  नारी है। इन्हीं के प्रेम प्रसंगों का आख्यान ढोला-मारु की कथा है।
लोरिक चंदा की कथा- लोरिक चंदा की गाथा भी छत्तीसगढ़ी लोक गाथाओं में प्रचलित है। इसे चंदैनी नाम से भी जाना जाता है। इसमें भी ढोला मारु की भांति लोरिक और चंदा  के प्रेम प्रसंगों का वर्णन मिलता है। लोरिक वीर और चंदैनी सहज-सरल और नारियोचित गुणों से पूर्ण है। यह एक विशुद्ध प्रेम कथा है।
भरथरी- छत्तीसगढ़ी की प्रसिद्ध भरथरी गायिका सूरज बाई खाण्डे है। छत्तीसगढ़ी संस्कृति में भरथरी गीत की विकास यात्रा को गतिमान करने में इनकी प्रमुख भूमिका रही है। लोक में धारणा प्रचलित है कि भरथरी के विवाह की प्रथम मिलन रात्रि में सोने के पलंग की पाटी टूट जाती है। इस पर रानी हंसती है और राजा असमंजस में पड़ जाता है। रानी के हंसी का कारण वे अपनी साली से पूछते हैं। साली अपने विवाहोपरांत अपनी बिदाई के समय कारण बताने का वचन देती है। विवाहोपरांत बिदाई के समय वह राजा भरथरी को उनके सात जन्मों का वृतांत सुनाते हुए कहती है कि इस जन्म में जो आपकी अर्धांगनी है वही पूर्व जन्म में आपकी माता थी। तत्पश्चात राजा भरथरी राज्य एवं स्त्री का त्याग कर योग साधना हेतु प्रस्थित होते हैं। जन-श्रुति के अनुसार भरथरी कलियुग में अमर है। 'कलि में अमर राजा भरथरीÓ
पंडवानी- पंडवानी गायन एवं नृत्य विद्या में पारंगत गायिका तीजन बाई है जिसने पंडवानी को विश्व पटल पर प्रतिष्ठित किया है। इस कला में उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार पद्मश्री से सम्मानित किया गया है। पंडवानी मूलत: महाभारत की कथा है। इसमें महाभारत से संबंधित छोटी-छोटी घटनाओं को लोक कथा एवं उसके परिवेश को अंगीकार करते हुए एक श्रृंखला में पिरोया गया है। वैसे भी संपूर्ण भारत में महाभारत की कथा स्थानीय लोक विश्वासों के साथ प्रचलित है। छत्तीसगढ़ में यह पंडवानी के नाम से जाना जाता है। कथाओं और शैली के अनुसार पंडवानी मुख्यत: दो भागों में विभक्त है। प्रथम वेदमती और द्वितीय कापालिक।
वेदमती पंडवानी लिखित तथा मौखिक दोनों परम्पराओं में प्राप्त है। इसके प्रमुख गायक श्री झाड़ूराम देंवागन जी और श्री पूनाराम जी निशाद हैं।
कापालिक पंडवानी के गीत वे है जो महाभारत के किसी पर्व में नहीं मिलते। केवल छत्तीसगढ़ के गायकों में मिलते है। इन गायकों की कथाएं कपोल-कल्पित होती हैं। कपोल कल्पित होते हुए भी लोक विश्वास की गहरी छाप इन्हें पाण्डव कथा से संबद्ध कर देती है। इसे खड़े होकर गाया जाता है। इसकी प्रमुख गायिका पद्मश्री श्रीमती तीजनबाई है।
पंडवानी की विशेषता है कि लोकाचार- संस्कृति के प्रस्तुतिकरण में कथा को थोड़ी देर के लिए तज देता है और कथा और लोकाचार के मिश्रण से पंडवानी गायक महाभारत का छत्तीसगढ़ी संस्करण प्रस्तुत करता है। छत्तीसगढ़ में विवाहोत्सव की एक परंपरा नहडोरी स्नान की है जिसमें कन्या को एक गड्ढे के ऊपर बिठाकर स्नान कराते हैं। नहडोरी पूर्णत: आंचलिक शब्द है। नहडोरी के पश्चात फेरे पडऩे के समय धृतराष्ट्र का पैर गांधारी के पैर से टकरा जाता है, तब गांधारी सोचती है।
'जब धृतराष्ट्र हपटे लागिस तो गांधारी मन मं सोचे लागिस एही प्रकार नहडोरी के समय पानी के घड़ा ह माता गांधारी के मूड़ म परीस तव माता सोचिस मोर पति अंधवा हे।Ó
भोजली गीत- लोक पर्व मनाने का प्रारंभ छत्तीसगढ़ में वर्षा ऋतु से हो जाता है। वर्षा ऋतु के चतुर्दिक हरियाली के मौसम में किसान सोल्लास हरियाली के अवसर पर अपने औजार इत्यादि का पूजन करते हैं। इसी कड़ी में रक्षाबंधन के दूसरे दिन भाद्र महीना के कृष्ण पक्ष प्रथमा को भोजली पर्व छत्तीसगढ़ का विशिष्ट पर्व मनाया जाता है। स्नेह को संस्कारित करने वाली भोजली के विसर्जन पश्चात लोग एक दूसरे के कान में भोजली खोंच कर अपना स्नेह प्रदर्शित करते हैं। भोजली प्रेम और स्नेह के साथ एकता का संदेश लेकर आती है। पीत वर्ण की भोजली में स्वर्ण की आभा देखकर उपासिकाओं का प्रफुल्लित मन गा उठता है-
हमरो भोजली देवी के सोने के कलगी।
सबो पहिरै लाली चुनरी भोजली पहिरे सोनहा।।
बड़े स्नेह से पोसी गई सुंदर सुवर्ण भोजली का विसर्जन गायिका के हृदय को व्यथित कर देता है और वह कह उठती है-
आसा खेले न पासा खेले, अऊ खेले न डंडा।
अतेक सुंदर भोजली ल, कइसे करबो ठंडा।।
नश्वर जीवन में भोजली का सुखद सम्पर्क प्राप्त कर पुनर्मिलन की आकांक्षा संजोए भोजली के विसर्जन के लिए विवश हो उठती है-
बजन बजि गई बाजि गई निसाने।
सम्हरावत भोजली के होई गई बिहाने।
नानेकुन हंसिया के जरहा हे बेंठ।
जियत जागत रहिबो, भोजली हो जाही भेंट।।
राऊत नाच दोहे-नृत्य संगीत- छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक धरोहर राउत नाच है। राउत नाच में उन्माद और मस्ती के स्वर झंकृत होते हैं। इसमें उन्माद है, सौंदर्य है, इसकी शाश्वत छवि और थिरकते अंगों में जीवन के दु:खों को विस्मृत कर आनंद और उल्लास के अंगीकार कर लेने का आमंत्रण देता है। इस पर्व पर राउत भाई अपना सब कुछ भूलकर नृत्य में निमग्न एक जुटता अथवा एकता का संदेश देते से लगते हैं। राउत नाच साथ-साथ जीने का उपक्रम है। एक राग पर थिरकते जीवन के सुख का अनुभव नर्तक, दर्शक और श्रोता वर्ग सभी को समान रुप से प्राप्त होता है। बिलासपुर में यह पर्व देव उठनी एकादशी से प्रारंभ होता है। जबकि रायपुर अंचल में दीपावली के दूसरे दिन गोवर्धन पूजा से राउत नृत्य के कार्यक्रम होने लगते हैं। गोवर्धन पूजा का अर्थ गो-संवर्धन तथा गोबर को धन के रुप में स्वीकारना है। इस प्रकार राउत नाच गो संवर्धन अथवा गो वंश को प्रतिष्ठित सम्मान देने का आंचलिक पर्व है। राउत नाच में नर्तक, पंद्रह बीस या न्यूनाधिक व्यक्तियों की टोली में रहते हैं। रंगीन मनमोहक पोशाक में युवा, बुजुर्ग और बच्चे सभी सोल्लास भाग लेते हैं। आकर्षक पोशाक से युक्त सिर पर रंगीन पागा बांधे ऊपर सुंदर मोर पंख की कलगी अथवा बंास की छोटी खुमरी (टोप-नुमा) जो कागज के फूल और रंगों से सजी हुई, धारण करते हैं। घुटनों के ऊपर तक धोती, रंग-बिरंगे कुरता के ऊपर जरी युक्त जाकिट, पैरों में जूते पर उस पर रुन-झुन घुंघरु में इनका मन मोहक रुप देखते ही बनता है। गड़वा बाजा, ढोल, शहनाई और साथ में एक नाचने वाला नर्तक महिला नर्तकी के वेश में सुर ताल मिलाकर नृत्य करता हुआ मन हर लेता है। संगीत के साथ दोहे की ललकार से नृत्य शुरु होता है-
बाजत आवै बांसुरी, उड़त आवै धूल।
नाचत आवै नंद कन्हाई, खोंचे कमल के फूल।
नृत्य टोली में परमात्मा के प्रति गहन आस्था और धार्मिक निष्ठा है। वे अपने नृत्य की सफलता के लिए टेर लगाते हैं-
कलकत्ता के काली सुमरौं, रतनपुर के महामाया।
सुमरौं देवी रे मैहर के, बैंहां माँ होय सहाया।
धारण किए रंग-बिरंगे वस्त्र, आकर्षक वेश विन्यास की बानगी पर गर्व और सुख का अनुभव करते हैं-
गोरिया कपड़ा बाम्हन पहिरै, करिया पहिरै बिंझवार हो।
रंग-बिरंगे राउत पहिरै, माने देवारी तिहार हो।।
उद्भट् अभिलाषा पूर्वाध के गौर सेवा के दैनंदिनी कार्यों में बाधक नहीं होता है। वे गौ सेवा के परम धर्म, कत्र्तव्य और आजीविका से वह निष्ठापूर्वक अपना कार्य संपादित कर उत्सव की ओर उन्मुख होते हैं इसलिए नाचने के पूर्व क्षमा याचना के स्वर में अपनी आजीविका अर्थात् गौ-माता से क्षमा मांगते है-
चार महीना चरायेंव खायेंव मही के मोहरा।
आइस मोर दिन देवारी, छोंड़व तोर निहोरा।।
यदुवंश का मूल व्यवसाय गाय और गोरस की समृद्धि को वे इन शब्दों में व्यक्त करते हैं-
बन मां गरजे नव-कुंजला, डिलवां मां गरते नाग हो।
कोठा मां गरजे, भूरी भैंसी, दुहना मां गोरस धार हो।
नृत्य के उन्मांद में वे अपने परिचित व्यवसाय संरक्षक ग्राहकों के निवास में जाकर नृत्य करते हैं। प्रतिफल में गृहस्वामी उन्हें वस्त्र अथवा मुद्रा भेंट करते हैं। राऊत नृत्य टोली भेंटवार्ता को प्रेमपूर्वक आशीर्वचन से अभिसिंचित करते हैं-
जइसे भइया लिए दिए, वइसे पावव असीस हो।
अन-धन ले घर भरय, जुग जीवौ लाख बरिस हो।।
धन गोधानी भुइयां पावौ, पाव हमर असीस हो।
नाती-पूत ले घर भर जावै, जीवौ लाख बरीस हो।
सुआ नृत्य गीत-
पइया परत हो चंदा सुरुज के हो सुवना,
तिरिया जनम झनि देव।
तिरिया जनम अति कलपना सुवना
तिरिया जनम झनि देव।
नारी की दयनीय करुणामय स्थिति का मार्मिक चित्रांकन सुआ-गीत है।
प्रणय और यौवन का संगीत करमा ददरिया- छत्तीसगढ़ी लोक गीतों में करमा और ददरिया यौवन और प्रणय का संगीत है। जब युवा मन के वीणा के तार जाने अनजाने सुा से झंकृत होते हैं तब मधुर वैभव से परिपूर्ण गीत और प्रेम से ओत-प्रोत प्राणों की रागिनी कर्मा और ददरिया के रुप में अभिव्यक्त होती है। करमा नृत्य गीत संगीत वन-वासियों के लोक उत्सव का श्रृंगार है। करमा में नर-नारी युगल होते हैं। नारियां आकर्षक श्रंृगार और वेशभूषा में पायल पहन कर और पुरुष मंादर बजाकर नृत्यलीन होते हैं। प्रेमिका अपने ग्रामीण हम जोलियों से प्रेमी-नायक को पुकार कर सकती है।
हाय रे हाय मन बोधना।
चले आबे हमर अंगना मन बोधना।
हां हां रे रतन बोइर तरी रे।
हेर देबे मैन हरी कांटा, रतन बोइर तरी रे।
ले लेबे छैलवा मोर रस बुंदिया।
हेर देहंव मैन हरि कांटा, रतन बोइर तरी रे।
बाँस गीत- बाँस गीत छत्तीसगढ़ी यदुवंशियों का प्रमुख लोकगीत है। इसका बाँस वाद्य यंत्र जो बंशी का लोक रुप है, दो-तीन हाथ लंबे बाँस से निर्मित होता है। बंशी का पुरुष स्वर बाँस-गीत की सबसे बड़ी विशेषता है। इस कला में एक गायक गीत गाता है, दूसरा सहायक होता है और तीसरा वादक होता है। प्रमुख गायक के साथ राग मिलाने वाला रागी होता है जो हुंकारी भरते हुए श्रोताओं का प्रतिनिधित्व करता है। इस लोकगीत में गाथाएं भी रहती हैं जिसके माध्यम से यदुवंशियों की वीरता, धीरता, पराक्रम, प्रणयोचित त्याग और उत्सर्ग का चरित्र जीवन संघर्ष के रुप में निखरता है। गायक पूर्वजों के अनुभव से प्राप्त ज्ञान राशि को अपने विवेक के अनुसार व्यक्त करता है, जिससे त्रुटि की संभावना बनी रहती है जिसे वह स्वीकारता भी है।
गीत गोविंद के भई मोर, मैं मरमे ल नई जानव हों।
गीत गवइया के भइया, मैं चोंगी सिपचैयाअं ना।
बांसे बजइया के संत्री, मैं चिलम देवइया हौं।
मैं गाये ला नइ जानव देवता, मैं बजाए ल नइ जानव ना।
मैं मति तो अनुसारे मईया, मैं बांसे गीत गावौं हो।
अऊ लिखबमं चूकै लिखनी हर भइया मेरा
अऊ बांचे मं बेद रे पुरान हो।
अजी मैं तो गावत हौं मुंह अखरा जंवरिहा मेरा,
मैं कलम धरेंव न कभू हाथ हो।
छत्तीसगढ़ी संस्कृति में लोक गीतों का विपुल भंडार है, यहाँ का प्रत्येक उत्सव लोक गीत रुपी रत्नों से सुसज्जित है।
साभार- रऊताही 2011 (द्वि.खं.)

यदुवंश के चक्रवर्ती सम्राट दुष्यंत

यादव वंश की उत्पत्ति आर्यावर्त के महाराज ययाति एवं शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी के पुत्र यदु से हुई थी। ब्रह्मा के दस मानस पुत्र माने गये हैं- अत्रि, भृगु, मरीचि, अंगीरा, पुलह, ऋतु, मनु, दक्ष, वशिष्ठ एवं पुलत्स। श्रेष्ठ महर्षि अत्रि एवं पतिव्रता अनुसूइया जी से चंद्रमा, चंद्रमा-तारा से बुध, बुध-ईला से पुरुरवा, पुरुरवा से आयु, आयु से नहुष, नहुष से ययाति तथा ययाति से प्रथम पत्नी से यदु एवं तुर्वषु, ययाति तथा उनकी दूसरी पत्नी शर्मिष्ठा से दुहायू, अनु-पुरु हुए। ये ही आगे चलकर यदुवंश के वंश कहलाए। ययाति भारत के प्रथम चक्रवर्ती सम्राट थे जिनके पांच पुत्रों में यदु ज्येष्ठ थे परंतु तर्क एवं बहस के पक्षधर यदु परंपरा एवं परिपाटी के विरोधी थे। अत: उन्हें सम्राट पद से वंचित होना पड़ा। यदु ने राजतंत्र छोड़कर गणतंत्र की स्थापना की उनके वंशज घुमक्कड़, साहसी, स्वाभिमानी एवं शक्ति सम्पन्न थे। अत: जहां भी गये जन समर्थन प्राप्तकर गण प्रमुख बने। यदु के पुत्र सहस्त्रजीत ने एक अलग वंश की स्थापना की। उस वंश में हैहय नाम से एक प्रतापी राजा हुए। इसी कारण उस वंश का नाम हैहय वंश पड़ा। 'महाभारत काल मेंÓ यादव गणराज्य चरम उत्कर्ष पर था। उस काल में राजा मधु (माधव), नल अभिजीत, पुनर्वसु, अहुक देवक, उग्रसेन (कंस) प्रतापी राजा हुए। इसी समय वसुदेव एवं नंदगण प्रधान थे। वसुदेव के पुत्र कृष्ण एवं बलराम हुए। अठारह अक्षोहनी नारायणी सेना उस काल की सर्वशक्तिमान सेना थी जिसके प्रमुख श्रीकृष्ण थे। विश्व के सबसे बड़े महाकाव्य 'महाभारतÓ की सभी घटनाएं श्री कृष्ण के चारों ओर घुमती हैं। वे ही भारतीय धर्म एवं संस्कृति के संस्थापक थे। गीता के उपदेश से यह बात सिद्ध होती है कि श्रीकृष्ण की विश्व के प्रथम दार्शनिक, राजनैतिक चिंतक, कूटनीतिक, सम्पूर्ण कलाओं में दक्ष, गणतंत्रीय नेता एवं प्रणेता थे। कृष्ण के समक्ष धीर, वीर ज्ञानी, विद्वान, योगी सम्राट, दुष्ट कुबुद्धि सब नतमस्तक हो जाते थे।
यादवों के गणराज्य चंद्रगुप्त मौर्य तक रहे। चाणक्य के प्रयासों से यदुवंशी राजा नंद का नाश हुआ। देश में शक, हूण, कुषाण के आक्रमण ने यादवी शक्ति को आघात पहुंचाया। यदुवंश के 500 वर्ष के इतिहास का अवलोकन करने के पश्चात यह कहा जा सकता है कि आर्य संस्कृति का आधार यादव संस्कृति है। यादवगण प्रमुखों एवं राजाओं ने साहित्य, कला, संस्कृति, शिल्प, धर्म, दर्शन के क्षेत्र में भारत को बहुत बड़ा योगदान दिया है। विश्व की व्यक्ति स्वतंत्रता एवं गणतंत्रीय व्यवस्था यादवों की ही देन है। यादव स्वतंत्रता प्रेमी, स्वाभिमानी, साहसी एवं शक्तिशाली कौम रही है। अत: रुढिय़ों, परम्पराओं का विरोध इनकी मूल प्रकृति रही है-
'हम वीर थे, हम वीर हैं, गणतंत्र जनक हम यदु संतान,
भारत के इस भारत की खातिर कर देंगे सर्वस्व बलिदान।Ó
आर्य संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। इतिहास वेत्ताओं का मत है कि यदुवंश के चक्रवर्ती सम्राट दुष्यंत के पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा और आर्य संस्कृति यहीं से भारतीय संस्कृति में परिणित हो गई-
'यादव तो राजा भरत है, भरत ले भारत देश
सतय सनेही सपूत के, यदु मन बर संदेशÓ
ऋग्वेद में जिन प्रमुखजनों एवं वंशों का उल्लेख पाया जाता है उनमें यदु के वंशजों का भी उल्लेख है। यदु वंश का इतिहास ऋग्वेद के आर्य प्रजातियों के क्षत्रिय 'एलवंशÓ से प्रारंभ होता है। प्रतिष्ठान (प्रयाग) के 'एलÓ क्षत्रियों का राज्य ब्रह्म देश से काबुल व काकेशियस पर्वत तक फैला था। यदुवंशी गणराज्यों पुरु, कुरु, हैहय एवं तुर्षषु सम्राटों ने तीन हजार वर्षों तक सम्पूर्ण भारत (आर्यावर्त) पर शासन किया।
अमेरिकी पुरातत्व विभाग की सुश्री जायक बिंक के अनुसार चांद पर पहला कदम रखने वाला मानव रुस का नील आर्मस्ट्रांग यादववंशी है। इतिहास में यादव समाज में अनेकों राजा महाराजा हुए हैं तो स्वतंत्रता के पश्चात भारत में अनेकों मुख्यमंत्री, राज्यपाल, मंत्री, सांसद, विधायक एवं अधिकारी हुए हैं। पूर्व राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी भी तो यादव थे। समूचे भारत में यादव जाति की करीब 300 उपजातियां बताई गई हंै। जिनमें 17 उपजातियां छत्तीसगढ़ में निवास करती हंै। ये हैं झेरिया, कोसरिया, फूलझरिया, ठेठवार, देसहा,गवली, भोरथिया, मगधा, गौली, ग्वाल, महकुल, गयार, मेनाव, दुधकौरा, बरगाह, अठोरिया और ढलहोर ये सभी मूलत: यादव हंै। गोपालन एवं दुग्धोत्पादन से जीविकोपार्जन इनकी मुख्य जाति वृत्ति है। गोपालन यादव जाति की ही पहचान है। यादव संस्कृति का अभ्युदय चरवाहा युग से मानना चाहिए। जाति व्यवस्था के अंतर्गत 'यादवÓ नामकरण आर्य सभ्यता के विकास क्रम में हुआ ऐसा माना जाता है।
इस समाज के सूत्रों का मानना है कि छत्तीसगढ़ में जनसंख्या के आधार पर यादव तीसरे स्थान पर हैं परंतु फिर भी पिछड़े हैं क्योंकि ये असंगठित हैं। राजनैतिक चेतना, शिक्षा, व्यवसायों में रुचि का अभाव है। नशावृत्ति की परम्परा है। यादवों की तीनों शाखाओं में तुलनात्मक रुप से ठेठवारों की आर्थिक, शैक्षिक एवं राजनैतिक स्थिति मजबूत है। ये श्रीकृष्ण की पूजा करते हैं। जन्माष्टमी पर्व धूमधाम से मनाते हैं। शक्ति की पूजा करने के कारण इन्हें 'शक्तहाÓ कहा जाता है। गोवर्धन पूजा और मातर भी ये धूमधाम से मनाते हैं। बालोद, खल्लारी एवं भाटापारा में इनके सामाजिक भवन हैं जबकि राजिम, दुर्ग एवं खल्लारी में मंदिर हंै। छत्तीसगढ़ राज्य ठेठवार यादव समाज नामक केन्द्रीय संगठन (पं.क्र. 18033) की 36 राज्य इकाईयां हैं। इनमें गोत्रों की संख्या 150 है। ये प्राय: यादव, यदु, ठेठवार, उपनामों से उपयोग करते हैं। इनका खान-पान मिश्रित है। इनमें दहेज की समस्या नहीं है। सामूहिक विवाह हेतु प्रयास जारी है। मृतक संस्कार के अंतर्गत दशगात्र होता है। अंतर्जातीय विवाह को ये प्रश्रय नहीं देते हैं।
छत्तीसगढ़ में यादव जाति के अभ्युदय के विषय में तीन अनुमान लगाये जाते हैं-
1. छत्तीसगढ़ के मूल निवासी अनार्यों के गोपालक वर्ग को आर्यों ने यादव जाति के रुप में स्वीकार किया।
2. कलचुरी नरेशों के साथ राजवंश के रूप में यादव छत्तीसगढ़ आये।
3. आर्यों के रुप में यादव वैदिक सभ्यता के उत्तरार्ध में छत्तीसगढ़ आये।
तीनों मान्यताओं का इतिहास के साथ परीक्षण करने पर हम यह पाते हैं कि वैदिक सभ्यता के आरंभिक काल में आर्य और अनार्य दो जातियां थी। पश्चात चातुर्वण्र्य व्यवस्था का सूत्रपात हुआ। आर्यों को विप्र, क्षत्रिय, वैश्य तीन वर्गों में विभाजित किया गया तथा अनार्यों को शूद्र वर्ण के अंतर्गत रखा गया जिनका सामाजिक दायित्व आर्य के तीन वर्णों की सेवा करना था। इन्हें अस्पृश्य माना जाता था। आर्य मान्यता के अनुसार यादव जाति के लिए अस्पृश्यता का प्रतिबंध कभी नहीं रहा है। आर्य साहित्य में इस जाति का श्रेष्ठ स्थान है। (पहली मान्यता ध्वस्त हो गई) सन् 890 ई. में त्रिपुरी हैहयवंशी (यादव) कलचुरी नरेशों का शासन छत्तीसगढ़ में स्थापित हुआ जो सन् 1857 ई. तक रहा। परंतु ऐसा माना जाता है कि यादव सम्राटों का इतिहास ईसा से पांचवी शताब्दी तक रहा है। अत: द्वितीय मान्यता भी अयुक्ति युक्त सिद्ध  हो गया। अत: तीसरा तर्क ही प्रबलतम प्रतीत होता है कि आर्यों के रुप में यादव वैदिक सभ्यता के उत्तरार्ध में छत्तीसगढ़ आये। वर्तमान छत्तीसगढ़ में यादवों की प्रमुख तीन शाखाएं ठेठवार (कन्नौजिया) झेरिया एवं कोसरिया ही बहुलता से निवास करती हैं। छत्तीसगढ़ की आबादी में इन सभी का संयुक्त रूप से हिस्सा करीब 11 प्रतिशत
अनुमानित है।
ठेठवार- कोसे का साफा, चटक रंग का कुर्ता, ऊपर चढ़ी धोती, चमराही जूते, बलिष्ठ हाथों में काला मोटा, लट्ठ, कलाइयों में चांदी के चूड़े, सुगठित देहयष्टि, रोबीली मंूछे अपने इस पारंपरिक स्वरूप में ठेठवार दूर से ही पहचाना जा सकता है। उत्तरप्रदेश के कन्नौज से आए कन्नौजिया यादवों को छत्तीसगढ़ में ठेठवार कहा जाता है जो अपनी युद्धप्रियता  और स्वाभिमान के लिए जनमानस में प्रतिष्ठित हैं। गोपालन एवं दुग्धोत्पादन के वंशानुगत व्यवसाय में रत ठेठवारों को अन्यों की गोचरण सेवा, पानी भरना, चौका-बर्तन करना, बकरी या मुर्गी पालन, होटल रखना सहित दूध के विक्रय की भी जातीय स्वीकृति नहीं है। ठेठवार स्वयं को अन्य यादवों से श्रेष्ठ एवं कुलीन मानते हैं। ये रायपुर  एवं रतनपुर में केन्द्रित पर सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ में फैले हैं। अपने व्यवसाय पर इनकी पकड़ संतोषप्रद है परंतु भविष्य में और उन्नति के लिए ये शासन से मांग करते हैं कि मछुआरों एवं बंसोड़ों की भांति सबसिडी, पशुओं के लिए चारा एवं चारागाह तथा शासकीय दुग्ध महासंघों की नौकरी में आरक्षण आदि की व्यवस्था की जाए।
झेरिया- इस शाखा के यादव लोग मुख्यत: रायपुर, दुर्ग एवं बिलासपुर जिलों में रहते हैं। झेरिया यादव समाज कल्याण समिति नामक संगठन की छत्तीसगढ़ जिला तहसील एवं ब्लाक स्तर पर इकाईयां हैं। इनका मुख्यालय रायपुर है। जिला स्तर पर महिला संगठन है पर पृथक युवा संगठन नहीं है। इनका पैतृक व्यवसाय गोपालन, दूध बेचना एवं घरेलू कार्य करना है। दूसरों के द्वारा यह व्यवसाय अपनाने के कारण इस व्यवसाय में झेरिया यादवों की पकड़ कमजोर हो गई है। इनके भी ईष्टदेव श्री कृष्ण हैं जिनकी जन्माष्टमी ये धूमधाम से मनाते हैं। इसके अतिरिक्त ये दीपावली पर्व पर सांहड़ा देव की भी पूजा करते हैं। इस वर्ग की आर्थिक एवं शैक्षणिक स्थिति शहरी क्षेत्रों में तो अच्छी है पर ग्रामीण क्षेत्रों में कमजोर है। राजनैतिक स्थिति शून्य है। इनके  सामाजिक भवन  कहीं नहीं है। इनक गोत्रों की संख्या 12 है चौधरी, दूधनाग, भैंस, रावत, कटवाल, ग्वाल आदि ये यादव उपनाम का उपयोग करते हैं। शुद्ध शाकाहारी इस जाति में दहेज नहीं है तथा सामूहिक विवाह जैसे आयोजनों का प्रयास नहीं हुआ है। ये अंतर्जातीय विवाह को मान्यता नहीं देते है। मृत संस्कार के अंतर्गत दशगात्र एवं तेरहवीं होता है।
3. कोसरिया - कौशल प्रदेश से आए कोसरिया यादव बंधुओं का मुख्य संगठन अखिल भारतीय यादव महासभा है, जिसकी जिला नगर एवं तहसील स्तरीय शाखाएं कार्यरत है। दुर्ग, राजनांदगांव जिले में संगठन 1970 में स्थापित हुआ जिसमें स्व. झुमुक लाल राउत का अविस्मरणीय योगदान रहा है। इस शाखा के यादवों का पैतृक व्यवसाय स्वयं अपना अथवा अन्य किसी के पशुओं की सेवा करना (चरवाहा) एवं दुग्ध व्यवसाय है। परन्तु अन्यों द्वारा यह व्यवसाय अपनाने तथा शासकीय दुग्ध संयंत्रों की स्थापना हो जाने से यादवों की आर्थिक स्थिति प्रभावित हुई है। ग्रामीण परिवेश में  'पौनी-पसारीÓ के अंतर्गत आने वाले चार जातियों राउत-नाई-धोबी, लोहार में केवल राउत जाति ने ही अपनी उपस्थिति कायम रखी है परंतु उनका शोषण किया जाता है। उन्हें न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती है इसके निराकरण के लिए आवश्यक है कि शासन चरवाहा मजदूरी तय करे। इस शाखा के लोगों की आर्थिक एवं शैक्षणिक स्थिति कमजोर है। राजनैतिक स्थिति संतोषप्रद कही जा सकती है।
गोवर्धन पूजा (दीवाली) के बाद 15 दिनों तक अंचल में राउत नाचा की धूम मचाने वाले कोसरिया यादव बंधु सांहड़ा देव की पेजा करते हंै। श्रीकृष्ण सभी यादवों के आराध्य हैं।  'राउत नाचाÓ के संबंध में मान्यता है कि कर्मयोगी श्री कृष्ण ने  'इन्द्रपूजाÓ प्रणयन किया था। उक्त पूजा के अवसर पर श्री कृष्ण एवं उनके गोप शाखाओं ने हर्षोल्लास के आवेश में नृत्य किया था। उसी का अनुपालन करते हुए संपूर्ण भारत में गोवर्धन पूजा एवं यादवी नृत्य की परम्परा विद्यमान है।
बिलासपुर में विगत 19 वर्षों से अनवरत देव उठनी एकादशी के दिन राउत नाचा महोत्सव का आयोजन होता आ रहा है जो अपनी भव्यता एवं अनुपम छठा के कारण राष्ट्रीय ख्याति अर्जित कर चुका है।
कोसरिया यादवों के सामाजिक भवन में मंदिर हर जिले में एवं ब्लाक में है। इनमें गोत्रों की संख्या 100-125 है। ये यादव, यदु, यदुवंशी, राउत, गोपाल, अहीर आदि उपनामों का प्रयोग करते है।
शाकाहारी इस वर्ग में दहेज प्रथा नहीं है तथा अंतर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन नहीं दिया जाता है। मूल-भटक जाने की स्थिति में विजातीय बहु को घर में होने वाले सामाजिक कार्यों में सम्मिलित नहीं करते हैं। इसे लौड़ी दाखिल कहते हैं सभी वर्गों में वैवाहिक संबंध स्थापित करने की छूट है मृत संस्कार ऐच्छिक रूप से 3 से 10 दिनों में होता है।
संगठन की शक्ति को मानते हुए वर्ष 1990 में सर्व छत्तीसगढ़ यादव समाज का गठन किया गया है जो सभी यादवों के आर्थिक, शैक्षिक, सामाजिक एवं राजनैतिक विकास में सहायक सिद्ध होगा।
साभार-2005

लोकपर्व - छत्तीसगढ़ के संदर्भ में

वैदिक संस्कृत के 'आलुअÓ शब्द से 'लोकÓ की व्युत्पत्ति हुई है। 'आलुअÓ अर्थात प्रकाश या आलोक। आलोकित होने से जिस अस्तित्व का भान हुआ वह भानसृष्ट पदार्थ 'लोकÓ कहलाया। जो प्रकारान्तर में सृष्टि के पर्याय के रूप में व्यवहृत होते हुए उसकी सर्वश्रेष्ठ रचना मानव के लिए व्यवहृत हुआ। आज सामान्य अर्थों में 'लोकÓ का आशय जन समुदाय या समाज अथवा किसी विशिष्ट जाति, सम्प्रदाय से है जिसके कार्य व्यापारों से, व्यवहारों से एवं जीवन जीने की विभिन्न तरीकों से लोक रीति का जन्म होता है। यह बाद में अनेक रूपों में नाम धारित होकर अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करता हुआ परिमार्जित होकर परम्परा/संस्कृति का स्वरूप धारण करती है।
'लोकÓ समाज यथार्थता का पर्याय है। देश और सामाजिक परिवर्तन एक-दूसरे के अन्योन्याश्रित हैं। लोक का स्वभाव चुनौतियों का सामना करना है। लोक संस्कृति प्रवाहमान है जिसमें देश का कालानुरूप विषयों का सम्मिलन होता रहता है। इस प्रकार अनेक रूपों में प्रचलित लोकरीति का दायरा विस्तृत होते रहता है जो जीवन के समस्त क्षेत्रों की विशिष्ट पहचान कराता है और लोककला, लोकसंगीत, सामाजिक एवं पारिवारिक प्रथाओं, सामाजिक मान्यताओं के रूप में विकसित होकर उस समाज को अपनी विशिष्ट पहचान देता है। इसी संदर्भ में हम जब अपने छत्तीसगढ़ के भौगोलिक सीमाओं के अंतर्गत दृष्टि डालते हैं तो यहाँ के विभिन्न सामाजिक स्वरूपों की झलक विविध रूपों में मिलती है जो अपनी सामाजिक पहचान के साथ-साथ माटी की पहचान को भी सम्पूर्ण मानव समाज के बीच प्रदर्शित करने में सफल भूमिका निभाते हैं। आइये अब छत्तीसगढ़ के लोक जीवन कुछ खास परम्पराओं पर विहंगम दृष्टि डालें, जो अपने क्षेत्र में व्यापक प्रभाव छोड़ते हैं। जैसे रावत नाचा, करमा आदि। इनके अलावा छोटी-छोटी प्रथाएँ, मान्यताएँ भी हैं जो किसी छोटे से क्षेत्र में या समाज की किसी विशिष्ट कुल परम्परा में था। छत्तीसगढ़ की जनजातियों के किसी विशिष्ट वर्ग की 'धरोहरÓ के रूप में यथा-सरहुला (उरांव जनजाति में) गौरा पूजन (कंवर जनजाति में), बूढ़ादेव पूजन (गोंड़ जनजाति) तथा अन्य अनेक कुलदेव-देवियों की पूजा, विशिष्ट अवसरों पर करना।
छत्तीसगढ़ में अन्य दो विशिष्ट सामाजिक एवं सांस्कृतिक परम्पराओं का भी व्यापक प्रचार-प्रसार के साथ लोक जीवन को प्रभावित करने के कारक का अस्तित्व भी दृष्टिगोचर होता है। यद्यपि यह उन आदिम परम्पराओं का भाग नहीं है तथापि परिमार्जित स्वरूप को लोक-जीवन में विलय होकर लोक परम्पराओं का स्वरूप धारण कर लिया है। इसमें गुरु घासीदास द्वारा स्थापित 'सतनाम पंथÓ एवं धर्मदास द्वारा प्रचारित 'कबीर पंथÓ का प्रभाव लोक जीवन में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक है कि लोकरुचि, सांस्कृतिक संक्रमण, वैचारिक आदान-प्रदान एवं व्यापक लोक-मानस की गतिविधियों से सामान्य सी लोक परमपरा भी अपनी अहमियत के कारण व्यापक क्षेत्र में प्रचलित होकर सांस्कृतिक अथवा धार्मिक परम्परा में बदल जाती है। इसी प्रकार कभी-कभी परिमार्जित सांस्कृतिक अथवा धार्मिक परम्परा कालचक्र में पड़कर अपना व्यापक अस्तित्व होकर मात्र लोकपरम्परा के रूप में सिमटकर रह जाती है। इसमें एक अन्य तथ्य यह भी है कि कभी-कभी लोकमानस पुष्ट और परिमार्जित परम्पराओं को अपनी समझ और सुविधाओं के अनुसार पालन करना पड़ता है। ऐसा करने पर उसके अपने मौलिक विचार इतने प्रभावी हो जाते हैं कि वह परम्परा अथवा रीति पूर्णतया लोक परम्परा का स्वरूप धारण कर लेती है इसके विविध उदाहरण लोकजीवन में देखने को मिलते हैं जैसे (1) अपने तरीके से होली माना। होली में देवी-देवताओं की पूजा आम, महुआ आदि फलों का समर्पित करना एवं सुख समृद्धि की कामना करना तथा नए वर्ष (चैत्र माह) का स्वागत करना। इस समय प्रहलाद हिरणयकश्यप एवं होलिका से संबंधित मूल कारण पर लोक के उस हिस्से में उनके मौलिक विचार जो लोक-व्यवहार से उत्पन्न हैं, हावी ही नहीं होते वरन् स्थापित हो जाते हैं जिन्हें हम 'लोक पर्वÓ का नाम देते है। 'लोक पर्वÓ लोक परम्पराओं की सूक्ष्म अनुभूति है। (2) जापान के पूर्व प्रचलित सिन्टोमत के अंतर्गत 'नववर्षÓ मनाने की परंपरा थी जो व्यापक बौद्ध परम्परा में वहाँ सम्मिलित हो गयी है। (3) असम में 'बिहूÓ यह आदिवासी परम्परा है। नई फसल उत्पादन की खुशी में मनाया जाने वाले 'रंगाली बिहूÓ को आज पूर्वोत्तर क्षेत्र के जातीय पर्व के रूप में स्वीकृति मिल चुकी है इसे सभी धर्मावलम्बी मिलकर मनाते है। (4) तमिलनाडु एवं केरल में भी पोंगल, ओणम इत्यादि पर्व परिमार्जित धर्म परम्पराओं की सीमाओं का अतिक्रमण कर व्यापक अर्थ ग्रहण कर चुके हैं। ऐसा क्यों होता है ? यह इतिहास की व्यापक समीक्षा का विषय है। भारत जैसे बहुआयामी सांस्कृतिक एवं धार्मिक पृष्ठभूमि वाले देश में इस तथ्य को परिभाषित करना और भी कठिन है। इसी तारतम्य में 36 गढ़ का पूर्वांचल क्षेत्र जो जशपुर से बस्तर तक फैला हुआ है एवं भाषायी दृष्टि से सम्बलपुरी और लारिया क्षेत्र कहलाता है, उड़ीसा प्रांत में प्रचलित लोक परम्पराओं का पालन करता हुआ 36गढ़ी समाज को भी अपने प्रभाव से अछूता नहीं छोड़ता। उदाहरण स्वरूप नवाखाई, रथयात्रा, अगहन माह में प्रत्येक गुरुवार को लक्ष्मीपूजा की परम्परा तथा एकादशी व्रत आदि हैं। इस लोक जीवन के व्यापक प्रभाव को देखते हुए समस्त परम्पराओं, पर्वों का व्यापक विवेचन संभव नहीं है किन्तु कुछ विशिष्ट लोकपर्वों को इंगित कर उनके संदर्भित परिपे्रक्ष्यों पर विवेचन करना हमारे विचार से समीचीन होगा। इसलिए हम चैत्र से फाल्गुन तक मनाए जाने वाले लोक पर्व का उल्लेख करते हैं एवं ऋतु अनुसार उनके पालन करने के लिए दिनों, तिथियों, पक्षों और महिनों का निर्धारण भी किया गया है। कुछ अवलोकनार्थ प्रस्तुत है-
चैत्र नवरात्रि- शु.प.1 प्रतिपदा से नवमीं तक शक्ति की पूजा दुर्गा देवी की पूजा, रास डांडिया का आयोजन, भजन कीर्तन, जंवारा, भोजली-रोपण, नव कुँआरी कन्याओं को भोजन कराना। सामाजिक कुरुीतियों को दूर करना, मातृ सत्ता (शक्ति) को स्वीकारना, भाई चारा, मेल-मिलाप एवं सहयोग। रामनवमीं- शु.प. 9 को मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम का जन्मोत्सव श्री राम जन्मोत्सव, झांकी, पूजा, अर्चना, विवाह आदि के लिए निर्विध्न तिथि ईश्वर की सत्ता पर विश्वास, निर्विघ्न मांगलिक कार्य समाज में प्रसन्नता।
बैसाख- अक्ति (अक्षय तृतीया)(एक तिजिया)- शु.प. 3 पूर्वजों की स्मृति नव कृषि यंत्र की तैयारी, देवपूजन, पितर पूजन (तर्पण) पुतरा-पुतरी विवाह आदि, सामाजिक संबंधों एवं व्यवहारों का संदेश।
जेठ- वटसावित्री जेठ अमावस्या के दिन- शिव-पार्वती पूजा - महिलाओं का व्रत/पूजन अर्चना मनोकामना कर वृट वृक्ष पर जुड़ी छाया बांधना- महिलाओं में निष्ठा, विश्वास एवं सामाजिक सौहार्द का जागरण, रजस्थला संक्रांति- 14-15 जून लगभग प्रकृति का नारी से सामंजस्य प्रकृति (धरती माता) को नए शस्योत्पादन हेतु रजस्थला मानकर मिट्टी में खनन संबंधी कार्यों की मनाही, प्रकृति वंदना- नारी का सम्मान, प्रकृति का मातृ (नारी) रूप में सम्मान, पर्यावरण, पर्यावरण की रक्षा।।
आषाढ़- रथयात्रा शु.प. 2 को भगवान श्रीकृष्ण बलराम एवं बहन सुभद्रा की स्मृति में पूजा अर्चना, झांकी निकालना, रथ यात्रा (तीनों भाई बहनों का मौसी के घर जाना) सामाजिक मूल्यों की स्थापना, धार्मिक परंपराओं से समाज सुधार एवं मंगल आपसी भाईचारा का वातावरण निर्माण। दशंई- शु.प. 10 को तीनों विभूतियों की घर वापसी, गुडिया घर (मौसी घर) से अपने मंदिर में वापसी।
सावन- हरेली कृ.प. अमावस्या को- हरी-भरी फसल, कृषि औजारों की पूजा- देवी-देवता, हल औजारों की पूजा, द्वार पर नीम की पत्तियां खोंचना, दीवारों पर आकृति एवं पूजा। गाय बैलों को जड़ी बूटी एवं आटे की लौंदी खिलाना। बैगों द्वारा ग्राम देवों की पूजा। गेंड़ी पर बच्चों का चलना- सम्पन्नता हेतु पूजा पाठ, स्वास्थ्य, सजकता, चित्रकला, बरसाती रोगों से बचाव,  सम्पन्न ग्राम की आकांक्षा।
नागपंचमी- शु.प. 5 नागदेव की पूजा- धरती को वासुकी मस्तक पर उठाए जाने की भावना से कृतज्ञता स्वरूप नागदेव की पूजा, कुश्ती दंगलों का आयोजन, उल्लास- आस्थावादी एवं आशावादी समाज निर्माण, स्वास्थ्य एवं आहार विहार की सजकता।
भोजली- शु.प. 5 से 9 तक मित्रता सौहाद्र्र सम्मान- नागपंचमी से प्रारंभ कर तिथि। जंवारा खुशी 9 दिन तक भोजली रोपण। गंगा स्तुति (भोजली गान) नवाखाई के दिन विसर्जन। उल्लास का वातावरण। मित्रता हमउम्रों में सहयोग का मान-सम्मान फसल होने की खुशी-अटूट पारिवारिक एवं सामाजिक।
राखी- पूर्णिमा को भाई-बहन का रिश्ता एक तरफ राखी के कच्चे धागों को भाई-बहनों की कलाई पर बांधकर अटूट रिश्ते की कायम करती है तो दूसरी तरफ भाई भी उपहार आदि देकर रक्षा का वचन देता है, उल्लास संबंधों की स्थापना मेल, जोल, सामाजिक संबंधों का ज्ञान एवं मान।
भादो-कमरछठ (हल षष्ठी)- कृ.प. 6 माताओं का त्याग पुत्र के सुखी जीवन की कामना- माताएँ पुत्रों के सुखी जीवन एवं दीर्घायु होने की कामना करती हैं। व्रत उपवास करती। इस दिन वे पसहर चांवल भैंस के दूध-दही व घी लाई, महुआ, छ: प्रकार की स्वयं उत्पन्न होने वाली भाजी का फलाहार करती है।
कन्हैया आठे (श्रीकृष्ण जन्माष्टमी) कृ.प. 8 (भगवान श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव) कृष्णलीला का आयोजन, उपवास, झांकी, मटका फोड़, दूध-दही, लूट आदि का आयोजन -सामाजिक प्रसन्नता, प्रफुल्लता कृष्ण की लीलाओं के माध्यम से सामाजिक सौहाद्र्र की जानकारी।
पोरा (पोला)- अमावस्या को- नंदी की स्मृति में बैलों की पूजा - आनंद का वातावरण, नंदी मानकर (मिट्टी या) धातु/पोरा (मिट्टी के बर्तन) से लड़कियों का खेलना। लड़कों का (मिट्टी या धातु) के बैलों से खेलना, मवेशियों की पूजा एवं सेवा।
तीजा (हरितालिका) शु.प. (पति की मंगल कामना एवं पुत्री के पितृगृह पर अधिकार) पिता या भाई अपनी पुत्री या बहन को घर लाकर नए वस्त्रादि देता है। वे पति की मंगल कामना करती हंै, निर्जला उपवास रखती हैं। कन्या के माता पिता के घर पर अधिकार व सम्मान का प्रतीक है यह पर्व।
गणेश चतुर्थी - शु.प. 4 भगवान गणेश जी का अग्रदेवता केि रूप में पूजन- यह पर्व चौथी तिथि से चर्तुदशी तक चलता है। गणेश प्रतिमाओं की स्थापना। पूजा, अर्चना, झांकी एवं मेला आदि। रायगढ़ का गणेश मेला प्रसिद्ध है। विश्व शांति सामाजिक समानता भाई-चारा व श्रद्धा भक्ति भाव जागरण।
कुंवार पितृ पक्ष  (पितर पूजन) कृ.प. 1 से 15 तक मृत पितरों की स्मृति (श्रद्धांजलि) यह पूरे पक्ष भर का पर्व है। माना जाता है कि मृत पितर अपने परिवारजनों से मिलने आते हैं। उनका पुण्य स्मरण कर पूजा अर्चना व श्राद्ध तर्पण किया जाता है। हवन में भोजन सामग्री डालते हैं। पूर्वजों का स्मरण स्वच्छता एवं वातावरण की शुद्धि।
शारदीय नवरात्रि - शु.प. 1 से 10 तक शक्ति पूजा, भगवान राम का पुण्य स्मरण- चैत्र नवरात्रि की तरह मनाया जाता है। जंवारा बोते हैं (भोजली रोपते हैं) झांकी निकलती है, रामलीला दशमी के दिन रावण कुम्भकर्णी पुतलों का दहन। शक्ति पर आस्था, अन्याय, असत्य, अनीति पर न्याय-सत्य व नीति की विजय, सामाजिक सौहाद्र्र।
शरद पूर्णिमा-पूर्णिमा के दिन- प्राकृतिक निर्मलता एवं समृद्धि - लहलहाती फसल का आनंद, प्रकृति की निर्मल छटा का आनंद। मेला पूजा पाठ आदि। खीर बनाकर खाना, माना जाता है कि इस दिन रात्रि को अमृतवर्षा होती है। करमागढ़ (रायगढ़) का बारल (बलि) मेल तासीर का मेला प्रसिद्ध है। नृत्यगान, पूजा पाठ के प्रति प्रवृत्ति, प्रकृति को उदारता एवं निर्मलता का भान
कार्तिक-देवारी (दीपावली) कृ.प. अमावस्या को- धन की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी जी की पूजा- दीपमालिका जलाना। लक्ष्मी पूजन पाँच दिनों का पर्व। धनतेरस, नरक चौदस, दीपावली, गोवर्धन पूजा एवं भाई दूज (मातर), 36गढ़ के प्रमुख लोकनृत्य रावत नाचा का प्रारंभ- अन्ना का सम्मान, आस्था उजाले की ओर प्रवृत्ति भाई चारा एवं सामाजिक सौहाद्र्र।
आंवला पूजन- शु.प. 9 वृक्ष पूजा- पूर्वांचल में ख्यात पर्व। वृक्ष पूजा, आँवला वृक्ष के नीचे भोजन बनाकर ग्रहण करना। पूजा-पाठ, दान। यह चतुर्दशी के दिन भी मनाया जाता है। शुद्ध मनोविचार जागृत होता है। आपसी सौहाद्र्र
पनपता है।
कार्तिक एकादशी (देवउठनी या देव प्रबोधनी एकादशी)- शु.प. 11 एकादशी व्रत- एकादशी व्रत/पूजा पाठ / दान दक्षिणा, कथा श्रवण, भजन कीर्तन गन्ना की पूजा, पकी फसल को देाकर प्रसन्नता को प्रकट किया जाता है। शुद्ध मनोविचार जागृत होता है, आपसी सौहाद्र्र पनपता है।
गुरु पर्व (गुरु पूर्णिमा) पूर्णिमा के दिन प्रकाश पर्व- स्नानदान, दीपदान, पूजन अर्चन भजन कीर्तन- आपसी सौहाद्र्र पनपता है।
अगहन- लक्ष्मी पूजन- प्रत्येक गुरुवार को - धन धान्य अन्न की देवी लक्ष्मी जी की पूजा- दीपावली की तरह लक्ष्मी जी की पूजा रंगोली से घर द्वार सजाये जाते हैं। जगह-जगह इसी माह में मड़ई (रावत) मेला लगता है। बिलासपुर का मड़ई (रावतनाचा) विख्यात है। सामाजिक मूल्यों की स्थापना, आपसी भाईचारा एवं सामाजिक सौहाद्र्र।
पूस-मकर सक्रांति- पूस माघ माह (14 जनवरी को) सूर्यदेव की पूजा/संक्रांति का महत्व, नई फसल का घर में आना- स्नानदान/ पूजा अर्चना। इस दिन से सूर्य दक्षिणायण से उत्तरायण होता है। खेत-खलिहान से अन्न घरों में आ जाता है जिसकी खुशी व्यक्त की जाती है। अन्न के दान को महादान कहते हैं। इस दिन धान का दान दिया जाता है। अति उल्लास का वातावरण रहता है। भूमण्डलीय परिवर्तन से परिचय, दान- लेने देने की महत्ता का परिचय, मेल-मिलाप, सामाजिक समरसता।
माघ- माघ पूर्णिमा मेला माघ पूर्णिमाको नदी नालों की महत्ता को स्वीकारना - संगमों पर पुण्य स्नान किया जाता है। पूजा अर्चना की जाती है। दान दिया जाता है। राजिम, सिरपुर, शिवरीनारायण, सोमनाथ एवं चंद्रपुर आदि स्थानों पर मेला लगता है। अपार भीड़ होती है। इस दिन पुरी का भोग शिवरीनारायण में चढ़ता है। नदी नालों के प्रति श्रद्धा भाव, प्रकृति की पूजा, शुद्ध मन एवं सौहाद्रर्द।
फागुन- महाशिवरात्रि- तिथि अनुसार- महादेव शंकर जी का पुण्य स्मरण- माघ मेला की ही तरह स्नान, पूजन अर्चन दान दक्षिणा एवं रात्रि जागरण कर श्रवण कीर्तन आदि- खुशी एवं संपन्न समाज की कामना जागृत होना, मेल-मिलाप सौहाद्र्र।
होरी (होली)- पूर्णिमा को देवीदेवताओं की पूजा एवं फलादि का सेवन -यह त्यौहार रंगों का है। आपसी मतभेद ऊंच नीच को भुलाकर सब सहर्ष नाचते गाते हैं। देवी-देवताओं की पूजा आम महुआ आदि फलों से होती है। फलों का सेवन भी उस दिन से प्रारंभ करते हैं। यह पर्व रंग पंचमी तक चलता है- अन्याय पर न्याय की विजय, आपसी भाईचारा, प्रेम और सौहाद्र्र पनपता है।
साभार- रऊताही 2004

छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति रावत नाच एवं संस्कृति

छत्तीसगढ़ का रावत नाच अपनी बहुरंगी नृत्य छटा एवं नयनाभिराम छवि की वजह से छत्तीसगढ़ में नहीं अपितु देश भर में अपनी अलग पहचान बनाई है। यह महज पर्व ही नहीं अपितु जीवन की प्रमाणिक अभिव्यक्ति है जो वर्ष भर सपुत्र के रुप में बंधी रहती है और वर्षांत में अपने सामूहिक उल्लास का प्रकटीकरण गली-गली, घर-घर और बाजार के चौपालों में देख पाते हैं।
आज की उपभोक्तावादी संस्कृति में जहां टीवी प्रिंट मीडिया व सायबर युग में सिमटकर लोक संस्कृति अपनी अस्मिता व अस्तित्व के लिए संघर्षरत है वहीं अनेक लोक परम्पराएं अपने जीवंतरूप में आज भी विद्यमान हैं। वहीं लोकनृत्य में पंडवानी, गम्मत व राउत नाचा जीवन में नया प्राण फूंक रहा जिनमें रावत नाच, शौर्य और संस्कृति को अपने में समेट कलात्मकता का परिचय दे रहा है।
सिर में धोती का पागा उसमें लगा मोर पंख की कलगी मुंह में पीली मिट्टी, आंखों में काजल, गाल में डिठौनी माथे पर चंदन का टीका और कपड़े के रंगीन जूते मोजे बंधी गोटिस और घुंघरु घुटने के ऊपर तक कसा हुआ चोलना व उस पर फुंंदरी कमीज की जगह पूरे आस्तीन का रंगीन सलमा सितार युक्त आस्किट जिसके ऊपर कौडिय़ों से बनी पेटी एवं बाहों में कौडिय़ां बंांधे, तेंदू की लाठी एक हाथ में दूसरे हाथ में सुरक्षा रूपी लोहे या तांबे की फरी जब रावत चलता है तो ऐसा लगता है मानो युद्ध के लिए श्रीकृष्ण की सेना रथ पर चल पड़ी हो। उनके थिरकते पांव से सारा जहां रूक जाता है। वे नृत्य में अपनी लाठी द्वारा शौर्य प्रदर्शन करते हैं और अपने आंगन में देवउठनी एकादशी के दिन से दस्तक देते है।
राउत नाचा की उत्पत्ति का कोई निश्चित प्रमाण उपलब्ध है लेकिन पौराणिक गाथाओं के आधार पर जो धारणा प्रचलित है उसके अनुसार कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन श्री कृष्ण ने कंस के अत्याचार से पीडि़त जनता को मुक्ति दिलाई तब से यदुवंशियों ने मुक्ति का पर्व मनाते हुए उत्सव का आयोजन किया। सम्भवत: तभी से रावत नाच का शुरुआत हुआ।
श्रीमदभागवत कथा के अनुसार श्रीकृष्ण ने यमुना के तट पर बालुका लिंग की स्थापना के अवसर पर यदुवंशियों ने 7 दिन तक नृत्य किया, रावत नाच उद्भव के मूल में पुराण सम्मत यह घटना ही सर्वमान्य हैं रावत नाच अपने प्रारंभिक रूप से अब  तक जीवित है परंतु आधुनिक सभ्यता के प्रभाव से अछूता नहीं है। गांव में जब गोवर्धन पूजा मनाते है उसी दिन रावत नाचा पर्व की शुरुआत होती है। इस अवसर पर सभी ग्रामवासी गोवर्धन पर्वत गाय बछड़े एवं रावत रौताइन की मूर्ति पवित्र गोबर से बनाकर उसमें सिलयारी घास गेंदाफूल व धान से सजाते संवारते हैं और पूजा अर्चना करते है जिस बात का प्रतीक श्रीकृष्ण ने नेतृत्व में अन्यायी शासक घमण्डी इन्द्र का विद्रोह कर पहाड़ मैदान व चारागाह की पूजा की अपनी इसी पशुधन पर्वत व चारागाह के लिए यादव ने इन्द्र व क्रूर शासक कंस से युद्ध किया। यह युद्ध किन्हीं दो शासकों के मध्य न होकर अन्यायी शासक के खिलाफ (विरुद्ध) सामाजिक युद्ध था जो कि शोषण व अत्याचार के विरुद्ध था।
यादव ही संघर्ष गाथा अनुत्पादक तथ्य और सामाजिक श्रम की उपयोगिता से जुड़ी है। यह संघर्ष किसी एक विशेष जाति का नहीं अपितु सभी वर्गों की मुक्ति के लिए था।
आज यह नाच छत्तीसगढ़ की संस्कृति का अभिन्न अंग है। जब भी कभी रावत नाच हमारे गली मुहल्ले से गुजरता है तब उनकी पारम्परिक वेशभूषा जो कि सिर से पैर तक आकर्षित नैनाभिराम वस्त्र धारण किये गुरदुम बाजा के  थाप पर उनके पैर थिरकते व एक लय में ऊपर उठते हैं। जिनके हाथों में ढाल सुरक्षा रूपी फरी तथा दूसरे हाथ में तेंदूसार की लाठी 40 या 80 के समूह में लोग रहते हैं के समूह में लोग रहते है तथा एक या दो नर्तक भी हाते है। बाजों की आवाज से संयुक्त रूप से जोश एवं आवेश साहस व उत्सव न केवल रावत के मन में अपितु दखने वाले के मन में उत्सव का संचार होता है।
रावत नाच के समय बोलने वाले दोहे हास्य व्यंग्य एवं विभिन्न रसों के अलावा सूर, तुलसी, कबीर के ज्ञानमार्ग शामिल हैं।
रावत नाचा के दोहे में नीति धर्म एवं ज्ञान से संबंधी दोहे शामिल हैं इसके अलावा इनके पारम्परिक एवं मौलिक दोहों की भी संख्या फिर भी कम नहीं है। इनके दोहों हास्य, व्यंग्य, करुण, रौद्र शांत तथा देवी देवताओं से संबंधित एवं देश प्रेम तथा जन सामान्य के प्रति विशेष नीति एवं ज्ञान से परिपूर्ण होता है। जिसके माध्यम से जनता को अपनी ओर आकर्षित करने तथा जोर से तेन्दुसार की लाठी ऊपर किये हुए दोहे को उच्चारित करके बोलते है।
इस प्रकार रावत नाच में इन विभिन्न प्रकार के दोहे का समन्वय कर नाच को रोचकता एवं चमत्कृत प्रदान करने के लिए रावत लोग  ने विभिन्न प्रकार के दोहे का सृजन किया है जिससे दर्शक के मन को उत्साह वर्धन कर रस मग्न कर दे साथ ही उसमें व्यंग्य के छींटे भी होते है जिसके माध्यम से बच्चों के मन में खुशी का संचार होता है और वे रावत नाच में अपनी भागीदारी का निर्वहन करते है।
दोहे के द्वारा व्यक्ति के एक नए ज्ञान का आभास होता है एवं मन में तर्क वितर्क भी पनपते है वास्तव में यदि गहराई से देखा जाए तो रावत नाच में दोहे  के माध्यम से नाच में सेाने पर सुहागा का कामकरती है जो जन सामान्य को अपनी ओर सहज ही ढंग से खिंचता चला जाता है इसकी प्रासंगिकता का वर्णन करना साहित्यकारों के बस की बात नहीं है।
गांव में अन्य जातियों की तरह रावत जाति संस्कृति की अपनी अलग विशेषता है, वेदों में उल्लेख होने के कारण इन्हें वैदिक जाति कहते है ये कला प्रेमी, लोकसंस्कृति के माध्यम से पौराणिक संस्कृति को जीवित रखे हुए है।
अहीरों के गौरवशाली परंपरा रीरिवाज के सुनहरे पन्ने के इतिहास में गो-पालन प्रमुख रहा, इनके अराध्य देव श्रीकृष्ण थे। यदुवंशी अपनी गाय भैंसों को विभिन्न रोग व बाधाओं से सर्वथा मुक्त रखने के लिए दूल्हा देव, ठाकुर देव, सड़हा देव, गोसाई देव व अपने पूर्वजों से जनित भूत प्रेत, बैताल, अखरादेव, छट कमानिय को प्रमुख श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। अहीरों में पूजा का विशेष प्रचलन है, पुत्र की शादी या संतान उत्पत्ति पर बकरे या मुर्गे की मान्य देवों की दुगुनी संख्या में बलि दी जाती है, घर की किसी कोने में गड्ढा खोदा जाता है जिसे सगरी कहते हैं किसी विशेष दिवस पर समाज के लोग एकत्रित होकर पूजा पाठ कर बलि देते हैं।
हरेली के दिन गाय भैंस को स्नान करा पूजा करते है रावत लोग जिनकी गाय-भैंस चरानी होती है उनके द्वारा देशमुख की शाख या नीम की पत्त्ी खोंच का प्रचलन है ये जन्माष्टमी को बड़े ही हर्षोल्लास से मनाते है। श्रीकृष्ण की पूजा भक्ति भाव से विभोर होकर करते है। मटकी फोडऩा मंदिर जाना व दही व हल्दी एक दूसरे पर खुशियों से मस्त होकर डालते हैं। दीपावली के पर्व के पश्चात का कार्तिक एकादशी, कार्तिक पूर्णिमा, कार्तिक पुत्री, देवउठनी, जेठानी, छेरछेरा, यदुवंशियों के संस्कृति के विशेष महत्व को प्रतिपादन करते हैं। देवारी शौर्य वीरता का प्रतीक है। देवारी के समय अपने कुल देवता को घर के भीतर पूजते हैं। देव उन लोगों को आशीर्वाद देने आते हैं तो उन पर काछन चढ़ता है सिर पर साज श्रृंगार की पगड़ी मोर पंख धारण करते हैं। रावत संस्कृति सिर्फ चरवाही और देवारी पर नाचने कूदने की संस्कृति मात्र नहीं है। राजनीति में राजा के बाद दूसरा राजा या सेना का सेनापति को रावत कहा जाता है। इन्हें चरवाहा बताकर व मदूर बताकर उनकी संस्कृति की गरिमा को आघात पहुंचाया जा रहा है।
रावत लोग अपनी ही बिरादरी में उत्सव व त्यौहार में खान-पान का प्रचलन चलता है। जिससे सामाजिक व्यवहार बना रहे। कृष्ण युगनी इतिहास में पशु बलि प्रथा का विधान मिलता है। इस प्रकार इनके खान-पान में सामाजिक सद्भावना जुड़ी रहती है। रावत समाज में मुख्यत: निम्न रिवाज व संस्कार है-  जन्म से क्षीर कर्म, छट्ठी मनाना, मुंडन, नामकरण, अन्नप्रासन, अक्षरज्ञान, स्कूल भेजना, अस्त्र-शस्त्र संचालन, नृत्य कला, विवाह, गौना कराना, धार्मिक पर्व, आरती पूजा, विवाह भोज, मृत्यु भोज इत्यादि प्रमुख रीति रिवाज व संस्कार है।
इस संस्कृति की गरिमा एवं स्वयं भगवान कृष्ण है जिसने गाय चराई, कंसवध, शिशुपाल किया महाभारत के द्वारा पूंजीवादी शासन का अंत और गीता के उपदेश द्वारा दिया। हर धर्म के बच्चे बड़ों में धार्मिक दार्शनिक व समाजवादिता का परिचय दिया ताकि भारत जैसा कृषि प्रधान देश फिर से समृद्ध हो सके।
साभार- रऊताही 2004