Tuesday 19 February 2013

लोकपर्व - छत्तीसगढ़ के संदर्भ में

वैदिक संस्कृत के 'आलुअÓ शब्द से 'लोकÓ की व्युत्पत्ति हुई है। 'आलुअÓ अर्थात प्रकाश या आलोक। आलोकित होने से जिस अस्तित्व का भान हुआ वह भानसृष्ट पदार्थ 'लोकÓ कहलाया। जो प्रकारान्तर में सृष्टि के पर्याय के रूप में व्यवहृत होते हुए उसकी सर्वश्रेष्ठ रचना मानव के लिए व्यवहृत हुआ। आज सामान्य अर्थों में 'लोकÓ का आशय जन समुदाय या समाज अथवा किसी विशिष्ट जाति, सम्प्रदाय से है जिसके कार्य व्यापारों से, व्यवहारों से एवं जीवन जीने की विभिन्न तरीकों से लोक रीति का जन्म होता है। यह बाद में अनेक रूपों में नाम धारित होकर अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करता हुआ परिमार्जित होकर परम्परा/संस्कृति का स्वरूप धारण करती है।
'लोकÓ समाज यथार्थता का पर्याय है। देश और सामाजिक परिवर्तन एक-दूसरे के अन्योन्याश्रित हैं। लोक का स्वभाव चुनौतियों का सामना करना है। लोक संस्कृति प्रवाहमान है जिसमें देश का कालानुरूप विषयों का सम्मिलन होता रहता है। इस प्रकार अनेक रूपों में प्रचलित लोकरीति का दायरा विस्तृत होते रहता है जो जीवन के समस्त क्षेत्रों की विशिष्ट पहचान कराता है और लोककला, लोकसंगीत, सामाजिक एवं पारिवारिक प्रथाओं, सामाजिक मान्यताओं के रूप में विकसित होकर उस समाज को अपनी विशिष्ट पहचान देता है। इसी संदर्भ में हम जब अपने छत्तीसगढ़ के भौगोलिक सीमाओं के अंतर्गत दृष्टि डालते हैं तो यहाँ के विभिन्न सामाजिक स्वरूपों की झलक विविध रूपों में मिलती है जो अपनी सामाजिक पहचान के साथ-साथ माटी की पहचान को भी सम्पूर्ण मानव समाज के बीच प्रदर्शित करने में सफल भूमिका निभाते हैं। आइये अब छत्तीसगढ़ के लोक जीवन कुछ खास परम्पराओं पर विहंगम दृष्टि डालें, जो अपने क्षेत्र में व्यापक प्रभाव छोड़ते हैं। जैसे रावत नाचा, करमा आदि। इनके अलावा छोटी-छोटी प्रथाएँ, मान्यताएँ भी हैं जो किसी छोटे से क्षेत्र में या समाज की किसी विशिष्ट कुल परम्परा में था। छत्तीसगढ़ की जनजातियों के किसी विशिष्ट वर्ग की 'धरोहरÓ के रूप में यथा-सरहुला (उरांव जनजाति में) गौरा पूजन (कंवर जनजाति में), बूढ़ादेव पूजन (गोंड़ जनजाति) तथा अन्य अनेक कुलदेव-देवियों की पूजा, विशिष्ट अवसरों पर करना।
छत्तीसगढ़ में अन्य दो विशिष्ट सामाजिक एवं सांस्कृतिक परम्पराओं का भी व्यापक प्रचार-प्रसार के साथ लोक जीवन को प्रभावित करने के कारक का अस्तित्व भी दृष्टिगोचर होता है। यद्यपि यह उन आदिम परम्पराओं का भाग नहीं है तथापि परिमार्जित स्वरूप को लोक-जीवन में विलय होकर लोक परम्पराओं का स्वरूप धारण कर लिया है। इसमें गुरु घासीदास द्वारा स्थापित 'सतनाम पंथÓ एवं धर्मदास द्वारा प्रचारित 'कबीर पंथÓ का प्रभाव लोक जीवन में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक है कि लोकरुचि, सांस्कृतिक संक्रमण, वैचारिक आदान-प्रदान एवं व्यापक लोक-मानस की गतिविधियों से सामान्य सी लोक परमपरा भी अपनी अहमियत के कारण व्यापक क्षेत्र में प्रचलित होकर सांस्कृतिक अथवा धार्मिक परम्परा में बदल जाती है। इसी प्रकार कभी-कभी परिमार्जित सांस्कृतिक अथवा धार्मिक परम्परा कालचक्र में पड़कर अपना व्यापक अस्तित्व होकर मात्र लोकपरम्परा के रूप में सिमटकर रह जाती है। इसमें एक अन्य तथ्य यह भी है कि कभी-कभी लोकमानस पुष्ट और परिमार्जित परम्पराओं को अपनी समझ और सुविधाओं के अनुसार पालन करना पड़ता है। ऐसा करने पर उसके अपने मौलिक विचार इतने प्रभावी हो जाते हैं कि वह परम्परा अथवा रीति पूर्णतया लोक परम्परा का स्वरूप धारण कर लेती है इसके विविध उदाहरण लोकजीवन में देखने को मिलते हैं जैसे (1) अपने तरीके से होली माना। होली में देवी-देवताओं की पूजा आम, महुआ आदि फलों का समर्पित करना एवं सुख समृद्धि की कामना करना तथा नए वर्ष (चैत्र माह) का स्वागत करना। इस समय प्रहलाद हिरणयकश्यप एवं होलिका से संबंधित मूल कारण पर लोक के उस हिस्से में उनके मौलिक विचार जो लोक-व्यवहार से उत्पन्न हैं, हावी ही नहीं होते वरन् स्थापित हो जाते हैं जिन्हें हम 'लोक पर्वÓ का नाम देते है। 'लोक पर्वÓ लोक परम्पराओं की सूक्ष्म अनुभूति है। (2) जापान के पूर्व प्रचलित सिन्टोमत के अंतर्गत 'नववर्षÓ मनाने की परंपरा थी जो व्यापक बौद्ध परम्परा में वहाँ सम्मिलित हो गयी है। (3) असम में 'बिहूÓ यह आदिवासी परम्परा है। नई फसल उत्पादन की खुशी में मनाया जाने वाले 'रंगाली बिहूÓ को आज पूर्वोत्तर क्षेत्र के जातीय पर्व के रूप में स्वीकृति मिल चुकी है इसे सभी धर्मावलम्बी मिलकर मनाते है। (4) तमिलनाडु एवं केरल में भी पोंगल, ओणम इत्यादि पर्व परिमार्जित धर्म परम्पराओं की सीमाओं का अतिक्रमण कर व्यापक अर्थ ग्रहण कर चुके हैं। ऐसा क्यों होता है ? यह इतिहास की व्यापक समीक्षा का विषय है। भारत जैसे बहुआयामी सांस्कृतिक एवं धार्मिक पृष्ठभूमि वाले देश में इस तथ्य को परिभाषित करना और भी कठिन है। इसी तारतम्य में 36 गढ़ का पूर्वांचल क्षेत्र जो जशपुर से बस्तर तक फैला हुआ है एवं भाषायी दृष्टि से सम्बलपुरी और लारिया क्षेत्र कहलाता है, उड़ीसा प्रांत में प्रचलित लोक परम्पराओं का पालन करता हुआ 36गढ़ी समाज को भी अपने प्रभाव से अछूता नहीं छोड़ता। उदाहरण स्वरूप नवाखाई, रथयात्रा, अगहन माह में प्रत्येक गुरुवार को लक्ष्मीपूजा की परम्परा तथा एकादशी व्रत आदि हैं। इस लोक जीवन के व्यापक प्रभाव को देखते हुए समस्त परम्पराओं, पर्वों का व्यापक विवेचन संभव नहीं है किन्तु कुछ विशिष्ट लोकपर्वों को इंगित कर उनके संदर्भित परिपे्रक्ष्यों पर विवेचन करना हमारे विचार से समीचीन होगा। इसलिए हम चैत्र से फाल्गुन तक मनाए जाने वाले लोक पर्व का उल्लेख करते हैं एवं ऋतु अनुसार उनके पालन करने के लिए दिनों, तिथियों, पक्षों और महिनों का निर्धारण भी किया गया है। कुछ अवलोकनार्थ प्रस्तुत है-
चैत्र नवरात्रि- शु.प.1 प्रतिपदा से नवमीं तक शक्ति की पूजा दुर्गा देवी की पूजा, रास डांडिया का आयोजन, भजन कीर्तन, जंवारा, भोजली-रोपण, नव कुँआरी कन्याओं को भोजन कराना। सामाजिक कुरुीतियों को दूर करना, मातृ सत्ता (शक्ति) को स्वीकारना, भाई चारा, मेल-मिलाप एवं सहयोग। रामनवमीं- शु.प. 9 को मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम का जन्मोत्सव श्री राम जन्मोत्सव, झांकी, पूजा, अर्चना, विवाह आदि के लिए निर्विध्न तिथि ईश्वर की सत्ता पर विश्वास, निर्विघ्न मांगलिक कार्य समाज में प्रसन्नता।
बैसाख- अक्ति (अक्षय तृतीया)(एक तिजिया)- शु.प. 3 पूर्वजों की स्मृति नव कृषि यंत्र की तैयारी, देवपूजन, पितर पूजन (तर्पण) पुतरा-पुतरी विवाह आदि, सामाजिक संबंधों एवं व्यवहारों का संदेश।
जेठ- वटसावित्री जेठ अमावस्या के दिन- शिव-पार्वती पूजा - महिलाओं का व्रत/पूजन अर्चना मनोकामना कर वृट वृक्ष पर जुड़ी छाया बांधना- महिलाओं में निष्ठा, विश्वास एवं सामाजिक सौहार्द का जागरण, रजस्थला संक्रांति- 14-15 जून लगभग प्रकृति का नारी से सामंजस्य प्रकृति (धरती माता) को नए शस्योत्पादन हेतु रजस्थला मानकर मिट्टी में खनन संबंधी कार्यों की मनाही, प्रकृति वंदना- नारी का सम्मान, प्रकृति का मातृ (नारी) रूप में सम्मान, पर्यावरण, पर्यावरण की रक्षा।।
आषाढ़- रथयात्रा शु.प. 2 को भगवान श्रीकृष्ण बलराम एवं बहन सुभद्रा की स्मृति में पूजा अर्चना, झांकी निकालना, रथ यात्रा (तीनों भाई बहनों का मौसी के घर जाना) सामाजिक मूल्यों की स्थापना, धार्मिक परंपराओं से समाज सुधार एवं मंगल आपसी भाईचारा का वातावरण निर्माण। दशंई- शु.प. 10 को तीनों विभूतियों की घर वापसी, गुडिया घर (मौसी घर) से अपने मंदिर में वापसी।
सावन- हरेली कृ.प. अमावस्या को- हरी-भरी फसल, कृषि औजारों की पूजा- देवी-देवता, हल औजारों की पूजा, द्वार पर नीम की पत्तियां खोंचना, दीवारों पर आकृति एवं पूजा। गाय बैलों को जड़ी बूटी एवं आटे की लौंदी खिलाना। बैगों द्वारा ग्राम देवों की पूजा। गेंड़ी पर बच्चों का चलना- सम्पन्नता हेतु पूजा पाठ, स्वास्थ्य, सजकता, चित्रकला, बरसाती रोगों से बचाव,  सम्पन्न ग्राम की आकांक्षा।
नागपंचमी- शु.प. 5 नागदेव की पूजा- धरती को वासुकी मस्तक पर उठाए जाने की भावना से कृतज्ञता स्वरूप नागदेव की पूजा, कुश्ती दंगलों का आयोजन, उल्लास- आस्थावादी एवं आशावादी समाज निर्माण, स्वास्थ्य एवं आहार विहार की सजकता।
भोजली- शु.प. 5 से 9 तक मित्रता सौहाद्र्र सम्मान- नागपंचमी से प्रारंभ कर तिथि। जंवारा खुशी 9 दिन तक भोजली रोपण। गंगा स्तुति (भोजली गान) नवाखाई के दिन विसर्जन। उल्लास का वातावरण। मित्रता हमउम्रों में सहयोग का मान-सम्मान फसल होने की खुशी-अटूट पारिवारिक एवं सामाजिक।
राखी- पूर्णिमा को भाई-बहन का रिश्ता एक तरफ राखी के कच्चे धागों को भाई-बहनों की कलाई पर बांधकर अटूट रिश्ते की कायम करती है तो दूसरी तरफ भाई भी उपहार आदि देकर रक्षा का वचन देता है, उल्लास संबंधों की स्थापना मेल, जोल, सामाजिक संबंधों का ज्ञान एवं मान।
भादो-कमरछठ (हल षष्ठी)- कृ.प. 6 माताओं का त्याग पुत्र के सुखी जीवन की कामना- माताएँ पुत्रों के सुखी जीवन एवं दीर्घायु होने की कामना करती हैं। व्रत उपवास करती। इस दिन वे पसहर चांवल भैंस के दूध-दही व घी लाई, महुआ, छ: प्रकार की स्वयं उत्पन्न होने वाली भाजी का फलाहार करती है।
कन्हैया आठे (श्रीकृष्ण जन्माष्टमी) कृ.प. 8 (भगवान श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव) कृष्णलीला का आयोजन, उपवास, झांकी, मटका फोड़, दूध-दही, लूट आदि का आयोजन -सामाजिक प्रसन्नता, प्रफुल्लता कृष्ण की लीलाओं के माध्यम से सामाजिक सौहाद्र्र की जानकारी।
पोरा (पोला)- अमावस्या को- नंदी की स्मृति में बैलों की पूजा - आनंद का वातावरण, नंदी मानकर (मिट्टी या) धातु/पोरा (मिट्टी के बर्तन) से लड़कियों का खेलना। लड़कों का (मिट्टी या धातु) के बैलों से खेलना, मवेशियों की पूजा एवं सेवा।
तीजा (हरितालिका) शु.प. (पति की मंगल कामना एवं पुत्री के पितृगृह पर अधिकार) पिता या भाई अपनी पुत्री या बहन को घर लाकर नए वस्त्रादि देता है। वे पति की मंगल कामना करती हंै, निर्जला उपवास रखती हैं। कन्या के माता पिता के घर पर अधिकार व सम्मान का प्रतीक है यह पर्व।
गणेश चतुर्थी - शु.प. 4 भगवान गणेश जी का अग्रदेवता केि रूप में पूजन- यह पर्व चौथी तिथि से चर्तुदशी तक चलता है। गणेश प्रतिमाओं की स्थापना। पूजा, अर्चना, झांकी एवं मेला आदि। रायगढ़ का गणेश मेला प्रसिद्ध है। विश्व शांति सामाजिक समानता भाई-चारा व श्रद्धा भक्ति भाव जागरण।
कुंवार पितृ पक्ष  (पितर पूजन) कृ.प. 1 से 15 तक मृत पितरों की स्मृति (श्रद्धांजलि) यह पूरे पक्ष भर का पर्व है। माना जाता है कि मृत पितर अपने परिवारजनों से मिलने आते हैं। उनका पुण्य स्मरण कर पूजा अर्चना व श्राद्ध तर्पण किया जाता है। हवन में भोजन सामग्री डालते हैं। पूर्वजों का स्मरण स्वच्छता एवं वातावरण की शुद्धि।
शारदीय नवरात्रि - शु.प. 1 से 10 तक शक्ति पूजा, भगवान राम का पुण्य स्मरण- चैत्र नवरात्रि की तरह मनाया जाता है। जंवारा बोते हैं (भोजली रोपते हैं) झांकी निकलती है, रामलीला दशमी के दिन रावण कुम्भकर्णी पुतलों का दहन। शक्ति पर आस्था, अन्याय, असत्य, अनीति पर न्याय-सत्य व नीति की विजय, सामाजिक सौहाद्र्र।
शरद पूर्णिमा-पूर्णिमा के दिन- प्राकृतिक निर्मलता एवं समृद्धि - लहलहाती फसल का आनंद, प्रकृति की निर्मल छटा का आनंद। मेला पूजा पाठ आदि। खीर बनाकर खाना, माना जाता है कि इस दिन रात्रि को अमृतवर्षा होती है। करमागढ़ (रायगढ़) का बारल (बलि) मेल तासीर का मेला प्रसिद्ध है। नृत्यगान, पूजा पाठ के प्रति प्रवृत्ति, प्रकृति को उदारता एवं निर्मलता का भान
कार्तिक-देवारी (दीपावली) कृ.प. अमावस्या को- धन की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी जी की पूजा- दीपमालिका जलाना। लक्ष्मी पूजन पाँच दिनों का पर्व। धनतेरस, नरक चौदस, दीपावली, गोवर्धन पूजा एवं भाई दूज (मातर), 36गढ़ के प्रमुख लोकनृत्य रावत नाचा का प्रारंभ- अन्ना का सम्मान, आस्था उजाले की ओर प्रवृत्ति भाई चारा एवं सामाजिक सौहाद्र्र।
आंवला पूजन- शु.प. 9 वृक्ष पूजा- पूर्वांचल में ख्यात पर्व। वृक्ष पूजा, आँवला वृक्ष के नीचे भोजन बनाकर ग्रहण करना। पूजा-पाठ, दान। यह चतुर्दशी के दिन भी मनाया जाता है। शुद्ध मनोविचार जागृत होता है। आपसी सौहाद्र्र
पनपता है।
कार्तिक एकादशी (देवउठनी या देव प्रबोधनी एकादशी)- शु.प. 11 एकादशी व्रत- एकादशी व्रत/पूजा पाठ / दान दक्षिणा, कथा श्रवण, भजन कीर्तन गन्ना की पूजा, पकी फसल को देाकर प्रसन्नता को प्रकट किया जाता है। शुद्ध मनोविचार जागृत होता है, आपसी सौहाद्र्र पनपता है।
गुरु पर्व (गुरु पूर्णिमा) पूर्णिमा के दिन प्रकाश पर्व- स्नानदान, दीपदान, पूजन अर्चन भजन कीर्तन- आपसी सौहाद्र्र पनपता है।
अगहन- लक्ष्मी पूजन- प्रत्येक गुरुवार को - धन धान्य अन्न की देवी लक्ष्मी जी की पूजा- दीपावली की तरह लक्ष्मी जी की पूजा रंगोली से घर द्वार सजाये जाते हैं। जगह-जगह इसी माह में मड़ई (रावत) मेला लगता है। बिलासपुर का मड़ई (रावतनाचा) विख्यात है। सामाजिक मूल्यों की स्थापना, आपसी भाईचारा एवं सामाजिक सौहाद्र्र।
पूस-मकर सक्रांति- पूस माघ माह (14 जनवरी को) सूर्यदेव की पूजा/संक्रांति का महत्व, नई फसल का घर में आना- स्नानदान/ पूजा अर्चना। इस दिन से सूर्य दक्षिणायण से उत्तरायण होता है। खेत-खलिहान से अन्न घरों में आ जाता है जिसकी खुशी व्यक्त की जाती है। अन्न के दान को महादान कहते हैं। इस दिन धान का दान दिया जाता है। अति उल्लास का वातावरण रहता है। भूमण्डलीय परिवर्तन से परिचय, दान- लेने देने की महत्ता का परिचय, मेल-मिलाप, सामाजिक समरसता।
माघ- माघ पूर्णिमा मेला माघ पूर्णिमाको नदी नालों की महत्ता को स्वीकारना - संगमों पर पुण्य स्नान किया जाता है। पूजा अर्चना की जाती है। दान दिया जाता है। राजिम, सिरपुर, शिवरीनारायण, सोमनाथ एवं चंद्रपुर आदि स्थानों पर मेला लगता है। अपार भीड़ होती है। इस दिन पुरी का भोग शिवरीनारायण में चढ़ता है। नदी नालों के प्रति श्रद्धा भाव, प्रकृति की पूजा, शुद्ध मन एवं सौहाद्रर्द।
फागुन- महाशिवरात्रि- तिथि अनुसार- महादेव शंकर जी का पुण्य स्मरण- माघ मेला की ही तरह स्नान, पूजन अर्चन दान दक्षिणा एवं रात्रि जागरण कर श्रवण कीर्तन आदि- खुशी एवं संपन्न समाज की कामना जागृत होना, मेल-मिलाप सौहाद्र्र।
होरी (होली)- पूर्णिमा को देवीदेवताओं की पूजा एवं फलादि का सेवन -यह त्यौहार रंगों का है। आपसी मतभेद ऊंच नीच को भुलाकर सब सहर्ष नाचते गाते हैं। देवी-देवताओं की पूजा आम महुआ आदि फलों से होती है। फलों का सेवन भी उस दिन से प्रारंभ करते हैं। यह पर्व रंग पंचमी तक चलता है- अन्याय पर न्याय की विजय, आपसी भाईचारा, प्रेम और सौहाद्र्र पनपता है।
साभार- रऊताही 2004

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