Wednesday 10 April 2019

रऊताही बाजार (राउत नाचा)

शब्द कहने में अटपटा लगता है पर यह राउत नाचा महोत्सव बहुत पुराने काल लगभग साढ़े पांच हजार वर्ष पुराने अट्ठाइसवें द्वापर काल से जब परमात्मा के सोलहवें कला ईश्वर  अवतार भगवान कृष्ण का अवतार हुआ था जिसके विषय में ईश्वर अवतार महर्षि व्यास (तत: सप्तदशे जात: सत्यवत्यां पराशरात्।। च के वेद तरो शाखा दृष्टवा पुन्सोस्त्य मेघ स:।। 21 भा.पु. स्कंध) अपने अपूर्व ग्रंथ श्रीमद्भागवत में प्रथम स्कंध में एते चां श कला: पुन्स: कृष्णास्तु भगवान वयम्।। इन्द्राणीव्याकलं लोकं ऋष्यंति युगे-युगे। श्रीमद् नाचा महोत्सव जो कि अपने मुखिया (राजा) के प्रथम पुत्र जन्मोत्सव के समय अपने गोधन गायों और बछड़ों के सहित अनेक परिधानों में (गायों नृषा वत्सतरा हरिद्रातैत सषिता: 22 निमित्त धातु बर्हस्त्रग्वस्त्र कांच न मालिन:।। महादेवस्त्रानातरणं कंज्त्रु कोंष्णीय भूषिता:।। गोपा: समाययु राजान्नानों पायन पाणय:। दशम स्कँध 15।
नाचते-कूदते नन्दराय को बधाई दिया गया तथा उसी रुप में दूसरा महोत्सव गोवर्धन पूजा के समय इन्द्र का मानमर्दन हेतु दिखाया गया इसी तरह यह महोत्सव अन्याय अत्याचार कंस के द्वारा गरीब गायों के शोषण के विरोध में किया गया शुद्ध अहिंसक एकता का प्रतीक के रुप में पुराणों में लिखा गया है। उक्त महोत्सव का प्रमुख उद्देश्य उस समय अन्याय, अत्याचार के विरोध में ग्वाल बाल जो कि यदुवंशी क्षत्री थे पर गौ ब्राह्मण के ऊपर बढ़ते हुए अत्याचार को देखकर भगवान कृष्ण ने बलिष्ठ यादवों जिन्हें गाय गोधन सेवा के कारण ग्वाल बाल कहा जाने लगा जहां पर मांस मदिरा का बिलकुल निषेध था और बड़े-बड़े असुरों (असुरी प्रवृत्ति के धनी) को बिना किसी हथियार के विनष्ट किया गया था। इसी का प्रतीक आज के दिन ग्वालों के द्वारा गायों की बीमारी एवं पशुधन की खुशहाली हेतु गोष्ठान में कुल देवता भगवान कृष्ण का पूजन कर राउत नाचा महोत्सव किया जाता है। इसमें खासकर छत्तीसगढ़ के सभी वर्ग अपना तन मन धन से सहयोग कर उक्त महोत्सव में सम्मिलित होते हंै। इसमें खासकर छत्तीसगढ़ के सभी वर्ग अपना तन मन धन से सहयोग कर उक्त महोत्सव में सम्मिलित होते हैं। इसी हेतु गांव में सभी घरों में ग्वालबाल जाकर राउत नाचा कर उनकी उनके बहुमुखी विकास की दुहाई अनेक दोहे के रुप में दिया करते हैं इस ऐतिहासिक पौराणिक परम्परा को समाज के हर वर्ग को प्रोत्साहित करने एवं इस छत्तीसगढ़ी ही नहीं वरन अनेक रुप में हर प्रांत में यादवों के द्वारा मनाये जाने हेतु प्रोत्साहन दिया जाना चाहिये एवं ग्वाल बालों को सामाजिक उत्थान हेतु अपने को सभी बुराईयों से बचाते हुए सामाजिक संगठन हेतु प्रयासरत रहना चाहिये।
इस महोत्सव को आज भी मातर जगाने के नाम से ग्वालों के द्वारा मनौती के रुप में माना जाता है। जिसमें यदुवंशी अपने कुल देवता की पूजा करने हेतु अपने मुखियों के घरों से खोड़हर को विधि विधान से बाजे गाजे से नाचते कूदते उल्लास के साथ पूजा कर गोठान के बीच में गड़ाकर उनके सम्मान में खूब पूजन भंडारा तथा उस समय हर वर्ग के ग्वाल चाहे कनौजिया, देशहा, झेरिया, तथा वन्य प्रांत में आदिवासी जन भी एकजुट होकर अपने देवता के सम्मान में खूब उत्सव मनाते हुए विविध परिधान में अनेक दूर-दूर के गांवों में झुण्ड के झुण्ड बाजे-गाजे के साथ अपनी वर्ग भेद जाति ऊंच नीच के कुत्सित विचारों से अलग होकर उक्त उत्सव में सम्मिलित होकर अपने गांव ग्राम देवता, कुल देवता ग्राम के मुखिया के चहुंमुखी विकास तथा परम्परा को कायम रखने तथा अपनी मातृभाषा मातृभूमि गोवंश एवं अपने मालिक एवं स्वयं परिवार के मंगलकामना के दोहे बोल बोल कर इतने भाव विभोर हो जाते हैं कि उन्हें तन-मन की सुधि-बुधि भूल जाती है जिसे काछन चढऩा कहा जाता है। ये यदुवंशी क्षत्री इस रुप से उस समय कंस के बढ़ते हुए अत्याचार और आज भी गोवंश के विनाश के प्रति अपना रोष प्रकट कर एकता की दुहाई देकर मानो मर मिटने की शपथ लेते हैं। मातर शब्द का अर्थ मातृ शक्ति को जागृत कर माँ गोवंश की रक्षा हेतु समाज को जागृत कर जगाना होता है तथा स्पष्ट है खोंडहर शब्द खंड हर का अपभ्रंश है जो कंस के अत्याचार से घरबार छोड़कर भागे हुए सीधे-साधे यदुवंशी भोज वंशी क्षत्रिय एकत्र होकर अन्याय को चुनौती देकर अपने छोड़े हुए खंडहरों से अपने कुल देवता को मुक्ति दिलाकर बाजे-गाजे के साथ लाया जाता है। आज भी आप लोगों ने देखा होगा मातर जगाने वाला ग्वाल को काछन चढ़ता है वह अपने देवता अपने घर को खडंहर तथा इष्ट को गड्ढे तथा अंधेरे में सिसकते हुए उसमें मातृशक्ति का भाव आ जाता है। वह उसमें आक्रोश में अपने ही शरीर व घर छप्पर को पीटने लगता है और अपने आप मना करने वाले प्रतिद्वंद्वी को ललकारने लगता है उस समय उसको शासन द्वारा प्रदत्त सुरक्षा बल भी संभालने में असमर्थ हो जाता है। यह एक शुद्ध दैविय शक्ति का जागरण एवं अपने मातृभूति, राष्ट्र, गोवंश के दीन-हीन दशा के प्रति एक आक्रोश प्रकट होना स्वाभाविक है। उसके बाद अपने जो ग्वाले घर-घर में राउत नाचने को जाते हैं अगर हम लोग इसका सही मूल्यांकन करें।
हमें हमारे समाज एवं पूरे देशवासियों को इस वंश का आभार मानना चाहिए यह कि ये यदुवंशी क्षत्रियवंश का ही लक्षण है जो ये लोग लाठी लेकर अपने शौर्य का प्रदर्शन करते है। हर हिन्दू मुसलमानों एवं सभी छोटे बड़े लोगों के घर जाकर उनकी गुलामी अंग्रेजों के द्वारा गोवंश का विनाश एवं भारतवासियों को हथियार रखने पर पाबंदी के विरोध में केवल लाठी के बल पर ही अपने आन बान गोवंश एवं राष्ट्र के प्रति हर वर्ग के घर-घर जाकर जगाकर सावधान रहकर अपने ऊपर किये जा रहे अत्याचार शोषण के प्रति अलख जगाना ही है। उसमें जो उन्हें पुरस्कार प्राप्त होता चला आ रहा है वह एक प्रोत्साहन राशि के रुप में ही था जिसे वे बेचारे सदियों से शोषित अपनी गरीबी समाज से उपेक्षित एवं अशिक्षित रहने के कारण उक्त राशि को समाज संगठन के उत्थान में न खर्च कर अपने पेट तथा कपड़ा बाजा आदि में उड़ाते चले आ रहे हैं। आजादी की लड़ाई में जिस तरह स्व. लोकमान्य तिलक जी ने महाराष्ट्र में गणेश सत्यनारायण की कथा आदि में संगठनात्मक विचार गोष्ठी का रुप दिया था। उसी तरह इस समाज के तरफ छत्तीसगढ़ के समाज सेवियों का ध्यान नहीं गया न ही उन्हें बढ़ावा मिला बल्कि उनकी हंसी उड़ाया जाकर उन्हें दबाने हेतु अनेक कार्य किये गये। इस विषय एवं इस समाज के संबंध में जितना भी कहा जाय, लिखा जाय थोड़ा है। इस समाज ने सदियों से अपना परिश्रम अथक सेवा भाव जो दिन भर हमारे कृषि प्रधान भारत वर्ष के महत्वपूर्ण अंग गोधन की सेवा करने बड़े भोर से ही मालिक को जगाकर गाय भैंसों को बरसात, पानी गिरते एक कंबल खुमरी ओढ़ कर जंगलों में ले जाकर ईमानदारी पूर्वक चराना न उन्हें उक्त कार्य में ठंड की परवाह न गरमी की चिंता। घर में मवेशियों की सेवा में अपना तन-मन-धन न्यौछावर कर समर्पण भावना से जो इस वर्ग ने सेवा किया है कोई ऐसा मिसाल आज भी जंगलों में जाकर इनके त्याग और तपस्या देखा जा सकता है। जंगलों में आपके पशुधन की सेवा और वे ग्वाल अपना और अपने परिवार को अनेक बीमारी प्रताडऩा के आग में झोंकते चले आ रहे हैं ऊपर से वन विभाग के कर्मचारियों द्वारा इनका शोषण दरिंदों से कम नहीं है फिर भी ये बेचारे आपके गायों भैंसों को इस जंगल से उस जंगल में भगाने पर असहाय होकर समाज सेवकों से अपनी गुहार लगाते फिरते हैं क्या किसी ने कोई ध्यान दिया है? मैं समाज से पूछता हूं आप लोगों में से कोई भी बताये इन्हें इसके बदले क्या मिला। थोड़ा सा अनाज बाढ़ी के टुकड़े मात्र हमारे प्रांत में कांग्रेस शासन में हमारे मुख्यमंत्री माननीय दिग्विजय सिंह जी को मैं साधुवाद प्रेषित करता हूं जिन्होंने हमारे समाज चिन्तक श्री बी.आर. यादव जी को हमारे म.प्र. शासन के वनमंत्री के रुप में नियुक्त किया है, वे समाज के प्रति जागरुक एवं संवेदनशील रहे हैं। अवश्य ही इस ओर अपना अमूल्य ध्यान देकर इन गरीब भोले-भाले ग्वाल बाल यादवों की दीनदशा पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करेंगे। काफी दिनों से मैं उक्त समाज के प्रति हमेशा ही अपनी आवाज उठाता रहा पर किसी ने ध्यान नहीं दिया आप अपने अंतरात्मा की आवाज से सोचें अगर इसी तरह समाज की उपेक्षा होती रही तो हमें समाज सेवा का कार्यबंद कर देना चाहिए अन्यथा वह एक ढोंग ही कहा जावेगा। हमारे समाज सेवी संस्थाओं की सच्ची सेवा भी सार्थक होगी। तय है कि अपने बहुमूल्य प्रहरी की उपेक्षा हमारे उत्थान में राष्ट्र के सुचारू संचालन में महान बाधक बनेगा। मैं तो चाहूंगा कि इस वंश के जो कभी समाज का शासक कहा जाता था आज मजदूर अशिक्षित लठैत कहे जाकर हंसी के पात्र बनते जा रहा है। समाज सेवियों से मेरी अपील है कि वे अपने सामाजिक यश प्रलोभन एवं दंभ से ऊपर उठकर सदियों से शोषित उत्पीडि़त समाज को शिक्षा संगठन सांस्कृतिक पहचान को उज्जवल कर उनके अंतर्रात्मा के आंतरिक भावना के अनुरुप सेवा का अवसर प्रदान कर उनकी खोई हुई अस्मिता उनको दिलाते। कंस के अत्याचार से भागकर विविध प्रांतों में बसे हुए श्रीमद्भागवत दशम स्कंधे द्वितीय अध्याय से पीडि़ता निविविध कुरु पांचाल कैकयान। शाल्वान विदनर्भन विषधान् विदेहान को सलानपि।। एके तमनुरुन्धानांज्ञातय: र्युपासते। हतेषु षटसु वालेषु देव क्या आग्रसेनिना। उन यदुवंशियों को एकत्रित कर उनको सामाजिक धारा की ओर मोड़े और इस प्रकार सदियों से चले आ रहे राउत नाचा को एक सामाजिक राष्ट्रीय एकता के रुप में महत्व देकर अपना योगदान देवें साथ साथ देश के सभी यदुवंशी यादवों से भी अनुरोध करुंगा कि आप लोग अपने अस्मिता को पहचानिये गंदे विचार कि वह झेरिया है यह केंवरई है यह कन्नौजिया है। इन सब झगड़ों में न पड़ वसुधैव कुटुम्बकम की भावना से समाज में कुछ व्याप्त बुराइयों से दूर रहकर शिक्षा को महत्व देकर अपने आगे आने वाली पीढ़ी को साक्षर बनाइये और ग्राम नगर समाज राष्ट्र के उत्थान में सहभागी बन स्वदेश का नाम रौशन करें। संगठन में इतनी ताकत है कि किसी राष्ट्र को उठाने सजाने संवारने में वर्तमान युग में महत्वपूर्ण आवश्यकता है। संघे शक्ति कलीयुगे जिस समाज में एकता है वही जागरुक है। यह तो यादव समाज में कुछ जागरुक लोग हुए जिनका सामाजिक उत्थान के तरफ ध्यान गया जो अब कुछ वर्गों के लिए समाज में जो बुराई है कुछ स्वार्थी लोगों के बहकावे में आकर लठैती कर मारपीट तथा अपने ही यादव समाज से वर्ग भेद लगाकर झगड़ा झांसा करने के प्रवृत्ति पर रोक लगाकर समाज को सुसंस्कृत कर संगठित कर पूरे सामाजिक धारा की ओर यदुवंशियों का ध्यान मोड़ा जाये तो मेरे अंदाज से सबसे उत्तम क्षत्रित्व समाज एवं राष्ट्र के सजग प्रहरी के रूप में खुलकर विकसित होगा। शास्त्रों में जो क्षत्रिय गुण वर्णित समाज माना जा सकेगा। श्रीमद्भागवते दशम स्कंधे वर्तत ब्रह्मण विप्रो राजन्यो रक्षया भुव:।। वैश्यस्तुवतिया जलायनम।। दान भीश्वर भावच्श्र क्षात्रं कर्मस्वभाव जान्। मेरे मन में काफी बचपने से ही यादव समाज के इस रौताही राउत नाचा को देखकर संगठन के बारे में लोकमान्य तिलक डॉ. हेडगेवार महात्मा गांधी जी के अहिंसात्मक आंदोलन याद आते रहे हैं। यह समाज किसी भी तरह आज भी अहिंसक भावना से ओतप्रोत समाज के सभी वर्ग को साथ लेकर यह कार्य प्रारंभ से आतंक अत्याचार शोपण अनाचार गुलामी के प्रति चेतावनी ही थी तो इनके गरीबी अशिक्षा एवं समझ के ऐसे बड़े वर्ग जो आज भी इनके माध्यम से अपनी रोटी सेंक रहे हैं पुन: समाज उत्थान के प्रति अपनी शुभकामना प्रेषित करते हुए सबसे अधिक भाई डॉ. मंतराम यादव जिनके ऊपर मेरा पुत्रवत स्नेह हमेशा ही रहा है। लगातार हमें हमेशा ही इन विषयों पर मेरा ध्यान दिलाते रहे तथा इस पर कुछ अपना विचार लिखने हेतु पे्ररित करते रहे।
मैंने जो कुछ भी अपनी टूटी फूटी भाषा एवं अपने अल्प ज्ञान के द्वारा इस लेख में लिपिबद्ध किया है विद्वानों से क्षमा याचना करते हुए आशा करुंगा कि इसमें वर्णित कमजोरी चाहे वह शाब्दिक हो भावनात्मक हो मेरे जिम्मे छोड़कर सार ग्रहण कर यादव समाज की उन्नति संगठन पर अपना ध्यान लगाकर छत्तीसगढ़ के अमूल्य सामाजिक विधि को हर बुराइयों से दूर कर, विकसित कर नया रूप लाकर आदर्श प्रस्तुत करेंगे।
साभार रऊताही 2016

राउत नाचा : वीर वेश धारण कर नाचते हैं राउत

भारतीय ऋषि मुनियों ने प्रकृति का सूक्ष्मतम अध्ययन करने के बाद पूरे समाज के लिए बहुत वैज्ञानिक धरातल पर नियम बनाये थे ताकि मनुष्य समुदाय को प्रकृति के अनुकूल चलाते हुए उसे अधिकृत सुख-सुविधा दी जा सके तथा उपयोगी बनाया जा सके।
राजाओं के लिए भी इन नियमों का परिपालन आवश्यक था। युद्ध आदि कार्यों को समाप्त कर देवशयनी एकादशी से सारी शैन्य शक्ति को वापस राजधानी अथवा अपने राज्य सीमा में वापस आना अनिवार्य था। आषाढ़ शुक्ल पक्ष की इस एकादशी से ही चतुर्मास आरंभ हो जाता है, विवाह -शादी आदि सभी कार्यों में बंदिश लग जाती है, युद्ध रूक जाते हैं और साधु सन्यासियों का प्रवास और यात्रा का क्रम भी रूक जाता है। अगले चार माह वर्षा के होते हैं अतएव पथ चलने लायक नहीं रहते थे। साधु संत किसी एक ग्राम में रह कर ईश्वर भजन तथा उपदेश देने का कार्य करते थे। देवता और देवियों का यह शयनकाल है।
सेना से वापस आये सैनिक तथा अन्य लोग कृषि कार्यों में जुट जाते हैं। यह चार माह कृषि कार्यों के लिए समर्पित माह है। व्यापारी जो बाहर व्यापार करने गऐ थे वे भी घर वापस आ जाते थे। महिलाओं को अपने पतियों का चार माह भरपूर साथ मिलता। यदि किसी का पति नहीं आ सका तो उसके लिए यह विरह काल माना जाता था। विरह गाया जाता था  'सावन बीता जाये पिया नहीं आये वगैरह-वगैरह।Ó
चार मास बीतने के बाद नवरात्रि में देवी-देवताओं से लगभग पैंतीस चालीस दिन पूर्व अश्विन शुक्ल एक को नवरात्रि आरंभ में जागृत अवस्था में आ जाती है। देवी उपासना पूरे नौ दिन चलती है। दसवें दिन विजयादशमी का त्यौहार मनाया जाता है, इस दिन समस्त वीरजाति सैनिक आदि फिर अपने सैन्य कार्यों की तैयारी में अपने अस्त्र-शस्त्रों को धार देते हैं और इनकी पूजा करते हैं। अहीर, यादव, ठेठवार, ग्वाला, गोप, ग्वाली, पहटिया, चरवाहा, बरदिहा या रावत कहा जाने वाला वर्ग जो इन बीते चार महीनों में पशु सेवा में लीन रहते हैं, ये आज इस अवसर पर मातर जगाते है। ये दोहा पारते हैं-
चार महीना चराएंव खाएँव दही के मोरा,
आगे मोर दिन देवारी छोड़ेंव तोर निहोरा।
छत्तीसगढ़ में इस समाज को राउत के नाम से सामान्यत: संबोधित किया जाता है। मातर जगाने के कार्य में गांव के बाहर दैहान में जहां गायों को प्रतिदिन सुबह मालिकों के घर से ढीलकर एकत्र किया जाता है एक गड्ढा खोदकर पुराने हल के टूटे हुए टुकड़े को गाड़ दिया जाता है या गाय के खूंटे को जिसे खोडहर कहते हैं गड़ा देते हैं यहां मातर याने मातृदेवी की पूजा की जाती है। हल के टुकड़े को गाडऩा याने हल विषयक काम समाप्त करना है मातर कार्य में भी बाजार या मेला सा दृश्य उपस्थित रहता है। इस दिन गाय बैलों का श्रंृगार किया जाता है उन्हें अच्छा भोजन कराया जाता है।
दैहान में पकवान खीर पूरी मिष्ठान आदि बनाया जाता है। कुछ राउत लोग बकरों की बलि भी माता को चढ़ाते हैं यहां यज्ञ की तरह  अग्नि में गुड़ घी की आहुति दी जाती है और अपने नाता रिश्ता और इष्ट मित्रों को खिलाया पिलाया जाता है। इस मातर कार्यक्रम में कई बार दूसरे गांव के राउत भी सम्मिलित होते है। कभी-कभी इस कार्यक्रम में भी मड़ई ध्वज रखा जाता है। मातर शब्द वास्तव में संस्कृत के मातृ शब्द का अपभ्रंश है।
मड़ई ध्वज- मड़ई एक बड़े बांस में चारों तरफ बांस की खप्पच्चियों द्वारा बनाया जाता है इसे पन्नी रंगीन कागज की झंडिय़ों व झालरों से सजाया जाता है यह आधुनिक बिजली के टावर की आकृति का नीचे तीन फुट बांस छोड़कर मोटा बनाया जाता है जो ऊपर जाकर कुछ सकरा हो जाता है। दीप स्तम्भ की तरह इसकी के ऊंचाई 15-20 फुट से कम नहीं रहती सब के शीर्ष में मयूर की पूंछ से इसे अलंकृत किया जाता है और मुर्गे के पंख भी बांधे जाते हैं। इसे प्राय: गोंड़ जाति का व्यक्ति उठाए रखता है इसके लिए वह अपनी कमर में एक  गमछा मजबूती से लपेटकर रखता है उसी में इसके नीचे के भाग को अटका दिया जाता है ताकि इस भारी भरकम ध्वज को आराम से संभालकर उठाया जा सके।
मातर जगाने के समय राउत जाति के लोग अपने अस्त्र-शस्त्रों की पूजा भी करते हैं इसे अखाड़ा कहा जाता है। देवउठनी एकादशी को अन्य सैनिकों की तरह राउत जाति के लोग भी वीर वेशभूषा धारण करते हैं। अपने देवताओं की होम धूप से पूजा करने के बाद कभी-कभी कुछ राउतों पर देवता चढ़ आता है इसे काछन कहा जाता है,  इस समय राउत मदोन्नमत स्थिति में रहता है, राउत नाच के समय राउत अपने सिर पर पगड़ी बांधता है और उसे रंग-बिरंगी पन्नियों से अथवा गेंदा के फूलों की माला लपेटकर सजाता है।
ऊपर मोर के पंखों के डंठल से बनी फुंदना लगी कलगी खोंसता है। माथे पर लाल सिंदूर से टीका लगाता है मुंह को वृंदावन से लायी पीली मिट्टी से रामरज कहते हैं प्रसाधित करता है कभी-कभी अभ्रक से भी चमकाता है आंखों में काजल आंजता है गालों को भी हल्के लाल रंग से सजाता है या उसमें काजल की छोटी-छोटी बूंदे लगाता है। गले में गेंदा फूल या कागज के रंग-बिरंगी फूलों की माला पहनता है अपने वक्ष स्थल पर कवच की तरह कौडिय़ों से सज्जित वस्त्र पहनता है इसके नीचे चकमकी कपड़े या मखमल का सलूखा, कुरता, बंडी जो छींटादार होता पहनता है। कमर के नीचे चुस्त कसी हुई घुटने तक ऊंची धोती पहनी जाती है। पैरों में जूते मोजे के ऊपर पहने जाते हैं।
वीर वेश धारण करने के क्रम में राउत अपने कमर में कमरपट्टा, हाथ के बाजुओं में बाजू बंध तथा कलाईयों में भी पट्टीनुमा कौडिय़ों का बना पट्टा बांधता है। पीठ पर मयूर पंख से बना झाल बांधता है हाथ में खुली तलवार की तरह लाठी धारण करता है और बाएं हाथ में फरी या ढाल रखता है।
इस शौर्ययुक्त वेशभूषा वाला वीर सैनिक राउत क्योंकि इस अवसर पर नाचने निकलता है। इस लिए पैरों में घुंघरु और कमर में भी बड़ी-बड़ी घंटिया बांधता है। इसका पद चालन भी सिपाही की तरह होता है।
सैनिक वाद्य के स्थान पर गड़वा बाजा होता है जिसमें ढोल, निसान, टिमकी, ढपली, मोहरी, डफला, मांदर, गुरदुम दुतहरी झांझ, मजीरा आदि वाद्य होते है आजकल इसे ज्यादा श्रंृगारिका बनाने के लिए परियां भी नाचते हुए साथ चलती है जो वास्तव में पुरुष भी होते हैं, नारी वेशभूषा धारण किये रहते हैं। नाचने वाले राउतों का एक समूह चार पांच से लेकर तीस-चालीस तक कुछ भी हो सकता है, इसे गोल कहते है।
देवउठनी एकादशी को ही राउत लोग साप्ताहिक बाजार में जाकर बाजा वालों को ठेके पर लेते है। राउत नाचा का पूरा सरजाम युद्ध जाती सैनिक टोली की ही तरह ही रहता है। राउत जो दोहा नाच के मध्य में पारते हैं वे कबीर, रहीम, तुलसीदास आदि के होते हैं और कभी-कभी स्वरचित  आशु पद भी होते है जो मौके की नजाकत के अनुसार होते हैं। साप्ताहिक बाजार में जाकर राउतों का यह दल पूरे बाजार की परिक्रमा करता है, जिसे बाजार बिहाना कहा जाता है।
आजकल बाजा वाले बहुत महंगे हो गये है अतएव इनके लिए पैसे की व्यवस्था करने राउतों का गोल अपने-अपने किसानों व मालिकों के घर-घर जाकर नाचता है और उनसे धोती तथा नगदी पुरस्कार प्राप्त करता है इसी कारण अब राउत नाच कार्तिक पूर्णिमा के बाद भी पौष पूर्णिमा तक चलता रहता है। राउत नाचा के दिनों में राउतों का दैनिक कार्य पशुओं को चराना और दुहना इत्यादि बंद रहता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि यह सारा दृश्य शौर्यमय रहता है इन्हीं दिनों वे अपने सारे त्यौहार गोवर्धन पूजा इत्यादि मना लेते हैं।
साभार रऊताही 2016

जन जागरण का प्रतीक अहीर नृत्य रऊताही महोत्सव

छत्तीसगढ़ अंचल का लोकप्रिय मड़ई महोत्सव जिसे रौताही के नाम से जाना पहचाना जाता है। रौताही-पौराणिक ,ऐतिहासिक, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परम्पराओं, रीति-रिवाजों का अनूठा संगम राष्ट्रीय एकता स्नेह एवं सद्भाव का प्रेरणा स्त्रोत है साथ ही भारतीय ग्राम्य जीवन के उल्लास स्नेह उमंगों का प्रतीक वीरत्व शिवत्व एवं शौर्य प्रदर्शन का एक श्रेष्ठ सफल माध्यम है।
इस महोत्सव में मानव अपनी आंतरिक खुशियों की लहर से समस्त वातावरण को रसमय तन्मय कर देना चाहता है। ऐसे समय में जिधर देखें उधर प्रकृति पूरी उल्लसित हो झूमने लगती हैं, धरती उमंग में फूल उठती है शीतल मंद सुगंध त्रिविध मलय समीर लहराने लगता है। छैल-छबीले, रसीले श्रृंगार प्रिय नवयुवकों व गोपाल बन्धुओं के पाँव थिरकने लगते है।
दसों दिशाओं में झमकते घुंघरुओं की झनकार कमर बंध जलाजल की आवाज से हर ग्राम गली चौराहा चौपाल व तुलसी बिरवा से सुसज्जित आंगन शब्दायमान हो रसमय होने लगता है, मन भ्रमरों के मौन अधर गुनगुना उठते हैं।
वन्य प्रान्तर पुण्यमयी भूमि नव वधु सी पल्लवित पुष्पित सुरभित हो मुस्कराने लगती है। विहम वृन्द आनंदित हो कलरव करते प्रफुल्लित नजर आते हैं। धरा से गगन तक खुशियां ही खुशियां प्रेम में नया उल्लास गीत संगीत में विशेष माधुर्य एवं तन मन में नई उमंग छाने लगती है। सूर दुर्लभ मानवीय भौतिक, आत्मिक सुख सौंदर्य से युक्त रावत लोक नृत्य में भगवान श्रीकृष्ण के रास नृत्य स्मृति सुमन के सदृश्य रोम-रोम में सुवासित होने लगता है।
इसी तरह लोक नृत्यों में गीत-संगीत एवं वाद्य स्वरों की मनभावनी पतित पावनी त्रिवेणी प्रवाहित हो तन मन प्राणों में अकथनीय आनंद की सृष्टि रच देती है।
छत्तीसगढ़ का लोक मानस भावात्मक-लयात्मक एवं उल्लासमय वातावरण में परमानंद का प्रत्यक्ष अनुभव करता है। ग्रामवासी अपने इस सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा के लिये सदैव सजग समर्पित रहते हैं।
रावत नृत्य के अतिरिक्त छत्तीसगढ़ अंचल में करमा नृत्य, सुआ नृत्य, ददरिया गीत, भोजली गीत नृत्य, जंवारा गौरा नृत्य, डंडा नृत्य, पंथी नृत्य, पंडवानी नृत्य, डीड़वा नृत्य, बांसती फगुआ नृत्य, देवार नृत्य एवं झूमर नृत्य अपनी बहुरंगी सांस्कृतिक विशेषताओं के कारण लोक जीवन लोक साहित्य में विशिष्ट स्थान प्राप्त कर भारतीय समाज की महत्ता को उजागर करने के लिए कृत संकल्पित है।
लोक नृत्यों में लोक मंगल की पवित्र भावना राष्ट्रीय प्रेम का संदेश विद्यमान है।
मेरे परम आदरणीय गुरु देव श्री विद्या भूषण मिश्र के अनुसार- छत्तीसगढ़ अंचल अपनी लोकप्रिय संस्कृति परम्पराओं के लिए विश्वविख्यात है। बहुचर्चित है उसके लोक गीतों, लोक नृत्यों और लोक संगीत में उसकी सभ्यता,  संस्कृति, जागृति, धार्मिक विचार भावनाओं की मधु गूंज आती है।
छत्तीसगढ़ में रावत जाति के लोग सबसे प्राचीन उत्सव जीवी नृत्य धर्मी, संगीत प्रेमी, सत्य व्रत नेमी होते हैं। रावत नाच कार्तिक अमावस्या और कार्तिक पूर्णिमा से प्रारंभ होकर निरंतर चलता रहता है। दीपावली पर्व पर दीपोत्सव नृत्य को देवारी नाचा के नाम से जाना जाता है।
लक्ष्मी पूजा, गोवर्धन पूजा से अहिरा देव शक्ति अर्जित कर आंतरिक बल, शौर्य, साहस, वीरता का भाव संजोता है और अपना सन्मार्ग सिद्ध लक्ष्य प्रशस्त करता है। गोवर्धन पूजा के पश्चात गाय बैलों के गले में पलाश वृक्ष की छाल जिसे आंचलिक बोली में बांक कहते हैं, से निर्मित सुहाई बाँधता है और अपने मालिकों-किसानों के धान की कोठी में गउ गोबर से धन देवता कुबेर का चित्र बनाते हुए मालिक के दीर्घायु जीवन की कामना करते हुए गऊ माता से प्रार्थना करता है-
बांधेव मया सुहाई बंधना, धन लक्ष्मी तोर रुप हो।
देव सुघर आशीष जमो ल, झन रहिबै तंय चूप हो।
इसके पश्चात मालिक उसे अपनी तरफ से खुश होकर निछावर पुरस्कार भेंट स्वरूप रुपया देता है। मान-सम्मान करता है। मगन मन नर्तक रावत भी सद्भाव आशीष देता है-
जइसे मालिक लिये दिये, तइसे झोकौं आशीष हो।
अन्न धन में भंडार भरे तोर, जीवौ लाख बरीस हो।
अहिरा निर्भय हो पवित्र मन से लोक मंगल की कामना से ओत प्रोत है। वह अपने साथ सबका कल्याण चाहता है। देवउठनी एकादशी के दिन ही गन्ने का मंडपाछादन कर भगवती तुलसी विवाह व भगवान शालिग्राम की पूजा अर्चना की जाती है। गाय बैलों को खिचड़ी खिलाते आरती पूजा की जाती है। आंगन में पूरे चौक की चमक से मन प्रसन्न हो उठता है। हिन्दू लोग अपने समस्त मांगलिक शुभ कार्यों का शुभारंभ इसी दिन करके जीवन सफल मनाते है। अहिरा अपने मालिक को गाय बैलों के उत्तरदायित्व सौंप कर स्वतंत्र  रुप से नृत्य करने में व्यस्त-मस्त हो जाता है।
अरररा भाई हो, हो भाई हो, एकात्म समवेत स्वर लहरी से नृत्य प्रारंभ होता है। नृत्य करते समय रावत लोग अपने आत्मिक विभिन्न भावों गुणों से युक्त कबीर, तुलसी, सूर, मीरा, रहीम एवं मौलिक लोकांचलिक पारम्परिक दोहे बोलकर अपने हृदय के सद्भाव, भक्ति भाव एवं स्नेह को वाणी द्वारा व्यक्त करते हैं। बाएं हाथ में फरी, गुरुद ढाल व दाएं हाथ में तेंदू की लाठी लिए नृत्यांगना, मड़ई महोत्सव, रौताही बाजार में उतर आते हंै। इनकी तेन्दू की लाठी मानो बज्र शक्ति, ब्रह्मास्त्र जैसा प्रणाधार सी लगती है अहिरा लोग सोते जागते उठते बैठते, खाते पीते, हर समय अपने सहोदर भाई सदृश्य लाठी को एक पल के लिये अलग नहीं करते। कुल देवता ठाकुर देव, दूल्हा देव, ठकुराईन, सोनइता, ठगहा देवता, रक्त चंडी, महामाया, सारंगढिऩ, गौराईया,  बजरंगबली, परउ बइगा, अखरा के गुरु बैताल, नौ सौ योगनियां, सिद्ध बाबा महादेव वृषभ, संडहादेव आदि देवी देवता इनके जगत प्रसिद्ध है।
अखरा सुहई काछन मातर जागरण, बाजार बिहाना और मड़ई रौताही महोत्सव रावत नृत्य के महत्वपूर्ण अंग माने जाते हैं।
नृत्य करने  की भाव भंगिमा बहुरंगी, वेशभूषा की चमक-दमक से समस्त वातावरण जगमगा उठता है। राम रज अभ्रक जरी से सुसज्जित चमकते-दमकते चेहरे माथे पे श्वेत व लाल रंग की सुर्खी चंदन टीका, लाल होंठ, गुलाबी गाल, घुंघराले काले घने झुलुप दार मनमोहक बाल, हृष्ट-पुष्ट शरीर, मदमस्त चाल, सिर पे रंग बिरंगी कलगीदार तुर्रा लच्छेदार पगड़ी। बाजू बंद, माड़ी घुटने व कमर तक कसी चुस्त धोती, पैरों  में मोजा व कपड़े का जूता, घुंघरुओं की छमाछम झनकार कुहुक के साथ दोहे की कर्णप्रिय मिठास, गुदरुम गंधर्व बाजे की आवाज, सज धज कर मस्त नाचते गाते राउतों के गोल, जिसे देखकर जनमानस का मन मुग्ध हो उठता है। लगता है मानो ग्राम्यांचल की सहज सूर संस्कृति कलात्मक अभिव्यक्ति ने शहर को भी भाव विभोर कर दिया है।
अहिरा नृत्य में एकता, विश्वबन्धुत्व, प्रेम की अभिव्यक्ति, समर्पण की शक्ति, उत्साह-उमंग, शौर्य एवं भातृत्व भाव का परिचायक लोक संस्कृति की जीवंतता का सजीव उदाहरण जन जागरण सूर्योदय स्नेह का अमर संदेश है जिसे जीवित अक्षुण्ण बनाये रखने हम सब का परम धर्म एवं नैतिक
कत्र्तव्य है।
 साभार रऊताही 2016

छत्तीसगढ़ के लोकनृत्यों में 'राउत नृत्य'

मनुष्य अपनी आत्माभिव्यक्ति हंसकर, रोकर, गाकर या नाच कर व्यक्त करता है। वह जब अत्यधिक प्रसन्न हो जाता हैं खुशी से भर उठता है तब उसके अंगों में हलचल होने लगती है। पैर थिरकने लगते हैं हाथ हरकत करने लगते हंै। पूरा शरीर झूमने लगता है। इस प्रकार की आत्माभिव्यक्ति को हम नृत्य कहते हैं। नृत्य के द्वारा मनुष्य का मन दुख, कठिनाईयों जीवन की जटिलताओं से दूर हो आनंद के प्रवाह में प्रवाहित होने लगता है।
लोक जीवन की भावुकता को अभिव्यक्त करने वाली प्रकृति से प्रभावित बंधनहीन उन्मुक्त नृत्य को लोक नृत्य कहा जाता है। लोक नृत्य वस्तुत: प्राकृतिक नृत्य है क्योंकि जब मनुष्य ने हवा में पेड़-पौधों को हिलते और इठलाते देखा तो वह भी आनन्द विभोर होकर अपने शरीर को उसी प्रकार हिलाने-डुलाने लगा।
हिलाने-डुलाने से इस क्रिया ने धीरे-धीरे नाच का रुप धारण कर लिया और समय बीतने पर हम उसे लोकनृत्य कहने लगे। लोक नृत्य में सरलता, सर्वगम्यता अप्रत्यनशील सरलता स्वसर्जित वैविध्य में एकरुपता आदि विशेषताएं होती हं। लोक नृत्य में जन जीवन की परम्परा, उसके संस्कार तथा लोगों का आध्यात्मिक विश्वास होता है। लगभग सभी लोक नृत्य सामूहिक होते हैं जो शास्त्रीय नृत्यों की तरह शास्त्रीय बंधनों और सीमाओं से परे होते हैं। शास्त्रीय एवं लोकनृत्यों में वही भेद है जो सीमाओं से आबद्ध तालाब तथा स्वच्छंद प्रवाहमान सरिता में है।
भारत  के चप्पे-चप्पे में अनुगूंजित लोक नृत्य ने लोक जीवन के हृदय को सुरक्षित रखा है। इस संदर्भ में श्री जवाहरलाल नेहरु के विचार उल्लेखनीय है- 'यदि मुझ से कोई पूछे कि भारत की प्राचीन संस्कृति और उसकी जनता के स्फूर्ति पूर्ण जीवन और कला प्रेम का सबसे सुन्दर चित्रण कहाँ होता है तो मैं कहूंगा कि हमारे लोकनृत्यों में।
छत्तीसगढ़ ने हमेशा लोककलाओं जिनमें जनता के प्राणों का स्पन्दन है को जीवित रखा इसलिए यहाँ की लोक संस्कृति जीवित रही। यहां के लोकनृत्य एवं लोकगीत यहां की संस्कृति के सच्चे प्रतीक हैं। छत्तीसगढ़ में अतीत गौरव के प्रतीक लोक नृत्य किसी ग्राम उत्सव के समय प्राय: अपने पुरानेपन में भी सौन्दर्य को समाए मानव मन को आनन्दित एवं आकर्षित किये रहते हैं। डॉ. कुन्तल गोयल ने लिखा है -'छत्तीसगढ़ लोक नृत्यों की भूमि है। लोकनृत्य यहाँ के लोक जीवन के आधार हैं। प्रकृति के उन्मुक्त प्रागंण में विचरण करने वाले इन प्रकृति पुत्रों का वास्तविक स्वरूप इनके नृत्य में ही परिलक्षित होता है। सच कहा जाए तो नृत्य के बिना इनकी भक्ति अधूरी है, इनके कर्म अधूरे हैं और जीवन अधूरा है।
छत्तीसगढ़ के लोक मानस ने गीत और नृत्य के माध्यम से अपने मन में उत्पन्न भावनाओं को अभिव्यक्ति प्रदान करने में विशिष्ट योगदान दिया है यहां के जन जीवन में नृत्य इस प्रकार  घुलमिल  गया है कि इसे कभी अलग नहीं किया जा सकता।
इनके रीति रिवाज इतने अधिक है कि प्रत्येक माह में एक न एक त्यौहार आता है और इस अवसर पर मानो नृत्य की घटा छा जाती है और गीत की वर्षा होने लगती है। इनके अनेकानेक त्यौहारों को नृत्य प्रधान त्यौहार कह सकते हैं-
छत्तीसगढ़ में विभिन्न लोकनृत्य प्रचलित है वे इस प्रकार हैं-
(1) करमा नृत्य (2) सुआ नृत्य (3) डंडा नाच (4) पंथी नृत्य (5) गोरा नृत्य (6) जंवारा तथा माता सेवा नृत्य (7) देवार नृत्य (8) गेड़ी नृत्य (9) सरहुल नृत्य (10) झूमर नृत्य (11) गवर नृत्य (12) नाचा (13) डोमकच नृत्य (14) डिड़वा नृत्य (15) रहस नृत्य (16) बार नाच (17) होलेडाँड़ नृत्य (18) दहिकाँदो नृत्य (19) वसुदेव व किसबिन नाच (20) राउत नाच
राउत नाच-
अब वांछित लेख 'राउत नाचÓ का विवरण इस प्रकार है- राउत नाच छत्तीसगढ़ का एक प्रमुख नाच है। इस नाच को राउत जाति के लोग बड़े उत्साह के साथ नाचते हैं। यह नृत्य कार्तिक एकादशी से प्रारंभ हो जाता है। इस नृत्य को प्रारंभ करने से पूर्व राउत जाति के बालक युवक व प्रौढ़ विभिन्न प्रकार के आकर्षक पोषाक धारण करते हंै। साज सज्जा के लिए पीले रंग का रामरज फूलों अथवा कागज के फूलों की माला सिर पर लपेटते हंै।
आँखों में रंगीन चश्मा, घुटनों तक मोजा, पैरों में जूते चुस्त धोती बाँधे व चुस्त कमीज व जाकेट पहन कर वे साक्षात वीर रस के अवतार प्रतीत होते हैं। हाथों में सुशोभित लाठी व दूसरे हाथ में ढाल बाँधे हुए अपने परंपरागत आन-बान शान का प्रतिनिधित्व करते हैं।
ये अपने हाथ में लाठी लिए हुए वादक गण को घेरकर नृत्य करते हैं। नृत्य करते हुए ये घर-घर जाते हैं और नृत्य के बदले गृह स्वामी से धन-वस्त्र आदि प्राप्त करते हैं। राउत नाच के पूर्णता विभिन्न सोपानों को पार करने पर ही प्राप्त है, वे सोपान इस प्रकार है-
1. अखरा-
अखरा शब्द हिन्दी के 'अखाड़ाÓ शब्द का अप्रभंश है। शौर्य और श्रृंगार के संगम राउत नाच की शुरुआत अखरा से की जाती है। राउत नाच में राऊतों को घंटों नाचना व शस्त्र संचालन करना पड़ता है। अखरा में वे बारंबार अभ्यास कर नृत्य कुशलता व देर तक नाचने की शक्ति प्राप्त करते हैं। अखरा, ग्राम के बाहर दइहान पर प्रतिस्थापित किया जाता है। कार्तिक एकादशी के समय इसे गोबर से लीप कर आम पत्तों के तोरण आदि से सजाया जाता है चारों कोने में पत्थर गड़ा कर देवताओं की स्थापना प्रतीक रुप में करते हैं। देव स्थापना के बाद नृत्य अभ्यास प्रारंभ हो जाता है।
 (2) देवाला -
राउत अपने निवास स्थान में एक पूजा कक्ष विशेष रूप से रखता है इसे ही देवाला कहते हैं। देवाला में मिट्टी से गोल या चौकोर आकृति का छोटा चबूतरा बना कर इसमें दूल्हादेव की स्थापना करके कुछ गोलाकार या त्रिशंकु पत्थर स्थापित कर दिये जाते हैं। देवाला में ही विभिन्न प्रकार के अस्त्र शस्त्र रखकर उनको नित्य पूजा की जाती हैं।
(3) काछन-
राउत देवालय में पूजा करने के पश्चात अस्त्र से सुसज्जित होकर एक विशेष भाव में भावाविभूत होकर बाहर आंगन में आता है। उस समय उसके शरीर में इष्ट देव आवाहित होकर विद्यमान रहते हैं, परिणामत: वह रोमांच से परिपूर्ण होता है इसी भाव को 'काछनÓ कहते हैं। काछन प्रत्येक राउत पर नहीं चढ़ता। यह कोमल एवं अत्यधिक भावानुभूति ग्रहण करने वाले राउत पर ही चढ़ता है।
(4) सुहई-
सुहई पलाश के धागे से बना हुआ तीन या पांच तागों से कलात्मक ढंग से गुथी हुई माला होती है। कार्तिक एकादशी के दिन चन्द्रोदय होते ही राउत अपने मालिकों एवं किसानों के घर जाता है और दुधारु गायों के गले में सुहई पहनाता है और आशीर्वचन के रूप में यह दोहा कहता है-
चार महीना चरायेंव खायेंव मही के मोहरा
आइस मोर दिन देवारी, छोड़ेंव तोर निहोरा।
(5) सुखधना-
सुहई बाँधने की प्रक्रिया के बाद राउत गृहस्वामी के अन्नागार (धान की कोठी) में सुखधना देने पहुंचता है। सुखधना का अर्थ है कि सुख समृद्धि, अन्न धन देने वाला। राउत एक थाली में सेम पत्ती चांवल, चंदन दीपबाती फूल और सुगंधित धूप लेकर कोठी के पास पहुंचता है और धनदेवी का चित्र बनाकर पूजा करता है। तत्पश्चात यह दोहा कहता है।
    अंगना लीपे चक चंदन-हरियर गोबर भीने।
    गाय-गाय तोर सार भरे बढ़हर है सै तीनों।
(6) राउत नाच एवं आशीष-
राउत दल सुसज्जित हो एक स्थान पर एकत्र होते हैं। तत्पश्चात घुंघरु की सुमधुर ध्वनि की झंकार गड़वा बाजे के गुदगुदरुम का मादक स्वर और दोहा पारने की वीरोन्मत शैली का प्रदर्शन करते हुए गलियों को निनादित करते हुए अपने मालिक के यहां पहुंचते हैं। मालिक के घर के सामने पहुंचते ही संबंधित राउत अपने आगमन की सूचना दोहा पार कर देता है-
ऐसन झन जानबे मालिक कि अहिरा दौड़ आये हो
बरीष दिन के पावन मं मुख दरसन बर आये हो।
वे स्वामी के आँगन में नृत्य प्रस्तुत करते है और नृत्य समाप्ति के पश्चात गृहस्वामी अपने आर्थिक स्तर के अनुरुप अन्न-वस्त्र एवं मुद्रा प्रदान करता है। इस समय आशीर्वाद स्वरुप राउत अपनी भावाभिव्यक्ति प्रगट करता है-
जइसे मालिक लिहे-दिहे तइसे देबो असीस।
अन्न धन ले घर भरै-जीओ लाख बरीस।।
(7) मड़ई- राउत नाच के अवसर पर स्थापित की जाने वाली मड़ई का बहुत महत्व है। यह राउत नाच का प्रमुख अंग है। इसलिए मड़ई राउत नाच का पर्याय बन गया है। मड़ई का अर्थ मंडप होता है।
भारतीय संस्कृति में प्रत्येक पवित्र कार्य पर मण्डप का उपयोग होता है। राउत नाच श्रीकृष्ण की स्मृति में किया जाने वाला नृत्य है। मड़ई, शाल्मली, बांस जैसे वृक्षों से बना 10-15 फुट का स्तंभ होता है। इसे रंग बिरंगी फूलों व कागजों से सजाया जाता है। इसके शीर्ष पर मयूर पंख व पलाश बाँधकर उसके साथ श्रीकृष्ण का चित्र नारियल व पूजा का सामान लटका देते है। मड़ई का निर्माण निषाद या गोंड़ जाति के लोग करते हैं तथा बनाने वाला ही मड़ई को लेकर दल के साथ चलता है। एक मड़ई के निमंत्रण पर अन्य मड़ईयां अपने दल के साथ पहुंच जाते हैैं। दल के सभी सदस्य नृत्य करते हुए इस मड़ई की परिक्रमा करते हंै। विभिन्न दलों के आ जाने से मेला सा लग जाता है इसलिए इस आयोजन को मड़ई मेला भी कहा जाता है।
(8) बाजार परिभ्रमण- बाजार परिभ्रमण राउत नाच का अंतिम सोपान है। इसे बाजार बिहाना भी कहते हैं। स्थानीय साप्ताहिक बाजार के दिन को ध्यान में रखकर ही मड़ई मेला आरंभ होता है। राउत नाच के विभिन्न दलों में प्रतिस्पर्धा होती है। उक्त क्रमबद्ध प्रक्रिया का परम्परागत रूप से आज भी पालन किया जाता है।
राउत नाच में लोक गीतों का संसार
राउत अपने उत्सव कार्तिक अमावस्या से मड़ई समाप्ति तक निरंतर दोहे कहते जाते हैं। इन दोहों में गंभीरता, कथा, जन जीवन अपने व्यवसाय से संबंधित वस्तुओं का वर्णनात्मक चित्रण व्यक्त करता है। छोटे-छोटे दोहों में बड़ी से बड़ी बात कह दी जाती है।
राउत दोहों में प्रमुखत: पर्व उत्सव से संबंधित जातिगत कार्य से संबंधित कवियों से संबंधित मौलिक एवं पारम्परिक दोहे, आधुनिकता से संबंधित दोहे आते है। इनका संक्षेप में क्रमानुसार उल्लेख इस प्रकार है-
पर्व उत्सव से संबंधित दोहे-
कृष्ण बाजत आवय बाँसुरी उड़ावत आवय धूल
नाचत आवय कन्हाई खोंचे कमल के फूल
लागत महीना भादों के आठे दिन बुधवार हो
रुप गुन महि आगर ले के मथुरा अवतार हो।
जातिगत कार्य से संंबंधित दोहे
तोर मां चदन रुख वजोर माढ़े दइहान हो
डारा-डारा माँ पंडरा बछुरा पाल्हा बगरगय गाय हो।
खाय दूध धौरी के बइहां रखे भोगाय
चार कोरी तोर सेना बर राउत बइहां देहय उड़ाय।
संत कवि से संबधित दोहे
चित्रकूट के घाट में भई संतन की भीर
तुलसीदास चंदन घिसै तिलक देय रघुवीर।
मौलिक एवं पारम्परिक दोहे
बरीख दिन के पावन मां संगी मुख दर्शन बर आये हो
ऐसन देवारी नाचे संगी जीव रहे कि जाय हो।
सदा भवानी दाहिनी सम्मुख रहे गनेश
पांच देव रक्षा करें ब्रह्मा, विष्णु, महेश।
5 आधुनिकता से संबंधित दोहे
सतयुग त्रेतायुग द्वापर बीतगे धरती घलो बुढ़ागे
देवता धामी मन पथरा लहुटगे, नीति धर्म गंवागे।
पंच परमेश्वर बनिन अन्यायी मचगे हा हा कारगा
जनता मन अनजान बनिन अठ नेता मन बटमारगा।
6. विविध दोहे
चिरई मां सुंदर पतरेंगवा सांप सुघर मनिहार
रानी मां सुघर कनिका मोहत हे संसार।
संगत करले साधु के भोजन करले खीर
बनारस मां बासा कर ले मरना गंगा तीर।
राउत नाच ऐसा नृत्य हैं जिसमें श्रृंगार रस और वीर रस का अद्भुत संगम है। अपनी विशेषता और आयोजन की विशालता के कारण राउत नाच ने छत्तीसगढ़ के लोक नृत्यों में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया है। छत्तीसगढ़ में राउत नाच जितने उल्लास और व्यापकता के साथ प्रदर्शित होता है उतना भारत वर्ष ही क्या पूरे विश्व में शायद ही कोई लोक नृत्य प्रदर्शित होता हो।
इस राउत नाच में निहित मनोरंजन, शिक्षा, विकास एवं सभ्यता की झलक स्पष्ट रूप से दर्शकों को आनंदित व लाभान्वित करती है। छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध इस लोक नृत्य ने अपनी विशिष्टता के कारण लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। लोगों का यह आकर्षण छत्तीसगढ़ की कला और संस्कृति के प्रति अनुराग को प्रदर्शित करता हैं जो कि राष्ट्रोत्थान का एक शुभ चिह्न है।
साभार रऊताही 2016

छत्तीसगढ़ की संस्कृति में रावत नाच

रावत नाच को एक महोत्सव का स्वरुप देने एवं उसे क्रमबद्ध करने के पीछे हमारी मंशा यही रही है कि इस लोकनृत्य का पारंपरिक एवं कलात्मक स्वरुप मुखर होकर सामने आये।
समाज में बरसों तक बने रहने वाले आपसी झगड़ों के कारण अनेक यादव परिवार आर्थिक चिन्ता के शिकार होते जा रहे थे। रावत नाच जो कि समूह में नाचा जाने वाला नृत्य है शस्त्र एवं श्रृंगार का अद्भुत नृत्य है वह विवादों एवं कुरीतियों से प्रभावित हो रहा था। समाज के पढ़े लिखे यादव समाज के लोग उन्हीं बुराईयों के कारण नृत्य में भाग नहीं लेते थे। आपसी झगड़ों एवं विवादों को दूर करने के लिए समिति का गठन किया गया इसी समिति के फलस्वरुप यादव समाज में बैर भाव लगभग खत्म होता जा रहा है और भाई चारे की भावना विकास हो रहा है।
रावत नाच के कलात्मक एवं पारंपरिक स्वरुप को उजागर करने के लिए व्याप्त बुराईयों को दूर करने के लिए तथा देश में इस लोकनृत्य को सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए अहीर नृत्य कला परिषद देवरहट के तत्वावधान में अनेक निर्णय लिए गए। समिति के संचालक के रुप में डॉ. मन्तराम यादव को सर्वसम्मति से स्थान दिया गया।
श्री मंतराम यादव जी प्राथमिक शाला अमेरी में सहायक शिक्षक के पद पर कार्यरत हैं व उनमें समाज कल्याण की भावना है और यादव समाज का नाम उजागर करने में तन-मन-धन से त्याग की भावना से समाज के कार्य में जुटे रहते हैं।
छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति में रावत नाच
छत्तीसगढ़ में मिलने वाली विभिन्न जातियों में रावत जाति का विशिष्ट स्थान है। यहां के लोक जीवन और लोक संस्कृति को जितना इस जाति में प्रभावित किया है संभवत: उतना किसी अन्य ने नहीं, यह जाति रावत, अहीर, यादव, यदुवंशी, पहटिया आदि अनेक नामों से अभिहित है। रावत शब्द अपने साथ एक पीछे ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक परंपरा लिए हुए है। शब्दकोष से पता चलता है कि राऊत का अर्थ राजा और राऊत का अर्थ राजवंश कोई व्यक्ति क्षत्रिय वीर पुरुष अथवा बहादुर दिया गया।
अत: यह सिद्ध हो जाता है कि गोचरण एवं दुग्ध दोहन आदि की अपनी रीति को लिए हुए थे, रावत पूर्ण युग में राज्य का संचालन करते रहेंगे और राजवंशी है। रावत की उत्पत्ति राव से हुई प्रतीत होती है जब यदुवंशी नरेश थे तब से यह नाम आज तक प्रवाहित है।
स्पष्ट है कि यदुवंशियों के सभ्य ही रावतों का संबोधन होता रहा है। यही कारण है कि बांसगीतों में नायक रावत राजा या राजवीर के रुप में विख्यात है इनके राज्यकाल में प्रजा सुखी थी और दूधो नहाओं से अलंकृत थी। यह तथ्य बांसगीतों में संरक्षित है। रावतों की अलौकिक वीरता का निदर्शन आज हमें भले ही अतिश्योक्ति पूर्ण या विचित्रता से युक्त लगते हों लेकिन यह उनकी पूर्वजों में श्रद्धा और अलौकिक वीरता के प्रति भक्ति भावना को ही चरितार्थ करती है।
रावत नाच लोक कला एवं साहित्य की दृष्टि में
रावत जाति के संबंध में अपने विचार व्यक्त करतेहुए कह रहा हूं कि छत्तीसगढ़ की यह रावत जाति भी बड़ी रहस्यमय है इसने छत्तीसगढ़ लोक जीवन को कई प्रकार से प्रभावित किया है राजपूत का अपभ्रंश ही रावत हुआ है।
ये अपने को कृष्णानुयामी अमीर वंशज अहिरा कहते हैं मानस में तुलसीदास ने भी बहादुर के अर्थ में रावत शब्द का प्रयोग किया है।
निज निज साजु समाजु बनाई।
गुह राउतहि जोहोरे जाई।।
छत्तीसगढ़  के रावत स्वयं को यदुवंशी मानते हैं और यादव कहलाकर गर्व का अनुभव करते है। प्रसिद्ध पौराणिक पुरुष यदु से यादव वंश चला। वैवश्वत मनु के दस बेटे-बेटी थी इसमें एक इला थी, इला का विवाह सोम या बुध के साथ हुआ जिसके बेटे पुरुरवा ने ऐलवंश से यादव वंश निकला ।
रऊताही 1994 से साभार