Tuesday 19 February 2013

रावत नाच और उसका स्वरूप

रावतनाच- रावत नाच को राव नृत्य भी कहते हैं। इसकी व्युत्पत्ति राजपुत्र से हुई पौराणिक समय में या काल में यह नृत्य राजपुत्रों द्वारा किया जाता था यही शब्द परिवर्तित होकर राजपूत्र से राउत और अन्त में रावत का प्रयोग किया गया।
रावत लोग अपने को श्रीकृष्ण का वंशज मानते हंै तथा कृष्ण को अपना आराध्य देव, इसलिए जो कार्य कृष्ण किया करते थे अर्थात गाय चराना, बांसुरी बजाना, दूध, दही, माखन खाना तथा चुराना आदि उसी प्रकारके कार्य ये लोग भी करते हैं और अपने को यदुवंशी कहते हैं।
यादव सम्पूर्ण भारत देश में है तथा इन्हें लोग विभिन्न नाम से बुलाते हैं यादव, अहीर, ग्वाला, चरवाहा, बरदिहा (गायों को झुंड के झुंड लेकर जाने वाला) गहिरा, देसहा, पहटिया, ठेठवार आदि कहा जाता है। जातीय दृष्टि से रावत लोग उच्च माने जाते हैं तथा इनकी गणना सवर्णों में की जाती है तथा समाज में इन्हें सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। प्राय: इनके रंग और शरीर तथा हृष्ट-पुष्ट होने के कारण भी इन्हें लोग पसंद करते हैं और बहुत तीक्ष्ण बुद्धि होती है, ये चतुर होते हैं।
राउत नाच को कई नामों से पुकारते है नाचा, मड़ई, नाच आदि। राउत नाच कार्तिक मास के आसपास प्रारंभ होता है विशेषकर गोवर्धन पूजा से प्रारंभ होकर पन्द्रह या धीरे-धीरे महीना दिन तक चलता है। यादव लोग गांव या शहर सभी जगह अपना शौर्य प्रदर्शन कर नृत्य प्रस्तुत करते हंै।
कार्तिक महीना हिन्दुओं का सबसे उत्तम एवं पावन महीना माना जाता है। विशेष बात यह है कि कार्तिक में लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है ताकि धन-धान्य से घर भरा रहे, दूसरे दिन गोवर्धन अर्थात् कृष्ण की पूजा करते हैं क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण गोवर्धन पर्वत को अपने हाथ की सबसे छोटी उंगली जिसे कनिष्का कहते हैं पर उठाया था और सारे गांव वालों की रक्षा की और तीसरे दिन भाई दूज के दिन बहीन के घर जाकर तिलक  लगवाते हैं और आशीर्वाद प्राप्त करके वह नृत्य करने के लिए प्रस्थान करता है।
इस आनन्द और उल्लास को व्यक्त करने के लिए राउत टोलियां घर-घर जाकर (अर्थात् राउत उसी घर में जाता है जिसकी गायों को दूहता या चराता है) मालिकों से मिलता है और अपनी रोजी-रोटी देने वाले पशुओं से मिलकर उनकी सेवा करता है अर्थात उन पशुओं के सींगों में तेल लगाता है फिर उनके गले में सुहई (माला) बांधता है और गाय के कोठा (पशु बांधने या रहने का स्थान) में जाकर पूजा करता है तथा पशुओं की साल भर सुरक्षा की कामना ईश्वर से करता है । सुहई एक प्रकार से पशुओं के लिए रक्षा कवच माना जाता है। इसके पीछे यह मान्यता है कि यह सुहई साल भर भूत-प्रेत, डायन आदि आसुरी शक्तियों से पशुओं की रक्षा करती है। गृह स्वामी इसके बदले में धान या रूपए देकर इन यादवों का उत्साह वर्धन करता है।
इन सारी रस्मों को पूरा करने के बाद रावतों की टोली आंगन में एकत्र होकर नृत्य प्रस्तुत करते हैं और दोहा पारते हैं-
'सबके लाठी रींगी-चींगी, मोर लाठी कुशवा।
धर बांध के डउकी लानेव, ओहू ल लेगे मुसवाÓ
इस प्रकार दोहा पारने के बाद हो- करके बाजा बजाते हुए नृत्य करते हंै और अंतिम दोहा कह कर आशीर्वाद देकर चले जाते हंै। प्रदाय अंतिम दोहा-
'जइसे मालिक दिहे-लिहे-तइसे देबो असीस हो।
धन दोगनि ले घर भरे, जियो लाख बरीस होÓ
अर्थात् जिस प्रकार आपने हमारा सम्मान करते हुए इच्छानुसार धन, रूपए आदि दिये वैसे ही ईश्वर आपको दे आपका घर सदा धन धान अर्थात सभी चीजों से भरा रहे, सुख-शांति ईश्वर आपको दे इस प्रकार आशीर्वाद प्रदान करते हैं।
यह आशीष अक्सर दो पंक्तियों की कवितामय तुकबन्दी के रूप में होता है इसे दोहा पढऩा कहते हैं। ये दोहों अक्सर कबीर, तुलसी, रहीम, सूर या स्वयं के द्वारा बनाए गए दोहों को पढ़ते हैं यो बोलते हैं।
जिन दोहों का निर्माण यादव करते हैं उसमें सुख, दुख, समाज, परिस्थिति वर्तमान, भूत-भविष्य की स्थिति का वर्णन करते हंै पर आज आधुनिक युग में फिल्मी गानों पर भी दोहे तैयार किये जाते हैं। ज्यादातर दोहे श्रृंगारी बनाए जा रहे हैं। रावत लोग इतने उत्साह में रहते हैं कि रात भर नृत्य करते बीत जाता है और ये लोग थकते नहीं हंै कुछ-कुछ तो मदिरा सेवन करते हंै जिससे थकान न रहे कुल लोग स्वयं मदिरा पीकर लाठी को भी इसका सेवन कराते है क्योंकि इनके देवता को भी मदिरा चाहिए या मिल जाए वह भी प्रसन्न हो जाए।
जब कोई नर्तक लाठी उठाकर दोहा पढऩा प्रारंभ करता है तो टोली के सभी सदस्य थम जाते हैं और हुंकार भरकर उसका अनुगमन करते हैं दोहा समाप्त होते ही फिर से नृत्य प्रारंभ हो जाता है।
रावत नाच एक पुरुष प्रधान नृत्य है। महिलाओं को इसमें सम्मिलित नहीं किया जाता है। बल्कि 'नारी के बिना पुरुष अधूरा होता है।Ó शायद इसलिए पुरुष ही नारी का वेश धारण कर नारी का अभिनय करता है जिससे नाच में आकर्षण और बढ़ जाता है। सभी बच्चे बूढ़े, जवान स्त्रियां सभी लोग उस नर्तकी को देखते रहते हैं जिससे लोग बार-बार देखते रहने की इच्छा प्रकट करते हैं।
इस नृत्य में नर्तकों की वेशभूषा विविधतापूर्ण तथा आकर्षक होती है। नर्तकगण सिर में पगड़ी बांधते हैं। इसे पागा कहा जाता है यह सफेद कपड़े का रहता है जिसकी किनारी लाल-हरी रहती है। पागा को कागज के फूलों की लम्बी माला से सजाया जाता है पर वर्तमान में चमकीले पन्नी से माला बनाते हैं जो अत्यधिक चमकदार होती है। पगड़ी में एक किनारे मोर पंख की कलगी सजी होती है। नर्तक अपने तन पर रंगीन छींटदार सलूखा पहनता है। यह एक पूरी आस्तीन वाली लंबी कमीज होती है। कमीज के ऊपर एक हाफ कांटे पहनते हैं जिसमें सितारे जड़े होते हैं तथा कौडिय़ों का भी प्रयोग करते है। कमर के नीचे के भाग में वह धोती या चोलना पहनता है।
 यह चोलना  घुटनों के ऊपर तक कसा होता है। इस चोलने की किनारी रंगीन कुन्दों से सजी होती है। सीने को ढंकने के लिए वे एक ऐसा वस्त्र पहनते हैं जो कौडिय़ों का ही बना होता है। नर्तकगण अपने कमर में घुंघरुओं से सजी पेटी बांधे रहते हैं इसे जलाजल कहते हैं, पैरों में जूता तथा लालरंग मोजे पहनते हंै वे अपने चेहरों को रामरज अथवा पीली मिट्टी से पोत लेते हंै तथा आंख, ठोढी, गाल, माथा तथा भौहों के ऊपर रंग-बिरंगे चन्दन का टीका लगाए रहते हंै। मुंह में पान और आंखों में काला चश्मा लगाए नर्तक राउत के एक हाथ में तेंदू की लाठी और दूसरे हाथ में फरी रखते हैं। ये ढाल दोनों ओर से नुकीला रहता है ढाल लोहे या पीतल की होती है। कभी-कभी ये हाथों में एक विशेष प्रकार का शस्त्र भी रखे जाते हैं। इसे फरी कहा जाता है यह हिरण के सींगों से बना होता है।
राउत नृत्य एक श्रृंगार परक नृत्य तो है ही साथ ही शौर्य परक नृत्य भी है। नृत्य के दौरान शौर्य प्रदर्शन भी किया जाता है। शौर्य प्रदर्शन के लिए लाठी, तलवार, भाले तथा गुरुद आदि विभिन्न प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का भी प्रयोग किया जाता है। गुरूद नाम अस्त्र एक फुट के गोलरिंग से बनी होती है, इसके चारों ओर लम्बी चेन में गोल लकड़ी तथा टीन के गुटके लगे रहते हंै। गुरूद को बीच से पकड़कर चलाया जाता है। प्रत्येक नर्तक टोली के अपने-अपने बाजे होते हंै। इन्हें बजाने वालों को बजनियां कहा जाता है। ये गांड़ा जाति के होते हैं। गंड़वा बाजा वस्तुत: गन्धर्व शब्द से बना है। पुराणों में यक्ष, किन्नर, गंधर्व आदि जातियों का उल्लेख किया गया है। गन्धर्व स्वर्ग में संगीतज्ञों को कहा जाता है। इसका प्रमुख काम गाना-बजाना ही था।
गांड़ा लोग जिन वाद्य यंत्रों को प्रयोग में लाते है उन्हें गड़वा बाजा कहते हैं।  इनके वाद्ययंत्रों में निशान, मोहरी, टिमकी, डफड़ा और गुदुम जैसे वाद्य यंत्र मुख्य हैं। इन वाद्य यंत्रों का निर्माण गाड़ा लोग स्वयं करते हैं।
राउत नाच की एक और विशेषता यह है कि मड़ई साथ लेकर चलते हंै। मड़ई एक तरह से ध्वज वहन करने वाली पताका है। इसका संबंध संभवत: उस काल से है, जब युद्धभूमि में जाने वाले सैनिक आगे-आगे अपने अपने राज्य के प्रतीक चिन्ह लेकर चलते थे। आज भी क्रीड़ा प्रतियोगिताओं में अलग-अलग दलों के खिलाड़ी अपना-अपना ध्वज साथ में लेकर चलते हंै।
मड़ई एक लम्बे बंास से बनाई जाती है। इसको कदम, चम्पक, गेंदा आदि फूलों और उनकी पत्तियों से सजाया जाता है। मड़ई का निर्माण अक्सर केंवट जाति के लोगों द्वारा किया जाता है।
रावत नृत्य में मड़ई का उपयोग विभिन्न अंचलों में अलग-अलग तरीके से किया जाता है। कहीं पर इसे किसी साफ-सुथरे स्थान पर विधि विधान से स्थापित किया जाता है। तब नर्तक इसके चारों ओर घूम-घूमकर नृत्य करते हैं। कहीं-कहीं विशेषकर बिलासपुर जिले में मड़ई को साथ में लेकर चलते हुए नृत्य करने की परम्परा है।
प्रतिवर्ष यहां राउत नाचा प्रदर्शन के लिए प्रदेश भर से नृत्य का भव्य प्रदर्शन करते हैं कहीं-कहीं यह भी परम्परा है कि पुरुष महिलाओं का वेश धारण कर नृत्य करते हंै।
यादव कुल में उत्पन्न लोक नायक श्रीकृष्ण वंशजों द्वारा छत्तीसगढ़ में आज भी राउत नृत्य को परम्परागत अपने मनोहारी रूप में प्रचलित है, इस लोक नृत्य की सांस्कृतिक विरासत के मूल रूप का संरक्षण और परिवर्धन किया जाना चाहिए पर इससे भी अधिक आवश्यकता इसे विकृत होने से बचाएं जाना चाहिए।
साभार- रऊताही 2004

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