Thursday 14 February 2013

लोकगाथाओं के संरक्षक यादव समाज

जब लेखन सामाग्रियों का अविष्कार नहीं हुआ था तब साहित्य वाचिक परम्परा से एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी को एवं एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को हस्तांतरित होकर अक्षुण था। कालांतर में लेखन पद्धति के अविष्कार के पश्चात भी भारतवर्ष में मौखिक परम्परा अनवरत चलती रही। हमारे वेद श्रुति एवं संस्कृत साहित्य का अधिकांश भाग मौखिक परम्परा की ही देन है। अन्यान्य धर्मावलंबियों के लगातार आक्रमण के परिणामस्वरुप धर्मग्रंथों एवं संस्कृति को सुरक्षित रखने के लिए भी मौखिक परम्परा का आश्रय लिया गया। बाद में इसके साथ पाप पुण्य की धार्मिक भावना भी जुड़ गई एवं धर्म ग्रंथों को पूर्णत: या अंशत: कंठस्थ कर उसका पारायण करना एवं प्रचार-प्रसार करना पुण्य काम  माना जाने लगा। परिणामस्वरूप आज भी दूरस्थ ग्रामों में अनपढ़ से अनपढ़ व्यक्ति गीता, महाभारत,  रामायण आदि के श्लोक कंठस्थ किए हुए हैं। लोक साहित्य का जन्म इसी वाचिक परम्परा से हुआ और यह लोकसाहित्य की विशेषता एवं अनिवार्य गुण के रूप में अभिहित हुए।
लोकगाथाओं की मौखिक परम्परा अत्यंत प्राचीन है। समाज का हृदय और समाज की वाणी ही इसका आवास है। इसलिए इसे लिपिबद्ध करने का कभी प्रयास ही नहीं हुआ एवं वाचिक परम्परा इसकी मूल विशेषता बन गई। सुविख्यात लोकसाहित्य मर्मज्ञ फै्रंक सिजविक के कथनानुसार- 'लोकगाथाएँ तभी तक जीवित रह सकती है, जब तक मौखिक साहित्य के रूप में सुरक्षित है। उसे लिपिबद्ध करने का अर्थ है उसकी हत्या करना।Ó लोकगाथाओं की मौखिक परम्परा मं ही समाज की चेतना एवं प्र्रगति का दिग्दर्शन होता है। लोकगाथाओं में जीवन का प्रवाह तभी तक रहता है, जब तक लेखक के बंधन उसकी चेतना आबद्ध नहीं कर दी जाती। प्रसिद्ध विद्वान फिटरेन का स्पष्ट मत है कि 'लिपिबद्ध लोकगाथा लोकसम्पत्ति न होकर साहित्य की संपत्ति हो जाती है।Ó
छत्तीसगढ़ी लोकगाथाओं में भी यही मौखिक परम्परा पीढ़ी दर पीढ़ी युगों-युगों से जीवन्त है। यद्यपि कतिपय विद्वानों ने कुछ लोकगाथाओं को लिपिबद्ध किया है, तथापि वे उतनी लोकप्रिय नहीं है जितनी मौखिक परम्परा से प्रचलित लोकगाथाएं जीवित हैं। आधुनिक युग में जब से प्रचार-प्रसार के आधुनातन साधन यथा रेडियो, दूर-दर्शन, चलचित्र, वीडियो, टेपरिकार्डर आदि प्रचलन में आये हंै लोकसाहित्य के लिए ये अत्यधिक घातक सिद्ध हुए है। ग्रामों में निरंतर बढ़ते नगरीय प्रभाव ने भी लोकसाहित्य की दुर्दशा एवं हत्या करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। मौखिक परम्परा तो आज समाप्त हो ही चुकी है। लोक साहित्य के जानकार बुजुर्ग पीढ़ी का भी शनै:शनै अवसान होते जा रहा है। नयी पीढ़ी के पढ़े लिखे युवक युवतियों में लोक साहित्य के प्रति किसी प्रकार का लगाव दृष्टिगोचर नहीं होता। ऐसे समय में यदि लोकसाहित्य और संस्कृति के विद्वान सिद्धांत के नाम पर लोकसाहित्य को लिपिबद्ध करने के विरोध में अड़े रहें तो निश्चित हो इसे समाप्त होने से कोई रोक नहीं सकता। शोधार्थियों एवं लोकसाहित्य के विद्वानों, साहित्यकारों द्वारा जो लोकसाहित्य संग्रहित कर लिये गये हैं आने वाले समय में वे ही लोकसाहित्य के पुरातात्विक संग्रहालय माने जाएंगे।
आधुनिक प्रसार-साधनों एवं सांस्कृतिक प्रदूषण का सर्वाधिक विनाशकारी प्रभाव लोकगाथाओं पर ही हुआ है। इसका कारण है लोकगाथाएं प्रलम्ब कथानक वाली गीतात्मक विधा है, इसमें गीत के साथ ही कथातत्व की प्रधानता होती है। लोकगाथाओं की कथा प्राय: राजा-रानियों प्रसिद्ध धार्मिक, सामाजिक व्यक्तित्व पर आधारित होती हैं। लोकगाथाओं में संबंधित व्यक्तियों के चरित्र का सांगोपांग वर्णन होता है। उनके जीवन एवं कार्यकलापों के प्रत्येक पहलू का विस्तृत वर्णन इसमें निहित होता है अतएव स्वाभाविक है कि लोकगाथाओं का आकार प्रलबं हो। लोकगाथाओं में प्रलबं कथानक होने का कारण यह भी है कि लोकगाथाएँ सामाजिक कृति होती है। छत्तीसगढ़ी लोकसाहित्य का युगपुरुष डाँ. विनय कुमार पाठक के मतानुसार न सिर्फ आकार की दृष्टि से वरन अन्य साहित्यिक मापदण्डों सेभी लोकगाथाएं शिष्ट साहित्य के प्रबंध काव्य खण्डकाव्य एवं महाकाव्य के समानान्तर हैं। इस आधार पर लोकगाथा को प्रबंधगीत और विवेचना तथा शास्त्रीयता के आधार पर खण्डगीत, लघुखण्डगीत और महागीत कहा जाना चाहिए।
जैसा कि पूर्व में मैने उल्लेख किया है कि अपने वृहताकार होने के लिए परिणाम स्वरूप लोकगाथाएं आधुनिक प्रसार साधनों एवं सांस्कृतिक प्रदूषण का सर्वाधिक शिकार हुई। छत्तीसगढ़ी की अनेक प्राचीन लोकगाथाएं आज लुप्त एवं लुप्तप्राय हो चुकी हंै। जो शेष रह गयी हैं वे अपनी लोकप्रियता एवं जातीय विशेषता के कारण लोकगाथाएं जातीय  गौरव को अक्षुण रखती हैं। यही कारण है कि जाति विशेष में रुढ़ होकर ये क्षेत्र विशेष में प्रचलित हो जाती है। समग्र देश में कुछ जातियों की कुछ लोकगाथाएं धरोहर बन गयी हैं। इस गाथाओं के साथ उस जाति विशेष को सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक भावनाएं जुड़ी रहती है। धार्मिक एवं सामाजिक समारोहों के अवसर पर इन गाथाओं को गाया जाना आवश्यक माना जाता है। यह परम्परा वैदिक युग में प्रचलन में है।  सायण भाष्य के अनुसार विवाह  पर विभिन्न वैवाहिक विधियों के समय जो गीत गाये जाते थे, वे रैमी, नाराशसी गाथा के नाम से प्रसिद्ध थे। वैदिक गाथाओं के उदाहरण शतपथ ब्राह्मण तथा ऐतरेय ब्राह्मण में उपलब्ध होते हैं, जिनमें अश्वमेध यज्ञ करने वाले राजाओं के उदात् चरित्र का वर्णन किया गया है। संस्कृत साहित्य के सुप्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान श्री विन्टरनाज के कथानुसार 'वेद, पुराण, इतिहास, आख्यान तथा ब्राह्मण ग्रंथों में यत्र-तत्र लोकगाथाओं के विवरण प्राप्त होते हैं। प्रत्येक उत्सव एवं यज्ञ के प्रारंभ में प्रत्येक घर में देवगाथा, वीर गाथा तथा अन्य गाथाओं का गायन एवं श्रवण होता था। अश्वमेघ यज्ञ में ब्राह्मण एवं चारण वंशीध्वनि के साथ सम्राट एवं उनके पूर्वजों के यशोगाथा का गान करते थे। चूणाकर्म संस्कार एवं गर्भवती स्त्रियों के मंगल प्रसव के लिए भी भिन्न-भिन्न गाथा गाये जाते थे, जिसे 'पुसवनÓ कहा जाता था। बाद में विदेशी आक्रमण एवं सांस्कृतिक प्रदूषण के प्रभाव के कारण धीरे-धीरे ये प्रथा समाप्त होने लगी। शिष्ट साहित्य के विद्वानों द्वारा लोकसाहित्य की उपेक्षा के कारण ये गाथाएं लोक भाषा एवं बोली में ग्राम्यअंचलों में ग्रामीणों द्वारा सुरक्षित रखी गयी जो राजनैतिक एवं सांस्कृतिक कारणों से धीरे-धीरे समाप्त होती गयी बाद में ये मनोरंजन का साधन मात्र बन गयी। जो श्रेष्ठतम गाथाएं शेष रह गयी उनके पीछे धार्मिक एवं जातीय कारण थे। छत्तीसगढ़ में बाबा एवं गोसाई सम्प्रदाय के लोग नाथ सम्प्रदाय से संबंधित भरथरी गोपीचंदा आदि की गाथाएं आज भी जीवित रखे हुए है।
इसी प्रकार देवार जाति के लोगों ने विभिन्न वीर एवं श्रृंगारपरक गाथाओं का गायन एवं प्रदर्शन को अपनी आजीविका का साधन बना लिया। छत्तीसगढ़ में यादव वंशियों (राऊत जाति) ने जहाँ राऊत नाचा के माध्यम से लोकगीत, दोहों, मुहावरों आदि को जीवित रखा है, वहीं दूसरी ओर बांसगीतों के माध्यम से अनेक लोकगाथाओं को जीवित रखा है, आज छत्तीसगढ़ में जो श्रृंगारपरक, वीर एवं धार्मिक गाथाएं शेष रह गयी है, उनके संरक्षण का प्रमुख आधार यादववंशी ये लोक कलाकार हैं, जिन्होंने बांस गीत के माध्यम से अब तक इन लोकगाथाओं का जीवन्त रखा है।
साभार - रऊताही 1997

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