Tuesday 19 February 2013

बदलते परिवेश में अक्षुण्ण 'अहीर नृत्य'

आदि मानव जब धीरे-धीरे सभ्यता की ओर अग्रसर होने लगा तब कार्य के आधार पर जाति निर्धारित की गई थी। भगवान श्रीकृष्ण ने अहीरों का साम्राज्य स्थापित किया था। आज जब मानव इंटरनेट पर बातें करने लगा है तब भी हमारे छत्तीसगढ़ के यदुवंशियों ने इस सामाजिक परिवेश में मीडिया के होते हुए भी अपनी इस परंपरा को अचल सम्पत्ति के रुप में बचाए रखा है। बल्कि इलेक्ट्रानिक मीडिया का सुखद परिणाम सामने यह आया है कि आज इस भौतिक युग में अहीर नृत्य अपने छोटे से स्वरुप जो सिर्फ गांव-गांव तक ही सिमटा था, एक बड़े मेले के रुप में आ गया।
हमारी छत्तीसगढ़ की यह पावन भूमि लोकगीतों नृत्यों की खान है, लोक जीवन का आधार है चाहे वह बस्तर का गेड़ी नृत्य, करमा, हुलकी हो या फिर सुआ ददरिया को एक नई पहचान दी है।
वर्तमान समय में इलेक्ट्रानिक मीडिया के माध्यम से भारत के सभी प्रांत के लोग जानते हैं कि  यह कौन-सा महोत्सव है। यद्यपि आज के वैज्ञानिक परिवेश ने इसे काफी प्रभावित किया है। आज ग्रामीण ही नहीं शहरी लोग भी इसे उतना ही पसंद करते हैं, लोक गायन इसका विशिष्ट अंग है इससे लोकजीवन के मर्म को अधिक स्पष्ट रुप से अभिव्यक्त किया जाता है। यहां के लोगों का सरल स्वभाव, सहज, अनुराग, आपस में प्रेम, भाईचारा के साथ ही साथ दोहों की अभिव्यक्ति देखते सुनते ही बनती है। इसका ग्रामीण वातावरण से घनिष्ठ संबंध होता है।
अहीर नृत्य का नाम लेते ही दीपावली की याद बरबस ही हमारे जेहन में उभर कर सामने आ जाती है। द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण ने ग्वाल बालों की रक्षा के लिए गोवर्धन पर्वत धारण कर समस्त ब्रजवासियों की इंद्र के कोप से रक्षा की थी। इंद्र पर कृष्ण की इसी विजय को स्मरण कर इंद्रध्वज बनाया जाता है और हर्षोल्लास मनाया जाता है। कालांतर में यही मड़ई कहलाया वर्तमान में इसी मड़ई ने मेला का रुप धारण कर लिया है। इस त्यौहार में अहीर अपनी परंपरागत वेशभूषा धारण करते हैं जिनमें सिर पर मोर पंख युक्त पगड़ी जो हमें श्रीकृष्ण के मोर मुकुट की याद दिलाता है तथा कौडिय़ों से जड़ा हुआ झालरों से सजा वस्त्र व एक हाथ में लाठी और दूसरे हाथ में बघनखा तथा पैरों में घुंघरु पहन कर वीरोचित भाव से चलते हुए गाय को सुहई बांधने जाते हैं। ये लोग गाजे-बाजे ढोल के साथ झुंड के रुप में जाकर गाय को सुहई बंाधते हैं तथा दोहा के माध्यम से नाचते गाते हैं जिनमें महाभारत का वर्णन, भगवान ब्रह्मा, विष्णु, महेश, माँ भवानी, गणेश आदि की स्तुति करते हुए ये दोहा कहते हैं कि-
सदा भवानी दाहिनी, सन्मुख रहे गणेश।
पांच देव मिल रक्षा करें ब्रह्मा, विष्णु, महेश।।
हमारे छत्तीसगढ़ अंचल में दोहों का अक्षय भंडार है। यदि इनका संकलन किया जाये तो एक विशाल ग्रंथ बन सकता है। इसमें भावों की माधुर्यता और भाषा की रोचकता, लोचपन छत्तीसगढ़ के हमारे इस लोककला को समृद्धशाली बनाकर संबल प्रदान करता है। हम चाहते हैं कि अहीरों का यह महोत्सव अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उतनी ही प्रसिद्धि पा सके जितना ही पंडवानी, भरथरी, पंथी नृत्य ने पाया है।
साभार- रऊताही 1999

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