Saturday 16 February 2013

भारिया जनजाति की नृत्य कला

मध्यप्रदेश में देश की सर्वाधिक जनजातियों का परिस्थान है। यहां 46 प्रकार की जनजातियोंं की प्रजाति अवस्थित हैं उनमें भारिया जनजाति की अपनी अलग पहचान  एवं अनूठी स्थिति है। प्रस्तुत नृत्यला पातालकोट के भारिया जनजाति का अनुशीलन है। पातालकोट छिंदवाड़ा जिले के उत्तर सतपुड़ा के पठार पर स्थित है। यह छिंदवाड़ा जिला मुख्यालय से 62 किमी तथा तामिया विकासखण्ड से 23 किमी पर अवस्थित है। पातालकोट का अन्त क्षेत्र शिखरों और वादियों से आवृन्त है। पातालकोट के निवासी भारिया जनजाति बहुत ही डरी और सहमी हुई है इनके मन का अंधकार बहुत ही खतरनाक और सभ्य समाज के लिए कलंक का द्योतक है क्योंकि पिछड़ापन सभी पहलुओं को निम्नस्तरीय श्रेणी परिस्थिति को अवगत कराती है। पातालकोट के भारिया जनजाति की परंपराएं वास्तविक तौर पर अनूठी है जिनका अवशेष रहना आवश्यक और जरूरी है।
भारिया जनजाति विभिन्न पर्वों पर नाचते गाते हैं। आदिवासी समाज में नृत्य गान इनकी परम्परा का द्योतक है। बच्चे से बूढ़े तक नृत्य कला में पारंगत होते हैं। बुजुर्ग व्यक्ति बाल्यावस्था में नृत्यकला में निपुण बनाता है जो छोटी उम्र में आकर्षण का कारण भी होता है आठ नौ वर्ष के बच्चे के कमर में टिमकी बांध दी जाती है इनका थिरकन बरबस मन को मोहित करता है। आजीवन अपनी इस कला को धरोहर मानकर उसका सम्मानपूर्वक सामाजिक निर्वाह करते हैं। भारिया जनजाति की नृत्य कला को निम्नवत स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है-
भड़म नृत्य- इस नृत्य के अन्य नाम भी हैं जैसे - गुन्नू साही, भडऩी, भडऩई, भरनोटी अथवा भंगम नृत्य। भड़म नृत्य विवाह के अवसर पर सबसे प्रिय नृत्य माना जाता है। यह नृत्य समूह में होता है इसमें बीस से पचास साठ पुरुष नर्तक और वादक भाग लेते हैं। ढोलों की संख्या से टिमकियों की संख्या दुगुनी होती है अर्थात् नृत्य कला में दस ढोलक वादक हों तो बीस टिमकी वादक पहले घेरा बनाते हैं। पहला ढोल वादक विपरीत दिशा में खड़ा होता है शेष अन्य ढोल वादक एक के पीछे एक क्रमश: खड़े होते हैं । टिमकी वादक खुले-खुले खड़े होते हैं। घेरे के बीच का एक नर्तक लकड़ी उठाकर दोहरा गाता है। दोहरे के अंतिम शब्द से वाद्य बजना शुरु हो जाता है और लय धुन तीव्रता से बढ़ता जाता है। नृत्य की गति वाद्यों के साथ बढृती है। ढोल वादकों का पैर समानान्तर गति में धीरे-धीरे घूमते हैं तथा घेरे के बीच के नर्तक तेज गति से पैर कमर और हाथों को गति देकर नाचते है। बीच-बीच में किलकारी भी होती है चरम पर नृत्य और वाद्य थम जाते हैं पुन: एक नर्तक द्वारा दोहरा प्रारंभ होता है यही क्रम चलता रहता है। ढोल टिमकी और झांझ की ध्वनि बहुत ही लयछंद बद्ध होती है। थोड़ा विश्राम के साथ-साथ यह नृत्य रातभर होता है।
सैतम नृत्य- यह नृत्य मुख्यत: भारिया महिलाओं का नृत्य है। महिलाओं का अमाने-सामने दो दल होता है और पुरुष घेरे के बीच में ढोलक बजाता है। नृत्य में किशोरियों तथा नव यौवनाओं की संख्या अधिक तथा भागीदारी पूर्णतया होती है। विवाह के अवसर पर रात भर सैतम नृत्य से युवतियां थकती नहीं। इनके हाथ में मंजरी या चिटकुला होता है। ढोलक की लय पर सैतम गीत और नृत्य होता है। ढोलक वाद के बंद होने पर एक महिला दो पंक्ति का गीत गाती हैं और हो-हो कर सभी महिलाएं गीत उठाती हैं और वाद्यों के साथ नृत्य प्रारंभ हो जाता है। दोनों दल की महिलाएं मंजीरे को बजाती हुए झुककर तेजी से आगे बढ़ते हुए नृत्य करती हैं और अद्र्ध चक्कर लगाकर महिलाएं झटके से मुड़ती हैं तथा गीत की लय तेज हो जाती है एक चक्कर पूरा होने पर दोहरा गाया जाता है। भारियाओं का यह नृत्य पर्वों पर रात भर चलता है।
करमा सैला नृत्य- भारिया जनजाति में भी गोंड़, बैगाओं की भांति करमा सैला सुआ नृत्य की प्रथा पाई जाती है। भारिया अहिराई नृत्य भी करते हैं। यह नृत्य दीवाली पर होता है। कौडिय़ों की झूल पहनकर पुरुष घर-घर जाकर छंवर लगाते हैं। दोहरा का गान करते हैं और सैला नाचते हैं।
भारिया आदिवासियों का संगीत आदिम है ढोल, टिमकी की रिद्म ठेठ आदि मानव की याद दिलाती है भारियाओं का ढोल झाबुआ के भील आदिवासियों के मांदल की तरह गोल और बड़ा होता है। ये ढोल स्वयं बनाते हैं ढोल लम्बी व गोल लकड़ी के खोल पर गाय या बैल के चाम से मढ़कर तैयार की जाती है तथा टिमकी तसले के आकार की होती है। जिस पर बकरे की खाल मढ़ी जाती है। झांझ छोटी थाली के बराबर होती है। झांझ को झालर भी कहते हैं। भारिया नृत्यों में ढोलक बांसुरी का प्रयोग भी करते हैं।
पातालकोट के भारिया जनजाति का जीवन प्रारंभ से ही कौतूहल पूर्ण रहा है यह बहुत हिम्मती और साहसी होते हैं अन्यथा इतनी गहरी अंधी खाई में जीवन व्यतीत करना आश्चर्य और कठिन कार्य है। किन्तु भारतीय जनजाति वर्तमान समय में संक्रमण काल में जी रही है। अपनी परम्पराओं को जीवित रखना इनका मुख्य ध्येय है। इनका नृत्य आदि लोक परम्पराओं जीवित एवं सुरक्षित रहे इस ओर विशेष ध्यान देने की जरूरत है क्योंकि परिवेश तो मिलता रहता है मगर वास्तविकता और मूल परिवेश जो प्रारंभिक अवस्था के हैं उन्हें बचाना आवश्यक है क्योंकि यह धरोहर सांस्कृतिक आयाम का एक अनूठा कार्य है। अत: इनकी नृत्य कला हमारे समाज के सामने एक मिसाल है।
 साभार- रऊताही 1998

No comments:

Post a Comment