Tuesday 19 February 2013

लोक संस्कृति के निर्माण और विकास में लोक बोलियों की भूमिका

परिष्कृत और परिमार्जित समाज की परिणति है संस्कृति। संस्कृति के मूल में संस्कार प्रकार्यशील परिलक्षित है। संस्कार भेद से संस्कृति प्रकार्यशील होती है। संस्कार भेद से संस्कृति दो प्रकार की मानी गई है 1. मानक संस्कृति 2. लोक संस्कृति। संस्कारों की एकरुपता मानक संस्कृति का आधार है। संस्कारों की विधिवत और सहजता लोक संस्कृति के बोधक हंै। लोक संस्कृति में नैसर्गिकता, गतिशीलता और जीवन्तता परिव्याप्त रहते हैं। मानक संस्कृति की अभिव्यक्ति मानक या परिनिष्ठित भाषा में होती है और लोक संस्कृति की अभिव्यक्ति लोक भाषा अथवा लोक बोलियों में होती है। लोक बोलियाँ लोक संस्कृति की आधार और उर्वरा भूमि है। लोक संस्कृति में निर्माण और विकास में लोक बोलियों की क्या भूमिका है ? इसका विवेचन करने से पहले लोक संस्कृति के रचना तत्वों का नामोलेख की आवश्यकता है। 1. लोक संस्कार 2. ग्रामीण देवी-देवता 3. तीज त्यौहार 4. पूजा स्थल 5. पूजा पद्धति 6. उपवास 7. व्रत 8.प्रार्थना 9. कीर्तन 10. जागरण 11. तीर्थ स्थान 12. लोक गीत 13. लोकगाथा 14. मेला दशहरा 15. ग्रामीण हाट या पैंठ 16. टोना टोटका 17. शकुन -अपशकुन  18. तीर्थ यात्रा 19. संत महात्माओं में आस्था 20. धर्मगं्रथ 21 लोक रीतियां 22. लोक परंपराए 24. लोक कलाएँ 25. लोक विश्वास और लोक आस्थाएं।
लोक संस्कृति के उपर्युक्त रचना तत्व लोक संस्कृति के बहुरूपी, बहुरंगी, बहुगंधी, बहुआयामी और बहुस्तरीय सिद्ध करते हैं। लोक संस्कृति की सार्थकता उसकी विविधता और अनेकरूपता में निहित है। इसकी पवित्रता, मधुरता, उन्मुक्तता, गत्यात्मकता और जीवन्तता की रक्षा मानवतावादी जीवन मूल्यों से जुडऩे के लिए आवश्यक है। लोक संस्कृति अपनी संरचना, प्रयोग और प्रकार्य प्रक्रिया में संशिलष्ट होती है। संश्लिष्ट संस्कृति मानक भाषा द्वारा अभिव्यंजित नहीं हो सकती। संश्लिष्ट संस्कृति की अभिव्यक्ति उन्हीं लोक बोलियों द्वारा संभव है जो ध्वनि विचार, शब्द रचना, रूप विन्यास और वाक्य तंत्र में बहु आयामी और बहुस्तरीय है। लोक संस्कृति की रचना करने वाले सभी अंग या घटक अपनी रचना और प्रयोग प्रक्रिया में बोटनी बोधक शब्दों, प्रत्ययों और विभक्ति प्रत्ययों से संबंध रखते हैं। लोक संस्कृति बोधक शब्द प्रकार्य प्रक्रिया में परिभाषिक है। नगरीयकरण, उद्योगीकरण और पश्चिमीकरण की प्रक्रियाएँ लोकभाषाओं, लोकबोलियों और लोक उपबोलियों को विखंडन और वियोजन की प्रक्रिया से जोड़ रही है। इन लोक भाषाओं, लोक बोलियों और उपबोलियों से संबंद्ध लोक संस्कृति भी विस्थापन और विचलन की प्रक्रिया से जुड़ गई है। हिन्दी साहित्य के इतिहास पर दृष्टिपात करने से यह पता चलता है कि आदिकाल से दो प्रकार का साहित्य प्रकार्यशील रहा है- मानक हिन्दी साहित्य और हिन्दी का लोक साहित्य वीर गाथाकाल में रासो साहित्य और जैन कवियों द्वारा रचित प्रबंध काव्य मानक साहित्य की कोटि में आते हैं। इन महाकाव्यों के केन्द्र में राजा, महाराजा, सामंत और महत्त रहे हैं। मानक भाषा में अभिजातवर्गीय पात्रों की संस्कृति वर्णित रही है। वीरगाथा काल से 150 वर्ष पूर्व नाथ और सिद्ध कवियों ने लोक बोलियों और मिली-जुली संपर्क भाषा में लोक संस्कृति मूलक काव्य की रचना की। लोक संस्कृति मूलक मुक्तक काव्य होने के कारण नाथ और सिद्धों की कविताएँ जनता की कविताएं बन गईं। आचार्य युक्त जैसे प्रखर समीक्षक ने नाथ और सिद्ध कवियों की रचनाओं को साम्प्रदायिक कह कर हिन्दी साहित्य से खारिज कर दिया। उन्हें लोक भाषाओं और लोक बोलियों में रचा गया लोक संस्कृति मूल काव्य साम्प्रदायिक परिलक्षित हुआ। जनता को संजीवनी प्रदान करने वाला साहित्य शुक्ल जी को बेठिकाने का लगा।
नाथ और सिद्ध कवियों की रचनाएं ही अव्यवस्थित और बेतरतीब प्रतीत नहीं हुईं अपितु जिन रासो ग्रंथों में लोक बोलियों का प्रयोग हुआ वे ग्रंथ भी शुक्ल जी को अमानक प्रतीत हुए, आचार्य शुक्ल ने चंदरबरदाई द्वारा रचित पृथ्वीराज रासो की अनुस्वारयुक्त लोकभाषा के विषय में लिखा है। अनुस्वार की बहुलता के कारण पृथ्वीराज रासो की भाषा बेतरतीब और बेठिकाने की बन गई है। भाषा में एकरुपता का अभाव है। शुक्ल जी एकरूप या समरूप मानक भाषा के प्रशंसक हंै। वे मानक संस्कृतिमूलक साहित्य को श्रेष्ठ मानते हैं। राहुल सांस्कत्यायन ने लोक भाषाओं और लोक बोलियों में रचे गए साहित्य को बहुआयामी और बहुस्पर्शी माना है। उन्होंने सरहपाद को हिन्दी का पहला कवि और सरहपाद द्वारा रचित दूहाकोश को हिन्दी की पहली काव्य रचना माना है। नाथ और सिद्धों की काव्य रचनाएँ भक्ति कालीन संत कवियों की प्रेरक और प्रोत्साहक रही हैं। नाथ और सिद्ध साहित्य को भक्तिकाल की पृष्ठभूमि माना जा सकता है। कबीर, सूर, तुलसी और जायजी भक्तिकाल के कवि हैं। इन्होंने अपनी काव्य रचनाओं की भाषा को जनभाषा माना है। कबीर ने कहा है संस्कृत 'कनिका कूप जल भाषा बहता नीर।Ó विद्यापति ने देसिख वयना सब जन मिट्ठा, कहा है। तुलसी ने भाषा निबंध भति मंजुलमातनेति कहा है। जायसी ने लिखि भाषा चौपाई कहैं। कहकर लोक भाषा और लोक बोली काव्य को महत्व दिया है। भक्तिकाल के किसी भी कवि ने न तो यह कहा है कि उनका काव्य हिन्दी काव्य है या ब्रज और अवधी काव्य है। उन्होंने इसे भाषा काव्य कहा है। कबीर की दृष्टि में भाषा बहता नीर है। जिस प्रकार बहता जल निर्मल, मधुर और जीवनदायक देता है ठीक उसी प्रकार लोक भाषा या लोक बोली मधुर, पवित्र, नैसर्गिक, सहज, स्वाभाविक  और जीवन्त होती है। इन लोक बोलियों में रचा गया साहित्य  लोक संस्कृति का अक्षय कोश होता है। तुलसी ने ब्रज और अवधी के मानक और लोक दोनों रूपों में काव्य रचना की। सूरसागर की ब्रज भी मानक होने के साथ-साथ लोक समाज से अधिक जुड़ी है। जायसी की अवधी तुलसी की अवधी की तुलना में लोक समाज और लोक संस्कृति के अधिक निकट है। कबीर की भाषा मिली जुली है। इसीलिए कबीर की भाषा को श्याम सुंदर दास ने पंचमेल खिचड़ी और आचार्य शुक्ल ने सधुक्थड़ी भाषा कहा है। भक्तिकालीन कवियों का काव्य- लोक बोलियों में रचित होने के कारण लोक समाज और लोक जीवन के अधिक निकट है। इन सभी को जनता का कवि कहा जाता है। लोक संस्कृतिमूलक लोक बोलियाँ साहित्य की लोकप्रियता की कसौटी बन गई। छायावाद के कवि, प्रयोगवाद और नई कविता के कवि मानक हिन्दी में साहित्य रचने के कारण जनता के कवि नहीं बन सके। दलितवर्गीय रचनाकार दलितवर्गीय भाषा प्रयोगों के कारण जनता के कवि बनने के प्रयत्न कर रहे हैं। रीतिकाल के रीतिमुक्त और रीति सिद्ध कवि रीतिबद्ध कवियों की तुलना में लोक- भाषा प्रयोगों के कारण लोकोन्मुख हुए हैं। प्रेमचंद की भाषा जनता की भाषा होने के कारण लोकसंस्कृति मूलक बन गई है। नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, निराला, फणीश्वरनाथ रेणु और पुष्पा मैत्रेयी मनक भाशा के साथ-साथ लोक बोली प्रयोगों से जुड़े हंै। आंचलिक साहित्य, आंचलिक भाषा प्रयोगों के कारण आंचलिक संस्कृति से सम्बद्ध हुआ है।
ऊपर के विवेचन से स्पष्ट है कि लोकभाषाओं और लोक बोलियों में रचा गया साहित्य लोक की अमर संपत्ति होते हैं। वर्तमान युग संचार होते है। वर्तमान युग संचार क्रांति का युग हैं। आर्थिक उदारीकरण और भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया ने अंग्रेजी भाषा को विस्तृत और समृद्ध बनाया है। अंग्रेजी का बढ़ता हुआ वर्चस्व मानक हिन्दी के लिए भी खतरा बन गया है। बोली क्षेत्रों में और भारतीय भाषाओं में प्रयुक्त संबोधन और अभिवादनपरक शब्द विस्थापित  होते जा रहे हैं। इनके स्थान पर अंग्रेजी भाषा के डैडी, डैड, मम्मी-माम, अंकल-अन्टी, हलो, गुडबाई, गुड मार्निंग, गुड इवनिंग संबोधन और अभिवादनपरक शब्द प्रभावी बनते जा रहे हैं। इसका अर्थ है कि भारतीय समाज अपनी मूल संसकृति से विस्थापित होकर पश्चिमी संस्कृति से जुड़ता जा रहा है। लोक बोलियों में रचना करके लोक संस्कृति को विस्थापन से बचाया जा सकता है।
साभार-रऊताही 2004

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