Thursday 14 February 2013

पारंपरिक राऊत नाच कार्यक्रम में अखरा का योगदान

छत्तीसगढ़ अंचल के राऊत नाच कार्यक्रम के उद्भव के सम्बन्ध में प्रश्न उपस्थित किया जावे तो इसके प्रत्युत्तर में यही कहना होगा कि राऊत नाच कार्यक्रम उतना ही प्राचीन है जितना कि राऊत जाति (छत्तीसगढ़ी यदुवंशी) के लोगों का छत्तीसगढ़ के पावन धरा पर अवतरण होना। रायपुर अंचल में मड़ई कार्यक्रम दीपावली के समय हो अथवा बिलासपुर अंचल में प्रबोधनी एकादशी (जेठौनी या देवोत्थानी) राऊत नाच कार्यक्रम हो। दोनों अवसरों के आयोजनों पर छत्तीसगढ़ के ग्रामों की छटा देखते ही बनती है। गोलबद्ध राऊत नर्तकों की नाट्य शैली तथा नाट्यकला तथा गड़वा बाजा के वाद्यकों की वाद्यकला से गांव-गांव शहर-शहर उद्वेलित हो उठता है। छत्तीसगढ़ का राऊत नाच महा उत्सव रुप वास्तव में साकार महोत्सव बनकर ग्राम के वीथिनों में शहर की गलियों में धूम धड़ाका बाजा गाजा तथा साज श्रृंगार के साथ गुंजायमान हो उठता है। राऊत नाच का अनुगूंज एक पखवाड़े तक ग्राम-ग्राम नगर शहर श्रवण गोचर होते रहता है। श्रावकों तथा दर्शकों के मन में भी हर्ष, उल्लास एवं आनन्द की हिलोरे लेने लगती है। उनका मन गद्गद् हो उठता है तथा उनका मन वाद्यों की नाद से निनादित होते हुए पुलकायमान हो उठता है प्रफुल्लित मन के कारण उनके शरीर में रोमहर्ष उत्पन्न हो जाते हैं।
परम्परागत राऊत नाच कार्यक्रम कई सोपानों से गुजरता है। यदि सोपानों को वर्गीकृत किया जावे तो इस कार्यक्रम के मात्र दो सोपान हैं - (1) पूर्व सोपान (2) उत्तर सोपान। पूर्व सोपान राऊत नाच कार्यक्रम में क्रियान्वयन के पूर्व होता है। उत्तर सोपान राऊत नाच कार्यक्रम के समय घटित होते जाता है। राऊत नाच कार्यक्रम के पूर्व सोपान में मात्र अखरा सोपान होता है जो सभी सोपानों का जन्मदाता है जबकि उत्तर सोपानों में क्रमश: (1) देवाला (2) सुहई (3) सुखधना (4) काछन (5) गोवर्धन पूजा (6) राऊत नाच (7)आशीष वचन (8) मड़ई (9) मातर (10) बाजार परिभ्रमण आते हैं। इसमें देवाला स्थायी सोपान है। जो राऊतों के निवास गृह के भीतरी कक्ष (जिसे भीतर कहते हैं) के दीवाल के पास स्थित होता है। प्रस्तुत आलेख में राऊत नाच कार्यक्रम के पूर्व सोपान अखरा का उल्लेख किया जा रहा है। अखरा शब्द से दो भाव प्रकट होते हैं - 1. शक्ति देवी के रुप में अक्षर 2. प्रशिक्षण शाला के रुप में अखाड़ा।
अखरा- यह राऊत कार्यक्रम का प्रारंभिक सोपान है। वास्तव में पूर्व सोपान है। पूर्व सोपान का तात्पर्य कार्यक्रम क्रियान्वयन के पूर्व घटित होने वाला सोपान अखरा वास्तव में उत्तर सोपानों का उद्गम स्थल है। वास्तव में राऊत नाच का क्रियान्वयन अखरा में प्रतिदिन होता है किन्तु यह परोक्ष रुप से होता है तथा इसमें सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं होता है अखरा कार्यक्रम के समापन के पश्चात राऊत नाच कार्यक्रम का सार्वजनिक प्रदर्शन प्रत्यक्ष रुप से होता है।
यदि अखरा को राऊत नाच कार्यक्रम की पाठशाला से संबोधित किया जावे तो अतिश्योक्ति नहीं होगी यह राऊतों का व्यवहारिक प्रयोगशाला भी है। यह रंगमंच भी है और व्यायाम शाला भी है। वास्तव में यह राऊत नाच कार्यक्रम का प्रशिक्षण केन्द्र ही है। यही यादवों का योगासन की योगस्थली है। यह नाट्य शाला भी है और कृत्रिम युद्ध स्थली है जहां युद्ध कला का व्यवहारिक ज्ञान कराया जाता है।
अखरा की स्थापना- विजयादशमी (दशहरा) के दिन ही अखरा देवी की स्थापना की जाती है विजय के प्रतीक विजयादशमी को ग्राम हो या शहर के सभी लोग उल्लासित होकर इस पावन पर्व को मनाते हैं यादव बंधु भी ग्राम में ग्रामीणों के साथ अथवा नगर में नगरजनों के साथ पर्व मनाने में सहभागी बनते है। अन्य बहादुर जातियों की भांति यादव बन्धु भी अपने घरों में शस्त्र पूजन तथा शक्ति पूजन करते हैं। सर्वप्रथम यादव बन्धु अपने निवास स्थान भीतरी कक्ष (जिसे छत्तीसगढ़ में भीतर कहते हैं) स्थित शक्ति के केन्द्र स्थल देवाला में शस्त्र पूजन करते हैं और ग्राम के इष्ट मित्रों से मिलते है। दशहरा का पर्व मनाने के समापन के पश्चात रात्रि को संभवत नव बजे ग्राम के सभी यादव एक स्थान पर एकत्र होते हैं जहां ग्राम का दैहान (गायों के एकत्र होने का स्थान) होता है इस दैहान में एक स्थान का चयन करते हैं। चयनित स्थान के आसपास की सफाई करते हैं। इस चुने हुए स्थान के एक भाग में लकड़ी का छोटा खम्भा गड़ाते हैं जो सेमल या तेन्दू की लकड़ी होती है। तेन्दू या सेमल की कांटेदार लकड़ी होने की अनिवार्यता नहीं है किन्तु उक्त लकडिय़ों को प्राथमिकता अवश्य प्रदान करते हैं कहीं-कहीं गाय कोठे की लकड़ी को ही गड़ा देते हैं। इस लकड़ी को खोड़हर या खड़हर कहते हैं। इसी लकड़ी पर सिंदूर (बंदन या कुमकुम) लगाते हैं कहीं-कहीं चुडिय़ां  या फुंदरी डालते हैं।
खोड़हर में चूड़ी काले रंग को तथा फुंदरी में लाल रंग को प्राथमिकता प्रदान करते हैं कहीं-कहीं खोड़हर के पास एक परई (मिट्टी के घड़े का एक्कन)में ऊँ (ओम) त्रिशूल एवं स्वास्तिक के चिन्हों को सिंदूर (बंदन) से चित्रांकन करते हैं। इस प्रकार खोड़हर गड़ाकर अखरा देवी की स्थापना की जाती है और धार्मिक विधि विधान से पूजा करते हैं। पूजा के लिए दीप प्रज्जवलन, होम, धूप, नैवेत्र, गुड़ अक्षत अगरबत्ती आदि का उपयोग करते हैं और नारियल फोड़ते हैं। नारियल फोडऩे का काम केवल अखरा देवी की प्रतिष्ठा के समय अथवा विसर्जन के समय करते हैं। अखरा देवी के खोड़हर में कहीं-कहीं सेमल की कंटीली लाठी या तेन्दू लकड़ी भी टांगते हैं। इस लाठी में भी थोड़ा सा बंदन लगाते है।
वास्तव में अखरा देवी की स्थापना के लिए एक लकड़ी का प्रयोग किया जाता है। इस लकड़ी को खोड़हर या खड़हर कहते हैं। इस लकड़ी को एक स्थान पर गड़ाते हैं। यह लकड़ी तेन्दू की लाठी हो या सेमल की कांटेदार लकड़ी हो अथवा गाय कोठे की लकड़ी का खूंटा हो। इसे एक निर्धारित स्थान पर अवश्य गाड़ा जाता है। जिस प्रकार मंदिर में पत्थर की मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा किया जाता है उसी प्रकार लकड़ी के खोड़हर अथवा खड़हर नाम दिया जाता है और लकड़ी को एक स्थान पर गड़ा दिया जाता है। गाडऩे के बाद उस लकड़ी को संस्कारित किया जाता है और अखरा देवी को संस्कारित रूप से प्रतिस्थापित संस्कारित करने के लिए लकड़ी पर बंदन, सिंदूर तथा कुमकुम चूड़ी तथा फूंदरी का प्रयोग करते है। संस्कारित खोड़हर में ही अखरा की स्थापना की जाती है। फिर विधि विधान से पूजा की जाती है। खोड़हर या खड़हर स्थित शक्ति ही अखरा है। अखरा देवी की पूजा के लिए किसी पुरोहित या बैगा की आवश्यकता नहीं पड़ती। यादवों के बीच कोई वरिष्ठ व्यक्ति ही अखरा देवी की पूजा करते है। अखरा पूजा में केवल यादव गण भाग लेते हैं अखरा स्थापना के समय यादव बंधु गण अपने हथियार अखरा के पास रख देते हैं और प्रत्येक व्यक्ति बारी-बारी से पूजा करते हैं। अखरा स्थापित होने के बाद पूजा करने की पद्धति व्यक्ति की भावना पर आधारित होता है। कोई  पूजा केवल हाथ जोड़कर करता है तो कोई होम दीप फूलमाला आदि के द्वारा करता है। प्रथम दिवस ही ओम पद्धति से पूजा किया जाता है अन्य दिन प्राय: हाथ जोड़कर पूजा करते हैं और पूजा करने के पहले अपने हथियार अखरा में रख देते हैं और पूजा करने के पश्चात हथियार उठा लेते हैं।
दूसरे दिन से कोई भी यादव आकर पूजा कर सकता है वरिष्ठ होने की परम्परा नहीं है। प्रशिक्षक अथवा प्रशिक्षार्थी दोनों ही पहले हथियार अखरा में रखते हैं और बाद में सिखने और सिखाने का कार्य करते हैं।
आजकल दैहान में अतिक्रमण की बाढ़ आई हुई है। दैहान स्थल बदल रहे हैं। उसी प्रकार अखरा का स्थान बदल जाता है किसी निरापद स्थान पर ही अखरा की स्थापना की जाती है। आजकल अखरा स्थापना का प्रचलन कम होते जा रहा है और नहीं के बराबर हो गया है। अखरा वास्तव में पांडवों के समान गांवों के बाहर एक सभी वृक्ष पर अस्त्र-शस्त्र टांगने की याद दिलाता है।
खोंड़हर या खड़हर एक स्तंभ है जहां यादव लोग अपने अस्त्र-शस्त्र रखकर पूजा करते हैं और सीखने का प्रयोग पूजा के बाद करते हैं। अन्य जातियों के लिए यहां प्रयोग निषिद्ध है।
अखरा पूजन- अखरा स्थापना के समय खोंड़हर (खड़हर) में यदुवंशी अपने अस्त्र-शस्त्र रखकर शक्ति के केन्द्र अखरा देवी की पूजा करते हैं। यही  अखरा पूजा है। अखरा पूजा करने के कार्य को अखरा पूजन कहलाता है। सर्व प्रथम दशहरा के दिन अखरा देवी की स्थापना कर अखरा पूजन का कार्य संपन्न कराया जाता है और प्रशिक्षण का कार्य प्रारंभ किया जाता है। प्रतिदिन प्रत्येक यादव अखरा पूजा अवश्य करता है। सर्वप्रथम लाठी भाला फरसा गदा आदि अस्त्र-शस्त्र को अखरा में रख देते हैं और अखरा पूजा का कार्य करते हैं। अखरा पूजन के पश्चात प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं। योग क्रिया अर्थात योगासन करने वाले मात्र अखरा पूजन का कार्य करते हैं। उसी प्रकार व्यायाम करने वाले मात्र अखरा पूजन करते हैं अस्त्र चालन शस्त्र चालन अथवा लाठी चालन करने प्रारंभ में अखरा पूजा अवश्य करते हैं और बाद में अस्त्र-शस्त्र चालन कार्य करते हैं। अखरा पूजन करना प्रशिक्षार्थी तथा प्रशिक्षक का परम कत्र्तव्य है।
अखरा क्षेत्र का सीमांकन- जिस प्रकार अखरा की स्थापना करना आवश्यक है। इसी प्रकार अखरा क्षेत्र का सीमांकन करना आवश्यक है। अखरा में स्थित स्थान से दूर चारों दिशाओं में चार पत्थर गाड़ देते हैं अथवा चारों दिशाओं के प्रतिनिधित्व करने वाले स्थान में मिट्टी के चार छोटे चौरे बनाते हैं। ये चारों चौरे छोटे होते हैं इनकी आकृति गोलाकार, वर्गाकार या आयताकार हो सकती है। प्रत्येक चौरा या पत्थर अखरा से चारों दिशाओं में समान दूरी पर स्थित होते है। सीमांकन करने में पत्थर अथवा चौरा का वही उपयोग है जो प्राय: पटवारी लोग किसी जमीन का सीमांकन करने में पत्थर अथवा चौरा उतने ही दूर पर स्थित होते हैं जिससे कि प्रशिक्षक तथा प्रशिक्षार्थी के प्रशिक्षण कार्य में अवरोध उत्पन्न न हो। प्रत्येक पत्थर अखरा से चारों दिशाओं में समान दूरी पर स्थित होते हैं। अखरा मध्य बिंदु पर स्थित होता है प्रत्येक पत्थर अखरा क्षेत्र के अंतिम स्थान पर स्थित होते हैं अर्थात् ये पत्थर प्रत्येक दिशा में अखरा सीमा क्षेत्र का अंतिम स्थान होता है। 
    इस चित्र को ध्यान से देखें तो यह प्रतीत होता है कि अखरा मध्य बिंदु पर स्थित है। उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम दिशा में अखरा से दूर चार बिंदु स्थित है। इन चारों बिंदुओं को आपस में मिलाते नहीं है किन्तु यह मान लिया जाता है कि यही अखरा का सीमा क्षेत्र है। स्पष्ट प्रतीत होता है कि अखरा मध्य बिंदु है तथा चारों दिशाओं स्थित बिंदु दिशाओं के अंतिम सीमा  को प्रकट करते हैं। यही अखरा का सीमांकन क्षेत्र है इन्हीं पत्थरों की स्थिति के अनुसार अखरा क्षेत्र का सीमाबद्ध किया जाता है। तात्पर्य प्रशिक्षक तथा प्रशिक्षार्थी को इतनी सुविधा अवश्य होनी चाहिए जिससे वे अपना अभ्यास कार्य सुचारू रूप से सुगमता पूर्वक कर सके।
आजकल अखरा का सीमांकन करना सरल है किन्तु आज से एक शताब्दी पूर्व अखरा का सीमा क्षेत्र का निर्माण करना कठिन कार्य था। एक शताब्दी पूर्व छत्तीसगढ़ वनों से आच्छादित था। गांव के प्रारंभ से ही वन क्षेत्र स्थित था। वनों में पेड़ पौधे तथा झाडिय़ों को काटकर साफ करना पड़ता था। लोग अखरा स्थापना के पहले ये देखते थे कि अखरा क्षेत्र का स्थान गांव से कितनी दूरी पर स्थित है वह स्थान निरापद है कि नहीं। प्रशिक्षण स्थान पर वन्य जीवों द्वारा आक्रमण तो नहीं किया जाता हो अखरा निर्माण वास्तव में यह बोध कराता है कि पशुपालकों को अथवा चरवाहों को हिंसक वन्य जीवों से अपनी तथा अपने पशुओं की रक्षा के लिए संघर्ष करना पड़ता था। इसके लिए आवश्यक था कि वह अकेला ही बहादुर बने। हिंसक पशुओं से वह अपने अस्तित्व की रक्षा करे तथा पालतू पशुओं का कोई हानि न पहुंचाये। कोई दूसरे लोग भी उनके पशुओं को चुराये भी नहीं और मार भी न डाले। पशुओं की सुरक्षा तथा अपने अस्तित्व की रक्षा का दायित्व वह स्वयं उठाता था। वास्तव में अस्त्र-शस्त्र चालन की परम्परा उसे विरासत में मिला है अखरा में सामूहिक प्रशिक्षण होता है। समूह में रहने की परम्परा भी उसे विरासत में मिला है।
वास्तव में अखरा का सीमांकन करना अतीत में बहादुरी का परिचायक था। अखरा का सीमा क्षेत्र आवश्यकतानुसार निर्धारित किया जाता है। ग्राम के यादव बन्धुओं के सीखने वाले व्यक्तियों के अनुसार होता है। अखरा से पत्थरों की दूरी 50 फीट हो सकती है, 50 गज भी हो सकती है, 20 फीट हो सकती है वास्तव में स्थान की उपलब्धता तथा यादव प्रशिक्षार्थी की संख्या के आधार पर सीमांकन किया जाता है।
अखरा या अखाड़े के रुप में प्रयुक्त होना- अखरा शब्द अखाड़ा का अशुद्ध रुप है। अखाड़ा शब्द के दो अर्थ होते हैं (1) व्यायाम शाला (2) संतों का समागम स्थल। वास्तव में अखरा में ये दोनों रुप समाहित है। अत: अखरा का सार्थक भाव हुआ वह सम्मेलन स्थल जहां लोगों को ज्ञान उपलब्ध कराये तथा शारीरिक प्रशिक्षण दिया जाये। यदि राऊत नाच कार्यक्रम से इसकी तारतम्यता जोड़े तो अखरा शब्द का भाव हुआ वह सम्मेलन स्थल जहां राऊत नाच के विविध पक्षों का ज्ञान उपलब्ध कराये तथा उन्हें दक्ष तथा समर्थ बनाये। वस्तुत: अखरा में राऊत नाच के विविध पक्षों का कार्यात्मक ज्ञान उपलब्ध कराया जाता है। अखरा प्रयोगात्मक प्रयोग शाला है। यह व्यवहारिक प्रशिक्षण शाला है।
कोई भी प्रशिक्षण के लिए एक गुरु की आवश्यकता होती है जो अनुभवी हो। यादवों की मान्यता के अनुसार गुरु बैताल अखरा के गुरु हैं। इनके बहुत से दोहों से यह जानकारी प्राप्त होती है कि गुरु बैताल इनके आदि गुरु थे-
जय गुरु रे जय गोर्रेया अखरा के गुरु बैताल।
चौसठ जोगिनी पूरखा के, बैहा म करै सहाय।।
पहले देवी मैं तोला सुमिरों, अखरा के गुरु बैताल।
चौसठ जोगिनी पुरखा के, बैंहा म करे सहाय।
रतनपुर के महामाया सुमिरो, अखरा के गुरु बैताल।
चौसठ जोगिनी पुरखा के, बैहा म होय सहाय।
उपरोक्त दोहे का अवलोकन करें तो अखरा के गुरु बैताल है। गुरु बैताल ये वैदिक ऋषि थे। वेद यथार्थ ज्ञान का बोध कराता है। बैताल ऋग्वेद के अनुयायी थे। ऋग्वेद आदि वेद है। ऋग्वेद में प्राकृतिक शक्तियों का देवतुल्य वर्णन है। गुरु बैताल का वर्णन श्रीमद भागवत तथा विष्णुपराण में मिलता है। विष्णु पुराण के स्कंध 3 अध्याय 4 में उल्लेख मिलता है । इसी प्रकार श्रीमदभागवत के स्कंध 12 अध्याय 6 में बैताल का वर्णन आया है।
अखरा में एक कुशल एवं अनुभवी व्यक्ति सिखाने का कार्य करते है। अखरा में पूर्वाभ्यास भी कराया जाता है और पुनराभ्यास भी कराया जाता है। यहां विविध कलाओं का ज्ञान कराया जाता है। यहां राऊत नाच कार्यक्रम के समस्त जानकारी का बोध कराया जाता है ताकि प्रदर्शन ठीक से किया जा सके इसमें सुहई के दोहे, काछन के दोहे, आशीष वचन के दोहे आदि की जानकारी भी दी जाती है। इसमें योगासन का भी ज्ञान कराया जाता है। शारीरिक शिक्षण भी दिया जाता है। गणवेश धारण भी की शिक्षा दी जाती है अखरा वास्तव में राऊत नाच कार्यक्रम की कर्मशाला है।
1. अखरा व्यायाम शाला के रुप में- यादव लोगों को बहादुर होना आवश्यक है क्योंकि गोचारण में उसे हिंसक पशुओं से अपने स्वयं की तथा अपने पशुओं की सुरक्षा करनी पड़ती है। विघ्न संतोषी लोग भी उसे बैर रखते हैं यद्यपि यादव स्वयं निश्छल होता है किन्तु सामंत प्रवृत्ति के लोग इन्हें परस्पर लड़ाने कीकोशिश करते हैं। अत: अपनी सुरक्षा के लिए इन्हें सचेत होना पड़ता है। यद्यपि आजकल ये संगठित हो रहे हैं जो शुभ सूचक है तथापित इन्हें बहादुर होना आवश्यक है अपनी शारीरिक सौष्ठव बनाने के लिए शारीरिक शिक्षण लेना आवश्यक है। इसके लिए विभिन्न दंड बैठक करते हैं। मल्लयुद्ध  की शिक्षा लेते है। कृत्रिम गदायुद्ध की शिक्षा लेते हैं। गदा चालन, लाठी चालन, तलवार चालन, विद्या गुरु चालन, अस्त्र-शस्त्र चालन भाला फेंक परशु (फरसा) चालन, आदि की शिक्षा अखरा में मिलती है। विभिन्न प्रकार के खेल जैसे कबड्डी , नूनपाल, गुलेलबाजी आदि की शिक्षा दी जाती है। तात्पर्य शारीरिक सुरक्षा संबंधी सभी विद्याओं की जानकारी मिलती है। आक्रमण तथा सुरक्षा दोनों तरह की शिक्षा उपलब्ध कराई जाती है। इसके लिए कृत्रिम युद्ध द्वारा अभ्यास कराया जाता है।
2. अखरा रंगमंच के रूप में- अखरा में राऊत नाच का प्रत्यक्ष कर्माभ्यास कराया जाता है। विभिन्न भाव भंगिमाओं की जानकारी दी जाती है। श्रृंगार करना तथा गणवेश धारण करना अखरा में सिखाया जाता है इससे मुखौटा बनाकर प्रदर्शन करने की कला का अभ्यास कराया जाता है। चेहरे आंख में लेपन कराने की जानकारी दी जाती है। प्रत्येक कला के प्रदर्शन का अवसर प्रदान किया जाता है। नाटक मंडली अथवा लीला मंडली में जिस प्रकार सजधज कर अभ्यास करना सिखाया  जाता है उसी प्रकार अखरा में भी राऊत नाच प्रदर्शन की जानकारी दी जाती है। अत: अखरा एक रंगमंच भी है।
3. अखरा एक योग शाला के रुप में- इसमें योगासन की जानकारी दी जाती है तथा योगाभ्यास कराया जाता है। इसमें यह सीख दी जाती है कि शरीर को निरोग कैसे बनाया जाये। इसमें कई प्रकार की योग की शिक्षा दी जाती है अत: अखरा एक योगशाला भी है जिसमें विभिन्न प्रकार की शिक्षा दी जाती है।
4. अखरा एक नाट्यशाला के रुप में-चूंकि राऊत नाच कार्यक्रम एक नृत्य का कार्यक्रम है अत: अखरा में यह शिक्षा दी जाती है कि राऊत नाच को कैसे आकर्षक एवं कलात्मक किस प्रकार बनाया जाये। राऊत नाच के विभिन्न शैलियों का इसमें अभ्यास कराया जाता है, इसमें कई प्रकार का स्थानीय नाच भी सिखाया जाता है जैसे राऊत नाच के साथ सुआनाच, डंडानाच आदि भी सिखाया जाता है। अत: नाट्य शाला के रुप में व्यवहरित होता है।
5. अखरा रणक्षेत्र में रुप में- यहां युद्ध कला का अभ्यास कराया जाता है। यहां अस्त्र-शस्त्र संचालन करने की शिक्षा दी जाती है। वास्तव में अखरा का प्रयोग कृत्रिम युद्ध क्षेत्र के रुप में किया जाता है। जहां आक्रमण तथा रक्षा की शिक्षा दी जाती है।
6. अखरा कवि सम्मेलन के रूप में-
चूंकि राऊत नाच कार्यक्रम में बीच-बीच में दोहा पारने की प्रथा है। अत: राऊत नाच सीखने वालों को दोहा पारने का अभ्यास कराया जाता है जो नीति के दोहे, वीरता के दोहे, कबीर के दोहे, रहीम तथा तुलसी के दोहे मलकूदास पद्यमावत आल्हा, महाभारत आदि के दोहे होते है। अखरा में कवि सम्मेलन की तरह कविता की जाती है। कभी-कभी स्वरचित दोहे बोलना सिखाते है। अखरा में आशुकवियों की बाहुलता होती है। चूंकि राऊत नाच में एक साथ नृत्य वाद्य एवं संगीत का स्वर सुनाई देता है अत: नर्तकों को दोहा अभ्यास कराना आवश्यक रुप से सिखया जाता है। अत: अखरा एक छोटा बड़ा कवि सम्मेलन है।
7. प्रशिक्षण शाला के रुप में अखरा- वास्तव में यह व्यवहारिक प्रयोगशाला है जिससे राऊत नाच कार्यक्रम से संबंधित सभी प्रकार की शिक्षा दी जाती है। इसमें अपरिपव व्यक्ति को परिपक्व बनाने की शिक्षा दी जाती है। अखरा के माध्यम से न केवल राऊत नाच सीखता है अपितु विभिन्न प्रकार के व्यायाम योगासन साहित्य नाटक नाच आदि अपने आप सीखता है। यद्यपि छोटा बालक एक ही वर्ष में नहीं सीखता किन्तु दीर्घ अंतराल के बाद धीरे-धीरे जीवन के व्यवहार सीख लेता है।
8. पाठशाला के रुप में- इसमें छोटे-छोटे बच्चों को भी राऊत नाच की शिक्षा दी जाती है। नाच के माध्यम से बालक कई प्रकार की शिक्षा सहज ही सीख लेता है। व्यायाम, योग आदि से निरोग होने की कला तथा आत्म सुरक्षा की भावना बालकों में विकसित होती है। समूह में रहने की भावना भी उनमें विकसित होती है। इसके माध्यम से बच्चों का व्यक्तित्व विकास भी होता है।
9. कर्मशाला के रुप में अखरा- इसमें राऊत नाच का व्यवहारिक ज्ञान कराया जाता है। अखरा में प्रत्यक्ष कर्माभ्यास के माध्यम से कई बातों की जानकारी प्राप्त होती है। कई अनुभवी व्यक्तियों के माध्यम से उनके विचारों में सामंजस्य होता है और कई नई बातों का बोध होता है उनकी कला में निखार आता है। कला को आकर्षक बनाया जाता है। प्रतिवर्ष प्रदर्शन को लोग देखकर नयी बातें सीखते और अखरा में नया प्रयोग करते है ताकि राऊत नाच में कलात्मक सुधार आये। परम्परागत साधन में नवीनता आती है। नवीनता तथा परम्परागत शैली में बदलाव लाकर उसको नया बनाया जाता है। जैसे दुर्ग, राजनांदगांव, रायपुर आदि से आने वाले गोलों को देखकर बिलासपुर वाले भी नए प्रयोग करते है। नए प्रयोग अखरा के माध्यम से होता है।
10. प्रयोगशाला के रुप में अखरा-
अखरा में व्यवहारिक ज्ञान कराया जाता है। इसमें सैद्धांतिक का कोई औचित्य नहीं। जो बात देखते सीखते हैं वह प्रत्यक्ष अनुभव पर आधारित है। अनुभूति के प्रयोग करने के बाद ही राऊत नाच का सार्वजनिक प्रदर्शन होता है।
अखरा का शक्ति देवी के रुप में प्रयुक्त होना
अखरा शब्द  'अक्षराÓ का अपभ्रंश है। अक्षरा  'अक्षर ब्रह्मÓ की शकित है। प्रथम (ú) को अक्षर कहते हैं। अक्षर की शक्ति का नाम अक्षरा है। जो शक्ति अक्षर में स्थित हो उसे अक्षरा कहते हैं। इसे देवी प्रणव (ú) भी कहते हैं।
अखरा शब्द का विन्यास-
अखरा छत्तीसगढ़ शब्द है। अखरा शब्द संस्कृत के अक्षरा शब्द का मूलत: तद्भव रूप है अक्षरा अक्षर शब्द का स्त्रीलिंग तद्धित रुप है अक्षर का स्त्रीलिंग रुप अक्षरा है। ú (ओम) को अक्षर कहते हैं। इसे प्रणव भी कहते हैं। यह प्रत्येक प्राणी के घट-घट में व्याप्त है तथा प्रत्येक वस्तुत के कण-कण में व्याप्त है। अत: अक्षर सर्वव्यापी ब्रह्म है। इसका रूप निराकार है। निराकार होते हुए भी प्रत्येक छोटे कण को पर्वत बना सकता है तथा पर्वत को धूल बना सकता है। अत: सर्वशक्तिमान भी इसे कहा जाता है। अक्षर अव्यक्त ब्रह्मा है क्योंकि नतो उसका उद्भव होता है और न तो इसका विनाश होता है। सर्वज्ञ सर्वव्यापकता तथा सर्वशक्तिशाली होते हुए भी यह शांत रहता है अत: इसे सच्चिदानंद कहा जाता है। उस अक्षर को आंकार कहा जाता है  अ, उ, म ये तीन मात्रा स्थित होते हैं।
अक्षर ब्रह्म की शक्ति का नाम है अक्षरा। अक्षरा दो शब्द से मिलकर बना है अ+क्षरा अ का अर्थ होता है नहीं तथा क्षरा का अर्थ है नाश होने वाली। अत: अक्षरा का शाब्दिक भाव हुआ नाश होने वाली नहीं हो अर्थात अविनाशी शक्ति अक्षरा का पूर्ण भाव हुआ जिस शक्ति का नाश न होवे वही अक्षरा है। दूसरे रुप में अक्षर में स्थित शक्ति अक्षरा है जो गुण अक्षर में है वही गुण अक्षरा में है। अक्षर सर्वव्याप्त तो अक्षरा सर्वव्याप्ता है। अक्षर शक्तिमान है तो अक्षरा शक्तिमती है। अक्षर सर्वज्ञ है तो अक्षरा सर्वज्ञा है। अक्षर निराकार है तो अक्षरा निराकार शक्ति है अक्षर अव्यक्त है तो अक्षरा अव्यक्तता या अव्यक्त शक्ति अक्षर सच्चिदानंद है तो अक्षरा सचिदानन्द स्वरुप शक्ति है। अक्षर सत् है तो अक्षरा सत्ता, अक्षर चित्त है तो अक्षरा चिण्मय शक्ति, अक्षर आनंद है तो अक्षरा आनन्दायिनी शक्ति आनंद स्वरुपा है, यदि अक्षर निराकार ब्रह्म है तो अक्षरा निराकार ब्रह्म की शक्ति। यदि अक्षर ब्रह्म है तो अक्षरा उसकी ब्रह्म शक्ति। यदि अक्षर अविनाशी ब्रह्म है तो अक्षरा अविनाशी शक्ति यदि अक्षर ओंकार है तो अक्षरा ओंकार स्वरुपा शक्ति। यदि अक्षर ú  है तो अक्षरा úस्वरुपा शक्ति है। यदि अक्षर ú में अ उ म स्थित है तो अक्षरा ú में अ उ म शक्ति रूप  में स्थित है।  अक्षरा को देवी शक्ति के रूप में निम्नानुसार उल्लेख किया जा सकता है-
1. देवी प्रणव के रूप में
इसे अक्षरा नाम देवी प्रणव (ú) के रुप में किया जाता है क्योंकि ú (अक्षर या प्रणव) की यह शक्ति रूप है।
2. देवी शक्ति के एकाएक रूप में
यह समस्त देवी शक्ति के निराकार अव्यक्त रूप है। व्यक्त रूप में यह दुर्गा है।
3. ज्ञान शक्ति के रूप में-
अक्षर के बोध कराने वाली शक्ति को ज्ञान अथवा बोध शक्ति कहते है। बोध कराने वाली शक्ति अक्षरा है। अक्षर के देवी अक्षरा है। अक्षरा नाम सरस्वती का है। अक्षरा इसका निराकार है।
दुर्गा सप्तमी के प्रथम अध्याय में अक्षरा का वर्णन श्लोक 74 में  है-
सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता।
अर्धमात्रा स्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषत:।।
तात्पर्य- हे नित्य अक्षरा तुम्हें सुभा अर्थात जीवन दायिनी हो। तुम्हीं (प्रणव में) आकार, उकार, मकार इन तीन मात्राओं के रुप में प्रतिष्ठित हो जो बिन्दुरुपा नित्य अर्धमात्रा है जो विशेषरुप से अनुच्चारणीय है वह भी तुम ही हो।
अक्षर अनादि है तो अक्षरा अनादि शक्ति है अक्षर निर्विकार है तो अक्षरा निर्विकार शक्ति है। अक्षर के प्रत्येक महिमा में अक्षरा का रुप हमें मिलता है। वास्तव में ब्रह्म की सक्रिय अवस्था अर्थात क्रिया की उसकी शक्ति अक्षरा है। जड़ में अक्षर (ब्रह्म) स्थित है तो अक्षरा उसकी जड़ता है। यदि चेतन में ब्रह्म स्थित है तो चेतना ही अक्षरा है यदि विश्व में जड़ और चेतन का अस्तित्व है तो अस्तित्व होने की शक्ति अक्षरा है। यदि अक्षरा अव्यक्त ब्रह्म है तो अक्षरा उसकी अव्यक्त शक्ति है।
गीता में अव्यक्त शक्ति के दो प्रकार है। अपराशक्ति (मूल प्रकृति) तथा पराशक्ति (चेतन शक्ति) है। अक्षर को अज कहते हैं अज ही उसकी शक्ति अक्षरा है। माण्डूवय उपनिषद में अक्षर ú की चार अवस्थाएं हैं। आकार जागरित अवस्था का सूचक है। उकार स्वप्न अवस्था का संकेत देता है मकार सुसुप्त अवस्था का बोधक है अर्धमात्रा तुरीय अवस्था को प्रदर्शित करता है अक्षरा चारों अवस्थाओं की
समन्वित शक्ति हुई।
जब अक्षर ईश्वर है अक्षर ईश्वरी शक्ति है इसे ही माया, महामाया, योगमाया प्रकृति त्रिगुणमयी त्रिगुणी आद्या आदिशक्ति आदि महामाया परमेश्वरी मूल प्रकृति आद्यविद्या पराशक्ति शब्दशक्ति ज्ञानशक्ति, बोधशक्ति, इच्छाशक्ति, सत्ता परमसत्ता इत्यादि नामों से संबोधित किया जाता है।
व्यक्त रुप में इसे दुर्गा कहते हैं- दशहरा के पूर्व नवरात्रि पर्व आता है जिसमें दुर्गा के नवरुपों की पूजा की जाती है ये हैं- 1. शैलपुत्री 2. ब्रह्माचारिणी 3. चंद्रघटा 4. कुष्माण्डा 5.स्कंधमाता 6. कात्यायनी 7. कालरात्रि 8. महागौरी 9. सिद्धिदात्री
दुर्गा इनका एकाकार रूप है। दुर्गा  के नवरुपों को नवदुर्गा कहते हैं। अक्षरा का व्यकत रूप में प्रादुर्भाव होता है तब इसे शक्तियों की अधिष्ठात्री देवी दुर्गा कहते हैं महादुर्गा भी कहा जाता है इसी को महालक्ष्मी कहते हैं। महालक्ष्मी के तीन रुप हैं 1. महालक्ष्मी 2. महाकाली 3. महारस्वती।
इन तीनों से लक्ष्मी काली और सरस्वती की उत्पत्ति होती है। दुर्गा को अनेकों नाम से संबोधित करते हैं जैसे चण्डिका चामुण्डा महामाया भगवती महाभगवती आदि। दुर्गा के 108 नाम है मातृशक्ति 7 है । तथा दुर्गा की उपशक्ति योगनी कहलाती है ये 64 है इसलिए इसे चौसठ जोगिनी कहते हैं। माता की अनेकों संख्या है। इनके दो रुप है 1. शिवा जो लोगों का हित चाहती है 2. अशिवा जो लोगों के लिए हितकर नहीं है।
नवरात्रि पर्व में अक्षरा को व्यक्त रुप दुर्गा को प्रदर्शित किया जाता है। दशहरा के दिन पुन: अपने मूलरूप में अक्षरा पुन: खोड़हर या खड़हर में प्रतिस्थापित हो जाती है।
खोड़हर शब्द का शब्द विन्यास- खोंड़हर छत्तीसगढ़ी शब्द है। यह वास्तव में संस्कृत के तीन शब्दों के मेल का अशुद्ध उच्चारण रुप है। खोड़हर में संस्कृत के तीन शब्द क्रमश: 'स्वÓ ओम अक्षर स्थित है। अत: खोंड़हर शब्द का विन्यास स्व+ओम+अक्षर हुआ। स्व का अर्थ है आकाश। ओम का अर्थ है ú=प्रणव । अक्षर का अर्थ है निराकार ब्रह्म। अत: खोड़हर का शाब्दिक अर्थ हुआ आकाश रुपी निराकार प्रणव रूप ब्रह्म खोड़हर का सरल अर्थ हुआ आकाश स्वरुप वाले निराकार ú(प्रणव) है।
वास्तव में खोड़हर निराकार प्रणव (ú) रुप अक्षर है। इसी निराकार ब्रह्म में अखरा स्थित है। अखरा अक्षरा का अपभ्रंश है अत: निराकार ब्रह्म ú (प्रणव) अक्षर में निवास करने वाली शक्ति अक्षरा है। वास्तव में छत्तीसगढ़ी यादव जहां बहादुर थे वहीं वे प्रारंभ से ज्ञानवान भी थे उनके पुकारने वाले शब्दों में अद्भुत सामंजस्य दिखाई देता है। जहां अक्षर में उसकी अक्षरा स्थित है वहीं छत्तीसगढ़ी शब्द खोड़हर में अखरा देवी स्थित है। वास्तव में इसके विचित्र शब्द संयोग से बुद्धिमता झलकती है।
खड़हर शब्द का शब्द विन्यास-  खड़हर शब्द भी छत्तीसगढ़ी शब्द है। छत्तीसगढ़ी शब्दों में संस्कृत  के शब्दों का अशुद्ध उच्चारण होता है। इसे अपभ्रंश कहते हैं व्याकरण की भाषा में इसे तद्भव रुप कहते हैं। खड़हर शब्द भी संस्कृत के दो शब्द मिलकर बना है ख और अक्षर अत: खड़हर शब्द का विन्यास हुआ। ख+अक्षर ख का अर्थ है आकाश और अक्षर का अर्थ है निराकार ब्रह्म आकाश रुपी निराकार ब्रह्म प्रणव ú है इसे अक्षर भी कहा जाता है। अक्षर में स्थित शक्ति अक्षरा है। अखरा अक्षरा का अपभ्रंश है जहां अक्षर में स्थित शक्ति अक्षरा है। वहीं खड़हर में स्थित शक्ति अखरा है विचित्र संयोग इसमें भी दिखाई दे रहा है। जहां संस्कृत में अक्षर में स्थित शक्ति अक्षरा है वहीं खड़हर में स्थित शक्ति अखरा छत्तीसगढ़ी में दिखाई दे रही है।
खोंड़हर तथा खड़हर में तादात्मय - शब्द विन्यास करने में खोंड़हर और खड़हर के अर्थ में कोई भिन्नता नहीं दिखाई दिया। खोड़हर का शब्द विन्यास ख +ओम+ अक्षर है और खड़हर का शब्द विन्यास ख+अक्षर है। दोनों का समान अर्थ निराकार ब्रह्म प्रणव ú है। यदि खोंड़हर के शब्द विन्यास में ओम हटा ले तो खोंड़हर के अर्थ में कोई अंतर नहीं होता बल्कि खोड़हर खड़हर बन जाता है। खोंड़हर तथा खड़हर में स्थित शक्ति अखरा है।
खोंड़हर तथा खड़हर में विचित्र तादात्मय है। इनमें अखरा के सीमांकन में चार पत्थरों का औचित्य अखरा निर्माण के समय चार पत्थर गाड़े जाते हैं या चार चौरे  बनाये जाते हैं। इन चारों पत्थरों या चार चौरों में चार देवी शक्तियां निवास करती है। उत्तर दिशा में स्थित पत्थर में कौमारी (कुमार अर्थात् स्वामी कार्तिकेय की शक्ति) निवास करती है। दक्षिण दिशा में स्थित पत्थर में बाराही (बाराह की शक्ति) निवास करती है। पूर्व दिशा में स्थित पत्थर में ऐन्द्री (इन्द्र की शक्ति) निवास करती है तथा पश्चिम दिशा में स्थित पत्थर में वारुणि (वरुण शक्ति) निवास करती है।
ú (प्रणव) स्वास्तिक तथा त्रिशूल चिन्हों का औचित्य-
अखरा निर्माण के समय मिट्टी के घड़े के ढक्कन  में ú, स्वास्तिक तथा त्रिशूल के चिन्ह दिखाई देते हैं। (कहीं नहीं दिखाई देते हैं) इसका औचित्य  क्या है ? इसका उच्चारण ओम है अत: इसे ओंकार भी कहते हैं ú शांत है और इसकी शक्ति अक्षरा शांत स्वरुपा है। ú निर्विकार है किन्तु विकार शक्ति के कारण आता है सामावस्था में अक्षरा में तीन गुण विद्यमान होते हैं 1. सतोगुण 2. रजोगुण 3. तमोगुण।
सतोगुण प्रकाश आनन्द तथा अध्यात्म का प्रतीक है यह शांत रहता है। रजोगुण क्रिया का प्रवर्तक है। इसी के कारण गतिशीलता आदि है। स्वास्तिक चिन्ह रजोगुण प्रकट करता है यह गति तथा परिवर्तन प्रकट करता है। तोगुण उदासीन है तथा यह मोह उत्पन्न करता है। अक्षरा अर्थात निराकार देवी को व्यक्त किया जावे इसके तीन रुप प्रकट होते है। महासरस्वती, महालक्ष्मी तथा महाकाली जो क्रमश: सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण के प्रतीक हैं जो क्रमश: ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति और इच्छाशक्ति का परिचायक है और उत्पत्ति स्थिति तथा लय के प्रतीक हैं।
त्रिशूल का अर्थ तीन प्रकार का कष्ट है। ये कष्ट आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक है। त्रिशूल यह दर्शाता है कि अपनी मर्यादा का उल्लंघन न किया जावे। सीमाओं के अतिक्रमण से शूल (पीड़ा) होगा। स्थिरता को प्रकट करता है त्रिशूल के तीन नोंक होते है। ये क्रमश: अक्षर (ú) के तीन व्यक्त रूप को दर्शाता है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश जोउत्पत्ति स्थिति तथा लय के प्रतीक है। त्रिशूल अक्षरा (ú की शक्ति) के व्यक्त रूप को प्रकट करता है। त्रिशूल के तीनों नोंक महा सरस्वती, महालक्ष्मी तथा महाकाली को दर्शाते हैं। त्रिशूल के तीनों (नोंक) ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति और इच्छाशक्ति को प्रकट करते हैं त्रिशूल के तीनों शूल सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण प्रकट करते है। त्रिशूल के तीनों शूल शक्तियों तथा गुणों के साम्यवस्था को प्रकट करती है वास्तव में ú चिन्ह सतोगुण को प्रकट करता है। स्वास्तिक रजोगुण को दर्शाता है तथा त्रिशूल तमोगुण को प्रकट करता है जो अवरोध अर्थात स्थिरता को दर्शाता है।
अक्षरा... अखरा... अखाड़ा छत्तीसगढ़ी शब्द अखरा शक्ति देवी के रुप अक्षरा तथा अखाड़ा की सार्थकता से प्रतिनिधित्व कर रहा है। अक्षरा से अखरा शब्द बना। अखरा से अखाड़ा बना छत्तीसगढ़ी यदुवंशी दोनों रुपों को एक साथ प्रतिनिधित्व दे रहे हैं। संस्कृत शब्द अक्षरा धीरे-धीरे अखाड़ा इस प्रकार बना अक्षरा अखरा अखाड़ा वस्तुत: अखरा शब्द मूलत: वैदिक शब्द अक्षर (ú) का स्त्रीवाचक शब्द अक्षरा (ú शक्ति प्रणव) का तद्भव रुप है। काछन के अधिकांश दोहों में अखरा आता है अखरा के साथ गुरु बैताल भी काछन के अधिकांश दोहों में आते ही हैं।
गुरु बैताल वैदिक ऋषि थे। ये ऋग्वेद के अनुयायी थे। वेद के अनुसार विश्व के निर्माण में चेतन तत्व का विशेष योगदान है। चेतन तत्व की परिकल्पना देव तत्व अथवा शक्ति के रुप में की गयी है जो जगत का संचालन करते हैं। जड़तत्व में भौतिक परिवर्तन होते हैं किन्तु संचालन शक्ति चेतन तत्व के हाथ में होती है। गुरु बैताल ने अक्षर (ú प्रणव) का प्रयोग देवतत्व के रुप में किया और बाद में अक्षरा (ú शक्ति प्रणव) के रुप में किया।
मातृ शक्ति के प्रयोग के साथ अक्षरा (शक्ति प्रणव) का प्रयोग बाहुल्यता से होने लगा वेदों के प्रचलन के साथ तंत्र का तांत्रिक प्रयोग होने लगा। तांत्रिक प्रयोग के प्रचलन के साथ अक्षरा शब्द अखरा में परिवर्तित हो गया। तंत्र के प्रयोग के साथ योग और व्यायाम का प्रचलन भी हुआ। यादव लोग के पूर्वज बैताल के अनुयायी थे जैसे कि अधिकांश मंत्र (दोहे) में चौसठ योगिनी पुरखा के अखरा के गुरु बैताल का प्रयोग होता है। वास्तव में अक्षरा का शक्ति तत्व के निराकार अव्यक्त रुप का प्रयोग है।
 साभार - रऊताही 1995

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