Thursday 14 February 2013

राउत नाचा : वीर वेश धारण कर नाचते हैं राउत

भारतीय ऋषि मुनियों ने प्रकृति का सूक्ष्मतम अध्ययन करने के बाद पूरे समाज के लिए बहुत वैज्ञानिक धरातल पर नियम बनाये थे ताकि मनुष्य समुदाय को प्रकृति के अनुकूल चलाते हुए उसे अधिकृत सुख-सुविधा दी जा सके तथा उपयोगी बनाया जा सके।
राजाओं के लिए भी इन नियमों का परिपालन आवश्यक था। युद्ध आदि कार्यों को समाप्त कर देवशयनी एकादशी से सारी शैन्य शक्ति को वापस राजधानी अथवा अपने राज्य सीमा में वापस आना अनिवार्य था आषाढ़ शुक्ल पक्ष की इस एकादशी से ही चतुर्मास आरंभ हो जाता है विवाह -शादी आदि सभी कार्यों में बंदिश लग जाती है युद्ध रूक जाते हैं और साधु सन्यासियों का प्रवास और यात्रा का क्रम भी रूक जाता है अगले चार माह वर्षा के होते हैं अतएव पथ चलने लायक नहीं रहते थे। साधु संत किसी एक ग्राम में रह कर ईश्वर भजन तथा उपदेश देने का कार्य करते थे। देवता और देवियों का यह शयनकाल है।
सेना से वापस आये सैनिक तथा अन्य लोग कृषि कार्यों में जुट जाते हैं। यह चार माह कृषि कार्यों के लिए समर्पित माह है। व्यापारी जो बाहर व्यापार करने गऐ थे वे भी घर वापस आ जाते थे। महिलाओं को अपने पतियों का चार माह भरपूर साथ मिलता। यदि किसी का पति नहीं आ सका तो उसके लिए यह विरह काल माना जाता था। विरह गाया जाता था  'सावन बीता जाये पिया नहीं आये वगैरह-वगैरह।Ó
चार मास बीतने के बाद नवरात्रि में देवी-देवताओं से लगभग पैंतीस चालीस दिन पूर्व अश्विन शुक्ल एक को नवरात्रि आरंभ में जागृत अवस्था में आ जाती है। देवी उपासना पूरे नौ दिन चलती है। दसवें दिन विजयादशमी का त्यौहार मनाया जाता है इसदिन समस्त वीरजाति सैनिक आदि फिर अपने सैन्य कार्यों की तैयारी में अपने अस्त्र-शस्त्रों को धार देते हैं और इनकी पूजा करते हैं। अहीर, यादव, ठेठवार, ग्वाला, गोप, ग्वाली, पहटिया, चरवाहा, बरदिहा या रावत कहा जाने वाला वर्ग जो इन बीते चार महीनों में पशु सेवा में लीन रहते हैं, ये आज इस अवसर पर मातर जगाते है। ये दोहा पारते हैं-
चार महीना चराएंव खाएँव दही के मोरा,
आगे मोर दिन देवारी छोड़ेंव तोर निहोरा।
छत्तीसगढ़ में इस समाज को राउत के नाम से सामान्यत: संबोधित किया जाता है मातर जगाने के कार्य में गांव के बाहर दैहान में जहां गायों को प्रतिदिन सुबह मालिकों के घर से ढीलकर एकत्र किया जाता है एक गड्ढा खोदकर पुराने हल के टूटे हुए टुकड़े को गाड़ दिया जाता है या गाय के खूंटे को जिसे खोडहर कहते हैं गड़ा देते हैं यहां मातर याने मातृदेवी की पूजा की जाती है। हल के टुकड़े को गाडऩा याने हल विषयक काम समाप्त करना है मातर कार्य में भी बाजार या मेला सा दृश्य उपस्थित रहता है। इस दिन गाय बैलों का श्रंृगार किया जाता है उन्हें अच्छा भोजन कराया जाता है।
दैहान में पकवान खीर पूरी मिष्ठान आदि बनाया जाता है। कुछ राउत लोग बकरों की बलि भी माता को चढ़ाते है यहां यज्ञ की तरह  अग्नि में गुड़ घी की आहुति दी जाती है और अपने नाता रिश्ता और इष्ट मित्रों को खिलाया पिलाया जाता है। इस मातर कार्यक्रम में कई बार दूसरे गांव के राउत भी सम्मिलित होते है। कभी-कभी इस कार्यक्रम में भी मड़ई ध्वज रखा जाता है। मातर शब्द वास्तव में संस्कृत के मातृ शब्द का अपभ्रंश है।
मड़ई ध्वज- मड़ई एक बड़े बांस में चारों तरफ बांस की खप्पच्चियों द्वारा बनाया जाता है इसे पन्नी रंगीन कागज की झंडिय़ों व झालरों से सजाया जाता है यह आधुनिक बिजली के टावर की आकृति का नीचे तीन फुट बांस छोड़कर मोटा बनाया जाता है जो ऊपर जाकर कुछ सकरा हो जाता है। दीप स्तम्भ की तरह इसकी के ऊंचाई 15-20 फुट से कम नहीं रहती सब के शीर्ष में मयूर की पूंछ से इसे अलंकृत किया जाता है और मुर्गे के पंख भी बांधे जाते हैं। इसे प्राय: गोंड़ जाति का व्यक्ति उठाए रखता है इसके लिए वह अपनी कमर में एक  गमछा मजबूती से लपेटकर रखता है उसी में इसके नीचे के भाग को अटका दिया जाता है ताकि इस भारी भरकम ध्वज को आराम से संभालकर उठाया जा सके।
मातर जगाने के समय राउत जाति के लोग अपने अस्त्र-शस्त्रों की पूजा भी करते हैं इसे अखाड़ा कहा जाता है। देवउठनी एकादशी को अन्य सैनिकों की तरह राउत जाति के लोग भी वीर वेशभूषा धारण करते हैं। अपने देवताओं की होम धूप से पूजा करने के बाद कभी-कभी कुछ राउतों पर देवता चढ़ आता है इसे काछन कहा जाता है। इस समय राउत मदोन्नमत स्थिति में रहता है राउत नाच के समय राउत अपने सिर पर पगड़ी बांधता है और उसे रंग-बिरंगी पन्नियों से अथवा गेंदा के फूलों की माला लपेटकर सजाता है।
ऊपर मोर के पंखों के डंठल से बनी फुंदना लगी कलगी खोंसता है। माथे पर लाल सिंदूर से टीका लगाता है मुंह को वृंदावन से लायी पीली मिट्टी से रामरज कहते हैं प्रसाधित करता है कभी-कभी अभ्रक से भी चमकाता है आंखों में काजल आंजता है गालों को भी हल्के लाल रंग से सजाता है या उसमें काजल की छोटी-छोटी बूंदे लगाता है। गले में गेंदा फूल या कागज के रंग-बिरंगी फूलों की माला पहनता है अपने वक्ष स्थल पर कवच की तरह कौडिय़ों से सज्जित वस्त्र पहनता है इसके नीचे चकमकी कपड़े या मखमल का सलूखा, कुरता, बंडी जो छींटादार होता पहनता है। कमर के नीचे चुस्त कसी हुई घुटने तक ऊंची धोती पहनी जाती है। पैरों में जूते मोजे के ऊपर पहने जाते हैं।
वीर वेश धारण करने के क्रम में राउत अपने कमर में कमरपट्टा, हाथ के बाजुओं में बाजू बंध तथा कलाईयों में भी पट्टीनुमा कौडिय़ों का बना पट्टा बांधता है। पीठ पर मयूर पंख से बना झाल बांधता है हाथ में खुली तलवार की तरह लाठी धारण करता है और बाएं हाथ में फरी या ढाल रखता है।
इस शौर्ययुक्त वेशभूषा वाला वीर सैनिक राउत क्योंकि इस अवसर पर नाचने निकलता है। इस लिए पैरों में घुंघरु और कमर में भी बड़ी-बड़ी घंटिया बांधता है। इसका पद चालन भी सिपाही की तरह होता है।
सैनिक वाद्य के स्थान पर गड़वा बाजा होता है जिसमें ढोल, निसान, टिमकी, ढपली, मोहरी, डफला, मांदर, गुरदुम दुतहरी झांझ, मजीरा आदि वाद्य होते है आजकल इसे ज्यादा श्रंृगारिका बनाने के लिए परियां भी नाचते हुए साथ चलती है जो वास्तव में पुरुष भी होते है। नारी वेशभूषा धारण किये रहते हैं। नाचने वाले राउतों का एक समूह चार पांच से लेकर तीस-चालीस तक कुछ भी हो सकता है, इसे गोल कहते है।
देवउठनी एकादशी को ही राउत लोग साप्ताहिक बाजार में जाकर बाजा वालों को ठेके पर लेते है। राउत नाचा का पूरा सरजाम युद्ध जाती सैनिक टोली की ही तरह ही रहता है। राउत जो दोहा नाच के मध्य में पारते हैं वे कबीर, रहीम, तुलसीदास आदि के होते हैं और कभी-कभी स्वरचित  आशु पद भी होते है जो मौके की नजाकत के अनुसार होते हैं। साप्ताहिक बाजार में जाकर राउतों का यह दल पूरे बाजार की परिक्रमा करता है, जिसे बाजार बिहाना कहा जाता है।
आजकल बाजा वाले बहुत महंगे हो गये है अतएव इनके लिए पैसे की व्यवस्था करने राउतों का गोल अपने-अपने किसानों व मालिकों के घर-घर जाकर नाचता है और उनसे धोती तथा नगदी पुरस्कार प्राप्त करता है इसी कारण अब राउत नाच कार्तिक पूर्णिमा के बाद भी बीस-पच्चीस दिन और चलता रहता है। राउत नाचा के दिनों में राउतों का दैनिक कार्य पशुओं को चराना और दुहना इत्यादि बंद रहता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि यह सारा दृश्य शौर्यमय रहता है इन्हीं दिनों वे अपने सारे त्यौहार गोवर्धन पूजा इत्यादि मना लेते है।
साभार-बिलासपुर, रऊताही 1995

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