Saturday 16 February 2013

यादव संस्कृति

भारत में अवस्थित जितनी जातियां हैं उनमें यादवों और ब्राह्मणों का इतिहास सबसे पुराना है। प्राचीनतम वैदिक युग से ही हमें यादव वंश के अस्तित्व का परस्पर प्रमाण मिलता है।
रामलखन सिंह यादव के कथनानुसार काल के इस त्रिधा- विभाजन, प्राचीन, मध्य, आधुनिक परम भगवान श्री कृष्ण की त्रिभंगी मूर्ति का ही प्रभाव है काल यष्टि पर कृष्ण पर कृष्ण  त्रिभंगी मूर्ति का पक्षेप ही अनंत काल का त्रिधा विभाजन प्राचीन काल, मध्यकाल और आधुनिककाल के रुप में हुआ है। अन्य जातियां अधिकतर मध्यकाल से अपना उल्लेख पा सकीं है लेकिन यह यादव जाति इस मायने में वैदिक जाति है कि इसके वंश का उल्लेख वेदों में भी मिलता है। सच पूछा जाये तो यादव जाति ही आर्य जाति-समूह आर्यन एथोनस का मेरुदण्ड है। डॉ. राजबली पांडेय, राहुल सांकृत्यान, डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, भारतीय विद्वानों ने इसे स्पष्टत: स्वीकार किया है कि आर्य-रक्त की सर्वाधिक शुद्धता यादवों में ही रक्षित है। चूंकि अमरकोण में एवं अन्य ग्रंथों में भी आभीर गुर्जर, जाट का समान धर्म जाति के रूप में उल्लेख किया गया है इसलिए यादव को जाति के साथ ही एक संजाति समूह कहना अतिश्योक्ति नहीं है। आभीर (अहीर) और गुर्जर के अलावा जाट प्रभृत्ति अनेक ऐसी जातियां है जिन्हें इस संजाति -समूह प्रजाति के अंश रुप में स्वीकार किया जा सकता है।
जब किसी जाति का वर्चस्व साहित्य में निहित रहता है तो उसे केवल इतिहास के उल्लेख से अधिक महत्व दिया जाता है क्योंकि विशेष से इतिहास लिखा जा सकता है। मध्यकालीन संगी 'अहीर टोड़ीÓ  'अहीर-वैभवÓ जैसे राग, भारतीय  द्वंद्व शास्त्र में वर्गित  'अहीर - छंदÓ जैसा द्वंद्व लोक नृत्यों के बीच मध्यप्रदेश के बिलासपुर क्षेत्र में प्रचलित 'राउत नृत्यÓ जैसे लोक नृत्य इत्यादि इसके सैकड़ों प्रमाण है।
मध्यकालीन चित्रकला में राजपूत-शैली कांगड़ा-शैली बसोइली शैली इत्यादि के चित्रों में अंकित नारी-छवियां मूलत: ब्रज वनिताओं से ली गई है। यदि रांग-अनुरागी, यादव-संस्कृति भारत में नहीं रही होती तो शायद बिहारी के ललित दोहे भी नहीं होते क्योंकि रागात्मक भाव ही किसी भी रचनाकार की रचना प्रक्रिया को उदीप्त करती है।
एक उज्र्जस्वी जाति  के होने के कारण यादवों का इतिहास और यादव साहित्य भी सिर्फ उज्जवल ही नहीं है बल्कि इसका भूगोल भी अत्यंत विस्तृत रहा है। यादव राजा 'देवगिरीÓ मैसूर का राजा 'चर्मराज वाडियारÓ इत्यादि से लेकर नेपाल में कुछ शताब्दी पूर्व तक यादवों का ही राज्य रहा। कलचुरियों, होयसलों, सातवाहनों, चेदिराज्यों, पल्लव आदि महान जनपदों के शासक अल्प अन्तरालों को छोड़कर मूलत: यादव ही थे।
प्रत्येक देश के प्रागैतिहासिक काल में पौराणिक कथा का बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान होता है और पौराणिक कथा इसी के सहारे इतिहास से पहले पुराण बनता है। इसे भारत भी प्रमाणित करता है। अट्ठारह पुराणों वाला यह देश-पुराण चेतना का इतना धनी है कि आज भी भारत में पौराणिक-अध्ययन विश्लेषण अपनी इति पर नहीं पहुंच सका है। यहां यह उल्लेखित है कि तीन-चार पुराणों को छोड़कर शेष पुराणों में इन्हीं यादवों का वर्चस्व का उद्घोष है। आज इस राष्ट्र की जिस भावनात्मक एकता की बात करते हैं और चार महातीर्थों के माध्यम से संपूण्र भारतवर्ष को एक सूत्र में बांधने का श्रेय श्री शंकराचार्य को देते हैं। उसके आदि-प्रवर्तक सचमुच में भगवान कृष्ण ही थे। आधुनिक भारतीय नेताओं में विलक्षण प्रतिभा के धनी राममनोहर लोहिया ने भगवान श्री कृष्ण पर लिखित अपने 'महाप्रबंधकÓ में भी कृष्ण तो ही राष्ट्र निर्माता रूप की प्रमाण-समर्थित उपस्ािापना की है। यदि यादव जाति इस महिमा मंडित रुप में नहीं रही होती तो शायद हमें वह महाभारत भी नहीं मिल पाता जिस महाभारत के बारे में यह सूक्ति बहुधा चर्चित है 'यत्र भारते तन्न भारते है।Ó
हिन्दू जातियां और आर्येत्तर जातियों की महागाथा ही महाभारत है। उसमें जो वंश वृक्ष प्रस्तुत किया गया है वह सोपान मूलक केन्द्रापगामी और बहुमुखी होने के बावजूद यादव बीज को ही वंश मूल के रुप में स्वीकार करता है। इतना ही नहीं यादव जाति और यादव कथा ने इस देश को भक्ति का अवदान दिया है। प्रसिद्ध विद्वान शेरदान ने भक्ति को सामूहिक अवचेतना में विकसित होने वाली हर्षोन्माद की संज्ञा दी है। यह श्रेय यादवों को ही है। जिन्होंने इसके पौराणिक काल से लेकर आधुनिक काल तक में दर्शन और साहित्य में प्रतिष्ठित किया है।
भारतीय साहित्य के परिवृत्त में जो प्राचीन हिन्दू-संस्कृति रही है उसका केन्द्र गौ रहा है। गो-धन की पूजा, गोबर की पूजा, गो-दान वृषवशीकरण इत्यादि अनेक ऐसे हिन्दू धार्मिक कृत्य है जिसमें घूम-फिर कर गौमाता ही हमारे सामने आती है। आधुनिक हिन्दी कथा साहित्य के शीर्ष शिल्पी प्रेमचंद की सर्वोत्तम कृति को भी गौ से जुडऩा पड़ा जिसे उन्होंने 'गोदानÓ के रूप में उपस्थित किया। यह कम गौरव की बात नहीं है कि बहुआयामी संस्कृति महत्व से मंडित इस गौ के रक्षक पोषक और चारक यादव लोग रहे। इससे अधिक महत्व की बात यह है कि यादवों ने वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक भारत की साहित्य संगीत एवं अन्य कलाओं को-प्रभावित किया है।
यादवों ने वृष्णि वंशियों के रुप में भारत में गणतंत्र की पहली परिकल्पना दी। गीता जैसा महान ग्रंथ दिया और अद्भुत स्थापत्य कला का नमूना दिया। जिसे अब शासनिक प्रयत्न के द्वारा द्वारिका धाम में ढूंढा जा रहा है। यादवों ने राष्ट्र की सभी मुख्य धाराओं में अपने को सदा से शामिल रखते हुए भारत की एकता-अखंडता के लिए तरह-तरह के जोखिम उठाएं है। इसी तरह साहित्य, कला, , विज्ञान, खेलकूद आदि विविध क्षेत्रों में यादव प्रतिभाएं देश के मान सम्मान को उजागर कर रही है। उनके बारे में लिखा जाना चाहिए उन्हें-सम्मानित किया जाना चाहिए।
साभार - रऊताही 1998

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