Saturday 16 February 2013

छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति

छत्तीसगढ़ की आत्मा, उसकी संस्कृति एक ऐसी शकुंतला है जो ऋषिकन्या है, फिर भी शापित है, किसी की परिणीता और प्रेमिका है, फिर भी उपेक्षित है। फिर भी उसका पक्ष जीवन है, मरु नहीं, उसमें विश्वास  और श्रद्धा है, मृत्यु की पराजय और क्षुद्रता नहीं।
छत्तीसगढ़ की ग्रामीण संस्कृति पर परम्परा का, संस्कार का बोझ अधिक है, तभी उसकी सरल उदारता और निरीहता में भी अतिथि की अभ्यर्थना अनूठी है। वे गाते हैं, तो खुलकर गाते हैं, वे रोते हैं तो फूट पड़ते हैं- वनोवस वृत्ति उनके वसन के छोर से बंधी है, विमुक्त नहीं हो पाई है। जो शोषक है, उन्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि यहां नारी-पुरुष समाज की अपनी मर्यादा है, कथा में लिपटा जीवन विपन्न है, निरन्न है, फिर भी लोक लज्जा की अपना डगर है- उसका उल्लंघन अनुचित ही नहीं अशिष्ट भी है। यायावर- वन वासिनी देवार बालाओं के नुपुरों के वर्णन में, पइरी के  रणन में, ककनी के झनन में मत होकर यहां लोग किसी को भी प्रमदा समझने की भूल कर बैठते हैं। वास्तव में यह भ्रांति तथा कुत्सा का द्योतक है।
व्यथा-कातरा पंडु की पुकार, वाण- विद्द कुररी की, क्रेकर और अत्याचार के विरुद्ध सती साध्वी विलिसया का आत्म प्रतिकार शायद इस अंचल की अंर्तव्यथा की ही कथा है।
छत्तीसगढ़ तांत्रिकों का गढ़ रहा है, इसीलिए प्रत्येक शुभ और महत्वपूर्ण कार्य के आरंभ में तंत्र-मंत्र, पूजा अर्चना जुड़ी हुई है। यहां नर-नारी, जानवर या पेड़ ही नहीं कुएं, तालाबों के भी विवाह प्रचलित है। कुंवारे आम का फल उसके विवाह के बिना खाना निषिद्ध है। आम तरु की भी हरिदया ही, भांवर की प्रथा है तो तालाब का विवाह अत्यंत श्रेष्ठ और महत्वपूर्ण माना जाता है। जिस तालाब के बीच में यदि स्तंभ खम्भा नहीं है तो वह तालाब अविवाहित है, और उसका पानी पीने योग्य नहीं रहता। तालाब के विवाह में विवाह की सब रीतियों का पालन किया जाता है। हां कपिला भांचा- भागिनेय के सहयोग से खंभा दर में गड्ढे में स्थापित किया जाता है- इसके बाद तालाब में प्राप्त यज्ञ स्तंभ तालाब विवाह का ही यूप स्तंभ है जिसे यज्ञ कहने की भूल की जाती है। इतना ही नहीं खेत जोतने के बाद बिहाई भांवर डालकर खेत को बांध दिया जाता है। खेतों की सुरक्षा के लिए भैसासुर की पूजा की जाती है। अविवाहित तालाबों के पानी का उपयोग पीढ़ी पूजा में जो कतिया कहरा जाति में प्रचलित है-होता है।
तंत्र-मंत्र का प्रभाव इतना अधिक है कि बात में टोटका, जादू मंत्र ताबीज की जरुरत पड़ती है और तांत्रिकों का विशिष्ट पर्व अमावस्या महत्वपूर्ण चारों पर्व हरियाली, पोला, पितृमोक्ष, अमावस्या और दीपावली है। हरेली में बैगा कुंवारे लोहे से निर्मित कीलों से घर के दरवाजों के चौखट को मंत्र सिद्ध करते हैं। कुंवारे लोहे को ग्रहण विशेष कर सूर्य ग्रहण के दिन अगरिया लुहार मंत्र सिद्ध करते हैं। इस बंधन के बाद घरों में भूत-प्रेत, राक्षसों का आगमन नहीं हो पाता। दूसरी अमापोला में वृष तथा अन्य पशुओं की पूजा की जाती है तो पितृपक्ष में पितरों को पूर्व पुरुषों को प्रसन्न किया जाता है और फिर कार्तिक अमावस्या को अन्न लक्ष्मी, श्री लक्ष्मी की पूजा होती है।
दीपावली के महोत्सव के बाद प्रतिपदा के दिन गोवर्धन पूजा होती है। गोवंश के वर्धन उन्नति के लिए आवश्यक है कि वृष पूजा पोला पूजा भाद्रपद अमावस्या के साथ गौ की पूजा की परम्परा भी चलती रहे और छत्तीसगढ़ के आभीर अहीर लोगों का देव सड़वा देव भी है जिनकी पूजा इसी पर्व में की जाती है। चंद्रवंशी राजाओं की वंश परंपरा में सातवें राजा यदु के नाम पर ये लोग यदुवंशी कहलाएं चंद्रवंशी राजा की वंश परंपरा में यदुवंश 1. मनु 2. इला 3. पुरुरवस् 4. आयुष 5. नहुष 6. ययाति 7. यदु 8. क्रोष्टु 9. वृजिनीवत 10. स्वाहि 11. रुषगु 12. चित्ररथ 13 श्वर्गवहु 14 पृक्षुत्रवा 15. पथुकर्मन 16. पृथखुज्त्रय 17. पृथकीर्ति 18. पृथुदान 19. पृथुत्रवस. 20. पृथुसतम 21. अंतर 22. सुयज्ञ 23. उशनस 24. सिनेशु 25. मरुत्त 26. कंवलर्षि 27. रुक्म 28. परावृत 29. ज्यामघ 30. विदर्भ 31. क्रथ 32. कुति 33. धृष्टि 34. निर्वृत्ति 35. विदूरथ 36. उंश्गई 37. व्योमन 38. जीमूत 39. विकृति 40. भीमरथ 41. नवरथ 42. दशरथ 43. शकुनि 44. करंभ 45. देवरात 46. देवक्षत्र 47. मधु 48. कुरुवंश 49. अनु 50. पुरुद्धत 51. पुरुहोत्र 52. अंशु 53. सत्व 54. सात्वत 55. अंधक 56. कुकुर 57. वृष्णि 58. धुति 59. कपोतरोमन 60. तिलोमन 61. तित्तरि 62. तैत्तिरि 63. नल 64. अभिजित 65. पुनर्वसु 66. आहुक 67. उग्रसेन 68. कंस 69. श्रीकृष्ण।
दीवाली को छत्तीसगढ़ी भाषा में सूरहूत्ती कहते हैं, जिसका शुद्ध रुप सूर तथा हूति याने देवताओं को आहूत आमंत्रित करना है।
परात्पर, परमपुरुष श्री कृष्ण ने कार्तिक पूर्णिमा को वृंदावन में महारास किया था। श्रीमदभागवत में इसका विशद, विशिष्ट विवरण है और इसी आभीर वंश के कुल देवता श्रीकृष्ण के महारास की परम्परा गत स्मृति छत्तीसगढ़ में राउत नाच के रुप में निरंतर चल रही है। उत्सव का आयोजन किसी भीपावन परंपरा को जीवत रखने का सतत प्रयोजन होता है। हमारे समस्त पर्व, उत्सव इसके उदाहरण हैं।
आभीर एक योद्धा प्रजाति की शाखा-प्रशाखा है, जो अहीर, गोपाल, ठेठवार, यादव, यदु, पहटिया, रावत, राऊत, आदि विभिन्न नामों से पहचाने जाते हैं। कहा जाता है कि कुल साढ़े बारहा उपजातियां होती है और कुछ उपजातियों में परस्पर रोटी-बेटी का व्यवहार प्रचलित है।
छत्तीसगढ़ में रावत एक अत्यंत पवित्र जाति के रुप में प्रख्यात है। छत्तीसगढ़ के सरयूपारीण ब्राह्मणों के साथ भोज की पंक्ति (पंगत) में इनका स्थान सुरक्षित है। विगत कुछ शताब्दियों से गोपालन तथा ब्राह्मणों के परिवारों के मंगल उत्सवों में रावतों का सहयोग स्वाभाविक है। पवित्र कोसा या गीले वस्त्रों में अहीर बाला जल लाती है, भोज के लिए दाल पीसती है तो घर का पहटिया तीज त्यौहार में बेटियों के लिए भोज्य सामग्री की झांपी लेकर जाता है। पहटिया के बिना पंडित की कोई शोभा नहीं यह एक सामाजिक समझौता -सहयोग है, जो अनगिनत वर्षों से चला आ रहा है। इसके मूल में अभिजात्य का अहं नहीं वरन सामाजिक सेवा का भाव ही रहा है। आभीर वीरों की सामान्य वेशभूषा ही इस बात का प्रमाण है कि गरीबी में भी अहीर युवा सब वृद्ध के माथे पर पागा (पगड़ी) शरीर पर कसी हुई छोटी पागी हाथों में नोई तथा तंदू की मजबूत लाठी अवश्य होगी। यह  उसकी पहचान है- यह उसका परिचय है, पगड़ी प्राचीन उष्णीय शिरस्त्राण है, कसी हुई धोती परिकर बुद्ध पौरुष है तो गौ तुच्छकेशी के बनी नोई-गौ दोहन हेतु बंधन है और लट्ठ गौ बरदी संचालक तथा आत्मरक्षा है भी । छत्तीसगढ़ के वनों में प्रचुर मात्रा में प्राप्त मजबूती के लिए महशूर तेंदू लाठी के लिए उपयुक्त है।
दीवाली आ गई जेठानी (देव उठनी) एकादशी तुलसी विवाह का पावन पर्व है- राउत दोहे में उल्लासित होता हे-
आवत देवारी लुहलुहिया, जात देवारी बड़ दूर।
जा जा रे देवारी अपन घर, फागुन उड़वाय धूर।
तो कह उठता है
आए देवारी राउत नाचय। पाके घान जेठोनी हांसय।
सामूहिक नृत्योत्सव के लिए अहीर सिर पर पागा तथा मोर पंख की कलगी बांधता है। तथा शोभन के लिए गेंदे या कागज के फूलों को लपेटता है। शरीर पर सलूखा जिसमें कपर्दिकाओं का ग्रंथन रहता है। पीठ पर मयूर पंखों की झाल, नीचे चोलना और कांछा रहते है7 कटि प्रदेश के आगे पहने लटका वस्त्र खंड कांछा है, दोनों कंधों पर गौ-पुचछ की रस्सी सेवना या जनेवा या साजू कहलाता है। कड़ी का केयूर बहैंकर तथा कटि प्रदेश में घुंघरु के रूप में जलाजल तथा चरणों में घुंघरु या कंकड़ कलित पइरी का पुरुष रुप। मुखड़े पर रामराज की पीलिमा, ललाट पर सिंदूर का टीका- सुरंकी, तथा काजल बना वह हिंडोल (ढाल) शोभित है। दाहिने हाथ में लाठी या गुर्ज अथवा परशु (फरसा) रहता है। वाद्य वृंद में निसान, डफड़ा, मोहरी टिमटिमी तथा मंदिर वादक रहते हैं। कुछ निसानची अपने निसान में बगदरिया (बारहसिंघा) के सींग बांधकर रखते हैं।
इस महोत्सव का प्रारंभ विजयादशमी के पावन पर्व से होता है। इसे अश्वरा (अखाड़ा) कहते हैं। महाभारत काल से यह प्रथा चली आ रही है। धनुर्धर धनंजय ने अपने गांडीव को अज्ञातवास काल में समी पत्र के घने तरु में छिपाकर रखा था, उसी की स्मृति में रावत गांव के बाहर एक स्तंभ में अस्त्र-शस्त्र टांग दिया करते थे, इस पूजा स्थल को खोंड़हर कहा जाता है। वह ग्राम देव की पूजा करता है-
यही लंग के ठहयां भुइयां नाव इन जानों तोर।
कच्चा दूध म चरन पखारों, पइयां लागों तोर।।
छत्तीसगढ़ के सब ही उत्सव पूजा अर्चना से ही शुरु होते हैं। इष्ट देव की पूजा होती है -काछन (देवानुभूति) चढ़ता है।
एक काछ काछैंव भइया, दूसर दियैव लभाई।
तीसर काछ काछेव त मात-पिता के दोहाई।।
संडहा देव-देवाधिदेव महादेव का नंदी ही है शायद-
पूजा करय पुजेरी संगी, धोवा चांउर चढ़ाई।
पूजा होवत है लच्छमी के सेत धजा पहराई।।
शंकर तथा उनके गठों की पूजा श्वेत चावल से ही की जाती है- पिर चड़ी दुर्गा की उपासना होती है।
कलकत्ता के कालिका, पख्त के किलकार
जां बैरी ला चाट भइयां, दहों रक्त के धार।।
बोकरा लेबे के भेड़ा रे, लेबे रक्त के धार।
मैं त जाहंव मतराई म, तोला लगे हे भहर।।
मातर, मातर मंत्र जगाकर पूजा देना याने बलि देने की प्रथा प्राचीन ही है। अब नंदी के साथ भगवती का व्याग्र-बाघ भी आया ही है-
बाघ-बाघ कहैव भइया, बाघ कहां ले आइस।
बाघ ढिलागे सड़हादेव के, भुइयां छाड़ धहराइस।।
अब पहटिया अपने गौसेयां की गायों को सुहाई बांधने जाता है।
पलाश की छाल-बंख से सुहाई बनाई जाती है। सौभाग्य सूत्र अपनी गौ माता को बांध कर गोपाल सुरक्षा, सुख समृद्धि की कामना करता है।
धौरी बांधों कि बलहीरे भैया, गांठ दिये हरैया।
भूरी भैंस ला सुहाई बांधों, पड़वा ल गौसेयां।।
हरी खाय खरी भैया, दूबर खाय मोटाय।
मैं खांव थ दूध भात रे, मोर बैरी रहे मुरझाय।।
बरी तरी बांधेवं बछिया रे बछर भर बाढग़े गाई।
हंस -हंस बांधेव सुहाई, संगी, पारेव राम दोहाई।।
और गोबर से गौशाला में हाथा (स्वास्ति-प्रतीक) देकर प्रणाम करता है। कितनी सरता है उसकी प्रवृत्ति कितनी निश्चल है उसकी कामना। धवली, भूरी, श्वेत मुखी, वत्सा सभी के लिए उसके मन में ममता है प्यार है, प्रीति है, भक्ति है। वह दोहन की पहली धार से धरती माता की पूजा करता है- सचमुच यह पृथ्वी पुत्र है।
आशीर्वाचन का एक दोहा देखिए-
जइसे मालिक लिए दिए, तइसे दे बो असीस हो।
रंग महल में बैठव मालिक, जीवों लाख बरीस हो।।
बिलासपुर क्षेत्र में मड़ई-मंडप के बदले राऊत बाजार में उत्सव होता है। बाजार की परिक्रमा देवालयों में प्रणामी तथा नृत्य प्रतियोगिता की बहार के साथ दर्शकों की भीड़ अद्धूत मनोरंजक मंजर है चलित मंडप के रूप में जो मड़ई अहीरों की टोली लेकर चलती है, वह वास्तव में इंद्रध्वज है। इंद्र के गर्व का हरण कर गोवर्धन धारण करके गोपाल कृष्ण ने जो अलौकिक कृत्य किया था- उसकी स्मृति ही मड़ई है। मड़ई बंद गोंदला से तैयार करते है। कुछ गांवों में कुंभकारों का पारम्परिक व्यवसाय है। मड़ई में बलि हेतु इंद्रध्वज के तले कुक्कुट शावक रखा जाता है। यह वरुण देवता की स्मृति में प्रचलित है। अहीरों का दल शुद्ध गड़वा बाजा के पुरुष निनाद के साथ जब मत्त नृत्य करता है तो दर्शकों के भी पैर आवेश में थिरकने लगते हैं। बीच-बीच में दोहों का विराम विश्राम भी देता है और मनोरंजन भी प्रदान करता है। उस समय तो अहीर जवान आशु कवि हो जाता है- लोक गीतों की बहार-कबीर-तुलसी के दोहों की फुहार में घुल मिल जाती है जिसमें नीति की गंगा भी है, प्रीति की कालिंदी भी है तो श्रृंगार का सौरभ भी है-
गौरी थियरी फुलझरी, खिरकन खेलन जाय।
घट पटकारे पेजनी, चरत बिदारे गाय।।
और फिर देही पार के (उलूक) ध्वनि नर्तन कर उठता।
गौरी बाला फुलझड़ी के समान गोवृंद के पास कोंधती और अपनी पैजनियां के श्रवण, रणन से चरती गाय को भी चौंका देती है।
ठंडी पड़े फुहार कदंम नीचे ठाढ़े भी जय सांवरिया
गइया भीजे, बछड़ा भी भीजे, राधा की भीजै चुनरिया।।
नन्हीं बूंदों की बौछार हो रही है और कदंब तले श्याम सलौने गोपाल भीग रहे हैं, उधर उनकी गायें भीग रही है, बछड़े भींग रहे हैं और राधिका का गोरा गाल ही गीला हो गया है- अनुपम है वर्षों और सघ: स्नात नायक-नायिका का नयानाभिराम चित्र-
दूसरे दोहे में नटवर नंदलाल का रुप देखिये-
बाजत हावय बांसुरी, उड़त हावय धूल रे।
नाचत आवय नंद कन्हैया, खोचे कमल फूल रे।।
तो हास-परिहास उपहास के कुछ दोहे देखिए-
हाट गईन, बजार गईन, उहां ले लायैन पोनी।
खटिया तरी देखेव जब, खस-खस ले नोनी।।
अहीर पुत्रियों की फौज उसे भी चिंतित कर देती हैं।
आन के लउड़ी रिंगी चिंगी, मोल लउड़ी कुसवा रे।
दू पइसा के उडकी लानेव, वाहू ला लेगे मुसुवा रे।।
बाजार बिहाने अर्थात् भांवर डालने की प्रथा के मूल में तंत्र का प्रभाव है। खेत जोतने के पश्चात या अखाड़े में उतरने के पहले बाजार को बांधने के लिए भांवर डालने की प्रथा है। नारियल फोड़कर इसका शुभारंभ होता है। घर पहुंचने की शीघ्रता भी है-
मरने वाला मर गया बेटा, रोने वाला गंगवार रे।
सबकी झोपड़ी वहीं लगे चदो सदर बाजार रे।।
अंत में आशीर्वचन तथा उसके मानस का भाव व्यक्त हो रहा है-
ताम के समघुरवा भरे गंगा जल पानी।
जियत रहय तोर नाती नतरा पितर ल देही पानी।।
अइसन तइसन ला का मारो, मारों अन्याय के साख हों।
यादव दल के तरी खुंदा गे, पथरा होइगे राख हो।
बाजा बज रहा है गुद... गुदरुम... गुद... गुदरुम
और मंजीर बद्ध चरण थिरकते रहते हैं।
साभार- रऊताही 1998

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