Tuesday 19 February 2013

छत्तीसगढ़ी लोकगीतों में बिदाई

मानव जीवन सुख, दुख, हर्ष-विषाद आदि भावात्मक प्रसंग घटनाओं की मिलन-बिदाई की गोरी सांवली धूप छाया के ताने-बाने से गूंथा यथार्थ का झिलमिलता पर होता है। मानव जीवन पर दृष्टिपात करने से यह ज्ञात होता है कि इसका कोई ओर छोर नहीं है। जीवन के विस्तृत प्रागंण में हर्ष सुख के हजारों नदी-नाले, स्नेह पूरित जल प्रवाहित करते हुए दिखाई देते हैं तो एक ओर समस्याओं से युक्त उत्तुंग पर्वत अपनी विशालता को लिए दृष्टिगत होता है। एक दिशा में हर्ष का हरित उद्यान है तो दूसरी ओर दुख का तपता रेगिस्तान है। जीवन के महत लक्ष्य केन्द्र तक पहुंचने के लिए तपती रेतीली मरुभूमि तथा सुखद शीतल हरियाली मखमली प्रागंण से प्रस्थान हेतु बाध्य होना पड़ता है। समाज में जो भी सदस्य अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है तब मानो उसका जीवन सार्थक हो जाता है। मानव जीवन के सामाजिक पक्ष को देखने से ज्ञात होता है कि उसके पारिवारिक सामाजिक जीवन के द्वंद्वात्मक गिरि-समतल प्रागंण के मध्य जीवन सरिता स्नेहजल युक्त से सतत प्रवाहित होती रहती है।
आत्मीयजनों का समुच्चय 'परिवारÓ के नाम से अभिहित होता है। परिवार में माता-पिता, पुत्र-पुत्री, भाई-बहन, नाती-नातिन आदि परिजन होते हैं परिवार प्रमुख सबको साथ लेकर जीवन पथ में अग्रसर होता है। वह सबके हित, सुख-दुख को दृष्टिगत रखते हुए, सबके हितार्थ कर्म संपादित करता हुआ आगे बढ़ता जाता है। एक ओर जहां पुत्र के विवाह से वंशवृद्धि व पारिवारिक परंपरा जीवित रखने का दूरगामी भाव उसमें नीति रहता है, तो वहीं दूसरी ओर कन्या के विवाह को भी बहुत सोच-समझकर, भविष्य को ध्यान में रखते हुए घर-बार का संधान करता है। उसकी दृष्टि में योग्य वर व आर्थिक दृष्टि से संपन्न घर अनिवार्य होता है। वह यह चाहता है कि उस घर ससुराल में कन्या का जीवन आनंद से व्यतीत हो। उसे कोई तकलीफ न हो क्योंकि कन्या तो पराई ही होती है, उसका प्रारंभिक जीवन पितृ आंगन में व विवाहोपरांत पति गृह में कुलवधु के रूप में व्यतीत होता है। कन्या के विवाह योग्य होते ही पिता के माथे की रेखाएं भी गहरी होने लगती हैं। वह महत दायित्व- बोध से ग्रसित हो जाता है कि अब कन्या का विवाह संपन्न करना अनिवार्य ही हो गया है। वह धीरे-धीरे सामाजिक संपर्क में व्यस्त होता जाता है। उधर माँ की मानसिकता को देखें तो यह पाते है कि वहां एक वात्याचक्र चल रहा है। माता का मन कन्या को देख कर मन ही मन वह देवी-देवता, पुरखों की पूजा-अर्चना, मान-मनौती प्रारंभ कर देती है। वह चाहे स्नान का समय हो या पूजन का प्रात: तुलसी बिरवा में जलार्पण का समय हो या सायंकाल दीप प्रज्जवलन का, इन सभी अवसरों पर वह हाथ जोड़कर निष्ठाभाव से युक्त हो यही प्रार्थना करती है कि उसकी पुत्री के लिए अच्छा घर-वर मिले। यदि ऐसा संभव हो गया तो वह वस्त्र-नारियल, सुहाग सामग्री, फल-फूल, अर्पण करेगी, दान-पुण्य करेगी व तीर्थ जाएगी, कुण्ड स्नान करेगी। इन सबके पीछे एक मात्र यही भावना छिपी रहती है कि कन्या को अच्छा घर-वर मिले।
कन्या दो कुलों को एक सूत्र में जोडऩे वाली कड़ी होती है। माता-पिता द्वारा प्रदत्त सुसंस्कारों के बेलबूटों से उसका जीवन भवन अलंकृत होता जाता है। एक-एक सद्गुण उसका पक्ष सबल करता जाता है। उनके जन्मजात संस्कारित गुण व बाह्य जीवन में अपेक्षित एवं विद्यमान गुण-धर्म उसमें सोने में सुगंध की कहावत को चरितार्थ करते हैं। सुसंस्कारित कन्या परिवार को सुमति की सुगंध से स्नान करा देती है, परिणामस्वरुप दोनों ही पक्ष आनंद उदधि में डूब जाते हैं। समाज भी ऐसी कन्या वधू का गुणगान करता है और तब प्रत्येक गृहस्थ यह सोचने लगता है कि उसके यहां भी इसी तरह की संस्कार कन्या बहू बन कर पदार्पण करे।
जिस प्रकार सूर्य-चन्द्र किरणों के स्पर्श से सागर की तरंगे हर्ष प्रगट करती रहती हैं। सागर की प्रसन्नता लहरों से प्रगट होती इसे सभी देखते हैं परन्तु विशाल सागर के अंतस में जो बड़वाग्नि सतत जलती रहती है उसे कोई देख नहीं पाता उसी प्रकार माता-पिता की मन की स्थिति होती है। बाहर से हर्षित-पुलकित, परन्तु अंत: से करुणालित। वर पक्ष में जहां अनेक जन के मानस में इस तरह की भावनाएं जटावत उमड़ती रहती है वहीं कन्या पक्ष की मानसिकता पर विचार करते हंै तो मन करुणा विगलित होने लगता है, उसके विशाल मानस ग्रंथ में एक के जीवन अध्याय को एक उपखण्ड में वर्णित प्रसंग कन्या की बिदाई का प्रसंग अत्यंत ही कारुणिकता से युक्त होता है। इतने वर्षों से माता-पिता के स्नेहांचल के नीचे पालिता कन्या आज पराई हो रही है। अब तो सारा दायित्व ससुराल पक्ष का, वह चाहे रखे, उसे जो भी सुख प्रदान करे आदि सब कुछ दूसरों के ऊपर निर्भर करता है और अब उस पर से अपना अधिकार समाप्त। बिदाई बेला में बाल्यकाल के अभिन्न सखी-संगी साथी, परिवारजन सभी बिदाई के समय अश्रु भरे नेत्रों से अपनी 'दुलारीÓ को जाते हुए देखते हैं। यह अवसर इतना भाव भरा हुआ होता है कि कोई भी उपस्थित जन उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। शकुंतला की बिदाई केसमय ज्ञानी मुनिकण्व तक अपने आप को संभाल नहीं सके थे। वे बिदाई की वेला में नेत्रों से भरे गले से गुरु गंभीर वाणी उसके मंगलमय भविष्य की कामना करते हुए शुभाशीष देते हैं।
कवि हृदय तो सरलता से युक्त होता है, उसमें भावुकता तो होती ही है, वह भला इस अवसर पर कैसे मौन रहे? कवि  शिरोमणि तुलसीदास ने रामचरित मानस में ऐसे दो प्रसंगों को नियोजित किया है जिसे अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि बिदाई की कारूणिक बेला में माता-पिता कन्या को उसके जीवन हितार्थ, परिवार कल्याणार्थ उपदेश, शिक्षा देते हैं ताकि कन्या उन उपदेशों को धारण कर तद्नुसार अपना जीवन संचालित करे। परिवार के सभी सदस्य संतुष्ट रहें और कोई भी सदस्य उसकी ओर आलोचनात्मक या उपेक्षा से उंगली न उठा सके। प्रथम प्रसंग में 'पार्वती विवाहÓ प्रसंग में दृष्टिगत होता है- 'जननी उमा बोली तब लीन की चौपाई जैसा, तैं उछंग सुंदर सुखी दीन्ही, करेहु सदा संकर पद पूजा- नारि धरमु पति देउ न दूजा। वचन कहत भरे लोचन वारी बहुरि लाइड उर लीन्हि कुमारी।Ó कत विधि सृजी नारी जगमाही पराधीन सपने हूँ सुख नाहीं। इसी भांति 'सीता की बिदाईÓके अवसर पर प्रेरणा से भरे दुखपूर्ण उद्बोधन में ध्वनित अर्थ को देखिये- पुनि-पुनि सीय गोद करिलें हीं, देदूअसीस सिखावन दे ही हो। एह संतत पियहि पिआरी-चिरू अहिवात असीस हमारी सासु ससुर गुरु सेवा करेहु- पति रूख लखि आयुस अनुसरेह। अति सनेह बस सखी सयानी-नारि धरम सिखवहि मृदबानी । सादर सकल कुंआरि समुझाई, रानिन्ह बार-बार उर लाई। बहुरि-बहुरि भेंटही महतारी- कहहिं विरंचि रचीकत नारी।
उक्त विख्यात प्रेरणाप्रद आख्यानों का मनन करने से यह ज्ञात होता है कि भारतीय समाज में प्राचीन समय से कन्या को पितृगृह में बाल्यकाल से ही अनेक गृहोपयोगी व प्रेरणाप्रद संस्कार दिया जाता रहा है। कन्या अपने दायित्वों, कत्र्तव्यों को विस्मृत न करने पाये । अत: बिदाई के अवसर पर उसे उक्त बातों को पुन: स्मरण दिलाया जाता है। यह इसीलिए अनिवार्य हो जाता है ताकि  गृहस्थ जीवन में प्रवेश करते समय वह उन बातों को याद करे और अपना जीवन अत्यंत व्यवस्थित ढंग से निर्वाह कर सके। इन भावनाओं के पीछे व्यापक दूर-दृष्टि व मनोवैज्ञानिकता कार्य करती हुई परिलक्षित होती है। माता अपने दायित्व को नहीं भूल सकती। यदि कन्या अपने दायित्व पक्ष सेभटकती है तो भी यह आरोप माता-पिता पर नहीं मढ़ सकती  कि उसे पितृगृह में कुछ भी नहीं बताया गया, कुछ सीख नहीं दी गई। पारिवारिक दायित्व को माता अवश्यमेव ही निर्वाह करती है।
समाज में आज भी यह कहावत प्रचलित है कि 'जेकर जइसे दाई-ददा तेकर तइर्स लईका। जेकर जइसे घर दुआर तेकर तइसे फइका।Ó सामान्यत: कन्या, माता के पितृगृह गांव स्थान शहर से नाम संबोधित की जाती है जैसे रैपुरहिन, रायगढ़हिन, सीपतहिन आदि। अनेक गांव व शहर अपनी विशिष्टता के कारण अत्यधिक प्रसिद्ध होते हैं तो कुछ गांव धूमिलता के धारण कर लेते हैं, यद्यपि वहां भी कुछ अपवाद होते हंै, इसलिए समाज में कन्या पसंद करने के अवसर पर उसके माता घर को आवश्यक पूछते हैं और फिर तदनुसार सोच-विचार कर निर्णय करते हंै। आज भी सभ्य समाज में यह प्रथा विशिष्टता के फलस्वरूप विद्यमान है।
पुत्री की बिदाई का समय अत्यंत हृदयग्राही होता है। लोकगीतों में इस प्रसंग ने भी अपना स्थान बना लिया है क्योंकि लोकगीत जनता के भाव भरे गीत होते हैं। जब भी प्रसंगवंश जहां जनभावना के अंतर्मन को स्पर्श किया जाता है वहीं तत्क्ष लोकगीत का उत्सक फूट पड़ता है और यही उत्स धीरे-धीरे आगे बढ़कर जन मानस के अंतस भावभूमि को आद्र्रता व भावोल्लास से सिंचित कर देता है। जन-जीवन प्रफुल्लित हो उठता है और उसकी अंतरात्मा को एक अद्भुत शांति मिलती है। मानव नर नारी के हृदयकाश में उमड़ते-घुमड़ते भावनाओं के जल से भरे बादलों को झूम-झूम कर बरसने का अवसर लोक गीतों में ही मिलता है। मेघ तो बरस कर रीता होकर पवन प्रवाह में दूर तक उड़ जाते हंै उसी प्रकार मानव अंतस की भावना लोकगीत के रूप में प्रकट होकर उसे स्थाई शांति प्रदान करती है, मन हल्का हो जाता है और लोक मानस प्रागंण में सवित वल 'लोक गीत जन समाज की स्थाई संपत्ति धरोहर बन जाती है। धन्य है यह 'लोक जीवनÓÓ जहां हर्ष और स्नेह का सागर लहराता है। कोई भी प्रसंग चाहे वह सुख से संबंधित हो या दुखद हो, वर का नीरव एकांत हो या भीड़ भराराउत नृत्य का उल्लासित माहौल, उसक कंठ से उल्लासित भाव सरगम ध्वनि के रूप में फूट कर लोक गीतों के रूप में व्यक्त हो जाता है। ये कंठ ग्राम्य पर्वतीय अंचल के प्राय: अशिक्षित निवासी के होते हैं, उनका ही स्वर सर्वत्र निनादित होता है। इन अशिक्षित को मानों प्रकृति ने यह 'अभिव्यक्ति का वरदानÓ मुक्त हस्त से प्रदान किया है जैसे देखो वैसा अभिव्यक्त करो।
दूसरी ओर में निवास करने वाले शिक्षितों ने सभ्य समाज में यह मात्र औपचारिकता रह गई है। यहां भाव-प्रवण गीतों के स्थान पर प्लास्टिक के फीतों में अंकित ध्वन्यांकित-टेप व रिकार्ड बजते रहते हैं और वह भी मात्र औपचारिकतावश ही प्रयोग में लाए जाते हैं। विवाह के समस्त मांगलिक कार्यक्रमों में विभिन्न फिल्मों के गीत ही बजते रहते हैं। वर्तमान में यांत्रिकता का वर्चस्व व आधुनिकता का रंग रोगन युक्त ध्वन्यंकन ही नई पीढ़ी को उपहार रुप   में मिला है। सार्थक शब्दों में यह कहा जा सकता है कि प्रसन्नता की स्वाभाविक अनुभूति तो निस्पृह भाव से व्यक्त गीतों लोकगीतों से ही प्रकट होती है, यहां दुराव-छिपास, कटुता कुछ भी नहीं है। धन्य है ये लोक जीवन की सार्थक अभिव्यक्त करने वाले लोक गीत, जिन्हें प्राप्त कर ये आज भी अंतस से धनी हैं और दीर्घकाल तक धनी बने रहेंगे- जब तक सृष्टि का अस्तित्व रहेगा तब तक ये लोकगीत धरा नभ में गूंजित होते रहेंगे।
कन्या सदा माँ-बाप के यहां नहीं रह सकती। चिडिय़ा की भांति उसे एक दिन उड़ ही जाना है। यह प्रकृति का विधान है। लोकांचल के कंठ से नि:सृत गीतों ने इसकी गवाही दी है।  समाज में अनवरत रूप से दीर्घकाल से चली आती हुई परंपरा के अनुसार कन्या का जीवन माँ-बाप के लिए नहीं, वरन उसे तो पतिगृह में जीवन व्यतीत करना होता है, चिडिय़ों की भांति उसे नित्य ही उड़ जाना है। यहीं प्रकृति का विधान है। लोककंठ से नि:सृतगीतों में यही भाव ध्वनिमत होता है कि कन्या रूपी चिडिय़ा को उड़कर एक दिन दूसरे आंगन पहुंचना है। नारी मन की व्यथा को नारी ही समझ सकती है। जीवन में सहज या अक्समात आने वाले कष्ट दुख, पीड़ा, अभाव व्यथा की कथा की सरिता को अपने जीवन प्रागंण में बहाती ही रहती हैं, अंत में ब्यथा और वाहय में मंद मुस्कान की तरंगे उच्छलित करती हुई अपने कत्र्तव्य मार्ग पर वह आगे बढ़ती ही चली जाती है। ओह नारी को कौन समझ सकता है और कौन समझेगा। मनीषी मनन करता है और ऋषि रिसर्च (अनुसंधान) और चिंतक चिंतन करते तथा तत्ववेत्ता पंचत्तव में संधान में डूबते-उतरते रहते  हैं। कोई भी नारी के इस चिंतन मनन योग्य पक्ष का विचार तक नहीं करता ये सभी तटस्थ, वीतरागी वृत्ति धारण विमुख बने रहते हैं। समाज की विशिष्ट अनिवार्य सदस्या के रूप में नारी का गरिमामय स्थान है। उसे अपनी गरिमा की रक्षा करनी ही पड़ती है, दुख को चुपचाप पीते हुए, होठों में हंसी की धवनि बिखेरने को वह बाध्य है। धन्य है नारी का यह मातृवभाव जो उसे शीर्षस्थ पद तक प्रविष्ट करा देता है।
जीवन सुख-दुख की गोरी, सांवली छाया का नाम है, जिसके अंतर्गत दोनों ही भावनाओं की जितनी सार्थक अभिव्यक्ति माता के जीवन में परिलक्षित होती है उतना अन्यत्र नहीं। बिदाई के कारुणिक  प्रसंग विभिन्न लोकगीतों में दृष्टव्य है। इन गीतों का प्रधान विषय ममतामयी माता, स्नेही पिता तथा सहोदर भाई से बिछुडऩा रहता है। इन करुणापूरित गीतों में बिछोह तथा करुणा रस के चित्र अपनी संपूर्ण मार्मिकता के साथ अंकित मिलते हैं। कन्या का विवाह संपन्न हो जाता है। वर्तमान में विवाह के साथ ही बिदाई का भी प्रसंग जुड़ गया है, कहीं-कहीं कुछ माह उपरांत पूर्ण तैयारी कर कन्या का पिता बिदाई हेतु तैयारी करता है एक दिन वर पक्ष की ओर से तिथि प्राप्त होती है। कन्या परिवार संपूर्ण सामाग्री का संचयन करता है और बिदाई करने हेतु मानसिकता बना लेता है। अन्तत: दामाद अपने पारिवारिक जनों को लेकर आता है। एक-दो दिन ससुराल में सबकी आवभगत होती है और निर्धारित तिथि माता-पिता बिदा देने हेतु सन्नद्ध हो जाते हंै। बेटी की बिदाई का समय आ गया है। आंगन में परिवारजन एकत्रित हंै। माँ करुणा  के सागर में डूबी जा रही है। आज उसकी बेटी की बिदाई जो हो रही है। माँ के हृदय में जो उमड़ती भाव व्यथा-सरिता है वह मुख मार्ग से शब्दों के रूप में प्रवाहित होने लगती है, माँ कहती है-
अतेकि दिन बेटी मोर घर रहे
आज बेटी भये वो विराने कि हाय जू
आज बेटी भये दो विराने
बेटी भी अपनी व्यथा प्रगट कर रही है-
छिन भर डोला ल बिलमई ले कहार भैया
करि लेतेंव दाई-ददा ल भेटे कि हाय जू
करि लेतेंव ददा ला भेंटे
लोकगीतों में वास्तविक जीवन का चित्रण अंकित होता है कल्पना व यथार्थ का अद्भुत मिश्रण रहता है। इन गीतों में पिता व भाई-भाभी की मानसिकता भी व्यक्त हो उठती है कि- हे कन्या तुम इतने दिनों तक इस घर में रहीं और आज पराई हो रही है। पुत्री अपने मन की व्यथा को रोक नहीं पाती और आगे कहती है-
मैं परदेसिन आंव पर मुलुक के रद्दा भुलागेंव
अउ परदेसिया के साथ दाई कथे रोज आबे बेटी-ददा कथे आबे दिन चार
भइया कथे तीजा-पोरा भउजी कथे कोन काम
इन पंक्तियों में पारिवारिक जनों की भावनाएं स्पष्टत: अभिव्यक्त हो उठी हैं माँ-पिता भाई की भावना तो जुड़ी हंै पर भाभी की बात कुछ वितृष्णा लिए हुए विद्यमान है।
लोकगीतों में कन्या के मन से भावना पट होती है जिस माँ-बाप ने उसे इतने लाड प्यार से पाला पोसा आज उन्हीं के लिए भार स्वरूप क्यों और कैसे बन गई ?  यह गीत में देखिये-
दाई तोला कतेक भारी रहेंव बालपन माँ बिहाव रचाये।
माँ उसे समझाती है कि तू भार स्वरूप नहीं थी, किंतु संसार की रीति-नीति ही मुझे निबाहनी पड़ रही है। इसी तरह पिता भी अपनी भावना व्यक्त करते हैं। माँ विगत दिनों की स्मृति करती हुई कहती है-
मंगनी करेंव बेटी जंचनी करेंव ओ
बर करेंव बेटी-बिहाव करेंव ओ
जा जा बेटी कमाबे-खाबे ओ
मार देही बेटी-रिसाय जाबे ओ
मना लिही बेटी- मान जाबे ओ
जाँवर जोड़ी संगे बुढ़ा जाबे ओ
सुख-दुख के रद्दा नहक जाबे ओ।।
उक्त कथन से प्रेरणा सूचक भाव परिपूर्ण आत्मीय कथन छलक उठा है। बिदाई की परिपाटी कोई नई नहीं है। यह दस पांच वर्षों पूर्व की भी प्रथा नहीं है। यह तो अत्यंत प्राचीनतम प्रथा है जिसका प्रारंभ पूर्वजों ने किया है। निम्नांकित गीत में यह प्रसंग अनायास ही पुरखों की परंपरा को सूचित कर सबके मन को आश्वस्त करता परिलक्षित हो रहा है-
दाईके हंव मैं राजदुलारी, दाई मोर रोवय महल वो
अलिन-गलिन दाई रोवय, ददा रोवय मूसर धार वो
बहिनी बिचारी रोवत हावय, भाई करय डंड पुकार वो
असुंवन तुम झन ढ़रिहव बहिनी, सबके दुख बिसार वो
दुनिया के ये हर रीत ये नोनी, दिये हे पुरखा चलाय वो।
कन्या की बिदाई का समाचार सुनकर पास पड़ोस की साखी सहेलियां भी आ चुकती हैं और धीरज बंधाती हुई वे गीत गाती हैं, इन गीतों में कन्या के मन की भावना ही प्रकट हो रही है-
नीक-नीक लुगरा निमारे वो
हाय-हाय ! मोर दाई बिटिया पठोवत आंसू ढारे वो, नोनी के छूट गे महतारी वो।
हाय-हाय मोर दाई मयागजब तें हर करच वो
नोनी के घर आज टूटगे वो
हाय-हाय मोर दाई बाहिंसा घर ला बनाही वो
पहुना तो नोनी अब बनगे वो
हाय-हाय मोर दाई बिटिया के बिदा तुम करि दव वो।
माता-पिता परिवार जन, सखी सहेलियों के मन बिदाई की करूणा आई घटा छाई हुई है। भाई भी रो रहा है परंतु भाभी के मुख मंडल की ओर देखकर कन्या का हृदय धक से रह जाता है, वह सोचती है, देखती है-लोक गीत आगे प्रवाहित होता जा रहा है-
घर के दुआरी ले दाई मोर रोवये
आज नोनी होगय बिरानेओं
घर के दुआरी ले ददा मोर रोवथे
रांध के देवइया बेटी जाथे
अपन कुरिया के दुवारी ले भैया मोर रोवथे
मन के बोधइया बहिनी जाथे
भीतर के दुआरी भौजी मोर रोवथे
लिगरी लगइया नोनी जाथे।
यहां पर वर्णित में माता-पिता व भाई की भावना को कन्या सहज ही में समझ जाती है। भाभी के रुदन के पीछे छिपी भावना से वह अच्छी तरह अवगत है कि भाभी उसे आलोचना करने वाली, इधर की बात उधर करने वाली यह कन्या चली जाती रही है। अब तो खुशी के आंसू बहा लिया जाए। कन्या सहज ही दृष्टिपात कर लेती है-
दाई मोर रोवथे नदिया बहथे ददा रोवय छाती फाटथ हे
भैया रोवय समझा थे भौजी नयन कठोरे।।
यहां पर लोक मानस की सूक्ष्मपरक वाली दृष्टि का चित्रांकन है। अलग-अलग मन स्थिति से युक्त पारिवारिक लोगों का भाव कन्या के प्रति किस तरह है इसका दिग्दर्शन लोकगायकी में पारंगत नारी समाज ही सहज रूप से इसे रुदन की कसौटी पर कस कर मूल्यांकन कर सकता है कि किस-किसके मन में क्या गान है। भौजी का व्यवहार क्या रहा ? इसका मूल्यांकन नारी ही जितनी सहजता से कर सकती है उतना कोई पढ़ा लिखा लोक गायक या अन्वेषणकर्ता भी नहीं कर सकता।
कन्या की विदाई अब सन्निकट है। वह अपनी भाव व्यथा कथा को गृह आंगन में सबके समक्ष आदर्शजंलि अर्पित करती हुई कहती है-
रहेंव मैं दाई के कोरा वो, अंचरा मां मुंह ला लुकाए वो
ददा मोर कहथें- कुंआ मांधसि जाइतेंव
बबा कथे ले लंव बैराग वो बेटी
काहे बर ददा कुंआ में धंसि जइबे
काहेबर बबा लेबे बैराग बालक सुअना पढ़न्ता मोर ददा।
मोला झटकिन लाबे लेवाय
पुत्री का यही अनुरोध है कि पिताजी आप शीघ्र ही मुझे बिदा कर घर ले आना। इस भाव भूमि पर पहुंच कर दोनों ही पक्ष करुणापूरित हो जाते हैं। इन मर्मस्पर्शी प्रसंगों को ही अवलोकन कर आंचलिक सजग लोक साहित्यकार की लेखनी भी चुप नहीं रहती। अंचल के प्रख्यात साहित्यकार पं. श्यामलाल चतुर्वेदी जी ने अपनी भावपूर्ण शब्दावली में इस दृश्य का चित्रांकन विशिष्टता से वर्णित किया है-
जब ले अकती के लगन सुनेंव, छाती हर धुकुर-धुकुर करथे
मुंधिरहा ले सूत जाथंव फेर तभ्भो भिनसरहें नींद परथे।
मोर एक्के ठन पेट पोंछनी आंखी ओधा हो जाही
तेला थोरको जब गुन ही होथे मन जकही साही
संसार के जतकन दुख है फेर बेटी बिदा ले छोटे
दांवा दिल म लग जाथे जीव ला कुछ चाबै खोटे
बरम्हा के बेटी नइये वो बिदा के दुख नइजानय
बेटी जाए झन देतीस, झन कोनो के मानय
एक तो बेटी झन होतिस, होतिस त झन करतिस।
उक्त गीत में ठोस यथार्थ को सूचित किया गया है ब्रह्मा की पुत्री नहीं है अत: वह कन्या बिदाई का पीड़ा क्या जाने।
कन्या जाते-जाते प्रार्थना करती है कि घर के आंगन में जो नींबू का पेड़ है, वह कभी भी न काटा जाए क्योंकि उसमें चिडिय़ा बसेरा करती हैं। उनका घर नहीं छूटना चाहिए, जैसा आज मेरा छूट रहा है-
घर अंगना में एक पेड़ लिमुआ ओ दाई पंछी करत हे बसेर
अब तो बिदाई होने को है। माँ की मानसिकता विगत दिनों से करुणा में निमग्न थी अब आने वाले दिनों की कल्पना करती हुई कह रही है इसका भावभरा चित्रण श्री दानेश्वर शर्मा जी ने इस प्रकार किया है-
कइसे के बेटी वो तोला मैं भेजेंव
पसरा के मोती दहरा माँ फेंकेन
मोंगरा सही बेटी फूलत  रहे
पुतरी जस आँखी मां झूलत रहे
अंगना मां खेलत कूदत रहे चिरइ चिरगुन जस चहकत रहे।
कोन देही पानी मोला एक चरू
तोर बिना मोर छाती होवथय गरू
बड़ सिधवा नोनी तैं गुनागर सरू
बोले तंय कभू नहीं मोला करु।
कितनी सत्यता से युक्त यह भाव प्रवणता है। बिदाई के समय घर की बड़ी बूढ़ी माताएं दादी, जबरदस्ती कन्या को कुछ खिलाती-पिलाती हैं अंतस से वात्सल्य भाव छलक उठता है-
मुख भर खा ले ओ नोनी मुखई कलेवना
पी ले कटोरिया मां दूध
बइठ डोलिया माँ जाबे बड़ दूर।
और तब कन्या डोली में बैठ जाती है। कहार डोली को उठाकर अपने गंतव्य स्थल की ओर प्रस्थान करते हैं। घर सूना हो जाता है। लड़की जाते-जाते भी डोला या गाड़ी के परदे को हटा कर बार-बार अपने प्रिय घर को घर, वालों को देखना चाहती है और डोला या गाड़ी क्रमश: आगे बढ़ जाती है। उसके पति को भी दया नहीं आती कि वह एक बार कहारों से कह दे कि डोला थोड़ा रोक दें ताकि वह एक बार तो अपनी माँ को व बाप को देख ले। वरन् वह उल्टे कहारों या गाड़ीवान को शीघ्र चलने की आज्ञा दे रहे हैं। लड़की का मन क्षुब्ध हो जाता है। इस भाव चित्र को भी सूक्ष्मदर्शी लोक गायिकाओं ने दूर से ही अपनी अन्तश्चेतना की शक्ति से देखा परखा और अंतसभाव को वाणी की बाह्य अभिव्यक्ति प्रदान कर दी है-
सैंया मोर ऐसे निर्मोही भए हैं
कि चलो-चलो कहे हैं कहार,
छिन भर डोला बिलमाई दे
के अपने दाई ल देख लेतेंव ओ
सैंया मोर ऐसे निर्मोही भए हैं
के चलो-चलो कहें हे कहार
छिन भर डोला बिलमाई देते
के अपन ददा ल देख लेतेंव ओ।
इस प्रकार छत्तीसगढ़ अंचल में बिदाई की चली आती हुई दीर्घकालीन परंपरा आज भी बहुलांश में उपरोक्तानुसार ही है।
समय में बदलते दृष्टिकोण से डोला-कहार की परंपरा अब अपनी अंतिम सांसे गिन रही है। इसी प्रकार लोक मानस की सहज और गंभीर भाव भरे लोकगीतों में भी आधुनिकता के अंधड़ में दूर होते जा रहे हैं और ग्राम्यांचल में भी नवीनता का बैंड-आर्केस्टा ध्वनिमत होने लगा है। लोकगीतों की गूंज विलीन होती जा रही है।
साभार- रऊताही 2002

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