Tuesday 19 February 2013

लोक संस्कृति के विविध आयाम

हजारी प्रसाद द्विवेदी लोक संस्कृति और लोक साहित्य को एक मानते हैं। डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'पृथ्वी पुत्रÓ में डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के मत का समर्थन किया है। डॉ. सत्येन्द्र ने 'लोक साहित्य -विज्ञानÓ शीर्षक ग्रंथ में लोक संस्कृति और लोक साहित्य दोनों को स्वतंत्र पृथक-पृथक विषय माना है। डॉ. अग्रवाल ने लोक साहित्य और लोकवार्ता को एक ही माना है। लोक संस्कृति लोक साहित्य के लिए सामग्री प्रदान करती है और लोक साहित्य लोकसंस्कृति की विषय वसतु को लोकभाषा के माध्यम से व्यक्त करता है। लोक संस्कृति से जुड़ा साहित्य ही लोक समाज को सजातीय संस्कृति से जोड़ता है। लोक संस्कृति ही परिष्कार और परिमार्जन की प्रक्रिया द्वारा मानक या परिनिष्ठित संस्कृति का निर्माण और विकास करती है लोक संस्कृति के कथ्यगत है प्रयोगगत और प्रकार्यकत निम्नलिखित आयाम माने जा सकते हंै :
1. विभिन्न संस्कारों का वर्णन
2. तीज त्यौहारों का वर्णन
3. विभिन्न देवी-देवताओं का वर्णन
4. विभिन्न पूजा स्थलों का वर्णन
5. विभिन्न धर्म ग्रंथों का प्रयोग
6. विभिन्न धार्मिक आस्थाओं और लोक विश्वासों का प्रयोग
7. रीति-रिवाजों, परम्पराओं और प्रथाओं का प्रयोग
8. व्रत, उपवास और उपासना का प्रयोग
9. प्रार्थना, भजन, कीर्तन और जागरण आदि का प्रयोग
10. शकुन-अपशकुन आदि का प्रयोग
11. टोना-टोटका आदि का प्रयोग
12. विभिन्न दार्शनिक सारणियों का प्रयोग
लोक जीवन से निर्मित और विकसित संस्कृति प्रगतिशील होती है। मानक संस्कृति मानकीकरण की प्रक्रिया से निर्मित और पुष्ट होने के कारण रुढ़, गतिहीन और एकांगी बन जाती हैं। लोक शब्द मानक शब्द के व्यतिरेक में प्रयुक्त होता है जो मानक, परिष्कृत या पनिरिष्ठित नहीं है वह लोक है। लोक अकृत्रिम, सहज, नैसर्गिक और जीवन्त है। यही कारण है कि लोक संस्कृति में ऊर्जा, खानगी, ताजगी, माधुर्य और पवित्रता आदि गुण निहित रहते हैं। लोक संस्कृति एकरुप न होकर बहरुपा होती है। एक से अनेक होने और बनने का भाव लोकसंस्कृति में विद्यमान रहता है। लोक संस्कृति सदैव समन्वयवादी होती है। सामासिकता लोक संस्कृति का प्राण है। ऊपर लोक संस्कृति के जो विविध आयाम गिनाए हैं में आध्यात्मिक संस्कृति से संबंध रखते है।
भौतिकवादी संस्कृति के आयाम सर्वथा पृथक और स्वतंत्र हंै। शक्ति, सत्ता और सम्पत्ति भौतिकवादी संस्कृति के आधार हैं। भौतिकवादी संस्कृति ने व्यक्ति को आत्मकेन्द्रित बना दिया है। भौतिकवादी परिवेश और प्रयोजन लोक संस्कृति के रस को सोखते जा रहे हैं। समष्टिमूलक लोक संस्कृति अपनी रचनात्मक ऊर्जा खोती जा रही है। वह निर्जीव और जड़ बनती जा रही है। भोगवादी संस्कृति ने आत्मीयता, मधुरता, घनिष्ठता, सात्विकता और पवित्रता को विलुप्तीकरण और विखण्डन की प्रक्रिया से जोड़ दिया है। लोक संस्कृति विज्ञान बोध पर आधारित समष्टिमूलक समाज से सम्बद्ध थी। उपभोक्तावादी सभ्यता ने लोक संस्कृति को रुढ़, जड़ और रसहीन बना दिया है। पश्चिमीकरण की प्रक्रिया ने भारतीय लोक संस्कृति को विचलन की प्रक्रिया से जोड़ दिया है। अपने देश की भाषाओं, बोलियों और उप बोलियों को अपनाकर ही अपने देश की मूल संस्कृति को विस्थापन की प्रक्रिया से रोका जा सकता है। अपने देश के संत कवियों और भक्त कवियों ने अपने देश की लोक भाषाओं और लोक बोलियों में साहित्य की रचना करके भारत की जनता के सामने सामाजिक आदर्श उपस्थित किये थे। कबीर, नानक, नामदेव, सहजोबाई, मीरा, रैदास, रज्जब और मलूक दास जैसे लोक धर्मी कवियों ने लोक बोलियों के प्रयोगों द्वारा अपने देश की सजातीय लोक संस्कृति की रक्षा की। सूरदास ने बिना पढ़ी लिखी गोपियों को चेतनामूलक प्रगतिशील लोक संस्कृति से जोड़ा था। सूर ने अवगुण्ठन के युग में नारी जागरण का शंखनाद फूंका था। सूरसागर नारी जागरण और स्वाधीनता का काव्य है। सदियों से दासता की बेडिय़ों में जकड़ी नारी बन्धन मुक्त होकर स्वाधीनता की श्वांस लेती है। सूरदास ने गोपी-उद्धव संवाद में भक्तिमार्ग और ज्ञानमार्ग के संघर्ष को दिखाया है। हृदय और बुद्धि के द्वंद्व को व्यंजित किया है। विचारों पर भावों की विजय दिखाई है। सूर ने स्पष्ट संकेत किया है कि भक्तिमूलक ज्ञान ही सामाजिक विकास में सहायक हो सकता है। तुलसी ने भक्तिमार्ग को सहज बताकर तद्युगीन वन्य जातियों को एकता का संदेश दिया था। भक्ति जोड़ती है, ज्ञान तोड़ता है। भक्ति से पुष्ट ज्ञान सामाजिक आर्थिक विकास की गति  को तोड़ता है। भक्ति से पुष्ट ज्ञान सामाजिक आर्थिक विकास की गति को तेज ही नहीं करता है अपितु सांस्कृतिक समन्वय की प्रक्रिया को भी प्रशस्त करता है।
नवजागरण काल और नवजागरण सुधार काल के कवियों ने ऐतिहासिक और पौराणिक आख्यानों के माध्यम से सजातीय उदार और उदात्त परम्पराओं को समसामयिक जीवन मूल्यों  से जोड़ा। कामायनी जैसी कालजयी रचना रच कर जयशंकर प्रसाद ने भाववाद से जन्में विचारवाद को सर्वव्यापक और सर्वस्पर्शी बनाने का प्रयत्न किया। श्रद्धा, इड़ा, मनु और मानव आदि प्रतीकात्मक मानों के माध्यम से जयशंकर प्रसाद ने एक ओर भाव, विचार और कर्म का समन्वय किया, दूसरी ओर अध्यात्ममूलक बुद्धिवाद या प्रौद्योगिकी को सामाजिक समरसता का मंत्र माना। कामायनी में प्रसादजी ने स्पष्ट संकेत किया है कि कोराभावादा अन्धा है और विशुद्ध ज्ञान लंगड़ा है। भावजनित बुद्धि ही समाज को लोकसंस्कृति से जोड़ सकती है। यह संयोजन ही प्रगति है और वियोजन ही विनाश है।
साभार-  रऊताही 2003

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