Monday 21 January 2013

छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति

छत्तीसगढ़ संस्कृति का विकास अरण्यों-तपोवनों में हुआ है। इसलिये यह ऋषि भूमि है। स्वयं मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने यहां की संस्कृति को नए आयाम दिये।
आज द्विज तथा अद्विज जातियों का धर्म एक ही है संस्कार एक है, भाव तथा विचार एक है, तथा जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण भी एक है। उनका मिश्रण इतनी सघनता से हुआ कि उनके बिलगाव का प्रयत्न कठिन है। अद्विज जातियों ने राजीव लोचन, शिवरीनारायण, सिरपुर, आरंग, खरौद, पाली के भव्य मंदिरों का निर्माण किया।
शैव तथा शाक्त धर्म एवं भक्तिवाद का भी अद्विजों ने विकास किया, जिनमें कबीरपंथ और सतनामी पंथ प्रमुख है। यहां के निर्मल मन जल-छल कपट से दूर हैं। वे परिश्रमी उदारमना और संतोषी स्वभाव के हैं। आदिम जातियों की धर्म-शक्ति उपासना के समीप है। मंत्र शक्ति पर उनका विश्वास है। छत्तीसगढ़ के लोग धर्म के प्रति अडिग एवं अखंडनीय श्रद्धा के अपूरित हैं तो दूसरे धर्मों का समादर करने में उदार हैं।
पर्व और त्यौहार-छत्तीसगढ़ की प्रमुख जाति हिन्दू है पर अन्य जाति और धर्म के लोग भी निवास करते हैं पर उनकी संख्या बहुत कम है। इनमें मुसलमान और ईसाई अपेक्षाकृत अधिक हैं। कुल जनसंख्या का करीब 40 प्रतिशत अनुसूचित जाति-जनजाति का है। आध्यात्म की भावना यहां की संस्कृति के कण-कण में है। शिवरात्रि, रामनवमी, श्रावणी, होली, दीवाली हिन्दुओं के प्रमुख पर्व हैं तथा मुसलमानों के ईद, मुहर्रम, रमजान, सम्पूर्ण अंचल में भरने वाले उर्स भावनात्मक एकता की सुगंध बिखेरते हैं। सभी लोग मुक्त भाव से एक-दूसरे के त्यौहार में भाग लेते है। धार्मिक सहिष्णुता और धर्म निरपेक्षता छत्तीसगढ़ की अपनी विशेषता है।
पर्व और त्यौहार एक अंचल तथा जाति का सामूहिक आनन्दोल्लास है जो विशेष अवसरों पर ऋतुओं के परिवर्तन पर खेती के उगने, लहलहाने और पकने पर अभिव्यक्त या प्रदर्शित होते है। इनके पीछे धार्मिक आस्था और विश्वास के रंग भी अभिव्यंजित होते हैं। उक्त अवसरों पर इन्द्रधनुषी भारतीय संस्कृति की छटा भी दिखलाई देती है।
छत्तीसगढ़ के त्यौहारों का अपना बांकपन है। यहां कोई त्यौहार अनाहूत की भांति दबे पांव नहीं आता। सामान्य अतिथि होता है जिसका भावभीना स्वागत होता है। विपन्नता उल्लास में कोई कमी नहीं ला पाती। उसके मनाने की विशिष्ट परिपाटी होती है। खास व्यजन बनते है, नृत्य तथा संगीत प्राण फूंकते हंै।
छेरछेरा छत्तीसगढ़ का अपना- छेर-छेरा छत्तीसगढ़ का अपना लोकपर्व है जो पौष पूर्णिमा को मनाया जाता है। धान की फसल पककर झूमने लगती है और अपने श्रम का एवं त्याग को फलीभूत पाकर मद आल्हादित होता है-
पीस कूट के छेरछेरा मनाबो
नाचे ल डंडा घरोघर जाबो।
परस्पर एकता एवं बंधुत्व, औदार्य, त्याग एवं समाजवादी भावना का सन्निवेश- छेरछेरा का मूल प्राण है। नवयुवक इस अवसर पर डंडा नृत्य करते हैं। यह सांस्कृतिक एवं सामाजिक एकता का संदेशवाहक पर्व है।
एक दूसरा पर्व है भोजली । इसमें कुमारी कन्याएं श्रावण में भोजली की साधना करती है, जो श्रावण शुक्ल 9 से नौ दिनों तक चलती है। कषि के प्रतीक पात्रों में टोकनी में अन्न के पौधे उगाकर गंगा से वर्षा की याचना करती हैं।
नवरात्रि में दुर्गा पूजा, कुमारी कन्याओं की संध्या पूजा भी छत्तीसगढ़ी पर्व है। दुर्गापूजा कर जीवन की संधि बेला  में पत्रों से संध्या की उपासना करती हैं।
नदी पूजा, नाग पूजा, वृक्ष पूजा, गो वृषभ पूजा जीवन की सहयोगी सभी को पूज्य ऐसी समन्वय युक्त जीवन दृष्टि का विकास, जिन्होंने किया वे साधारण मानव नहीं थे।
लोकनृत्य-
छत्तीसगढ़ के लोक नृत्यों में राउत नृत्य, डंडा नृत्य, गेंड़ी नृत्य, देवार नृत्य, सुआ नृत्य, गौरा नृत्य, झूमर नृत्य, आंगनई नृत्य, रीना, सरहुल, करमा, पंथी, बार नृत्य, जात्रा नृत्य आदि उल्लेखनीय हैं। इनकी अपनी विशेषताएं है।
राउत नृत्य अहीर लोगों का है तो खानाबदोश देवार जाति का देवार नृत्य। सैला- सरगुजा की उरांव जाति का। राउत राउत नृत्य कार्तिक अमावस्या से प्रारंभ होकर पौष पूर्णिमा तक अनवरत रूप से चलता है। डंडा या सैला-नृत्य कार्तिक शुक्ल एकादशी से फागुन पूर्णिमा तक। गेंड़ी नृत्य हरियाली अमावस्या के दिन तो कार्तिक मास में- सुआ नृत्य। करमा छत्तीसगढ़ का सर्वाधिक चर्चित नृत्य है जो सरगुजा के उरांव बड़े उल्लास से मनाते हंै, जिसमें स्त्री पुरुष दोनों भाग लेते हंै। सुग्गी नृत्य मात्र स्त्रियों का है और इसी तरह गौरा भी झूमर नृत्य के लिए समय या त्यौहार की आवश्यकता नहीं। सभी जाति की स्त्रियां इसमें भाग लेती है।
गोवर्धन पूजा राउत नाचा का मूल है। यह एक उत्तेजक वीर नृत्य है जिसमें गीत कम व नृत्य अधिक रहता है। लाठी राउत की सज्जा का एक अंग है। लाठी चलाने की कला में  वे बहुत प्रवीण होते हैं-
तेन्दू सार की लाठी, सेर भर घी खाई।
एक लाठी परगे, टें टे नरियाई।।
रावत नाच में अखरा का पूज्य और महत्वपूर्ण स्थान हैं। वह अस्त्र-शस्त्र विद्यार्जन की पाठशाला है।
रावत नाच में नृत्यकों की वेशभूषा देखते ही बनती है। इस अवसर पर वे भड़कीली रेशमी, सूती, मखमली जरी कारीगरी से युक्त कपड़े, धारण करते हैं। पैरों में मोजे, जूते, घुंघरु, बांधे घुटने तक धोती, कमर में करधन गले में तिलरी या पुतरी, मुंह पीले रंग से पुता हुआ, आंखों में चश्मा, सिर पर कागज के फूलों से बना गजरा दाये, में तेंदू की लाठी, बाये हाथ में ढाल सम्हाले, कौडिय़ों की माला गले से कमर तक।
वीर श्रृंगार रस का इसका मूल स्त्रोत है नाचते समय फटी गदका, पठा बनेठी आदि में अपनी निपुणता दिखाते हैं।
उनके नृत्य का लालित्य व पग संचालन उमंग थिरकन सब में एक लय रहती है। नृत्य के समय गाए जाने वाले गीत दोहा या सोरठा होते हैं जिनमें जीवन के विविध पक्ष की झांकी देखने को मिलती है।
पंथी नृत्य सतनामी समाज का श्रम साध्य नृत्य है। निर्गुन भजन या गुरु घासीदास के गुणानुवाद के गीत गाये जाते हैं। पिरामिड बनाने की कलात्मकता इस नृत्य को विलक्षण बना देती है। कंवर जाति का वार नृत्य हर तीसरे वर्ष आयोजित होता है जो निरंतर बारह दिन या 288 घंटे चलता है। अंतिम दिन बांस से बनाई गाड़ी में शराब पिलाये बैलों को फांदकर बैगा को बैठाकर दौड़ाया जाता है।
नर्तकों की नृत्य के समय अपनी वेशभूषा और साज श्रृंगार रहता है। उसके अपने नियम और तरीके रहते हैं और लोक वाद्य भी नगाड़ा-मांदर, ढोलक, तम्बूरा, डफ, चिकारा, ढिसकी, झांझ, सिगी खंजरी बांसुरी, ढेकी, ढोल, तुड़बड़ी आदि लोक वाद्य हैं जिनका समय और आवश्यकतानुसार उपयोग किया जाता है।
यहां का संगीत-नृत्य प्रदान रहस, गीत गम्मत से पुराजोर नाचा तथा हाव भावयुक्त पंडवानी छत्तीसगढ़ी संस्कृति के उद्योषक हैं। रहस अर्थात रास याने भगवान कृष्ण का विविध लीलाभिनय। पूरी कथा को मामा-भाँजे की कहानी कहा जाता है। इसे कई लीलाओं में विभाजित कर खेला जाता है। अभिनय नृत्य परक होता है। प्रसंगानुसार मूर्तियों का संयोजन किया जाता है जिनकी अधिकतम संख्या 120 रहती है। इन्हें चितेरे बनाते हैं।
नाचा में गीत और गम्मत दो अंग होते है। गीत नृत्य के साथ होता है और गम्मत अभिनय के रूप में। गम्मत का व्यंग्य बेधने वाला होता है।
पंडवानी छत्तीसगढ़ी लोकशैली में महाभारत गायन है और जिसे 'लोक बैलेÓ की संज्ञा दी जा सकती है। यह छत्तीसगढ़ी की अपनी विशेषता है। उत्तर भारत में महाभारत का पाठ स्त्रियों के लिए वर्जित है। वह मात्र द्विजों तक सीमित है। छत्तीसगढ़ में द्विजेतर स्त्रियां तीजनबाई, प्रभाकुमारी यादव, लक्ष्मी बाई सतनामी, रितु वर्मा ने पंडवानी में ख्याति अर्जित की है। तीजनबाई ने विदेशों में इसे प्रतिष्ठापित किया और राष्ट्रपति द्वारा पद्यमश्री से अलंकृत की गई।
छत्तीसगढ़ी- छत्तीसगढ़ी छत्तीसगढ़ की लोक बोली है जो करीब एक हजार वर्ष पुरानी है इसकी उत्पत्ति अर्ध मागधी अपभ्रंश से हुई है। अर्ध मागधी तीन बोलियों का समूह है अवधी, बघेली और छत्तीसगढ़ी। छत्तीसगढ़ी में शौरसेनी की अपेक्षा मागधी की विशेषता प्रमुख है। कालान्तर में छत्तीसगढ़ी, ओडिय़ा और मराठी के प्रभाव में आकर अवधी से दूर होगई और आसपास के परिधान से अलंकृत छत्तीसगढ़ी बन गई। अब इसका मानक रूप बन गया है और इसका अपना व्याकरण है।
छत्तीसगढ़ी एक सरस, प्रवाहमयी और लचीली बोली है और करीब दो करोड़ लोगों द्वारा बोली जाती है।
छत्तीसगढ़ी का लोक साहित्य अत्यंत महत्वपूर्ण है। उसका समृद्ध साहित्य लोक गीतों, लोक कथाओं, प्रकीर्ण साहित्य, मुहावरा, कहावत, पहेली आदि से भरा पड़ा है।
देवेन्द्र सत्यार्थी के मत से लोकगीत किसी संस्कृति के मुंह बोलते चित्र होते है। छत्तीसगढ़ी लोक गीतों का इतिहास चिर प्राचीन हंै। पुरानी पीढ़ी  निरक्षर किन्तु परम्परा के धनी लोगों ने युग युगान्तरों से मौखिक रुप से अधुना युग तक पहुंचा दिया। यह एक बड़ी उपलब्धि है। लोकसाहित्य का एक चिरन्तन स्वरूप हुआ करता है जिसमें मानवीय संवेदना के हर्ष-विषाद का एक व्यवस्थित स्वरूप उत्तरी धु्रव के हिम परतों के समान कालातीत होकर लिपटा हुआ रहता है। लोक साहित्य की विशेष उल्लेखनीय प्रवृत्ति तो यही है कि इसके पावन संगम में मानवीय नैसर्गिक प्रकृति का उन्माद तथा करुणा का अवसाद युगपत से दो समान्तर रेखाओं के समान मिलता है। समीक्षात्मक शिल्प की विधा से भावात्मक अनुभूति की संस्पर्शनीयता और ताल की संगीतात्मकता सरसता की रमणीयता लोकगीत की एक विशिष्ट खूबी है। छत्तीसगढ़ी लोकगीत इन खूबियों से आप्लावित है। इसके सिवाय भी इसकी अन्य विशेषताएं भी दृष्टव्य है। गीतों में संगीतात्मकता सरलता, बोली की मिठास, लघुता, समूहगत सामाजिकता, मानवीय रागों की भावान्विति है।
छत्तीसगढ़ी गीतों में धुनों की विविधता है जो अन्यत्र दुर्लभ है। ताल इसकी लोकप्रियता का कारण है। उदाहरणार्थ- जंवारा गीत पर बजने वाला ताल जवारा पार से गायक या श्रोताओं पर देवी विराजमान हो उठती है।
छत्तीसगढ़ी की शब्दावली वृहद है। आसपास की भाषाओं और बोलियों के शब्दों को अपने में समावेशित कर इसने अपनी सार्वभौमिकता को बढ़ाया है। इसे समझना दुरुह नहीं।
छत्तीसगढ़ी लोकगीतों का चित्रफलक अत्यंत व्यापक है। वह जन्म से लेकर सारे जीवन को परिव्यापत करके चलता है। जनता के जीवन से उसकी एकरसता है। ये लोकगीत प्रकृति के उद्गार हंै। प्रकृति जब तरंग में आती है तब वह गति करती है। संगीत की उत्पत्ति में प्रकृति और मानव की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का बड़ा योगदान है।
नृत्य और संगीत छत्तीसगढ़ी में आदिवासियों का जन्मजात गुण है। संतोषपूर्ण सरल सहज जीवन और चारों और उन्मुक्त नैसर्गिक सौन्दर्य उनको गति प्रदान करता है। उनका लोक संगीत नृत्य को ताल में आत्म विभोर कर देता है। उनका सम्पूर्ण जीवन संगीत में समाहित है। आदिवासी संगीत में सामुदायिक उत्सवों का एक जीवन्त स्वर है। सामूहिक सुख-दुख का दर्पण है। इनका संगीत से ही प्रारंभ होता है और संगीत में समाप्त होता है।
लोक चित्रांकन-छत्तीसगढ़ी के लोक चित्रांकन का इतिहास आदिम जनजातियों द्वारा चित्रित शैलाश्रयों से प्रारंभ होता है, जिसके साक्षी है रायगढ़ के सिखनपुर और कवरा पहाड़ के बहुसंख्यक चित्र। बाद में सभ्यता के विकास के साथ लोक चित्रांकन भी संस्कृति का अंग बन गया और हमारे मानव जीवन में अब प्रत्येक कर्मकाण्ड में निहित है। संस्कारों में लोक संस्कृति और लोक चित्रांकन का संगन है। ये जीवन के प्रत्येक पक्ष को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते आए हैं। ईश्वर के प्रति प्रगाढ़ आस्था को, विभिन्न संस्कारों को, लोकाचारी को वह विभिन्न अभिप्रायों से चित्रित करते आ रहा है ।
कोई भी मंगल कार्य हो, उत्सव या पर्व हो स्त्रियां चौक पूरती हंै। कहा जा सकता है कि यह उनकी जन्मजात प्रवृति है। चौक पूरने की कला ग्राफिक डिजाइन के अंतर्गत सम्मिलित की जा  सकती है।
छत्तीसगढ़ में हरियाली अमावस्या को सावन की अगवानी के रूप में सवनाही चित्र बनाये जाते हैं। मान्यता है कि इनके बनाने से घर में खर विकार याने बाधाएं नहीं आती। सवनाही के चित्र किशोरियाँ या महिलाएं गोबर के घोल से उंगुलियों द्वारा बनाती हैं। दीवारों को गोबर की दोहरी रेखाओं से घेर दिया जाता है। फिर मनुष्य अनुष्य आकृतियां, शेर तथा अन्य पशु आकृतियां उकेरी जाती हंै। ये प्रागैतिहासिक चित्रों से साम्य रखती हैं।
दीपावली के समय राउत जाति की स्त्रियां मालिकों के घरों पर ज्यामिती के आधार पर विशेष मांगलिक आकृतियां बनाती हैं। ये प्रकृति जन्य रंगों का उंगुलियों के द्वारा उपयोग करती हैं।
केंवट (निषाद) दीवारों पर रामकृष्ण की लीलाओं पर आधारित चित्रों का निर्कांण करते है। वे देवी मान्यताओं का अपनी दृष्टि से लौकीकरण करते हैं और उन्हें अपने बीच का व्यक्ति ही मानते हैं।
देवउठनी के दिन जब धार्मिक अनुष्ठान की तैयारी होती है महिलाएं आंगन में छुई से घर में प्रवेश करते हुए देवी लक्ष्मी के पैरों का चित्रांकन करती हैं। बर्तन, सिक्कों से भरा हंडा आदि समृद्धि और सम्पन्नता के सूचक प्रतीक भी बनाये जाते हैं।
जन्माष्टमी के दिन दीवारों पर आठे कन्हैया का चित्र बनाया जाता है जिनमें कृष्ण के आठ जन्मों का चित्रण ज्यामिती पर आधारित होता है। उसके साथ ही सांप, बिच्छू,फूल-पत्ती, गाय की आकृतियां भी बनाई जाती हैं। यह लोक चित्रांकन का एक अनूठा और अपूर्व उदाहरण है। चित्र सीधे-सादे ढंग से कम से कम रेखाओं में बनाये जाते हैं।
अन्य शिल्प-मिट्टी के खिलौने और जीवनोपयोगी पात्र, काष्ठ शिल्प, लोह शिल्प, प्रस्तर शिल्प आदि की अपनी विशेषताएं है। छत्तीसगढ़ अपने काँसे के बर्तनों के लिए प्रसिद्ध है। बांस की बनी वस्तुएं भी मनोहारी होती हैं। यहाँ का नादिया बैल लोक शिल्प का उत्कृष्ट उदाहरण है। सांमरी जूतों का अपना अलग स्थान है। यहाँ के कोसा के कपड़े सारे देश में प्रसिद्ध है।
राष्ट्रीय पर्वों पर बनने वाली देवी-देवताओं की मूर्तियां- रहस के आयोजन के समय बनने वाली विशिष्ट विशाल मूर्तियां दर्शनीय होती हंै। रावण की मूर्ति में दस सिर बनाये जाते हैं और विभिन्न मुखों में विभिन्न मुद्राओं को मूत्र्त रूप प्रदान किया जाता है, जो छत्तीसगढ़ी शैली का अद्भुत नमूना है। आरंग के हाथी और डोंगरगढ़ के घोड़े की आकृतियां सहज ही मन मोह लेती है।
धातु शिल्प में सरगुजा की मलार, रायगढ़ की झारा और बस्तर की घड़वा जाति के लोग अपने उत्कृष्ट शिल्प के लिए जाने जाते हैं।
आभूषण शिल्प गजब है। छत्तीसगढ़ में स्त्रियां शताधिक प्रकार के आभूषण करती हैं कुछ आभूषण इस प्रकार है पैरी, गठिया, तोड़ा, घुंघरु, चुटकी, बिंदिया, सांटी, झांझर, लच्छा, नथ बेसर, लौंग फूली, खिनवा, झुमका, बाली, तरकी, बहुटा, बाजूबंद, पहुंची, सूता, हमेल, ढुलरी, तितरी, कौड़ी, मोती और मूंगे की मालाएं, परकोटा, मुंदरी करधनी इत्यादि गुदना उनका स्थायी आभूषण है जो मरने पर भी उनके साथ जाता है। स्त्रियां आभूषण प्रिय है उनमे सौंदर्य बोध है।
प्रकृति प्रेम, कठोर श्रम, अबाध, आनंद छत्तीसगढ़ का जीवन इन्हीं तीन तत्वों से ओतप्रोत है। सादगी ऋतुजा और धर्मभीरुता का पुट वैशिष्टय का परिपाक करता है। छत्तीसगढ़ की संस्कृति बहुआयामी है कहां तक उसकी विशेषताओं को कहा जाये।-  साभार  रऊताही 1994

Monday 14 January 2013

छत्तीसगढ़ के लोकनृत्यों में 'राउत नृत्य

मनुष्य अपनी आत्माभिव्यक्ति हंसकर, रोकर, गाकर या नाच कर व्यक्त करता है। वह जब अत्यधिक प्रसन्न हो जाता हैं खुशी से भर उठता है तब उसके अंगों में हलचल होने लगती है। पैर थिरकने लगते हैं हाथ हरकत करने लगते हंै। पूरा शरीर झूमने लगता है। इस प्रकार की आत्माभिव्यक्ति को हम नृत्य कहते हैं। नृत्य के द्वारा मनुष्य का मन दुख, कठिनाईयों जीवन की जटिलताओं से दूर हो आनंद के प्रवाह में प्रवाहित होने लगता है।
लोक जीवन की भावुकता को अभिव्यक्त करने वाली प्रकृति से प्रभावित बंधनहीन उन्मुक्त नृत्य को लोक नृत्य कहा जाता है। लोक नृत्य वस्तुत: प्राकृतिक नृत्य है क्योंकि जब मनुष्य ने हवा में पेड़-पौधों को हिलते और इठलाते देखा तो वह भी आनन्द विभोर होकर अपने शरीर को उसी प्रकार हिलाने-डुलाने लगा।
हिलाने-डुलाने से इस क्रिया ने धीरे-धीरे नाच का रुप धारण कर लिया और समय बीतने पर हम उसे लोकनृत्य कहने लगे। लोक नृत्य में सरलता, सर्वगम्यता अप्रत्यनशील सरलता स्वसर्जित वैविध्य में एकरुपता आदि विशेषताएं होती हंै। लोक नृत्य में जन जीवन की परम्परा, उसके संस्कार तथा लोगों का आध्यात्मिक विश्वास होता है। लगभग सभी लोक नृत्य सामूहिक होते हैं जो शास्त्रीय नृत्यों की तरह शास्त्रीय बंधनों और सीमाओं से परे होते हैं। शस्त्रीय एवं लोकनृत्यों में वही भेद है जो सीमाओं से आबद्ध तालाब तथा स्वच्छंद प्रवाहमान सरिता में है।
भारत  के चप्पे-चप्पे में अनुगूंजित लोक नृत्य ने लोक जीवन के हृदय को सुरक्षित रखा है। इस संदर्भ में श्री जवाहरलाल नेहरु के विचार उल्लेखनीय है- 'यदि मुझ से कोई पूछे कि भारत की प्राचीन संस्कृति और उसकी जनता के स्फूर्ति पूर्ण जीवन और कला प्रेम का सबसे सुन्दर चित्रण कहाँ होता है तो मैं कहूंगा कि हमारे लोकनृत्यों में।छत्तीसगढ़ ने हमेशा लोककलाओं जिनमें जनता के प्राणों का स्पन्दन है को जीवित रखा इसलिए यहाँ की लोक संस्कृति जीवित रही। यहां के लोकनृत्य एवं लोकगीत यहां की संस्कृति के सच्चे प्रतीक हैं। छत्तीसगढ़ में अतीत गौरव के प्रतीक लोक नृत्य किसी ग्राम उत्सव के समय प्राय: अपने पुरानेपन में भी सौन्दर्य को समाए मानव मन को आनन्दित एवं आकर्षित किये रहते हैं। डॉ. कुन्तल गोयल ने लिखा है -'छत्तीसगढ़ लोक नृत्यों की भूमि है। लोकनृत्य यहाँ के लोक जीवन के आधार हैं। प्रकृति के उन्मुक्त प्रागंण में विचरण करने वाले इन प्रकृति पुत्रों का वास्तविक स्वरूप इनके नृत्य में ही परिलक्षित होता है। सच कहा जाए तो नृत्य के बिना इनकी भक्ति अधूरी है, इनके कर्म अधूरे हैं और जीवन अधूरा है।Ó
छत्तीसगढ़ के लोक मानस ने गीत और नृत्य के माध्यम से अपने मन में उत्पन्न भावनाओं को अभिव्यक्ति प्रदान करने में विशिष्ट योगदान दिया है यहां के जन जीवन में नृत्य इस प्रकार  घुलमिल  गया है कि इसे कभी अलग नहीं किया जा सकता।
इनके रीति रिवाज इतने अधिक है कि प्रत्येक माह में एक न एक त्यौहार आता है और इस अवसर पर मानो नृत्य की घटा छा जाती है और गीत की वर्षा होने लगती है। इनके अनेकानेक त्यौहारों को नृत्य प्रधान त्यौहार कह सकते हंै।
छत्तीसगढ़ में विभिन्न लोकनृत्य प्रचलित है वे इस प्रकार हैं-
(1) करमा नृत्य (2) सुआ नृत्य (3) डंडा नाच (4) पंथी नृत्य (5) गोरा नृत्य (6) जंवारा तथा माता सेवा नृत्य (7) देवार नृत्य (8) गेड़ी नृत्य (9) सरहुल नृत्य (10) झूमर नृत्य (11) गवर नृत्य (12) नाचा (13) डोमकच नृत्य (14) डिड़वा नृत्य (15) रहस नृत्य (16) बार नाच (17) होलेडाँड़ नृत्य (18) दहिकाँदो नृत्य (19) वसुदेव व किसबिन नाच (20) राउत नाच
राउत नाच-
अब वांछित लेख 'राउत नाचÓ का विवरण इस प्रकार है- राउत नाच छत्तीसगढ़ का एक प्रमुख नाच है। इस नाच को राउत जाति के लोग बड़े उत्साह के साथ नाचते हैं। यह नृत्य कार्तिक एकादशी से प्रारंभ हो जाता है। इस नृत्य को प्रारंभ करने से पूर्व राउत जाति के बालक युवक व प्रौढ़ विभिन्न प्रकार के आकर्षक पोषाक धारण करते हंै। साज सज्जा के लिए पीले रंग का रामरज फूलों अथवा कागज के फूलों की माला सिर पर लपेटते हंै।
आँखों में रंगीन चश्मा, घुटनों तक मोजा, पैरों में जूते चुस्त धोती बाँधे व चुस्त कमीज व जाकेट पहन कर वे साक्षात वीर रस के अवतार प्रतीत होते हैं। हाथों में सुशोभित लाठी व दूसरे हाथ में ढाल बाँधे हुए अपने परंपरागत आन-बान शान का प्रतिनिधित्व करते हैं।
ये अपने हाथ में लाठी लिए हुए वादक गण को घेरकर नृत्य करते हैं। नृत्य करते हुए ये घर-घर जाते हैं और नृत्य के बदले गृह स्वामी से धन-वस्त्र आदि प्राप्त करते हैं। राउत नाच के पूर्णता विभिन्न सोपानों को पार करने पर ही प्राप्त है, वे सोपान इस प्रकार है-
1. अखरा-
अखरा शब्द हिन्दी के 'अखाड़ाÓ शब्द का अप्रभंश है। शौर्य और श्रृंगार के संगम राउत नाच की शुरुआत अखरा से की जाती है। राउत नाच में राऊतों को घंटों नाचना व शस्त्र संचालन करना पड़ता है। अखरा में वे बारंबार अभ्यास कर नृत्य कुशलता व देर तक नाचने की शक्ति प्राप्त करते हैं। अखरा, ग्राम के बाहर दइहान पर प्रतिस्थापित किया जाता है। कार्तिक एकादशी के समय इसे गोबर से लीप कर आम पत्तों के तोरण आदि से सजाया जाता है चारों कोने में पत्थर गड़ा कर देवताओं की स्थापना प्रतीक रुप में करते हैं। देव स्थापना के बाद नृत्य अभ्यास प्रारंभ हो जाता है।
 (2) देवाला -
राउत अपने निवास स्थान में एक पूजा कक्ष विशेष रूप से रखता है इसे ही देवाला कहते हैं। देवाला में मिट्टी से गोल या चौकोर आकृति का छोटा चबूतरा बना कर इसमें दूल्हादेव की स्थापना करके कुछ गोलाकार या त्रिशंकु पत्थर स्थापित कर दिये जाते हैं। देवाला में ही विभिन्न प्रकार के अस्त्र शस्त्र रखकर उनको नित्य पूजा की जाती हैं।
(3) काछन-
राउत देवालय में पूजा करने के पश्चात अस्त्र से सुसज्जित होकर एक विशेष भाव में भावाविभूत होकर बाहर आंगन में आता है। उस समय उसके शरीर में इष्ट देव आवाहित होकर विद्यमान रहते हैं, परिणामत: वह रोमांच से परिपूर्ण होता है इसी भाव को 'काछनÓ कहते हैं। काछन प्रत्येक राउत पर नहीं चढ़ता। यह कोमल एवं अत्यधिक भावानुभूति ग्रहण करने वाले राउत पर ही चढ़ता है।
(4) सुहई-
सुहई पलाश के धागे से बना हुआ तीन या पांच तागों से कलात्मक ढंग से गुथी हुई माला होती है। कार्तिक एकादशी के दिन चन्द्रोदय होते ही राउत अपने मालिकों एवं किसानों के घर जाता है और दुधारु गायों के गले में सुहई पहनाता है और आशीर्वचन के रूप में यह दोहा कहता है-
चार महीना चरायेंव खायेंव मही के मोहरा
आइस मोर दिन देवारी, छोड़ेंव तोर निहोरा।
(5) सुखधना-
सुहई बाँधने की प्रक्रिया के बाद राउत गृहस्वामी के अन्नागार (धान की कोठी) में सुखधना देने पहुंचता है। सुखधना का अर्थ है कि सुख समृद्धि, अन्न धन देने वाला। राउत एक थाली में सेम पत्ती चांवल, चंदन दीपबाती फूल और सुगंधित धूप लेकर कोठी के पास पहुंचता है और धनदेवी का चित्र बनाकर पूजा करता है। तत्पश्चात यह दोहा कहता है।
    अंगना लीपे चक चंदन-हरियर गोबर भीने।
    गाय-गाय तोर सार भरे बढ़हर है सै तीनों।
(6) राउत नाच एवं आशीष-
राउत दल सुसज्जित हो एक स्थान पर एकत्र होते हैं। तत्पश्चात घुंघरु की सुमधुर ध्वनि की झंकार गड़वा बाजे के गुदगुदरुम का मादक स्वर और दोहा पारने की वीरोन्मत शैली का प्रदर्शन करते हुए गलियों को निनादित करते हुए अपने मालिक के यहां पहुंचते हैं। मालिक के घर के सामने पहुंचते ही संबंधित राउत अपने आगमन की सूचना दोहा पार कर देता है-
ऐसन झन जानबे मालिक कि अहिरा दौड़ आये हो
बरीक दिन के पावन मं मुख दरसन बर आये हो।
वे स्वामी के आँगन में नृत्य प्रस्तुत करते है और नृत्य समाप्ति के पश्चात गृहस्वामी अपने आर्थिक स्तर के अनुरुप अन्न-वस्त्र एवं मुद्रा प्रदान करता है। इस समय आशीर्वाद स्वरुप राउत अपनी भावाभिव्यक्ति प्रगट करता है-
जइसे मालिक लिहे-दिहे तइसे देबो असीस।
अन्न धन ले घर भरै-जीओ लाख बरीस।।
(7) मड़ई- राउत नाच के अवसर पर स्थापित की जाने वाली मड़ई का बहुत महत्व है। यह राउत नाच का प्रमुख अंग है। इसलिए मड़ई राउत नाच का पर्याय बन गया है। मड़ई का अर्थ मंडप होता है।
भारतीय संस्कृति में प्रत्येक पवित्र कार्य पर मण्डप का उपयोग होता है। राउत नाच श्रीकृष्ण की स्मृति में किया जाने वाला नृत्य है। मड़ई, शाल्मली, बांस जैसे वृक्षों से बना 10-15 फुट का स्तंभ होता है। इसे रंग बिरंगी फूलों व कागजों से सजाया जाता है। इसके शीर्ष पर मयूर पंख व पलाश बाँधकर उसके साथ श्रीकृष्ण का चित्र नारियल व पूजा का सामान लटका देते है। मड़ई का निर्माण निषाद या गोंड़ जाति के लोग करते हैं तथा बनाने वाला ही मड़ई को लेकर दल के साथ चलता है। एक मड़ई के निमंत्रण पर अन्य मड़ईयां अपने दल के साथ पहुंच जाते हैैं। दल के सभी सदस्य नृत्य करते हुए इस मड़ई की परिक्रमा करते हंै। विभिन्न दलों के आ जाने से मेला सा लग जाता है इसलिए इस आयोजन को मड़ई मेला भी कहा जाता है।
(8) बाजार परिभ्रमण- बाजार परिभ्रमण राउत नाच का अंतिम सोपान है। इसे बाजार बिहाना भी कहते हैं। स्थानीय साप्ताहिक बाजार के दिन को ध्यान में रखकर ही मड़ई मेला आरंभ होता है। राउत नाच के विभिन्न दलों में प्रतिस्पर्धा होती है। उक्त क्रमबद्ध प्रक्रिया का परम्परागत रूप से आज भी पालन किया जाता है।
राउत नाच में लोक गीतों का संसार
राउत अपने उत्सव कार्तिक अमावस्या से मड़ई समाप्ति तक निरंतर दोहे कहते जाते हैं। इन दोहों में गंभीरता, कथा, जन जीवन अपने व्यवसाय से संबंधित वस्तुओं का वर्णनात्मक चित्रण व्यक्त करता है। छोटे-छोटे दोहों में बड़ी से बड़ी बात कह दी जाती है।
राउत दोहों में प्रमुखत: पर्व उत्सव से संबंधित जातिगत कार्य से संबंधित कवियों से संबंधित मौलिक एवं पारम्परिक दोहे, आधुनिकता से संबंधित दोहे आते है। इनका संक्षेप में क्रमानुसार उल्लेख इस प्रकार है-
पर्व उत्सव से संबंधित दोहे-
कृष्ण बाजत आवय बाँसुरी उड़ावत आवय धूल
नाचत आवय कन्हाई खोंचे कमल के फूल
लागत महीना भादों के आठे दिन बुधवार हो
रुप गुन महि आगर ले के मथुरा अवतार हो।
जातिगत कार्य से संंबंधित दोहे
तोर मां चदन रुख वजोर माढ़े दइहान हो
डारा-डारा माँ पंडरा बछुरा पाल्हा बगरगय गाय हो।
खाय दूध धौरी के बइहां रखे भोगाय
चार कोरी तोर सेना बर राउत बइहां देहय उड़ाय।
संत कवि से संबधित दोहे
चित्रकूट के घाट में भई संतन की भीर
तुलसीदास चंदन घिसै तिलक देय रघुवीर।
मौलिक एवं पारम्परिक दोहे
बरीख दिन के पावन मां संगी मुख दर्शन बर आये हो
ऐसन देवारी नाचे संगी जीव रहे कि जाय हो।
सदा भवानी दाहिनी सम्मुख रहे गनेश
पांच देव रक्षा करें ब्रह्मा, विष्णु, महेश।
5 आधुनिकता से संबंधित दोहे
सतयुग त्रेतायुग द्वापर बीतगे धरती घलो बुढ़ागे
देवता धामी मन पथरा लहुटगे, नीति धर्म गंवागे।
पंच परमेश्वर बनिन अन्यायी मचगे हा हा कारगा
जनता मन अनजान बनिन अठ नेता मन बटमारगा।
6. विविध दोहे
चिरई मां सुंदर पतरेंगवा सांप सुघर मनिहार
रानी मां सुघर कनिका मोहत हे संसार।
संगत करले साधु के भोजन करले खीर
बनारस मां बासा कर ले मरना गंगा तीर।
राउत नाच ऐसा नृत्य हैं जिसमें श्रृंगार रस और वीर रस का अद्भुत संगम है। अपनी विशेषता और आयोजन की विशालता के कारण राउत नाच ने छत्तीसगढ़ के लोक नृत्यों में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया है। छत्तीसगढ़ में राउत नाच जितने उल्लास और व्यापकता के साथ प्रदर्शित होता है उतना भारत वर्ष ही क्या पूरे विश्व में शायद ही कोई लोक नृत्य प्रदर्शित होता हो।
इस राउत नाच में निहित मनोरंजन, शिक्षा, विकास एवं सभ्यता की झलक स्पष्ट रूप से दर्शकों को आनंदित व लाभान्वित करती है। छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध इस लोक नृत्य ने अपनी विशिष्टता के कारण लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। लोगों का यह आकर्षण छत्तीसगढ़ की कला और संस्कृति के प्रति अनुराग को प्रदर्शित करता हैं जो कि राष्ट्रोत्थान का एक शुभ चिह्न है।
साभार रऊताही 1994

Tuesday 1 January 2013

यादव समाज के विभिन्न मांगों पर चर्चा का आश्वासन

छत्तीसगढ़ यादव समाज के प्रतिनिधि मंडल ने विभिन्न मांगों को लेकर मुख्यमंत्री डॉ़ रमन सिंह से मुलाकात की. प्रतिनिधि मंडल द्वारा वनभूमि पट्टा की मांग पर मुख्यमंत्री ने कहा कि यह मामला राज्य शासन के अंतर्गत नहीं है, इसके लिए विधानसभा सत्र में संकल्प पारित कर केन्द्र सरकार को भेजा जाएगा. जाति सत्यापन के सम्बंध में मुख्यमंत्री डॉ़ रमन सिंह ने कहा कि जो उप जातियां नाम के कारण छूट रही है, उसे शीघ्र जोड़ा जाएगा.  जाति सत्यापन के लिए शीघ्र ही सरलीकरण किया जाएगा तथा राजस्व अभिलेख में अंकित जाति के आधार पर ही जाति प्रमाण पत्र बनाने में प्राथमिकता दी जाएगी. डॉ़  सिंह ने कहा कि  मंत्रिमंडल व श्रम कल्याण विभाग के माध्यम से चरवाहा योजना के लाभ पर चर्चा की जायेगी.
प्रत्येक जिला में पिछड़े वर्ग के बच्चों के लिए स्कूल और छात्रावास की व्यवस्था करने का भी उन्होंने आश्वासन दिया. साथ ही उच्च शिक्षा और व्यावसायिक पाठ्यक्रम के अध्यापन में पिछड़े वर्ग के बच्चों को विशेष छात्रवृत्ति प्रदान करने का प्रावधान भी किया जायेगा. मुख्यमंत्री डॉ़ रमन सिंह ने कहा कि इसी माह प्रांत स्तरीय यादव समाज की बैठक मुख्यमंत्री निवास में आयोजित की जाएगी, जिसमें उपरोक्त विषयों को अंतिम रूप देते हुए लागू कर दिया जाएगा.  प्रतिनिधि मंडल में यादव समाज के प्रदेश अध्यक्ष रमेश यदु सहित सदस्यों में कार्तिकराम यादव, चन्द्रशेखर यादव, कंशुराम यादव, केदार यादव, किसान लाल यादव आदि उपस्थित थे. जिले में छत्तीसगढ़ यादव समाज के विजय यादव, गिरधारी यादव, कैलाश यादव, दीपक यादव, निरंजन यादव, सत्येन्द्र गोपाल आदि ने इस पर हर्ष जताया.