Tuesday 19 February 2013

इतिहास के पन्नों में संस्कृति

संस्कृति संसार भर में जो भी सर्वोत्तम और अच्छी बातें कही या जानी जाती हैं, उनसे अपने आप को परिचित करना संस्कृति है। भारतीय संस्कृति का रूप सामासिक है और उसकी प्रगति धीरे-धीरे हुई है। एक ओर तो इस संस्कृति का मूल आर्यों से पूर्व मोहनजोदड़ो आदि की सभ्यता तथा द्रविड़ों की महान सभ्यता तक पहुँचाता है, तो दूसरी ओर इस संस्कृति पर आर्यों की बड़ी ही गहरी छाप देखने को मिलती है।
हजारों वर्षों से एक ही भू-भाग में एक ही तरह की जलवायु तथा एक ही सामाजिक परिवेश और एक  ही आर्थिक पद्धति के भीतर जीते रहने के कारण भारतीय समाज के सभी लोगों के रंग-रूप, वेश-भूषा, भाव विचार, चिन्तन-सोच और जीवन-विषयक दृष्टिकोण में अद्भुत एकता आ गयी है।
एक चिन्तन के अनुसार भारत वर्ष में चार प्रकार के लोग मिलते हैं एक तरह के वे लोग हैं, जिनका कद छोटा, रंग काला, नाक चौड़ी और बाल घुंघराले होते हैं, जो वनों में निवास करते हैं। ये ही लोग उन आदिवासियों की संतान हैं, जो आर्यों और द्रविड़ों के आगमन के पूर्व इस देश में आकर बसे थे और जो शायद जंगली जीवन के आदी होने के कारण अब तक भी शहरों से दूर जंगलों में ही रहने में सुख मानते हैं। दूसरे तरह के वे लोग जिनका कद छोटा, रंग काला, मसल लम्बा, सिर के बाल घने और नाक खड़ी व चौड़ी होती है, रंग व कद में आदिवासियों से थोड़े भिन्न समानता रखते हैं, ये द्रविड़ जाति के लोग हैं। विन्ध्यांचल के नीचे, सारे दक्षिण भारत में इन्हीं लोगों की प्रधानता है इनके पूर्वज कदाचित आर्यों से भी पूर्व इस देश में आए थे और उन्होंने पहले पहल भारत में नगर सभ्यता की नींव डाली थी।
तीसरी जाति के लोगों का कद लम्बा, वर्ण गेंहुआ या गोरा, दाढ़ी-मंूछ घनी, मस्तक लम्बा तथा नाक पतली और नुकीली होती है, ये आर्य जाति के लोग हैं।
चौथे प्रकार के लोग बर्मा, असम, भूटान, नेपाल तथा उत्तरप्रदेश, पंजाब, उत्तरी बंगाल और कश्मीर के उत्तरी किनारें पर पाएं जाते हैं। इनका मस्तक चौड़ा, रंग काला, पीला, आकृति चिपटी तथा नाक चौड़ी और पसरी हुई होती। इस प्रकार अत्यंत प्राचीन काल में आर्य, द्रविड़, आदिवासी और मंगोल इन चार जातियों को लेकर भारतीय जनता की रचना हुई।
सामान्यतया यह  माना जाता है कि हिन्दुस्तान की जनसंख्या का एक प्रमुख भाग औष्ट्रिक जाति की देन है। ये औष्ट्रिक या आग्नेय नाम इनका इसलिए पड़ा कि ये लोग यूरोप के अग्निकोण में पाए जाते हैं।
डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी का कथन है कि 'आर्यों ने द्रविड़ों को ही दास, आग्नेय जाति वालों को कोल, भील और निषाद तथा मंगोल जाति के लोगों को किशत कहते हंै।Ó ईसा से 3000 हजार वर्ष पूर्व भूमध्य सागर से लेकर सिन्धु घाटी तक जो सभ्यता फैली हुई थी। वह बहुत कुछ समान थी। द्रविड़ों में जो मातृमूलक परम्परा है वह इमेलाइट लोगों में भी थी। देवदासी जैसी भी कोई प्रथा थी। सुमेरिया में एक ऐसे देवता की भी पूजा चलती थी, जिनका वाहन बैल था। अब सभी इतिहासकार यह मानने लगे हैं कि द्रविड़ जाति प्राचीन विश्व की अत्यंत सुसभ्य जाति थी और भारत में भी सभ्यता का वास्तविक प्रारम्भ इसी जाति ने किया था। जब द्रविड़ इस देश में आए यहां आग्नेय जाति वालों की प्रमुख्यता थी और कुछ नीग्रो जाति के लोग भी वर्तमान में थे। अत: एक अनुमान के अनुसार कि नीग्रो और आग्नेय लोगों की बहुत सी बातें पूर्व में द्रविड़ सभ्यता में आई और पीछे द्रविड़ आर्य मिलन होने पर आर्य सभ्यता में भी द्रविड़ों ने इस देश में कृषि का विकास किया, समुद्र यात्रा की परम्परा प्रारंभ की, सिंचाई के लिए नदियों को बांधने की प्रथा चलाई, बड़े-बड़े मंदिरों और भवनों का निर्माण किया तथा नगर सभ्यता की नींव डाली। वे समाज की मातृमूलक व्यवस्था के भी प्रवत्र्तक हुए और शैव तथा शाक्त धर्म तथा भक्तिवाद का भी उन्हीं ने विकास किया।
महाप्लावन की जो कथा हमारे पुराणों में मिलती है, वही कथा भारत से बाहर सामी  लोगों में भी प्रचलित है। भारत में इस प्लावन के नायक मनु है और सामी देशों में हजरत नूह, कहीं ऐसा तो नहीं है कि जिन दिनों यह प्लावन आया था, उन दिनों सामी लोगों के पूर्वज और प्राचीन आर्य एक ही स्थान पर रह रहे थे?
हिन्दू या भारतीय संस्कृति की नींव पड़े हजारों वर्ष हो गए। आग्नेय जाति की देन, चन्द्रमा को देखकर तिथि गिनने का रिवाज, पूर्णिमा के लिए राका और अमावस्या के लिए कुहू शब्द भी आग्नेय भण्डार से आए हैं। चांवल की खेती भी यहां उसी जाति के लोगों ने की थी और पुनर्जन्म की कल्पना भी फसल को देखकर उन्होंने ही प्रारम्भ की थी जो आगे चलकर आर्य चिन्तकों के द्वारा विकसित की गयी थी। पत्थर के रूप में देवता मानने की प्रथा भी यहाँ इसी जाति ने चलाई थी। सुनीति बाबू का अनुमान है कि 'गंगाÓ शब्द भी आग्नेय शब्द भण्डार से आया है अंधविश्वास रुढि़प्रियता, भीरूता और अन्य विचित्र-विचित्र आदतें हैं, वे सब की सब आग्नेय सभ्यता की यादगार है पक्षी-पालन, हस्ति पालन का समारम्भ भी भारत में इसी जाति के लोगों ने किया था।
देवर और देवरानी तथा जेठ और जेठानी की प्रथा भी शायद आग्नेय लोगों से आई है। सिन्दूर का प्रयोग और अनुष्ठानों में नारियल और पान रखने का रिवाज भी सम्भवत: आग्नेय रिवाजों की यादगार है। आग्नेय जाति के लोग देवता के सामने बलिदान किए गए पशु का रक्त मस्तक में लगाना शुभ मानते थे वही रिवाज सिन्दूर लगाने में बदल गया। सिन्दूर के विषय में आचार्य क्षिति मोहन सेन का भी यह मत है कि यह उपकरण आर्यों ने आर्येत्तर जातियों से लिया है।
विवाहादि के अवसर पर सिन्दूर एक अपरिहार्य पदार्थ है, इसके बिना विवाह पूर्ण नहीं होता। हितोपदेश, पंचतंत्र और जातकों में जो पशु-पक्षी विषयक कहानियाँ हैं उनमें से अनेक आग्नेय जाति के भण्डार से आए हुई हैं। अवतारों में से मत्स्य कच्छ और वराह अवतारों की कल्पनाएँ भी यदि आग्नेय कल्पना से आई हो तो इसमें आश्चर्य नहीं आग्नेय जाति के लोग अण्डे से सृष्टि के प्रारम्भ की बात सोचते थे। हिन्दूओं के ब्रह्माण्ड शब्द में अण्डा विद्यमान है हिन्दू समाज में आज दिन जिन देवताओं, तीर्थों और उत्सवों का प्रचार है उनमें से अधिकांश आर्येत्तर मूल हैं। होली या बसन्तोत्सव जैसे बहुत से उत्सव भी आर्येत्तर जातियों की देन है। आर्येत्तर लोगों के रिवाज में तुलसी, वट, अश्वत्थ, बिल्वादि वृक्ष पवित्र माने गए हैं। नदियों में अस्थियां नहीं बहाई जाएं तो आत्मा को शांति नहीं मिलती है। वैदिक या हिन्दू संस्कृति के मूलाधार जो जाति बाहर से आईं जैसे यूनानी पार्थियन, मंगोल, युची, शका,आमीर, हूण और मुस्लिम आक्रमण से पूर्व आने वाले तुर्क वे सब के सब हिन्दू संस्कृति के महासागर में विलीन हो गए और कालाक्रम में वे हिन्दू हो गए।
डेरियस (522-486 ई पूर्व)  के शिलालेख में भी हिन्दू शब्द का उल्लेख मिलता है। जो सदाचारी, वैदिक मार्ग पर चलने  वाला प्रतिमापूजक और हिंसा से दु:ख मानने वाला है वह हिन्दू स्वरोम्याँ रोला ने लिखा है कि 'अगर इस धरती पर कोई एक ऐसी जगह है जहां सभ्यता के प्रारम्भिक दिनों से ही मनुष्यों के सारे सपने आश्रय और पनाह पाते रहे हैं, तो वह जगह हिन्दुस्तान है।Ó
भारतवर्ष अपने भीतर अनेकों संस्कृतियों को समाहित किये हुये है। यही कारण है कि मिस्टर जोड ने भारत को विश्व मानवता के लिए सबसे बड़ा वरदान कहा है।
भारतवर्ष अपनी महानतम विरासत संस्कृति, सभ्यता, आर्थिक सम्पन्नता साहित्य के कारण महाशक्ति के रूप में अवतरित हो रहा है। सुप्रसिद्ध इतिहासकार मिस्टर डाडवेल ने लिखा है कि 'भारतीय संस्कृति महासमुद्र के समान हैÓ जिसमें अनेक नदियां आ -आकार विलीन होती रही हैं। भारत विश्व के मानवों के लिए आदर्श आचार्य (गुरू) है, जो सत्य, त्याग, बलिदान मानवता की अमृत धारा प्रवाहित करता है। अहिंसा का परम पुजारी हंै भारत में लेखन का प्रचार 3000 ई. पूर्व में भी था।
साभार- रऊताही 2011 (प्र.खं.)

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