Thursday 30 October 2014

रावत नाच महोत्सव छात्रवृत्ति हेतु छात्रों का चयन

बिलासपुर। रावत नाच महोत्सव समिति द्वारा आगामी 15 नवम्बर को रावत नाच महोत्सव के अवसर पर इस वर्ष कुल 24 छात्र-छात्राओं को 70 हजार रुपये की राशि छात्रवृत्ति स्वरुप प्रदान की जाएगी। डॉ. आर.जी. यादव की अध्यक्षता में गठित समिति द्वारा अंतिम तिथि 31 अगस्त 2014 तक प्राप्त आवेदन पत्रों में से सर्वाधिक अंक अर्जित करने वाले निम्नलिखित छात्र-छात्राओं का चयन छात्रवृत्ति हेतु किया गया है।
सामान्य यादव परिवार वर्ग से चयनित छात्र-छात्राएं- हायर सेकेण्डरी छात्र, अमन यादव पिता स्व. श्री विनोद यादव ऊर्जा पार्क राजकिशोर नगर बिलासपुर, छात्रा कु. चंचल यादव पिता श्री शंकर यादव कुदुदण्ड, हाईस्कूल- अभिषेक सिंह यादव पिता तेरस राम यादव नूतन चौक सरकंडा बिलासपुर, चकोरी यादव पिता कृष्ण कुमार यादव चोरहा देवरी लखराम, पूर्व माध्यमिक अभिषेक यादव पिता शत्रुहन सिंह यादव ऊर्जा पार्क के पास राजकिशोर नगर बिलासपुर, कुमारी रश्मि यादव पिता श्री राजेश यादव कस्तूरबा  नगर, प्राथमिक प्रमाण पत्र निखिल यादव पिता राजेन्द्र यादव टिकारीपारा तखतपुर, कुमारी आस्था यादव पिता केशव यादव मंगला, रावतनाच गोल दल से सम्बद्ध परिवार हायर सेकेण्डरी, राहुल यादव पिता स्व. श्री विनोद यादव, कुंदरापारा तिफरा, कुमारी दुर्गेश्वरी यादव पिता श्री खेदूराम यादव टिकरापारा बिलासपुर, हाईस्कूल प्रमाण पत्र अविनाश यादव पिता श्री लक्ष्मी प्रसाद यादव, परसदा-भरनी, संदीप यादव पिता रज्जू यादव सेंवार, सृष्टि यादव पिता बहोरन यादव कुदुदण्ड, ममता यादव पिता जीवराखन यादव टिकरापारा, पूर्व माध्यमिक देवकुमार यादव मोहितराम यादव बिजराडीह भाठापारा, माधव यादव पिता शिवकुमार यादव शांतिनगर ठेठाडबरी, दीपांजलि यादव पिता बसंतराम यादव मोपका, त्रिपती यादव पिता श्री सहसराम यादव, प्राथमिक प्रमाण पत्र, प्रेमसागर यादव पिता श्री प्रहलाद यादव बसिया, हिमांशु यादव पिता कमलेश यादव बसिया, तरुण यादव पिता शिवकुमार यादव शांतिनगर ठेठाडबरी बिलासपुर, कुमारी शारदा यादव पिता रामेश्वर यादव बसिया, कुमारी अंजू यादव पिता श्री बऊवा यादव शांतिनगर दिव्या यादव पिता राजकमल यादव बसिया बिलासपुर इन्हें कक्षावार क्रमश: 5000, 3000, 2000, 2000 रुपये की राशि  छात्रवृत्ति के रुप में नकद एवं प्रमाण पत्र के साथ सम्मानित किया जावेगा। इस तरह लगभग 70,000 रुपये प्रदान की जायेगी। डॉ. आर.जी. यादव, डॉ. कालीचरण यादव, आर.एन. यादव, माखनलाल यादव, विजय यादव, मनीराम यादव, संतोष यादव, उमेश यादव एवं रामकुमार यादव छात्रवृत्ति परीक्षण समिति की बैठक में उपस्थित थे।

छत्तीसगढ़ी लोकगीत और लोकस्वर

मानव के लिए गीत पुरातन समय से मीत रहा है। गीत मानव के हृदय से सस्कंृत होने वाली वह समस्त भावनाएँ हैं जो भीतर से बाहर लोकस्वर बन झरते रहता है। और हर मन को हरते रहता है। लोकगीतों की परंपरा तो आदि युग से चली आ रही है। वह अपने जीवन को बोलियों मेें प्रकाशित करता रहा है। उसने समय-समय पर शोषण के विरूद्ध गीतों में आवाज उठाई, अपने श्रम का परिहार गीतों के सहारे किया, नया उत्साह, नई लगन गीतों द्वारा प्राप्त की। और इतना ही नहीं, मन की छिपी हुई गीतों बातों के सुख और दु:ख को उन्हीं गीतों में ढाला।
ये लोक-गीत लिपिबद्ध हो या न हो, इन्हें भावनाओं की कण्ठ ध्वनि ही कहना चाहिए। हर राष्ट्र के हर क्षेत्र में अपनी निजी बोलियों में गीत पाये जाते है। छत्तीसगढ़ की अपनी भाषा में या बोली में जो गीत गाते हैं उनका अपना अलग मार्धुय है। छत्तीसगढ़ी लोक-गीतों की जो अतुल संपदा व अनन्त भण्डार है, वह शाश्वत् है। लोकप्रिय बाल-लोक-गीत बड़ा ही मधुर है:-''अटकन-बटकर,दही चटाकन
लौहा लाटा बन के काँटा
तुहुर-तुहुर पानी आवे /सावन म करेला पाके
चल-चल बहिनी गंगा जाबो
गंगा ले गोदावरी /पाका-पाका आमा खाबो
आमा के डारा टूटगे/ भरे कटोरा फूट गे।''
इन गीतों मेें जनजीवन का पारंपरिक एंव स्वाभाविक चित्र सुलभ होता है। हमारा सारा सामाजिक जीवन संगीतमय है। भारतीय समाज में जीवन के प्रत्येक अवसर को, प्रत्येक कर्म को संगीतमय सुण्ठुता प्रदान किया जाता है। पुरूष खेतों में काम करते हों या जंगलों में गाय चराते हों, चाहे स्त्रियाँ खेतों में धान रोपती हों या घर में चक्की चलाती हों वे बराबर मन तथा शरीर में स्फूर्तिं लाने के लिए सरस गीतेां की लहरों पर झूमती दिखाई देती हैं। जन्म, विवाह आदि मांगलिक अवसरों को लोकगीत अनुपम बना देता है। विवाह में चुलमाटी एक प्रथा है ढेड़हा जब मिट्टी खोदता है, उसके लिए हास्य रस से भरे हुए लोकगीत प्रसिद्ध हैं ,जो मन को गुदगुदता है:
''तोला माटी कोडें़ ल नई आवै मीत
धीरे-धीरे!
तेहां, तोर कनिहा ल ढ़ील, धीरे-धीरे!
जतके मैं पोरसेंव तैं ओतके ल लील धीरे-धीरे!
तोर बहिनी ल तीर, धीरे-धीरे! '' जीवन की प्रत्येक छोटी-बड़ी परिस्थितियों का, परंपरा व  नीतियों का ,रोने व हंसने का, व्यंग-बाण कसने का मधुर तरीका लोकगीत-लोकस्वर है। लोक संस्कृति की आकृति लोकगीत में सुलभ होती है। डॉ. देवेन्द्र सत्यार्थी कहते है-''लोकगीत किसी संस्कृति के मुँह बोलते चित्र हंै। '' लोकगीत के आइने में लोक-संस्कृति मायने पाती है। पंडवानी, पंथी गीत, भरथरी, चंदैनी गायन,ददरिया,सुआ गीत, बांसगीत,ढोला मारू-किस्सा गीत, मड़ई गीत, देवार गीत, भोजली -जंवारा-जसगीत, विवाह व 'भड़ौनीÓ गीत एंव बच्चों को मीठी नींद सुलभ कराने 'लोरी-गीतÓ हमारी समृद्ध परंपरा की पहचान कराते है। छत्तीसगढ़ बच्चियाँ गाँव में जब अपनी सहेलियों के साथ फुगड़ी नृत्य करती हैं तो भूमिका के रूप में एक स्वर में लोकस्वर देती है। मनमोहक बन पड़ता है:-''गोबर दे बछरू गोबर दे,
चारों ख्ॉूट ल लीपन दे, चारों देरानी ल बइठन दे
अपन खाथे गूदा-गूदा, हमला देथे बीजा,
रही जाबो तीजा
तीजा के बीहान दिन झमझम ले लूगरा
हेर-दे-भौजी-हेर-दे कपाट के खीला
चींव-चींव नरियाये मजूर के पीला
एक गोड़ म लाल भाजी एक गोड़ म कपूर
कतेक ल मानो मोर देवर-ससुर।
सचमुच छत्तीसगढ़ी के लोकगीतों में यहाँ की मिट्टी की सोंधी महक बसी हुई है तथा वातायन में इसका स्वर गँूज रहा है। वास्तव में , इन गीतों के भीतर प्रेम, ईष्र्या, द्वेष, टीस, सिरहर, पड़प, कसक, मादकता, उल्लास, राग-विराग तथा अन्य अनेक भाव अभिव्यक्ति स्थितियों का पुरातन एंव सामायिक चित्र एक साथ देखने को मिल जाते हैं।
साभार रउताही 2014
 

छत्तीसगढ़ी लोकनाट्य रहस में गीत योजना

छत्तीसगढ़ी लोकनाट्य रहस में एक ओर यदि कथानक के साथ गीत की योजना मिलती है,तो दूसरी ओर छत्तीसगढ़ी लोकगीतों का भी समाहार किया जाता है। जहाँ भाव या विचार प्रमुख होते हैं, वहाँ कथानक को छोड़कर गीत नि:सृत होते हैं। छत्तीसगढ़ी लोकनाट्य रहस में कई प्रकार के गीत गाये जाते है, जिनका विवरण अधोलिखित है-
(1) मंगलगीत :
मंगलगीत सामान्यत: मांगलिक अवसरों पर ही गाये जाते हैं, चाहे वह पुत्र जन्म का उल्लाह भरा अवसर हो, विवाह की शुभ बेला हो या अन्य मांगलिक अनुष्ठान हो। भगवान श्री कृष्ण के जन्म सुनकर सखियाँ मंगल-कलश सजाकर नंद जी के द्वार पहुंचकर गीत गाती है-
''प्रगटे अज यदुरैया, गोकुलपुर बाजे बधैया।
थोड़ा भी लूँगी, हाथी भी लँूगी,
लूँगी लागत गैया।
हीरा भी लूँगी, मोती भी लूँगी,
लूँगी ठनम रूपैया।ÓÓ
(2) 'नाल छीलने का गीत :
जन्म के बाद बच्चे की नाल काटी जाती है। जो दाई यह काम करती है, वह उसके बदले में अच्छा सा उपहार चाहती है। लोकनाट्य रहस में भी भगवान श्रीकृष्ण की नाल काटने हेतु मैया यशोदा के आँगन में दाई आती है यथा-
''हरि के नारा छिनन आई।
सजना सप्त श्रंृगार अंग पर,आई महर अंगनाई।
पद पखारि गयो गृह भीतर, जिये तेरे कुंवर कन्हाई।
शिशु के काज करत में झंगुरी, मुख चुमन पर पाई।
भूषन बसन न्योछावर दीन्हों, प्रभु के चरन मन लाई। ''मैया यशोदा दाई को बदले में वस्त्राभूषण दिये और दाई प्रसन्न होकर अपने घर चली गई।
(3) न्योछावर :
छोटे बालक को देखने और प्यार करने से बहुधा उसे अपनी ही प्रियजनों की नजर लग जाती है। एेसे में राई नमक या मिर्च से उसकी नजर उतारी जाती है। भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव में नंदजी अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिए,जिसे देखकर कुबेर जी लज्जित हो गये-
''पूत सपूत जनि यशोदा, इतनी सुनिके वसुधा सब दौरी।
देवन को आनंद भयो, सुनि गावत धावत मंगल गौरी।
नंद कछु इतनी जो दियो, घनश्याम कुबेरहु के मति बौरी।
ब्रज देख ही लुटाय दियो, न बचे बछिया-छछिया न पिछौरी।ÓÓ
(4) बधाई :
पुत्र जन्म के उपलक्ष्य में माता को बधाई दी जाती है,तथा नवजात शिशु को जो आशीर्वाद दिया जाता है, वही बधावा कहलाता है। श्रीकृष्ण के  जन्मोत्सव के समय ब्रज में बधाई का बाजा बज रहा है-
''ब्रज बाजे रे आज बधाई।
कान्हा के जन्म ला सुनके सखियाँ,
दउड़े कुदै रे धाई।
नाचय रे गावय,बजावै सुनावै,
देखय देखावै परम सुख पावे।
देवय आशीष धन-धन हे कुंवर कन्हाई।। ''ब्रज मण्डल में बधाई के समय नंदजी अन्न-धन लुटा रहे हंै।ÓÓ
(5) असीस :
बस्ती जनपद में शिशु -जन्म क समय 'असीस 'नाम का गीत गाया जाता है। यो इस अवसर पर प्राय: सभी प्रदेशों में बच्चे को आशीर्वाद देने और उसकी मंगल मनाने की प्रथा है। कृ ष्ण के जन्म सुनकर सखियाँ नंद गृह पहँुचकर बाले कृष्ण को आशीर्वाद देती हैं-
''आजु  सखी श्री नंद महर घर,
गृह - गृह से गोप -ग्वालनी,
मंगल गावत आई री।
आसीस देत सकल ब्रजनारी
जुग-जुग जिये कन्हाई री।ÓÓ
6) झूला गीत :
 मैया यशोदा बालक श्रीकृष्ण को झूला में लेकर झूलाने लगती है। सखियाँ भी यशोदा मैया की आज्ञा पाकर हरि को झूला झूलाने हेतु पँहुचती हैं:-''आवो री सखी , झुलावै हरि पलना।
कंचन पलना रतन जड़ो है,
मोतियन लागी डोरना।
रेशम डोर झूल मोतियन के, सोवत नंद जू के छौना।
चंद्रसखी भजु बाल-कृष्ण छवि,
ध्यान लगे तोर चरना। '' कृष्ण पालने में पड़े-पड़े रोते है,शायद किसी गुजरिया की नजर उन्हें लग गई है। यशोदा मैया राई और नमक से उनकी नजर उतारती है, और कहती है, जो मेरे लाल का पालना झुलाएगा उसे मैं जड़ाऊ कं गन दूँगी-
''झूला दे मैया श्याम परे पलना।
काहू गुजरिया की नजर लगी है,
सो रोवत हैं ललना।
रई नोन उतारो जशोदा,
खुशी भये ललना।
जो मोरे ललना को पलना झूला है,
दैहों जगऊ कंगना।
(7) नामकरण :
यों तो बच्चे के जन्म की प्रसन्नता से संसार का हर कोना सराबोर होता है, किन्तु लोक -सस्ंकृति में यह खुशी गीतों के माध्यम से प्रकट होती है। श्रीकृष्ण के जन्म सुनाकर और वसुदेव जी के कहने पर गर्गाचार्य जी महाराज नामकरण हेतु गोकुल पहँुचते हैं, और भगवान के नाम रखते है-''नामकरण को गर्ग ऋषि आयो।
चंदन खड़ाऊ बेद कर सोहा,
द्वादस तिलक लगायो
नंद बाबा ने देखत पंडित
पुस्तक बगल दबायो।।''
''नान धरे बर भगवान के,
गर्गाचार हर आईस।
माथा म चंदन, भुजा मा बंदन,
कि ताब ला काख दबाईस।
(8) विवाह गीत :
विवाह गीत वर और कन्या दोनों पक्षों में समान रूप से गाये जाते हैं। वर पक्ष के गीतों में उल्लास और कन्या पक्ष के गीतों में करूणा होती है।
महाराज कंस अपनी बहन देवकी की विवाह श्री वासुदेव जी के साथ किये। देवकी जी को लेकर सब सखियाँ मण्डप की ओर चली-
''चलो दुल्हनियाँ पिया मिलन को,
छोटी सी घुंघट निकालिके।
गोरे-गोरे हाथों में मेंहदी लगी है,
नयनों में कजना डारिके। ''श्री देवकी-वासुदेव विवाह प्रसंग से गीत प्रस्तुत है- ''बिहा लगाइस कंस,देवकी,
बहिनी के बसुदेव संग मा।
धूमधाम से बिदा करिस,
दे दाइज छोर अतेक संग म।
दाइज डोर सबे ला गाड़ी मा भरवा के,
देवकी बहिनी ला सोनहा रथ मा बइठा के।
सोयम कंस बइठिस रथ ऊपर अमराये बर,
हाँसत मारे खुसी रास ला घोड़ा के घर ।ÓÓ
(9) जादू-टोना के गीत :
छत्तीसगढ़ अंचल में टोना-जादू आज भी दृष्टिगोचर होता है। आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में लोग टोना-जादू के नाम से भयभीत रहते हंै। रहस में श्रीकृष्ण के विरह में राधा मूर्छित होकर गिर पड़ती है, और गिरते समय सखियों से कहती है-सखियों ! मुझे काले साँप ने डस लिया है, देखों कहीं किसी की नजर मुझ पर न लग जाय। सखियाँ माता कीर्ति से जाकर कहती है-''याको कारो डसो री माई।
कहत सखी सब आपस माहीं,
देखत नीको आई।
भई बिकल बन सुधि कछु नाहीं,
कहा भयो कछु जान न जाई।
देह गेह कर नेह भलायो,
याको कारो कुंवर कन्हाई।
हरि मुसक्यात विषम बिष डारै ,
हमहँू पर फ ँूक चलाई।
10) चकई :
भौंरा खेलना-ग्रामीण अचंल में भौंरे का खेल आज भी बहु प्रचलित है। लोकनाट्य रहस में भी इसका निर्वाह हुआ है। मैया यशोदा बाल-कृष्ण को चकई-भौंरा लेकर देती है। तब श्री कृष्ण सब सखाओं के साथ मिलकर भौंरा खेलते हैं-
''खेलत कान्ह भँवर चक डोरी।
कांहू सो हँसि बोलहि कान्हा,
काहू सो मुख मोरी।
संग सखा मिलि खेलत कान्हा,
लेकर ब्रज की खोरी।
लै आये हँसि श्याम तुरूतहि,
बहुत रंगन की डोरी।ÓÓ
(11) बियारी गीत :
सब सखियाँ मिलकर भगवान श्री कृष्ण को भोजन खिलाने के लिए अपने -अपने घर से व्यंजन बनाकर ले जाती हैं और खाना खिलाती हैं। मैया यशोदा भी आनंद के साथ खाना खिलाती है-''आज ललन करत बियारी,
करत बियारी श्री गिरधारी।
जेवन बइठे मदन गोपाल,
हुलसि-हुलसि परसैं महतारी।
सोने की थारी गंगाजल झारी,
निरखि-निरखि हरषत महवारी।
खाजा-खुरमा सुघर-जलेबी।
सीरा  पुरी सरस सोंहारी।
भाँति-भाँति के बन अथाना,
नाना भाँति की बनी तरकारी।ÓÓ
(12) गाली :
 भगवान श्री कृष्ण को भोजन खिलाने के पश्वात् सब सखियाँ भगवान को गालियाँ देती हंै। इस गीत में श्रीकृष्ण की बहन, उसकी फूफू आदि को भी समेटकर गाली गाई जाती है, यथा-''गारी गावे सकल ब्रजनारी, सुनिये हो घनश्याम
गोरे नंद यशोदा गोरी, गोरे बरण बलराम।
कैसे तुम भये कारे मोहन, प्रगटे नंद के धाम।
बहन तुम्हारी रानी सुभद्रा, जानत सकल जहान।
सो भागी अर्जुन के संग में ,डूबेउ कुल के नाम।
धरणी भार उतारण कारण, प्रकट भये ब्रज धाम।ÓÓ
इस प्रकार की गाली मे अभद्रता न होकर प्रेमभाव छिपा है, ये सखियों की मंगल गाली है।
(13) कृष्ण विदाई के गीत :
 भगवान श्रीकृष्ण को मथुरापुरी भेजते समय मैया यशोदा पथिक से कहती है-''संदेशों देकी सो कहयो।
हँू तो दासी तिहारे सूत की, सूरत करत रहियो।ÓÓ
(14) मृत्यु के गीत :
गीता के अनुसार वस्तुत: मृत्यु मात्र शरीर बदलते की प्रक्रिया है।''मृ'' धातु में 'ल्यूकÓ प्रत्यय लगाकर 'मृत्युÓशब्द बनता है जिसका अर्थ है- मरण। आत्मा एक शरीर से निकलकर अपने प्रियतम मरमात्मा से मिलने जाती है। संसार से उसकी विदाई का अत्यन्त करूण एंव मार्मिक चित्रण मिलता है, किन्तु जाने वाले को तो परमात्मा प्रियतम से साक्षात्कार होता है,  इसलिए संसाररूपी नैहर को छोडऩे की व्यवस्था उसे छू भी नहीं पाती। छत्तीसगढ़ी लोकनाट्य रहस में पूतना की मृत्यु पर बाल-सखाओं द्वारा इस प्रकार के गीत गाये जाते हैं-''मर गे पुतना नारी रे।
तोर मरे के बेरीया मा रहितेन,
तोर मँुह मा पानी डारतेंन,
आज्ञा लेकर कंसराय के गोकुल मा छलठानी रे। '' कवि कपिलनाथ कश्यप पूतना वध को इस प्रकार व्यक्त करते हैं-
''दूध पियत पीरा के मारे, होगे नियट बिहाल।
संग मा लेके बाल कृष्ण ला, उडि़स उहाँ ले व्याकुल होके।
हाय-हाय करिस गर्जना, गिरते भुईयाँ पाँपिन मरगे।ÓÓ
ऋतुओं के गीत
(1) वर्षा ऋतु के गीत :
वर्षा ऋतु गीतों की ऋतु है। पावस के गीत लगभग चार महीने तक गाये जाते हैं किन्तु इनमें सावन सबसे अधिक वर्षा की प्रतीक है। सावन की ऋतु में राधा अपनी सखी से कहती है, कि सखी! वर्षा ऋतु का आगमन हो गया है, किन्तु अभी तक वो संावला-कन्हैया नहीं आया-''सावन की ऋतु आई री सजनियाँ,
कान्हा घर नहीं आये।  भादो भोरवा बोल रहा है,
मनवा मोरा रो- रो रहा है। नाहक प्रित लगाए।।ÓÓ
(2) बारहमासा :
जैसा कि नाम से स्पष्ट है 'बारहमासाÓ नामक गीत में बारहों महीने के गीत का बड़ा रूचिकर वर्णन होता है। ऋतु गीतों मे यह बड़ा लोक प्रिय है। ये गीत वर्षा ऋतु से प्रारंभ होकर ज्येष्ठ मास तक गाया जाता है।
(3) झूला गीत :
बारह मासों के मासक्रम को कोई नियम नहीं है। यह वर्णन चैत से आरंभ कर के फागुन में भी समाप्त किया जा सकता है।
भादों में तीज तक हिंडोला चलता है तथा गीत गाये जाते हैं इस प्रकार के गीत विशेष रूप से झूले पर ही बैठकर गाये जाते हं। लोकनाट्य रहस में भी इस प्रकार के गीत का प्रचलन है यथा-''झूला-झूले राधिका प्यारी
संग में कृष्ण मुरारी ना।
सोने के पलना रेशम के डोरी,
कदम के डारी ना।
साभार रउताही 2014
 

पुरूष प्रधान छत्तीसगढ़ लोकगीत : एक परिचय

लोकसाहित्य  में 'लोक का विशिष्ट स्थान है। लोक का स्वरूप व्यापक है, यह विभिन्न धार्मिक ग्रंथों, वेदों, उपनिषदों वेदों की ऋचाओं, ब्राह्मण ग्रंथों में समाहित है। विभिन्न मतमतान्तरों के पश्चात् यह स्वीकार किया गया है, कि इसका उपयोग 'साधारण अथवा जनसाधारण के लिए ही किया जाता है। विभिन्न विद्वानों ने लोक की विभिन्न परिभाषाएं दी है। डॉ. सत्येन्द्र के मतानुसार-' लोक मनुष्य समाज का वह वर्ग है जो अभिजात्य संस्कार शास्त्रीयता और पांडित्य की चेतना अथवा अंहकार से शून्य है और जो एक परंपरा के प्रवाह में जीवित रहता है। 1 यह स्पष्ट है कि लोक शब्द का अर्थ अत्यंत व्यापक है। यह शब्द जन और ग्राम दोनों शब्दों की अपेक्षा अधिक सारगर्भित और सार्थक है। इसमें वह सब समाहित है जिसमें लोक व्याप्त है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के मतानुसार- लोक शब्द का अर्थ जनपद या ग्राम्य नहीं बल्कि नगरों व ग्रामों में फैली हुई समूची जनता है जिनकी व्यावहारिक ज्ञान का आधार पोथियां नहीं है।' 2 सम्पन्न साहित्य का मूल भी तो लोक साहित्य होता है। इसीलिए विद्वानों ने साहित्य और लोक साहित्य में पर्याप्त अंतर स्वीकार किया है।
संस्कृत में साहित्य का अर्थ जहाँ काव्यशास्त्र मान लिया गया है वहीं कल्याण की अर्थ भावना के रूप में भी समाहित किया गया है। हितेन सह सहितम् तस्य भाव: इति साहित्य अर्थात् जिसमें कल्याण की भावना निहित हों उसे साहित्य कहते है। इसी आधार पर यह कहा जा सकता है कि मनुष्य की सम्पूर्ण सार्थक अभिव्यक्ति चाहे वह लिखित हो या मौखिक, साहित्य के अंतर्गत परिगणित है। इसके दो भेद क्रमश: शिष्ट साहित्य और लोक साहित्य है। शिष्ट साहित्य और लोक साहित्य में पर्याप्त अंतर है। लोक साहित्य पंरपरित रूप में अक्षुण्ण एंव गतिमान है तथा यह लिपिबद्ध नहीं होता। यह मौखिक पंरपरा पर आधारित होता है। इसका कवि एवं लेखक अनाम होता है। इसीलिए विद्वानों ने इसे साहित्य की संज्ञा न देकर वाङमय कहा है।
यही स्थिति छत्तीसगढ़ लोक साहित्य की है। छत्तीसगढ़ी लोक साहित्य की पांच विधाएँ क्रमश:- लोकगीत,लोकगाथा, लोककथा, लोकनाट्य और लोक सुभाषित है। छत्तीसगढ़ी लोकगीतों पर विशेष चर्चा अधोभांति है-
लोकगीत : लोकगीत मौखिक परंपरा पर आधारित होता है। यह जनमानस को विरासत में मिला है। ये पीढ़ी दर पीढ़ी, एक कण्ठ से दूसरे कण्ठ में विराजमान होते हुए प्रवाहित होते है। डॉ श्यामपरमार के मतानुसार -''गीतों की यह परंपरा तब तक जीवित है जब तक मानव का अस्तित्व विद्यमान है। आदिमानव के कण्ठ से जो विगत भाव निकले थे कालांतर में वे ही गीत बन गये। श्री शंकर दयाल शुक्ल का मत है कि ''लोकगीत श्रम परिहार से उपजते और मौखिक परपंरा में बढ़ते-पलते है। छत्तीसगढ़ में भी लोकगीतों की समृद्ध परंपरा मिलती है। छत्तीसगढ़ी लोकगीत सामाजिक व्यवस्था की उपज है। घर और बाहर सर्वत्र स्त्री-पुरूष मिलकर जीवन-यापन करते है। परिश्रम के क्षण हो चाहे नृत्य या सामूहिक मनोरंजन के क्षण,स्त्री की आवाज पुरूष की आवाज को छूकर चलती है वन उपवन की शीतलता और खेतों की हरियाली तथा महक इन लोकगीतों से अठखेलियाँ करती है। लोकगीत मानव जीवन का एक अभिन्न अंग है। यह उसके जीवन के उतार -चढ़ाव तथा दुख-सुख का साथी है। जब मानव अपने को जीवन से उदास और समाज से अकेला महसूस करता है, उस समय ये गीत उसे सान्त्वना प्रदान करते है। वह दुख के समय गुनगुनाकर कुछ क्षण दुख को भूलने का प्रयत्न करता है, तथा आत्म शांति एंव सुख का अनुभव करता है। ये लोकगीत दुख को भूला देने के लिए सम्बल का कार्य करते है।
डॉ विनय कुमार पाठक का मत है कि ''मानव-जीवन के विविध पथों पर निर्मित ये लोकगीत जटिल जीवन को सरल एंव सुलभ बनाते है। रस, छंद, अलंकार से सर्वथा असंयुक्त इन लोकगीतों में ,इन सभी का समायोजन अनायास ही हो जाता है। स्टैण्डर्ड डिक्सनरी के अनुसार -''लोकगीत वे गीत है जो लोक समूह में प्रचलित है। लोकगीत न केवल गीत ही होते है वरन् ये संगीत के साथ संश्रिलिष्ट भी होते है। डॉ चिंतामणि उपाध्याय के शब्दों में -''सामान्य लोक जीवन की पाश्र्वभूमि में अचिन्त्य रूप से अनायास ही फू ट पडऩे वाली मनोभावों की लयात्मक अभिव्यक्ति लोकगीत कहलाती है। छत्तीसगढ़ी लोकगीतों में संस्कृ ति और इतिहास संरक्षित है। लोकगीत स्वतंत्र, निश्छल तथा स्वमेय सुदंर एंव मधुर भाव संयुक्त होते है। लोकगीतों में आत्मा से निकली विशुद्ध स्वर लहरी होती है जो नैसर्गिक गुणों को संजोये रखती है। डॉ श्यामपरमार के अनुसार-''एक लोकगीत न तो पुराना होता न नया। वह एक जंगली वृक्ष की भाँति है जिसकी जड़ें सुुदुर अतीत की गहराई में दृढ़ है किन्तु जिससे निंरतर नई शाखायें,प्रशाखायें पत्तियाँ और नये फल विकसित होते रहते है।ÓÓ 4 अध्ययन की दृष्टि से छत्तीसगढ़ी लोकगीतों को पुरूष व स्त्री के महत्व व विषय क्रम में अधोलिखित भागों में विभक्त किया जा सकता है।
(2) पुरुष गीत - पुरुष प्रधान लोकगीत: जीवन रूपी रणक्षेत्र में नारियाँ हमेशा से ही पुरूषों केा प्रोत्साहित करती रही है तथा जीवन के पहलू में हाथ से हाथ मिलाकर साथ निर्माण रही है। एक दूसरे के बिना जीवन अधूरा है। पुरूष प्रधान लोकगीतों में नृत्यगीत ही प्रमुख है - जैसे डंडा, करमा, मड़ ई, फड़ी और पंथी आदि प्रमुख है।
डंडा : छत्तीसगढ़ के लोकगीतों में डंडा उल्लेखनीय है। डंडा छत्तीसगढ़ का रास है। गांव के नवयुवक विभिन्न आभूषणों से सुसज्जित होकर हाथ में डंडा लेकर एक साथ गाते एंव नाचते है। इसके मादर, मंजीरा, झांझ प्रमुख वाद्य यंत्र है। एक गाने वाला और बाकी दोहराने वाले दो चार लोग रहते है। मादर के ताल के साथ नवयुवक घूम-घूम कर डंडे को मार कर नाचते है। नवयुवक सिर में कलगी तथा पैर में घुघंरू पहनते है। एक व्यक्ति गाता है और नाचने वाले बीच-बीच में टेही लगाते है। डंडा गीत में रामायण,महाभारत तथा विभिन्न देवी देवताओं से संबंधित गीत गाते है। प्रस्तुत गीत में सीता हरण का सुदंर  चित्रण है
विप्र रूप धरे निशाचर भिच्छा मांगन को आये हो लाल।
भिच्छा ल धरके निकले जानकी रथ म लेगे बिठाय हो लाल।
रथ पर बइठे माता जानकी सरन-सरन गोहराय हो लाल।
कोने होइ हें मोर राम के पियारा रथ राखो बिलमाय हो लाल।
ओतका बसुने मोर पंक्षी जटाई आधा सरग म मंडराय हो लाल।
काकर हो तुम धिया पतोहू काकर हो भौजाई हो लाल।
राजा दशरथ के धिया पतोहू लक्षिमन के भौजाई हो लाल।
मोर नाम हे सीता जानकी रावण हर ले जाई हो लाल। आदि। गुजरात की गरबा नृत्य से इसकी तुलना की जा सकती है।
करमा : पुरूष नृत्य गीतों में करमा भी बहुत महत्वपूर्ण है। डंडा और करमा एक दूसरे के सन्निकट है। करमा की उत्पत्ति के संबंध में किवदंती है कि -''कर्म नाम का कोई राजा था। उस पर विपत्ति पड़ी । उसने मानता मानी और नृत्य गान प्रांरभ किया जिससे उसकी विपत्ति टल गई । उसी समय से करमा नृत्य प्रारंभ हुआ।ÓÓ  एक करमा गीत प्रस्तुत है-
चोला रोवथे नाम बिन देखे परान, चोला रोवथे।
दादंर झांवर झाड़ी डोंगर बीच मंझाय,
सबे पतेरन तोला ढूढों कहां लुके हस जाय। चोला रोवथे...
माया ला तो कस जोरे सुरता मोर भुलाई,
मोर मड़इया सून्ना करके कहां करे पहुनाई चोला रोवथे...
एक आंखी म नींद नई आवय हिरदे भइगे सुन्ना,
डोंगरी डहरी तोला ढूढ़ों  विपदा पर के दूना चोला रोवथे...
डॉ. विमलकुमार पाठक लिखते है ''इस लोक गीत में नवयुवक एंव युवतियाँ एक दूसरे के साथ नाचते है। उनका कहना है कि करमा में नर-नारी परस्पर एक दूसरे के हस्त या कटि पकड़कर अतीत के सुखद क्षणों के साथ भावी जीवन की सुमधुर कल्पित स्वप्लिन भावनाओं में गेयता का स्वरूप देकर सहजाभिव्यक्ति करते है। युवक युवतियों की वेशभूषा विशिष्ट होती है। सिर में कलगी, बाजू एंव शरीर में कौड़ी का बंहकर एंव बाजू बंद पहनते है। गले में रूपिया तथा आभूषण पहनते है। एक स्वर एंव ताल में नाचते है। उनका नृत्य बहुत ही सुंदर एंव आकर्षक होती है।
मड़ई : पुरू ष के नृत्य गीतों में मड़ ई का विशिष्ट स्थान है। यह यदुवंंशियों के धरोहर है। मड़ई पूजन का त्यौहार । यह वैदिक कालीन गोवर्धन पूजा का ही रूप प्रतीत होता है जिसे द्वापर में श्री कृष्ण भगवान एंव ग्वाल बाल उत्सव के रूप में मनाते थे। इस उत्सव में 'इन्द्रध्वज ध्वजोत्तोलन का महत्वपूर्ण स्थान है। मड़ई वैदिक कालीन इन्द्रध्वज ही है। इस ध्वज को कार्तिक शुक्ल एकादशी को डोरियों के सहारे खड़ा किया जाता है। ध्वज की सजावट बहुत ही सुंदर और आकर्षक होती है। यह उत्सव कार्तिक पूर्णिमा तक चलता है। रावत लोग रात-रात भर नाच कर इसे अपवित्र होने से बचाते है। ये लोग इसे लेकर अपने हितैषी एंव प्रेमीजनों के घर ले जाते हैं। कभी-कभी रावत बाजार में भी ले जाते है। इसे पकड़कर रखने वाला इसे मनौती के रूप में उठाकर चलता है। इसमें लाल एंव सफेद कपड़ा लिपटा रहता है, तथा ऊपर में मुर्गा बंधा रहता है। यादव भाई नाचते-नाचते, धार्मिक, सामाजिक एंव प्रकृति संबंधी दोहा कहते जाते है- यथा-
धार्मिक  :  धरके मंदोदरी थारी म कलेवना, चला सिया के पास।
उठि-उठि सिया भोजन क रि ले, करिहौ लंका के राज।।
प्राकृतिक :  चंदा के बैरी बादली भइया के बैरी तलवार।
मछरी के बैरी केंवटा मारे जाल भवायं।।
सूरज दियना मोर दिन के जलथे चंदा दिया आधी रात।
रानी दिया ह घर म बरथे, बेटा दिया दरबार।।
यादव भाई नाचने के पश्वात् आशीर्वाद के रूप में जन-धन एंव पशुधन की समृद्धि की कामना करते है- दोहा कहते हैं जो इस प्रकार है-
चार महिना चरायेंव चारा, खायेंव दही के बोरा।
आगे मोर दिन देवारी छोड़ेंव तोर निहोरा।।
ठाकुर जोहारे आयेंव पान सुपारी कोरा।
रंग महल में बइठव ठाकुर राम-राम लेव मोरा।।
मंगल कामना : अगम धरे चक चंदन हरियर गोबर भिना।
गाय-गाय तोर कोठा भरय, बरदा होय सौ तीना।।
स्वामी के आशीर्वाद: जइसे ठाकुर लिए दिए तइसे दियो अशीस।
अन्न धन तोर घर भरे जुग जिओ लाल बरिस।।
इस प्रकार मड़ई उत्सव एक मनौती तथा मंगल कामना और आशीर्वादों से भरा रहता है।
बाँसगीत : बांस रावतों का गीत है। इस गीत को दो व्यक्ति मिलकर गाते है। इसमें एक बांस (बांसुरी से बड़ा बांस का वाद्य यंत्र) बजाने वाला है। बांस की लंबाई करीब दो हाथ्ज्ञ की होती है तथा इसमें स्वर निर्माण हेतु छेद बने रहते है। बांस गीत गाने वाला बांस गीत गाता है तथा इसे बांस बजाने वाला बांस में दुहराता है। एक हुकारू भरने वाला होता है, टेही भरतेहुए रामजी, रामजी का उच्चारण करते हुए अगली पंक्ति में गायक क्या गायेगा का संकेत देता है। इसे रागी कहते है। बांस गीत में राजनैतिक, धार्मिक,एतिहासिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक भावनाओं की प्रधानता होती है। प्राय: बांस गीतों का आरंभ देवी -देवताओं की स्तुति से होता है। इस गीत के विविध रंग है। माँ भवानी की आराधना एंव स्तुति इस प्रकार है-
सदा भवानी मोर दुर्गा दहिंगला, काला सोहय सिर सिंदुर।
काला काजर के रेख हो ...
बांस बजइया के गला पिरागे सुनवइया के दूनों कान।
भरे सभा मंय कोन गीत छोड़व, कोन वैरी कोन मीत हो...
पहिली सुमिरौ मंय धरती अउ पिरथी ल
दूसर म सुमिरौं खरिखा  साले हो ...
तीसर सुमिरौं मयं गौ के गोरइया ल
चौथे म दूधाधारी के हनुमान हो...
अधोलिखित बांस गीत में नीतिपरक पुट द्रष्टव्य है-
माता-पिता के मयं तो सेवा बजावंव तर बैकुण्ठे जांव।
माता-पिता के निंदा करहौं मरि काया ढरि जाय।
जीयत आमा ल कोन काटय मउरत कोन काटे चार।
सारस जोड़ी ल कोन मारय आेला परे नवकपिला के पाप हो...
कलऊ समागे अब पुहिनी म ग नाई, सास टेके बहु के पांव
माता-पिता के सेवा ले बैकुण्ठ मिलय निंदा करना पाप हो
वैसे तो बांसगीत में विभिन्न शूरवीर यादव एंव यादव बीरांगनाओं की लोक गाथा है जिसे प्रस्तुत करने मे एक सप्ताह से एक माह तक लग सकते हैं परंतु यहाँ पर केवल सुमरणी एंव नीति परक कुछ गीत के अंश ही प्रस्तुत किया गया है।
देवार गीत : ''कुछ गीत एेसे हैं जिसे कुछ विशेष जाति के लोग ही गाते है। जिस प्रकार बांस गीत रावत लोग ही गाते है, उसी प्राकर देवार जातियों का भी अलग गीत है। देवार घुमक्कड़ जाति है। ये लोग सुअर पालते है। इसके गीतों में छत्तीसगढ़ का इतिहास वैभव एंव संस्कृ ति संरक्षित है। इनकी गीतों में संगत की संसृष्टि एंव नृत्य की मस्ती है। प्राय: देवार लोग मादर बजाकर देवारिन को नचाते हैं तथा भिक्षा मांगते है। कभी -कभी वह रूंझू या सारंगी भी बजाता है। देवारिन सिर में टुकना, हाथ में कटोरा लेकर वासी मांगती है। देवारिन गली-गली घूमकर गोदना गोदती हैं तथा रीठा बेचती है। ''एक देवार गीत प्रस्तुत है-
रूम, झूम घुघंरू बाजे बाजे सांरगी देवार के
गोड़ म घुघंरू खांध म दुधरू परे ओ देवार के
रूम-झूम घुघंरू बाजय,बाजय सारंगी देवार के
आंखी में काजर मुह म पाउडर लगे हे देवारिन के 
मुड़ म टुकना हाथ कटोरा घरवासी मांग के
रूम-झूम घुघंरू बाजय बाजे सारंगी देवार के ...
दूसरी गीत-
झूमर जा रे पड़की  झूमर जा,
धमधा के राजा बाई तोर कइसन लागय रे
लहर लोर लोर तितुर म झोर-झोर,
रांय झूम-झूम बांसपान हंसा करेला पान झूमर जा
धमधा के राजा भाई मोर ससुर लागय रे
लहर लोर लोर तितुर म झोर-झोर
राय झूम-झूम बांसपान हंसा करेला पान
झूमर जा रे पड़की झूमर जा
देवारों का अभिमत है कि-
मछरी म सुघ्घर चिंगरी मछरी सांप सुघ्घर मनिहार,
राजा म सुघ्घर गोड़ राजा जात म सुघ्घर देवार।
रामे रामे रामे मोर रामे रामे भाई,
रामे रामे रामे मोर रामे रामे भइया
धार्मिक गीत-जंवारा-कुंवार तथा चैत्र के नवरात्रि पर्व में जंवारा बोया जाता है। यह मूलत: धार्मिक पर्व है। इसमें विधि-विधान के साथ देवी की पूजा की जाती है। इसमें नव दिन तक दीप जलाकर ज्योति कलश स्थापित किया जाता है तथा कलश के चारों ओर गेहूं दाने को भिंगोंकर खाद्य से भरे क्यारी में बो दिया जाता है। यही गेहूं के दाने कुछ दिन बाद उग आते है तथा पीले रंग में लहलहाने लगते है। इसे ही 'जंवाराÓ या माता की बगिया कहा जाता है। एक बैगा रात-दिन इसकी सेवा में लगा रहता है ताकि ज्योति बूझे मत तथा बगिया मुरझाये मत। जंवारा गीत गाने वाले माता सेवा मण्डलों के द्वारा माता की सेवा में नौ दिन-रात तक जो सेवा गीत गाये जाते हैं वही 'जंवारा गीत है। इसे नेवरात भी कहा जाता है जिसमें माता के विभिन्न रूपों की स्तुति की जाती है। डॉ. विनयकुमार पाठक के मतानुसार ''जंवारा को यहाँ नेवरात से भी अभिहित किया जाता है जो नवरात्र्रि काही रूपान्तरण है। क्वार शुक्ल एकम से नवमी तिथि तक अर्थात् नौ दिन नवरात्रि पर्यन्त अखण्ड ज्योति प्रज्जवलित करने के फलत: यह नवरात्रि या नेवरात से उद्मुत होता है। ''(1)अधोलिखित पंक्तियों में देवी के सोलहों श्रृगांर का वर्णन प्रस्तुत है-
मइया पंच रंग पंच रंग सजे हे सिंगार हो माय,
सेत-सेत तोर ककनी बनबरिया, सेते घटा तुम्हारी हो माय।
सेते तोरे गर के सुतवा, गज मुंगन के हारे हो माय।
लाली लाल लहर हे लंहगा, एड़ी महावर लाले हो माय।
खात पान मुंह लाल भवानी, मुड़ के सिन्दुर लाले हो माय।
कारी कोर लगे चोलियन, कारी काजर रेखे हो माय।
कारी हे तोर भंवर पालकी, कारी मुड़ के केस हो माय।
पियर पिताम्बर पहिरे बुढ़ी माय, पियर कान के ढारे हो मया।
पियरे हे तोर नाके के नथनी, पियर-पियर कान के ढारे हो माय।
पियरे हे तोर हाथ के चुरी, हरे गले के पोते।
हरे हावय तोर माथे के टिकली, बरत सूरज के जोते।
रहय ओट के छांय हो माय,
सोलह सिंगार सजे जग तारन, देखब म जग मोहे हो माय।
बालक बरूआ कछु नही जानत, केवल सरन तोरे हो माय।
आज छत्तीसगढ़ में जंवारा गीत का धूम मजा हुआ है चारों तरफ माता की सेवा करने वालों मंडलियों के द्वारा माता सेवा गीत गाकर जगराता किया जाता है। क्वार और चैत्र नवरात्रि पर्व में माता सेवागीत जंवारा से सारा लोक आलोकित रहता है।
भजन : छत्तीसगढ़ी भजनों में विभिन्न धार्मिक आंदोलनों का प्रभाव पड़ा है। इस पर विभिन्न धार्मिक मतमतान्तरों एंव उससे उत्पन्न पंथों की छाप है। इसमें सगुण एंव निर्गुण दोनों धाराओं का समन्वय है निर्गुण संतों में कबीरदास, जगजीवन दास और धरमदास प्रमुख रहे है। इनका प्रभाव भजनों में पड़ा है-निर्गुण भजन द्रष्टव्य -
का करबो रे हंसा, जीव तो वीराने बस मां गये हे
माटिन के बरतन बने हे पानी ल लेके साने
छिन भर चोला मिले हे कछु काम नइ आवे
नित अंधयरिन है कोठिन दियना नइ हे बाती ,
एक दिन पकड़ के जम ले जाही नइते संगी साथी
सगुणी भजनों में सरस्वती, गणेश आदि की वंदना समाहित है-
अंगना म सरसती बिराजे, परछी म पारवती,
परथम सुमिरंव माता सरसती तोला,
कंठे मणिराज के मुख म बोला,
गणपति के चरन मनावंव गनपति के रे...
देश-देश के देवता सुमिरन आउ सुमिरंव जगदीश, 
गढ़ मइहर के सारह सुमिरौ-गढ़ मइहर के रे
इन भजनों के संबंध में डॉ विनयकुमार पाठक का मत है कि धमधा और कवर्धा क्रमश: धर्मधाम और कबीर धाम का अपभ्रंश है।  (1) छत्तीसगढ़ में इन भजनों को बैरागी या बावा लोग एक हाथ में तानपुरा और दूसरे हाथ में करताल लेकर, गांव-गांव में घूम-घूमकर गाते हैं तथा भिक्षा मांगते हैं। साथ में एक रागी जो टुकड़ी बजाता है रहता है। यह इस जाति के लिए जीवकोपार्जन का साधन है।
ऋतुगीत : छत्तीसगढ़ के कृषक ऋतुओं की कृपा पर अवलंबित रहते है यहाँ बारह मास का वर्णन शिष्ट काव्य के समानान्तर संचालित है। ऋतु गीतों में बारहमासी गीत प्रमुख है। इन गीतों में बारह महिनों की विशेषताओं का चित्रण है-
द्रष्टव्य : आज काला मंय कउन देव ल सुमिरौ भाई,
सबो देवता गइन लुकाय।
सुमिरंव सुमिरंव मइन्ता मानके,
सारदा देवी ल सुमिरंव रे भाई।
सावन महिना बिरहिन रोवय जे कर सैया गये परदेश।
अभी कहूं बालम घर म रहितिस तब
सावन के करतेंव सिंगार।
भादो महिना रंडिय़ा रोवय, कुकुर रोवय कुंवार।
कार्तिक महिना अहिरा रोवय, सुमर-सुमर पुरखा के नाव।
अगहन महिना कोलिहा रोवय, हुआ हुआ कहि काटय रात।
पूस महिना डोकरा रोवय , खांसत-खांसत करे बिहान।
पारा परोसी गारी देवय हत बुढ़वा तो जउहंर होय।
माघ महिना रांड़ी रोवय, होत बिहनिया नहाये जाय।
नहा खोर के घर म आवय, अऊ तुलसी म हुम जलाय।
फागुन महिना डिड़वा रोवय, गली-गली म खेले फाग।
इस प्रकार ऋतु गीत मे विभिन्न महिनों में विभिन्न लोगों एंव जीव जतुंओं की स्थिति का वर्णन है जो अपने आप में विशेष है।
छत्तीसगढ़ अंचल में विभिन्न प्रकार के खेल खेले जाते हैं। इन खेलों में भी सुमधुर गीतों का समाहार है। खेल केा खेल धून का धून जिसमें एक स्वर में गीत जैसे कबड्डी में एक पक्ष वाला दूसरे पक्ष में अपने प्रतिद्वन्दी दल में जब कबड्डी करने जाता है तब वह अधोलिखित गीत के स्वर मुखरित करता है-
कबड्डी: खुमरो के आसपास, खाले बेटा वीरापान।
मयं चलावंव गोटी, तोर दाई  पोवय रोटी रोटी रोटी 
डांडी पोहा : इसी प्रकार डांडी पोहा में जमीन के बीच एक गोला खींच देते है। एक लड़का गोले के बाहर रहता है और बांकी सब भीतर। बाहर खड़ा लड़का गोत्तात्मक स्वर में कहता है-
कुकुरूस कू, काकर कुकरा, राम जी के,
कहां आये उचरे बर, काबर आये 3
खेले खातिर का खेल 3 डांडी पोहा।
कोन चोर 3 रामू रामू रामू...
भौंरा : भौरा अर्थात् लट्टू चलाते समय अमुक गीत गाते है-
लावर म लोर लोर , तिसुर म झोर-झोर ,
हंसा करेला पान, राय झूंम बांस पान,
सुपेली म बांस पान, लठर जा रे भौंरा झुमर जा
कोबी : इसमें गड़ी बदलते है।  आपस में मिलने पर जो पहले कोबी कहेगा वह दूसरे के हाथ पर ताली मारेगा और फिर बोलेगा-
चल कबड्डी आवन दे, तबला बजावन दे,
तबला में पइसा लाल बगइचा,
कतंर  दे कोबी कोबी कोबी...
रासगीत : पुरूष पर्व गीतों में रास का विशेष महत्व है। डॉ. विमलकुमार पाठक का मत है-''कृष्ण राधा और ग्वाल बालाओं का रास छत्तीसगढ़ी जनजीवन में सम्यूक्त होकर रास गीत के रूप में प्रतिष्ठित रहा है। कृष्ण की विविध लीलाएँ उत्तर प्रदेश की विविध मंडलियों द्वारा, यहाँ होती रही है। इसके बाद यहाँ के लोक कलाकारों ने उसका अनुसरण किया किन्तु इसके समानान्तर ही छत्तीसगढ़ी लोकनाट्य 'रास Óका प्रचार इस अंचल में गतिमान रहा है। ''(1) रास लीला के नायक श्री कृष्ण हैं वे आदर्श प्रेम के स्वरूप एंव अलौकिक पुरूष है। लोकगीत कार उन्हें 'फागुन महराजÓ कहकर संबोधित करते हैँ और पूछ रहे है कि अब के गये फिर कब आयेंगे? फागुन मादक मास का नाम है। इसी मास से रास प्रारंभ हो जाता है इसलिए श्री कृष्ण को फागुन फागुन महराज के नाम से पुकारते हुए पूछ रहे है-
फागुन महाराज फागुन महराज अब के गये ले कब आबे।
अरे कउन महिना हरेली अउ कउन महिना तीजा तिहार।
अरे कउन महिना के नवमी दसहरा, अरे कउन महिना दिया जलाय।
कउन महिना रे फागुन अब के गये ले कब आबे।
सावन महिना म हरेली भादो तिजा के तिहार।
कुंवार महिना नवमी दसहरा कातिक दिया जलाय।
फागुन महिना फागुन आये महराज अब के गये ले कब आबे।
यहाँ पर रास रचाने वाले भगवान श्री कृष्ण कन्हैय्या को प्रतीकात्मक रूप में फागुन महराज के नाम से संबोधित किया गया है।
होली : फाल्गुन मास के अंत मे होली का त्यौहार मनाया जाता है। यह हिन्दुओं का महत्वपूर्ण त्यौहार है। छत्तीसगढ़ में इस दिन नया चावल या नवाखानी खाते है , तथा गृह देवता की पूजा करते है। नगाड़ा, मादर, झांभू, मंजीरा, टिमकी के साथ होली गीत गाया जाता है। इसे फाग गीत भी कहा जाता है। इसमें ब्रज की धरती में रत कृ ष्ण राधा और सखी सहेलियों की पृष्ठभूमि निहित है- एक होली गीत प्रस्तुत है-
बजे नगारा दसो जोड़ी दा राधा किशन खेलय होरी,
दूनो हाथ धरे पिचकारी धरे पिचकारी धरे पिचकारी।
रंग गुलाल सबै बोरी दाँ राधा किशन खेलय होरी।
दुधुवा दहिया बचे नइ पाइस उ दू ल रंग म दिहिन छोरी।
दा राधा किशन खेलय होरी...
सब सखियन मिल पकड़ किशन ल ओ ही रंग म दिहिन बोरी।
तब राधा मुस्काय कहिन हाँ आओ खेलिहाँ तुम होरी। दा राधा ...
पुरुष प्रधान छत्तीसगढ़ी लोकगीत वे गीत हैं जो आदिमानव के कण्ठ  से कभी निकले थे जो आज पर्यन्त अलिखित एंव मौखिक रूप में अक्षुण्ण है। ये गीत मानव को विरासत में मिला है। इन गीतों मे वे गीत हैं जिन्हें पुरूषों ने गाये है। इनमें छत्तीसगढ़ की संस्कृति समाहित है। पुरूष यदि इन गीतों को संजोकर नहीं रखे होते तो करमा, डंडा, भजन, फ ाग ,मड़ ई, बांसगीत, देवारगीत, जंवारा, कबड्डी , डांडी पोहा, भौंरा तथा रसगीत कबके विलुप्त हो गये होते परतुं नहीं पुरूषों ने इन्हें सुरक्षित रखा है। ये लोकगीत हमारे छत्तीसगढ़ की पहचान है। इनमें हमारी संस्कृति एंव सभ्यता संरक्षित है। उन्हें सुरक्षा प्रदान करना, अक्षुण्ण बनाये रखना हमारा कत्र्तव्य ही नहीं धर्म भी है।
साभार रउताही 2014



लोकगीत : मानव जीवन का विराट महोत्सव

हमारे समाज में जो कुछ घटित होता है, लोक उसके  सकारात्मक पक्ष को ग्रहण करके और दीर्घ चिंतन से उत्पन्न अपनी सोच में उसे ढालता है अर्थात् आत्मसात् करके पुन: समाज को लौटा देता है। भारत बहुसांस्कृतिक दृष्टि सम्पन्न राष्ट्र है अत: लोकमानस की डगर -पनघट बहुत कठिन है किन्तु प्रकृति मंच पर लोकजीवन के सभी कथानक एक होकर घुल जाते है। लोककण्ठों में समाया प्रकृति रस वहाँ कभी मंत्र बनकर तो कभी गीत बनकर बाँसुरी-शंख सा बजता है। लोकजीवन की 'कहावतेंÓ 'सूक्तिÓ बनकर हमारे लोकमानस को परिभाषित करती है और कभीा यही लोकरसायन, कथा -गाथाओं में अनेक रूपों में नायक-प्रतिनायक बनकर अभिनय करता है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने 'अशोक के फूलÓ में इसे व्याख्यायित करते हुए गंगा की अबाधित -अनाहत धारा के समान सब कुछ को हजम करने के बाद भी पवित्र माना है और इन्हीं लोकगीतों में लोकमानव रहता है, गुनगुनाता है और सब कुछ सघन करता है। यही लोकगीत, लोककथा उसकी प्रेरणा है, उसकी जीवन शाक्ति है, जिसकी अंत: प्रेरणा ही उसे निराश होने से
बचाती है।
इन गीतों में मन की उन्मुक्त उड़ान के साथ जीवन की गहरी समझ है, शिक्षा के साथ जीवन खास सभी एक है। यहाँ व्यक्ति सत्य के स्थान पर सामाजिक सत्य की प्रतिष्ठा है। कुण्ठाओं और तनावों के दमघोंटू वातावरण में यह लोकचेतना ठण्डी हवा का झोंका है जिसमें माटी की भीनी -भीनी गंध है। यह लोकसाहित्य जीवन और संस्कृति के 'मौलीसूत्रÓ हैं और भारतीयता तथा अस्मिता के 'मण्डपकलशÓ है।
यहाँ कृ ष्ण की बाँसुरी के स्वर के साथ ,ख्याल और लावनी की भूमि इन लोकगीतों में सांस होती है, तथा आल्हा और अलगोजा जीवन का सार्वभौमिक रूप प्रस्तुत करते है।
भक्ति गीत, संस्कार गीत, ऋतुगीत, जातिगीत से लेकर जीवन के विविध पक्ष से जुड़े इन गा्रम्यगीतों में दुख: सुख विरह-श्रृंगार, धर्म का आहलाद, दर्शन का गांभीर्य, इतिहास की ललकार समाहित है। यह लोक परम्परा मनुष्य और प्रकृति के बीच में व्यक्त व अव्यक्त के बीच में संबंध स्थापित करती है। पं. विद्यानिवास मिश्र ने लोक का अर्थ माना है, 'इंद्रियगोचर संसार, जो इंद्रियों द्वारा अनुभूत होता हो, जिसका प्रत्यक्ष अनुभव होता हो। Ó एेसे अनेक उदाहरण हमारे जीवन में देखने को मिलते हैं। ट्रेन के डिब्बे की खिड़कियों को टटोलते हुए सूरदास  ऊंचे आलाप में गाता हुआ मिल जायेगा-'पिया मोर, मति जाओ पुरूबवा, पुरब देस मा टोना बेसीबा, पानी बहुत कमजोर, सुनत बानी आँख पानी देत बा, सारी भइल सरबोर, एक नाथ बिनु मन अनाथ रही, घुसी महल में चोर।Ó गायक को यह भ्रम है कि बिदेसिया उसके स्वर से प्रभावित होकर 'बिदेसÓ नही जायेगा? क्योंकि वह भोला-भाला युवक पूरब जाने के मर्म को क्या समझेगा। वह बिदेसिया पूरब अर्थात् कलकत्ता रोजगार के लिए गया है लेकिन उसकी पत्नी को यहाँ की रूपवती बंगालिन से डर है- 'प्यारो देसा तनी देखेद हम के , जात आवत में देरी न लागी जल्दी से भेजब सनेसा ,बल-बुद्धि से रोजे कमाइब, नगद माल हरमेस।Ó यही नकद हरमेस (हमेशा)ही  पूरब का आकर्षण था। घर में थोड़ी 'बतकहीÓ हुई कि 'धरे टीसन की बाटÓ। सीधे हाबड़ा स्टेशन, कुलीगिरी और हाथ रिक्शा खींचकर जो कुछ कमाया, उसे लेकर फिर वापस गाँव। गाँव आते ही सभी लोक कहने लगे-'ललबा त, अब लाल बाबू बन गए।Ó भौजी के लिए स्नो-पाउडर,बाबूजी के लिए सेनगुप्ता की धोती, मां के लिए तांत साड़ी, कुछ नगदी जो हाथ में पहुँचने से पहले ही महाजन झटक लिए,  गांव भर में सनसनी- 'अरे ललबा त, बाजी मार लीहलस, हई देख                   ,एतना देख .....। Ó विवश नौजनावों की टोली कलकत्ते की राह पकड़ते है। इसके साथ शुरू होती है वह दारूण कथा, जो बिदेसिया संस्कृति को जन्म देती है। 2  ये लोकगीत, लोककंठ से फू टते हैं अत: उनमें लोकजीवन की संवेदना और अनुभूति की एक सहज स्वाभाविक धड़कन होती है। सत्य चाहे जीवन का हो या लगातार परिवर्तित होते सामाजिक-राजनीतिक परिवेश का, लोकगीत सत्य को पूरी आँच के साथ अभिव्यक्ति देने में सर्वथा सशक्त और समर्थ है। अवध में चरखा चलाते समय महिलायें जो गीत गाती हैं उसमें लगभग सभी गीतों, में चरखा और सूत के साथ गांधी जी का नाम किसी न किसी रूप में आता है।  एक गीत में महात्मा गांधी को दूल्हा बनाकर प्रस्तुत गीत में चरखा को गतिशील बनाने का प्रयत्न किया गया है-'मोरे चरखा के टूूंटै न तार, चरखवा चालू रहे , गांधी महात्मा दूल्हा बने हैं, दूल्हिन बनी है सरकार, चरखवा चालू रहे। सारे कांग्रेसवा बने है बराती, पुलिस बनी है कहार, चरखवा चालू रहे। Ó इस लोकगीत में दूल्हा, दूल्हिन, बराती तथा कहार आदि प्रतीकों के माध्यम से राष्ट्रीय भावनाओं की सुंदर अभिव्यक्ति के साथ-साथ यह दृढ़ संकल्प भी किया गया है कि स्वतंत्रता की भावना हम सबमें सदैव बलवती रहे। इन गीतों में एक अद्भूूत संास्कृ तिक  ऊष्मा  और लालित्य है, साथ ही अभिव्यक्ति की एक खास ललक भी दृष्टिगत होती है।
कुछ गीतों में आज की बढ़ती हुई मंहगाई की कटु आलोचना की गई है। यह कटु सत्य है कि जब पेट में भूख की ज्वाला प्रज्वलित होती है, उस समय किसी भी प्रकार के गीत अच्छे नहीं लगते है निम्नलिखित बिरहे में इसी प्रकार का वर्णन है-'मंहगी के मारे बिरहा बिसरि गयौ, भूलि गई कजरी धमार। देखि के गौरी का जुबना, अब उठै न करेजवा मा पीर ।Ó किसी भी समाज के यथार्थ चित्र का अवलोकन लोकागीतों में किया जा सकता है। रीति-रिवाज, आचार-विचार, रहन-सहन, विश्वास-पंरपरा सब कुछ इन गीतों में निहित है। दहेजप्रथा जैसी सामाजिक बीमारी का उल्लेख भी इन लोकगीतों में मिलता है-'उइ कनवजिया दायज बहु मांगै तुम्हरे बूते दियौ न जाएÓ साथ ही परिवार में कन्या जन्म को संकट के रूप में भी चित्रित किया गया है- 'जब बेटी तुम पैदा भई, छायी अँधेरी रात Óलोकगीतों में लोकमानस का हृदय बोलता है, प्रकृति स्वंय उनमें गाती और गुनगुनाती हुई अनुभव की जाती है। नीले आकाश के चंदोवे तले प्रकृति के बहुरंगी परिवर्तन, विविध स्तरों पर रहस्यमयी आभा बिखेरने वाली सृष्टि के विभिन्न रूप इन लोकगीतों के प्रधान विषय रहे है।
सावन के महीने में गाई जाने वाली 'कजलीÓ अवध प्रदेश के ग्रामीण अँचल के प्रमुख ऋतुगीतों में से एक है। कजली होली की तरह खेली जाती है। कजरी तीजपर्व भाद्रपद के कृष्णपक्ष की तृतीया को मनाया जाता है। इसकी पूर्व संध्या से आरंभ होने वाली रात 'रतजगाÓ के रूप में मनायी जाती है जिसमें सारी रात जागकर गाते बजाते इस पर्व को नमन करते है। कजरी भी खेली जाती है-
'कइसे खेलै जइबू सावन में कजरिया, बदरिया घेरि आई ननदी, तू त जात है अकेल , संग में संगी ना सहेली ,छैला छेकि लेहिहैं तोहेरी डहरिया, बदरिया घेरि आई ननदी।Ó पूरे पूर्वांचल में बरसात भर  'कजरी Óका गायन होता है। ये गीत बहुत प्रचलित हैं और पीढिय़ों से चले आ रहे है। श्रंृगार के पर्व पर नायिका मेंहदी लगाने की इच्छा व्यक्त करते हुए पति से आग्रह करती है-'पिया मेंहदी लियाय मोतीझील से , जायके साईकिल से ना। जाके मेंहदी लियाय दा, छोटी ननदी से पिसाय दा, अपने हथवा से लगाय दा काँटा कील से जायके साईकील से ना।Óहमारे समाज में स्त्रियों को दोयम दर्जे का स्थान मिला है और पुत्री का जन्म ही दुख का कारण माना जाता है। निम्नलिखित लोकगीत में नीम के पेड़ से लड़की की माँ में साम्य स्थापित किया गया है। लड़की अपने पिता से कहती है, 'पिताजी नीम के पेड़ को मत काटना क्योंकि नीम के पेड़ पर चिडिय़ा बसेरा करती है। पिताजी किसी की बेटी को दुख नहीं देना चाहिए, क्योंकि बेटियाँ भी चिडिय़ा की तरह होती है। जिस प्रकार चिडिय़ों के उड़ जाने से नीम का पेड़ अकेला रह जाता है , उसी प्रकार जब लड़कियंा ससुराल चली जाती है, तो मां भी अकेली रह जाती है-'बाबा निमिया के पेड़ जिनि काटेउ, निबिया चिरैया बसेंर ,बुलैया लेउ बीरन। बाबा बिटियउ जिनि कोउ दुख देय, बिटिया चिरैया की नाई, बलैया लेउ बीरन। सबेरे चिरैया उडि़ जइहै, रह जइहै निबिया अकेलि, बलैया लेउ बीरन। सबेरे बिटियां जइहैं ससूरारि, रहि जइहै माई अकेलि, बलैया लेउ बीरन।Ó भारतीय संस्कृति में वृक्ष प्रकृति के अनूठे वरदान माने गए है- वृक्षों में देवी-देवताओं का वास होता है। अत: उनकी पूजा-अर्चना करना कल्याणकारी माना गया है। हमारी संस्कृति में नीम, पीपल, तुलसी, आंवला, चंदन आदि वृक्षों का विशेष महत्व है। आम्रपल्लव प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान का अनिवार्य तत्व माना जाता है। लोकगीतों मेंं नीम वृक्ष का उल्लेख 'शीतला माताÓ के स्तुतिगान के रूप में मिलता है-'निबिया के डारी मैया झूलेली हिंडोलवा हो कि झूली-झूली। मैया गावेली गीतिया कि झूली-झूली ना। सूतल बाड़ू  कि जागिलै मालिन, उठि घोड़ा पनियां पियाऊ, कि झूली-झूली ना।Ó आरोग्यता और शुचिता की प्रतीक 'तुलसीÓ के पौधे का कार्तिक मास में विशेष पूजा की जाती है। सांयकाल तुलसी के पौधे के निकट दीप जलाना भी वातावरण को पवित्र बनाता है-'चारि महीना तुलसी सैयेउं कातिक दियना बारेउं, तुलसी जब मोरे होइहैं होरिलवा त पियरी चढ़ाव । भा आनंद आइस शुभ घरिया , तउ  होरिलवा जनम लिहे बाजै लाग अनंद  बधैयां, गावै सखियां सोहर, नउआ रगिर हरदिया ता तुलसी क पूजी ।Ó विवाह के अवसर पर गाये जाने वाले 'सगुनÓ लोकगीतों में वक्तव्य, कहीं गंभीर करूण एकालाप और कहीं बातचीत की लय में छोटे-छोटे संदर्भ चित्रों में भी पर्यावरण और वृक्षों को याद किया गया है-'निहुरि-निहुरि बाबा तुलसी लगावइँ, अमवा लगाइवँ  अकेलि। जहँवा कै तुलसी हुवइँ चली जइहइॅ, रहि जइहइँ उनमवा अकेलि जवनी की बिटिया धिया मोरी रोइहइॅ, बजर के छतिया हमारि। Ó इन गीतों में संगीत अपनी पूर्ण सरसता और समरसता के साथ विद्यमान रहता है। ऋतु गीतों में झूले के गीतों में सावनी बहार की भांति मीठी फुहारें हैं तो फाग गीतों की पनपनी अलग मस्ती है। विवाह के गीतों में हर्ष है तो बेटी की विदाई की मार्मिकता भी है। श्रमगीतों मेें श्रम के कारण श्वांस के उतार -चढ़ाव का प्रभाव इन गीतों की धुन पर स्पष्ट है। डॉ. चिंतामणि उपाध्याय लोकगीतों में संगीत के महत्व को बताते हुए कहते है-'संवेदनशील मानव हृदय के भाव सहजत: जब मुख से अभिव्यंजित होते है, स्वर एंव लयबद्ध हो जाने के पश्चात् एक निश्चित धुन गेय पद्धति में प्रकट होते है। इन लोकधुनों की संख्या अनन्त है। भारत के प्रत्येक जनपद में जितने भी लोकगीत प्रचलित है,उनकी विशेष धुने है,ये धुन निसर्ग सिद्ध है। इन्हीं लोक धुनों में भारतीय संगीत के प्रत्येक राग छिपे है।Ó4 चाहे भाषा को लें या संस्कृति को ,वैदिक विचार अपने मूल स्वरूप में आज भी लोकसाहित्य की धरोहर बने हुए है। धर्म और दर्शन की विविध परतें है, जो भारतीय संस्कृति की सही पहचान कराने में सक्षम है। लोकगीतों में ऐसे सूत्र हैं जो केवल राष्ट्र को ही नहीं पूरे विश्व को जोड़े रहने में सक्षम भूमिका निभा सकते है। यह जुड़ाव केवल मनुष्य का मनुष्य के साथ नहीं बल्कि चर-अचर, सम्पूर्ण सृष्टि को एक रागात्मक संबंध में जोड़ता है। गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की  उक्ति इस संदर्भ में उल्लेखनीय है- 'आधुनिक भारत की संस्कृति एक विकसित शतदल के समान है जिसका एक -एक दल, उसकी प्रान्तीय भाषा, साहित्य और उसकी संस्कृति है। किसी एक को मिटा देने से उस कमल की शोभा नष्ट हो जायेगी। हम चाहते हैं कि भारत की सब प्रांतीय बोलियां जिनमेंं सुंदर साहित्य की सृष्टि हुई है, अपने घर में रानी बनकर रहें। प्रातं के जनगण की हार्दिक चिंता की प्रकाशभूमि स्वरूप कविता की भाषा होकर रहें, और आधुनिक भाषाओं के हार की मध्यमणि हिन्दी, भारत-भारती होकर बिराजती रहे।Ó लोकगीत हमें विरासत में मिले है। ये मौखिक -परंपरा का अवगाहन करते सहजानुभूति से सम्पन्न है- साथ ही समाज, समुदाय और राष्ट्र की धरोहर तथा पहचान है। देवेन्द्र सत्यार्थी ने लोकगीतों को जीवन के बीच से कहकर सम्बोधित किया-'कहाँ से आते हैं ये लोक गीत? कुछ अट्टहास, कुछ उदास हृदय से। जीवन के खेत में उगते हैं वे सब गीत । कल्पना, भावना, नृत्य का हिलोरा भी अपना काम करती है। जीवन के सुख-दु:ख ये है लोकगीत के बीज।Ó5 अस्तु लोकगीतों में मानवमन की संवेदना है। मानव-समाज के सांस्कृतिक विकास के पहरेदार हैं ये लोकगीत। जो जन-मन की गहराई से जोड़े हुए है: ये एेसे वटवृक्ष हैं जिनकी छाया में जीवन की संवेदनाओं को शांति, शीतलता और आनंद की प्राप्ति होती है।
साभार रउताही 2014
 

छत्तीसगढ़ी लोकगीतों मे इन्द्रधनुषी रंग

छत्तीसगढ़ का लोकजीवन प्रकृति के नजदीक और अपने मानस परम्पराओं से जुड़ा हुआ है, यहाँ पर जीवन को सहज और सरल ढंग से जीने के तौर-तरीके कायम है। यहाँ पर जीवन में लोग कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी अपने को सहज और सरल बनाये रखते है। संघर्ष ही यहाँ का जीवन है। सदैव ही सादगीपूर्ण रहना और अनेक अवसरों पर अपने को खुश रखना यहाँ का एक तरह से रिवाज है और शायद इसी संघर्षपूर्ण जीवन में भी सहजता और सादगी के लिए यहाँ के लोगो को ''छत्तीसगढ़ीया सबसे बढिय़ाÓÓ का खिताबी तमगा सम्मान में दिया गया है।
यहाँ का लोकजीवन प्रेम के रस माधुर्य एंव संगीत के रिदम से अनुगुंजित होता है। यहाँ पर जीवन का नाम ही अनुराम है, इसीलिए जब भी अवसर मिलता है लोकजन के ढंठों से स्वर लहरियाँ फूट पड़ती है और वादियों को झकंृत कर देती है। सुदुर वंनाचलों के अंदर रहने वाले लोग हों या फिर नगर-ग्राम में जीवन बसर कर रहे लोग, सभी के जीवन में प्रेम-रस की माधुर्यता ओत-प्रोत होकर गीत-संगीत की स्वर लहरियों में त्यौहार, उत्सवों आदि पर्वों पर नजर आती है, वह चाहे करमा हो या ददरिया, लेंझाहो या सुवा सभी में एक अजीब सी कशिश, एक अजब सा सुकुन मिलता है। यहाँ का जीवन दर्शन यहाँ के लोकगीतों में हमें स्पष्ट रूपों में प्राप्त होते है। यहाँ के लोकगीतों में जीवन के उन सच्चाईयों को स्वर लहरियों में पिरोकर गाया जाता है, जो यथार्थ - जीवन में लोगों को भोगना पड़ता है, जिसका सामना करना पड़ता है।
यहाँ का प्रत्येक लोकगीत अपने भावों की अभिव्यक्ति को स्वंय स्पष्ट करते हुए नजर आते है। जैसे:-
एक नवब्याही युवती अपनी दादी से कहती है ,कि इस वर्ष मुझे ससुराल मत भेजना दादी, मैं अभी ससुराल जान की मन: स्थिति में नहीं हॅंू अर्थात् मेरा तन,मन, सब कुछ  इसके लिए अभी मुझे साथ नहीं दे रहा है अत: अभी मेरा गौना रोक दो। यहाँ पर बाल विवाह की एक पुरानी परंपरा रही है जिसमें कम उम्र में ही बच्चों की शादी कर दी जाती है। एेसे ही एक युवती की अपनी पीड़ा इस लोकगीत में है, जिसे ससुराल का डर खाए जा रहा है:-''आसो गवन  झन देबे ओ बुढ़ी दाई, मैं बासं बिरवा कस डोलत हंव ओ.......'' पुरातन परम्परा यहाँ पर आज भी विद्यमान है। यहाँ आज भी ग्रामों में लोग संयुक्त परिवार में रहते है, यहाँ पर मां, बाप, भाई,बहू,भतीजा, सास, ससुर, देवर, जेठ, जेठानी आदि सभी होते है। ये सभी रिश्ते यहाँ पर बड़े अदब के साथ अह्म रूपों में माने जाते है। सभी की अपनी-अपनी गरिमा होती है। छोटे-बड़ों का स्थान एंव व्यवहार तय होता है। बोलचाल में भी सभी के प्रति अपने अलग अंदाज और अदब शामिल होते है। इसीलिए यहां पर संयुक्त परिवार की अपनी महत्ता है।
यहाँ परिवार में महिलाआें में बड़ी, सास होती है वहीं परिवार की एक तरह से साम्राज्ञी होती है, वह जो कहती है सभी महिलाओं को करना होता है अत: बहू का स्थान द्वितीयक होता है इसीजिए वह नव ब्याही बहू को डांटती-डपटती रहती है और अन्य सदस्य भी उस नवेली बहू को अनुभव हीनता के लिए डांटते है कुछ यही भाव इस
लोकगीत में है:-
''सास गारी देवे, ननद मुंह लेवे देवर बाबूमोर, संईया गारी देवे, परोसी गम लेवे-करार गोंदाफूल। केराबारी मा डेरा देबो चले के बेरा हो ..... ''आभूषण प्रेम नारी की प्रथम और उदात्त मनोवृत्ति है। नारी में आभूषण के प्रति आकंठ आकर्षण और अनुराग पाया जाता है। वह उसके लिए कुछ भी करने को तैयार होती है और वह अपना यह आभूषण प्रेम नहीं छोड़ पाती है। यही बात यहां का लोकगीतकार भी अपने लोकगीत में कहता है। एक पत्नी अपने पति से नौलखाहार की मांग कर रही है और उसका पति अपनी आर्थिक स्थिति को जानते हुए केवल उसे ढांढस बंधाते हुए सब्जबाग दिखा रहा है:-''लेदे -लेदे मोर बर नौलखिया हार हो बाबू के ददा.... लेहूं-लेहंू तोर बर नौलखिया हार हो नोनी के दाई .......''एक दूसरे दृश्य में जिसमें एक युवती तालाब नहाने गई है और वहाँ उसके पैर की बिछिया गुम हो जाती है, वह परेशान हो जाती है और अपनी सखियों तथा अन्य को बताती फिरती है:-''गोड़ के गंवागे बिछिया, गंगाजल, गोड़ के गंवागे बिछिया, असनांदे गएंव मैं तरीया, गंगाजल गोड़ के गंवा के बिछिया .....''प्रेम जीवन का अनुपम उपहार है। इस उपहार के  बदौलत ही मानव जाति में सर्वत्र हर्ष और स्नेह देखने को मिलता है। इसी प्रेम के वशीभूत हो युवावस्था में युवामन बहकने लगता है और अपने मनपंसद साथी का चुनाव भी करता है। लोकगीतकार के गीत में इसी भावभूमि पर अभिव्यक्ति मिलती है: एक नवयुवती सफर में अपने हमसफर से प्रेम कर बैठती है और उससे जब बिछुडऩे लगती है तब उसका अंतरमन साथी से कह उठता है कि तुम अपना नाम, पता, ठिकाना तो बता दो, जिससे फिर कभी दुबारा मिलने की गुंजाईश हो सके:-''पता दे जा रे पता ले जा रे गाड़ी वाला, पता दे  जा, ले जा गाड़ी वाला रे ,तोर नाम के ,तोर गांव के पता दे जा ....ÓÓ
यहाँ पर जीवनदर्शन आध्यात्म को अंगीकार करते हुए जीवन के कर्म -निर्धारण को मानते हैं और इसीलिए धर्म, कर्म पाप, पुण्य,हानि, लाभ, जन्म , मरण आदि पर विशेष विचार किया जाता है। यहाँ कर्म का निर्धारण जन्म का प्रतिफल के रूपों मे लिया जाता है। अच्छे कर्म से आने वाला जन्म अच्छा होगा और बुरे कर्म का फल बुरा होगा। इस तरह धर्म पर आस्था को विशेष महत्व देते हुए अच्छे कर्म करने को मानव जीवन का मुख्य आधार माना गया है। लोकगीत में गीत के भाव कुछ इसी तरह से निर्दिष्ट है:-
''दया धरम के कर ले कमाई, गढ्ढे़ हे विधाता तोला रे भाई, मानुस तन चोला, बार-बार नहीं आई......''देश, माटी और आजादी के लिए भी यहाँ पर लोक कवि के हृदय में उथल-पुथल मचा रहा और वह अपने इस देश की मिट्टी का गुणगान करने के लिए अपने उन्मुक्त कंठ से स्वर लहरी बिखेरा जिसे वह शुरू (तोता) को संबोधित करते हुए गाया:-''भारत भुंईया ला बंदब, पदुम पंईया लागौं ना रे सुवा न , न आजादी के बंदव बलिदान, ना रे सुना न के आजादी के बंदव बलिदान.....''भारत की यह पुण्यधरा जहाँ पर सदा से देवात्माओं का आविर्भाव होता रहा है। जहाँ पर आज भी यहाँ के कण-कण में ईश्वर का वास माना जाता है, एेसी भूमि पर जहाँ सूर्य, चांद और सितारे भी पूज्य हैं, जहाँ रात और दिन की भी पूजा होती है एेसे में जब यहाँ पर रात्रि के बाद सुबह सूर्य का स्वर्णिम किरण इस धरा पर बिखरता है तब यहाँ का लोकगीत गा उठता है:-
''अंगना म भारत माता के, सोन के बिहिनिया ले। चिरईया बोले.....''जीवन में सुख और दुख दोनों का समन्वय जरूरी है। दोनों का घनिष्ठ संबंध है। दोनों एक सिक्के के दो पहलू है और इन दोनों का जीवन में अनुपम योगदान होता है। दोनों एक दूसरे के बगैर नहीं रह सकते , दोनों अधूरे है। इसीलिए एक के बाद दूसरे का आना ही जीवन को परिपूर्ण बनाता है और अपनी कसौटी पर कसता हैै। यहीं जीवन का यथार्थ है अन्यथा जीवन नीरस हो जाता है, बेरंग हो जाता है। सुख के बगैर या दुख के बगैर जीवन में सरस भाव नहीं आ पाता,अत: दोनों का होना ही जीवन को रसमय बनाता है और इसी सुख-दुख के भाव को जीवन की संगी मानते हुए लोकगीतकार कहता हैकि यही विधि का विधान है:-''विधि के इही विधान रे संगी, सुख-दुख तोर मितान रे संगी। विधि के इही विधान .......''यह धरा आध्यात्म का केन्द्र बिंदु रही है। यहाँ पर जीवन के प्रत्येक कार्य में धर्म और आध्यात्म को जोड़कर देखा जाता है। इसीलिए जीवन के समस्त क्रिया-कलापों में धरम-करम, पाप-पूण्य, जुड़ा दिखाई देता है। यहाँ पर जीवन के समस्तरूपोंं क ो जीने के साथ ही अंतिम सच को सदैव स्वीकार किया जाता रहा है और वह है
एक दिन मौत।
इंसान सब कुछ करता है। तरह-तरह से क्रिया कलापों में घिरा होता है, परंतु यह विधि का ही विधान है कि  एक दिन यहाँ से सबको शरीर त्याग कर जाना ही होगा और इसी बात को यहाँ का लोककवि अपने लोकगीत में कहता है,जो यहाँ का जीवन दर्शन भी कहा जा सकता है कि यह शरीर तो मिट्टी का बना है, जो एक खिलौने जैसा है, जब तक चलता है खेलता-कूदता रहता है परतुं एक दिन टूट कर बिखर जाता है, मिट्टी में मिल जाता है। शरीर पंचमहाभूतों  से निर्मित है वह भी इन्हीं पंचमहाभूतों में विलीन हो जाता है। इसी को कवि अपने स्वर में गाता है:-''चोला माटी के हे राम , एकर का भरोसा । चोला माटी के हे रे .............'' इस तरह जीवन के सम्पूर्ण रंगों से सजा सामान्य से लेकर आध्यात्म तक इन्द्रधनुषी रंगों से सराबोर छत्तीसगढ़ी जनजीवन मेें उनके लोकजीवन को उनके लोकगीत तंरगीत करते रहता है। उनमें एक उत्प्रेरणा, एक नई ऊर्जा का संचार करते रहता है और जीवन को सहज-सरल ढंग से जीने के लिए और अपनी सनातनी परम्परा का निर्वाहन करने को आदेशित करता है, जो अपने आप में एक सुसमृद्ध और गौरवशाली परम्पराओं के इतिहास का धनी है।
साभार रउताही 2014
 

नारी दर्शन का प्रतीक -सुआ गीत

छत्तीसगढ़ी लोकगीत का अत्यन्त जनप्रिय रूप है- सुवा गीत , जो नारी के सुख-दुख, हर्ष -विषाद और व्यथा-कथा को अभिव्यक्ति करता है। सुवा-गीत नारी-दर्शन का छत्तीसगढ़ी नामकरण है, जिसमें नारी की परवशता, असहायता के साथ उसके कामल-कमनीय गुणों व महान-उदार हृदयों की झांकी मिलती है। जब खेतों में धान की बालियां झूमने लगती है तथा पुरवैया के झोंकों से नाचती -इठलाती है, तब छत्तीसगढ़ी नारी का सुग्गा-मन फुदकने लगता है। एक ओर अन्नपूर्णा की कृपा के कारण व्यक्त उल्लास का आवेग है, तो दूसरी ओर भावी जीवन के मंगलमय दिवस का संकेत। प्रेम और हर्ष से तंरगायित नारियां मेड़ में आ जुटती है। एक की  प्रसन्नता, सब की प्रसन्नता हो जाती है। सब अपने आल्हाद को समवेत स्वर में व्यक्त करते है। सुवा-गीत-नृत्य की सृष्टि हो जाती है। 'सुवा-गीतÓ नामानुरूप सुवा को संबोधित कर गाये जाने वाले वे लोकगीत है, जिसमें सुवा के माध्यम से नारियां प्रकारांतर में अपने जीवन की कथा ही कहती है। सुवा सरल, निश्छल, सीधा-सादा प्राणी है। इसके बाद भी वह मनोरंजन का उपक्रम है। यही दशा छत्तीसगढ़ी नारी की रही है। अत: उन्हें सुवा के रूप मेें अपना गुण दृष्टि होता है, अपनी बात दिखलाई देती है। यदि सुवा हरित-रक्ताम-युक्त है, तो छत्तीसगढ़ी नारियाँ भी हरी साड़ी व लाल चोली से सज्जित । छत्तीसगढ़ी कवि डॉ. विमल पाठक की अध:पतन कविता इस तथ्य को प्रमाणित करतीं है-हरियर लुगरा अउ लाली रे पोलिका रे नोनी हर, लहुटत हे मेला ले गांव।
पिंजरबद्ध सुग्गे की तरह छत्तीसगढ़ी नारियाँ भी बंधन-युक्त है। उन्हें उन्मुक्त गगन में विचरण करने के अवसर भी नहीं मिला, यही तो विवश है। इसीलिए नारियाँ अगले जन्म में नारी-योनि में अवतरित होने की पक्षधर नहीं। कारण यह स्थिति तो रस्सी में बंधे हुए उस गाय की तरह है, जो जिसके हाथों सौंप दी जाए, प्रस्थित होना पड़ता है-
पइँया मँय लागौ चंदा-सुरूज के रे सुवना, मोला तिरिया जनम झनि देय। तिरिया जनम मोर जनम के बैरी रे सुवना, जिहाँ पठवय, तिहाँ जाय।।
यदि जायसी का सुवा गुरू का प्रतीक है तो छत्तीसगढ़ी का सुवा विद्यार्थी का ,जिसका गुरू व सर्वज्ञ छत्तीसगढ़ी नारियॉं है, जो उन्हें समझातीं-पढ़ातीं व उनका आश्रय-ग्रहण कर सुख-दुख की कथा उद्घाटित करती है। छत्तीसगढ़ी नारियों की पूर्व स्थिति अच्छी रही। मुस्लिम आक्रमण के फलत: समग्र देश के साथ छत्तीसगढ़ी नारियों की स्थिति भी अत्यंत दयनीय हो गयी। अनेकानेक पंरपराओं और अंध-मान्यताओं में आबद्ध कर पुरूषों ने उनकी मान-मर्यादा को बचाने का प्रयास किया। तात्कालिक स्थिति से जूझने के लिए हिन्दु संस्कृ ति के अस्तित्व को अक्षुण्ण रखने के लिए वह स्थिति उपयुक्त थी, लेकिन कालातंर में रूढ़ होकर वह नारी -बंधन और परतंत्रता का प्रतीक बन गयी, परिणामत: उसकी वाणी सुवा-गीतों से नि:सृत होने लगी।
मुस्लिम आक्रमण के फलत: बाल-विवाह का निर्धारण हुआ। भयवश लोगों ने बालिका को कुंवारी निर्दिष्ट न कर विवाहिता दिग्दर्शित कराया, जिससे मुस्लिम आक्रांताओं की कुदृष्टि से वे बच जावें। सती-प्रथा का महत्व प्रतिपादित हुआ। इसी तरह लोकाचार में अन्य विधियाँ जुड़ी, जो रूढ़ होकर  नारियों को उन्मुक्त नहीं होने दे रही थीं। सुवा-गीतों के पर्यवेक्षण से एेसा प्रतित होता है,कि सुवा-गीत मुस्लिमों के अत्याचार के अंनतर नारियों की असहायता के फलत: नि:सृत रचना है। जिस तरह उद्धव के प्रहार से भ्रमर -गीत की सृष्टि हुई, उसी तरह मुस्लिम अत्याचार से सुवा-गीत फूट पड़े, ऐसा आभासित होता है। सुवा-गीत में उपलब्ध वातावरण भी सामंती संस्कृति को व्यक्त करते है, जहाँ पूंजीपतियों की भव्यता वर्णित है। असहायों के लिए सम्मान का भाव नहीं है। वे गरीबी, उत्पीडऩ व शोषण के शिकार है।
शब्द भी अपने उद्भाव की कथा कहते है। छत्तीसगढ़ी में प्रयुक्त 'जौहरÓ शब्द मुस्लिम काल का शब्द है, जो सती के 'जौहर का आनुनासिक व छत्तीसगढ़ी स्पांतरण है। जौहार में यदि नारी के विसर्जित होने का विकल्प संबोधन है, तो छत्तीसगढ़ी शब्द  जौहर में भी सब-कुछ लूटने पर अभिहित छत्तीसगढ़ी जन की अभिव्यक्ति है। जौहार का अर्थ-विस्तार छत्तीसगढ़ संस्कृति से संपृक्ति का  इतिहास संजाया हुआ है। छत्तीसगढ़ शब्द जौहर रायपुर के सत्ती बाजार और अनेक स्थलों पर अंचल की सती-चौतरा या  यबूतरा इस प्रदेश की सती-प्रथा कीगौरवमयी परपंरा के सूचक है। इसके अतिरिक्त लोक-साहित्य तत्कालीन वातावरण के विविध पक्षों को उजागर करता है।
छत्तीसगढ़ में विवाह के बाद  गौना   की प्रथा है। मुस्लिम काल में विवाह तो मात्र औपचारिकता की पूर्ति का संयोजन था। छत्तीसगढ़ी नारी गौना होकर प्रथम बार ससुराल आयी है। उसका प्रिय कितना निष्ठुर व व्यवसायी है, कि जब तक प्रिया मायके में थी, वह परदेश नहीं गया और जब गौने के लिए आई है, वह उसी दिन परदेश के लिए प्रस्थित हो रहा है। नारी-मन चीत्कार उठता है-
पहिला गवन कर डेहरी बइठारे रे मोर सुवा, छाँडि़  के  बजिन -चलि देय। इस लोकगीत को समीक्षक अकाल का आग्रह माने या गरीबी की भयावहता, लेकिन यह है-नारी के कोमल -कमनीय भाव से खिलवाड़ करने का सुंदर उदाहरण। यदि गरीबी थी, असहायता थी, तो गौना कराना व्यर्थ था। प्रिय मायके में रह लेती।
सुवा-गीतों में नारी की सौतिया डाह और इससे उत्पन्न हृदयगत मलीनता व घुटन का वर्णन समावेशित है। नारी पीडि़त है, त्रसित है, लेकिन वह सामंती संस्कार से संपृक्त भी है। सुवा उसका संदेशवाहक भी है, सखा भी । सुवा द्वारा उसके कार्य-संपादन पर उसके डैनों को मोतियों से सजाने तथा स्वर्ण की थाली में दूध-भात खिलाने की बात कहती है- मोती के झालर डेना गुथैंहौं रे मोरे सुवा, लाबे जब पिया के संदेस। सोने के थारी म जेवन जेवैहों रे मोरे सुवा, पैंया टेक रहौं हमेस। सुवा गीतों में टेक के रूप में प्राय:  'रे मोरेे सुवा Ó व  'न मोर सुवाÓ क्र मश:प्रथम व द्वितीय पंक्ति में समादृत होता है।
यह एक ओर जहाँ सुवा के प्रति आत्मीयता का सूचक है, वहीं दूसरी ओर उसके समझाने के लिए दुहराव-तिहराव का संयोजन भी। क्योंकि सुग्गा  'रटत विद्याÓ वाला, प्राणी है। उसे प्रत्येक बात को बार-बार समझाया जाता है। जहाँ उक्त टेक की संयोजना है, वहाँ सुवा के माध्यम से नारी का अप्रत्यक्ष आरोपण है किंतु जहाँ उक्त प्रकार की टेक-संयोजना लुप्त है, वहाँ अप्रत्यक्षत: नारी का सुख-दुख ध्वनित है। सुवा के माध्यम सेअपनी कथा कहने वाली नारी उबर कर व स्वच्छंद होकर जब स्पष्टवादिता का परिचय देती है तब उसका प्रखर स्वर मुखरित हो उठता है। स्पष्ट है कि मान-मर्यादा के लिए नारी सुवा को आरोपित करती है और उससे असंपृक्त होने पर निर्ममतापूर्वक अपनी बात कहती है। दोनों रूप सुवा-गीतों का वैशिष्ट्य है।  
सुवा-गीत नारी के समवेत स्वर का नृत्य-गीत है, क्योंकि यहाँ एक नारी की जो स्थिति है, वह सभी में परिलक्षित होती है। खेत में नारियाँ आवृत्त बनाती हुई, सुग्गे की तरह फुदकती है, नत्र्तन नहीं करती । आधी महिलाएँ गीत उच्चरित करती है। एेसे समय में वे लगभग खड़ी स्थिति में दृष्टिगत होती है, अर्थात़ वे नारियाँ है, जो अपनी जीवन-कथा को प्रस्तुत करती है। आधा दुहराती है और सुग्गे की तरह फुदकती है, जो सुग्गे-रूप को उद्घाटित करती है। टोकनी में मिट्टी का सुग्गा मध्य मे अवस्थित है, जो इस बात का प्रतीक है कि मिट्टी का प्राणी भी अच्छा है ,यदि वह स्वच्छंद हो।
नारियाँ सुवा-गीत गा रही है। अपनी व्यथा व्यक्त करते हुए वे तृप्ति का अनुभव-आस्वाद कर रही है। इसी बीच में निरखती है कि पक्षी फसल को खाने के लिए आ गये है। वे गीत-नृत्य का आनंद तजकर उन पक्षियेां का उड़ाना भी नहीं चाहती, लेकिन भय भी है ,कि नाच-गान से उन्हें क्षति होगी। आवृत्त का अर्धनारी-समुदाय गायन में मस्त है , उनका ध्यान इस ओर नहीं गया है ,किंतु जो फुदक रही है, वे इस स्थिति को देखकर गीत के लय में संगीत की ताल देने के लिए ताली उच्चरित करती है। गीत-नृत्य में संगीत की अभिनव सृष्टि जहाँ रस-बरसा देती है, वहीं पक्षियों को उड़ाकर निर्विघ्न गीत चालित होने का उपक्रम भी निवेदित करती है। स्पष्ट है, पहले गीत फूटे, फिर नृत्य जुड़ा और बाद में संगीत भी गुंफित हुआ।
प्रकृति से उद्भूत-प्रसूत सुवा-गीत नारी-जीवन से निनादित है। इसीलिए इसमें प्रकृति के साभिप्राय उपमान, प्रतीक व सटीक-सार्थक भाव उपलब्ध होते है। यहाँ एक उदाहरण प्रस्तुत है, जिसमें सुग्गे की चोंच को वक्र कुंदरू  फल  कहा गया है। शरीर भुट्टै से विनिर्मित है, जिसमें मसूर की आँख शोभित है-चोंच तोर दिखत हे लाली कुंदरू रे सुवा मोर, आँखी दिखय मसुरी के दार। जोंघरी के पाना सांही डेना संवारे रे सुवा मोर, सुन लेबे बिनती हमार।
साभार रउताही 2014

भोजपुरी के विवाह गीत और लोकाचार

जिस प्रकार हमारे चारों ओर विस्तृत अपरिमित ज्ञानलोक है, उसी प्रकार भोजपुरी गीतों में लोकाचार अपरिमित है। इनमें भोजपुरी प्रदेश की सभ्यता-संस्कृति, धर्म-नीति, रीति-रिवाज, कला-साहित्य, सामाजिक अभ्युदय और आकांक्षाओं का सूक्ष्म अवलोकन है। लोकाचार का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत एंव व्यापक है। सामान्य जन के प्रत्येक हाव-भाव, गााना, रोना हँसना, खेलना, कूदना सभी लोकाचार की परिधि में आते है। लोकाचार में लोक व्यवहारों और लोक संबंधों का महत्व है। बसंत निरगुणें निर्दिष्ट करते है-'' लोक व्यवहारों से संस्कृति का स्वरूप बनता है, विश्व में कई संस्कृतियाँ और उपसंस्कृतियाँ हैं, वे लोक व्यवहारों से पहचानी जाती है। किसी भी नए व्यक्ति से मिलते समय संस्कृति का पहला सोपान लोक व्यवहार ही सामने आता है। ''लोक संबंध लोक व्यवहार के माध्यम से लोकाचार को सृदृढ़ करते है। बसंत निरगुणे के अनुसार - 'लोक संबंध के कारण ही अपरिचय परिचय में बदलता है और सबंधों की प्रगाढ़ता शुरू होती है। लोक संबंधों की निर्भरता आपसी सहयोग की वैशाखी पर टिकी होती है। भारतीय संस्कृति में संस्कारेां का बाहुल्य है। अत: जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कारों के अवसर पर गीत गाने की प्रथा प्रचलित है। और इन्हीं संस्कार गीतों में पग-पग पर लोकाचार है। सम्पूर्ण मानव जाति में विवाह संस्कार अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है। संसार में शिष्ट, अशिष्ट सभी जातियों में यह संस्कार बड़े उत्साह से मनाये जाते है। यही कारण है कि विवाह संस्कार विधान पर हर कदम पर लोकाचार है।
विवाह के गीत वर और कन्या दोनों के घर में गाए जाते है । जिस दिन वर का 'तिलकÓ चढ़ता है उसी दिन से लोकगीत उमड़ पड़ते है और इन गीतों के साथ-साथ लोकाचार का भी आरंभ हो जाता है। 'गीतगवनाÓ अर्थात् गीत गाना आंरभ करना। तिलक चढऩे के बाद उसी दिन शाम को इस लोकाचार का आरंभ होता है पाँच सुहागिनों के माँग में तेल और सिन्दूर का पाँच बार टीका किया जाता है, और घर की चक्की को भी पाँच बार सरसों तेल और सिन्दूर से टीका करके उसके ऊपर पाँच भेली गुड़ रखा जाता है। फिर सूप को भी उसी तरह तेल सिन्दूर से टीककर उसमें भी पाँच भेली गुड़ रखा जाता है। जिन पाँच सुहागिनों को टीका जाता है उन्हें पॉच भेली गुड़ और लाई नेग के तौर पर दिया जाता है और जो भी महिलाएँ वहाँ पर रहती है उन्हें भी लाई गुड़ नेग के तौर पर दिया जाता है। ये सभी कार्य घर की बुजुर्ग महिला करती है। अन्यथा फिर वर की माँ करती है उस दिन सिर्फ शुगुन के पाँच गीत गाये जाते हे। चक्की पूजते समय गाया जाने वाला गीत- कहवा हो चकिया तोर जन्म भइल, कहवा ही उछलहल जाय। पर्वत ऊपरा ही मोर जन्म भइल, गोड़ घर उछलहल जाय। माँगरमाटी के समय गाए जाने वाले गीतों में भी लोकाचार की प्रचुरता है। सर्वप्रथम तेल के बर्तन को सिन्दूर से पाँच बार टीकते है। पत्पश्चात वर एंव कन्या को पाँच सुहागिन मिलकर दुर्वा  (दूबी) से तेल हल्दी लगाते है फिर एकत्रित महिलाओ के तेल गुड़ वितरित किया जाता है। इस अवसर पर जो गीत फू ट पड़ते  है उसमें  शीतला माता के गीत की प्रमुखता है। जिसमें आतिथ्य सत्कार की भावना सामने आती है तथा अन्य लोकगीत में बहन का भाई से रूठना तथा बेटी की शादी में निमंत्रण न देना , फिर बहन द्वारा भाई को मनाना, फिर भाई का विवाह में शामिल होना आदि मर्मस्पर्शी बन पड़ ा है जिसमें लोक प्रचलित भाई बहन के रूठने  मनाने का लोकाचार है- अरे-अरे काला भवरवाँ काला रे तोरी जतिया/ भंवरा हमरे पड़ल कुदल काज नेवत लेई आउ /अरीगन नेवत परीगन बाबा सजन लोग, सासु क नइहर ननद जी क  सासुर भँवरा एक जनि नेवत वीरन भइया जेसन मैं रूठल। माँगरमाटी के समय गाए जाने वाले आगामी लोकगीत में जहाँ शादी ब्याह के समय नया चूल्हा बनाने का लोकाचार है, वहाँ यदि किसी को चूल्हा बनाना नहीं आता है तो भी उसके यहाँ शादी-विवाह की प्रथा का प्रचलन है-
फूहरी के अंगने तीन सुखनवा सउवां कोद इयां जउंगी धान। जूठे हाथ फुहरी कगवा उड़ाव पंडित लगनिया लिहले ठाढ़। का तुही फुहरी हो कगवा उडा़वलु रची देतु बेटा के बिआह। नाहीं घर नुनवाँ पंडित नाहीं घर तेलवा, नाही कोठरिया जउँगी धान। मटिया क चूल्हा पंडित डलही न आवे, कइसे रचंू बेटा के बिवाह। हम देब नुनवाँ फुहरों हम  देबों तेलवा, हम देब कोठिलवा जउंगी धान। मटिया के चूल्का गोतिन डाल दइहन, रची देतु बेटा के बिआह। मण्डपाच्छादन के समय गाए जाने वाले गीतों में भी लोकाचार है। घर पास-पड़ोस या फिर रिश्तेदारों में से पाँच व्यक्ति मिलकर ''माड़ोÓÓ (मण्डप) बनाते हैं। पाँचों व्यक्ति की पीठ पर हल्दी और सिन्दूर के हाथ के पंजे का छाप (हाथा) लगाते हैं एंव दूसरों को भी लगाकर इसका भरपूर आनंद लिया जाता है। इस लोकाचार की पृष्ठभूमि यह मान्यता है कि एेसा करने से सब शुभ होता है एंव इसी बहाने लोग मौज-मस्ती भी कर लेते है। ''केही माड़ो के दल थूनी गाड़ेला , केही माड़ो क  भोजयतीन। कवन राम माड़ो के दल धूनी गाड़लन, कवन देवी मड़वा के भोजयतीनं। ''हरिद्रानुलेपन की परंपरा सदियों से चली आ रही है। इसके पीछे यह मान्यता है कि हल्दी लगाने से वर कन्या का रंग निखरता है। साथ ही यह भी कि तेल हल्दी लगाने के बाद वर कन्या को घर से बाहर नहीं निकलने देना चाहिए जिससे नजर व जादू-टोना से बचाव हो सके। इसका वैज्ञानिक कारण यह भी है कि कन्या और वर के मिलन के पूर्व तेल हल्दी का लगातार लेपन करके उनकी तन की मलीनता को शुद्ध किया जाता है। अधोलिखित गीत में हल्दी पैदा होने एंव बेचने के साथ-साथ हल्दी के गुणों का भी वर्णन हैं-कहाँ हरदी उपजल कहाँ हरदी जाला बिचाय। कुढ़ खेत हरदी उपजल कोइरी घरे जाला बिचाय। बााबा हो कवन राम हरदी बेसाहेलन (खरीदना) मइया हो कवन देवी रगड़ी पीस हरदी गाँठ। बेटा हो कवन राम अलप सुकवार (नाजुक) सहलो न जाला हरदिया के झार।
एेसे ही विवाह के अन्य गीतों में जिसमें द्वारपूजा, क कन्यादान, फेरे, रतजग्गा, विदाई आदि के अवसर पर गाए जाने वाले भोजपूरी गीतेां में भी अनेक लोकाचार मुखर हुए हैं।
पनवा के मारे बााब मड़वा (मण्डप) छवाय, मोतियन के आगर दी है। अर्थात् पुत्री अपने पिता के कहती है कि पान पत्ते का मण्डप छवाइएगा और मोती से उसे सजाइएगा। इसी प्रकार पुत्री के विदाई के समय नाउन बुलाने की परंपरा का प्रचलन है। विदाई के समय नाउन द्वारा कन्या के पैर में महावर लगाने तथा कन्या को डोली में बिठानेे का लोकाचार विषयक गीत-
माई जे उठै धबराय तै बाबा के  जगावैं हो। उठा प्रभु नउनी बोलावा गवन अइले द्वारे, बाबा जे उठैं घबराय त भइया के जगावेलन हो। उठा हो रजाकुमार जी नउनी बोलावा हो, भइया जे उठै घबराय त नउनी बोलाव हों । चलु नउनी गोड़ रंगाव त गवन अइलै द्वारें।
इस तरह स्पष्ट है कि भोजपुरी के विवाह गीत लोकाचार के साथ संग्रथित है। लोकाचार सम्पन्न करते समय गीत क्रमश: उमड़ पड़ते है। यह  प्रकारान्तर में पूजा विधि और आराधना-साधना के अनंतर अनायास अभिव्यंजित लोकगीत लोकमंत्र की तरह समाह्त है।
साभार रउताही 2014
 

काया की अमरता और नश्वरता का संदेश गायन है : खँजेरी भजन व गीत

छत्तीसगढ़ की संस्कृति अत्यन्त वैभवशाली एवं काफी समृद्ध है। यहाँ लोकगीतों की विपुलता है। एक ओर छत्तीसगढ़ 'धान का कटोरा' है, तो दूसरी ओर यहाँ लोकगीतों की  'माई कोठीÓ भी है। जहाँ अनेक लोकगीतों का अक्षुण्ण भंडार है। इसमें मनुष्य के जन्म से लेकर सोलहों सस्ंकारों में लोकगीतों का सुंदर अवगुम्फन है। इनके माध्यम लोकशिक्षण भी होता है। प्राचीन समय से जबकि आज की तरह सूचना एवम् संचार के पर्याप्त और प्रभावी साधन नहीं थे, तब लोक संस्कृति के यही विधाएँ लोगों की जीवन को दिशा-बोध कराती थी। लोगों की अपार श्रद्धा व विश्वास इन विधाओं पर थी। लोक घंटों , कभी-कभी रात-रात भर तक आसन पर बैठकर गाते बजाते थे, वहीं दर्शक श्रोता मंत्रमुग्ध होकर श्रवण करते थे। कलाकार और दर्शक एकदम आमने-सामने होते थे।  छत्तीसगढ़ संस्कृ ति में परम्परा से प्रचलित खँजेरी भजन भी इसी तरह की लोकविधा है, जहाँ गायक दल और श्रोता ठीक आमने-सामने होते हैं।
प्राचीन पृष्ठभूमि :  लगभग दो सौ वर्ष पूर्व तक छत्तीसगढ़ में  खड़ी साज नाच की परम्परा प्रचलित थी। तब किसी तरह का चबूतरा, चौरा, सांस्कृतिक मंच ग्रामों में नहीं होता था। लोककलाकार रात-रात भर खड़े होकर नाचते, गाते व बाजा बजाते थे। तब वे रामायण, महाभारत, सूर,मीरा, तुलसीदास, कबीरदास, बहमानंद, परमानंद  के भजनों को गाते थे। कुछ दिनों बाद संत-समागम परम्परा से प्रभावित होकर लोग एक स्थान, चौक, चबूतरा, परछी चौरा पर बैठ कर लोक भजन गाने लगे। साथ में ताल वाद्य बजाकर उसे रोचक बनाने लगे। तब से प्रदेश की लोक सस्ंकृति में खँजेरी भजन का प्रचलन हो गया। यह प्रदेश की अति प्राचीन लोकविधा है। यह विलुपता की कगार पर है, पर नवोदित राज्य के अनुरूप कु छ क्षेत्रों के बुजुर्ग कलाकार इस विधा को समृद्ध करने का प्रयास कर रहे है।
नामकरण : लोकसंस्कृति में प्रचलित लोकविधाओं  गीत, नृत्य, तीज-पर्वो का नाम हमारे बुजुर्गों  केे द्वारा अपने जीवन के लंबे अनुभवों के अनुरूप रखा गया है। इस तरह के भजनों का स्वंय हमारे बुजुर्गोँ द्वारा गायन किया जाता है। वे अब प्रौढ़ता को पार कर चुके होते हैं। अत: अपने तन की नश्वरता , अंतिम पड़ाव, सद्गति प्राप्त होते , जीवन के सार तथ्यों को लोगों  के सम्मुख रखने की दृष्टि  से मनुष्य शरीर की कोमलता, नश्वरता, क्षणभंगुरता को अनेक उद्धरणों के माध्यम से रखने का प्रयास करते हैं। यही कारण है,कि इस तरह के लोक भजन को काया खंडी भजन कहा जाता है। इसे खँजेरी भजन भी कहा जाता है क्योंकि इस तरह के भजनो का गायन करते समय खँजेरी नामक लोक वाद्य का उपयोग गायकों के द्वारा किया जाता है। कुछ इसे निर्गुणी भजन भी कहते है। 
खँजेरी लोक वाद्य : हमारे बुजुर्गों  के द्वारा  आज भी लोकवाद्यों का निर्माण व वादन अत्यन्त कुशलता के साथ किया जाता है। काया खण्डी भजनों को गाते समय बजाए जाने वाले वाद्य खँजेरी का निर्माण भी हमारे बुजुर्गों द्वारा स्वंय कर लिया जाता है। बाजार में मिल जाने पर खरीद भी लेते हंै। खँजेरी वाद्य लकड़ी की छोटी खोल लगभग आठ-दस इंच व्यास वाले गोलाकृति पर सामने की ओर गोल की खाल मढ़ा होता है। यह अवनद्ध वाद्य है। इसमें तीन-चार जगह घेरों पर घँुघरू का गुच्छा लगा दिया जाता है। इस तरह इसमें एक साथ दो वाद्यों का वाद्न हो जाता है। यह एक तरह  से एकांत लोक वाद्य है। इसमें दूसरे कलाकार या ताल वाद्य की आवश्यकता नहीं होती । गायक स्वंय खँजेरी का वाद्न करते हुए भजनों का गायन करते है। इस वाद्य को बारहों मास बजाया जा सकता है। इसे एक-दो हथेली ढोंक कर ठीक सूर पर लाया जाता है। फि र जब तक चाहे वादक लयबद्धता के साथ गाते-बजाते है। इस को रखना भी सरल होता है। कहीं आते-जाते समय भी गायक आसानी से ले जाते हैं। पर इसका वादन किसी साधना से कमतर नहीं होता। निरतंर अभ्यास के द्वारा इसका वादन सीखा जा सकता है।
भजन के विषय : खँजेरी भजन आज भी ज्यादातर हमारे प्रौढ़ व बुजुर्ग गायकों, कलाकारों द्वारा गाया जाता है। जीवन का काफ ी गूढ़ व संघर्षपूर्ण अवस्थाओं को पार कर चुके होते हैं। एेसे में इनके द्वारा काया का मोहभंग हो चुका रहता है। तब वे काया की नश्वरता, आत्मज्ञान,आध्यात्म, पवित्रता व परमआनंद की प्राप्ति को जीवन का लक्ष्य मानने लगते हैं। इसमें गायक लोकजीवन से जुड़े विषयों, संस्कारों, सूर, मीरा, तुलसी, कबीर चैतन्य महाप्रभु, परमानंद,ब्रह्मानंद सहित अन्य स्थानीय गुरूओं, संतों , उस्तादों द्वारा रचित गीतों को खँजेरी भजन के साथ गाते हैं। क्योंकि वे ज्यादातर प्रौढ़ महिला -पुरूषों के बीच भजन गाते हैं, तब वे इनकी रूचि व जीवन अवस्था का ध्यान रखकर गीत गाते है। इसका केन्द्रीय भाव काया का मोह छोड़कर परम् गति यानी स्वर्ग प्राप्ति की भावना मूल होती है। वेदांग जीवन जीने की संकल्पनाएँ भजनों में मौलिक रूप से होती है।
खँजेरी गीतों के प्रकार :  भले ही लोग या कलाकार इस तरह के गीतों को काया खण्डी भजन की संज्ञा देकर भक्ति-भावना में डूब से जाते हैं। पर इन भजनों, गीतों के सूक्ष्म अध्ययन से इसमें तीन तरह के लोकगीतों का समावेश होता है-
1) काया खण्डी : इस तरह के लोक भजनों में मानुष तन की नश्वरता, क्षण भंगुरता, पानी खरी बात के उद्धरणों द्वारा लोक मानस को यह कह कर जागृत करने का सुप्रयास किया जाता है, कि इसे भगवत् भजन करते हुए, माया-मोह, घमंड का त्याग कर सद्भावनापूर्ण जीवन जीने की प्रेरणा शामिल होता है। जैसे :
दिन चारी मैहरवा मं,
खेली लेतेंव ओ दिन चारी।
चार गज चर गजी मॅंगावेय,
चढ़े काठ कर घोड़ा.....
अऊ घोड़ा जी ......
चार संत तोला बोली कर लेगे,
तोर कमर के कटी डोरा जी 'Ó
मैहरवा मं खेली लेतेंव दिन चारी ।
जीयत भर तै खाबै पीबे,
करबे भोग बिलासा।
काल उड़ाही हँसा तन के ,
माटी मं मिल जाही राखा ।।
मैहरवा मं, रवेली लेतेंव दिन चारी ।
हाड़ जरे तोर बन कस लकड़ी,
केंस जरे बन घासा...
अरे अउठ हाथ के बोला जरगे,
माटी मं मिल जाही सखा।।'Ó
मैहरवा मं,
खेली लेतेंव दिन चारी ............
दिन चारी मैहरवा मं,
खेली लेतेंव दिन चारी .......।।
इस भजन में यही मुख्य बात है कि  'प्रौढ़ावस्था के पूर्व मानुष शरीर प्राप्त करने का वास्तविक सुख भोग लँूँ । अंत में यह काया मिट्टी में मिल जाना हैÓ को स्पष्ट किया गया है। यह भजन कायाखण्डी श्रेणी में शामिल है। इस स्थिति में सद्गुरू की संगति, संतों का सानिध्य प्राप्त करके तथा भगवत् भक्ति की आेर मन लगाने की प्रेरणा भजन गायकों द्वारा दी जाती है ।
2) धार्मिक :  भजन तो  सदैव धार्मिक ही होते हैं। पर खँजेरी भजनों में गायकों  लोक प्रचलित आस्थाओं पर केन्द्रित भजन भी गाए जाते हैं। इस काम में रामायण, महाभारत अन्य वेद-पुराणों की कथा प्रसंगों, विशेष रूप से शिव जी पर आधारित भजनों का लोकधुनों में सुंदर ढंग से गायन किया जाता है। जैसे :
'खड़े रह गए कानिसटेबल,
सोए रह कप्तान।
पैदा हुए कृष्ण भगवान।।
काले-काले मेघ गरजते,
उमड़-घूमड़ चंहु ओर बरसते
रात अंधेरी बिजली चमके,
माता देवकी का दिल धड़के।
कैसे बचेंगे प्राण का प्यारा,
अब तक कंश ने सबको मारा।।
यही आँठवाँ पुत्र है मेरा,
दुश्मन का है सब तरफ  घेरा ।
फि र भी किसी ने कुछ न बिगाड़ा,
चहँू और खड़े हैं शैतान ।।
पैदा हुए भगवान ,
सोए रहे कप्तान ..........
श्री वासुदेव सूप में धर के ,
जमुना पार किए धर कर सर्पे।
जमुना उमड़ गयी चरण पकडऩे,
वासुदेव देव जी लगे अकडऩे।।
यों सोचा फि र वासुदेव जी ,
मौत कहे डर जान ।।
पैदा हुए भगवान...........
सोए रहे कप्तान .............।।
इस भजन में द्वापर युग की घटना का उल्लेख है, जब राजा कंस ने अपनी मौत का कारण बहन देवकी के आठवें पुत्र को बनने की बात आकाशवाणी से सुनी थी। तब से वह वसुदेव और बहन देवकी को मथुरा की जेल में बंदी बना लिया था। चारों ओर से सैनिक -सिपाहियों की पहरेदारी के बाद भी श्रीकृष्ण का जन्म हुआ और वसुदेव जी उफ नती यमुना जी को पार करके बालक  कृष्ण को माता यशोदा के पास छोड़ आए। यह  खँजेरी भजनों में धार्मिक श्रेणी में शामिल है। इस तरह के गीतों में धार्मिक कथा-प्रसंगों को शामिल किया जाता है।
3) छैलानी :
इसे युवा वर्ग के लिए गाया जाता है। इसमें संयोग श्रँृगार के गीत होते हैं। कभी-कभी प्रदेश की लोक संस्कृति में प्रचलित प्रेम गाथाओं जैसे लोरिक चंदा, दशमत कैना, रेवा-मालिन सहित अन्य क्षेत्रीय गाथाओं को भी लोक भजन व लोकगीत के रूप में खँजेरी गायक गाते हंै। चँूकि ज्यादातर खँजेरी भजन राऊत, ठेठवार समुदाय के लोग गाते हैं, एेसे में परम्परागत् रूप से अपने समुदाय के वीर नर-नारियों, नेतृत्वकर्ताओं, महापुरूषों, रक्षकों, नायक-नायिकाओं के जीवन-प्रसंगों का गायन का विषय अवश्य बनाते हैं। तब यह छैलानी श्रेणी में आता है। समय और समूह  को ध्यान में रखते हुए एेसे संयोग श्रँृगारपरक और प्रेमगीतों को भी खँजेरी गीतों के रूप में गाया जाता हैं। इसमें कुछ गीत बेहद लोकप्रिय भी हुए है।
जैसे :
'तोर मन कइसे लागे राजा ....।
महल भीतरी मं , तोर मन कइसे लागे ...।।
नहर के पानी रेंगा ले टारे-टार ।
मया वाले तेहा होबे आ जाबे पारे-पार ।।
तोर मन कइसे लागे राजा ....।
ऐसों के अमली  फ रे ल चेपटी,
ऊपर छावा तोर मया भीतर कपटी।।
तोर मन कइसे लागे राजा ....।
पिपर पाना डोलत नइ हे।
क ा होगे टूरी ल बोलत नइ हे।।
तोर मन कइसे लागे राजा ....।
तोर मन कइसे लागे राजा ....।
महल भीतरी मं , तोर मन कइसे लागे ...।।Ó
सर्जक समुदाय : प्रादेशिक संस्कृतियों को सृजित करने से लेकर इसे प्रेषित करने, निरंतर समृद्ध करने में किसी न किसी समुदाय व कबीला विशेषज्ञ का योगदान अवश्य होता है। इस काम में खँजेरी भजन की परम्परा को प्रारंभ करने का श्रेय छत्तीसगढ़ में राऊत और  ठेठवार समुदाय को है। पशु चारण के समय एकांत रहकर लोक जीवन को समझने व समुदाय के बीच रखने का प्रयास इन लोगों द्वारा सदैव किया जा रहा है। आज भी इस परम्परा को राऊत -ठेठवार और इनकेे साथ संगति करने वाले लोग ही खँजेरी भजन में  दक्ष हैं। पर बाद के क्रम में कबीरदास के प्राकट्य के साथ ही कबीर के पदगान, संगत में भी खँजेरी वाद्य का प्रयोग किया जाने लगा । तब कबीरपंथ के गायक भी खँजेरी भजन शैलियों को अपनाने लगे। वर्तमान में किसी खास जाति समुदाय से हटकर खँजरी लोक गायन की परम्परा प्रचलित हो गयी है। जहाँ उस्दातों की संगति में लोकगीत गातें हैं, और अपने को पवित्र भाव  से भरने का सद्प्रयास करते हैं।
समय : खँजेरी भजर ज्यादातर सावन-भादों के मास में गाया जाता है। चँूकि इस  समय चौमासा होता है। लोग धान को रोपाई,निंदाई व ब्यासी करके लगभग खाली होते हैं। लगातार झड़ी व वर्षा के कारण बाहर घूम-फि र नहीं पाते , तब लोग चौक-चौपाल पर बैठ कर मनोरंजन के लिए लोक भजन गायन व श्रवण करते हैं। इसके साथ ही शिशु जन्मोत्सव, दशगात्र , वैवाहिक कार्यक्रम सहित अब आयोजित होने वाले लोक कला महोत्सवों में भी खँजेरी भजन दल को विशेष पहचान मिलने लगी है।
दशा और दिशा : वर्तमान में खँजेरी भजन परम्परा लगभग विलुपता की कगार पर है पर दीप पूर्णत: सुप्त नहीं हुआ है। इसे वातावरण देकर पुन: प्रज्वलित किया जा सकता है। प्रदेश के कई क्षेत्रों साजा, मोहतरा, अहिवारा, धमधा, बेरला, सिरसोकला जैसे स्थलों में आज इसके कलाकार जीवंत है, जो अपने व समुदाय के प्रोत्साहन से खँजेरी भजन परम्परा को जीवित रखे हैं, इन्हें व्यक्तिगत, सामुदायिक व शासन स्तर पर प्रोत्साहित करने की जरूरत है। यह प्रदेश की संस्कृति की भजन व लोकगीत विधा की अत्यन्त महत्वपूर्ण विधा है। समय रहते इसे समृद्ध करने की जरूरत है। प्रदेश की विशिष्ट सांस्कृतिक विधा के रूप में पहचान देकर स्थापित करने की जरूरत है, ताकि यह परम्परा समृद्ध हो सके । प्रदेश के दूरदर्शन केन्द्र, आकाशवाणी सहित स्थानीय चैनलों के संचालकों द्वारा खँजेरी भजन को प्राथमिकता के साथ आगे लाने की जरूरत है।
साभार रउताही 2014
 

लोकगीत

भारतवर्ष में अनेक भाषायें, उपभाषायें, बोलियाँ , बोली जाती हैं। इन भाषाओं में अनगिनत लोक-गीत है, जो अपने - अपने प्रदेश के रीति -रिवाजों, परम्पराओं, उत्सव, महोत्सवों, प्रेम, विरह, फ सलों  के  कटने  पर  खुशहाली को रेखाकंन करता है । लोक-गीत साहित्य, समाज का दर्पण होता है ।
हर प्रदेश का लोकगीत अपनी विशिष्ट विशेषताओं से परिपूर्ण होता है।
 'डॉ. शिवन कृष्णा रैणा- लिखते है कि कश्मीरी लोकगीत वण्र्य विषय  व शिल्प की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध-परिपुष्ट तथा उत्कृष्ट हंै, यहां के लोकगीतों में स्वर माधुर्य के संग-संग सजीवता व सरसता कूट-कूटकर भरी पड़ी है। कश्मीरी लोक-गीतों में संस्कार, ऋतु तथा त्योहार संबंधी गीतों का विशेष योगदान होता है । संस्कार संबंधी कश्मीरी लोकगीतों को मुण्डन, यज्ञोपवीत, विवाह व मृत्यु आदि के गीतों के अंतर्गत बांटा गया है। मुण्डन संस्कार को कश्मीरी में  'जरकासयÓ कहते हैं, और संस्कृत में  'चूड़ाकर्म Ó गोस्वामी तुलसीदास ने भी  'चूड़ाकर्मÓ कीन्ह गुरूआई कहकर इस संस्कार की प्राचीनता प्रमाणित की है ।
राजस्थान की गंगा, मांगणियार, ढोली कालबेलिया आदि जातियों के लोकगीत प्रसिद्ध हैं।
भारत की हर भाषा में सास-ननद, देवर पर अनेक लोकगीत प्रचलित हंै। डोंगरी में भी हजारों लोकगीत हैं, हर त्योहार , हर संस्कार मौसम, और सिपाहियों की पत्नियों के मन की असीम दर्द, पीड़ा और वेदना के अनगित लोकगीत हैं।
पंजाब की पावन धरा पर रचे जाने वालो  'ऋ ग्वेद Ó में सर्वप्रथम गीतों के रूप में पूजागीत, विवाह गीत, चरवाहों के गीत, चरखे के गीत, विष झाडऩे के गीत, मृतक संबंधी गीत और लोक साहित्य में लोकगीतों की अहम भूमिका है ।
भोजपुरी में लोकगीतों - में संस्कार गीत, ऋतुगीत, त्यौहार गीत, रसगीत, जातियों के गीत, जयगीत,बालगीत आदि।
तमिल के लोकगीतों में वात्सल्य और शहदत के समावेश मिलते हंै। लोकगीत एकल, सामूहिक जन जीवन की अंर्तआत्मा में प्रवाहित होकर अभिव्यक्ति के रूप में प्रदर्शित होता हैं। लोकगीत में माधुर्य और प्रभावोत्पादकता निहित है। लोकगीतों के माध्यम से समाज और जाति की प्राचीन और वर्तमान की वास्तविक संवेदनाओं को एक स्वर मिलता है । लोकगीत जनमानस के कंठ से निसृत है।
लोकगीतों की महत्ता को उल्लेखित करते हुए लाला लाजपतराय ने एक पत्र में लिखा है- कि  'Óदेश का सच्चा इतिहास और उसका नैतिक व सामाजिक आदर्श इन गीतों में ऐसा सुरक्षित है, कि इनका नाश हमारे लिए दुर्भाग्य की बात होगी।
लोक गीतों में अचंल की भीनी-भीनी खुशबू की महक चहुं दिशा में बिखेरती रहती है।
विदेशों में लोकगीतों की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है, पाश्चात्य देशों के लोकगीतों में एक बड़ी विशेषता दिखाई पड़ती है। यह कि उनमें किसी पात्र या घटना को के न्द्रित कर रचा जाता है। भाषा सहज और सरल होती है, जिससे लोकगीत जनमानस के हृदय में सहज ही समाहित हो जाये, और उसमें वे खो जायें ।
केरल की लोकगीत परम्परा प्राचीन है। लोकगीत हिन्दी, आंग्ल, पंजाबी, तमिल, कन्नड, तेलगू, मलयालम, उडिया, असमी, कश्मीरी, मराठी, गुजराती, छत्तीसगढ़ व देश विदेश की अनेक भाषाओं व बोलियों में समाहित है। अलग-अलग देश, राज्य मे ं निवास करने वालों की अपनी मौलिकता के अनुरूप रीति-रिवाज परम्परा के अनुसार लोक गीत रचित हैं। जो उनके मन में एक उमंग-उत्साह की अमृत धारा प्रवाहित करती रहती है। कभी किसी विशेष पात्रऔर घटनाक्रम के परिवेश में लोकगीत गढ़ा  जाता है।
लोकगीत मानव जीवन में वह साँसे पैदा करने की सामर्थ रखते हैं, जो आज के वैज्ञानिक युग में कभी-भी सम्भव नहीं हो सकती , अभी तक कोई भी प्रणाली एेसे कारगर पग नहीं उठा सकी जिससे लोकगीतों की ज्योति को बुझा सकें, हमारे सम्पूर्ण परिवेश में आज भी एक अहम भूमिका निभा रहे हंै, क्षेत्रीय परम्परा और वहाँ की रीति-रिवाजों का उजाला हमें उस क्षेत्र विशेष के लोकगीतों से ही ज्ञात होता है,सामाजिक , आर्थिक  , नैतिक स्थिति का पता वहाँ के लोक साहित्य लोक-गीतों से पता चलता है।
लोकगीत भोगी हुई पीड़ा का यथार्थ की झलक और जातिगत भाव भंगिमा को अंर्तआत्मा में समाहित किए हुए होते हैं, लोक-गीत उन तमाम जातियों को टूटने से बचाते हैं, जो वर्तमान में उनकी स्थिति को विचलित करने के लिए कदम-कदम पर बाध्य करती रहती हंै। लोकगीत आत्मीय काव्य की धरा मानवेत्तर सृष्टि की परिचायक होते हैं, एेसे लोकगीत समूची सृष्टि के  लोक जीवन की अनमोल धरोहर होते हंै, कभी रिक्त न होने वाला खजाना है ।
लोकगीत को लिखने की प्रेरणा गीतकार को अपने आस-पास के परिवेश एंव समाज में घटित होने वाले कालखण्डों से मिलती है-
लोकगीत क्या है, हृदय का उद्गार है।
जीवन के घटनाओं से रूबरू होने भवसागर है
सत्यतम, सुंदरम् शिवम् से जोडऩे का सूत्रधार है,
सपनों के सुनहरे इतिहास का अनमोल संसार है।
वधिक के बाण से आहत मादा क्रोंच पक्षी को देखकर वाल्मीकि के हृदय से अचानक  मा निषाद प्रतिष्ठाम् शब्द निकलना इस तथ्य के साक्षी हैं।
लोक-गीत की प्रत्येक स्थान की प्रकृति , भौगोलिक परिस्थिति रहन-सहन रीति-रिवाज, खान-पान एंव आस्थाओं  से ओत-प्रोत रचा बसा होता है। लोक -गीत ग्रामीण संस्कृति का एक अभिन्न अंग होता है।
करमा गीत भी लोकगीत का रूप ही है। लोकगीत करमा  के माध्यम से आदिवासी महिला-पुरूष अपने आराध्य देव की पूजा-अर्चना एंव वंदना करना है। करमी वृक्ष से  करमा की उत्पत्ति हुई है, जिसे कर्म (काम) का अधिष्ठाता देव माना जाता है। जब कार्य से लौटकर रात्रि भोजनोपरांत किसी गुड़ी या सार्वजनिक स्थल में महिला और पुरूष एकत्र होकर गीत गाते -नाचते मस्ती में झूमते हैं, जिसे करमा कहा जाता है।
सुआ गीत आदिवासी समाज की महिलाएँ व छोटी लड़कियाँ धान से भरी बांस की टोकरी में दो मिट्टी का सुआ (तोता)रखकर दीपावली के  साथ नृत्यकर शिव-पार्वती से आर्शीवाद मांगती हंै। उन्हें घरों से पैसा, रूपया, धान मिलता है,सुआ गीत के माध्यम से महिलाएं परदेश गये-पति के विरहव्यथा को व्यक्त करती हैं। इस सुआगीत में अपने पति तक संदेश पहुंचाने की बात शामिल करती है। इस गीत को विरह गीत भी कहते हैं, सुआगीत दीपावली से पूर्व पडऩे वाले पुण्य नक्षत्र से प्रारंभ होकर देव उठनी एकादशी और फ सल कटकर खलियान में आने के बाद से रवी की खेती प्रांरभ होने तक सुआ नृत्य चलता रहता है।
पंथी गीत व नृत्य का शुरूवात  की संत बाबा गुरूघासीदास  'Óजी के श्रेष्ठ पुत्र  गुरू अमरदास Ó जी ने की थी । वे परमयोगी थे, और वे गुरूघासी दास जी के आदेर्शों को आत्मसात  कर के समाज मेें व्यापक प्रचार-प्रसार करना चाहते थे। पंथी गीत और नृत्य मानव जीवन के सत्य का समावेश है। पंथी गीत आत्मिक लोककल्याणकारी की भावनाओं के ओत-प्रोत होता है। पंथी गीत और नृत्य देश में ही नहीं विदेशों में धूम मचा चुका है ।
लोकगीत में इतिहास के पन्नों में भी अंकित है, ब्रज में राधा और कृ ष्ण तो  राजस्थान में ढोला और मरवरण से सम्बद्ध लोकगीत मिलते हैं। छत्तीसगढ़ के रतनपुर (रत् ननगर) ,श्रीपुर इत्यादि स्थानों के इतिहास में देवारों के लोकगीत का भी अपनी भूमिका है। डॉ. छोटेलाल बहरदार के शब्दों में   'लोकगीतों का समाजशास्त्रीय में रेखांकित किया है कि लोकगीत सामान्य जन-जीवन के बीच गुंजने वाली बाँसुरी की तान है, उसके अंदर की धड़कन है, और है उसके सुख-दुख , हर्ष-निषाद तथा संस्कृति की एक साफ  - सुथरी तस्वीर । Ó
जॉन मेयर, लुई पाउण्ड आदि सैद्धांतिकों के अनुसार-'सारे लोकगीत किसी व्यक्ति की रचना है, बाद में समाज ने अपनाया और गाया।
एफ  बी गमरी,  डब्ल्यु यू एम हार्ट जैसे विद्वानों का कथन में लोकगीत अपने निजी रूप में समूह नृत्य के उल्लास और उमंग की उपज है।
छत्तीसगढ़ की पावन माटी में अनेक लोक-गीत अपने खुशबूओं  से सारे विश्व को महका रहा है।
पण्डवानी- महाभारत के पात्रों के बीच के संवादों को इस महाविधा के माध्यम से गीत-संगीत और भूमिका के द्वारा देश -विदेश में इसका सफ ल संचालन कर रहे हैं।
भोजली-सावन के महिने में भोजली का पर्व मनाया जाता है। छोटी-छोटी बच्चियाँ, किशोरियाँ, महिलायें बड़े उत्साह के संग सावन के उजियारी पक्ष में अष्ट्रमी के दिन छोटी-छोटी टोकरियों में रेत मिश्रित मिट्टी भरकर उसमें भीगे हुए गेहँू व जौ के दाने को बो देते है। राखी के दूसरे दिन इसमें अंकुुर फट आता है। इसी पूजा- अर्चना का बड़े उल्लास व कही गाजे-बाजे के संग भोजली गीत गाते हुए - देवी गंगा, देवीगंगा, लहर तूरंगा हो लहर तूरंगा जल्दी जल्दी बाढ़ा, भोजली को नदी, तालाब में विसर्जित करते हैं । फि र भोजली एक दूसरे को देती । इस दिन लड़कियाँ व महिलायें भोजली देकर सखी-भोजली बदती है, और तमाम उम्र भर इस रिश्ते को निभाती ।
ददरिया ग्रामीण अचंलों में जब धान की फसल कटती है, तो सांध्य ढले महिलायें विभिन्न व रंग बिरंगी लुगरा  (साड़ी) पहनी कान और सिर में मौसमी  फूल लगाये अपनी सखियों के संग ददरिया गाती घर की ओर वापस होती हैं, तो लगता है। सारा ग्रामीण परिवेश ददरियामय हो उठा हो। मानो प्रकृति की परी बेटियाँ स्वर्ग से उतर कर खुशियों कोई मधुरमय अलाप छेड़ दी है। उनके इस लोकगीत में सहज सरल माधुर्यता के वीणा के झंझार गूंज उठती है।
ग्रामीण क्षेत्रों व शहरी उत्सवों में जब ददरिया की मधुर -मधुर वाणी कानों को कर्ण प्रिय की अनुभूति का अहसास कराती है। यदुवंशियों का वीरता का पर्व देवारी दीपावली के बाद प्रबोधनी एकादशी से यह पर्व प्रारंभ होकर यदुवंशी समाज इसे करीब पंद्रह दिनों तक मनाता है। रावत समाज का यह पर्व छत्तीसगढ़ का लोकपर्व है क्योंकि इसका सीधा संबंध अन्य समाज से सहज ही जुड़ जाता है। यह पर्व निर्मलता पूर्ण बिना भेदभाव, राग द्वेष से कोसों दूर है।
जनमानस में लोक -साहित्य, लोकगीत जिसमें समष्टि का सुख-दुख-जय-पराजय, हर्ष-निषाद, आचार-विचार, रहन-सहन संस्कार, परम्पराएँ प्रतिबिंबित होती हंै, लोकगीत में यादवों के दोहों में इन्द्रधनुषीय छटा बिखेरती है। रऊताही, मड़ई बाजार बिहाने का दृश्य अति मनभावन होता है।
छ.ग. का एक और लोक गीत बांस गीत गायक द्वारा गीत गाता और बीच-बीच में बाँसुरी की तान छेड़ता।अब बहुत ही कम ग्रामीण व शहरी क्षेत्र में सुनाई पड़ता है।
शिशु के जन्म से लेकर मानव की अन्येष्टि तक के समूचे चित्र लोकगीतों में शोभायमान हो रहा है। प्रत्येक ग्रामीण-शहरी अचंल की अपनी परम्पराओं से जुड़े तीज, त्यौहार, विवाह संस्क ार, देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना व अनेक अवसरों पर भारतीय संस्कृति की अनमोल निधि है और इसे बड़े ही जतन व सहेज कर भावी पीढ़ी को सौपना है।  ताकि वे अपने अतीत के सुनहरे पलों का इतिहास गर्व से आत्मसात कर सदियों - सदियों तक आगे बढ़ाते रहं। लोकगीत की अमृत धारा जनमानस में अनवरत् बहती रहे। यही शुभकामनायें है, बाध्याओं की आंधी तो आती रहेगी, युग परिवर्तन के संग।
साभार रउताही 2014
 

लोकगीत से गीत होती एक यात्रा

विश्व साहित्य की किसी भी भाषा में गीत ही सर्वाधिक प्रिय विधा रहा है । यह भी सत्य है , कि गीत का उदय जहॉं भी हुआ ,लोक गीत के रूप में ही हुआ है। अत: हम कह सकते हैं, कि लोकगीत भाषा का पहला पुत्र है । यों तो गीत सृष्टि की राग वृत्ति है, कलकल,कलरव, गुंजन और पत्थरों के मौन से मुखरित होता जो होठों  की गुनगुनाहट में थिरकता है, वह प्रणव का जीवन्त स्वरूप गीत है। गीत संस्कृति की आत्मा है, मानव मन की रसधार है। गीत में चेतना की निजता समष्टि की वेदना में रूपान्तरित होकर प्रकट होती है। भावनानुभूति गीत का प्राण है, तो करूणा  और प्यार उसका आधार । अनुभूति की गहराई, समन्वित होकर जो प्रवाह बनता है, वह गीत है। वैयक्तिकता से निकल कर सामाजिक चेतना की धुरी बनता गीत सोहर, लोरी, मंगलगान, प्रणय , समर्पण और भजन कीर्तन से अनहद  तक की अनन्त यात्रा में सतत् गतिमान रहा है। उसने जनम गीत भी गाए है, और मरण गीत भी। गीत की इस यात्रा में सभ्यताओं के स्वरूप निखरे हैं, उनके निष्प्राण शरीरों को स्वस्थ संस्फुरण मिलें है। संस्कृतियों के मानस पवित्र हुए है, कितनी गाथाओ के पृष्ठ खुलें है और आदमी ने जीने के सलीके सीखें है।
गीत की यह पावन धारा पहले पहल जब आदि मानव के हृदय से छलकी, तब भाषा नहीं थी, न कागज था न कलम, भोजपत्र भीं नहीं था । आदि मानव में कंठ में , ओठों की गुनगुनाहट में, अनुभावों की मौन अभिव्यक्ति की ठसक में नृत्य की ठुमक में एक लय थी, जिसका शास्त्र गायक नें स्वंय गढ़ा था --
अजी मैं तो गावत हौं
मुॅंह अखरा जवरिहा मेरा
कलम धरे न कभू हाथ हों
बिना कलम कागज और शास्त्र ज्ञान के, ये लोकगीत रचे, और सतत् रचे जाते रहे । भाषा को लिपि मिली तो भोजपत्रों पर उतरे कागज पर उतरे, निम्य नए रूप धरते  ये लोकगीत आज के उत्कृष्ट साहित्यिक गीत बने।
लोकगीत के रूप में -सोहर, लोरी, रतजगा, देवीगीत, उत्सवगीत, सावन की मल्हारें, झूलागीत,होरी, सुआ, ददरिया,बारहमासा, करमा, मड़ई, लोरिक चंदा।  शादियों में स्वागत गान, ज्योनार,बधावा, यहॉं तक की शादी के गाली गीत भी कभी बड़े प्रिय हुआ करते थे जो आज उपेक्षित हो गए है। गीतों के ये सारे रूप हमारे लोकगीतों के रूप में ही उदित हुए हैं, और सारे देश में  विदेशों में भी अपने भाषिक रूप में प्रचलित है।  कालान्तर में भाषा व्याकरण और छान्दसिक-परिष्कारों के साथ परिमार्जिक विकसित होते हुए आज के गीत के रूप में प्रतिष्ठित हुए  है। विकास के हर सोपान पर गीत का लोक लालित्य और लोकहित सदैव केन्द्र में रहा है।  मलिक मुहम्मद जायसी की नागमती जब कहती है-
कागा सब तन खाइयो
चुन-चुन खइयो मॉँस
दो नयना मत खाइयो
पिया मिलन की आस
तब वैसा ही दर्द उभरता है , जैसा छत्तीसगढ़ की विरहिन का -
मोरा तिरिया जनम् झनि देउ
सुआरे !
संत कबीर जब गाता है-
घुँघट के पट खोल री
तोहि पिया मिलेंगे।
या मीरा -
हेरी, मैं तो प्रेम दिवाणी
मेरो दरद न जाणे कोइ।
तब लोकगीत के ही सहज मर्म भेदी स्वर उभरते हैँ
सूरदास का -
मैया मेरी !
मैं नहिं माखन खायो
या रत्नाकर की गोपियों का -
ग्राम को जताइ, औ बताइ नाम ऊधौं तुम,
श्याम सों हमारी राम-राम कह दीजियो!
दोनों उद्धरणों में  वात्सल्य और प्यार की लोकगंगा ही तो बहती है । बेटी की विदा के क्षणों की मार्मिकता में तो कण्व ऋषि भी रो पड़े थे, ये गीत आज भी लगभग उसी दर्द के साथ सारे देश में गाए जाते हैं-
काहे को भेजा विदेश / रे  सुन बाबुल मोरे !
भैया को दीने महल दुमहला
हमको दियो पर देश  / रे  सुन बाबुल मोरे ।
बचपन में इस गीत को सुनकर कितनी बार रोया हँू । आज भी वैसा ही करूणा और वात्सल्य एक साथ उमड़ता है।
वीर रस में उत्तर भारत की आल्हा हो या छत्तीसगढ़  की पंडवानी आज भी धमनियों में रक्त ज्वार उठाने में सक्षम है। ढोला मारू, लोरिक- चंदा, होरी, विरहा, नरसी  का  माइरा किसी भी आंचल से आए हों हमारे अपने जीवन के अंग है। एक जैसा ही रस और संवेदन जाग्रत करते हंै। ये लोकगीत ही तो हैं जो हमारी अनेकता को एकता के सूत्र में बाँध कर
रखते हैं।
लोकगीतों की यह हृदयग्राही प्रवृत्ति ही आज के गीतों में उतर कर उन्हें साहित्यिक गीतों की नव्यता प्रदान करती हैं। आल्हा या पंडवानी हो, प्रसाद जी का हिमाद्रि तुग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती या दिनकर का मेरे नगपति मेरे विशाल ध्वनि तो लोक हुंकार की ही है। महाप्राय निराला जब काव्य की परम्परागत रूढिय़ों के विरूद्ध नवता का क्रान्ति उद्घोष करते हैं तब लोक जीवन का इतिहास जन्म स्वर ही तो ध्वनित होता है। मधुशाला और मधुबाला जैसी मादक रचनाओं पर अपार जनप्रियता प्राप्त करने के बाद भी  'बच्चनÓ जी लोकगीत की मिठास का संवरण नहीं कर पाए और-
अब दिन बहुरे
जी की कहरें
मनवासी, पी के मन बसरे
महुआ  के नीचे मोती महुआ के झरे । महुआ के ।
एेसे कई गीत बच्चन जी ने लिखे है। आज तो अनेक समर्थ गीतकर लोगगीतों की सहज कहन और             मिठास अपने गीतों में घोल रहे हैं । देखिये-
इन्द्र को मनाएँगे
टुटकों के बल
रात ढले निर्वसना जोतेंगी हल
दे जाना तन मन से होकर निर्मल
कौछ भर चबेना औ लोटे में जल ।
शिवबहादुर सिंह भदौरिया
और देखें, ममता बाजपेयी का एक गीत-
लोकगीत की मीठी धुन है
गोबर लीपा आँगन है
घास फ ूस के छानी छप्पर
ठंडी छाँव मढैया गीत
दुलहन  के हाथों की मेंहदी
हरे कांच की चूड़ी है,
झीना सा लंबा घूँघट है
झुक-झुक पाँव पड़ैया गीत।
लोकभाषा,लोकलालित्य और लोकरस से जुडऩा गीत की सहज युग सापेक्ष्य प्रवृत्ति है । सहज गीत ही जन मानस ने कंठ में बिठाए हैं, होठों पर रमाए है, माथे पर बिठाए हैं। उनमें लोक रजंन भी है, और लोकमंगल भी। अत: गीत की जो यात्रा लोकगीत से प्रारंभ हुई थी, अनेक विकास परिवर्तनों में होती हुई पुन: लोकगीत की आेर लौट रही है । उद्धरित करना चाहँूगा छत्तीसगढ़ी में गीतों के रचयिता श्री बुधराम यादव का बदलते परिवेश में गाँव की तलाश करता  एक गीत-
मोर गाँव कहाँ सोरियावत हे
ओ सुवा ददरिया करमा अउ
फागुन के फ ाग नदावत है
ओ चंदेनी ढोला-मारू
मरथरी भजन विसरावत हे ।
डोकरी  दाई के जनउला
कहनी किस्सा आनी बानी
ओ सुरववंतिन के चौरा  अउ
आल्हा रम्माइन पंडवानी
तरिया नदिया कुवाँ बवली के
पानी असन अटावत हे।
लोकगीत का गीत की और गीत का लोकगीत की आेर यह उन्मुखीकरण, विकास की अनुमति का सुखद आनंद है। यह वह प्रक्रियाँ भी है, जो आंचलिक बोलियों क ा साहित्य-भाषा बनने की शाक्ति देती है । आज की महान् साहित्य-भाषाए, ब्रज, अवधी और खड़ी बोली, किसी समय की आंचलिक लोक भाषायें ही थीं । छत्तीसगढ़ी के लोकगीत सतत् समृद्ध होते रहें, कामना हैं उत्तम साहित्य भी सृजित होगा ।
साभार रउताही 2014


भोजपुरी लोकगीत सोहर

लोक साहित्य संस्कृति का सहज संवाहक होता है। निर्बन्ध, अलिखित, जन-जीवन की झाँकी प्रस्तुत करने वाली विधा के रुप में लोकगीतों का अपना विशिष्ट महत्व है। इसमें लोक जीवन साँसे लेता है। प्रत्येक क्षेत्र में अपने कुछ विशेष लोकगीत होते हैं, जो लोक गायकों द्वारा समय-समय पर गाये जाते हैं, जिनके माध्यम से हमें वहाँ के जनजीवन के बारे में जानकारी मिलती है। ये लोकगीत शब्दों के हेर-फेर से अपना स्वरुप बदलते रहते हैं, परन्तु भाव ज्यों के त्यों विद्यमान रहते हैं। इनका गायन, श्रवण, लोक जीवन में आनंद की सृष्टि करता है। ये व्यक्तिगत न होकर समष्टिगत होते हैं। इनके माध्यम से पारिवारिक संबंध, सुख-दु:ख, मेल मिलाप, उत्तरदायित्व बोध, सामाजिक संबंधों और व्यावहारिक पक्षों के साथ ही अधिकार और कत्र्तव्य, रीति, परम्परा, रुढिय़ों, भाषाई वैविध्य, स्थान विशेष की सामान्य जीवन पद्धति का निदर्शन होता है।
भारत विविध संस्कृतियों रुपी पुष्पों का एक सुन्दर गुलदस्ता है। जहाँ प्रत्येक फूल की अपनी पहचान है, परन्तु वह एक ही गुलदस्ते में सजा है।
बिहार प्रान्त के भोजपुर जिले सहित उसके आसपास के जिलों में बोली जाने वाली भोजपुरी भाषा, अपने आप में एक श्रेष्ठ साहित्य समेटे हुए हैं। यहाँ के जन अपनी भाषा, संस्कृति की रक्षा में सदैव तत्पर रहते हैं। वे विश्व में जहाँ-जहाँ गये भारतीय संस्कृति को न केवल जीवित रखा, बल्कि उसे पुष्पित पल्लवित भी किया। यह जिला एक ओर उत्तरप्रदेश से, दूसरी ओर बिहार से जुड़ा है। बंगाल भी पड़ोसी राज्य है, अत: इस पर विविध संस्कृतियों का प्रभाव परिलक्षित होता है।
देश के अन्य भागों की तरह यहाँ भी सुसंस्कृत जीवन का समग्र निर्माण सोलह संस्कारों के माध्यम से होता है। इन संस्कारों के द्वारा समाज विशेष अपने सदस्यों को अपनी रीति-नीतियों के अनुसार संस्कारित कर अपने समाज के अनुकूल बनाता है। इन अवसरों पर कुछ विशेष विधि-विधान, पूजा पाठ किये जाते हैं, कुछ लोकाचार निभाये जाते हैं। जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होते रहते हैं। देखने में साधारण, ये लोकाचार अपने में महत्वपूर्ण अर्थ छिपाये रहते हैं। इन अवसरों पर गाना बजाना, नाचना, स्वांग भरना, हास्य विनोद करना आदि जीवन में रंग भर देते हैं।
पुंसवन संस्कार के पश्चात जब घर में किसी नये सदस्य का जन्म होता है, तब परिवार, जाति, बिरादरी, टोले मोहल्ले मे उमंग छा जाती है। यह प्रसन्नता मात्र माता-पिता की न होकर पारिवारिक के साथ-साथ सामाजिक होती है। इन अवसरों पर जिन गीतों को टोले-मोहल्ले, घर परिवार की बड़ी बूढिय़ों, बहू-बेटियों द्वारा गाया जाता है उन्हें सोहर कहते हैं। सोहर की परंपरा भोजपुर में ही नहीं है, यह बिहार, उत्तरप्रदेश, छत्तीसगढ़ में भी पुत्रजन्म के अवसर पर गाया जाता है। जहां तक इनके संवहन का प्रश्न है, स्त्रियाँ ही इनकी संवाहक है। जब कन्या ब्याह कर अन्यत्र वधू बनकर जाती है, तब अपने साथ स्थानीय लोकाचार, लोकगीत, लोकगाथा, रीति व्यवहार आदि अपने अदृश्य रुप से लेकर जाती है। कालान्तर में मायके ससुराल की संस्कृति में मेल मिलाप होता है और संस्कृति अपने जूड़े में एक और पुष्प टाँक लेती है।
'सोहर तीन प्रकार से गाया जाता है-
(1) देवता जगाना
(2) सोहर
(3) खेलौना
देवता जगाना : जैसे ही किसी के घर पुत्र का धरती पर आगमन होता है। दाई बाहर निकलकर फूल काँस की थाली हँसिया से बजाती है। जिसकी ध्वनि पूरे टोले-मोहल्ले को ध्वनित करती है। सब समझ जाते हैं मानव वंश में वृद्धि हुई है।
तत्काल बड़ी: बूढिय़ाँ एकत्र होकर अपने पूर्वजों को इसकी सूचना देने के लिए नाम ले लेकर जगाने लगती है।
आवहू गोतिया रे आवहु गोतिनि आरे...ऽऽ
गाई रे जगाव हू शिवमुनि बाला-जनमे ले नाति नू हो।
वे अपने कुल के प्रत्येक पूर्वज को जगाकर यह शुभ सूचना देती हैं कि आपकी आत्मा की शांति के लिए तर्पण करने वाला धरती पर जन्म ले चुका है। आप आनंदित होकर आशीष दें।
समय देखकर तय कर लिया जाता है कि कब सोहर गाने बैठा जाय? शाम, रात या दोपहर जब सभी एकत्र हो जांय, मिल बैठती हैं । बैठने के लिए ऐसी जगह का चयन किया जाता है जहाँ से गीत प्रसूता के साथ नवजात को भी श्रवण गोचर होता रहे।
बरही तक प्रतिदिन सोहर गाये जाते हैं। ये ज्यादातर राम कृष्ण के जन्म से संबंधित होते हैं, कुछ में माँ न बन सकने की पीड़ा तो कुछ में गर्भावस्था में कुछ विशेष खाने की अभिलाषा या पुत्र जन्म की खुशी  में देवी-देवता पूजन का आख्यान समाहित रहता है। बधाई सूचक सोहर भी गाये जाते हैं। इनमें 'देवताÓ जगाना बड़ी बूढिय़ों की ओर से प्रारंभ होता है। इसमें ढोलक की आवश्यकता नहीं होती, वस्तुत: यह पूर्वजों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने वाला सोहर होता है। अब बहू-बूटियाँ सोहर प्रारंभ करती हैं, इसमें दोनों तरह के सोहर होते हैं झाँझ ंजीरा ढोल सहित या गाना मात्र।
जहाँ तक बन पड़ता है पहले पहल बधाई वाला सोहर उठता है इसे 'कढ़ानाÓ कहते हैं। एक ने सोहर कढ़ाया बाकी साथ देने लगती हैं।
देखिए एक बानगी :
बाजन बाजे सत बाजन
नउबति बाजन हो
राजा राम लीहसे अवतार (आवृति)
अयोध्या के मालिक हो।
हंक्रहू नग्र के धगडिऩ बेगे चलि आवहू हो,
धगंडिन छीन ना रमइया जी के नार
त अबटी सुताबहू हो।
तब धगडिऩ कहती हैं-
मचिया ही बैठी कोसिला रानी,
बड़ी चउधराइन हो,
रानी हम लेबो सोने के हंसुआ-2
त रुपवा के खापड़ी हो,
रानी हम लेबो सोने के हंसुलिया
त राम के नेछावरि हो...ऽ....ऽ...
पहिरी ओढिय़ धगडिऩ ठार भइली,
चउतरा चढ़ी मनावेली हो
आरे बंस बाढ़ों रे, फलाना राम के
बँस बरिसइने हम आइंबि, बरिसइने हम आइबी हो।
इस सोहर में चारों वर्णों के महत्व का प्रतिपादन हुआ है। बहुत दिनों बाद राजा के घर पुत्र हुआ है। सास रानी हरकारों को दौड़ाती है, जाओ ! जल्दी से धगडिऩा (दाई) को बुलाकर लाओ! ताकि वह राम जैसे शिशु की नाल काटे और तेल मालिश करके सुला दे।
दाई आती है, वह भी अवसर को समझती है, आज वह जो चाहे गृहस्वामिनी से नेग स्वरुप माँग सकती हैं। वह कौशिल्या जैसी सास से कहती है- आप तो बड़े दिल और रसूख वाली हैं। मैं बच्चे की नाल काटने के लिए सोने का हँसिया लूंगी, उसे उठाने के लिए चाँदी की खपड़ी लूँगी (बच्चे की नाल काटने के बाद टूटे मटके के अद्र्ध गोल भाग में रखकर उसे दाई उचित स्थान पर गड़ाती है) बच्चा कोई साधारण नहीं है, वह तो राजकुमार है। साथ ही मुझे नेग के रुप में सोने की हँसुली (गले में पहनने का आभूषण) न्यौछावर चाहिये।
सब कुछ प्रसन्नतापूर्वक दिया जाता है। पहन ओढ़कर दाई चबूतरे पर चढ़कर आशीष देती है, कि वह वंश बढ़े, ऐसा हो कि प्रतिवर्ष मैं आऊँ। इस सोहर में आगत शिशु के बाबा, दादा, चाचा आदि का नाम क्रम से लिया जाता है।
मातृपद प्राप्त करना स्त्री जीवन की पूर्णता है। संतानहीन स्त्री किसी भी कीमत पर सन्तान सुख प्राप्त करना चाहती है, चाहे उसके जन्म से उसे सुख मिले या दु:ख।
देखिए :
ऊँच मंदिल पुर पाटल बेतवा के छाजनि हो,
राजा राम लीहले अवतार अजोध्या के ठाकुर हो
धावहू नग्र के पंडित, बेगे चलि आवहू हो,
ऐ पंडित काढऩ ऽ....ऽ... पोथिया पुरान-2
कइसन राम जनमे ले हो?
रोहिनी नक्षत्रे राम जनमे
बहुत सुख पइहनि हो
कोसिला बरहो बरिस के जब होइहें त
बने चलि जइहनि हो-2
तब बौखलाकर  (स्त्री)
कौशिल्य कहती है-
कइसन हवे...ऽ...ऽ तुहु
पंडित कइसन पोथी हवे हो?
पंडित बोलिया कुबोली बोले हो,
पंडित जिभिया पर धर बो अंगार
त देस से निकालबि हो।
वह जानती है कि भाग्य से कोई नहीं लड़ सकता है अत:धीरज धर कर कहती-
बरहो बरिस के राम हाइहें-2
त बने चलि जइहनी हो
ललना छुटले, बंझिनियाँ के
नांव बलइया से राम बने जइहें हो।
इस सोहर में परंपरात्मक क्रियाकलापों के दर्शन होते हैं। दाई के बाद पंडित को बुलाया जाता है, संतान के भविष्य के प्रति उत्कंठा स्वाभाविक है। माता पंडित से पोथी निकालकर राम जन्म के समय ग्रहगोचर के बारे में जानना चाहती है। पंडित कहते हैं- राम का जन्म रोहिणी नक्षत्र में हुआ, उन्हें जीवन में बहुत सुख मिलेगा, किन्तु जब ये बारह वर्ष के होंगे तब वन चले जाएंगे।
माँ का कलेजा चाक हो जाता है, वह तड़प उठती है। ऐसी अशुभ बात बोलने वाले पंडित को धिक्कारती है- यह क्या बोल रहे हैं? मेरा मन हो रहा है कि आपकी जीभ पर अंगारा रख दूँ या देश से निकलवा दूँ।
स्त्री का भाग्य पर अटूट विश्वास होता है वह जानती है कि पंडित की पोथी झूठ नहीं बोलती, मन को कड़ा करके कहती है- कोई बात नहीं! राम वन जाएंगे तो आ भी जाएंगे। मेरा बाँझिन का नाम तो छूट गया। यह सोहर बड़े से बड़े दु:ख में स्त्री के धैर्य को रेखांकित करता है।
नि:संतान स्त्री के हृदय की व्यथा को प्रकट करता हुआ एक सोहर देखिए-
गंगाजी के ऊँच अररवा,
तेवइया एक रोलवे हो ऽ...ऽ...ऽ
गंगा जी अपनी लहरिया मोही दिहितु त,
हम मरि जाइति होऽ....ऽ....ऽ
सुतलि गंगा उठि बइठेली, चिहाई उठि बइठेली हो,
ऐ तेवई कवन संकट तोरा परले,
अधियराति रोवेलू हो-2
किया तोरे सासु ससुर दु:ख
नइहर दूरि बसे हो,
ऐ तेवई किया तोरे कान्ता बिदेसे
कवने दु:ख रोवेलू हो।
नाहि मोरे सासु ससुर दु:ख
नइहर दुरि बसे नइहर दूरि बसे हो,
गंगा जी, नाही मोरे कान्ता विदेसे,
कोखिय दु:ख रोइले कोखिय दु:ख
रोइले हो-2-3 आवृति
अपनी हम उम्र स्त्रियों की गोद में खेलते बालक को देखकर स्त्री को अपने संतानहीन होने की व्यथा गहरे तक सालती है। घर, परिवार, रिश्तेनातेदारों के व्यंग्य बाण उसे घायल करते हैं, वह देवी देवताओं से मन्नते माँगती है, यहाँ तक कि अद्र्ध रात्रि में गंगाजी के ऊंचे कगार पर खड़ी होकर रुदन करती कहती है- हे गंगा जी! जरा अपनी लहरे ऊँची  कर दो! मैं तुम्हारी गोद में समाना चाहती हूँ। उसका करुण क्रन्दन सुन, सोइ हुई गंगा जी चौककर उठ जाती हैं और उससे पूछती हैं, तुम्हें किस दु:ख ने इतना दु:खी कर दिया? क्या तुम्हारे सास-ससुर तुम्हें कष्ट देते हैं या मायका बहुत दूर है या फिर तुहारे पति परदेशी है? बोलो क्या कष्ट है? तब वह कहती है, न तो मुझे सास-ससुर का दु:ख है न मायका दूर है और ही मेरे पति परदेशी हैं, मैं तो कोख के दु:ख से रो रही हूँ।
गंगा जी कहती हैं- अब तुम अपने घर जाओ साथ ही मेरा आशीर्वाद लेती जाओ, आज से ठीक नौ माह बाद तुम पुत्रवती होगी। तब स्त्री प्रसन्नता से अभिभूत कहती है- हे माँ! यदि आपका आशीर्वाद सत्य हुआ तो मैं आपके घाट सोने से मँढवा दूंगी, चाँदी की सीढिय़ाँ लगवा दूँगी।
रंगमहल में गोरी सी पतली सी रानी राजा से खिलवाड़ करती है, वह कहती है मुझे पियरी की बड़ी साध है, ला दीजिये।
तब गोरे से पतले से राजा कहते हैं तुमतो बचपन से ही बाँझ हो! पियरी तुम्हें शोभा नहीं देगी। प्रिय की ऐसी मर्मभेदी वाणी सुनकर प्रिया मर्माहत होती है। चादर से मुँह ढांककर अन्दर वाले कमरे में सो जाती है।
बाहर से छोटा देवर भाभी को पुकारते आता है। उसका उदास मुख देखकर पूछता है कि तुम्हें क्या तकलीफ है? तब वह कहती है कि तुम्हारे भइया ने ऐसा व्यंग्य किया कि मेरा कलेजा फट गया।
तब देवर कहता है- तुम तो भाभी पागल हो, इसमें उदास होने की क्या बात है ? खोंइछा (आँचल) में तिल चांवल लेकर देवता से प्रार्थना करो।
देव की कृपा से समय पर रानी पुत्रवती होती है तब पति रंगरेज से पियरी और सोनार से तिलरी लेकर मनाने आते हैं। नायिका मान करती है और कहती है कि मैं तो बाँझ हूँ न, यह सब मुझे कहाँ शोभा देगा?
इस सोहर में पति-पत्नी के संबंधों में आने वाली खटास के साथ देवर भाभी  के पवित्र रिश्ते को उजागर किया गया है। सबकी बात तो स्त्री ही सह लेती है परन्तु पति की व्यंग्य भरी वाणी सहना बहुत कठिन हो जाता है। विविध बिम्बों की रचना करते असंख्या सोहर भोजपुरी में गाये जाते हैं। विषय विस्तार से बचने के लिए इस सोहर के तीसरे रुप खेलौना की चर्चा करते हैं। इसे नई उम्र की बहू बेटियों के हिस्से का माना जाता है। बीस-पच्चीस सोहर के बाद उन्हें संकेत किया जाता है कि अब शुरु करो खेलौना या उठान। इसमें बच्चे के आने से घर में छाई खुशी, मिलती बधाईयाँ, नंनद भाभी की हँसी ठिठोली, नेग के लिए मीठी लड़ाई, जच्चा का नग देने से कतराना और ननद का हठ करके लेना, रीति-रिवाज की बातें होती हैं, लोकनृत्य होता रहता है। लोक कलाकार अनसीखे नृत्य का सम्पादन करते हैं। इस पर आज कल सिनेमा के गीतों का विशेष प्रभाव परिलक्षित हो रहा है।
कुछ खेलौने-
बबुआ रुन मुन झुन मुन अंगना
सोहावन अइले नाऽ...ऽ...ऽ।
अपना बाबा के खरचा करावन अइले ना नाऽ...ऽ...ऽ।
अपना दादी के चोरिका लुटावन अइले नाऽ...ऽ...ऽ।
ननद भौजाई की ठिठोली का यह मोहक बिंब
ननदिया मांगे फूल झाड़ी रे...2
भाभी सभी गहने, बरतन आदि देने की कोशिश करती है लेकिन ननद नहीं लेती बल्कि सब गदहों में हेकों ही उसे भला लगता है उसे लेकर चली जाती है। देवी दुर्गा के वरदान से घर में लाला हुए हैं।
देवी दुर्गा ने दिये वरदान हमारे घरे लालन हुआ-2
जाई कहो ओही बारे ससुर से द्वारे पर जग्य करावे हमारे घर लालन हुआ।
स्त्री अधिकार की बात भी उठती दिखाई दे जाती हैं कहीं-कहीं-
पीरा तो मैंने सहि रे...
पिया के लाल कइसे कहाई?
वह अपनी सास, ननद, जेठानी सबसे न्याय की गोहार लगाती है। सभी एक स्वर में कहती हैं- यह तो मेरे बेटे या भाई देवर की कमाई है। अंत में वह अपनी सौतन को पलंग पर बैठाकर पूछती है तब वह कहती हे-
इत लाल दूनों के कहाई
अकेले लाल कइसे कहाई।
पीरा तो मैंने सही रे पिया के लाल कइसे कहाई।
या फिर
कोई लेगा जी बचवे का खिलौना
इस प्रकार के अनेक लोकगीत, भोजपुरी भाषा की अमर धरोहर हैं। जिन्हें न सिर्फ सहेज के रखा है भोजपुरियों ने बल्कि उन्हें अपने जीवन में रस धार की तरह प्रवाहित करते रहते हैं।
साभार रउताही 2014