Thursday 14 February 2013

पारंपरिक राऊत नाच कार्यक्रम में लोक साहित्य की अभिव्यक्ति

छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति की कल्पना करना परम्परागत राऊत नाच कार्यक्रम के बिना न केवल अपूर्ण है अपितु यह कहा जाये की छत्तीसगढ़ की प्रारंभिक पहचान ही राऊत नाच कार्यक्रम में सन्निहित है। दीपावली से लेकर फाल्गुन मास तक हमें राऊत नाच कार्यक्रम का स्वरूप किसी न किसी रूप में परिलक्षित होते रहता है। सम्पूर्ण भारतवर्ष में छत्तीसगढ़ की संस्कृति लोक कलाओं, लोक गाथाओं, लोक गीतों एवं लोकनृत्यों के रूप में समृद्धशाली है। राऊत नाच कार्यक्रम छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक धरोहर है। छत्तीसगढ़ की संस्कृति में इसकी अमिट छाप स्पष्ट झलकती है।
राउत नाच कार्यक्रम कहने के लिए नृत्य है किन्तु इसमें नृत्य के साथ वाद्य तथा गीत भी अर्थात् इसमें संगीत की तीनों विधाएं क्रमश: नर्तन दल, वादन दल तथा गायन की अभिव्यक्ति का समावेश दिखाई देता है अर्थात् राऊत नाच अपने लोक नृत्य के साथ लोक वाद्य तथा लोक गीतों को समाहित किया हुआ है। यथार्थत: राऊत नाच चलायमान नृत्य है। राऊत नर्तकों का दल गोल के रूप में आगे बढ़ता है। राऊत नाच कार्यक्रम में गड़वा बाजा का वाद्यक दल का होना अति आवश्यक है। राऊत नर्तकों के दल के साथ वादक दल भी आगे बढ़ता है। राऊत नर्तकों के दल तथा वादक दल सम्मिलित समूह गोल कहलाता है। जैसे ही गड़वा बाजा बजता है राउत नर्तक लोग नाचने लगते हैं। बीच-बीच में नर्तक दल के कोई सदस्य नाच करने वाले तथा बाजा बजाने वाले को उच्च स्वर से सिंहनाद करते हुए रोक कर दोहा पारने (कहने) लगता है। नृत्य रोकना तथा दोहा पारने की पुनरावृत्ति का क्रम अनवरत रूप से चलते रहता है। ये दोहे छत्तीसगढ़ी अथवा हिन्दी में होते हैं। पारंपरिक दोहे मूलत: छत्तीसगढ़ी अथवा हिन्दी में होते हैं। अथवा आशु कवि बनकर स्वत: नर्तक गण रचनाकर दोहे कहने लगते हैं।
हिन्दी के दोहे लोक नायक कवियों की रचनाएं होती हैं जो सूरदास, मीराबाई, कबीरदास, मलूकदास, रसखान, रहीम, रैदास, तुलसीदास आदि के दोहे से संबंधित होते हैं। ये दोहे नीति धर्म नीति, राजनीति, शिक्षा, उपदेश, भक्ति, लोक रीति, इतिहास, लोकनीति, आदि से संबंधित प्रेरणात्मक तथा हृदयंगम होते हैं पारम्परिक दोहे छत्तीसगढ़ी में होते हैं जो मार्मिक होते हंै तथा गागर में सागर भरने का काम करते हैं । 'सतसईÓ के दोहे के समान ये दोहे हृदयस्पर्शी होते हैं। वस्तुत: राऊत नाच चल नृत्य होते हुए स्थिर नृत्य भी है। दो-चार दोहा पारने तक राऊत नाच का दल एक स्थान विशेष में नृत्य करता है तथा इसी क्रम में आगे बढ़ता जाता है। तदुपरांत दूसरे स्थान पर नर्तक दल का नृत्य होता है। नृत्य की परम्परा चलती रहती है। दो-चार दोहे पारने की अनिवार्यता आवश्यक नहीं है तथा इसका निर्धारण काल पात्र अथवा स्थान के आधार पर होता है। स्थान विशेष पर घंटा अथवा आधा घंटा तक नृत्य होता है। ये दोहे पारने की परम्परा ही राऊत नाच कार्यक्रम को लोक नृत्य, लोक वाद्य तथा लोकगीतों से आगे बढ़कर लोक साहित्य से जोड़ देता है। छत्तीसगढ़ी के दोहों में नीति शास्त्र, राजनीति, धर्मनीति, इतिहास शिक्षा, उपदेश, लोकरीत, लोकनीति समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र दर्शनशास्त्र  आदि के दर्शन होते हैं साथ ही इन दोहों में रस छंद अलंकार तथा शब्द शक्ति की झलक दिखाई देती है। यथार्थत: ये राऊत नाच के नर्तकों के हृदय के उद्गार हैं जिसमें लोक की आत्मा की झलक झलकती है। इन दोहों में अतीत से वर्तमान काल की समाज की स्थिति का ज्ञान होता है।
प्रस्तुत आलेख में परम्परागत छत्तीसगढ़ी  दोहे का ही वर्णन किया जा रहा है। उपरोक्त शीर्षक का विवेचन कर इसके प्रत्येक शब्दों की व्याख्या की प्रस्तुति होगी जो इस प्रकार है- पारम्परिक इसका सीधा साधा अर्थ है जो परम्परा से संबंधित हो। परम्परा वह है जो चलन है चलती रहे। यदि परिवर्तन हो तो वह समाज के अनुरूप हो। परम्परा पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरण होती है जो ज्ञान पूर्वजों को प्राप्त हो वह ज्ञान उनके संतानों को सहज ही प्राप्त होता है। जो ज्ञान संस्कृति प्रविधि तकनीकी जानकारी एक परिवार या व्यक्ति को है उसके संतान के लिए वह सुलभ है इसी प्रकार जो ज्ञान समाज विशेष वर्ग  या जाति को है। नई पीढ़ी को वह सहज प्राप्त हो जाता है, परंपरा में परिवर्तन परिमार्जन या परिशोधन नयी पीढ़ी की आवश्यकतानुसार होती है किन्तु मौलिक रूप में परिवर्तन नहीं होता परंपरा सनातन है।
समाज में मान्य सिद्धांत परम्परा है, परम्परा में समाज की स्वीकृति होती है। परम्परा में समाज का हित होता है। परम्परा में समाज के लोगों के अनुभवजन्य मान्य सिद्धांत होते हैं। परम्परा में अनुकूलन  करने का गुण होता है और समाज के सदस्यों के लिए परम्परा के नियम को मानना बंधनकारी होता है। अनुकूलन तथा बंधनकारी नियम ही परम्परा में परिवर्तन के विरोधी हैं पारंपरिक अर्थात परम्परा संबंधी इसे अंग्रेजी में ञ्जह्म्ड्डस्रद्बह्लद्बशठ्ठड्डद्य ड्डठ्ठस्र ष्द्यड्डह्यह्यद्बष्ड्डद्य कहते हैं। पारंपरिक परंपरा शब्द की अवत्यवाचक तद्धित रूप है।
राऊत नाच कार्यक्रम- राऊत नाच कार्यक्रम तीन शब्दों राऊत+नाच+कार्यक्रम से बना है अर्थात् वह कार्यक्रम जो राऊत नाच से संबंधित हो।
राऊत नाच- यह दो शब्दों के मेल से बना है। राऊत+नाच अर्थात् राऊतों का नाच। तात्पर्य यह है कि राऊतों द्वारा क्रियान्वित किया जाने वाला नाच। छत्तीसगढ़ में राऊत  अथवा रावत शब्दों रावतों द्वारा कार्यान्वित किया जाने वाला नाच है। राऊत अथवा रावत शब्दों को विभिन्न नाम से संबोधित किया जाता है- राऊत, राउत, रावत, ठेठवार, पहटिया, गोहड़वार, गोपाल, गोपालक, गोप, ग्वाला, ग्वाल, चरवाहा, गोचारक, गोचरवाहा, अहीर, अहिर, अहिरा, यादव, यदुवंशी आदि ये सभी कार्य बोधक शब्द हैं कोई भी गोचारक जाति इसे लिख सकते हैं। छत्तीसगढ़ में इस जाति के विभिन्न संवर्ग है किन्तु जाति बोधक शब्द साधारणत: राऊत, रावत अहिर तथा यादव ही ज्यादा प्रचलित है।
राउत या राउत शब्द के भी विभिन्न अर्थ है हिन्दी शब्दकोष के अनुसार 'राउतÓ का अर्थ है राजवंश का कोई व्यति या बहादुर 'राउतÓ या 'राऊतÓ शब्द का विवेचन करें तो इस प्रकार है राऊ+त। राऊ का अर्थ है राय, राय या राजा। राऊ में त प्रत्यय लगाकर इसे छोटा कर दिया है। जैसे नदी से नाला होता है। इसी तरह राऊत या राउत शब्द हुआ छोटा राजा। इसी राजवंश से छोटा अर्थात्  राजवंश के व्यक्ति के समान गुण वाला व्यक्ति अर्थात बहादुर अर्थात् राजा तुल्य गुण वाला व्यक्ति जो बहादुर हो 'राउतÓ कहलाए जो रावत शब्द का विवेचन करें तो इसके कई अर्थ है। हिन्दी शब्दकोष के अनुसार 'रावतÓ शब्द का अर्थ है छोटा राजा, वीर बहादुर, सरदार एक उपजाति 'रावतÓ शब्द दो शब्दों के योग से बना है राव+त इसे भी राव शब्द में 'तÓ प्रत्यय लगाकर इसके अर्थ को छोटा कर दिया गया है। राव का अर्थ हुआ राय या राजा, अमीर, धनी, भाट या चारण। राव का वास्तविक अर्थ है राजा। अत: रावत का अर्थ हुआ छोटा राजा के गुण वाला व्यक्ति या एक जाति अर्थात् वीर बहादुर या सरदार के समतुल्य जाति अर्थात रावत जाति। अत: रावत या राऊत वह जाति है जिसमें राजा के समान गुण हो जो वीर हो, बहादुर हो या सरदार अर्थात् मुखिया के समान हो या राजवंशों के समान गुण हो।
अत: राऊत नाच का अर्थ हुआ ऐसी जाति द्वारा किया जाने वाला नाच जो जाति राजवंश से संबंधित हो अर्थात् राजवंश के गुणों के तुल्य हो जिस जाति के व्यक्तियों में वीरता अंग प्रत्यय में समायी हुई हो। जो निर्बलों की रक्षा करता  हो तथा समाज का नेतृत्व करता हो अर्थात् समाज को दिशा प्रदान करे। वास्तव में राऊत नर्तक के सभी गुण उनके परिधान किये हुए गणवेश द्वारा स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होते हंै। राऊत या रावत जाति स्वभाव से वीर जाति है। इस राजोचित वीरों द्वारा किये जाने वाला नाच ही राउत नाच है। यदि देखा जाय तो राऊत जाति के क्रियाकलाप वीरोचित गुणों से परिपूर्ण हैं। दैनिक दिनचर्या इस जाति के लोग हाथ में हमेशा एक मजबूत लाठी (यष्ठि) रखते हैं। सिर में पगड़ी धारण करते हैं पहनावे में जाकिट तथा सलूखा धारण करते हैं। खान-पान में हमेशा दूध, दही तथा घी का सेवन करते हैं। विवाह के अवसर पर शास्त्र चालन  की प्रतियोगिता होती है। रावत नाच के अवसर पर इनके बाना अर्थात् गणवेश में अंग प्रत्यंग वीरोचित गुणों से परिपूर्ण होता है तथा प्रदर्शन भी वीरतापूर्ण होता है।
यद्यपि यह जाति वर्तमान में शोषित है। दयनीय स्थिति तथा आर्थिक विपन्नता के संकट से गुजर रही है तथापि इनमें स्वाभिमान, आत्मविश्वास, आत्म सम्मान, सरलता, निश्छलता, निर्भयता, शूरवीरता पर दुख कातरता, सहृदयता, सहयोग करने की प्रवृत्ति आदि वीरोचित गुण आज भी विद्यमान हैं। तथाकथित समाज के कर्णधारों के इनके इन्हीं गुणों के कारण इनकी शक्ति का भरपूर दोहन किया जाता है इन जाति के लोगों में परस्पर वैमनस्य फैलाया। आज का समय अपने को पहचानने का है तथा प्रसुप्त वीरोचित गुणों को जागृत करने का है तथा परस्पर सहयोग करने की प्रवृत्ति को विकसित करने का है। इनकी संस्कृति को नष्ट करने का प्रयास किया जाता रहा है। अत: अपने अतीत को पहचानने की आवश्यकता आज समय की मांग है, यादवों की महान संस्कृति को पुनजीर्वित करने का है।
अत: राउत नाच कार्यक्रम राजोचित तथा वीरोचित गुण वाले जाति के नर्तकों द्वारा किया जाने वाला नाच है इसका व्यापक दृष्टिकोण यह है कि अक्षरा कार्यक्रम से लेकर बाजार परिभ्रमण तक सम्पन्न होने वाले राऊत नाच कार्यक्रम हैं किन्तु विषय से संबंधित कार्यक्रम राऊत नाच सम्पन्न होने तक के कार्यक्रम तक ही सीमित है। राऊत नाच क्रियान्वित होने के समय के कार्यक्रम ही इसमें सम्मिलित है। अत: ऐसे नाच का कार्यक्रम जो राजोचित तथा वीरोचित जाति के लोगों द्वारा किया जाने वाला राऊत नाच कार्यक्रम है।
लोक साहित्य-
लोक साहित्य की व्युत्पत्ति करें तो यह शब्द दो शब्दों के योग से बना है लोक +साहित्य। लोक साहित्य का अर्थ हुआ लोक का साहित्य। लोक जीवन से संबंधित जो साहित्य है उसे लोक साहित्य कहते हैं। साहित्य दो प्रकार का होता है । (1) लोक साहित्य (2) शिष्ट साहित्य या नागर साहित्य । लोक साहित्य ग्रामीण अंचल के लोगों का साहित्य है यह ग्रामीण साहित्य कहलाता है। लोक साहित्य लोक अर्थात् सर्व साधारण का साहित्य है। लोक साहित्य में नियमबद्धता तथा क्रमबद्धता का पालन अनिवार्य नहीं है। शिष्ट साहित्य शिष्ट अर्थात् संभ्रांत लोगों का साहित्य है यह सभ्य लोगों द्वारा प्रयोग किया जाने वाला साहित्य है। यह नगर के निवासियों द्वारा अपनाया जाता है अत: इसे नागर साहित्य कहते हैं। शिष्ट साहित्य में नियमबद्धता का पालन होता है।
साहित्य-
लोक साहित्य को परिभाषित करने के लिए साहित्य को परिभाषित करना आवश्यक है। साहित्य का अर्थ हिन्दी शब्दकोष के अनुसार सहित का भाव, वांग्मय, गद्यात्मक या पद्यात्मक रचना है अर्थात् साहित्य गद्यमय या पद्यमय रचना है साथ ही इसकी उत्पत्ति वांग्मय अर्थात् बोल या सुनकर हुई हो। वस्तुत: साहित्य का भाव सहित होने के भाव से हो साहित्य शब्द सहित का अवत्यावाचक तद्धित रूप है। सहित का सामान्य अर्थ 'साथÓ है। यदि इसका विस्तारित अर्थ करें तो स+हित है स का अर्थ है साथ होता है और हित का अर्थ भलाई है अर्थात् सहित का अर्थ हुआ  हित भलाई है अर्थात सहित का अर्थ हुआ हित के साथ। हितेन सह इति सहित अत: सहित का अर्थ हुआ साथ और हित के साथ अर्थात साहित्य वह है जिसमें साथ होने के बाद भी हित करने की प्रवृत्ति हो अर्थात् वह गद्यमय अथवा पद्यमय रचना है जिसमें किसी ज्ञान को आत्मसात करने की प्रवृत्ति रखता हो अर्थात किसी ज्ञान को आत्मसात करने की प्रवृत्ति के साथ ही इसमें हित करने का व्यापक भाव निहित हो।
साहित्य के तीन रूप है (1) वार्ता (2) शास्त्र (3) काव्य। अपनी बात सरलता से प्रकट करने के लिए वाणी के पहले प्रयोग को 'वार्ताÓ कहते हैं। अपने विचार को प्रतिपादित करने के लिए ज्ञान की प्रधानता करे वह 'शास्त्रÓ है, अपने अनुभव को प्रकट कर श्रोता को प्रभावित करे इसमें भाव या प्रभाव की प्रधानता रहे वह 'काव्यÓ है।
लोक- लोक का अर्थ सर्वसाधारण जनता को सामान्य लोग ही 'लोकÓ कहलाता है। जन सामान्य ही 'लोकÓ की श्रेणी में आते है। लोक शब्द 'जनÓ के अर्थ में प्रतुत होता है द्घशद्यद्म का हिन्दी रूपान्तर है और फोक शब्द का प्रयोग अंग्रेजी में ग्रामीण, जनजाति, पिछड़ी जाति, पर्वतीय जाति, शिक्षा से वंचित लोग अशिक्षित, अर्धशिक्षित, श्रमजीवी आदि के लिए सामान्य रूप से होता है। प्रकृति पर निर्भर रहने वाले और उस पर जीविकोपार्जन करने वाले लोगों को इसी श्रेणी में माना जाता है। 'लोकÓ का अंग्रेजी में दूसरा शब्द है क्कह्वड्ढद्यद्बष् इसका प्रयोग सर्वसाधारण जनता के लिए इसे 'जनÓ के लिये प्रयुक्त किया जाता है। जन, जनता, प्रजा तथा लोक समानार्थी है। लोक 'शब्दÓ का अंग्रेजी श्चद्गशश्चद्यद्ग  होता है। इसका भी अर्थ है जनता, जन, सर्व साधारण लोक, जन सामान्य और लोक होता है।
वास्तव में स्नशद्यद्म, क्कह्वड्ढद्यद्बष्  तथा  क्कद्गशश्चद्यद्ग  शब्द 'लोकÓ शब्द को प्रदर्शित करता है। इसमें स्नशद्यद्म शब्द परम्परावादी है। क्कह्वड्ढद्यद्बष् शब्द प्र्रगतिशील है क्कद्गशश्चद्यद्ग शब्द 'लोकÓ का सामान्य प्रचलित शब्द है। अत: स्नशद्यद्म शब्द का जो परंपरावादी है जो प्रकृति के निकट है जो पुरातनता होने के कारण परिवर्तन का विरोध करता है। इसी तरह क्कह्वड्ढद्यद्बष् शब्द  का 'लोकÓ में गतिशीलता है उसमें परिवर्तन करने के लिए प्रेरित करता है। इसमें नवीनता की ओर 'लोकÓ आकर्षित होता है। किन्तु क्कद्गशश्चद्यद्ग शब्द का 'लोकÓ मध्यमार्गी है न तो यह परंपरा का विरोध करता है और न ही नवीनता की ओर आकर्षित होता है। किन्तु वास्तविक को ग्रहण करता है। अत: देखा जाये तो स्नशद्यद्म क्कह्वड्ढद्यद्बष् और  क्कद्गशश्चद्यद्ग शब्द समाज की स्थिति के अनुरूप व्यवहृत होते हैं जहां स्थिरता से लेकर सामाजिक परिवर्तनशीलता की ओर उन्मुख होता है किन्तु स्नशद्यद्म का लोक ही परम्परावादी होने के कारण भारतीय संस्कृति के सन्निकट है और क्रमिक परिवर्तन की ओर प्रेरित करता है।
लोक शब्द वास्तव में संस्कृत शब्द है जिसका वास्तव में अर्थ है लोक या जन अत: लोक का अर्थ हुआ है जन सामान्य 'लोकÓ शब्द से लोकना क्रिया बनती है जिसका अर्थ होता है गिरती वस्तु को बीच में हाथों से पकड़ लेना या बीच में उड़ा लेना। चूंकि लोकन का कार्य करने वाला लोक कहलाता है अत: लोक वह है जो किसी गिरती वस्तुत को हाथ में पकड़े अथवा बीच में उड़ा ले तात्पर्य लोक गतिशीलता को रोकने वाला है। अर्थात् स्थिरता प्रदान करने वाला है। अत: समाज की गतिशीलता जो रोके वह 'लोकÓ है। 'लोकÓ समाज में प्रचलित मान्यताओं के परिवर्तन का विरोधी है तथा यह क्रांतिकारी परिवर्तन का भी विरोधी है। अत: लोक समाज में क्रमिक परिवर्तन का पक्षधर है। अत: 'लोकÓ सामान्य जनता है जो समाज में प्रचलित मान्यताओं का संरक्षक है तथा दु्रतगामी परिवर्तन (क्रांति) का विरोधी है।
एक लेखक ने 'लोकÓ संस्कृत शब्द का  अर्थ दर्शक बताया है। अत: प्रकृति की गतिविधियों को देखने वाला या प्रत्यक्षदर्शी लोक ही है, प्रकृति के क्रियाकलापों को देखकर उस पर मुग्ध होने वाला दर्शक लोक है। अत: लोक वह है प्रकृति के रूप को देखकर अनांदित हो। अत: वह जन सामान्य जो प्रकृति के विविध रूप जैसे नदी, तालाब, पर्वत, पेड़, पौधे, पशु-पक्षी को देखकर प्रफुल्लित हो तथा इनके द्वारा उत्पन्न नाद को सुनकर प्रसन्न हो 'लोकÓ कहलाएगा। अत: लोक वह जन सामान्य है जो समाज में प्रचलित मान्यताओं का संरक्षक तथा परिवर्तन का प्रबल विरोधी है तथा प्रकृति के रूप तथा उसके गुणों पर मुग्ध होने वाला है साथ ही प्रकृति से उत्पन्न नाद को सुनकर आनंदित हो।
अत: लोक साहित्य वह गद्यमय या पद्यमय रचना है अथवा वांगमय जिसे वाणी द्वारा व्यक्त किया जावे कृति है जिसमें लोगों की कल्याण की भावना सन्निति है तथा समाज की स्थिति को आत्मसात करने का गुण विद्यमान हो जो समाज के साथ-साथ गतिमान हो और सामाजिक नियमों के अनुरूप समाज में परिवर्तन करता है जो समाज का हित साधक हो।
अत: लोक साहित्य प्राकृतिक पर्यावरण में जीवन यापन करने वाले परंपरा के पोषक सामाजिक मान्यताओं में क्रमिक विकास चाहने वाले क्रांतिकारी, सामाजिक परिवर्तन के प्रबल विरोधी ग्रामीण परिवेश में रहने वाले या इसी विचारधारा वाले जन सामान्य लोगों के जीवन तथा जीवन की घटनाक्रम से संबंधित अथवा इसी विचारों के अनुकूल वांग्मय (मौखिक या वाणी द्वारा व्यक्त किये जाने वाला ) प्रस्तुति है जिसमें जन कल्याण की भावना सन्निति हो तथा समाज की स्थिति का चित्रण कर उसे आत्मसात कर लेता हो तथा समाज को साथ लेकर चलता हो अभिव्यक्ति... भाव व्यक्त करने को कहते हैं।
अत: लोक साहित्य की अभिव्यक्ति... जन सामान्य परंपरावादी विचार वाले लोगों द्वारा व्यक्त किया जाने वाला मौखिक प्रस्तुति है जिसमें जन सामान्य की कल्याण करने की प्रवृत्ति हो तथा सर्वांगीण समाज को साथ लेकर चलता हो जो साहित्य जन रंजन करता हो।
पारंपरिक राऊत नाच के दोहों में लोक साहित्य की अभिव्यक्ति स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। साहित्य के गुणों के अनुरुप रस, छंद तथा अलंकार शब्द शक्ति आदि के दर्शन राऊत नाच के दोहों में परिलक्षित होता है।
ये दोहों लोगों के संघर्ष की कहानी को थोड़े-थोड़े शब्दों में व्यक्त करते हैं तथा संघर्ष की बोलियों का इनमें प्रवाहमान बना रहता है। लोगों के समकालीन सामाजिक चेतना का दर्शन भी इन दोहों में होता है ये दोहे सरस, मार्मिक, भावना प्रधान तथा लोक के अति निकट है। इनमें इतिहास, दर्शन अध्यात्म की झलक दिखाई देती है। इन यत्र तत्र बिखरे मोतियों को माला में पिरोने की आवश्यकता है।
पारंपरिक राऊत नाच के दोहो में 'लोकÓ की आत्मा का दर्शन किया जा सकता है। इन दोहों में न मात्र राऊत जाति के संबंध में ही ज्ञान होता है अपितु अतीत से वर्तमान काल तक के समाज का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत होता है, इन दोहों में सामाजिक परिवर्तन, सामाजिक गतिशीलता, सामाजिक चेतना आदि का अवलोकन किया जा सकता है।
लोक साहित्य की अभिव्यक्ति के रूप में राऊत नाच के दोहों में लोक के साथ साहित्य की विधाएं रस, छंद एवं अलंकार, शब्द शक्ति तथा गुण की झांकी की झलक दृष्टिगोचर होती है जो लोकहित के साथ समाज हित का प्रतिनिधित्व करते हुए लोक साहित्य के रूप को साकार करते हैं। राऊत नाच के दोहे यद्यपि वांग्मय है लिपिबद्ध नहीं किन्तु श्रवण-अनुश्रवण के द्वारा परम्परागत इन दोहों में साहित्य का रूप विद्यमान है तथा मौलिक रूप परिमार्जित होकर जिन नए रूपों में दृष्टिगोचर हो रहे हैं। कृपया निम्न दोहों में साहित्य के रसों का आस्वादन कीजिये-
1. श्रृंगार रस-
तरी सोहारी ऊपर सोहारी, चुपरे गाय के घीव रे।
चिक्कन कम अहिरा के मोहारी टूटी के जीव रे।
पोतिया पहिरे, धोतिया पहिरे अऊ लगाये लहुटिया कोट रे
छिन में अहिरा गाये दुहय, छिन में करे गोठ रे।।
पोचई आंखीं मं काजर आंजे, बूची कान म ढार रे।
खोरी गोड़ मं चूरा पहिरे ठमकत चलय बाजार रे।।
2. हास्य रस-
बाजा कहे कुबाजा, नगर कोट गहराय
नगर कोट के छोकरी उल्टा मांग हेराय।
ए पार नदी, ओ पार नदी, बीच में बंगाला हो।
समधीन के लइका होगे, ठोंक दे नगाड़ा हो।।
हाट गयेंव, बाजार गयेंव, उहां ले लायेंव पोनी।
घर जाके देखत तौ, टूरी के खशखश ले नोनी।
गोल्लर बइला के सिंग में देखेंव माटी।
भइया पहिरे हे सोन चांदी औ भौजी पहिरे घांटी।।
3. करुण रस-
सदा तोरइया ना बन फूलै, सदा न सावन होय।
सदा न मइया गोद म राखय, सदा न जीवन कोय।।
माता के गये से भोजन गय, पिता के गये से गये राज।
भाई के गये से बेटा गय, गुनगुन काटे ले होगे रात।
पाँच पेड़ पंच पेडिय़ा, पांचों में लपट गय चोर।
मने मन मँ झकत हौं, नहीं दिखें बल्ही मोर।।
सुरित मुरित के कोठली, बिन गोरस के गाय।
साधु मुनि के बछरु, जहां गल्ली-गल्ली अल्लाय।
4.रौद्र रस-
बाघ बाघ कइथा संगी, बाघ कहां से आय रे।
बाघ ढिला गे अहिरा घर के, फोर करेजा खाय रे।
आन गुनौ न सेन गुनौ, बिना बछुरा के गाय रे।
बेटा घुमै रे अहिरा के, मरना नहीं डराय रे।
5. वीर रस-
पहिली सुमिरौ दुल्हा देव ल, अखरा के गुरु वैताल।
चौसठ जोगिनी पुरखा के, बैहा मं होवै सहाय।।
कुकरी के पिला खलबल भइगे, धर-धर खावै बिलाव रे।
बेटवा जन्में हे अहिरा के, कैसे रहे लुकाय रे।।
भैंस कहौं भूरी ल, खूंदै खदर नइ खाय।
बाघ भालू के डेरा म, सिंग अड़ावत जाय।।
राजा खेलै दशहरा, परजा खेलै फाग।
या मस्त देवारी राऊत के, उड़ावै धुआंधार।
6. भयानक रस-
बर काटे बैमान कहाये, पिपर काटे अड़हा जान।
मौरत आमा ल जे काटै, तेला काटै भगवान।।
बामन होके नागर जोतै, बेशिया गंगा नहाय।
क्षत्री होके रन ले भागै, काट भवानी खाय।।
ज्ञानी मारे ज्ञान से, सारे अंग भीन जाय।
अड़हा मारे टेम्पा ले, मुड़ कान फूट जाये।।
बांस के लाठी, आठ गांठ नौ पोर रे।
तोला पाहौं बैरौ तो, उड़ाहौ कोरे कोर।।
7. वीभत्स रस-
सुबे नहाय मुरुख कहावैय, जाप करै शैतान।
फूसी मुंह म बासी खाये, दुखी रहे भगवान।
अजगर के डोरी बना ले, शेष नाग लपटाय।
छै बूंदिया के माला पहिरे, बिच्छी के कुंडल  लगाय।
8. अद्भुत रस-
छिन में कन्हैया बालक होगे छिन में पट्ठा जवान रे।
छिन में कन्हैया बुढ़वा होगे, डोलय बत्तीस दाँत रे।
आल्हा जन्मन, सुख जन्मन, सुख ल सरगे डाल रे।
बढ़ाई घंटा सोन बरसे, सोना सोन टकाय रे।
बिन माड़ी पहाड़ चढग़े, बिन मुंह के खार खाय।
बाखा फोड़ के पानी पीयय, बतावा कोन जानवर आय।।
पेड़ जमे पराग, घोंघा गये जगन्नाथ।
फूल-फूलै द्वारिका, फल लाय बद्रीनाथ।।
सूजी बराबर कोठा हे, जेमा नौ लाख गाय समाय।
आवा जाही म घरसा परसे, गोबर कहीं नई देखाय।
9. शांत रस-
नानमुन टंगली, नानमुन टंगली, चदन बेठ घराय।
कृष्ण बजावाय बाँसुरी, उड़त आवै धूल रे।
नाचत आवै नंद कन्हैया खोचें कमल के फूल रे।
एही जनम अऊ ओही जनम, जन्मे जात अहिर रे।
चिखला कांदा में कपड़ा भीजे, दूध म भीजे शरीर रे।
10. रौद्ररस-
बन म गरजे बनपति, डिलवा म गरजे नाग हो।
सास सुवासिन मड़वा में, कोठा में गरजे गाय हो।
11. वात्सल्य रस-
नदिया कहे लीलागर ला, पथना कहे पड़ गे आड़ हो।
धीरे-धीरे रेंगबे तै, बालक रहे चरवार हो।।
नद के हिंडोलना म कूद-कूद खेलै कृष्ण कन्हाई रे।
यशोदा जी पकड़े बर चलीच, तौ कृष्ण  जी करे लुकाई रे।।
राऊत नाच के दोहों में हमें अलंकार के
भी दर्शन होते हैं-
1. अनुप्रास -
पाँच पेड़ पच पेडिय़ा, पांचों मं लपट गये चोर।
मने मन म झकत हौं, नहीं दिखैं बल्ही मोर
2. यमक-
कारी-कारी दिखथत टूरी, नहीं करिया तोर विचार।
बर बन के आहूँ, टूरी, ले जाहूँ बर के पार।
(यहां कारी नाम की लड़की से एक लड़का कह रहा है- अरी कारी तुम काली है किन्तु विचार काला (कपटपूर्ण) नहीं है। अरी लड़की मैं दूल्हा बन के आऊंगा और बर पेड़ के उस पार ले जाऊंगा)
3. श्लेष-
गली-गली के घुमाई म, तहूं गये दुबलाय।
राउत के धन होते तो, राखत दूध पिलाय।।
यहां धन का अर्थ पुत्र है
4. रुपक-
चिंता जाल शरीर म दवा लगे जर जाय रे।
बाहर धुआं न उड़े अंदर से गुंगवाय रे।
यहां चिंता की तुलना दवा (आग) से की गई है।
5. उपमा-
हिरना कस सुघ्घर तोर आंखी, दिखे मोरो मन मोहाय।
तोर सुघराई ल देख के टूरी, मोला कुछु न सोहाय।।
6. उत्प्रेक्षा-
कुंज बन म घुमत रहिस, बलराम अऊ किसन कन्हाई रे।
देख के सब सोचय लगिन, जना चांद सूरुज दूनो भाई रे।।
राऊत नाच के दोहों में छंद के गुणों के अनुरूप गति तथा यति मिलते है दोहों में प्रवाह तथा विराम दिखाई देता है।
एक दूध दुधिया के, दूसर दूध भेंगराज।
पिये दूध माता अहिल्या के, कूदे बयालिस हाथ।।
राऊत नाच के दोहे मौखिक स्व स्फुरित तथा वांग्मय है। अत: इनमें छंद के गुणों के अनुरुप नियमबद्धता नहीं होती है। दोहे तुकान्त भी होते है एवं अतुकान्त भी होते हैं। दोहों में मात्राओं का परिपालन करना आवश्यक नहीं है। ये दोहे उच्च स्वर में उच्चारित किये जाते हैं तथा सिंहनाद करते हुए कहे जाते हैं। चूंकि दोहे मौखिक है अत: इनमें स्थायित्व नहीं होता वक्ता दोहों में घट बढ़ करते रहते हैं। समय की उपयोगिता तथा आवश्यकतानुसार दोहों में परिवर्तन होते रहते हैं।
तुकान्त दोहे-
एक दिन मरना है, मरघट म ले जाहै तरिया पार रे।
मजा उड़ा ले जिन्दगी मं, नई मिले मनुष तन अवतार रे।।
अतुकान्त-
ए पार नदी ओ पार नदी बीच म चरौंटा।
दाई के दूध पिये ददा के भरोसा।।
इसी प्रकार राऊत नाच के दोहों में काव्य के गुण तथा रीति मिलते हैं।

- ओज गुण-
बाघ-बाघ कहिथा संगी, बाघ कहां से आय।
बाघ ढिलागे अहिरा घर के, फोर कलेजा खाय।।
माधुर्य गुण-
तहूँ जवरिहा अऊ महूँ जवरिहा, खोंच ले गोंदा फूल रे।
काल परोदिन मर-हर जाबो, का गुन गाबो तोर रे।
सावन के महिना, पड़े तीजा तीहार।
सब के बेटी मायके चले, चंदा चले ससुराल।
प्रसाद गुण-
राधा जी के हाथों में, सुन्दर फूल सफेद
राधा पूछन कृष्ण से, कृष्ण नाम न लेत।
उक्त फूल तुमा है तुमा के कहने से तुम मेरी माँ का बोध होता है अत: कृष्ण जी राधा से फूल का नाम नहीं लेते।
इन दोहों में क्रमश: ओज गुण, माधुर्य तथा प्रसाद गुण के साथ वैदर्भी गौड़ी पांचाली एवं रीति मिलते हैं राऊत नाच के दोहे में तीनों शब्द शक्ति मिलते हैं
अमिधा शक्ति-
सब के कोला  म अताल-पताल मोर कोला म केरा।
सबके  डौकी कानी खोरी, मोर डौकी अलबेला।।
लक्षणा शक्ति-
बाघ-बाघ कहिथा संगी, बाघ कहां से आये।
बाघ ढिला गे राऊत घर के, बैहा अड़ावत जाय।
यहां बाघ का अर्थ बहादुर है,
वीर है, साहसी है। शक्तिशाली है।
व्यंजना शक्ति- घी डारे ले बाढय़,
अऊ बिना जीभ के खाय।
सुक्खा लकड़ी के भोजन करे, पानी पीय मर जाये।
इस दोहे में प्रचलित अर्थ और लाक्षणिक अर्थ से भाव की जानकारी नहीं मिलती किन्तु सम्पूर्ण लक्षण से मुक्त गुण से ही पता चलता है। इसका अर्थ अग्नि है। अत: इसमें व्यंजना शक्ति है। पहेलियों में व्यंजन शक्ति रहती है।
ब्याज निंदा-
सरकार के गुन ल मैं बखानों, करथे सबके भलाई।
दिन दूनी अऊ रात चौगुनी, बढ़ेगी महंगाई।।
ब्याज स्तुति-
नीम पेड़ तोला धिक्कार हे, सबको खिलाथय कड़ुवाई।
कडु़़वा चीज लगवा के, सबके मिटाथच खजुवाई।
साभार  रऊताही 1997

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