Sunday 24 July 2011

लोक साहित्य में स्वाधीनता की अनुगूँज

-आकांक्षा यादव
स्वतंत्रता व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है। आजादी का अर्थ सिर्फ राजनैतिक आजादी नहीं अपितु यह एक विस्तृत अवधारणा है, जिसमें व्यक्ति से लेकर राष्ट्र का हित व उसकी  परम्परायें छुपी हुई हैं। कभी सोने की चिडिय़ा कहे जाने वाले भारत राष्ट्र को भी पराधीनता के दौर से गुजरना पड़ा। पर पराधीनता का यह जाल लम्बे समय तक हमें बाँध नहीं पाया और राष्ट्रभक्तों की बदौलत हम पुन: स्वतंत्र हो गये। स्वतंत्रता रूपी यह क्रान्ति करवटें लेती हुयी लोकचेतना की उत्ताल तरंगों से आप्लावित है। यह आजादी हमें यूँ ही नहीं प्राप्त हुई वरन् इसके पीछे शहादत का इतिहास है। लाल-बाल-पाल ने इस संग्राम को एक पहचान दी तो महात्मा गाँधी ने इसे अपूर्व विस्तार दिया। एक तरफ सत्याग्रह की लाठी और दूसरी तरफ भगतसिंह व आजाद जैसे क्रान्तिकारियों द्वारा पराधीनता के खीलाफ  दिया गया इन्कलाब का अमोघ अस्त्र अंग्रेजी की हिंसा पर भारी पड़ा और अन्तत: 15
अगस्त 1947 के सूर्योदय ने अपनी कोमल रश्मियों से एक नये स्वाधीन भारत का स्वागत
किया।
 इतिहास अपनी गाथा खुद कहता है। सिर्फ पन्नों पर ही नहीं बल्कि लोकमानस के कंठ
में, गीतों और किवदंतियों इत्यादि के माध्यम से यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रवाहित होता रहता
है। वैसे भी इतिहास की वही लिपिबद्धता सार्थक और शाश्वत होती है जो बीते हुये कल
को उपलब्ध साक्ष्यों और प्रमाणों के आधार पर यथावत प्रस्तुत करती है। जरूरत है कि
इतिहास की उन गाथाओं को भी समेटा जाये जो मौखिक रूप में जन-जीवन में विद्यमान
है, तभी ऐतिहासिक घटनाओं का सार्थक विश्लेषण हो सकेगा। लोकलय की आत्मा में
मस्ती और उत्साह की सुगन्ध है तो पीड़ा का स्वाभाविक शब्द स्वर भी। कहा जाता है कि
पूरे देश में एक ही दिन 31 मई 1857 को क्रान्ति आरम्भ करने का निश्चय किया गया था,
पर 29 मार्च 1857 को बैरकपुर छावनी के सिपाही मंगल पाण्डे की शहादत से उठी
ज्वाला वक्त का इन्तजार नहीं कर सकी और प्रथम स्वाधीनता संग्राम का आगाज हो गया।
मंगल पाण्डे के बलिदान की दास्तां को लोक चेतना में यूँ व्यक्त किया गया है-
जब सत्तावनि के रारि भइलि
बीरन के बीर पुकार भइल
बलिया का मंगल पाण्डे के
बलिवेदी से ललकार भइल
मंगल मस्ती में चूर चलल पहिला बागी मसहूर चलल
गोरनि का पलटनि का आगे
बलिया के बाँका सूर चलल।
कहा जाता है कि 1857 की क्रान्ति की जनता करे भावी सूचना देने हेतु और उनमें सोयी
चेतना को जगाने हेतु 'कमलÓ और 'चपातीÓ जैसे लोकजीवन के प्रतीकों को संदेशवाहक
बनाकर देश के एक कोने से दूसरे कोने तक भेजा गया। यह कालिदास के मेघदूत की
तरह अतिरंजना नहीं अपितु एक सच्चाई थी। क्रान्ति का प्रतीक रहे 'कमलÓ और
'चपातीÓ का भी अपना रोचक इतिहास है। किंवदन्तियों के अनुसार एक बार नाना साहब
पेशवा की भेंट पंजाब के सूफी फकीर दस्ता बाबा से हुई। दस्सा बाबा ने तीन शर्तों के
आधार पर सहयोग की बात कही-सब जगह क्रान्ति एक साथ हो, क्रान्ति रात में आरम्भ
हो और अंग्रेजो की महिलाओं व बच्चों का कत्लेआम न किया जाय। नाना साहब की
हामी पर अलौकिक शक्तियों वाले दस्सा बाबा ने उन्हें अभिमंत्रित कमल के बीज दिये
तथा कहा कि इनका चूरा मिली आटा की चपातियाँ जहाँ-जहाँ वितरित की जायेंगी, वह
क्षेत्र विजित हो जायेगा। फिर क्या था, गाँव-गाँव तक क्रान्ति का संदेश फैलाने के लिए
चपातियाँ भेजी गई। कमल को तो भारतीय परम्परा में शुभ माना जाता है पर चपातियों को
भेजा जाना सदैव से अंग्रेज अफसरों के लिए रहस्य बना रहा। वैसे भी चपातियों का
संबंध मानव के भरण-पोषण से है। वी.डी. सावरकर ने एक जगह लिखा है कि-
'हिन्दुस्तान में जब भी क्रान्ति का मंगल कार्य हुआ, तब ही क्रान्ति-दूतों ने चपातियों द्वारा
देश के एक छोर से दूसरे छोर तक इस पावन संदेश को पहुँचाने के लिये इसी प्रकार का
अभियान चलाया गया था क्योंकि वेल्लोर के विद्रोह के समय में भी ऐसी ही चपातियों ने
सक्रिय योगदान दिया था चपाती (रोटी) की महत्ता मौलवी इस्माईल मेरठी इन पंक्तियों
में देखी जा सकती है-
मिले खुश्क रोटी जो आजाद रहकर
तो वह खौफो जिल्लत के हलवे से बेहतर
जो टूटी हुई झोंपड़ी वे जरर हो
भली उस महल से जहाँ कुछ खतर हो।
1857 की क्रान्ति वास्तव में जनमानस की क्रान्ति थी, तभी तो इसकी अनुगूँज लोक
साहित्य में भी सुनाई पड़ती है। भारतीय स्वाधीनता का संग्राम सिर्फ व्यक्तियों द्वारा नही
लड़ गया बल्कि कवियों और लोक गायकों ने भी लोगों को पे्ररित करने में प्रमुख भूमिका
निभाई। लोगों को इस संग्राम में शामिल होने हेतु प्रकट भाव को लोकगीतों में इस प्रकार
व्यक्त किया गया-
गाँव-गाँव में डुग्गी बाजल, बाबू के फिरल दुहाई
लोहा चबवाई के नेवता बा, सब जन आपन दल बदल
बाजन गंवकई के नेतवा, चूड़ी फोरवाई के नेवता
सिंदूर पोंछवाई के नेवता बा, रांड कहवार के नेवता।
राजस्थान के राष्ट्रवादी कवि शंकरदान सामोर ने मुखरता के साथ अंग्रेजो की गुलामी की
बेडिय़ाँ तोड़ देने का आह्नान किया-
आयौ औसर आज, प्रजा परव पूरण पालण
आयौ औसर आज, गरब गोरां रौ गालण
आयौ औसर आज, रीत रारवण हिंदवाणी
आयौ औसर आज, विकट रण खाग बजाणी
फाल हिरण चुक्या फटक, पाछो फाल न पावसी
आजाद हिन्द करवा अवर, औसर इस्यौ न आवसी।
1857 की लड़ाई आर-पार की लड़ाई थी। हर कोई चाहता था कि वह इस संग्राम में
अंग्रेजों के विरूद्ध जमकर लड़े। यहाँ तक कि ऐसे नौजवानों को जो घर में बैठे थे,
महिलाओं ने लोकगीत के माध्यम से व्यंग्य कसते हुए प्रेरित किया-
लागे सरम लाज घर में बैठ जाहु
मरद से बनिके लुगइया आए हरि
पहिरि के साड़ी, चूड़ी, मुंहवा छिपाई लेहु
राखि लेई तोहरी पगरइया आए हरि।
1857 की जनक्रान्ति का गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेहीÓ ने भी बड़ा जीवन्त वर्णन किया है।
उनकी कविता पढ़कर मानो 1857, चित्रपट की भाँति आँखों के सामने छा जाता है-
सम्राट बहादुरशाह 'जफरÓ, फिर आशाओं के केन्द्र बने
सेनानी निकले गाँव-गाँव, सरदार अनेक नरेन्द्र बन
लोहा इस भाँति लिया सबने, रंग फीका हुआ फिरंगी का
हिन्दू-मुस्लिम हो गये एक, रह गया न नाम दुरंगी का
अपमानित सैनिक मेरठ के, फिर स्वाभिमान से भड़क उठे
घनघोर बादलों-से गरजे, बिजली बन-बनकर का कड़क उठे
हर तरफ क्रान्ति ज्वाला दहकी, हर ओर शोर था जोरों का
पुतला बचने पाये न कहीं पर, भारत में अब गोरों का।
1857 की क्रांति की गूँज दिल्ली से दूर पूर्वी उत्तर प्रदेश के इलाकों में भी सुनाई दी थी।
वैसे भी उस समय तक अंग्रेजी फौज में ज्यादातर सैनिक इन्हीं क्षेत्रों के थे। स्वतंत्रता की
गाथाओं में इतिहास प्रसिद्ध चौरीचौरा की डुमरी रियासत बंधू सिंह का नाम आता है, जो
कि 1857 की क्रान्ति के दौरान अंग्रेजों का सिर कलम करके और चौरीचौरा के समीप
स्थित कुसुमी के जंगल में अवस्थित माँ तरकुलहा देवी के स्थान पर इसे चढ़ा देते। कहा
जाता है कि एक गद्दार के चलते अंग्रजों की गिरफ्त मेें आये बंधू सिंह को जब फाँसी दी
जा रही थी, तो सात बार फाँसी का फन्दा ही टूटता रहा। यही नहीं जब फाँसी के फन्दे से
उन्होंने दम तोड़ दिया तो उस पेड़ से रक्तस्राव होने लगा जहाँ बैठकर वे देवी से अंगे्रजों के
खलाफ लडऩे की शक्ति माँगते थे। पूर्वांचल के अंचलों में अभी भी यह पंक्तियाँ सुनायी
जाती हैं-
सात बार टूटल जब, फाँसी के रसरिया
गोरवन के अकिल गईल चकराय
असमय पड़ल माई गाढ़े में परनवा
अपने ही गोदिया में माई लेतु तू सुलाय
बंद भईल बोली रूकि गइली संसिया
नीर गोदी में बहाते, लेके बेटा के लशिया।
भारत को कभी सोने की चिडिय़ा कहा जाता था। पर अंग्रेजी राज ने हमारी सभ्यता व
संस्कृति पर घोर प्रहार किये और यहाँ की अर्थव्यवस्था को भी दयनीय अवस्था में पहुँचा
दिया। भारतेन्दु हरिशचन्द्र ने इस दुर्दशा का मार्मिक वर्णन किया है-
रोअहु सब मिलिकै आवहु भारत भाई
हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई
सबके पहिले जेहि ईश्वर धन बल दीनो
सबके पहले जेहि सभ्य विधाता कीनो
सबके पहिले जो रूप-रंग-भीनो
सबके पहिले विद्याफल जिन गहि लीनो
अब सबके पीछे सोई परत लखाई
हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई।
आजादी की सौगात भीख में नहीं मिलती बल्कि उसे छीनना पड़ता है। इसके लिये जरूरी
है कि समाज में कुछ नायक आगे आयें और शेष समाज उनका अनुसरण करे। ऐसे
नायकों की चर्चा गाँव-गाँव की चौपालों पर देखी जा सकती थी। बिरसा मुण्डा के बारे
प्रचलित एक मुंडारी लोकगीत के शब्द देखें-
तमाड़ परगना गेरडे अली हातु
बिरसा भोगवान-ए जानोम लेगा
आटा-माटा बिरको तला चलेकद रे दो
चले कद हतु रे उलगुलान लेदा।
गुरिल्ला शैली के कारण फिरंगियों में दहशत और आतंक का पर्याय बन क्रान्ति की ज्वाला
भड़काने वाले तात्या टोपे से अंग्रेजी रूह भी काँपती थी फिर उनका गुणगान क्यों न हो।
राजस्थानी कवि शंकरदान सामौर तात्या टोपे की महिला 'हिन्द नायकÓ के रूप में गाते
हैं-
जठै गयौ जंग जीतियो, खटकै बिण रण खेत
तकड़ौ लडिय़ाँ तांतियो, हिन्द थान रै हेत
मचायो हिन्द में आखी, तहल कौ तांतियो मोटो
धोम जेम घुमाओ लंक में हणूं घोर
रचाओ ऊजली राजपूती रो आखरी रंग
जंग में दिखायो सूवायो अथग जोर।
इसी प्रकार शंकरपुर के राना बेनीमाधव सिंह की वीरता को भी लोकगीतों में चित्रित किया
गया है-
राजा बहादुर सिपाही अवध में
धूम मचाई मोरे राम रे
लिख लिख चिठिया लाट ने भेजा
आब मिलो राना भाई रे
जंगी खिलत लंदन से मंगा दूं
अवध में सूबा बनाई रे।
1857 की क्रान्ति में जिस मनोयोग से पुरूष नायकों ने भाग लिया, महिलायें भी उनसे
पीछे न रहीं। लखनऊ में बेगम हजरत महल तो झाँसी में रानी लक्ष्मीबाई ने इस क्रान्ति की
अगुवाई की। बेगम हजरत महल ने लखनऊ की हार के बाद अवध के ग्रामीण क्षेत्रों में
जाकर क्रान्ति की चिन्गारी फैलाने का कार्य किया।
मजा हजरत ने नहीं पाई
केसर बाग लगाई
कलकत्ते से चला फिरंगी
तंबू कनात लगाई
पार उतरि लखनऊ का
आयो डेरा दिहिस लगाई
आस-पास लखनऊ का घेरा
सड़कन तोप धराईं।
रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी वीरता से अंग्रेजों के दाँत खट्टे कर दिये। उनकी मौत पर
जनरल ह्यूगरोज ने कहा था कि- 'यहाँ वह   औरत सोयी हुयह है, जो विद्रेही में एकमात्र
मर्द थी।Ó 'झाँसी की रानीÓ नामक अपनी कविता में सुभद्रा कुमारी चौहान 1857 की
उनकी वीरता का बखान करती हैं, पर उनसे पहले ही बुंदेलखण्ड की वादियों में दूर-दूर
तक लोक लय सुनाई देती है-
खूब लड़ी मरदानी, अरे झाँसी वारी रानी
पुरजन पुरजन तोपों लगा दई, गोला चलाए असमानी
अरे झाँसी वारी रानी, खूब लड़ी मरदानी
सबरे सिपाइन को पैरा जलेबी, अपन चलाई गुरधानी
दोड़ मोरचा जसकर कों दौरी, ढूढ़ेहूँ मिले नहीं पानी
अरे झाँसी वारी रानी, खूब लड़ी मरदानी।
1857 की क्रान्ति में शाहाबाद के 80 वर्षीय कुंवर सिंह को दानापुर के विद्रोही सैनिकों
द्वारा 27 जुलाई को आरा शहर पर कब्जा करने के बाद नेतृत्व की बागडोर सौंपी गयी।
बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के तमाम अंचलों में शेर बाबु कुंवर सिंह ने घूम-घूम कर
1857 की क्रान्ति की अलख जगायी। आज भी इस क्षेत्र में कुंवर सिंह को लेकर तमाम
किवदन्तियाँ मौजूद है। इस क्षेत्र के अधिकतर लोकगीतों में जनाकांक्षाओं को असली रूप
देने का श्रेय बाबु कुंवर सिंह को दिया गया-
अक्सर से चले कुंवर सिंह पटना आकर टीक
पटना के मजिस्टर बोले करो कुंवर को ठीक
अतुना बात जब सुने कुंवर सिंह दी बंगला फुकवाई
गली-गली मजिस्टर रोए लाट गये घबराईं।
1857 की क्रान्ति के दौरान ज्यों-ज्यों लोगों को अंग्रेजों की पराजय का समाचार मिलता वे
खुशी से झूम उठते। अजेय समझे जाने वाले अंग्रेजों का यह हश्र, उस क्रान्ति के साक्षी
कवि सखवत राय ने यूँ पेश किया है-
गिद्ध मेडराई स्वान स्यार आनंद छाये
कहिं गिरे गोरा कहीं हाथी बिना सूंड के।
1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम ने अंग्रेजी हुकुमत को हिलाकर रख दिया। बौखलाकर
अंगेजी हुकूमत ने लोगो को फाँसी दी, पेड़ों पर समूहों में लटका कर मृत्यु दण्ड दिया और
तोपों से बाँधकर दागा-
झूलि गइलें अमिली के डरियाँ
बजरिया गोपीगंज कई रहलि।
वहीं जिन जीवित लोगों से अंग्रेजी हुकूमत को ज्यादा खतरा महसूस हुआ, उन्हें
कालापानी की सजा दे दी। तभी तो अपने पति को कालापानी भेजे जाने पर एक महिला
'कजरीÓ के बोलो में कहती है-
अरे रामा नागर नैया जाला काले पनियां रे हरी
सबकर नैया जाला कासी हो बिसेसर रामा
नागर नैया जाला काले पनियां रे हरी
घरवा में रोवै नागर, माई और बहिनियां रामा
से जिया पैरोवे बारी धनिया रे हरि।
 बंगाल विभाजन के दौरान स्वदेशी-बहिष्कार- प्रतिरोध का नारा खूब चला। अंगे्रजी
कपड़ों की होली जलाना और उनका बहिष्कार करना देश भक्ति का शगल बन गया था,
फिर चाहे अंग्रेजी कपड़ों में ब्याह रचाने आये बाराती ही हों-
फिर जाहु-फिर जाहु घर का समधिया हो
मोर धिया रहि हैं कुंवारी
बसन उतारि सब फेंकहु विदेशिया हो
मोर पूत रहि हैं उधार
बसन सुदेसिया मंगाई पहिरबा हो
तब होइ है धिया के बियाह।
जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड अंग्रेजी हुकूमत की बर्बरता व नृशंसता का नमूना था। इस
हत्याकाण्ड ने भारतीयों विशेषकर नौजवानों की आत्मा को हिलाकर रख दिया। गुलामी
का इससे वीभत्स रूप हो भी नहीं सकता। सुभद्राकुमारी चौहान न े'जलियावाले बाग में
बसंतÓ नामक कविता के माध्यम से श्रद्धांजलि अर्पित की है-
कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा-खाकर
कलियाँ उनके लिए गिराना थोड़ी लाकर
आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं
अपने प्रिय-परिवार देश से भिन्न हुए हैं
कुछ कलियाँ अधखिली यहाँ इसलिए चढ़ाना
करके उनकी याद अश्रु की ओस बहाना
तड़प-तड़पकर वृद्ध मरे हैं गोली खाकर
शुष्क पुष्प कुछ वहाँ गिरा देना तुम जाकर
यह सब करना, किन्तु बहुत धीरे-से आना
यह है शोक-स्थान, यहाँ मत शोर मचाना।
कोई भी क्रान्ति बिना खून के पूरी नहीं होती, चाहे कितने ही बड़े दावें किये जायें।
भारतीय स्वाधीनता संग्राम में एक ऐसा भी दौर आया जब कुछ नौजवानों ने अंग्रेजी
हुकूमत की चूल हिला दी, नतीजन अंग्रेजी सराकार उन्हें जेल में डालने के लिए तड़प
उठी। 11 अगस्त 1908 को जब 15 वर्षीय क्रान्तिकारी खुदीराम बोस को अंग्रेजी सरकार
ने निर्ममता से फाँसी पर लटका दिया तो मशहूर उपन्यासकार प्रेमचन्द के अन्दर का
देशप्रेम भी हिलोरें मारने लगा और वे खुदीराम बोस की एक तस्वीर बाजार से खरीदकर
अपने घर लाये तथा कमरे की दीवार पर टांग दिया। खुदीराम बोस को फाँसी दिये जाने से
एक वर्ष पूर्व ही उन्होंने 'दुनिया का सबसे अनमोल रतनÓ नामक अपनी प्रथम कहानी
लिखी थी, जिसके अनुसार-'खून की वह आखिरी बूँद जो देश की आजादी के लिये
गिरे, वही दुनिया का सबसे अनमोल रतन है।Ó उस समय अंग्रेजी सैनिकों की पदचाप
सुनते ही बहनें चौकन्नी हो जाती थीं। तभी तो सुभद्राकुमारी चौहान ने 'बिदाÓ में लिखा
कि-
गिरफ्तार होने वाले हैं
आता है वारंट अभी
धक्-सा हुआ ह्दय, मैं सहमी
हुए विकल आशंक सभी
मैं पुलकित हो उठी! यहाँ भी
आज गिरफ्तारी होगी
फिर जी घड़का, क्या भैया की
सचमुच तैयारी होगी।
 आजादी के दीवाने सभी थे। हर पत्नी की दिली तमन्ना होती थी कि उसका भी पति इस
दीवानगी में शामिल हो। तभी तो पत्नी पति के लिए गाती है-
जागा बलम् गाँधी टोपी वाले आई गइ लैं......
राजगुरू सुखदेव भगत सिंह हो
तहरे जगावे बदे फाँसी पर चढ़ाय गइलै।
    सरदार भगत सिंह क्रान्तिकारी आन्दोलन के अगुवा थे, जिन्होंने हँसते-हँसते फाँसी
के फन्दों को चूम लिया था। एक लोकगायक भगत सिंह के इस तरह जाने को बर्दाश्त
नहीं कर पाता और गाता है- एक-एक क्षण बिलम्ब का मुझे यातना दे रहा है-
तुम्हारा फंदा मेरे गरदन में छोटा क्यों पड़ रहा है
मैं एक नायक की तरह सीधा स्वर्ग में जाऊँगा
अपनी-अपनी फरियाद धर्मराज को सुनाऊँगा
मै उनसे अपना वीर भगत सिंह माँग लाऊँगा।
    इसी प्रकार चन्द्रशेखर आजाद की शहादत पर उन्हें याद करते हुए एक अंगिका
लोकगीत में कहा गया-
हौ आजाद त्वौं अपनौ प्राणे कस
आहिुति दै के मातृभूमि कै आजाद करैलहों
तोरो कुर्बानी हम्मै जिनगगी भर नैस भुलैबे
देश तोरो रिनी रहेते।
सुभाष चन्द्र बोस ने नारा दिया कि- 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगाÓ, फिर क्या
था पुरूषों के साथ-साथ महिलाएँ भी उनकी फौज में शामिल होने के लिए बेकरार हो
उठी-
हरे रामा सुभाष चन्द्र ने फौज सजायी रे हारी
कड़ा-कड़ा पैंजनिया छोड़बै हाथ कंगनवा रामा
हरे रामा, हाथ में झण्डा लै के जुलूस निकलबैं रे हारी।
महात्मा गाँधी आजादी के दौर के सबसे बड़े नेता थे। चरखा कातने द्वारा उन्होंने
स्वावलम्बन और स्वदेशी का रूझान जगाया। नौजवान अपनी-अपनी धुन में गाँधी जी को
प्रेरणास्त्रोत मानते और एक स्वर में गाते-
अपने हाथे चरखा चलउबै
हमार कोऊ का करिहैं
गाँधी बाबा से लगन लगउबै
हमार कोई का करिहैं।
भारत माता की गुलामी की बेडिय़ा काटने में असंख्य लोग शहीद हो गये, बस इस आस
के साथ कि आने वाली पीढिय़ाँ स्वाधीनता की बेला में साँस ले सकें। इन शहीदों की तो
अब बस यादें बची हैं और इनके चलते पीढिय़ाँ मुक्त जीवन के सपने देख रही हैं।
कविवर जगदम्बा प्रसाद मिश्र 'हितैषीÓ इन कुर्बानियों को व्यर्थ नहीं जाने देते-
शहीदों की चिताओं पर जुड़ेगे हर बरस मेले
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा
कभी वह दिन भी आएगा, जब अपना राज देखेंगे
जब अपनी ही जमीं होगी और अपना आसमाँ होगा।
देश आजाद हुआ। 15 अगस्त 1947 के सूर्योदय की बेला में विजय का आभास हो रहा
था। फिर कवि लोकमन को कैसे समझाता। आखिर उसके मन की तरंगें भी तो लोक से
ही संचालित होती हैं। कवि सुमित्रानन्दन पंत इस सुखद अनुभूति को यूँ संजोते हैं-
चिर प्रणम्य यह पुण्य अहन्, जय गाओ सुरगण
आज अवतरित हुई चेतना भू पर नूतन
नव भारत, फिर चीर युगों का तमस आवरण
तरूण-अरूण-सा अदित हुआ परिदीप्त कर भुवन
सभ्य हुआ अब विश्व, सभ्य धरणी का जीवन
 देश आजाद हो गया, पर अंग्रेज इस देश की सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक व्यवस्था
को छिन्न-भिन्न कर गये। एक तरफ आजादी की उमंग, दूसरी तरफ गुलामी की छायाओं
का डर........ गिरिजाकुमार माथुर 'पन्द्रह अगस्तÓ की बेला पर उल्लास भी व्यक्त करते हैं
और सचेत भी करते हैं-
आज जीत की रात, पहरूए, सावधान रहना
खुले देश के द्वार, अचल दीपक समान रहना
ऊँची हुई मशाल हमारी, आगे कठिन डगर है
शत्रु हट गया, लेकिन उसकी छायाओं का डर है
शोषण से मृत है समाज, कमजोर हमारा घर है
किन्तु आ रही नई जिंदगी, यह विश्वास अमर है।
आजादी की कहानी सिर्फ एक गाथा भर नहीं है बल्कि एक दास्तान है कि क्यों हम
बेडिय़ो में जकड़े, किस प्रकार की यातनायें हमने सहीं और शहीदों की किन कुर्बानियों के
साथ हम आजाद हुये। यह ऐतिहासिक घटनाक्रम की मात्र एक शोभा यात्रा नहीं अपितु
भारतीय स्वाभिमान का संघर्ष, राजनैतिक दमन व आर्थिक शोषण के विरूद्ध लोक चेतना
का प्रबुद्ध अभिमान एवं सांस्कृतिक नवोन्मेष की दास्तान है। जरूरत है हम अपनी
कमजोरियों का विश£ेषण करें, तद्नुसार उनसे लडऩे की चुनौतियाँ स्वीकारें और नए
परिवेश में नए जोश के साथ आजादी के नये अर्थो के साथ एक सुखी व समृद्ध भारत का
निर्माण करें।     (साभार रौताही 2011)
                                                                        टाइप 5 क्वार्टर, हॉर्टीकल्वर रोड,
                                                                       हैडो, पोर्टब्लेयर, अंडमान व निकोबार
                                                                        द्वीप समूह - 744102

अखिल भारतीय यादव महासभा के पदाधिकारी

क्र.    नाम                       पता                                                                    मोबाइल नं.
1.    श्री वृन्दावन यादव    घागरपारा रायगढ़                                               9301010273
2.    श्री एम.एल.यादव    शारदा विहार कोरबा                                             9039695501
3.    श्री संतोष यादव    सर्वमंगला पारा कोरबा                                            9575341395
4.    श्री माखनलाल यादव    एसजीपी कालोनी कोरबा                                9827166879
5.    श्री शिवलाल यादव    प्राचार्य माता देवालय वार्ड भाठापारा                   9098981823
6.    श्री पुरुषोत्तम यादव    राजा तालाब रायपुर                                         9993404756
7.    श्री राजकुमार यदु    सिघोरा (पलारी)                                                9754232145
8.    श्री जगनीक यादव    छ.ग. सदन पो.आ.के पास भिलाई                   9907196500
9.    श्री शिवकुमार यादव    बिलासपुर                                                  9926999196
10.    श्री अजय गोपाल    नगर पंचायत अध्यक्ष सारंगढ़                      9406386557
11.    श्री संतोष यादव    सर्वमंगला पारा, कोरबा, जिला-कोरबा             9575341395
12.    श्री कन्हैयालाल यादव    एल-32 जेकेडी एरिया मनेन्द्रगढ़           9303656187
13.    रामचन्द्र यादव    सरगुजा पो. आफिस सिलथिली थाना-जयनगर    9826513983
14.    पुरुषोत्तम यादव    पार्षद कुरा  धरसीवा जिला-रायपुर                 98267-89157
15.    शरद यादव    भिलाई क्वाटर 1 डी सड़क 39 सेक्टर भिलाई     9907429293,
                                                                                            9827548449
16.    राजकुमार यादव    रेंजर कोरिया बैकुंठपुर                     99261-38808
17.    श्यामलाल यादव    राजनांदगांव पूर्व पार्षद प्रभात पारा राजनांदगांव    9301833887
18.    बलिराम यादव    पूर्व सरपंच धरसींवा रायपुर                                9753167384
19.    भागीरथी यादव    बघर्रा (कवर्धा) थाना-कुण्डा                                9772105661
20.    सुदबल यादव    कुनकुरी जशपुर                                               9406089516
21.    नन्दपाल यादव    कृष्णानगर रायपुर                                    9977736081   9826674207
22.    श्री सुन्दरलाल यादव    दुर्गा मंदिर के पास श्यामनगर रायपुर    9424214231
23.    श्री शरद यादव    क्वा. नं. 1 डी सड़क 39 भिलाई              9827548449,            9907429293
24.    श्री जगनीक यादव    भिलाई                                           9907196500
25.    श्री कमल यादव    गीतांजलि नगर के बाजू शंकर नगर रायपुर    9826415796
26.    श्री हीरालाल यादव    जांजगीर                                       9329832914
27.    श्री पवन कुमार यादव    गंगानगर रायपुर                    9907108007
28.    श्री लहरी राम यादव    मु.पो. कोसमपाली जैजैपुर            9329732648
29.    श्री दूजेराम यादव    बलौदाबाजार                               9826748015
30.    श्री संतोष यादव     बलौदाबाजार                              9977614369
31.    श्री संतूलाल यादव    सुभाष चौक, सुपेला जिला दुर्गा    9303070372
32.    श्री दयाराम यादव    सेम्हराडीह राजिम जिला रायपुर    9755248561
33.    श्री नरेन्द्र यदु अधिवक्ता    भाटापारा जिला रायपुर    98261-22607
34.    श्री संतोष यादव    सर्वमंगला पारा कोरबा    9575341395
35.    श्री भोजराज सिंह अहीर    तेलीपारा बंजारीचौक रायपुर    9630733200
36.    श्री उमेंदराम यादव    ग्राम पाली, कोरबा    8120805060
37.    श्री छहूरा यादव    सर्वमंगला नगर दुरपा कोरबा    9826687266
38.    श्री सहसराम भोपाल                                      9303039346
39.    श्री संतोष यादव     सर्वमंगला नगर कोरबा     9575341395

विख्यात मेलों का जनपद महेन्द्रगढ़

-समसेर कोसलिया 'नरेश'
महेन्द्रगढ़ जनपद आज भले ही राजनैतिक क्षेत्र में पिछड़ा हुआ हो किन्तु इसका अतीत
समृद्ध एवं महत्वपूर्ण रहा है। यहां के तीन प्रसिद्ध ऋषियों के मार्ग दर्शन से पूरा संसार
विज्ञान की ऊचाईयों को छूने में कामयाब हुआ है। ऋषि मुनियों, संत महात्माओं, देवी-
देवताओं से जूड़े स्थलों पर उत्सवों, मेलों का आयोजन होना स्वाभाविक है।
मेलों का प्रचलन हमारे देश में प्राचीनकाल से ही रहा है। मेला शब्द का अर्थ बहुत से
लोगों का जमावड़ा, भीड़-भाड़ उत्सव आदि होता है। एक पुरानी कहावत ''मेला मेली
का, पैसा धेली का,धक्का पेली का। कहावत में ठीक ही कहा गया है कि मेले में दूर-
दराज के सगे सम्बन्धि मिलते हैं। मेले में वस्तुओं को खरीदने हेतु धन खर्च होना
स्वाभाविक है। जहां भीड़-भाड़ हो तो वहां धक्कम-धक्का तो होगी ही। ये मेले हमारे
महापुरूषों के जन्म दिवस,पुन्य तिथियों एवं विभिन्न तीज त्यौहारों के अवसरों पर भरते हैं।
जनपद के मेले ज्यादातर किसी ऋषि-मुनि, सन्त-महात्मा, अवतार या सिद्ध पुरूष के
जन्म या कर्म स्थल और पुराने कथाओं से सम्बन्धित हैं। अनेक युग पुरूषों की स्मृति में
अनेक समाधि स्थलों पर हर साल उत्सवों जैसा आयोजन होता है। ऐसे स्थलों पर देवी-
देवताओं आदि से सम्बन्धित चमत्कार की अनेक जन कथायें जुड़ जाने से लागों में
आस्था एवं विश्वास का मजबूत होना स्वाभाविक ही है। इसलिए ये कथायें भक्तों को मेलों
में सामिल होने के लिए प्रेरणा का कार्य करती रही हैं। बीरबल जैसे ज्ञानी सूरवंशी
बादशाह शेरशाह सूरी की जन्म स्थली, नित्यानन्द, सूखीराम, शिवलाल, मोहर सिंह,
बख्तावर, सम्भुदास, जैसे कवियों की जन्म भूमि एवं च्यवन, पिप्लाद, उद्दालय ऋषि-
मुनियों की तप स्थली व कुशालदास शान्तीनाथ, खेतानाथ,सेवादास, खेमदास, खिम्मज,
रामेश्वरदास, जयरामदास, मोलडऩाथ आदि सन्तों की कर्मभूमि के गौरव जनपद के प्रमुख
मेले निम्र हैं-
मेहेन्द्रगढ़ जनपद के मुख्यालय एवं प्राचीन राजा नूनकरण के बसाये ऐतिहासिक व
पुरातात्वीक महत्व के शहर नारनौल से पश्चिम में कोई आठ किलोमिटर की दूरी पर स्थित
ढोसी पर्वत च्यवन ऋष्ज्ञि के नाम से जुड़ा एक प्रसिद्ध आस्था का केन्द्र है। आरावली
पर्वत श्रृंखला के ढोसी स्थित विशाल पर्वत की चोटी पर एक बड़ा व खुला मैदान है। इस
मैदान में मन्दिर व पवित्र कुण्डों का स्थान धार्मिक लोक आस्था का केन्द्र है। इसी मैदान
पर भृगु पौत्र, च्यवन ऋषि ने अनेक वर्ष तक तपस्या की और अपनी घोर साधना से एक
प्राश (औषधि) की खोज की थी जो च्यवनप्राश के नाम से जग में प्रसिद्ध है। पर्वत पर
स्थित मैैदान के पास एक विशाल चट्टान के पास एक गुफा आज भी मौजूद है। जहां
तपस्या की थी च्यवन ऋषि ने। सोमवती अमावस्या के दिन यहां विशाल मेला लगता हैं
इस दिन यहां की चहल-पहल बड़ी मनमोहक होती है। हरियाण ही नहीं अपितु देश के
कौन-कौन से लाखों भक्तजन यहां पंहुचते हैं। पहाड़ की दुर्गम चढ़ाई को रंग-बिरंगे
परिधानों में सजे बच्चे, युवक, युवतियां व बूढ़े बड़े ही चाव से परिपूर्ण होकर चढ़ते हैं।
यह अरावली पर्वत श्रंखला का एक विशाल पर्वत है। जनपद के गांव कुलताजपुर जो
पर्वत के दक्षिण मेें है वहां से सुगम सिढिय़ों की चढ़ाई शुरू होती है जो पत्थर की
घुमावदार सिढिय़ां संख्या में 475 हैं। चढ़ाई आरम्भ करने के पश्चात करीब 500 फिट की
ऊंचाई पर शिव कुण्ड नामक स्थल आता है। जहां एक प्राकृतिक झरना है जिसका जल
तालाब में गिरता रहता है ओर इसी तालाब में भगतजन स्नान करते हैं। अससे आगे ज्यों-
ज्यों चढ़ाई चढ़ते हैं तो कुदरती नजारा बड़ा खुश नशीब दीख पड़ता है। दूर दूर तक
धरातल पर फैले खेतों की हरियाली का आकर्षक नजारा तीर्थ यात्रियों का मन मोह लेने
से भी नहीं चूकता।
ढोसी पर्वत की चोटी पर पंहुचने के बाद लगभग 200 फिट नीचे की ओर मैदान पर
उतरना होता है। यह वह स्थान है। जहां धरती पर होने का भ्रम होता है मगर वह स्थान तो
धरातल से हजारों गज की ऊंचाई पर है। यहां का शान्त परिवेश मन को बड़ी शान्ती देने में
समर्थ है। यहां पर शोरगुल की दुनिया से दूर रहकर कुदरत की गोद में रहकर व्यस्त
दिनचर्या से निजात पाया जा सकता है। पर्वत पर चट्टानों का टिकाव देखने योग्य है
जिन्हें देखेने से ऐसा लगता है कि ये चट्टाने अब गिरी तब गिरी किन्तु ये चट्टाने युगा-
युगो से ज्यों की त्यों अडिग हैं। एक जन श्रुति है कि पर्वत पर चट्टानों के मध्य सफेद
लकीरें अर्जुन के रथ के पहियों के निशान हैं। यह वही स्थल है जहां राजा श्र्याति की पुत्री
सुकन्या का विवाह ऋषि चयवन से हुआ था और सुकन्या की कोख से जमदग्री ऋषि का
जन्म हुआ था।
प्राकृतिक सौन्दर्य व धार्मिक विश्वास सदा से ही यह स्थान लोकार्षण का केन्द्र रहा है।
इसी वजह से शायद नारनौल शहर को बसाने वाले राजा नूनकर्ण ने पहले पहल इसी पर्वत
पर अपना दुर्ग बनवाया था। पर्वत पर बिखरे दुर्ग के अवशेष इसके मूक गवाह बताये जाते
हैं। जिला प्रशासन ने इस धार्मिक स्थल पर श्रद्धालुओं की आस्था को ध्यान में रखकर ही
पीने के पानी का अचित प्रबन्ध व यात्रियों के ठहरने हेतु स्थल बनाने का कार्यक्रम तैयार
किया हुआ है। गत 4 नवम्बर 2003 को भारतीय संस्कृति एवं कलानिधि हरियाणा की
अध्यक्षा श्रीमती कोमल आनन्द ने ढोसी पर्वत का पुरातात्विक टीम के साथ दौरा किया
था। ढोसी पर्वत को एतिहासिक एवं मनोहारी मानकर तीन हरियाणवीं फिल्मों झनकदार
कंगना, जर जोरू और जमीन और लाडो की सूटिंग यही हुई थी।
नाभा रियासत के राजा हीरासिंह को संतान प्राप्ति हेतु काटी के परगने दार ने सलाह दी थी
कि बाबा नरसिंहदास से संतान प्राप्ति हेतु मिले। राजा-रानी बाबाजी से मिले तो बाबा के
आशिर्वाद से राजा को टिब्बा सिंह व टिब्बा बाई के रूप में एक लड़का वे एक लड़की
की प्राप्तिज हुई। राजा ने बाबा कुटिया वाले स्थल पर एक भव्य मन्दिर का निर्माण
करवाया और पुजारी के वेतन की व्यवस्था राज खजाने से की। यह व्यवस्था हरियाणा
अलग राज्य बनने तक जारी रही। यहां पर प्रति वर्ष बसन्त पंचमी व कार्तिक सुदी द्वितीया
को भव्य मेले लगते हैं। गांव में सरभंगी संत गणेश दास जी की याद में मकर स्क्रान्ति को
मेला लगता है। बाबा नरसिंहदास मन्दिर में प्राचीन एवं दुर्लभ हस्तचलित हवा का पंखा
आज भी विराजमान है।
महेन्द्रगढ़ शहर से चरखी दादरी सड़क पर 9 किलोमीटर दूर गांव पाली में बाबा
जयरामदास की याद में मागबदी एकादशी को मेला भरता है। कहा जाता है कि पटियाला
के राजा नरेन्द्र सिंह को बाबा के वरदान से महेन्द्र सिंह नामक पुत्र की प्राप्ति हुई थी। राजा
ने खुश होकर कानौड़ का नाम राजकुमार के नाम पर महेन्द्रगढ़ रखा और इस तमाम क्षेत्र
की पांच वर्ष की उगाही माफ कर दी थी। वीरों की एवं कान्हा की नगरी के नाम से जाना
जाने वाला नगर कनीना में बस अड्डे के पास 'फाल्गुन सुदी एकादशी को बाबा
मोलडऩाथ की याद में भव्य मेला ही नहीं लगता अपितु मेले के अवसर पर ऊट-घोड़ो
की दौड़ मुख्य आकर्षण का केन्द्र होते हैं। इस इक्कीसवी सदी में भी श्रद्धालुजन शक्कर का
ही प्रसाद बांटते हैं। बहुत से श्रद्धालुजन बाबा जयरामदास और बाबा मोलडऩाथ के चरणों
में शराब का भोग लगाते हैं। यह गलत धारणा पता नहीं कहां से आ पनपी।
महेन्द्रकढ़ शहर से आठ किलोमिटर की दूरी पर स्थित गांव बुवानिया के खुडाली नामक
स्थल पर बाबा खेमदास की याद में धुलण्डी को विशाल मेला लगता है। बाबा परमसिद्ध
पुरूष्ज्ञ थे। वहीं बाबा के शिष्य भगवानदास के चेले अमरदास एक अच्छे वैद्य भी हैं और
लोगों की निशुल्क सेवा भी कर रहे हैं। चढ़ाया इतनां आता है कि दवाओं के खर्च के
अलावा बचे हुए धन से वरिष्ट माध्यमिक विद्यालय भवन में दर्जनों कमरों का निर्माण व
धर्मशाला का निर्माण भी करवाया गया है। महेन्द्रगढ़ शहर से करीब 16 किलोमिटर दूर
सेहलंग गांव में बाबा खिमज की याद में बसन्त पंचमी के दो दिन बाद अरावली पर्वत
श्रंखला की सुन्दर पहाड़ी पर एक विशाल मेला लगता है। महेनद्रगढ़ शहर से कोई 12
किलोमिटर दूर माण्डोला गांव में बाबा केसरिया मन्दिर में भादवा बदी शप्तमी को विशाल
मेला भरता है। इस मेले के अवसर पर रेल विभाग रेवाड़ी बीकानेर के बीच कई और रेल
गाडिय़ा चलाता है। कहा जाता है कि बाबा की कृपा से बिना किसी दवा दारू, झाडफ़ुंक
के सांप के काटे रोगी का अपने आप ही ईलाज हो जाता है। मन्दिर प्रांगण में खड़े जाटी
के पेड़ का टहनी से पनपना एक चमत्कार माना जाता है।
महेन्द्रगढ़ शहर में मसानी मुहल्ले के पास माँ मसानी का भव्य मेला धुलण्डी के सात दिन
बाद आने वाले बुद्धवार को लगता है। यहां पर स्थित माता मसानी का मन्दिर हजारों वर्ष
पूर्व किसी बंजारे के हाथों से निर्माण हुआ बताया जाता है। भोजावास में बाबा जिन्दा का,
भादवा बदी नवमी को गांव बुवानिया, कनीना में भी भव्य मेले लगते हैं। देवी माँ का मेला
चेत्र बदी अष्ठमी को नांगल चौधरी में, कनीना अटेली मार्ग पर गांव महासर में चैत्र व
आसोज सुदी सप्तमी को विशाल मेले लगते हैं। ये मेले दुर्गा माता से मनोकामना पूर्ति हेतु
भरते हैं। इस दिन सैकड़ोंं गांवों के लोग अपने नवजात शिशुओं की धोक लगवाने यहां
आते हैं। संत कबीरदास की जयन्ती को गांव कमानिया में। गांव बिहाली में 15 अगस्त व
26 जनवरी को महान स्वतन्त्रता सेनानी राव तुलाराम की याद में, चैत्र सुदी नवमी को दुर्गा
माता का भव्य मेला गांव सहबाजपुर में। गांव खेड़ी में राम नवमी को भारी मेला लगता है।
बाघेश्वर धाम का मेला प्रत्येक शिवरात्रि को भरता है। सावन का महिना लगते ही जब
समुचा परिवेश बारिस की रिम-झिम फुंहारों में नहाकर इक नई सुरभि से सुवासित हो
उठता है और प्रकृति हरितिमा का नया परिधान ओड कर इठला पड़ती है तब हरियाणा का
बाघेश्वर धाम नामक तीर्थ स्थल एक नये स्पन्दन से झंकृत हो जाता है। हरियाणा के
विभिन्न भागों तथा पड़ोसी प्रदेशों से भी कंधे पर कावड़ उठाये तीर्थ यात्रियों की कभी न
टूटने वाली कड़ी 'बोल बमÓ मेले की ओर अग्रसर होती दीख पड़ती है। प्रयाग मेले की
ही भांति यह मेला पूरे मास चलता है और तीर्थ यात्रियों का यहां पहुंचना निरन्तर जारी
रहता है।
कावडिय़ों के नाम से विख्यात यहां श्रद्धालुजन बांस की सजी-सजाई कावड़ के छोरो पर
एक-एक शुद्ध पात्र में गंगाजल और मन में श्रद्धा का सागर लिये किसी अदृश्य शक्ति से
संचालित आस्था के वशीभूत कंटका कीर्ण मार्ग के घाटों से होकर अपनी नियति का
अभिसार करने बाघेश्वर धाम पंहुचते है। श्रद्धालुजन चार तरह की कावड़े लाते है जिनमे
खड़ी, बैठी, झूला और डाक कावड़ होती है। बैठी व झूला कावड़ को लाने में एक-एक
श्रद्धालु की जरूरत होती है। खड़ी कावड़ को लाने में दो की आवश्यकता होती है। डाक
कावड़ को 10-12 श्रद्धालुओं की मदद से दौड़ते हुए हरिद्वार से बाघोत तक लाते हैं तथा
एक वाहन उनके साथ चलता है। इस तीर्थ स्थल को देश में पवित्रतम माना जाता है तथा
शिव के उपासक गोमुख तथा हरिद्वार से लाए गंगाजल का अध्र्य शिवलिंग पर चढ़ाकर
स्वयं को धन्य समझते हैं।
लोक परम्परा तथा आस्था से बधे लाखों अनाम तीर्थ यात्री न केवल प्रदेश के विभिन्न
हिस्सों से होते हैं बल्कि पंजाब, हिमाचल, राजस्थान, उत्तरप्रदेश और दिल्ली जैसे प्रदेशों
से ज्यादा संख्या में आते हैं। बाघेश्वर धाम शिवमंदिर के स्वयभू शिवलिंग की यद्यपि पूरे
वर्ष पूजा-अर्चना की जाती है, पर सावन के महीने में यहां आराधना का विशेष महत्त्व है।
गैरूए वस्त्रधारी तीर्थ यात्री बाघोत से कोई 350 किमी दूर हरिद्वार (हरकीपौड़ी) तथा कोई
600 किमी दूर गोमुख (गंगोत्री) में गंगा की निर्मल जलधारा से पवित्र जल दो शुद्ध पात्रों
में एकत्र कर मन्दिर तक का समूचा रास्ता नंगे पाव तय करते हैं।
सावन लगते ही कावडिय़ों का एक अन्तहीन सिलसिला गोमुख तथा हरिद्वार से
बाघेश्वरधाम के समचे मार्ग को नए स्पदंन से जीवन्त बना देता है। बोल बल, बोल बम
का जाप करते ये तीर्थ यात्री समूचे परिवेश को प्रतिनिधित्व कर देते हैं। कभी-कभी कोई
बोल उठता है, जयकारा वीर बजरंगी, संग चल रहे यात्रि दोहराते हैं. हर-हर महादेव।
आस्था से उनका पथ ऐसे क्षणों में दूरियों को सिमटा देता है।
बाघेश्वर धाम मन्दिर का निर्माण रैबारी राजा कल्याण सिंह द्वारा करवाया जाता है। उनके
ऊट खो गए थे या डाकुओं ने लूट लिए थे जो शिवजी की कृपा से पुन: मिलने पर शिव
मन्दिर का निर्माण कलियाणा के राजा कल्याण सिंह ने करवाया। मन्दिर में स्वयं उत्पन्न
शिवलिंग आज भी है जो कभी भगवान राम के पूर्वज राजा दिलीप को भगवान शिव ने
बाघ रूप में दर्शन दे पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया था। बाघ रूप में दर्शन देने के कारण इस
धाम का नाम 'बाघेश्वर धाम पड़ा। कुछेक लोगों का कथन है कि यहां हरियेक वन में
बाघों का अधिकता होने के कारण इस धाम का नाम 'बाघेश्वर धाम पड़ा। चाहे जैसे भी
पड़ा हो किन्तु नाम से ही गांव का नाम बाघोत पड़ा।
बाघोत गांव महेन्द्रगढ़ शहर से उत्तरपूर्व में करीब 25 किलोमीटर खण्ड कनीना से उत्तर में
करीब 18 किमी चरखीदादरी से दक्षिण में कोई 22 किमी कोसली से पश्चिम में कोई 22
किमी दूरी पर स्थित है। सावन मास में भरने वाले मेले के अवसर पर यहां दूर-दराज क्षेत्रों
के सेवकों की सैकड़ों सेवा समितियां होती है जो मेले में लोगों की मदद व नियंत्रण करती
है। पूरा जिला प्रशासन इस समय मेले में ही होता है। सावन मास के अलावा यहां पर
फाल्गुन माह की महाशिवरात्रि को भी विशाल मेला लगता है। सावन माह में तो यहां
आधा करोड़ से भी ज्यादा श्रद्धालु शिवलिंग पर अपनी श्रद्धा का अभिषेक करने पहुंचते
हैं। इन अवसरों पर बड़ी-बड़ी कुश्तियों का आयोजन होता है। यहां शिव मंदिर में पीढ़ी
दर पीढ़ी पुजारी रहते आए हैं। गत शिवरात्रि के मेले के अवसर पर प्रशासन द्वारा ट्रस्ट
बना दिया गया था मगर पुजारी कोर्ट से स्टे ले आया बताया जाता है। इस मेले के अलावा
फाल्गुन एकादशी को श्याम जी का भव्य मेला लगता है। धाम पर करीब 45 धर्मशालाएं
यात्रियों के विश्राम के लिए बनाई हुई है।
बाघोत के अलावा गांव खायरा, कुराहवटा, नारनौल, धनौन्दा, खेड़ी-तलवाना, सीहमा,
निवाजनगर, धरसो, गुढ़ा, सिहोर, स्याणा, बसई, खुडाना, सिसोठ, कांटी, महेन्द्रगढ़,
फतनी, सैदपुर, लावन, खोड़ में भी छोटे-छोटे मेले भरते रहते हैं। जनपद के गांव धरसो,
महासर, कुरावहटा, महेन्द्रगढ़ आदि गांवों में समय-समय पर पशुओं के मेले भी भरते
रहते हैं। इन मेलों के अवसर पर खेल एवं कुश्तियों का आयोजन होता है। इन मेलों की
विरासत को महेन्द्रगढ़ जनपद आज तक पाश्चात्य संस्कृति से बचाए हुए हैं।
(साभार रौताही 2011)
                                                            साहित्य वाचस्पति मु.पो. स्याणा तह. व
                                                           जिला महेन्द्रगढ़ 123027 (हरियाणा) मो. 09466666118

जन-जन के आराध्य : जखई व मैकू

प्रा. आनंद यादव
उत्तरप्रदेश में ताज नगरी के नाम से विख्यात आगरा मण्डल के  फिरोजाबाद जनपद की सीमा पर शिकोहाबाद मार्ग पर जसराना तहसील अंतर्गत गंगा नहर से सटा एक गांव है- पैंड़ात। ऊबड़-खाबड़ भूमि पर बसे गाँव के ऊंचे टीले पर उत्कृष्ट वास्तु-कला से युक्तमंदिर के गगन-चुम्बी कलश व कुछ ही दूरी पर दाएं-बाएं विशाल गुम्बद युक्त मन्दिरों पर लहलहाती पताकाएं दूर-दूर के श्रद्धालु भक्तों को सदियों से ही अपनी ओर आकर्षित करती आई है।
'जय जखेश्वर  'जय मैकू व 'जय सच्चे दरबार के गगन भेदी जय घोष के साथ चहुँ
ओर से उमड़ती भीड़ को देखकर भौतिकता की चकाचौंध में डूबी-मानव मन की आँखें
अपना अस्तित्व ही खो बैठती हैं। धर्म, जाति, वर्ण, रंग, लिंग आदि का भेदभाव किए
बिना सर्व धर्म सद्भाव के इस पुनीत स्थल पर बाल, युवा, वृद्ध सभी नर-नारियों का सदा
ही विशाल जमघट लगा ही रहता हैं। दूर देहातों से आई बैलगाडिय़ों-ट्रैक्टर-ट्रालियों में
बैठी महिलाओं द्वारा ढोलक की  थाप पर लोकगीत व पुरुषों द्वारा गाए जाने वाले 'जश
जखेश्वर महाराज की कीर्ति को दूर-दूर तक गुंजायमान  करते हैं।
पश्चिमी उत्तरप्रदेश मुख्यत:  आगरा, कानपुर, फतेहगढ़ व रूहलेखण्ड मण्डलों के नगरों,
कस्बों व गाँवों के निवासी वर्ष में एक बार अवश्य ही आषाढ़ या माघ माह में इस लोक
देवता की सच्ची शक्ति के दर्शन व 'जात-पूजा करने सपरिवार जखेश्वर देव के सच्चे
दरबार में पहुँच ही जाते हैं। शौर्य व पराक्रम के प्रतीक इन वीरों का सच्चे मन से गुणगान
करने पर गृहस्थ-सुख, सन्तान, आरोग्य आदि सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं।
मन्दिर ही मन्दिर-पैंडात ग्राम के दक्षिण दिशा में एक छोर पर विशाल गुम्बद युक्त मन्दिर
में घोड़े पर सवार हाथ में तलवार लिए धर्मधारी देवता की भव्य मूर्ति है व पास ही सटे
मन्दिर में हाथी पर सवार मैकूदेव व आगे पीलवान बैठा हैं भक्तगण दूर से ही लाल चूनर
लिपटे नारियल में यथाशक्ति भेंट रख कर देवता के चरणों में अर्पित करते हैं व माथा
टेककर आगे बढ़ते जाते हैं। कभी-कभी तो आषाढ़ व माघ माह से 'जातÓ के दिनों में तो
नारियलों के ऊंचे ढेर में देवता की मूर्ति ही विलुप्त सी हो जाती है। बाहर चबूतरों पर हवन
व पूजा पाठ आदि माँगलिक कार्य सम्पन्न होते हैं। मुख्य चढ़ावा नारियल, प्रसाद, पुष्प-
पताका व दही आदि का होता है। मन्दिर प्रागंण में एक ओर शिशुओं का मुण्डन व नव
विवाहित जोड़ों की गाँठ बाँधकर आशीर्वाद दिया जाता है। 'जात के दिनों में अद्र्धरात्रि के
बाद मन्दिर में उमड़ती भीड़ को नियंत्रित करना ही कठिन हो जाता है दूर तक फैले क्षेत्र में
बैलगाडिय़ों, ट्रैक्टर, ट्रालियों, कारों आदि के बीच-नर-मुण्ड ही दिखाई पड़ते हैं।
ठीक यही स्थिति गाँव के उत्तर में स्थित 'श्री जखेश्वर मन्दिर की होती है। यहाँ-जहाँ
पत्थर या जखई का चौरा पर स्थापित जखेश्वर देव की प्रतिमा है व पास के मंदिर में
'सीता माता कल्याणी की भव्य प्रतिमा है भक्तगण दोनों ही मन्दिरों में अपने श्रद्धा सुमन
अर्पित करते परिक्रमा कर देवता से मनौती माँगते है।
मन्दिर का चढ़ावा ब्राह्मण, हरिजन, धानुक आदि सातों जाति के लोग मुख्यत: मदहे व
बरोठे कुरी के आभीर आपस में बाँट लेते हैं। पैड़ात के निकट ही ढलान पर बैर की
झाडिय़ों के बीच में भगवान शिव का प्राचीन मंदिर है, शिव लिंग भूमि में काफी अन्दर
धंसा है यहाँ शिवरात्रि को भारी मेला लगता है।
जखइ एक अप्रतिम योद्धा- स्थानीय जन मानस में दूर-दूर तक जखई व मैकू देव की
काफी मान्यता व महत्ता है व जितने मुख उतनी बातें वाली विभिन्न किवदन्तियां जखई व
मैकू यादव के विषय में कहने व सुनने को मिल जाती हैं। एक प्रचलित लोकोक्ति के
अनुसार जखई व मैकू यादव दोनों भाई महोबा के परिमादिदेव या परिमाल चन्देल राजा के
यहां उच्च पदों पर नियुक्त सामन्त थे, एक समय जब दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान
संयोगिता स्वयंवर में जयचन्द की राजकुमारी संयोगिता को बलपूर्वक दिल्ली ले जा रहे थे
जंगबाज जखई व महाबली मैकू नेअपने वीर साथियों के साथ उनका डटकर मुकाबला
किया व पृथ्वी राज चौहान के 40 वीर सरदारों का अंत कर दिया। अपनी पराजय से
तिलमिलाएं पृथ्वीराज ने संयोगिता को हाथ से निकलते देख शब्द भेदी बाण चला कर
धोखे से जखई यादव का सिर धड़ से अलग कर दिया फिर भी शीशविहीन जखई के धड़
ने भयंकर मारकाट मचाकर पृथ्वीराज को विस्मिृत सा कर दिया अन्त में लड़ते-लड़ते
जहां जखई यादव का धड़ गिरा वह स्थान जखई का चौरा या जखड़ा पत्थर कहलाता है।
अनुज मैकू को जब खबर लगी तो दिल्ली नरेश को उसकी धृष्टता का सबक सिखाने
अकेले ही दिल्ली चल पड़ा। भाई के विछोह में कई दिनों के भूखा-प्यासे 'हाय जखईÓ
की रट लगाते मैकू को पृथ्वी राज चौहान ने तीन सौ सैनिकों का घेरा डालकर धोखे से
कैद कर लिया व चन्देल राजा के इस प्रभावशाली सामन्त का अंत में वध कर दिया।
मोहम्मद गौरी द्वारा गजनी में बन्दी बनाए गए पृथ्वीराज चौहान के साथ दुव्र्यवहार किऐ
जान पर चौहान राजा को जखई व मैखू के साथ किये गए छल पर घोर पश्चाताप हुआ था
व जी भर कर रोए भी थे।
यही जंगबाज जखई व महाबली मैकू अपनी अदम्य वीरता व साहस के कारण ग्रामीण
जनमानस में 'देवता व 'ईश्वर के नाम की उपमा से विभूषित किए गए हैं। उनकी
ससुराल पैड़ात के निकट घघेरी में बने उनके स्थान पर लाखों श्रद्धालु आज भी मनौती
माँगते अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। 'जखई देव सब की भेंट स्वीकार कर लेते हैं
किन्तु यदि कोई व्यवधान या कष्ट पहँुचाता है तो उस पर रूष्ट भी हो जाते हैं।
कौडिय़ों का कारोबार-प्राचीन समय में प्रत्येक कार्य के एवज में सिक्कों के स्थान पर
कौड़ी देने की परम्परा का अनुसरण आज भी यहां होते देख विस्मय होता है। स्नान, ध्यान,
दिशा मैदान, पूजा-पाठ आदि के बदले में भक्त जन 'बारात में बखेर की भांति कौडिय़ों
को फेंक देते हैं। बच्चे झपट कर कौडिय़ों का उठा ले जाते हैं। केवल यही नहीं अपनी
ससुराल पैड़तवासियों द्वारा की गयी धृष्टता के कारण व जखेश्वर के शाप से ग्रसित गाँव
के लोग धन-सम्पन्न होते हुए आज भी कौडिय़ों के लिए तरसते व याचना करने को
विवश है।
एक प्राचीन जैन मन्दिर-पैंड़त ग्राम के मध्य ऊँचे टीले पर बना गगनचुम्बी कलश से युक्त
प्राचीन जैन मन्दिर भी मेले में आए लाखों श्रद्धालु भक्तों को अपनी ओर आकृष्ट करता है।
मंदिर का शिखर व कलश वास्तुकला के उत्कृष्ट नमूने है। श्री कृष्ण के तवेरे भाई भगवान
नैमिनाथ महाराज ने कभी यहां वास किया था। मन्दिर में अष्टधातु की मूर्ति भी प्राप्त हुई है।
मन्दिर की अधिकांश मूर्तियाँ आगरा स्थानांरित हो जाने से यह मंदिर अब वीरान सा पड़ा
है।
पाढम बनाम परीक्षित पुरी- पैड़ात के ठीक सामने पूर्व दिशा में स्थित पाढम गांव में एक
पुराना खेड़ा है कभी यहाँ प्राचीन काल में परीक्षित पुरी थी जहां राजा जन्मजेय ने नाग यज्ञ
आयोजित किया था। खेड़ें पर एक विशाल हवन-कुण्ड, प्राचीन कुएं व सिक्कों, मूर्तियों
आदि के रूप में कई पुरातात्विक अवशेष मिलने के संकेत है। पैड़ात व पाढम दोनों ही
स्थलों पर यदि उत्खन्न कराया जाएं तो निश्चय ही अतीत के गर्भ में डूबे हुए कई
ऐतिहासिक तथ्य उजागर हो सकेंगे।
लाखों लोगों की आध्यात्मिक आस्था, एकता और समता का संगम-स्थल जखेश्वर देव
का यह मेला जहां हमारी धार्मिक भावनाओं को उद्वेलित कर हमारी संस्कृति को नया
सम्बल प्रदान करता है वहां यह भी आवश्यक है कि मेले की बढ़ती लोकप्रियता व
श्रद्धालुओं की संख्या में दिन प्रतिदिन वृद्धि को दृष्टिगत रख प्राचीन स्थल का जीर्ण द्वार व
जन-सुविधाअें का विस्तार किये जाने पर यह स्थल निसंदेह पर्यटन स्थली का रूप धारण
कर सकता है।
यदि पुरातत्व विभाग द्वारा अनुसंधानकर्ता इस क्षेत्र में यंत्र-तंत्र बिखरी पुरातात्विक सम्पदा
से परिपूर्ण इस प्राचीन ऐतिहासिक स्थलों की खुदाई व अध्ययन में तनिक भी रुचि ले तो
निश्चय ही भारत देश के गौरवपूर्ण इतिहास की यत्र-तत्र बिखरी सामग्री व सभ्यता प्रकाश
में आ सकती है। पूर्वी उत्तरप्रदेश में प्रचलित लेरिकायन लोक गाथा के अनुरूप पश्चिमी
उत्तरप्रदेश मेंं जखई देव की वीरता व पराक्रम से संबंधित 'जश के रूप में फैली
लोकगाथा जनमानस में अपार श्रद्धा व ख्याति  प्राप्त कर सकती हैं राज प्रसादों व ऊंची
अटालिकाओं में बैठकर लेखनरत इतिहास वेत्ताओं द्वारा उपेक्षा व विस्मृति के बाद भी
पश्चिमी उत्तरप्रदेश के बीहड़ों में यह लोक काव्य आज भी महक रहा है और जनमानस
के मन मस्तिष्क में शौर्य व शक्ति के प्रतीक जखई व मैकू देव आज भी रचे बसे से है।
(साभार रौताही 2011)
                                                          44 नेहरु मार्ग पो. टनकपुर नैनीताल 
                                                          (उत्तराखण्ड), पिन- 262309

Saturday 23 July 2011

साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में यदुवंशी

-राम शिव मूर्ति यादव
किसी भी वर्ग के निरंतर उन्नयन और प्रगतिशीलता के लिए जरूरी है कि विचारों का प्रवाह हो। विचारों का प्रवाह निर्वात में नहीं होता बल्कि उसके लिए एक मंच चाहिए।
राजनीति-प्रशासन-मीडिया-साहित्य-कला से जुड़े तमाम ऐसे मंच हैं, जहाँ व्यक्ति अपनीअभिव्यक्तियों को विस्तार देता है। आधुनिक दौर में किसी भी समाज-राष्ट्र के विकास में साहित्य और मीडिया की प्रमुख भूमिका है, क्योंकि ये ही समाज को चीजों के अच्छे-बुरे पक्षों से परिचित करने के साथ-साथ उनका व्यापक प्रचार-प्रसार भी करती हैं।
व्यवहारिक तौर पर भी देखा जाता है कि जिस वर्ग की मीडिया - साहित्य पर जितनी मजबूत पकड़ होती है, वह वर्ग भी अपनी बुद्धिजीविता के बल पर उतना ही सशक्त और प्रभावी होता है और लोगों के विचारों को भी प्रभावित करने  की क्षमता रखता है। तमाम राजनैतिक -प्रशासनिक-सामाजिक क्षेत्रों में कार्यरत यदुवंशियों ने इस क्षेत्र में समय-समय पर अलख जगाई है। पूर्व केन्द्रीय मंत्री रहे देवनन्दन प्रसाद यादव, चन्द्रजीत यादव
इत्यादि ने वैचारिक स्तर पर भी लोगों को जागरुक करने का प्रयास किया। ललई सिंह
यादव के नाम से भला कौन अपरिचित होगा। कानपुर देहात में जन्में ललई सिंह यादव
(1 सितम्बर 1911- 7 फरवरी 1993) को उत्तर भारत का पेरियार कहा जाता है। ललई
सिंह ने वैचारिक आधार पर सवर्ण वर्चस्व का विरोध किया और साहित्य के व्यापक
प्रचार-प्रसार द्वारा पिछड़ों -दलितों में चेतना जगाई। पेरियार ने अपनी पुस्तक 'द रामायण
-ए ट्रू रीडिंगÓ के उत्तर भारत में प्रकाशन का जिम्मा ललई सिंह यादव को सौंपा और
उन्होंने इसे 'सच्ची रामायणÓ नाम से प्रकाशित किया। पुस्तक प्रकाशित होते ही हड़कम्प
मच गया और 8 सितम्बर 1969 को उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा इसे जब्त करने का आदेश
पारित कर दिया गया। अन्तत: इस प्रकरण पर लम्बा मुकदमा चला और हाईकोर्ट व
सुप्रीमकोर्ट से ललई सिंह यादव की जीत हुई। प्रखर सामाजिक क्रान्तिकारी ललई सिंह
अंबेडकर व पेरियार से काफी प्रभावित थे और दबी, पिछड़ी, शोषित मानवता को उन्होंने
सच्ची राह दिखाई।
यादव समाज से जुड़े तमाम बुद्धिजीवी देश कोने-कोने से पत्र -पत्रिकाओं का
प्रकाशन/संपादन कर रहे हैं। जरूरत है कि इनका व्यापक प्रचार-प्रसार हो और इनके
पाठकों की संख्या में भी अभिवृद्धि हो। यदि भारत में आज हिन्दी साहित्य जगत के
मूर्धन्य विद्वानों का नाम लिया जाये तो सर्वप्रथम राजेन्द्र यादव का नाम सामने आता है।
कविता से शुरुआत करने वाले राजेन्द्र यादव आज अन्य विधाओं में भी निरन्तर लिख रहे
हैं। राजेन्द्र यादव ने बड़ी बेबाकी से सामंती मूल्यों पर प्रहार किया और दलित व नारी
विमर्श को हिन्दी साहित्य जगत में चर्चा का मुख्य विषय बनाने का श्रेय भी उनके खाते में
है। कविता में ब्राह्मणों के बोलबाला पर भी वे बेबाक टिप्पणी करने के लिए मशहूर हैं।
मात्र 13-14 वर्ष की उम्र में जातीय अस्मिता का बोध राजेन्द्र यादव को यूँ प्रभावित कर
गया कि उसी उम्र में 'चन्द्रकांताÓ उपन्यास के सारे खण्ड वे पढ़ गये और देवगिरी
साम्राज्य को लेकर तिलिस्मी उपन्यास लिखना आरंभ कर दिया। दरअसल देवगिरी
दक्षिण में यादवों का मजबूत साम्राज्य माना जाता था। साहित्य सम्राट प्रेमचंद की विरासत
व मूल्यों को जब लोग भुला रहे थे, तब राजेन्द्र यादव ने प्रेमचंद द्वारा प्रकाशित पत्रिका
'हंसÓ का पुनप्र्रकाशन आरम्भ करके साहित्यिक मूल्यों को एक नई दिशा दी। आज भी
'हंसÓ पत्रिका में छपना बड़े-बड़े साहित्यकारों की दिली तमन्ना रहती है। न जाने कितनी
प्रतिभाओं को उन्होंने पहचाना, तराशा और सितारा बना दिया, तभी तो उन्हें हिन्दी साहित्य
का 'द ग्रेट शो मैनÓ कहा जाता है।
राजेन्द्र यादव के अलावा मराठी में ग्रामीण साहित्य को नई दिशा देने वाले एवं 1990 में
उपन्यास जॉम्बी के लिए साहित्य अकादमी अवार्ड से सम्मानित मराठी साहित्यकार
आनंद यादव शोध पत्रकार और राजनैतिक विश्लेषक योगेन्द्र यादव, अखिल भारत वर्षीय
यादव महासभा के अध्यक्ष पूर्व सांसद कविवर उदय प्रताप सिंह यादव, समालोचक
वीरेन्द्र यादव (लखनऊ), वरिष्ठ बाल साहित्यकार स्वर्गीय चन्द्र पाल सिंह यादव
'मयंकÓ (कानपुर) की सुपुत्री प्रसिद्ध साहित्यकार उषा यादव (आगरा), 30 वर्ष की उम्र
में ही पाँच कृतियों की अनुपम रचना और व्यक्तित्व-कृतित्व पर जारी पुस्तक 'बढ़ते चरण
शिखर की ओरÓ से चर्चा में आये भारतीय डाक सेवा के अधिकारी एवं युवा साहित्यकार
कृष्ण कुमार यादव (आजमगढ़) व उनकी पत्नी साहित्यकार आकांक्षा यादव, वरिष्ठ
समालोचक व कथाकार गोवर्धन यादव (छिंदवाड़ा), वरिष्ठ कवि व गजलकार केशव
शरण (वाराणसी), कथाकार अनिल यादव (लखनऊ) शाइरा उषा यादव (इलाहाबाद),
युवा कहानीकार योगिता यादव (जम्मूकश्मीर), जैसे तमाम लोग साहित्य के क्षेत्र में
निरंतर सक्रिय हैं। यादवों द्वारा तमाम पत्र-पत्रिकाओं में राजेन्द्र यादव (हंस), डॉ.
शोमनाथ यादव (प्रगतिशील आकल्प), कालीचरण यादव (मड़ई), योगेन्द्र यादव
(सामयिक वार्ता), प्रो. अरुण कुमार (वस्तुत:) जगदीश यादव (राष्ट्रसेतु एवं छत्तीसगढ़
समग्र), मांघीलाल यादव (मुक्तिबोध), आर.सी. यादव (शब्द), गिरसंत कुमार यादव
(प्रगतिशील उद्भव), पूनम यादव (अनंता), डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव (कृतिका), डॉ.
सूर्यदीन यादव (साहित्य परिवार), डॉ. अशोक अज्ञानी (अमृतायन), रामचरण यादव
(नाजनीन), श्यामल किशोर यादव (मंडल विचार), डॉ. राम आशीष सिंह (आपका
आईना), प्रेरित प्रियंत (प्रियंत टाइम्स), रमेश यादव (डगमगाती कलम के दर्शन),
ओमप्रकाश यादव (दहलीज), सतेन्द्र सिंह (हिन्द क्रान्ति), आनंद सिंह यादव
(स्वतंत्रता की आवाज), पल्लवी यादव (सोशल ब्रेनवाश), नंदकिशोर यादव (बहुजन
दर्पण) का नाम लिया जा सकता है।
इसके अलावा यादव समाज पर भी तमाम पत्रिकायें प्रकाशित हो रही हैं। यादव समाज पर
आधारित सबसे पुरानी पत्रिका 'यादवÓ है। बताते हैं कि राव दलीप सिंह शिकोहाबाद से
'आभीरÓ समाचार पत्र का प्रकाशन करते थे। उनके बाद राजित सिंह यादव ने इसे
गोरखपुर से प्रकाशित करना आरम्भ किया। 1923-24 में अखिल भारतीय यादव
महासभा का गठन होने पर राजित सिंह ने 'आभीरÓ का नाम 'यादव मित्रÓ कर दिया और
1925 में पत्रिका का नाम 'यादवÓ हो गया। 1927 में राजित सिंह ने बनारस में एक पे्रस
खरीदकर वहाँ से 'यादवÓ को प्रकाशित करना आरम्भ किया। 'यादवÓ अखिल भारतीय
यादव महासभा की वैधानिक पत्रिका थी पर राजित सिंह के स्वर्गवास के बाद उनके पुत्र
धर्मपाल सिंह शास्त्री ने इसे 'यादव-ज्योतिÓ के रूप में निकालना आरंभ किया। इन
पत्रिकाओं में बनारस से यादव-ज्योति 'संपादक लालसा देवीÓ, बनारस से ही अब बन्द
हो चुकी यादवेश  (संपादक- स्व. मन्नालाल अभिमन्यु), दिल्ली से यादव कुल दीपिका
(संपादक-चिरंजी लाल यादव), आगरा से यादव निर्देशिका सह पत्रिका (संपादक-
सत्येन्द्र सिंह यादव), कानपुर से यादव साम्राज्य (संपादक भंवर सिंह यादव),
गाजियाबाद से यादवों की आवाज(संपादक डॉ. के.सी. यादव), सीतापुर से यादव शक्ति
(संपादक राजबीर सिंह यादव), नोएडा से यादव दर्पण (संपादक- डॉ. जगदीश व्योम),
मुंबई से यदु यादव कोश (संपादक एस.एन. यादव) एवं तमिलनाडु से नामाधु यादवंम्
उल्लेखनीय हैं। यादवों से जुड़े विभिन्न विषयों पर स्वामी सुधानन्द योगी, फ्ला. ले.
रामलाल यादव, अनिल यादव, प्रो. आनंद यादव, इत्यादि की पुस्तकें भी महत्वपूर्ण हैं।
यादवों से जुड़े विभिन्न सामाजिक संगठनों द्वारा समय-समय पर जारी स्मारिकायें भी
महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही है।
अन्तर्जाल पर यादवों से जुड़ी पत्रिका 'यदुकुलÓ का संचालन राम शिव मूर्ति यादव द्वारा
कुशलता के साथ किया जा रहा है। प्रिन्ट मीडिया की जहाँ अपनी सीमायें है वहीं इंटरनेट
के माध्यम से यादवों के बीच संवाद आसानी से किया जा सकता है। पटना से वीरेन्द्र
सिंह यादव ने साप्ताहिक पत्रिका आवाह्न का संपादन नेट पर आरंभ किया है। अन्तर्जाल
पर शब्द सृजन की ओर, डाकिया डाक लाया (कृष्ण कुमार यादव), शब्द शिखर, उत्सव
के रंग (आकांक्षा यादव), युवा (अमित कुमार यादव), सार्थक सृजन (सुरेश यादव),
पाखी की दुनिया (अक्षिता), हारमोनियम (अनि ल यादव), नव सृजन (रश्मि सिंह),
मानस के हंस (अजय यादव), चायघर (ब्रजेश), आवाज यादव की (डॉ. रत्नाकर
लाल), यादव जी कहिन (नवल किशोर कुमार), डॉ. वीरेन्द्र (डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव),
मुझे कुछ कहना है (गौतम यादव), इत्यादि ब्लाग यदुवंशियों द्वारा संचालित हैं। मीउिया
एवं साहित्य के क्षेत्र में तमाम चर्चित-अचर्चित यादव कुशलता से कार्य कर रहे हैं।
इंडिया टुडे के श्याम लाल यादव व राहुल यादव, शुक्रवार के सिंहासन यादव, गृहलक्ष्मी
की सह-कार्यकारी संपादक अर्पणा यादव, दैनिक आज कानपुर के संपादक रामअवतार
यादव, इलेक्ट्रानिक मीउिया में आईबीएन 7 के विक्रांत यादव, स्टार न्यूज की विनीता
यादव, सहारा समय उ.प्र. के अनिरुद्ध सिंह यादव, ईटीवी उ.प्र. के आशीष सिंह यादव
इत्यादि के नाम देखे सुने जा सकते हैं। इसके अलावा साहित्य की तमाम विधाओं में
समय-समय पर ऊषा यादव (इलाहाबाद), मीरा यादव (जबलपुर), अरुण यादव
(जबलपुर), रचना यादव (अहमदाबाद), कौशलेनद्र प्रताप यादव (उ.प्र.) इत्यादि की
रचनायें पढ़ीजा सकती हैं। प्रसिद्ध साहित्यकार राजेन्द्र यादव की नृत्यांगना सुपुत्री रचना
यादव अच्छा नाम कमा रही हैं। इसी प्रकार कला के क्षेत्र में सुबाचन यादव, रत्नाकर
लाल एवं प्रभु दयाल इत्यादि के नाम उल्लेखनीय हैं। रत्नाकर लाल प्रतिष्ठित पत्रिका
'हंसÓ के रेखांकन से भी जुड़े हुए हैं। निश्चित: तमाम यदुवंशी देश के कोने-कोने में
साहित्य-संस्कृति-कला की अलख जगाये हुए हैं और वैचारिकता को धार दे रहे हैं।
                                                                   स्वास्थ्य शिक्षा अधिकारी (सेवानिवृत्त)
                                                               तहबरपुर, पोस्ट-टीकापुर,    आजमगढ़ (उ.प्र.)

सपनों का यथार्थ

-ले. रघुवीर सिंह यादव
चुनावों से अच्छी सफलता और अधिक सीटें प्राप्त करने के सिद्धांत एवं रणनीति तय
करने के लिए दिल्ली में कार्यरत, स्थित समसत यादव संस्थाओं व संगठनों की एक
चुनाव पूर्व बैठक आयोजन किया गया था। या. से.स. की कार्यकारिणी के साथ मैं भी
वहां उपस्थित हुआ था। उस बैठक में लम्बे चौड़े विचार-विमर्श के बाद अत्युत्तम नीति
निर्धारित की गई कि सब दल अभ्यर्थी और संगठन बिरादरी के साथ इसका पालन
करेंगे। भविष्य के फीलगुड के साथ बैठक सम्पन्न हो गई।
घर लौटने पर नित्य कर्म से निवृत्त होकर मैं अपने बिस्तर पर लेट गया। थकावट के
कारण जल्दी ही गहरी नींद आई और मैं स्वप्नलोक में विचरण करने निकल पड़ा।
क्या देखता हूं कि मैं एक जलयान में समुद्री यात्रा कर रहा हूँ। वहाँ मुझे डैक के पास एक
बाल्टी में कुछ केकड़े गतिशील दिखाई दिये। किसी ने कहा बाल्टी वहाँ से हटा दो
अन्यथा जल के जीव पुन: पानी में चले जायेंगे। सचमुच वे केकड़े बाहर निकलने की
कोशिश में थे। बाल्टी कोई नहीं हटा रहा था। मेरी नजर बाल्टी पर ही जमी थी। मैं देख
रहा था कि एक केकड़ा जब बाहर जाने के लिए ऊपर उठता तो दूसरा केकड़ा उसकी
टाँगों में अपनी टाँगे उलझा देता। इस टाँग खिंचाई के खेल में सारे के सारे केकड़े बाल्टी
ही में पड़े रह गये। एक भी बाहर नहीं निकल पाया।
मैं चौंका, आँख खुली, करवट बदली और फिर सो गया। इस बार सपना बदल गया। मैं
अपने गाँव के एक मुसलमान परिवार में पहुँच गया। वहां दो बच्चे चूल्हे के सामने खेल
रहे थे। माँ पानी भरने पनघट पर गई हुई थी। घर घास फूँस का था। दोनों ने सन की
एक-एक लकड़ी उठाई, चूल्हे में जलाई और उनका जलता हुआ सिरा छान तक ऊँचा
करके 'कलुआ तेरी बड़ी कि मेरीÓ का खेल खेलने लगे। छान में आग लग गई। बच्चे
डर के मारे पास की सार में जा छुपे। मैं आग बुझाने को दौड़ा। सपना फिर टूट गया। मगर
थकावट का मारा फिर सो गया। इस बार दृश्य पूरी तरह बदल चुका था। मैं एक पंजाबी
पिंड में  पहुँच गया था। जहाँ एक किशोरी अपनी माँ से मेला जाने की जिद कर रही थी।
माँ ने कहा कि मैं तुझे इस शर्त पर वहाँ जाने दूँगी। तू वहाँ ढोलकी की ताल पर नहीं
थिरकेगी। अब तेरी सगाई (कुड़मई) हो चुकी है, बचपन पीछे छूट गया। कोई देखेगा तो
हमारी बदनामी होगी।  हाँ, कहकर बेटी मेला देखने चली गई। किन्तु वह मेले में ढोलकी
की ताल पर स्वयं को नाचने से न रोक सकी। लौटने पर माँ ने वचन भंग का कारण पूछा
तो सरल सा उत्तर था 'माँ मैं रह न सकीÓ। सपना टूटा, मेरी आँख खुल गई और मैं
चिन्तन में डूब गया। देखा, इन सपनों का यथार्थ तो हमारी विशाल बिरादरी में अक्षरश:
घटित होता प्रतीत हो रहा है।
हमारे एक बड़े नेता ने एक दूसरे बड़े नेता की टाँग खींची और उसे प्रधानमंत्री बनने से
रोक दिया। केकड़ों की तरह जहाँ के तहाँ रह गये।
दिल के फफोले जल उठे, सीने के दाग से।
इस घर को आग लग गई घर के चिराग से।।
एक दूसरे ने लाखों आदमियों को अपनी माँ का मृतक भोज देकर कलुआ तेरी बड़ी कि
मेरी के अनुरूप अपने घर तथा समाज  में आग लगा दी और खुद बैलों की सार में घुस
के बैठ गये। बैलों ने पूँछ मारकर उन्हें ताड़ दिया।
एक अन्य नेता थे, जब उन्हें अ.भा.या.म. सभा का प्रधान पद न मिला तो समानान्तर सभा
खड़ी करके उस का स्वयंभू प्रधान पद सुशोभित कर दिया और निष्ठावान कार्यकर्ता यह
कहते रह गये-
सीने पर सौ वार सहे, जब दुश्मन की तलवार उठी।
हिम्मत उस दिन टूट गई जब आँगन में दीवार उठी।।
चुनाव पूर्व तय की गई नीतियाँ धरी की धरी रह जाती हैं। समय पर अभ्यर्थी, मतदाता
और कार्यकर्ता उपरोक्त किशोरी की तरह संकीर्ण स्वार्थ के ढोल की ताल पर थिरकने
लगते है स्वयं को रोक नहीं पाते। बाद में प्रतिकूल परिणाम पर पछताते रहते हैं। कितने
अफसोस की बात है कि जिन यादवों का अतीत अनुपम व अनुकरणीय और विश्व पूज्य
था। उनके लिए आज कवि वर मैथिलीशरण गुप्त जी की निम्न पंक्तियाँ ही याद आती हैं-
हम कौन थे, क्या हो गए, और क्या होंगे अभी।
आओ विचारें बैठ कर, हम ये समस्याएँ सभी।
समस्याएँ हैं, उनके हल भी हमें ही खोजने होंगे। केवल सभाओं में ऊंचे भाषण और
नीतियों के निर्धारण मात्र से ही काम नहीं चलेगा। जरूरत है कि सबके दिलो-दिमाग में
उन नीतियों को अमली जामा पहनाने का पक्का इरादा भी हो और वह हमें अब करना ही
होगा। (साभार रौताही 2011)
                                                                                            112 ओमायन, छतरपुर गांव, नई दिल्ली 30

ममता और अल्हड़ता से सराबोर हैं, अहीरवाल के लोकगीत

- रोहित यादव
हरियाणा प्रदेश का अहीरवाल उबड़-खाबड़, शुष्क धरातल एवं रेतीले टीलों वाला क्षेत्र है।
यहां के लोगों का प्रमुख व्यवसाय कृषि और पशुपालन है तथा रहन-सहन और खान-पान
बड़ा ही सादा है। अपने परम्परागत धंधे के अतिरिक्त इस क्षेत्र के लोग बड़ी संख्या में
भारतीय सेनाओं में सेवारत हैं।
राजनैतिक रूप से भले ही यह क्षेत्र पिछड़ा हुआ है, परन्तु मेंलों, तीज त्यौहारों, लोक
संगीत व लोकगीतों के मामले में यह अपना विशिष्ट स्थान रखता है। प्राचीनकाल से ही
मेले, तीज-त्यौहार, लोक संगीत एवं लोकगीत इस क्षेत्र की लोक संस्कृति तथा
जनजीवन के प्रमुख अंग रहे हैं।
लोकसंगीत और लोकगीत तो यहां के कण-कण में समाहित हैं। लोक संगीत की सरिता
को अपने प्रबल आवेग के साथ बहने से यहां के रेत के टीले भी नहीं रोक पाये। गर्म तेज
लू और आंधियों के थपेड़ों से इन्हीं रेत के टीलों पर रेत की लहरें बनती चली आई है।
सायं जब रेत ठंडी होती है, तब यही लहरें लोकगीतों की पंक्तियां सी नजर आती हैं।
अरावली पर्वतमाला की गोद में बसे अहीरवाल क्षेत्र के लोकगीतों एवं उनकी लोक धुनों
पर यहां के संघर्षमय जीवन की छाप स्पष्ट परिलक्षित होती है।
लोकगीत यहां के सामाजिक जीवन में ऐसे प्रकाशपुंज हैं, जो मानव मन की अथाह अंधेरी
गलियों तक को अलोकित करते रहे हैं। लोकगीतों की धरा यहां सत्त प्रवाह से बहती
आई है, जिसकी बदौलत न केवल मानवीय संवेदनाएं और संबंध ही पुख्ता होते रहे हैं
अपितु दारूण दु:खों के बादलों को भी छितराया हैं और खुशी के पलों को यादगार बनाया
है।
तीज-त्यौहारों एवं शादी-उत्सवों पर यहां औरतों के सामुहिक कंठ कोयल की भांति कूूक
उठते हैं, तब वातावरण की रंगत में एक खास तरह का उन्माद एवं मस्ती छा जाती है।
यहां के जनजीवन में आने वाली विडम्बनाओं एवं घटनाओं का इन गीतों में मार्मिक
चित्रण मिलता है। यहां के आदमी परिश्रमी हैं, तो महिलाएं भी बेहद मेहनती हैं। खेतों में
जाते,पनघट से आते, फसल काटते, क्यारियों को नलाते नारी कंठ हिल-मिलकर जहां-
तहां गाती नजर आती हैं।
यहां के लोकजीवन से अगर लोकगीत निकाल लिए जायें तब जो शेष बचेगा वह या तो
श्मशान की वीरानगी जैसा होगा या फिर पत्थर की भांति खुरदरा व कठोर होगा। यहां के
गीतों में प्रीत है, जीत है और रीत है। यहां का लोक विश्वास और आस्थायें इन गीतों में
हिल मिल गये हैं।
ये लोकगीत यहां के जनजीवन के संस्कारों में रमे हुए हैं। स्मृति रेखाओं पर सुगन्ध की
तरह जमे हुए हैं। इन गीतों की लोकधुनें मन मस्तिष्क पर आसाढ़ की बदलियोंं की भांति
मंडराती हैं। ये गीत और धुनें जहा पति-पत्नी, देवर-भाभी, ननद-भावज आदि-आदि
इन्सानी रिश्तों का अनजाने में ही विश्लेषण करते हैं, वही भाई-बहन और मां-बेटे जैसे
पवित्र रिश्तों को गौरवान्वित भी करते हैं।
ये लोकगीत इस क्षेत्र की सांस्कृतिक उर्जा की एक ऐसी सामाजिक अभिव्यक्ति हैं जो
रसवादी सौन्दर्य शास्त्र से अभिप्रेरित है। यही रसवादी सौन्दर्य बोध हमारे लोकजीवन एवं
संस्कृति का ऐसा उर्जा स्त्रोत, जो जीवन की अनवरत विडम्बनाओं एवं घटनाओं के बीच
भी आत्म-विष्वास रूपी संजीवनी प्रदान करते हैं।
किसी भी समाज तथा जाति को जानने से पूर्व उसके लोकगीतों को जानना जरूरी है।
यहां के लोकगीतों के अध्ययन करने से इस क्षेत्र के रंग-रंगीले, उत्सव-त्यौहारों तथा
सामाजिक रीति-रिवाजों का परिचय आसानी से मिलता है। लोकजीवन का ऐसा कोई
आयाम नहीं जो इन लोकगीतों में मुखरित नहीं होता हो। यहां के लोकगीतों में वीर रस
और श्रृंगार रस की प्रधानता है। जिसमें व्याकरण और भाषा को कोई विशेष संयम देखने
को नहीं मिलता। खड़ी व सरल भाषा में बिना किसी लाग-लपेट के लिखे गये इन गीतो
को हिन्दी भाषा का थोड़ा सा भी जानने वाला आसानी से समझ जाता है। इन गीतो का
रचियता कौन है, कोई नहीं जानता? ऐसा ल्रगता है कि ये लोकगीत समय-समय पर
आवश्यकता के अनुसार स्वयं बनते चले गये और पीढ़ी दर पीढ़ी हमें विरासत के रूप में
मिलते रहे हैं। महिलाएं इन्हीं गीतो में साहस, शील, भक्ति, प्रेम, दया, पतिव्रता,
आज्ञापालन आदि-आदि अनेक आदर्श गुण ग्रहण करती हैं।
अहीरवाल क्षेत्र में कोई भी शुभ कार्य करने से पहले भगवान व अन्य लोक देवी-
देवताओं को याद करने की परम्परा पुरातन समय से चली आ रही है। क्योंकि क्षेत्र के
लोग इन्हीं देवी-देवताओं को अपने सामाजिक जीवन में शुभ-अशुभ की धुरी मानते हैं।
रतजगा, विवाह-शादी तथा अन्य मांगलिक अवसरों पर भी देवी-देवताओं के गीत व
भजनों के माध्यम से याद करने की प्रथा इस क्षेत्र में भी है। यहां प्रचलित गीतों की
शब्दावली जहंा ठेठ देहाती है, वहीं इनके भावार्थ आरतीनुमा है। इन गीतों में न कल्पना के
पंख हैं और न ही शैलीगत पेंच। इस कड़ी में ग्राम देवता व गौरी पुत्र गणेश को विघ्न
विनाशक देवता के रूप में किसी भी मांगलिक अवसर पर गीतों के माध्यम से सबसे
पहले याद किया जाता है। ग्राम देवता की पूजा-अर्चना के समय गाये जाने वाले गीत की
एक बानगी देखिये-
ऊँचा थारा कोट,नीची थारी खाई जी,
उठों बाबा भोमिया, खोल किवाड़ी जी।
हास-परिहास इस क्षेत्र के जनजीवन का अभिन्न अंग हैं। विवाह के अवसर पर महिलाएं
अनेक प्रकार के मनोरंजन और हास्य-विनोद से परिपूर्ण गीत गाती हैं। इन गीतों में वे
उलाहना भी देना नहीं भूलती। जब बारात पूरी तरह सज-धज कर दुल्हन के द्वार पर
पहुंचती है, तो गांव की महिलाएं बारातियों को गीतों के माध्यम से चिढ़ाती हैं-
हमने बुलवायें मूछंा आले,
ये मूछंकटे कयूं आये जी।
विवाह के अवसर पर वर पक्ष के घर में सुना जा सकता है यह गीत- अनोखा लाडला हो,
रायबर मझला-मझला चाल्य। इसके विपरित वधू पक्ष के घर सुना जा सकता है एक
नसीहत भरा गीत-
 बन्नी का दादा बरजै सै,
 लाडो नीम तलै मत जाय।
भाई बहन के यहंा भात भरने जाता है, तब यह गीत गाया जाता है-
 मेरो भाई आयो, हजार लायो,
हीरबंद लायो, वो तो चुनड़ी।
मैं तो वार ओढूं, त्यौहार ओढूं
ओढूं भतीजा के ब्याह में।
इस अवसर पर एक अन्य गीत भी सुना जा सकता है-
रै बीरा नौकर मत ना जाइये,
मेरा कौन भरेगा भात।
ऐ, जीजी नौकर का कै डर सै,
तेरा आन भरूंगा भात।
भाभी-देवर की नोंक-झोंक जगत प्रसिद्ध है। एक गीत के माध्यम से भाभी अपने देवर
को इस तरह चिढ़ाती है-
जै मेरा देवर राजी बोल्यै,
तो बी.ए.पास करा द्यूंगी।
जै मेरे तै करै लड़ाई,
स्कूल मा तै उठा द्यूंगी।
जब कोई युवक अपनी बहू को लेने ससूराल पहुंचता है, तो गीत गाया जाता है-
कैठा- सी आया प्यारा पावणा जी,
कैठे लियो सै मकान नणदेऊ जी,
लाड जमाई प्यारा पावणा जी।
सैदपुर सी आया प्यारा पावणा जी,
मोहलड़ा लियो सै मकान नणदेऊ जी,
लाड जमाई प्यारा पावणा जी।
इस अवसर पर सालियां अपने जीजा से सींठणे के रूप में हंसी-मजाक भी करती हैं-
बिन बादल, बिन बादली,
यो अम्बर कय्यानी छायो जी, अम्बर
कय्यानी छायो जी।
मैं तुनै पूछंू ऐ सखी, यो रोहताश
कय्यानी आयो जी, यो
जीजो कय्यानी आयो जी।
सावन के महीने में इन्द्र भगवान कृपालु होने लगते हैं, वर्षा की बौछारें तपती धरती की
प्यास बुझाने लगती है। क्षेत्र के ग्राम्यांचलों में एक खुमारी-सी चढऩे लगती है। जिस तरह
मोर मस्ती में कूक उठता है, उसी प्रकार गांव की महिलाएं भी मस्त होकर उच्ची आवाज
में हिन्डौले पर झूलती गीत गाती देखी जा सकती है-
और सखी तो अम्मा मेरी,
सब चली जी.ऐ जी
हमनै भी झूलण भेज,
घल्यों ये हिन्डोला,
चम्पा बाग में जी।
सावनी तीज पर माताएं अपनी विवाहित बेटी के घर, उसके भाई के हाथ कोथली भेजति
हैं। कोथली लेकर भाई जब बहन के घर पहुंचता है। बहन अपनी सास से पीहर भेजने
की गुहार करती है-
आया री सामण मास,
हमनै खन्दा दे म्हारै बाप कै।
इन लोकगीतों में सास- बहू की लड़ाई का भी चित्रण मिलता है। एक बहू अपनी सास से
तंग आकर गाती है-
मैं तो माड़ी होगी हो राम
धंधा करके इस घर का
बखत उठ कै पीसणा पीसूं
सवा पहर का तड़का।
वीर रस के गीत भी सुने जा सकते हैं-
आर्या की लड़की कहियों,
हम तलवार उठावागंा,
हम तलवार अठावागंा, भारत
मां की शान बढ़ावागंा।
इन लोकगीतों में नशीली वस्तुओं के सेवन का भी चित्रण है। एक बहन अपने शराबी भाई
से कहती है-
मेरा बीरा रै जवान, मेरा
कहा जरा मान,
तेरी कह रही है दुखिया भाण,
रै दारू का पीना ठीक नहीं।
और भी न जाने कितने भाव प्रणय,वीर रस से सराबोर हास्य-विनोद, करूणा, उल्लास व
मस्ती से परिपूर्ण लोकगीत हमारे लोक साहित्य को समृद्ध बना रहे हैं। ये गीत इस क्षेत्र
की आत्मा के गीत हैं, जो खुली हवा में बड़ी रोचकता से पिरोये जाते हैं।
पत्रकार- मंडी अटेली- 123021 (हरियाणा)

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्री दयाराम जी ठेठवार- रायगढ़

संक्षिप्त जीवन परिचय
श्री दयाराम ठेठवार जी स्वयं द्वारा लिखित-
दोहरी गुलामी में मेरा जन्म रायगढ़ रियासत में 14 अप्रैल 1923 को हुआ। बाल्यकाल बहुत ही सुखद रहा। मैं बचपन में बहुत ही चंचल हाजीर जवाब होने से लोग मुझे काफी चाहते थे। भूपदेव पाठशाला में मुझे शिक्षा मिली और उत्तीर्ण होकर नटवर हाई स्कूल रायगढ़ में प्रवेश लिया। समय दिन व दिन बदलते गए आजादी के दीवाने अन्य प्रांतों तथा शहरों में हल्लाबोल रहे थे। अखबारों में भी समाचार पढऩे को मिलता था। हमें भी ललक
होती थी पर साधन नहीं मिलता था।
सन् 1943 में आखिर लड़कों ने साथ दिया। जूटमिल के कामगारों ने ही सहयोग करने का
वचन दिया। हम सब कागज के तिरंगा बनाकर रेलवे क्रासिंग में इकट्ठे हो गए पर वे
नहीं आए पोलिस का जत्था वहां पहुंच कर हटाने लग गया। बहुत से लड़के डर के मारे
भाग गए, शेष स्व. ब्रजभूषण शर्मा, स्व. शंकर नेगी, स्व. हमीर चंद अग्रवाल जनकराम
और मैं बच गए। हमें गुरुजी ने चमकी धमकी दिया और झंडे ले लिया, हम घर वापस
आ गए। पश्चात बच्चों ने एक जुलूस चालीस पचास की तादाद में निकाला वह भी
पुलिस की डर से तितर-बितर हो गया। हम तीन बच गए। स्व. ब्रजभूषण शर्मा, मैं और
जनकराम हमको पुलिस थाना में बिठाया गया और कई किस्म की बात सुननी पड़ी, परंतु
हम यह कार्य करते ही रहे।
अचानक सन् 1944 में हमारी भेंट स्व. वी.बी. गिरी जो पूर्व राष्ट्रपति थे उनसे हुई वे मेरे
भूमिगत के समय हमारे पड़ोस में कांग्रेसी कार्यकर्ता स्व. श्री सिद्धेश्वर गुरू के मकान में
ठहरे थे उनसे भेंट हुई फिर तो तांता ही लग गया प्रसन्न पंडा, गोविंद मिश्र, मथुरा प्रसाद
दुबे, स्व. छेदीलाल बैरिस्टर, स्व. मगनलाल बागड़ी, स्व. श्यामनारायण कश्मीरी आदि
हमारा हौसला बढ़ते ही गया।
इसी तरह हमें रुचि इस कार्य में हो गई। इसलिए दसवीं कक्षा में मैं तो दो साल फेल हो
गया सबसे बड़ा सहयोग हमें हमारे हेडमास्टर स्व. पी.आर. सालपेकर से मिला। पुलिस
वाले स्कूल से हमेशा दिन में दो तीन बार बुलाकर ले जाते थे।
एक दिन हेडमास्टर ने हमें बुलाया सच-सच कहने को कहा, सच्ची चीज हम खोल कर
रख दिए उनने हमें आगजनी, मारपीट, लूट-खसोट नहीं करने को कहा और जो करते हो
वही करते जाओ कहा। तुम लोगों को संभाल लूंगा कहा इस दरम्यान करो या मरो का
परचे तथा अन्य परचे हमें सुबह डाक से और रात्रि साढ़े छै: बजे मेल से मिलते थे। उसे
बड़ी हिफाजत से हम बांट देते थे अत: रियासती लोगों में जाने आने लगी थी इसी बीच
स्व. अमरदास देशम व स्व. तोड़ाराम जोगी से भी हमें बहुत सीख मिली। वे हमें पोस्टर
लगाने की सलाह देते रहे और हम अखबारों में स्याही के मार्के की जगहों में रात को
चिपका देते थे और मजा लेने को सुबह घूमते थे, हमें बड़ा शकुन मिलता था। दिवान,
कप्तान व अधिकारी सब के खिलाफ राजा, अंग्रेज के खिलाफ पढ़कर लोग बड़े प्रसन्न
होते थे।
अंग्रेज सरकार के प्रशासक श्रीराम जी घुई यहां पदस्थ थे, उनके दो लड़के हमारे साथ
पढ़ते थे उनके बच्चों की पुस्तक में करो या मरो की पर्चा देखकर महोदय को कहा
प्रशासक महोदय दलबल समेत स्कूल पहुंचकर तलाशी श्ुाुर कर दी। इसे देख हेडमास्टर
हड़बड़ाते हुए आए पूछे तुम लोग कौन हो यहां क्या कर रहे हो, किसने आपको स्कूल में
घुसने की अनुमति दी है, बाहर चले जाओ मैं यहां का प्रशासक हूँ। आप लोग नहीं
जाओगे तो ऐसा कहकर गुस्से में उस बूढ़े हेडमास्टर ने स्कूल के चपरासी को बुला
लिया। इसके बाद मुझे उन्नीस सौ छियालिस में कांग्रेस समाजवादी पार्टी का शहरी मंत्री
बनाया गया और मुझे गांव-गांव जाकर अंग्रेज व राजा के खिलाफ आजादी की बात
कहकर लोगों को आकर्षित करते गए। किसी गांव में हमें कष्ट नहीं मिला। कुछ दिनों के
बाद गांवों में रियासती राजाओं ने एलान करवाना शुरु कर दिया कि बाहरी आदमी को
जगह जो भी देगा उसकी जमीन जब्त कर ली जावेगी। गांवों में राजनैतिक चेतना तो थी
नहीं, गांव वाले हमें खाना खिलाकर विदा कर देते थे। हम चिन्हित हो गए थे, हमारे नाम
से वारंट जारी हो गया था।
रायगढ़ से भागकर सारंगढ़ के सरिया, बरमकेला क्षेत्र में आसानी से प्रवेश मिलता था परंतु
वहां के राजा स्व. जवाहर सिंह जहां उतरते थे वहां पहुंच ही जाते थे। बड़े ही क्रूर राजा थे
हमें ढोलगी ढंककर रहना पड़ा था बरबस इस तरह का समय काटना पड़ा। अंतत: स्वराज
मिला, भूमिगत रहने से जो कष्ट मिला था वह मिट गया इसके पश्चात हमें जोरशोर से
रियासती आंदोलन राजाओं के खिलाफ करना पड़ा स्वर्गीय वल्लभ भाई पटेल पूर्व
केन्द्रीय मंत्री के आह्वान पर सक्ती रियासत में हम पड़ाव डाले और गांव-गांव घूमकर
लोगों को समझाने का क्रम चलता रहा। सक्ती से सारंगढ़, रायगढ़ तथा धरमजयगढ़ में
कार्यक्रम प्रारंभ करते हुए हम इसमें भी सफल हुए।
अविस्मरणीय घटनाएं दो, जो जीवन में भुलाया नहीं जा सकता।
1. पहाड़ के ऊपर बड़ा भारी अजगर सांप झूल रहा था मुंह फाड़े वह एक बित्ते की दूरी
सर के ऊपर था मेरे मित्र ने देख लिया, मैं बाल-बाल बचा।
2. राजा, सारंगढ़ के चमड़े का हंटर वह पहले एक, दो हंटर लगाकर बाद में बात करते
थे। भूमिगत रहने से बहुत ही कष्ट मिला और आजाद हुए देशी राज्य खत्म हुए पर हमें
हमारी जनता को कोई फायदा नहीं मिला। इससे उस परतंत्रता में हम सुखी थे। ऐसा
लगता है वर्तमान में गलत कार्य करने वाले ही सुखी हैं। यहाँ कहने में हमें हिचक नहीं है
छोटे राज्य के आंदोलन में रायगढ़ की भूमिका प्रशंसनीय होते हुए इनाम में रायगढ़ को
उद्योग मिला और समस्त खेती की जमीन, जंगल, नदी, नाला, मरघट, गौचर जमीन सब
उद्योगपतियों को देदिया गया। भविष्य में हमें पानी और अनाज के लिए कष्ट होगा।
पर्यावरण तो चरम सीमा पर दूषित हो गया है। यह है आजादी, क्या कहें? सब आर्थिक
पहलू की ओर नजर रखकर देश अपना है कहना भूल बैठे हैं।
                                                                                       भेंटकर्ता
                                                                                     एम.आर. यादव
                                                                                    पूर्व जिला खेल अधिकारी, रायगढ़ (छ.ग.)

एक चलती-फिरती संस्था थे बाबा

-शमशेर कोसलिया 'नरेश'
भारतवर्ष के ऋषि-मुनियों ने सदैव ही मानव कल्याण हेतु कार्य किए हैं। दुनिया के अन्य
देशों के मुकाबले में भारत के ऋषि-मुनि, सन्त-महात्मा ही मानव कल्याण हेतु प्रसिद्ध रहे
हैं। आधुनिक युग में भी एक साधु ऐसे हुए हैं जिन्हें हम एक ऋषि मुनि साधु-सन्त
महात्मा सिद्ध पुरुष सज्जन समाज सेवी स्वतंत्रता सेनानी की संज्ञा दे सकते हैं। साधु
किसी धर्म, जाति परिवार विशेष के न होकर सभी के चहेते रहे हैं। वह दक्षिणी हरियाणा
व उत्तरी, राजस्थान के लोगों के घनिष्ठ प्रिय संतों की अग्रिणी श्रेणी में गिने जाते हैं। उस
सन्त का जन्म कब और कहाँ व किन परिस्थितियों में हुआ तथा उन्होंने अपने जीवन में
लोक कल्याण हेतु ऐसा क्या-क्या काम किया कि वह लोगों का चहेता बन गया। उसके
जीवन पर यहां प्रकाश डालने के प्रयास किए जा रहे हैं। हरियाणा के महेन्द्रगढ़ जनपद
मुख्यालय नारनौल से कनीना मार्ग पर लगभग 12 मील की दूरी पर नागवंशी यादव
बाहुल्य सीहमा गांव में चुनीलाल यादव रहते थे। उनके बेटे का नाम रामसिंह तथा पुत्र
वधू का नाम मीनीदेवी था। उनका परिवार धर्म परायण तथा जन कल्याणकारी था वह
साधू संतों का आतिथ्य सत्कार करने में अग्रीणी था। एक बार सन्त कुशाल दास से
मिलने जाते समय हुडिंया कलां राजस्थान के संत दामोदर दास गांव से होकर जा रहे थे
तो चुनीलाल उन्हें अपने घर ले आए रामसिंह व उनकी पत्नी ने संत जी की खूब सेवा
की तथा दोपहर का भोजन करवाया। भोजन करने के बाद संतजी ने मीनी देवी को
आशीर्वाद देते हुए कहा कि मांई अबकी बार आपके जो बेटा होगा। खेत पर जन्म लेगा।
वह बड़ा होकर जन-जन का प्रिय संत बनेगा। मीनी देवी ने विनीत भाव से कहा- 'बाबा
गांव में गर्भवती स्त्री को घर से बाहर खेतों में काम करने नहीं जाने दिया जाता है। तब
भला मैं खेतों पर क्यों जाऊंगी और लड़के का जन्म खेतों पर कैसे होगा?Ó
संत जी ने कहा मांई साधुओं की वाणी कभी बेकार सिद्ध नहीं होती है। जो मैंने कहा है
भविष्य में नहीं होने वाला संत जी ने मीनीदेवी के बड़े बेटे व होने वाले बेटे पर कविता
की ये दो पंक्तियां कही 'घर में है वो घड़सों थारो। खेत ेमें होवे वो खेतों म्हारो।।Ó
सिद्ध संतों के वचन प्रामाणिक होते हैं। नियति ने अपना खेल रचा चुनीलाल व उनकी
पत्नी हीरो देवी राम सिंह की ननिहाल के एक विवाह समारोह में शामिल होने हेतु (उस
समय ऊंट पर सवार होकर) चले जाते हैं। रास्ता लम्बा था इसलिए समय से पहले ही
चले थे। उस दिन रामसिंह अकेले ही बैलगाड़ी हांककर अपने खेतों पर जाकर काम में
जुट गए। अचानक उनके पेट में भयंकर पीड़ा हुई, जिससे वह वहीं खेत की मेंढ पर लेट
गए और दर्द की वजह से चिल्लाने लगे।
गांव के किसी राह चलते बालक ने उनके घर उनकी पत्नी को इसकी खबर दी। तो घर
में कोई भी न होने की वजह से मीनीदेवी खुद ही अपने पिया की जान को बचाने के लिए
घर में रखी फांकी चूर्ण आदि साथ में लेकर खेत पर पहुँची। उसने अपने स्वामी को
फांकी चूर्ण आदि थमाया भी न था कि मीनीदेवी को प्रसव पीड़ा आरम्भ हो गई और थोड़ी
ही देर बाद उसने एक बालक को जन्म दिया। उधर रामसिंह के पेट की पीड़ा बिना किसी
दवा दारु के स्वत: ही ठीक हो गई रामसिंह ने ही खेत की मेढ़ (डोले) पर खड़े (उगे)
सरकण्डे की पानी (पत्ती) की धार से नवजात बालक का नाल काटा। नवजात बालक व
अपनी पत्नी को बैलगाड़ी बैठाकर शीघ्र ही अपने घर पहुँचा। कार्तिक सुदी अष्टमी (गोप
अष्टमी) विक्रमी सम्मत् 1973 का वह शुभ दिन था। खेत में जन्म होने की वजह से ही
उस बालक को खेता कहा जाने लगा। खेताराम ने मात्र 3 वर्ष की उम्र में ही चारपाई पर
सोना छोड़ दिया था। वे धरती या बड़े पत्थर पर सोते थे। इसलिए घर वालों ने उसके लिए
एक लकड़ी के तख्त का इन्तजाम कर दिया। उसे एक ब्राह्मण की चटशाला में रह कर
हिन्दी, गणित का ज्ञान प्राप्त किया। 16 वर्ष की आयु में ही मीनीदेवी का आशीर्वाद प्राप्त
कर सन. 1932 में घर छोड़ दिया। अब खेताराम ने 4 वर्षों तक देश में इधर-उधर अच्छे
गुरु की खोज की और बाबा मस्तनाथ मठ अस्थल बोहर जिला रोहतक पहुँचे। वहाँ
पंजाब में जन्मे रह रहे सन्त जयलाल नाथ को अपना गुरु बनाया। उस सन्त ने खेताराम
की चोटी काटने व कानों में मुद्रा डालने की रस्म पूरी की तथा सन्त वाणी देकर दीक्षा दी।
इस प्रक्रिया से अब उसका नाम खेतानाथ हुआ।
अब साधू का चोला पहनकर (सन्त बनकर) खेतानाथ ने हरिद्वार स्थित मायापुर आश्रम
में संस्कृत का गहन अध्ययन किया। संस्कृत के अध्ययन के उपरान्त वह हरिद्वार से
दिल्ली के रास्ते से होकर कई साधू-सन्तों की सेवा करते हुए राजस्थान पहुँचे। राजस्थान
के कई साधुओं से मिलते हुए हरियाणा के स्मारकों  के शह नारनौल के पास खत्रीपुर-
दुबलाना में रह रहे बाबा शान्तिनाथ जी के पास पहँुचकर वस्त्र त्याग की विद्या सीखी और
उनको अपना गुरु बनाया। उन्हीं से वेदान्त योग आदि का ज्ञान अर्जित किया। उनके
सामिप्य में रहकर शास्त्रों का गहन अध्ययन  किया। सन्त शान्ति नाथ जी एक अच्छे वैद्य
भी थे। सन्त जी खेतानाथ को वैद्य का काम सिखाना चाहते थे, किन्तु उन्होंने इस कार्य
को नहीं सीखा और उन्होंने जन जागृति का मार्ग अपनाया।
जब देश में स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए राष्ट्रीय जनआंदोलन चल रहे थे। उस समय उस युवा
संत ने भी सक्रिय रूप से उन सभी आन्दोलनों में विशेष भूमिका निभाई। संत जी ने सन्
1945 में प्रजामण्डलों के कार्य-कलापों को गति दी। उनकी ही देख-रेख में गांव कांटी में
प्रजामण्डल की विशाल बैठक संपन्न हुई। बैठक में मौजूद सभी सेनानियों को अंग्रेजों ने
बौखलाकर बंदी बना लिया। अन्य सेनानियों के साथ संत जी को भी नारनौल, पटियाला,
नाभा, भटिण्डा तथा फरीदकोट की जेलों में बंद रखकर अनेकों यातनाएं दी गई। जेल में
स्वतंत्रता सेनानियों से माफी मंगवाना व भेद उगलवाना था। संत जी ने न माफी मांगी और
न भेद ही उगला।
इसलिए संत जी को एड़ी व पंजों पर मारकर यातनाएं दी गई। अन्त में पूरे देश के सभी
स्वतंत्रता सेनानियों के आगे अंग्रेजों को घुटने टेकने पड़े और भारत को आजाद करना
पड़ा। देश की आजादी के दिन नारनौल चौक पर बाबाजी ने अपने करकमलों द्वारा तिरंगा
झण्डा फहराया तथा विशाल जन समूह को प्रसाद भी वितरण किया। इस तरह उन्होंने देश
के स्वतंत्रता सेनानियों में अपना अग्रणी पंक्ति में नाम लिखवा लिया।
देश को आजादी मिलने के बाद संत जी गूता शाह पुर (राजस्थान में रहने वाले संत
भगवान नाथ के पास उनसे योग क्रियाएं सीखी और उनको अपना तीसरा गुरु बनाया।
यहां तक की उन्होंने कपिल सांख्य दर्शन, पांतजल योगदर्शन का गहन अध्ययन किया।
गीता का अध्ययन किया वहीं बाल गंगाधर तिलक द्वारा लिखित गीता रहस्य नामक
पुस्तक का भी अध्ययन किया। भागवत के 18000 श्लोक उनको याद थे। संत जी ने
कनीना के पास पाथेड़ा गांव के बालू रेत के टीले पर तपती दोपहरी में आसन लगाकर
तपस्या की। फिर तो वो जहां भी जाते रेत के टीलों पर बैठकर घोर तपस्या में लीन रहते।
कहा जाता है कि वे जिस भी तपते टीले पर बैठे होते थे वह एकदम ठण्डा होता था। यह
सब उनकी साधना और करामात का ही चमत्कार था। संत जी राजस्थान के गांव
बीजवाड़ा चौहान के टीले पर बैठ साधना कर रहे थे उन्हीं दिनों वृद्ध (बूढ़े) संत बिहारी
दास जी ने कनीना सिहोर नौताना गांवों में विद्यालय भवन बनवाए  थे तथा उस समय
माजरी कलां में विद्यालय भवन का निर्माण करवा रहे थे। बाबा खेता नाथ की संत बिहारी
दास से वहीं मुलाकात हुई जो एक प्रेरणादायक रही तथा इसी प्रेरणा से उन्हें परोपकार के
कार्यों में गहन रुचि लेने की ठान ली।
संत जी की साधना चमत्कार व मीठी वाणी के वशीभूत होकर सेवक जन कुछ न कुछ
अवश्य चढ़ाते थे। चढ़ावे में आने वाले धन से बाबा ने गांव बीजवाड़ा चौहान, गादूवास
अहीर, बासना, लाडपुर, सीहमा, अटेली, डैरोली आदि हरियाणा व राजस्थान में विद्यालय
बनवाए। श्री कृष्ण जी के नाम पर जयपुर, अलवर, नारनौल में छात्रावास बनवाए।
नारनौल में पोलटैक्निक कालेज (तकनीकी महाविद्यालय) भवन का निर्माण किया।
मण्डी, अटेली, कंवाली, सिधरावली, नारनौल के कॉलेजों में व कन्या गुरुकुल, गणियार,
कुण्ड, मनेठी, दाधिया, खानपुर के गुरुकुलों में भरपूर सहयोग दिया। वहीं ढूमरोली,
विजयपुरा, खोडवा, शहबाजपुर, रामबास, कोथल, दुबलाना के स्कूलों में तथा विवेकानंद
कॉलेज नांगल चौधरी के भवनों के निर्माण में सहयोग के साथ-साथ संत जी ने अपने
करकमलों द्वारा आधारशिला भी रखी।
संत जी ने गुताशाहपुर, छापुर, नीमराणा, झुंझनू, बीड़, सीहमा, अटाली, डैरोली, गुलावला,
नारनौल, शाहबाजपुर में आश्रम में भव्य एवं कलात्मक मंदिरों का निर्माण करवाया। बाबा
खेतानाथ द्वारा निर्मित मन्दिराों की कलात्मकता देखते ही बनती है। बाबा द्वारा निर्मित
आश्रमों के साथ-साथ एक-एक गऊशाला का भी निर्माण करवाया। गऊशाला भले ही
छोटी क्यों न हों किन्तु उन्होंने गऊ प्रेमी होने का भी संदेश दिया। संत जी द्वारा निर्मित
विद्यालय आश्रम गऊशाला आदि पर व्यय धन केवल श्रद्धालुओं द्वारा चढ़ावे के रूप में
चढ़ाए गए धन से ही हुआ। प्रत्येक आश्रम विद्यालय मन्दिर तथा गऊशाला में वृक्षारोपण
भी अधिक से अधिक करवाया। नीमराणा में तो कलात्मक सरोवर का भी निर्माण
करवाया वहीं एक विशाल उपवन का भी निर्माण करवाया। पर्यावरण संरक्षण में बाबा ने
जो भूमिका निभाई वह सदैव याद रहेगी। संत जी ने देश के कोने-कोने का भ्रमण भी
किया था। शायद ही कोई ऐसा संत हो जिसने इतना अधिक भ्रमण किया हो। उन्होंने
भ्रमण से शिक्षा प्रसार गऊ सेवा, समाज सेवा, पर्यावरण संरक्षण करना तथा साधूवचन
धारण करना सिखा था। वे एक अनुभवी महान संत थे उनके अनेकों अनेक शिष्य हुए।
निमराणा के जोशी होडामठ प्रवास के समय संत जी रह रहे थे। आश्रम के समीप
आशावली ढाणी में राह पर बने मकान से मातादीन के लड़के व बहू से अन्तिम भिक्षा
ली। जबकि संत जी के पास ही लोग लाखों रुपए चढ़ावे के रूप में चढ़ा देते थे। मगर
उन्हें अपने जीवन की अन्तिम भिक्षा लेने का लक्ष्य पूरा करने का था जो पूरा कर लिया
था। भिक्षा लेकर वे खेतों में पहुंचे तो वहीं पर प्राण त्याग दिए। बाबा खेतानाथ के जन्म व
मृत्यु का यह संयोग अनोखा था कि उनका जन्म भी खेत पर और मृत्यु भी खेत पर हुई
वह 28 दिसम्बर 1990 का एक मनहूश दिन था। जिसने एक साधू, शिक्षा प्रचारक,
समाज सेवी, स्वतंत्रता सेनानी, गौप्रेमी, पर्यावरण संरक्षक को हमसे छीन लिया था।
मातादीन के बेटे धर्मपाल ने संत जी को खेत पर गिरते देखा तो तुरन्त दौड़कर बाबा के
पास पहुँचा तो संत जी के मृत शरीर को देखकर बच्चों की तरह रो पड़े। रोते-रोते ही मठ
में पहुँचकर बाबा के शिष्य सोमनाथ को खबर दी। रात्रि हो रही थी। किन्तु रातोरात यह
दुखद समाचार समस्त क्षेत्र में ही नहीं अपितु हरियाणा के अस्थल बोहर के मठाधीश संत
चान्दनाथ के कानों तक भी पहुंच चुका था। इस दु:खद समाचार को जिसने भी सुना उन
सभी ने रात का भोजन पकाया ही नहीं। जिसने भोजन पहले से पकाया गया हुआ था
उन्होंने खाया ही नहीं। बाबा के शोक लहर ऐसे दौड़ गई थी कि जैसे भारत के प्रधानमंत्री
की मृत्यु हो गई हो। दूसरे दिन प्रात: ही सन्त चान्दनाथ (वर्तमान विधायक बहरोड़) के
अलावा हजारों साधु संत (नाथ पंथ ही नहीं अपितु सभी पंथों से) तथा देर किए बिना
शीघ्र ही टै्रक्टर-ट्राली, स्कूटर, मोटर बाइक ऊंट-रेहड़ी, मोटर गाड़ी जीप, बस ट्रकों से
दूर-दराज के भक्तजन लाखों की संख्या में उमड़ पड़े। समीप के क्षेत्र से तो भक्तजन पैदल
या साइकिल से ही पहुँचने लग रहे थे।
भक्तजनों में महिलाएं भी बराबर संख्या में थी जो भजन गाकर समूचे परिवेश में गूंज पैदा
कर रही थी। सभी लोग संत जी के अन्तिम दर्शन को आए थे। जिनकी संख्या हजारों
नहीं अपितु लाखों में थी और उन सभी की आँखें नम थी। अलवर जिला प्रशासन ने
भक्तों की संख्या भांपते हुए हजारों पुलिस कर्मी तुरन्त भेजे। इस बहाने हजारों पुलिस
कर्मियों ने भी बाबा के अन्तिम दर्शन किए। वहां से कोई उपद्रव थोड़े होना था सभी ने
शान्ति प्रिय ढंग से अपने प्रिय संत के अन्तिम दर्शन किए।
और संत जी के मृत शरीर को समाधि देकर सब भक्तजनों ने जोर-जोर से रोते हुए अपने-
अपने घरों को प्रस्थान किया।
बाबा खेतानाथ ने एक संस्था की तरह काम किया था। इसीलिए उन्हें एक चलती फिरती
संस्था के नाम से भी जाना जाता है। बाबा खेतानाथ के जीवन में सैकड़ों प्रेरक प्रसंग जुड़े
हुए हैं। जिनका अगर संक्षेप में भी जिकर किया जाता है तो भी एक बहुत बड़ा लेख बन
जाएगा। बाबा जी महाराज ने जीवन भर नशे, मांस, दहेजप्रथा का कड़ा विरोध किया वहीं
वह सेवकों को इनसे दूर रहने के लिए शिक्षा दिया करते थे। उनके सम्पर्क में आने वाले
बहुत से सेवकों ने उनकी शिक्षाओं का लाभ भी उठाया। वे अक्सर बच्चों को बलवान
देखना चाहते थे। इसीलिए बच्चों से सदा कहा करते थे।
माड़ा को ही जाड़ा मारै, माड़ा को ही घाम-
माड़ा को मारे राजा, माड़ा को ही राम
वह संत आज भले ही हमारे बीच नहीं है किन्तु उनके द्वारा दिखाए गए रास्तों को हम व
हमारी आने वाली पीढिय़ाँ सदैव उनके बताए रास्ते पर चलकर अपनाएंगे। उन्होंने हमें
कुमार्ग से हटकर सुमार्ग पर चलने का संदेश दिया है। ऐसे महान संत को भूलना हमारे
लिए एक शर्मकारी भूल होगी। हम परमपिता परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं कि उस महान
संत को पुन: इस पिछड़े क्षेत्र में भेजे ताकि वहां का अंधियारा छट कर उजाला मिल
सके। संत खेतानाथ ने तो ऐसे-ऐसे कार्य करके दिखाए जिन्हें सरकार भी आसानी से नहीं
कर सकती।
उन्होंने उस क्षेत्र को अपना कर्मस्थल बनाया था जहां प्रशासनिक रूप से विषमता थी और
प्राकृतिक रूप से भी पिछड़ा हुआ था। उसने मां मीनीदेवी की मृत्यु पर भी अचानक
आकर सभी को हैरत में डाल दिया था। पारा जमा देने वाली ठंड में भी अपने शरीर से
उनमें पसीना निकालने की अपार क्षमता थी। यह बाबा शान्तिनाथ द्वारा सिखाई गई विद्या
का ही चमत्कार था। उन्होंने वैद्य का काम न सीखकर केवल रोगियों को ही नहीं अपितु
समस्त मानव धर्म की सेवा में अपना जीवन लगाया था। उस महान संत को कोटि-कोटि
प्रणाम। (साभार रौताही 2011  )
                                                                          मु.पो.स्याणा, तह व जिला-महेन्द्रगढ़
                                                                          हरियाणा 123027, मो. 09466666118

यादवों से अपेक्षा

- आर.डी. यादव
हमारा यादव वंश बहुत महान वंश रहा है। हम यादव भगवान श्री कृष्ण के वंशज है और
यदुवंशी, कृष्णवंशी के नाम से जाने जाते हैं। हमारी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर दृष्टिपात किया
जाए तो यादवी वीरता का बखान हर युग में मिलता है। हमारी उत्पत्ति ही वीरता, शौर्यता
प्रदर्शन करने के लिए हुई है। सर्वधर्म, समभाव, प्रेम और शांति के लिए ही श्रीकृष्ण ने
यदुवंश में अवतार लिया और बांसुरी के माध्यम से पूरे विश्व को सद्भावना और प्रेम का
संदेश दिया, उन्होंने अन्याय और उत्पीडऩ से समाज को मुक्ति दिलाए हंै। यदि श्री कृष्ण
के आदर्शों का पालन यादव नहीं करेंगे तो कौन करेगा। दूसरों के उपदेश से यादव कैसे
प्रभावित होंगे। हमें उनके विचारों तथा उनके द्वारा किए गए कार्यों को जाति  तथा समाज,
देशहित में अनुकरण करना चाहिए। यदि हम सबकी उनकी नीति के अनुसार आचरण
करने का निश्चय कर ले तों पुन: यादव जाति का सम्मान बढ़ेगा।
यदुवंशियों के विकास के मार्ग पर अनेक कुरीतियां, बाधाओं के रूप में आड़े आती हैं।
अशिक्षा, आर्थिक पिछड़ापन, वैचारिक एकाग्रता का अभाव, सुदृढ़ एकता में कमी,
संगठनों का विकासोन्मुख न होना, महिलाओं का प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष सहयोग प्राप्त न
होना, युवाओं की निष्क्रियता, विकास की ओर अग्रसर न होने की चाह सशक्त नेतृत्व का
अभाव तथा अन्य सामाजिक एवं गैर सामाजिक कुरीतियों की अधिकता का होना आदि
कारण प्रमुख हैं। इन मूलभूत  समस्याओं के रहते हुए यदुवंशी क्या कोई भी जाति विकास
रूपी चरम लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता।
आज समाज में जो अशांति, असंतोष या विकृतियां देख रहे हैं वह सब हमारी गलत सोच
का परिणाम है। आज हर व्यक्ति स्वहित को प्राथमिकता देने लगा है। लोग कत्र्तव्यों के
प्रति उदासीन है, परन्तु अधिकारों  के प्रति अत्यधिक सचेत । लोगों को दूसरे के दुख दर्द
की कोई चिंता नहीं है लेकिन लोग भूलते हैं कि असली सुख तो दूसरों को सुखी देखने में
ही है। समाज से बुराइयों को दूर करने के लिए हर व्यक्ति को अपने नैतिक मूल्यों को
अहमियत देनी होगी।  दूसरों के सुख सुविधा का ध्यान रखना होगा। हम जो कार्य करें
उसके परिणाम के बारे में अवश्य सोंचे हमें कोई भी ऐसा काम नहीं करना चाहिए जिससे
हमारे समाज के नाम कोई धब्बा लगे।
समाज को गतिशील बनाएं रखने के लिए आज आवश्यकता है दृढ़ इच्छा शक्ति की,
आत्म विश्वास से भरे लोगों की जिन्हें केवल सामाजिक हित व जातीय प्रतिष्ठा को पुन:
स्थापित करने का लक्ष्य हो, बुजुर्ग समाज सेवकों को अपनी कुर्सी सस्नेह युवाओं को
देकर स्नेहिल मार्गदर्शन प्रदान करें, उन्हें अपने अनुभवों से समाज निर्माण व यादवोत्थान
का मार्ग प्रशस्त करें।
मनुष्य साहसी प्रवृत्ति का है इसलिये अनेक कार्य करने में वह सफल हो जाता है, जो
आमतौर पर असंभव लगता है। सफलता एवं उन्नति अपने हाथ-पैरों के बल और
आत्मविश्वास से मिलता है। हम अपनी शक्ति को पहचानें और पूरी तन्मयता से गन्तव्य
की ओर बढ़ चलें। अपने को ठीक कर लेने से चारों ओर का वातावरण बनने में देर नहीं
लगती। आज इस बात की आवश्यकता है कि हमारा समाज जो कि अभावग्रस्त है,
उसकी दुर्बलता को मिल जुलकर दूर करना होगा। कठिनाई और कष्ट का व्यवधान
उन्नति की हर दिशा में मौजूद रहना है। ऐसी कोई भी सफलता नहीं है जो कठिनाईयों से
संघर्ष किए बिना ही प्राप्त हो जाती है।
इस हेतु समाज के गरीब, अपाहिजों, अशिक्षितों बेरोजगारों एवं शिक्षा से वंचित होनहार
छात्रों को योग्यतानुरुप सहयोग प्रदान करें। आकांक्षा, जागरुकता और परिश्रमशीलता से
बड़े से बड़े काम पूरे हो जाते हैं। हमारा समाज है तो ही हम हैं। समाज की शक्ति का
सहारा पाकर ही हमारी व्यक्तिगत क्षमताएं एवं योग्यताएं प्रस्फुटित होकर उपयोगी बन
जाती हंै। यदि हमारे गुणों और शक्तियों को समाज का सहारा न मिले तो वे निष्क्रिय होकर
बेकार चली जायेंगी। उनका लाभ न तो स्वयं हमकों ही होगा न समाज को।
आज समय की मांग है कि आप अपने शक्ति का, श्रम का, समय का बड़े से बड़ा हिस्सा
समाज के उत्थान में लगाएं। अंत में यही कहूंगा कि आप अपने कत्र्तव्यों और ज्ञान को
समाज के विकास के लक्ष्य की ओर निरंतर अग्रसित रहें।
                                                                             भारतीय नगर, बिलासपुर (छ.ग.)

Friday 22 July 2011

एक भूली बिसरी लोकगाथा : पराक्रमी परसू

प्रा. आनंद यादव -
लोक साहित्य के अन्र्तगत लोकगाथाओं या कथाओं को एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। सदियों से गेय-गाथाओं या दन्त कथाओं के रूप में चली आ रही  ये लोक कथाएं हमारीसांस्कृतिक धरोहर ही नहीं अपितु एक ऐतिहासिक दस्तावेज भी है। क्षेत्र-विशेष की उथल-पुथल व सांस्कृतिक विविधताओं की जानकारी हेतु लोकगाथाओं का विशद अध्ययन आवश्यक है, जिनमें तात्कालिक समाज के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक व सांस्कृतिक स्वरूप की स्पष्ट झलक मिलती है। इन लोक-कथाओं ने क्षेत्र-
विशेष के बाहर भी अपने पाँव पसार कर आंचलिक साहित्य व संस्कृति के निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
परसू-पँवारा भी एक ऐसा ही लोक-काव्य है जो उत्तरी-भारत के अनेक अंचलों में बड़ी ही श्रद्धा व सम्मान के साथ गाया जाता है। पूर्वांचल में लोरिकी-गायन के अनुरूप ही
पश्चिमांचल मुख्यत: रूहेलखण्ड  मण्डल व उस से सटे जनपदों में पंवारा गायन की यह
लोकविधा शताब्दियों से जन-मानस को अनुप्रेरित करती आ रही है। रुहेलखण्ड में
'कन्नाईÓ या 'छिलडिय़ाÓ तो बुन्देलखण्ड क्षेत्र में धर्मा सांवरी व परसा की गाथा-रूप में
यह काफी लोकप्रिय है। जख, चोखली, वंश, ढोला व भाका आदि में 'कन्नाईÓ को
अपना विशेष स्थान प्राप्त है।
सूप, कोरों का पत्ता, घोंघी या मँूज आदि वाद्य यंत्रों की मदद से सात दिन, सात रातों तक
चलने वाली 'हरि अनंत हरि कथा अनन्ताÓ सदृश्य परसू-पंवाड़ा के मनोयोग पूर्वक गायन
से युगल सर्प फन उठा कर झूमने लगते हैं व रिमझिम पानी भी बरसने लगता है। ऐसी
लोक मान्यता है कि एक हाथ कान पर रखकर व दूसरा हवा में लहराते परसू-पंवाड़ा का
गायक कभी विजना घोड़ी पर सवार हाथ में कुररा लिये परसू की तरह मूंछों पर ताव देता
फड़कने लगता है तो कभी परसू की विजय श्री का वर्णन करते अपार खुशी से झूम उठता
है।
एक किंवदन्ती के अनुसार उ.प्रदेश के पीलीभीत जनपद में स्थित बिलई-खेड़ा के राजा
बलि के पास भारी मात्रा में पशुधन था, परसू सरदार उन का प्रधान ग्वाल था, नांद
पसियापुर से बिलई पसियापुर तक अनेक गौशालाएं बनी हुईं थीं, मार्ग में स्थित डण्डिया
भुसौड़ी से पशुओं का चारा-भूसा आदि रखा जाता था, कभी इस क्षेत्र में छड़ा, रसुईया,
बरा आदि विशाल गौड़ी ( गायों के चारागाह) व निजाम, अजीत, गूलर, भॉड़, भगा आदि
बारह डाण्डियाँ (गायों के बैठने के स्थान) आज भी है, परसुआ अटास्थित गौशाला से
दूध दूह कर प्रस्तर नालियों व सुरंगों द्वारा चक्र-सरोवर में लाया जाता था जहां उसका
मंथन होता था लगभग आधा क्विंटल भारी मथानी चक्र सरोवर के पास पड़ी है जिसकी
लोग पूजा करते हैं।
अंग्रेज पुरातत्वविद जनरल कनिंघम जो वर्षो पूर्व परसू ग्वाल का महल या अटारी कहे
जाने वाले परसुआ-अटा स्थल पर पहुंचे थे ने लिखा है 'परसुआ कोट राजा बलि द्वारा
अपने अहीर सेवक परसुआ के लिये बनाए गए भवनों का मंदिर के प्राचीन अवशेष है.Ó
धरातल पर 450 वर्ग मीटर लम्बे, 100 वर्ग मीटर चौड़े व 62 मीटर ऊंचे परसुआ कोट या
टीले का सावधानीपूर्ण उत्खनन किये जाने की आवश्यकता है।
परसू वीर तथा साहसी राजकुमार थे, अपने माता-पिता की मृत्यु के बाद बांगर-बिलई
(बिलई-खेड़ा) अपने मामा राले सरदार की शरण में अनुज थोंदू व बहिन राजकुमारी
मिंगनी को लेकर पहुंचे, राले की पत्नी मामी साँवरी ने उन्हें पाल-पोस कर बड़ा किया,
राले सरदार ने दोनों राजकुमारों को अस्त्र-शस्त्रऋ चलाने, मल्ल-युद्ध व गोपालन की उत्तम
शिक्षा-दीक्षा दी, परसू-थोंदू दोनों भाई 12 बहंगी दूध प्रतिदिन चकर तीर्थ के शिव मंदिर
में चढ़ाते थे, बैरी-विद्रोह गुरैना व बिल्हैना सांड़ सदा उन के साथ रहते थे।
बड़े भाई परसू का विवाह राजा सूरज मल की कन्या सनरिया देवी या शीला भवानी के
साथ व अनुज थेंदिया का विवाह नींबागढ़ रियासत में रानी द्विलरिया से हुआ था,
लोकगाथा की उक्ति :-
'आठ ब्याहीं, नौं धरी, सोलह गौने यार ददा परसू केÓ के अनुसार परसू के आठ विवाहित
रानियों के अतिरिक्त रणक्षेत्र में विजय प्राप्त कर व डोला स्वीकार कर लायी गई कई
रानियाँ थी।
दोनों भाइयों ने अपने मामा राले के कुशल निर्देशन में बाँगर-बिलई राज्य की रक्षा करते
हुए बर्द गुरहैना व मित्र र्दुजना गूजर की मदद से अनेक साहसिक कार्य किए, काली-
कीच, भूरा दानव, धीरा-विजयी व लच्छा बाघिन का अन्त, लखमा घोषित के 12 बेटों से
युद्ध, तेली राठौर से लड़ाई, लोहागढ़ की विजय, रानी मैनरा से विवाह, राजकुमारी फूल-
बघौरी से प्रेम-प्रसंग, कामरूप देश की विजय आदि अन्यानेक कार्य इस लोक-गाथा के
मुख्य विषय हंै, परसू की रानी शीला भवानी द्वारा अपने सतीत्व के बल पर साठ कोस दूर
गंगा-घाट तक सूखे में घन्नई ले जाना आश्चर्य चकित करता है तो धीरा-बाड़ी के
सरदारों, करौनिया दानव का अंत व कामरूप देश की मनसा व तमनसा जादूगरनियों के
मोह पाश से बच निकलने के प्रसंग रोमांचित भी करते हैं।
पराक्रमी परसू ग्वाल जगनिक कवि द्वारा रचित आल्हा खण्ड में वर्णित महोबा के वीर
सरदार, आल्हा-उदल, मलखान, ढेबा व ब्रह्मा के समकालीन बताए जाते हैं। सम्भल
(मुरादाबाद) के निकट मनोकामना तीर्थ पर पृथ्वीराज चौहान न नागाओं के साथ हुई
तीनों लड़ाइयों में परसू ग्वाल ने अपने मित्र मन्ना गूजर के साथ मिलकर डट कर
मुकाबला किया व सिरसागढ़ की अंतिम लड़ाई व बांदोगढ़ की लड़ाई में जहां राजकुमारी
सुरजा का अपहरण हुआ था अटूट शौर्य व पराक्रम प्रदर्शित करते हुए वीर गति प्राप्त की
थी, बांगर-बिलई (पीलीभीत) क्षेत्र में चकर तीर्थ के निकट भारी मथानी, परसुआ कोट,
पसियापुर व ध्यानपुर ग्रामों में गाय-बैलों की प्रस्तर प्रतिमाएं, कन्नापुर व गझनेरा में 4
मीटर व्यास के ऊंचे बुर्ज व बैठकें ओढ़ाकर का टीला, सांवरी, ताल सहित अनेक ताल
गौड़ी, डांडी आदि परसू से संबंधित  स्थलसे लोक गाथा की सत्यता के स्पष्ट प्रमाण हंै
किन्तु समय के अन्तराल से ये सभी प्रतीक व प्रमाण ध्वस्त व विलुप्त से होते जा रहे हैं।
भगवान श्री कृष्ण के वंशज विशाल गो-धन की सेवा-सुश्रुषा कर दूर-दूर तक अपनी
विजय-पताका लहलहाने वाले परसू ग्वाल की यह लोक गाथा उत्तर-भारत ही नहीं,
यादव समाज के गौरवमय अतीत की अमूल्य थाती है, खेद तो इस बात का है कि परसू
पंवाड़ा जैसी लोकप्रिय गाथा के मंचन, प्रदर्शन, लेखन व प्रस्तुतीकरण की दिशा में आज
तक कोई संगठित प्रयास ही नहीं किया गया है। न ही कोई आडियो, वीडियो, सीडी
कैसेट्स आदि का निर्माण ही किया गया है। परसू-थोंदू की अनेकानेक रोचक गाथाओं से
जुड़े परसू-पंवाड़ा पर तो पूरी एक फिल्म या सीरियल भी बनाया जा सकता है व इस
धारावाहिक के प्रसारण से जनमानस में इसकी लोकप्रियता को बनाए रख जीवन दान
दिया जा सकता है।
पूर्वांचल में लोरिकी-गायन के अनुरूप ही पश्चिमांचल व उत्तरी भारत में परसू-पराक्रम
की यह लोकगाथा जन मानस में अपार ख्याति व श्रद्धा अर्जित कर श्रुति व स्मृति के बल
पर जीवित है।
अक्षर ज्ञान से अनभिज्ञ पंवाड़ा गायक ही इस लोकगाथा के प्रमुख रक्षक कहे जा सकते हैं
जिन्होंने शताब्दियों से इसे अपने कण्ठों व स्मृतियों में अक्षुण्य बनाए रखा है। इस पीढ़ी के
समाप्त होते ही लोकविधा की इस अनूठी परम्परा की पहिचान व नामोनिशान भविष्य में
विलुप्त होने की पूरी आशंका है। राजप्रसादों व ऊंची अट्टालिकाओं में बैठ कर लेखनरत
इतिहासवेत्ताओं द्वारा उपेक्षा व विस्मृति के बाद भी बांगर-बिलई की माटी में यह
लोककाव्य आज भी महक रहा है व पँवाड़ा का नायक परसू ग्वाल जनमानस के मन-
मस्तिष्क में अपनी अमिट छाप बनाए हैं।
44 नेहरु मार्ग, पो. टनकपुर 'नैनीतालÓ
(उत्तरप्रदेश), पिन- २६२३०९
(साभार रऊताही-2011  )