Thursday 14 February 2013

छत्तीसगढ़ का राऊत नृत्य

छत्तीसगढ़ के लोकनृत्य लोकवासियों की अपनी जातीय परम्परा एवं संस्कृति  के परिचायक हैं। 'राउत नृत्यÓ एक ऐसा ही लोकप्रिय नृत्य है जो छत्तीसगढ़ की समस्त राउत जाति द्वारा किया जाता है छत्तीसगढ़ के कुछ भागों में इसे गहिरा या अहिरा नाच भी कहते हैं। यह केवल पुरुषों का ही नृत्य है जो कार्तिक शुक्ल एकादशी से प्रारंभ होकर पूर्णिमा तक चलता है।
राउत जाति द्वारा यह विशेष रुप से मनाया जाता है। इसे मनाने की इनकी अपनी एक भिन्न पद्धति है। राउत जाति अपने को यदुवंशी मानती है और भगवान कृष्ण को अपना आराध्य देव। अत: कृष्ण जन्माष्टमी से ही दीपावली का शुभारंभ माना जाता है। किन्तु कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी तथा दूज की पूजा का दिन इनके लिए विशेष महत्व का होता है। ये दिन इनके लिए जातीय परम्परा के परिचायक तथा सुख-समृद्धि प्रदान करने वाले हैं। गौधन इनकी प्रमुख सम्पत्ति होती है और गो पालन इनका प्रमुख व्यवसाय। अत: इस अवसर पर ये गौओं की विशेष रूप से पूजा कर उनके गले में सोहई की माला पहनाते हैं। दूसरे दिन घर की आदिशक्ति तथा सभी इष्ट देवी देवताओं की बड़े ही विधि विधान से पूजा की जाती है। इसे वे 'मातरÓ कहते हैं। इस अवसर पर गाँव के सारे राउत एकत्रित होते हैं तथा हाथों में लाठी, भाले आदि लेकर उन्मत होकर वाद्यों के साथ नृत्य करते हुए प्रसिद्ध दोहों का गायन करते हैं। इनका यह नृत्य बड़ा ही ओजपूर्ण तथा मस्ती भरा होता है।
राउत नाच का स्वरूप-
राउत अपना नृत्य टोलियों में करते हैं। प्रत्येक टोली में 4-5 से लेकर 15-20 तक नर्तक होते हैं। नृत्य के समय इनके हाथ में लाठी होती है। नृत्य करते समय ये बड़ी उन्मतता के बाद लाठी चलाते हंै। इनकी लाठी के प्रहार को जाति वाले झेलते हैं। इसे 'काछनÓ कहा जाता है। नाच करते हुए ये कभी कभी दो की जोड़ी बना लेते हैं तथा लाठी चलाते हुए द्वंद्व युद्ध का दृश्य प्रस्तुत करते हैं। सदल-बल नृत्य करते हुए राउत अपने शुभचिंतकों के यहां जाते हैं और वे उन्हें औपचारिक भेंट आदि देते हैं।
नृत्य के अवसर पर अपनी जातीय परम्परा के अनुसार ये अनुपम साज सज्जा करते हैं। पैरों में एक विशेष प्रकार की पैजन, कमर में बड़े घुंघरु तथा घटियाँ धारण की जाती हैं। कन्धों तथा पगड़ी पर मयूर पंख के मोहक गुच्छे या गेंदा के फूलों के हार, शरीर पर कौडिय़ों से मढ़ा हुआ वस्त्र तथा रंगीन आकर्षक कंच्छा पहिनते हैं। इस तरह वे आकर्षक साज सज्जा कर हाथों में लाठी, ढाल आदि लेकर नृत्य के लिए प्रस्तुत होते हैं। वे घर से नृत्य करते हुए निकलते हंै और घर-घर जाते हैं। इनके वाद्यों में ढोलक, झांझ, तुरही, नगाड़ा तथा बंशी प्रमुख हैं। नृत्य में एक दो लोग मशाल जलाकर भी साख रखते हैं।
राउत नृत्य गीत-
नृत्य के अवसर पर जो गीत गाये जाते हैं। वे दोहे की शैली में होते हैं। यद्यपि ये दोहे नृत्य के समय नहीं कहे जाते वरन् बीच-बीच में जब नृत्य कुछ देर के लिए रोक दिया जाता है, तब इन्हें कहा जाता है, ये दोहा- छंद के अनुसार ही कहे जाते हैं। दोहों की पंक्तियों में पारस्परिक संबंध की एकरुपता नहीं पाई जाती। राउतों के इन दोहों का विषय कुछ भी हो सकता है। उनकी दृष्टि की परिधि में जो कुछ अनुभव आते हैं, उन्हें वे अपने दोहों के माध्यम से व्यक्त करते हैं। इन दोहों में प्रधानता: गौवंश की समृद्धि की कामना, देवी देवताओं के माहातम्य का वर्णन, विश्व बन्धुत्व की कामना तथा पारिवारिक एवं सामाजिक संदर्भों का यथार्थ वर्णन होता है। ये दोहे स्वरचित होते हैं तथा अवसर देखकर तत्काल भी बना लिये जाते हैं नृत्य के अंत में दोहे के माध्यम से अपने स्वामी को आशीष दी जाती है-
'काछनÓ के अवसर पर गाये जाने वाले दोहे इस तरह के होते हैं-
एक काछ काछेंव भइया, दूसरा दिएव लमाई।
तीसर काछ काछेंव तो माता पिता के दोहाई।।
कलकत्ता के कालिका, परबत के किलकार।
जा दुश्मन ला चाट भठया, दैवंव रकत के धार।।
करकर-करकर कुकरा करय, फरफर फरफर पांखी।
तरमर तरमर झन करवे बइरी, तोला जमाहूँ लाठी।।
लीपे पोते चंवरा भइया, लोटत गऊआ सांप।
बीस लागे बिसंभर ला, बइरी ला लागे सराप।
- मैंने एक बार कांछा। दूसरी बार कांछा। तीसरी बार कांछा और माता-पिता के यश का गुणगान किया। कलकत्ता की काली माता दुश्मन का विनाश करती है। उसे रक्त की भेंट अर्थात् बल दी जाती है।  मुर्गा कर-कर करता है और  पक्षी फडफ़ड़ाता है। तू गड़बड़ मत करना, नहीं तो तुझ पर लाठी से प्रहार करेंगे। लीप पोत के चौरे को स्वच्छ किया है जिस पर गऊंहा सांप लोट रहा है। उसका विष दुश्मनों को मारता है।
अपने साथियों सहित जब राउत 'गोठानÓ में 'मातरÓ (घर की आदिशक्ति तथा इष्टदेवी की पूजा मनाने जाते हैं तब इस तरह का दोहा गाते हैं-
बोकरा लेवे कि भेड़ा रे, नाचन लेवे रक्त के धार।
मैं तो जाथंव मतराही माँ, तोला लागे हय भार।।
हे कुलदेवी, तू अपनी बलि के लिए कौन-सी भेंट लेगी- बकरी, भेड़ अथवा रक्त की धारा। मैं मातर मनाने जा रहा हूँ। घर की जिम्मेदारी अब तुम्हारी है।
नृत्य करते हुए जब राउत गांव के अन्य घरों में भेंट करने के लिए जाते हैं, उस समय कुछ भिन्न प्रकार के दोहे कहते हैं। ऐसे दोहों में पारिवारिक भावना, सुभाषित अथवा पहेलियाँ हुआ करती हैं। इनमें स्वाभाविकता के साथ ही यथार्थ का चित्रण होता है-
कारी टूरी कर मूंगरी, करिया चीज नहिं भाय।
करिया धनी ला भाय नहीं, कोदो सांबर बर जाय।।
देवारी-देवारी रटेंव भइया, देवारी जीव के काल रे।
सब के छुटगे बनी भूती, मोरो छुटिस रोजगार रे।
चना लूरे चना खेत माँ, भैंइसी लूरे दइहान रे।
गोरी लूरे भइया अपन घर, समय लूरे ससुरार रे।
चंदा के बइरी  रे धन बदरी, रन के बइरी तरवार।
मछली के बइरी केवटा रे, मारेय जाल फँसाय।
कृष्ण वर्ण की लड़की ने जिसने काले मँूग की माला पहिन रखी है, काले रंग की किसी भी वस्तु को पसन्द नहीं करती। काले रंग का पति भी उसे पसंद नहीं है। वह कोदो के समान सांवले वर्ण वाले पुरुष के साथ रहती है।
- मैंने दीवाली की रट लगाई थी किन्तु यह दीवाली ही मेरे प्राण की दुश्मन बन गई। सबकी मजदूरी छूट गई और सबके साथ मेरा भी व्यवहार समाप्त हो गया।
जिस तरह चने की शोभा चने के खेत में होती है तथा भैंस की शोभा गोठान में होती है, उसी तरह लड़कियां भी बचपन में माँ-बाप के घर तथा युवावस्था में ससुराल में शोभा पाती हैं।
चन्द्रमा का शत्रु बरसाती बादल है। युद्ध का शत्रु तलवार है। मछली का दुश्मन केंवट है जो उसे जाल में फंसाकर मारता है।
दीवाली के पर्व पर राउत अपने मालिक के घर जाकर कुछ उपहार आदि पाकर वे प्राचीन काल के चारण अथवा भाट की भांति अपने दोहों के माध्यम से उनका यशोगान करते हैं तथा उनके दीर्घ जीवन की कामना करते हैं-
जइसे के मालिक लिहेन-दिहेन तइसे के देबो असीस।
रंग महल माँ बैठव मालिक जीवन लाख बरीस।।
ठाकुर जोहारे आएन भइया खाएन पान सुपारी।
रंग महल मां बैठव मालिक राम राम लेव मोरी।।
हे स्वामी, जैसा आपने दिया और हमने पाया। वैसा ही आपको आशीर्वाद भी देंगे। आप अपने रंग महल में बैठे और लाखों वर्षों की आयु प्राप्त करें। हम अपने मालिक के दर्शन करने के लिए आये और पान सुपारी खाकर उनका सत्कार प्राप्त किया। हे मालिक, आप अपने रंगमहल में बैठे और हमारा राम-राम का अभिवादन स्वीकार करें।
इन राउत दोहों में जहां एक ओर जन जीवन के विचित्र पक्षों की अभिव्यक्ति होती है, वहां दूसरी ओर संसार की निस्सारता का भी उल्लेख मिलता है-
चार दिन के जिनगी भइया, चार दिन के खेल।
चार दिन हे देवारी, फेर कउन मरही कउन जीही।।
- यह जीवन चार दिनों का है और चार दिनों का ही जीवन रस रंग है। चार दिनों का ही दीवाली का उल्लास है। फिर पता नहीं, कौन जियेगा और कौन मरेगा ?
इन राउत दोहों में कभी-कभी ऐतिहासिक अथवा पौराणिक घटनाओं का भी संकेत मिलता है। प्रस्तुत दोहों में सीताजी के लंका में रहने की घटना का संकेत है-
धरि के मंदोदरि थारी मं कलेवना, चली सिया के पास।
उठि-उठि सीया भोजन करि ले, करिहौ लंका के राज।
नहिं धरी तौर थारी कलेवना, नहिं करो लंका के राज।
बांस भिरा में भरि-भरि जइहा, लगि जांगू राम के साथ।।
- मंदोदरि थाल में पकवान सजाकर सीताजी के पास जाती है और कहती है- हे सीता, उठो। भोजन कर लो। तुम लंका का राज्य करोगी। सीताजी कहती है- तुम्हारे पकवान मुझे नहीं चाहिए। न ही मुझे लंका का राज्य चाहिए। कहीं भी बाँसों के झुरमुट के नीचे मैं मरखप जाऊंगी और राम के साथ ही जाऊंगी।
कहीं-कहीं इन दोहों में कबीर के दोहों की तरह उलटवासियाँ भी देखने को मिलती हैं-
बोंवत देखेंव बटुरा जामत देखेंव कुसियार।
अढ़ई महीना के छोकरा दाढ़ी मेछा लु हुसियर।
कारी बन के कारी चिरइया, कारी खदर चुन खाय।
पाथर फोर के पानी पिए, मियना चढि़ घर जाय।।
बोते समय मैंने उसे मटर के समान देखा किन्तु जब वह बड़ा हुआ तो गन्ने के समान था। ढाई महीने  के बच्चे की दाढ़ी और मूंछ निकल आई।
काले धन की काली चिडिय़ा काला अन्न चुनकर खाती है। पत्थर फोड़कर वह पानी पीती है और पाली में चढ़कर घर जाती है।
कभी-कभी इन दोहों में नीति वचनों की भी झलक मिलती है-
नील  बोय न छूटिहय, लोह न कंचन होय।
कतको कपूर चराइये, कागा न हँसा होय।।
खार बिगडिग़ै करचुवा, समय बिगडि़ गै अकूर।
धरम बिगाड़े लालची, उड़ै केसर के धूर।।
जिस प्रकार धोने से नील का  नीला रंग नहीं छूटता, उसी प्रकार कौए पर कितना भी सफेद कपूर का लेप लगाया जाये, वह हंस नहीं बन सकता।
खेत कांस की धान से बिगड़ जाता है और समय बिना कुछ किए बिगड़ जाता है। लालच करने वाले मनुष्यों से धर्म बिगड़ता है और केसर भी धूल बनकर उडऩे लगती है।
सर्वप्रथम मुखिया अपने उच्च स्वर से दोहे की प्रथम पंक्ति गाता है। इसके पश्चात सब उसे दोहराते हंै। दोहों की अद्भुत थकान, हाव-भाव का व्यक्तीकरण तथा नृत्य की अद्भुत उमंग राउत जाति के जीवन की जीवंतता को मुखरित कर देती है। ये दोहे इस अंचल की राउत संस्कृति के परिचायक हैं, इसमें संदेह नहीं।
साभार-रऊताही 1997

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