Tuesday 19 February 2013

छत्तीसगढ़ी संस्कृति और नागतत्व

यह निर्विवाद है कि संस्कृति-निरपेक्ष साहित्य शाश्वत नहीं होता। साहित्य सांस्कृतिक तत्वों को लेकर ही उसका विवेचन-विश्लेषण करता है और निर्दिष्ट करता है- युगीन संदर्भों का सुंदर चित्रांकन यही कारण है कि साहित्य में विविध युगों के स्पंदन मिलते हैं। स्पष्ट है, जो साहित्य जितना प्राचीन होगा, उसमें उतनी ही पुरानी संस्कृति दृष्टिगत होगी। छत्तीसगढ़ी साहित्य एवं संस्कृति में तदनुरुप प्रागैतिहासिक काल से लेकर आधुनिक तत्व खोजे जा सकते हैं, संप्रति नागतत्व भी छत्तीसगढ़ी लोकसंस्कृति में अक्षुण्ण है।
नाग प्राचीन जाति थी जिसमें सर्प की विशेषता को निरखकर नाम के प्रतीकार्थ ही उसे संबोधित किया गया। कालांतर में अलौकिकता के साथ संशिलष्ट-संगुफित होकर यह जाति नाग के रूप में ही अभिहित हुई। नाग कर्मठ जाति थी जिन्हें रत्नों के संधान का अभ्यास था। पहले आर्यों से इनका संघर्ष हुआ और बाद में यह जाति उनके साथ मिल गई। यह जाति नाग की तरह सुंदर स्निग्ध और सुंदर थी। इसीलिए आर्यों से इनका सहज दाम्पत्य संबंध स्थापित हो गया। प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन-अनुशीलन से यह पता चलता है कि अनेक कार्य ऋषियों और राजाओं ने नाग कन्याओं से विवाह किया था। इनकी संतानें वैध मानी जाती थीं। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार 'कद्रूÓ पुत्र नागों के वंश में उत्पन्न अर्बुद नामक ऋषि ऋग्वेद के दसवें मंडल के चौरानबे सूक्त के रचयिता बताए गए हैं। 'एक और मंत्रदृष्टा ऋषि इरावत के पुत्र जरतकर्ण थे, जिन्हें सायण ने सर्प जाति का बताया है। नागों के प्रसिद्ध शत्रु माने जाने वाले जन्मेजय के पुरोहित सोमश्रवा थे जिनके विषय में परिचय देते हुए उनके पिता श्रुतश्रवा ने कहा था यह मेरा पुत्र नागकन्या के गर्भ से संभू्रत महातपस्वी स्वाध्याय सम्पन्न और मेरे तपोवीर्य से उत्पन्न हुआ है।
पृथ्वी का भार उठाने वाला शेषनाग पुराणों में देव के रूप में प्रतिष्ठित है। नागपंचमी भी नाग को देव के रूप में स्मरण किये जाने के प्रतीकार्थ मनाया जाता है। दीवारों पर नाग बनाये जाते हैं। इसकी पूजा की जाती है। नाग का दर्शन शुभ माना जाता है। उन्हें दूध पिलाया जाता है।
छत्तीसगढ़ भी नागवंशों की कीर्ति से गौरवान्वित प्रदेश रहा है। इतिहास के छात्र इसे अच्छी तरह से जानते हैं। श्री पद्युमन-विरचित छत्तीसगढ़ के नागवंश का इतिहास दो भागों में प्रकाशित भी है। यहां इन सबकी विशेष चर्चा न करते हुए भी एक उल्लेखनीय तथ्य लिखना उचित होगा। खैरागढ़ के नागवंशी परिवार के एक शिक्षित व्यक्ति ने मुझे बताया कि उनके वंश में सर्प किसको नहीं काटता और यदि किसी को काट भी लिया हो तो उसका प्रभाव नहीं हुआ। इस तथ्य को कोई अंधविश्वास भले कहे लेकिन यह वैज्ञानिक अनुसंधान के साथ नागवंश की विशिष्टता को स्वरित करने की अपेक्षा रखता है।
छत्तीसगढ़ी लोकथाओं में सर्प या नागतत्व प्रतीकार्थ समादृत है। किसी के धन पर सर्प बैठ जाने की घटना प्रकारांतर में व्यक्ति का लोभ ही है। जब तक उसमें कृपणता रहेगी, लोभ का सर्प अक्षुण्ण रहेगा, परिणामत: मनुज धन के सही उपयोग से वंचित हो जावेगा। कृपणता दूर होते ही नागतत्व सौम्य होकर मनुज का सहयोगी-सहभागी बन जाता है। सच भी है कि अर्थ की प्रचुरता मनुष्य को धन का सर्प बना देती है। उसका जीवन जटिल हो जाता है। इसे ही मनोवैज्ञानिक ढंग से हटाकर सरल-सहज जीवन निर्दिष्ट करना छत्तीसगढ़ी लोक कथाकार को अभीष्ठ है। नागपंचमी से संबंधित लोककथाओं में नाग अलौकिक शक्ति के रूप में वर्णित है जो कु्रद्ध होने पर जीवन नष्ट कर देता है और प्रसन्न होने पर मालामाल कर देता है। यह नाग भी मानव जाति की विशिष्टता को ही संसुचित करता है। एक छत्तीसगढ़ी लोककथा के अनुसार एक स्त्री मायके न जाने के कारण दुखी है। सर्प उसको बहन मानकर संतोष प्रदान करता है। इस लोकाख्यान में वर्णित सर्प मनुष्य ही है। इसी तरह सर्प का मानव रूप परिवर्तित कर लेना और फिर सर्प हो जाने विषयक अनेक छत्तीसगढ़ी लोककथाओं से भी नाग के मनुज होने का स्पष्ट आभास होता है। नाग जाति के लोगों का अन्य लोगों से संपर्क की कथा ही प्रकारांतर में उक्त भावना का मंतव्य है।
कुछ छत्तीसगढ़ी लोककथाओं में नागमणि और नाग कन्या की चर्चा मिलती है। मनुज नागमणि के माध्यम से जल में उतरते हैं। नागमणि की यह विशेषता है कि जल उसे मार्ग देता है। इसके बाद साहसी मनुज महल में प्रस्थित होकर नाग को परास्त कर नाग कन्या प्राप्त करता है। इससे यह तथ्य तो ध्वनिमत होता है कि आर्यों का नागों से संपर्क व संघर्ष हुआ। साथ ही यह भी आभास होता है कि नागजाति के लोग जल में महल बनाकर रहते थे। वे संपन्न थे और नागकन्याएं सुंदरता के लिए विख्यात थीं।
छत्तीसगढ़ी लोककथाओं में नाग अनेक रूपों में वर्णित होते हुए भी विविध रहस्यों को छुपाए हुए हैं। यदि शिक्षा के उद्देश्य से यह नीति की बात कहता है तो औत्सुक्य वृद्धि के लिए बालोपयोगी भी हो जाता है। कुछ लोककथाओं में यदि नाग मात्र मनोरंजन के रूप में वर्णित हैं तो कुछ में मानवीय आरोपण के रूप में समादृत। यद्यपि छत्तीसगढ़ी लोककथाओं में नागतत्व संश्लिष्ट-संगुफित है तथापि छत्तीसगढ़ी लोकगीतों व लोककथाओं में यत्र-तत्र संकेतार्थ संरक्षित है। छत्तीसगढ़ी कवि इन्हीं लोकतत्त्वों को समेट कर मौलिक सूझ-बूझ व चिंतन प्रक्रिया से संयुक्त कर, नए परिवेश में प्रस्तुत करते हैं। लोकसाहित्य का नागतत्व विशिष्ट साहित्य से उद्भूत होकर गौरवशाली सांस्कृतिक परंपरा को अक्षुण्ण रखने का उपक्रम निवेदित करता है। स्व. कपिल नाथ कश्यप ने छत्तीसगढ़ी लोक कथा के आधार पर 'हीराकुमारÓ नायक छत्तीसगढ़ खंडकाव्य का सृजन किया है। उन्हें उक्त लोककथा ग्राम सकराली निवासी श्री मुखा मानिकपुरी से सुनने को मिली थी जिसे कवि ने हृदयगत भावनाओं में डूबाकर प्रस्तुत किया है। छत्तीसगढ़ी प्रबंध काव्य परंपरा में 'हीराकुमारÓ ऐसी प्रथम कृति है जो नागतत्त्व से स्पर्शित होकर प्रकट होती है।
धनीराम साव नामक व्यक्ति अर्थाभाव होने के कारण अतिथि सत्कार न कर सकने की पीड़ा से अपनी पत्नी को मार डालने के लिए टोकरे में सर्प ले आता है। जैसी ही उसकी पत्नी उसे खोलती है, प्रकाशवान हीरा निरखकर उसे आश्चर्य होता है। उसे सेठ के माध्यम से नि:संदेह राजा प्राप्त करता है और रात्रि को शयनकाल शिशु के रोने की ध्वनि सुनकर एवं ईश्वरीय लीला देखकर स्ंतभित हो जाता है। हीराकुमार का विवाह रामकुमार की राजकुमारी तारा से नियत होता है, किंतु राजा की मृत्यु हो जाती है। मंत्री के षड्यंत्र को समझकर हीराकुमार को लेकर रानी उस स्थल पर पहुँचती है, जहां हीराकुमार की ससुराल थी। मदन पंडित हीराकुमार और तारा दोनों को पढ़ाते हैं। वहीं दोनों का परिचय होता है  और दोनों भागकर मालिन के पास पहुंचते हैं। जहां मालिन गिरजा द्वारा भेड़ बनाकर हीरा को छिपा दिया जाता है और बाद में तारा उसे प्राप्त करती है। मालिन के चतुराई के कारण जाति पूछकर पुन: नाग के रूप में परिवर्तित होकर हीराकुमार उससे विलग हो जाता है। तारा बनगवां की सहायता से पुन: उसे प्राप्त करती है।
प्रस्तुत कथा में नाग का हीरा हो जाना प्रतीकार्थ प्रयुक्त हुआ है। वास्तव में नागजाति के लोग संपन्न थे और भूमि में अवस्थित अमूल्य रत्नों के संधानकत्र्ता भी। इन जातियों का अधीन हो जाना या सहयोगी बनना मूल्यवान हीरे-सदृश सुख प्राप्त करना ही कहा जाएगा। इसी प्रकार शिशु के रूप में प्रकट होना, उसके मानव जाति होने का स्पष्ट प्रमाण है। नाग सुंदर और सुकुमार जाति रही है, प्रस्तुत खंडकाव्य के वर्णन से यह स्पष्ट है। आर्य जातियां इनसे घृणास्पद व्यवहार करती थीं। इसी कारण हीराकुमार की जाति छिपी रही लेकिन मालिन के दुव्र्यवहार और ईष्र्या के फलत: हीराकुमार की हीनता ग्रंथि ने उसे नागलोक में सहारा दिया। प्रेम शाश्वत होता है, स्थायी होता है। आर्य जाति की सुंदरी तारा के प्रेम को वह कैसे विस्मृत कर सकता था? और फिर सुंदरी के मन से तारा हीरा कुमार के प्रति प्रणयाधिक्य में अल्पता कैसे होती? प्रेम जाति के हल्के बंधन को झकझोर देता है। प्रेम के कारण ही आर्यजाति की सुकन्या को नागजाति के सुंदर राजकुमार हीराकुमार की खोज करनी पड़ती है और अंत में सफलता भी मिलती है। नाच-गान व वैभव-विलास लीला के बीच हीराकुमार को दृष्टिपात करना नागजाति के ऐश्वर्य जीवन को उद्भासित करता है। आर्य जाति की सुंदरी का नागजाति के राजकुमार के प्रति वरण और प्रेम की अदम्य लालसा दोनों जातियों के समन्वय और रक्त संबंध को प्रकट करता है। छत्तीसगढ़ी की अन्य लोककथाओं में नागजाति की प्रिया और आर्य जाति के पुरुषों की सुंदरता-पुष्टता अलौकिक है। अक्षत द्वारा हीरा को भेड़ बनाना छत्तीसगढ़ी तंत्र-मंत्र परंपरा का रूप है-
पीछू होके मारिस भँवर, कहिके तंय ह निचट लेढ़वा।
कारी-पिंउरी चांउर लगते, तुरते होइस हीरा भेड़वा।।
नागजाति मानव थी। निम्नपंक्तियों में उनका यही स्वरूप दिग्दर्शित होता है-
रंग-रंग के सांप निकर के बाहिर आइन,
मनसे के सब सुंदर-सुंदर भेख बनाइन
छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में नागलोक है। वर्षा-ऋतु में सर्प दंश से यहां हजारों की मृत्यु होती है। इसी तरह नागलदह, नागतरोई (राजनांदगांव), नागलसर (बस्तर), साँपधरा (सरगुजा), अजगर बहार (बिलासपुर), नागझर (सरगुजा), नागलदेही, नागलबुड़ा, नागिलबहरा, नागेश, अजगर खार (रायपुर) आदि ग्राम-नाम के महात्म्य को महिमा मंडित करते हैं। बिलासपुर जिलांतर्गत अकलतरा रेलवे स्टेशन से लगभग पच्चीस किलो मीटर पूर्व दिशा में अमोरा नामक गांव है। बहुत पहले वहां आश्चर्यजनक घटना यह हुई कि यहां की मुखिया की बहू ने एक छोटे से सर्प को जन्म दिया। बहू के स्तन पान से वह बढऩे लगा उसने कभी किसी को नुकसान नहीं पहुंचाया। वह अपने बाबा के साथ खेत जाता। उसके उत्पन्न होने के बाद से मुखिया का घर धन-धान्य से भर गया।
सर्प घर और खेत की रखवाली करता। सबके खाने के बाद जब चूल्हे की आग बुझा दी जाती, तब वह चूल्हे के भीतर सो जाता। एक दिन नाग चूल्हे में सोया हुआ था। जल्दबाजी में बहू ने उसमें आग डाल दी। सर्प मर गया। इस दुर्घटना से दुखी मुखिया ने एक चबूतरा बनाया जिसे नागचौंरा कहा जाता है। इसकी पूजा की जाती है। आसपास के ग्रामों में यदि किसी को विषैला सर्प डस ले तो 'नागचौराÓ की चुटकी भर मिट्टी खिला देने से वह व्यक्ति अच्छा हो जाता है। इसी तरह रायपुर के ब्राह्मण पारा के पंच मैयाराम के शुक्ला परिवार के किसी व्यक्ति को सर्प नहीं काटता। यदि किसी को काट भी ले तो उस परिवार के व्यक्ति की मृत्यु नहीं होती। आज के वैज्ञानिक युग में ऐसी घटना शोध का विषय है। छत्तीसगढ़ के लोकजीवन और साहित्य में नाग का प्रभाव घुला-मिला है।
साभार- (द्वितीय खंड)

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