Tuesday 19 February 2013

छत्तीसगढ़ लोक नृत्य में अहीर नृत्य का विशिष्ट स्थान

पवित्र देवभूमि भारत वर्ष अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक धरोहर, अनूठी लोककला तथा लोक परंपरा का निर्वहन करते श्रम साध्य लोक कलाकारों के अद्वितीय प्रदर्शन तथा कला कौशल के कारण धर्म तथा आध्यात्म के बाद सारे विश्व में अपनी छाप छोड़कर सांस्कृतिक क्षेत्र में भी विश्व गुरु का दर्जा पाने का हकदार है। विश्व के सबसे बड़े देशों में से एक विशाल आबादी वाला भारतवर्ष अनेक भौगोलिक क्षेत्र में विभाजित है। इस प्रत्येक क्षेत्र की पृथक सांस्कृतिक विशेषताएं तथा अपना विशिष्ट लोककला है चाहे गुजरात का 'गरबाÓ को हो या असम का 'बिहूÓ पंजाब का 'भांगड़ाÓ हो या छत्तीसगढ़ का 'राऊत नाचÓ प्राय: हर लोककला सांस्कृतिक विशेषताओं से परिपूर्ण है जिसके कारण बरबस ही ध्यान उस ओर खींच चला जाता है। यह कला सांस्कृतिक धरोहर के रुप में स्थानीय जन-जीवन में पूरी तरह घुल मिल गयी है।
भारत के हृदय पर बसा म.प्र. राज्य के पूर्वी भाग में छत्तीसगढ़ के नाम से विख्यात यह भौगोलिक क्षेत्र सारे विश्व में 'धान का कटोराÓ के नाम से प्रसिद्ध है। इसका सीधी-सीधा अर्थ यह हुआ कि यहां का मुख्य व्यवसाय कृषि आधारित है। जहां कृषि कार्य पारंपरिक तरीके से होता हो वहां गाय बैलों को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता क्योंकि यह कृषि कार्य के अभिन्न अंग हंै। गाय-बैल की सेवा तथा देखभाल करने वालों की एक विशेष जाति है जिसे रावत, यादव, राउत आदि नामों से संबोधित किया जाता है। यह जाति अपने किसान तथा गौंटिया के घर सालभर गाय-बैलों की सेवा करते रहते हैं और राउत नाचा के समय एक विशेष बख्शीश प्राप्त करते हैं जो धान, रुपया अथवा नए कपड़े के रुप में होता है। महाभारत के प्रमुख पात्र श्रीकृष्ण का गायों के प्रति अनुराग सर्वविदित है, उन्होंने अपनी लीलाओं में अनेक प्रसंगों में गोधन की महत्ता प्रतिपादित की है, रावत जाति स्वयं को कृष्ण का वंशज मानते हैं अत: स्वाभाविक है कि राऊत नाच की परंपरा भी किसी न किसी रुप में कृष्ण की कलाओं का अंग होगा। इस बारे में अनेक जनश्रुति सुनने को मिलती है, बहरहाल जो भी है राऊत नाचा छत्तीसगढ़ी जन-जीवन लोक परंपरा, कला विरासत, आचार-विचार और एक जाति विशेष की जीवन शैली का एक अभिन्न अंग है। विलक्षणता, शौर्य और पराक्रम तथा साधना राऊत नाचा की विशेषता है। राऊत नाच का पर्व प्रतिवर्ष कार्तिक माह में देवउठनी एकादशी से पूरे छत्तीसगढ़ में प्रारंभ होता है। आमतौर पर इस माह तक खेतों में फसल काट लिया जाता है और समूचा छत्तीसगढ़ मेहनत से फुर्सत पाकर खुशहाली मना रहा होता है। इस खुशहाली तथा किसान की समृद्धि के उत्साहवर्धन में राउत नाच का भी थोड़ा योगदान होता है। नाचा के वाद्ययंत्रों में गड़वा बाजा प्रमुख होता है जिसकी एक विशिष्ट थाप तथा लय मन को उल्लासित करने के साथ हर किसी को नाचने को विवश कर देती है।
राउत नाच में नर्तक दल तथा वादक दल प्रमुख अंग है नर्तक लोक अपने मुख में पीला रंग और गालों में चमकी, आंखों में काजल, माथे में चंदन, सिर में साफा का पगड़ी के ऊपर कागज के फूल तथा मोर पंख लगाते हैं, लाल-पीले कुर्ते के ऊपर कागज के फूल तथा मोर पंख लगाते हैं, लाल पीले कुर्ते के ऊपर जाकिट पहनकर उस पर कौड़ी अथवा मोती का झालर लगाते हैं, एक हाथ में ढाल तथा दूसरे में लाठी पकड़कर नाचते हैं। इसी तरह वादक दल अपने यंत्रों के निशान, मोहरी, ढोलकी, टिमकी आदि के साथ रहते हैं किसी-किसी दल में पुरुष नर्तक स्त्री का वेश धारण किये रहता है। राउत नाचा के आगमन पर ढोल की थाप सुनते ही बच्चे बूढ़े सभी उमड़ पड़ते हैं। राऊत नाच की शैली अन्य सभी लोक नृत्यों से अनूठी है, बीच-बीच में वाद्य यंत्रों को रोक-टोक क्रमश: एक-एक व्यक्ति द्वारा दोहा पढ़ा जाता है जो धार्मिकता तथा लोक कथाओं पर आधारित होने के साथ समाज को जगाने वाले अर्थों के लिए होता है। अपने किसान के घर जाकर राऊत नाचा दल गाय बैलों के गले में सुहाई बांधते हैं तथा आशीर्वाद युक्त दोहा पढ़ते हैं-
धन-धान ले पूरा रहव, पावव हमर असीस
नाती पुत ले घर भरव जीवव लाख बरीस।
इसी क्रम में बच्चों को हंसाने के लिए भी मसखरी युक्त दोहा पढ़ा जाता है जैसे-
हाट गएन बाजार गएन उंहा ले लानेन संतरा।
तोर डौकी ल भूत धरीस त हमन मारेन मंतरा।
देवउठनी एकादशी से प्रारंभ होने वाले इस नाचा का जोर कार्तिक के बाद पूरे दो माह तक रहता है, कहीं-कहीं पर तो विशेष रुप से ग्रामीण मेला मड़ई का भी आयोजन किया जाता है जिसमें दूर-दूर के नर्तक दल आकर अपना कौशल दिखाते हैं जिसमें नाचा के अलावा दांतों से पानी भरे बर्तन को उठाना, बालों में साइकल बांधकर उठाना, लाठी चालन, तलवारबाजी सहित अनेक जोखिम पूर्ण खेल का प्रदर्शन कर लोगों को मंत्रमुग्ध कर देते हैं।
राउत नाचा का विशेष आयोजन छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में होता है प्रदेश शासन के पूर्व मंत्री बी.आर. यादव के विशेष प्रयास से दिल्ली से दूरदर्शन टीम द्वारा इस कार्यक्रम का फिल्मांकन कर प्रसारण द्वारा इस नाचा को राष्ट्रीय ख्याति मिली है। बिलासपुर के अलावा चांपा, सक्ती, जांजगीर, देवरहट आदि प्रमुख स्थानों पर रावत नाच तथा मड़ई का विशेष आयोजन होता है। छत्तीसगढ़ लोक नृत्य में राऊत नाचा का विशेष स्थान है। इस नाचा में राउत जाति के बड़े-बूढ़ों के साथ उनके बच्चे भी शिरकत करते हैं तथा परंपरागत इस नाच को सीखते रहते हैं यह नाचा जब से चला आ रहा है इसका कोई इतिहास नहीं पर जो भी है क्षेत्र में इतना सांस्कृतिक क्रांति होने तथा टीवी चैनलों की बाढ़ के बाद भी यह नाचा इस क्षेत्र में आज भी उतना ही प्रसिद्ध है जितना की पंजाब में 'भांगड़ाÓ।
साभार- रऊताही 2000

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