Tuesday 19 February 2013

नृत्य और लोकनृत्य एक परिचय

नृत्य क्या है ? यह एक प्रकार का अभिनीत गीत है। यह सब कलाओं  में प्रभावशील कला है। यह सब के मन को मोह लेता है। यह एक वह सुन्दर कला है जो जीवन को आनंद से भर देता है। नृत्य आनंद का प्रतीक है। यह स्वयं ही एक जीवन है। जिसने इसे स्वीकारा और साधना से इसे सिद्ध बनाया, उसने जीवन का अमोध आनंद प्राप्त किया।
नृत्य एक कला है। कला का लक्षण बताते हुए शुक्राचार्य ने अपने 'नीतिसारÓ नामक ग्रंथ में लिखा है कि जिसको एक मूल (गूंगा) व्यक्ति भी वर्णोच्चारण नहीं कर सकता, उसे वह निखार देता है। यह कला अनंत है। इसके कई विभिन्न रूप है। यों तो भारतीय शास्त्र में कला चौंसठ है पर उनमें नृत्य कला प्रमुख है। पर 'शिव तत्व रत्नाकरÓ में जो चौसठ कलाओं का उल्लेख है, उसमें नृत्य को यथोचित स्थान नहीं दिया गया है।
वात्स्यायन प्रणीत 'कामसूत्रÓ के टीकाकार जयमंगल ने दो प्रकार की कला का उल्लेख किया है- (काम शास्तांग भूता और तंत्रावपोपयिकी। इन दोनों में प्रत्येक में चौसठ कलाओं का उल्लेख है जिसमें उन्होंने नृत्य और वाद्य को प्रमुख बताया है।
श्रीमद् भागवत के प्रसिद्ध टीकाकर श्रीधर स्वामी ने श्री श्रीमद् भागवत के दशम स्कंध में कलाओं का उल्लेख किया है जिसमें नृत्य कला भी है।
सचमुच में नृत्य एक वह कला है जो जीवन को आनंद से आल्हादित कर देती है। हावभाव आदि के साथ जो शारीरिक गति दी जाती है, उसे ही नृत्य कहा जाता है। नृत्य में करण, अहंकार, विभाव, भाव, अनुभाव और रसों की अभिव्यक्ति की जाती है। नृत्य दो प्रकार के हैं- 1. नाटक 2. अनाट्य।
स्वर्ग या नरक या पृथ्वी के निवासियों की कृति का अनुकरण नाटय कहा जाता है और अनुकरण विरहित नृत्य अनाट्य। यह कला अति प्राचीन काल से वहां बड़ी उन्नत दशा में थी। श्रीशंकर जी का तांडव नृत्य हमारे प्राचीन ग्रंथों में प्रसिद्ध है। आज तो इस कला का पेशा करने वाली एक जाति ही 'कत्थकÓ के नाम से प्रसिद्ध है। वर्षा ऋतु में बादल की गर्जना से आनंदित मोर का नृत्य बड़ा आनंददायक होता है। सौभाग्य है कि उसके इस नृत्य को देखने का अवसर हमें मथुरा में मिला हंै जिसे देखकर सभी प्रफुल्लित हो गये थे।
आज देश विदेश के सभी समाज में नृत्य का अस्तित्व व्यापक रूप से छाया हुआ है। पाश्चात्य देशों में नृत्य कला एक प्रधान सामाजिक वस्तु हो गई है। वहां प्रत्येक स्त्री पुरुष एक दूसरे के साथ हाथ मिलाकर बालडांस करते हैं। यह नृत्य कला, उनकी संस्कृति का प्रमुख अंग बन गई है।
यों तो भारत में भी प्राचीन काल से नृत्य कला की बड़ी मान्यता है। इस कला की शिक्षा प्राचीन काल में राजकुमारों तक के लिए आवश्यक समझी जाती थी। अर्जुन द्वारा अज्ञातवास काल में राजा विराट की कन्या उत्तरा को वृहन्नला रूप में इस काल की शिक्षा देने की बात महाभारत में प्रसिद्ध है। दक्षिण भारत में यह कला अब भी मौजूद है।
छत्तीसगढ़ अंचल के प्रमुख नगर रायगढ़ के भूतपूर्व राजा चक्रधर सिंह संगीत के महान मर्मज्ञ थे। उनके दरबार में संगीत का कार्यक्रम होता था जो अभी भी जारी है। इस कार्यक्रम के साथ उन्होंने नृत्य को भी अच्छा स्थान दिया था। वहां शास्त्रीय संगीत के साथ शास्त्रीय नृत्य को भी विशेष महत्व दिया जाता था।
नृत्य दो प्रकार के हैं- प्रथम नृत्य और द्वितीय लोक नृत्य। स्त्रीय नृत्य शास्त्रीय पद्धति से किया जाता है और लोक नृत्य अशास्त्रीय पद्धति से।
लोक नृत्य को देहात के अनपढ़ नर नारी  लोक वाद्यों को सहारा लेकर करते हैं। लोक नृत्य वस्तुत: प्राकृतिक नृत्य है। लोक जीवन में अनुकूल किसी न किसी प्रकार के नृत्य का रूप प्रकट होने लगता है इन लोक जीवन नृत्यों में कला तो स्वाभाविक होती है पर कलात्मक होने की चेतन्यता नहीं होती। अत: आदिम या जंगली जातियों में यह स्वभाविक लोक नृत्य जितना स्वाभाविक रूप से सशक्त होता है, उतना अन्यों में नहीं पर इसका तात्पर्य नहीं है कि अन्य क्षेत्रों या जाति में लोक नृत्य हो ही नहीं सकता। लोक नृत्य तो देश के हर क्षेत्र के लोक जीवन में होता है। सभ्य से सभ्य जातियों में भी एक लोकमानस का अंश रहता है। अत: उसमें भी किन्हीं असावधान क्षणों में परंपरा के फलस्वरूप लोक नृत्य फूट पड़ते हैं। वे इतने सशक्त नहीं होते, जितने स्वाभाविक होते हैं। यह संशोधन से ठीक होते हैं।
लोक नृत्य का विषय, जीवन चक्र ही होता है। यौन संकेत, कृषि तथा संतानि वृद्धि, भूत-प्रेत निवारण, जादू-टोना, ऋतु अवाहन, विवाह, जन्म मृत्यु ये सभी किसी न किसी रूप में तथा प्रतीक अभिप्रायों से नृत्यों के द्वारा प्रकट होते रहते हैं। साधारण लोक नृत्य सामूहिक होते हैं। जीवन और प्रकृति से घनिष्ट संबंधित होने के कारण लोकनृत्य का रूप किसी वर्ग के अपने व्यवसाय के अनुकूल हो जाता है। कृषकों को लोकनृत्य पशु पालन से भिन्न हो जाता है और अहीरों का कुछ और ही होता है।
लोकनृत्य के संबंध में विद्वानों का मत है कि लोक नृत्य का जन्म तीन तथ्यों की प्रक्रिया से हुआ है-1. आकर्षक को उपलब्ध कराने की चेष्टा 2. आकर्षक से बचने की चेष्टा और 3. इन चेष्टाओं के लिए टोने के रूप में प्रत्येक नृत्य में किसी न किसी प्रकार के संकेत से।
मेघ वर्षा के लिए नृत्य किये जाते हंै। अति वर्षा हो तो उसे रोकने के लिए नृत्य विधाता रहता है। देवी देवताओं को प्रसन्न करने के लिए नृत्य होते हैं। फसल अच्छी हो तो नृत्य किये जाते हैं जैसा कि पंजाब में अच्छी फसल होने पर लोकनृत्य होता है। इसी प्रकार सभी क्षेत्रों में विवाह के अवसर पर लोक नृत्य किया जाता है जो  आनंद के प्रतीक में हर्षवर्धक होता है।
शास्त्रीय नृत्य का मूल लोकनृत्य में रहता है। लोक नृत्य की उद्यमता को अनुशासित करके और उसे ऐसे सिद्धांतों में बांधकर प्रस्तुत किया जाता है जो उस आवेग को, अभिप्राय की दृष्टि से सौन्दर्य उपलब्धि के स्तर पर दृढ़कर देते हैं। लोकनृत्य किसी कृत्रिम सिद्धांतों की सीमाएं नहीं स्वीकार करता।
देश के अन्यान्य क्षेत्रों की तरह छत्तीसगढ़ के अंचल में भी लोक नृत्यों का अंबार है जिनमें राउत नाचा आदिवासियों का लोक नृत्य सरहुल, मरिया का ककसर नृत्य, उरावों का लोकनृत्य डोमकच, बैगा और गोड़ों का करमा नृत्य, डंडा नाच, सुआ नाच सतनामियों का पंथी नृत्य आदि प्रमुख है। ये लोक नृत्य मात्र मनोरंजन के साधन नहीं है। अपितु धार्मिक अनुष्ठान और ग्रामीण उल्लास के अंग हंै। यहां के लोकनृत्य में मांदर, मंजीरा, झांझ, डंडा व बांसुरी आदि प्रमुख लोक वाद्य होते हैं। यहां के लोकनृत्यों में मयूर के पंख, शेर के नाखून, घोंघा के माला, गूंज कौड़ी आदि प्रमुख आभूषण होते हैं। प्रत्येक लोक नृत्य की अपनी-अपनी विशेषता है जो खास-खास अवसरों पर संपन्न होती हैं। छत्तीसगढ़ का लोकनृत्य एक अनुशीलन का विषय है। अपने एक शोधग्रंथ 'छत्तीसगढ़ दिक दर्शनÓ  के द्वितीय भाग में हमने प्राय: लोक नृत्यों का उल्लेख किया है जो माननीय है।
साभार-रऊताही 2002

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