Tuesday 19 February 2013

छत्तीसगढ़ की धरोहर और यदुवंश की शौर्य गाथा

छत्तीसगढ़ अंचल अपनी सांस्कृतिक, पौराणिक और ऐतिहासिक परंपराओं की इंद्र धनुषी विशेषताओं से युक्त है। इतिहास के पन्नों पर दृष्टिपात करें तो राज्यों के गठन के वक्त सन् 1956 में ही छत्तीसगढ़ को ग्रहण लग चुका था छत्तीसगढ़ मात्र माध्यप्रदेश का उपनिवेश राज्य बन कर रह गया जिससे यहाँ की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, पौराणिक लोकगाथाएं आगे पहचान नहीं बना पाईं। भारत के क्षितिज पर छत्तीसगढ़ की पहचान बनाने के लिए पंडित सुंदर लाल शर्मा ने सर्वप्रथम सन् 1918 में पृथक छ.ग. राज्य की मांग की। पृथक छत्तीसगढ़ राज्य तो बन गया पर क्या यहां कि मूलभाषा छत्तीसगढ़ी भाषा को  मातृभाषा के रूप में मान्यता मिल जायेगी? 'यह एक ऐतिहासिक प्रश्न हैÓ जबकि देश में 15 राजकीय अधिकृत भाषाएं है। तकरीबन 34 मातृ भाषाएं हैं। छत्तीसगढ़ी भाषा का ऐतिहासिक महत्व दसवीं सदी के आसपास मिलता है। सन् 1703 में इसके गद्य का स्वरुप दंतेवाड़ा के शिलालेखों में मिलता है छत्तीसगढ़ी भाषा को पहले बोली के रूप में मानी जाती थी। जिसका कात्योपध्यन सन् 1885 में स्व. डॉ. हीरलाल ने किया था एवं छत्तीसगढ़ी व्याकरण ग्रंथ की रचना की थी। सन् 1904 में इस भाषा को गद्य का स्वरुप देने के लिए लोचन प्रसाद पांडे ने बड़ी मशक्कत की थी। आजादी के पूर्व इस भाषा में साहित्य की कई विधाओं में रचनाएं हुईं जिसका एक लंबा इतिहास है इस भाषा का अच्छा विकास चाहे वह कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध या लोकगीतों में हुआ हो।
पौराणिक उपाख्यानों में छत्तीसगढ़ का महत्व अतिविशिष्ट है। आज हम यहां पौराणिक ऐतिहासिक सांस्कृतिक इतिहासों की परिक्रमा करते हैं तो वे शरीर व आत्मा की तरह जुड़े हंै जिस तरह कृष्ण और अर्जुन जुड़े थे। आदिकाल से ही छत्तीसगढ़ जनजातियों वाला क्षेत्र रहा है। जिनमें एक जाति है अहीर जाति, अभावों और प्रताडऩाओं के बीच जन्में इनका जीवन उपेक्षा और संघर्षों के बीच गुजरा फलत:  इनमें आध्यात्मिकता, दार्शनिकता, लोकमर्यादा कूट-कटू कर भरी है।
'धान का कटोरा समृद्धि का प्रतीक हैÓ माटी निर्धनता का लेकिन जो हमें पालती है उसे माता के रूप में पूजते हैं। जैसे धरती माता, भारत माता, छत्तीसगढ़ महतारी बस यही कारण है कि जमीन से जुड़े लोगों की पहचान शोषितक्ष्यी कंकाली मूरत में दर्शाता है।
अग्नि पुराण में छ.ग. का उल्लेख दण्डक वन के रुपमें मिलता है, आनंद पुराण व वाल्मिकी पुराण में इसे दक्षिण कौशल  देश के नाम से जाना जाता है। यहां कि राजकुमारी माता कौशल्या अयोध्या पति सूर्यवंशी राजा दशरथ से ब्याही गई जिसे महान योगेश्वर मर्यादा पुरुषोत्म श्रीरामचंद्र जी की माता बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, यहां महानदी है जो लक्ष्मण रेखा के नाम से जानी जाती है। यहां शिवरीनारायण नामक बस्ती है जहां वनवासी श्री रामजी शबरी महतारी के हाथों से जूठे बेर खाये थे। छत्तीसगढ़ का पद्म क्षेत्र राजीव लोचन धाम है। सृष्टि के प्रारंभ में भगवान विष्णु के नाभि कमल की एक पखुंड़ी पृथ्वी पर गिर जाने के कारण यह क्षेत्र कालान्तर में पद्म क्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध हो गया। शास्त्रों में इसे धरती का स्वर्ग कहते है जो आज राजिम के नाम से प्रसिद्ध है। डोंगरगढ़ में बम्बलाई माता, धमतरी में बिलई माता, रतनपुर में महामाई, सिहावा में श्रृंगीऋषि, सिरपुर में बाणासूर, बस्तर में दंतेश्वरी, कवर्धा में भोरम देव, चम्पारण में महाप्रभु वल्लभाचार्य जी, जो सूरदास जी के गुरु थे, तुरतुरिया में बाल्मिकी मुनि का आश्रम, आरंग में मोरध्वज की नगरी, धमधा में धरमदास जी का मठ, कवर्धा में कबीर दास जी का मठ इत्यादि हंै जो ऐतिहासिक व पौराणिक महत्व को प्रदान करते हंै। छत्तीसगढ़ का ऐतिहासिक महत्व इसलिए और बढ़ गया है क्योंकि यहां विपुल खनिज संपदाए हैं साथ ही साथ देश पर मर मिटने वालों की कमी नहीं थी। जैसे लाखे ठाकुर, सप्रे, शुक्ला आदि।
छत्तीसगढ़ के अनेक जनजातियों के बीच बलखाती भगवान श्रीकृष्ण के वंश के बच्चे यदुकुमार अपने जीवन के प्रति उदासीन हैं। वस्तुत: अनेक दृष्टि से यदु वंश अत्यंत भाग्यशाली रहे। जब हम अनेक साहित्यिक ग्रंथों को विवेचन करते हैं तो पता चलता है यदुवंश और सोमवंश एक दूसरे के पूरक हैं दोनों ही महाभारत कालिन से संबंधित हैं। युग परिवर्तन के उपरांत शास्त्रीय दृष्टि से आल्हा खंड सबल सिंग चौहान द्वारा रचित से पता चलाता है, दोनों वंश फिर एक बार आमने-सामने आ खड़े हुये और अपने वीरता का परिचय देने लगे।
मैंने कभी बंबई के पंडित हरिप्रसाद भागीरथी द्वारा रचित आल्हाखंड सन् 1929 की पढ़ी थी जिसमें पृथ्वी राज चौहान के संदर्भ में लिखते हंै कि यदुवंश के आखरी वंश थे, यही बात छत्तीसगढ़ के महान दार्शनिक भगवत गीता के उपदेशक संत श्री पवन दीवान जी ने भी कही।
इनकी चर्चा मैं इसलिए कर रहा हूं क्योंकि महाभारत काल में सोमवंश तथा यदुवंश आमने-सामने खड़े थे। पृथ्वीराज चौहान को शब्दभेदी बाण चलाने का वरदान था और सोमवंशीय राजा ब्रह्मानंद को भगवती देवी का वरदान था जिनके बीच तीन माह सत्रह दिन तक घोर संग्राम हुआ। अंतत: संवत् 1193 में पृथ्वीराज चौहान विजयी हुए। अपने नाना अनंतपाल दिल्ली गद्दी पर बैठने के उपरांत रिश्ते के भाई कन्नौज के राजा जयचंद को ईष्र्या होने लगी वे यवन देश के गजनीगढ़ के बादशाह शहाबुद्दीन जो छ: बार पृथ्वीराज चौहान से परास्त हुए थे, से मिलकर पृथ्वीराज को नेत्रहीन कर दिया तथापि नेत्रहीन होते हुए भी अपने मित्र कवि चंदरबरदायी के संकेत मात्र से शहाबुद्दीन गौरी को अपनी बाणों से मार गिराया। ऐसा कहते हंै तब से लेकर आज तक अहीरों और ठेठवारों में रोटी और बेटी का रिश्ता समाप्त हो गया।
ऐसे महान वीर योद्धा के वंशज आकाश की ऊंचाई और विस्तार पाने के लिए बल खा रहे हैं।
अंत में यही कहूंगा अपने कत्र्तव्यों और ज्ञान को दोहों के सीमित दायरे में न समेट कर लक्ष्य की ओर निरंतर अग्रसित रहे।
साभार- रऊताही 2002

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