Thursday 14 February 2013

छत्तीसगढ़ में लोकोत्सव राउत नृत्य

'संस्कृति शब्द अधिक व्यापक और विशुद्धि का द्योतक होता है। संस्कृति में देश काल के अनुसार परिवर्तन और परिवर्धन होते रहते हैं किन्तु उसकी सत्ता सदैव विद्यमान रहती है। भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीन संस्कृतियों में से एक है। आज मिश्र, रोम और चीन की प्राचीन संस्कृतियां लुप्त प्राय: हो गई है किन्तु भारतीय संस्कृति आज भी अपना अस्तित्व बना कर रखी हुई है, क्योंकि भारतीय संस्कृति की आत्मा लोक संस्कृति है।
भारतीय लोक संस्कृति की आत्मा भारत की साधारण जनता है जो नगरों से दूर गांवों में वन-पर्वतों में निवास करती है। यही अनपढ़-निरक्षर जन समुदाय ही संस्कृति के चिर जागृत प्रहरी हैं। गांवों को यदि लोक संस्कृति का मूर्त स्वरूप कहें तो भी अत्युक्ति नहीं होगी। गांवों का आदमी निरक्षर भले हो लेकिन वह सुसंस्कृत होता है। इनके गीतों में मानव की पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक और जीवन से संबंधित सभी बातों का चित्रण रहता है, जो कि संस्कृति के विशेष अंग माने जाते हैं।
भारतीय संस्कृति की यह विशेषता रही है कि यह हमारे इहलोक तथा परलोक दोनों को सुखी तथा उज्जवल बनाने की ओर सतत प्रयास करती है। हमारे जीवन में व्रत- उत्सव तथा त्यौहारों की प्रचुरता है जिसके अन्त: में संस्कृति की सरस सप्राण चेतन धारा सरस्वती की भांति निरंतर बहती रहती है।
पर्व उत्सव त्यौहार हमारे धार्मिक जीवन की उल्लासमय अभिव्यक्ति को साकार रूप प्रदान करते हैं। यह एक स्वच्छ दर्पण की भांति है जिसमें हम समाज के श्रेष्ठतम विचारों व आदर्शात्मक कार्यों का प्रतिबिंब देख सकते हैं। किसी भी समाज की विचारधारा एवं उसके सामाजिक स्तर की झांकी उस क्षेत्र में मनाए जाने वाले उत्सव एवं त्यौहारों में सहज ही देखी जा सकती है।
व्यक्ति का मानस अत्यंत संवेदनाशील होता है। जीवन में समाज व प्रकृति में होने वाले परिवर्तन को वह अभिव्यक्ति शब्दों के परिधान के माध्यम से व्यक्त कर अपनी भावना को विश्रांत तृप्ति प्रदान करता है। अत्यधिक उल्लास का प्रसंग आने पर वह नृत्य के माध्यम से और आंतरिक आवेक को गीतों की सरिता  बहाकर उसे पूर्ण करता है। गीत व नृत्य दोनों हृदय की भावात्मक व लयात्मक अभिव्यक्ति है जो कि स्वर तथा थिरकन के माध्यम से व्यक्त होती है। यदि गीत और नृत्य का आपस में घनिष्ठ संबंध न होता तो वे एक दूसरे के माध्यम से अभाव में असमय विलीन हो जाते। छत्तीसगढ़ अंचल में निवास कर रही अन्यान्य व विशिष्ट समाज दोनों ने ही गीत व नृत्य के माध्यम से अपने मन में उत्पन्न भावनाओं को अभिव्यक्ति प्रदान करने में विशिष्ट योगदान दिया है।
छत्तीसगढ़ के नृत्य अपनी विशिष्टता बनाए हुए है। यहां के अधिकांश नृत्य वृत्ताकार व गोल चक्कर से युक्त होते हैं। ये नृत्य बहुधा पर्वों से जुड़े हुए हैं जैसे सुआ नृत्य, डंडा नृत्य, देवार, गौरा नृत्य, भोजली नृत्य, राउत नृत्य, करमा, मड़ई आदि प्रमुख रूप से प्रचलित हैं। विवाह के समय वर गृहों में संपन्न डिड़वा नृत्य भी एक विशिष्टता को लिए हुए हैं।
रावत नृत्य छत्तीसगढ़ की रावत जाति अपने को श्रीकृष्ण का वंशज मानती है। समाज की अनिवार्यता गोरक्षण का भार इन्होंने ही अपने ऊपर ले लिया है। पर्व उत्सव का समय आने पर ये अपने आपको रोक नहीं पाते और नृत्य गीत की पावन सरिता की आनन्दोदधि में सबको निमग्न कर देते हैं।
मड़ई को छत्तीसगढ़ का शारदोत्सव कहा जा सकता है। इस उत्सव की परंपरा वैदिक युग से आज पर्यन्त तक निरंतर प्रवाहित होती चली आ रही है। छत्तीसगढ़ के रावत इसे विशेष आनन्दोल्लास से परिपूरित होकर मानते हैं, प्रारंभिक पूजा देव स्थान दहियान में संपन्न कर मालिकों के यहां जाते हैं और गाय के गले में पलाश वृक्ष की छाल से निर्मित 'सुहई बांधतेÓ है। यह एक प्रकार का मांगलिक रक्षा कवच होता है, जिसके पीछे यह विश्वास है कि इन गायों-भैंसों पर किसी प्रकार का दैविक मांत्रिक असर नहीं पड़ेगा
सुहई बांधते आशीर्वचनों की वर्षा होती है-
धन गो दानी भुंइया पावा, पावा हमर असीस।
नाती पूत ले घर भर जावै, जीवा लाख बरीस।।
तत्पश्चात रावतों का समूह घर-घर जाकर नृत्य करता है। इस समय इनकी साज सज्जा देखते ही बनती है। वाद्य वृन्दों के मध्य इनके पैरों में बंधे घुंघरु भी अपने विशिष्ट स्वर का संयोजन देते हैं। नृत्य के मध्य में नर्तक 'दोहेÓ भी व्यक्त करता जाता है। इनमे मांगलिकता आशीष के भाव निहित होते हैं-
'बिंदावन न छोडिय़े हवैय उनकरो टेक।
भूतल भार उतार के धरै रूप अनेक।Ó
इसमें भगवान कृष्ण के विविध रूप की झांकी है-
'ठाकुर जो हारे आएन-पान सुपारी कोरा।
रंग महल मां बइठो ठाकुर- राम-राम लेव मोरा।Ó
इस समय गृह स्वामी उसका अन्न धन से सम्मान करता है तब बिदाई के समय वह आशीष देता है-
जइसे ठाकुर लिये-दिये तइसे देवो असीस।
अन्न धन ले घर भर जावे जुग जीबो लाख बरीस।
भारतीय ग्राम्यांचल में युगों से चले आ रहे नृत्य गीत उसके पावन स्वरूप को आज भी जीवित बनाये हुए हैं। विज्ञान के भौतिक मायावी रूप की शुष्कता के मरुस्थल में ये नृत्य पावन मांगलिक वर्षा कर इस शुष्कता की ओर जा रहे मानव समाज में सरसता में भाव उत्पन्न करते हैं इन्हीं कारणों से ये आज भी जीवित हैं और आगामी युगों तक जीवित रहेंगे।
प्राध्यापक, सक्ती, बिलासपुर (छ.ग.)
साभार-रऊताही 1996

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