Thursday 14 February 2013

ग्वालों का पारम्परिक पर्व - खतड़ुवा

हिमालय पर्वत मालाओं की गोद में बसे कुमांचल तथा गोरखों के देश पश्चिमी नेपाल के गोपालकों व पशु-प्रेमियों का एक पारम्परिक पर्व है-खतडु़वा। जो प्रतिवर्ष आश्विन माह की संक्रांति को मनाया जाता है। भाद्रपद मास में गायों के त्यौहार की तरह पशुओं से संबंधित इस पर्व के अनेक रुप नेपाल, कुमाऊं, सिक्किम व दार्जिलिंग तक प्रचलित हैं। कुछ स्थानों पर इसे घास्या त्यारो 'घास का त्योहारÓ के रुप में भी मनाते हैं।
कुमायूँ व नेपाल के पर्वतीय अंचलों में प्रचलित खड़ुवा या 'घास्य त्यारोÓ पर्व का दिन बरसात पर पशुओं के चारे से लग कर पाली र्ग चारागाहों की घास की कटाई के लिए शुभ माना जाता है। प्रत्येक पशु पालक इस दिन इस विशेष सुरक्षित चारागाहों की ाास को हँसिया छुआता है व पशुओं को भरपेट  हरा घास खिलाया जाता है। पशुओं को खूंटे पर ही बांधकर उन्हें विविध प्रकार की हरी व सुस्वाद घास खिलाई जाती है।
खतड़ुवा के दिन प्रात: ही घास के कुछ पुतले बनाये जाते हैं इनमें से एक पुतला चार हाथ वाला होता है जिसे फुलौरी कहा जाता है। इस लम्बे हरे तिनकों वाली घास से बनाकर पशुओं की गोबर की खाद के ढेर में स्थापित कर फूल चढ़ा देते हैं। इसके अतिरिक्त तीन सादु पुतले और बनाये जाते हैं। जो भाँग के डण्ठलों में हरी घास तथा बिच्छू घास की टहनी समेत लपेट कर बनाये जाते हैं। इन पुतलों का खतड़ुवा से विशेष सम्बन्ध है। तीन चार दिन पहले से ही पशुओं के चारागाहें की ओर जाने वाले मार्गों पर सूखी घास झाडिय़ों व लकड़ी के ढेरों के खतड़ुवा पहिले ही बना दिये जाते हैं। इन्हें ग्वेटा, गौन, गौड़ व गो-बाट (गायो का रास्ता)
कहा जाता है।
खतड़ुवा पूजा के दिन गृहणियां व पशु पालक गायों को नहलाना, सजाना तिलक करना व गोग्राम खिलाना पवित्र कार्य समझते हैं आँगन की भली भांति सफाई कर गृहणियां गायों के आगे हरी घास डालते हुए मंत्रों का पाठ करती हैं। (एक गोरु बटि गोठ भरिज, एक गाय के वंश से गोशाला भरी जाये) अथवा तेरे स्वामी की खूब वंश वृद्धि हो कहकर गायों का सम्मान करती हैं।
शाम के समय सूखी झाडिय़ां घास व लकड़ी के बने खतडुओं में आग लगाकर गोशाला के अंदर बाहर घुमाते हुए निकल झईया निकल विपदाओं निकली, बैठत आओ लछीमी (लक्ष्मी घर में आओ) का मंत्र अलाप करते हैं। कभी कभी यह मंत्र पाठ बड़ी दीवाली व एकादशी के दिन भी होता है। जले हुए खतडय़े को नदी में फेंक देते हैं।
खतड़ुवा जला कर ग्वाले लोग उसकी राख को ढलान पर लुढ़काते हुए गाते हैं- गै की जीत खतड़ुवा की हार (गाय की जीत हुई खतड़ुवा हार गया) गाय की सारी व्यथा दूर हो गई खतड़ुवा अपने साथ खाज (खुजली) खरस्वा (बाल गिरने का रोग) व खुरपका आदि रोग लेकर विलुप्त हो गया।
खतड़ुवा के प्रसाद के रुप में ककड़ी, खीरा, अखरोट व  चावल के दाने प्रसाद के रुप में बांट कर खाए जाते हैं: पश्चिमी नेपाल के क्षेत्रों में गोपालक प्रसाद लेकर लूतो लाग्यों (रोग गया)  कहते पीछे बिना मुड़े घर को जाते हैं।
खतड़ुवा पर्व से संबंधित समस्त परम्पराएं कर्मकाण्ड टोटके व मंत्र आदि गो पालकों की गायों की खुशहाली व गोवंश की समृद्धि से प्रेरित हैं। देश के अन्य भागों में भी बरसात के मौसम में एक निश्चित दिन पशुओं की रोग मुक्ति हेतु हांडी में आग रखकर उसे गांव में घुमाकर गायों के रास्ते पर उलट देते हैं। इसे खप्पर निकालने का टोटका कहते हैं।
कुमायूं क्षेत्र की कई प्राचीन लोक कथाओं में वर्णित रमौल लोग जो स्वयं को भगवान श्री कृष्ण तथा अन्य प्रसिद्ध यादव राजवंशी से संबंधित बताते थे। कभी कुर्मांचल में स्थित रमौलगढ़ में रहा करते थे व गौ पालन करते थे। मुगलों के अत्याचारों से पीडि़त बाहर से आकर पर्वतीय अंचल में बसे गौपालन व्यवसाय में लगे पर्वतीय अहीरों- ऐर व महर की संख्या भी यहाँ सर्वाधिक है। चन्द राजाओं के राज चिन्हों झण्डों व सिक्कों में गाय का चिन्ह अंकित था। देवी पार्वती जिसे पहाड़ों में नन्दा कह कर पुकारा जाता है। गोकुल के राजा नन्द की पुत्री व यदुकुल शिरोमणि श्रीकृष्ण की बहिन थी नन्दा के नाम से नन्दा देवी त्रिशूल नन्दा खान नन्दा गौन नन्दा वन नन्द प्रयाग व मन्दाकिनी आदि नाम पड़े हैं। सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी से लेकर नन्दाष्टमी तक दुर्गा की नन्दा के रुप में पूजा होती है व गोवंश के प्रति अपना पूर्ण सम्मान प्रकट किया जाता है।
साभार-रऊताही 1997

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