Thursday 14 February 2013

अहीर

अहीर शब्द रुढि शब्द व्यंजना है, ह्री धातु हरण करने अर्थ में प्रयुक्त होता है 'ह्री हरणेÓ (पाणिनी) जिससे हरण न किया जा सके उसे 'अह्रीयÓ कहा जाता है, उसी का अपभ्रंश 'अहीरÓ हुआ।
सृष्टि के आदि काल से ही गोधन मानव समाज में सम्पत्ति के रुप में पाल्य था। वैदिक काल से ही मूल्यवान वस्तु के रूप में गायें थी, दान में गोदान, दण्ड निर्धारण में गो संख्या, क्रय में विनियमन के रूप में गायें एवं राष्ट्रीय सम्पत्ति के रूप में गायें ही मानी जाती थी। कामधेनु, नन्दिनी आदि गायें ऋषियों की एवं देवताओं की सम्पत्ति ही थीं।
महाभारत काल में विराट की गो सम्पत्ति का वर्णन मिलता है, बड़े-बड़े राजाओं के द्वारा सहस्त्रों गायों का दान, उपहार आदि दिये जाने की बातें सर्वविदित है। इस सर्वोत्कृष्ट गोधन का ह्रास भी हुआ करता था, प्रथमत: वन्य हिंसक सिंहादि के द्वारा द्वितीयत: दस्यु तस्कर आदि के द्वारा तथा विरोधी राजाओं के द्वारा गोधन का अपहरण हुआ करता था, ऐसी स्थिति में उसकी रक्षा, हिंसा एवं हरण से बचाने के लिए पुरुषार्थी, नैष्ठक, सदाचारी, सत्यव्रती, दृढ़ प्रतिज्ञ एवं जितेन्द्रिय व्यक्ति को ही राजा, समाज एवं गोस्वामी द्वारा गायें सौंपी जाती थी।
जो गोधन की हिंसा न होने दे, सिंहों से उसकी रक्षा कर सकें तथा हरण के समय हरण होने से बचा ले वही व्यक्ति 'अहीरÓ होता था। वस्तुत: वह क्षत्रियत्व युक्त युद्ध कला विशारद एवं स्फूत्र्य रक्षात्मक विधाओं से युक्त होता था।
महाराज जमदग्नि की गाय को सहस्त्रार्जुन के दस हजार भुजाओं तथा सत्तरह अक्षौहिणी सेना से हरण से बचाने के लिए अर्थ में भगवान 'परशुरामÓ अहीर थे।
महाराज वशिष्ठ की नन्दिनी गाय को बन में चराते समय जब सिंह आक्रमण करता है उस समय प्राणों का मोह छोड़ नन्दिनी की रक्षा हेतु राजा दिलीप ने कहा-
क्षतात् किल ज्ञायत इत्युदग्र:
क्षमस्य शब्दो भुवनेष रुढ:
राज्येन किं तद्विपरीत वृत्ते:
प्राणैरुप क्रोशमलीम सैर्वाञ।।
किं सिह ! क्षत्रिय संसार में इसलिए प्रसिद्ध है कि वे 'क्षतÓ विनाश या विपत्ति से औरों की, राष्ट्र की, राष्ट्र सम्पत्ति की रक्षा करते हैं यह नन्दिनी ऋषियों की सम्पत्ति है, तुम इसकी जगह मुझे खाकर अपनी क्षुधा शांत कर लो किन्तु मैं नन्दिनी (पर सम्पत्ति) का नाश अपनी जीवित अवस्था में होने नहीं दूँगा।
इस अर्थ में महाराज दिलीप 'अहीरÓ थे-
महाभारत काल में जब पाण्डवों का एक वर्ष का अज्ञातवास का समय आया और पाण्डव अपने को छिपाकर रखना चाहते थे। पाण्डवों में सबसे छोटे सहदेव जी गोपालक (अहीर) का रूप बनाकर विराट की सभा में सेवा हेतु पहुंचे और उन्होंने अपना परिचय दिया कि 'मैं महाराज युधिष्ठिरÓ की चौबीस लाख से अधिक गायों का रक्षक, निरीक्षक, गणक और लक्षणवेत्ता हूँ, मेरा नाम तन्तिपाल है यदि यम, वरुण और कुबेर भी मेरे हाथों से गोधन को ले जाना चाहें तो नहीं ले जा सकते, रोग भी मेरे हाथों से पशुओं को नहीं छीन सकते, मैं गो चिकित्सक भी हूँ। मैं 'साड़ोंÓ को ऐसा शक्तिशाली बना सकता हूं कि उसके मूत्र गंध को सूँघकर बन्धया गाय गर्भवती हो जाती है-
'ऋषभाश्चापि जानामि, राजन् पूजित लक्षणान्।
येषां मत्रामुपाध्राय, अपि बन्ध्या प्रसूयतेÓ
मैं जिनके गायों को पालता, चराता और रक्षा करता हूँ उनकी निरंतर वृद्धि इस प्रकार होती है -
शतं सहस्त्राणि समाहितानि,
स वर्ण वर्णस्य विमिश्रितान् गुनै:।।
सौ गायें वर्ष भर में कई गुनी बढ़कर सहस्त्रों की ओर कुछ वर्षों में बढ़ जाती हैं।
जब सहदेव गोपालक बन गए और भिगतों ने गौवों हरण करना चाहा तो सहदेव जी के द्वारा प्रशिक्षित गोपालकों ने युद्ध में परशु, मुसल, भिन्दिपाल, मुगद्द तथा कर्षण आदि अस्त्र शस्त्रों से घोर घमासान युद्ध कर गोधन की रक्षा की थी इसी अर्थ में सहदेव सहित वे सभी गोपालक 'अहीरÓ थे।
उपरोक्त विवेचना से स्पष्ट है कि 'अहीरÓ हरण और हिंसा से रक्षक का नाम है, कालान्तर में राज्य की सीमा रक्षा, पकी फसल की रक्षा तथा विवाह, गौने आदि से आती हुई कुल वधुओं की सतीत्व की रक्षा भी इसी वर्ग के लोगों े द्वारा होने लगी।
'अहीरÓ कोई जाति नहीं थी, परशुराम ब्राह्मण, राजा दिलीप क्षत्री, नन्दानी गोप वैश्य, सभी  'अहीरÓ थे। शौर्य सत्यव्रत, गो सेवा राष्ट्र भक्ति और सदाचार इस वर्ग की पहचान थी। आज भी भोजन के पाकशाला से गोशाला, देवशाला एवं राष्ट्रीय धर्मशाला में इस वर्ग ने विश्वास अर्जित किया है, प्रति वर्ष 'अहीरÓ शौर्य प्रदर्शन करते हैं किन्तु आज उसे लोककला या सांस्कृतिक धरोहर कहकर 'लघुत्तरÓ स्थिति में खड़ा कर देते है, इस समारोह के माध्यम से इस वर्ग में राष्ट्रीयता के साथ देश और समाज की सम्पत्ति एवं मर्यादा की रक्षात्मक उदात्त भावना जागृत कर एक श्रेष्ठ समाज की स्थापना की जानी चाहिए-
 साभार - रऊताही 1996

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