Thursday 14 February 2013

राउत नाचा में साज-सज्जा

मानव स्वभावत: कला का उपासक होता है। वर्तमान में प्रयुक्त नृत्य कला, संगीतकला, ललित कला, शिल्पकला आदि उसके भाव-गम्य गहन अनुभूति के बाहय चित्रण एवं अभिव्यक्ति के विविध कलात्मक रसात्मक माध्यम हैं। कलाओं में वह शक्ति छिपी रहती है जो सबको सहसा क्षण भर के लिए अपनी ओर आकर्षित कर लेती है कला की अद्भुत चित्रकारी को देखकर वह ठगा सा रह जाता है नर्तक-नर्तकी के चपल चरण की नर्तनता, संगीत का मधुर सरगम और गायक की सुरीली तान, तीनों का संगम  देख मानव रोमांचित हो उठता है और गदगद भरे कंठ से वाह वाह कह उठता है।
देवभूमि भारत के शस्य श्यामला हरित नमित पुण्य धरा के क्रोड़ में रहने वाली कोटिश: जातियाँ आनन्द से, उमंग से उछलते कूदते दिखाई देते हैं। इस विशाल देश में हजारों जातियाँ अपना अपना पर्व उत्सव मनाती हंै। वर्ष भर यहां पग की चपलता, नृत्य, संगीत का स्वर संगम होता रहता है। इस पुण्य धरा पर अनेक पर्वों में से इस राउत नाचा पर्व ने अपना विशेष गौरवपूर्ण स्थान बनाया है। इतिहास में प्रसिद्ध पुराण पुरुष श्री कृष्ण काल की ऐतिहासिक विजय को यादव जाति वीरोचित सम्मान के साथ 'राउत नाचÓ  पर्व के रूप में तदयुग से मनाती चली आ रही है। ग्राम्य संस्कृति में मनाए जाने वाले शताधिक पर्वों में से अपने व्यवहार चरित्र व लगनशीलता के कारण यह पर्व विशेष गौरवमय पर्व के रूप में विख्यात है। इस पर्व का समाज पर इतना अधिक प्रभाव है कि इसमें राउत जाति ही नहीं वरन समाज की प्रत्येक इकाई को भी अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। यह पर्व एक जाति का नहीं जन-जन का पर्व बन गया है।
नयनाभिराम प्राकृतिक सौंदर्य सुषमा से मंडित हरित पूरित धन धान्य से सम्पन्न 'धान का कटोराÓ उपाधि से सुशोभित स्वनाम धन्य छत्तीसगढ़ की पावन धरा स्वयं में तीर्थ तुल्य है। तीर्थ में जिस प्रकार कोई भेद-भाव नहीं रहता, सब एक दूसरे के समीप आते हैं, रहते हैं,  उसी भांति यह धरा अपने शस्य आंचल के नीचे मानव जातियों का इतिहास समेटे हुए हैं। इस आंचल से नीचे अंचल की लोक-कला, लोक-संगीत, लोक नृत्य करमा, ददरिया, बांस गीत, डंडा गीत, देवार गीत, सुआ नाच, पंथी नाच, पंडवानी आदि ने इस क्षेत्र में पठार और मैदान में, गांव में अखरा के शहर की गलियों में व बाजारों में अपनी विशिष्ट छाप छोड़ रखी है। राउत जाति का नृत्य सर्वोपरि नृत्य के रूप में ग्राम्यांचल व शहरी क्षेत्र में विख्यात है। छत्तीसगढ़ में और भी नृत्य की परंपरा जीवित है पर काल की दृष्टि से राउत नृत्य को सबसे पुरातन नृत्य माना गया है। यह नृत्य पर्व देव उठनी एकादशी अर्थात कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी से लेकर पूस मास की पूर्णिमा तक मनाया जाता है।
राउत नाच एक पखवाड़े तक अबाध रूप से सूर्यास्त के समय से आधी रात बीतने तक चलता रहता है। उक्तावधि तक चलने वाले इस नृत्य महोत्सव में राउत नर्तक शोभा सौंदर्य देखते ही बनता है। विभिन्न प्रकार के वस्त्राभूषण से सुसज्जित अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र हाथ में संभाले हुए, वाद्य यंत्रों की उन्मत्त कर देने वाली गड़वा बाजा की ध्वनि ताल के साथ दल के दल एक साथ नृत्य करते हैं। नृत्य करते हुए जब रावत दल गांव शहर की परिक्रमा करते हैं तो उस क्षण मन इतिहास के पन्ने उलटने लगते हैं और मन की दृष्टि उस वीर युग की झांकी देखने लगती है जबकि ऐसे ही वीर वेश से सज्जित यादव जाति के लोग पुरातन युद्ध की कला में पारंगत-योद्धार्थ। राउतों की आकर्षक वेशभूषा वाद्यों की मनभावनी स्वर लहरी व लोकप्रिय गीतों की मोहक ध्वनि के कारण ही राउत नाच सजीव हो उठता है।
साज-सज्जा-
छत्तीसगढ़ के लोक जन विभिन्न प्रकार के वस्त्राभूषण पर्व-त्यौहार के अवसर पर धारण किये जाते हैं। सभ्य समाज के सदस्यों की तरह साज-सज्जा की प्रवृत्ति इनमें भी पायी जाती है। विपन्नता और उष्णता तथा सादगी के कारण यहां के लोग कम वस्त्राभूषण धारण करते हैं। पुरुष घुटनों तक धोती एवं 'अधबाहीÓ पहनते हैं। स्त्रियाँ 'लुगराÓ पहनती हैं और चाँदी व गिलट के आभूषण धारण कर सुसज्जित होती हैं।
मनुष्य की अपने को सजाने की सहज प्रवृत्ति ने ही वस्त्राभूषणों का आविष्कार किया। अपने को सजाने की सहज प्रवृत्ति लोकांचलों में भी है। छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध लोक नृत्य 'राउत नाचÓ के अवसर पर लोक नर्तक दल अपने को सजाने के लिए बढिय़ा किस्म के आकर्षक रंग-बिरंगे वस्त्र आभूषण पहनते हैं जिनमें स्थानीय छाप होती है। नर्तकों की साज-सज्जा पर दृष्टिपात करने से निम्नांकित स्वरूप का दर्शन होता है- मुख पीले रंग से पुता हुआ, आँखों में काजल लगाए, चुस्त सलूखा, धोती के पहरावे के साथ कौडिय़ों के कमर पट्टे, जिरह-बख्तर की भांति कसे कमर तक पेट पीठ को ढंके हुए सलमे सितारे जड़े हुए चमकते मखमली जाकेट, बाहों में बकहंर, सिर पर कसी पगड़ी के ऊपर सुशोभित मोर पंख की कलगी, गले में तिलरी, पुतरी व माला धारण किए हुए होते हैं। साथ ही कमर जलाजल से सुशोभित, पैरों में घुटनों तक ऊंचा मोजा और जूता जिसमें घुंघरु बंधे हुए, एक हाथ में लाठी और दूसरे हाथ में ढाल संभाले साक्षात वीर व श्रृंगार रस के अवतार दिखाई देते हंै।
राउत नाच के नर्तकों की सम्पूर्ण साज सज्जा को इस प्रकार विभक्त किया जा सकता है-
1. वस्त्र 2. आभूषण 3. श्रृंगार
1. वस्त्र- राउत नर्तक नाच के समय विभिन्न प्रकार के वस्त्र व कपड़े से बने अन्य परिधान धारण करते हैं-
अ. पागा- सिर पर पर्याप्त कपड़े की पगड़ी होती है यह रंगीन होती है इसे ''पागाÓÓ कहते हैं। पागा धारण करने के पश्चात फूल व रंगीन कागज की मालाओं से सजाते हैं। कोई मोर पंख कलगी भी लगाते हैं। पागा कपड़े में मरोड़ देकर बनाया जाता है। जो लाठी के वार से सिर को बचाने में सहायक होता है।
ब. सलूखा- नर्तक कमर के ऊपर तक कुर्ते की जगह 'सलूखाÓ धारण करते हैं। पूरी बाहों की कमीज को सलूखा कहते हैं इसे आस्किट के नीचे पहना जाता है। सलूखा रंग-बिरंगी कपड़े से बनाये जाते हैं।
स. आस्किट- सलूखे के ऊपर 'आस्किटÓ पहना जाता है। काले, लाल, नीले रंग के मखमली कपड़ों को ही आस्किट कहते हैं। उसमें चमकीली सलमे सितारे सजाए जाते हैं कुछ में आकृति बनाते हैं कहीं पृष्ठ भाग में नाम सितारे से जड़वा लिए जाते हैं।
ड. चोलना- अधोवस्त्र के रुप में नर्तक चोलना धारण करते हैं। जो चड्डा का ही एक रुप होता है, किन्तु यह घुटनों तक कसा हुआ होता है। इसे सुन्दर बनाने के लिए फुंदरे लगाये जाते है। सम्पन्न राउत चोलना के स्थान पर बटे कोर की धोती पहनते हैं। यह धोती सफेद रंग की और रंगीन कोर की होती है।
इ. कांछा- कांछा मुख्यत: लाल रंग के कपड़े की लगभग तीन गज लम्बी पट्टी होती है। इसे नर्तक अपनी कमर में बांधता है।
ई. गेटिस- गेटिस पलंग की निवाड़ की तरह होता है। इसे घुटने के नीचे लपेट कर बांधा जाता है।
ड. मोजा- मोजा पांव के पंजे से लेकर घुटने तक पहिना जाता है। गेटिस न पहनने वाले इसे धारण करते है। मोजे के ऊपर जूता धारण करते हैं।
2. आभूषण- राउत नर्तक अपने को सजाने के लिए विभिन्न प्रकार के आभूषणों को धारण करते हैं। इनमें मुख्यत: तिलरी, लुरकी, बहंकर, जजेवा, माला, साजू, करधन, झाल आदि धारण कर नृत्य करते हैं।
अ. लुरकी- यह सोने या चाँदी का बना एक छल्ला होता है इसे समपन्न राउत कानों में धारण करते हैं। सामान्य राउत फूल खोंसते हैं।
आ. तिलरी- यह सोने से निर्मित गले का गोलाकार आभूषण है। इसके अंत में लाख के एक-एक गोले पिरो दिये जाते हैं इससे सुंदरता बढ़ जाती है।
इ- कलदार- यह भी गले का ही आभूषण है। चांदी के सिक्को में छोटा सा छल्ला जोड़कर उन्हें मजबूत धागे में पिरो दिया जाता है।
ई- जजेवा- यह गाय की पूँछ से बनता है तथा इसे कंधे में पहना जाता है।
ड- बहंकर- कौडिय़ों से बने बाहुबलय को 'बहंकरÓ कहा जाता है इसका उपयोग बाँह की रक्षा व सुंदरता के लिए  करते हैं।
ऊ- पेटी- पेटी का निर्माण कौडिय़ों से होता है कौडिय़ों के नीचे कपड़े का अस्तर देकर कौडिय़ों को पटसन के धागे से आपस में जोड़ते हैं जुड़े हुए कौडिय़ों को विभिन्न प्रकार से आकर्षक बनाते हुए कपड़े में सिलते हैं। कौडिय़ों के बीच बीच में काँच जड़कर कशीदा कर पेटी को सुंदर बनाया जाता है। कौडिय़ां बहुत मजबूत होती है अत: इसे कोई हथियार बेध नहीं पाता।
ए- झाल- झाल मयूर पंख से निर्मित झालर को कहते हैं इसे पीठी में धारण किया जाता है।
ए. करधन- यह कमर में धारण किया जाने वाला चाँदी की कौडिय़ों से बना चौड़ा पट्टा होता है। राउत नर्तक सज्जा तथा धोती को कसकर बांध रखने के लिए इसको पहनता है।
3. श्रृंगार- राउत नर्तक अपने चेहरे को सुंदर बनाने के लिए श्रृंगार साधनों का सहारा लेता है। चेहरे में रामरज लगाने के बाद भौंहों के ऊपर अभ्रक चूर्ण अथवा सफेद रंग की बुदकियां अंकित कर चेहरे को सजाते हैं माथे पर सिन्दूर का टीका 'सुरकीÓ कहलाता हे, आँखों में काजल दोनों गाल पर 'डिठौनीÓ पर ठुड्डी पर काजल के तीन तिल लगा कर अपने को सज्जित करता है।
इस प्रकार राउत नर्तक विभिन्न वस्त्राभूषण धारण कर श्रृंगार कर नृत्य में भाग लेता है और लोगों का मन मोह लेता है। राउत नर्तक साज-सज्जा के रुप में कौड़ी और मोर पंख अवश्य धारण करता है। इन दोनों के प्रतीक और अनुकरण के संबंध में डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र ने लिखा है-
'कौड़ी है लक्ष्मी का प्रतीक और मोरपंख है तंत्र-मंत्र अभिचार अथवा अन्य विपत्ति रूपी सर्पों के प्रतिकार का प्रतीक।Ó सम्पत्ति आत्र और विपत्ति जाय। यह इस वेशभूषा का प्रतीकार्थ हो सकता है। परन्तु राउतों ने शायद ही ऐसा अर्थ सोचा होगा। गुंजा  तथा मोरपंख धारी श्रीकृष्ण के अनुकरण में कौडिय़ों और मोरपंखों का पहिनावा चल पड़ा होगा।
आज के युवा राउत नर्तक परम्परागत वेशभूषा तो धारण करते ही हैं किन्तु उनमें आधुनिक वस्त्राभूषण व श्रृंगार का भी सम्मिश्रण हो गया है।
नए ढंग से वस्त्र, हाथ में घड़ी, आंखों में चश्मा, पैरों में रबर या कपड़े के जूते आधुनिकता का ही परिणाम है अन्त में यही कहा जा सकता है कि आभीर बौरों की सामान्य वेशभूषा ही इस बात का प्रमाण है कि गरीबी में भी अहीर युवा व वृद्ध के माथे पर पगड़ी शरीर पर कसी हुई छोटी पागी, हाथों में नोई तथा तेंदू की मजबूत लाठी अवश्य होगी यह उनकी पहचान है यह उसका परिचय है।
साभार- रऊताही 1997

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