Tuesday 19 February 2013

संस्कृति के एक आयाम 'राउत नाचा'

यादव जाति यदुवंश कुल है। काल-कर्म से स्वतंत्र अजन्मा भगवान श्री कृष्ण का इसी कुल में प्रादुर्भाव हुआ। भगवान श्री कृष्ण के सिर पर वैदूर्धमणि जटित किरीट था और कानों में कुण्डली की अपूर्व शोभा थी। वे सुन्दर करधनी, बाजूबन्द कड़े आदि आभूषणों से शोभायमान थे। आज भी वही प्रतीक उस कुल में आज भी परिलक्षित होते हैं। इसलिए सचमच ही ये यदुवंशी कुल के ही हैं। इस तथ्य का विरोध नहीं किया जा सकता और उनकी पोषाक स्वांग उस वंश का प्रमाण है। प्रकृति के प्रवर्तक पुरुष के वंश यादव ही हैं, इसमें जरा भी संदेह नहीं है। यादव जिसे राउत की संज्ञा से अभिभूत है उनका ही अंश माना जाता है। ये यदुवंश के साक्षी हैं।
भगवान श्री कृष्ण के बाल्यकाल का वर्णन पुराण में है कि जब गोपी कहती है कि तू बड़ा अच्छा नृत्य करता है, तब भगवान बालक के समान नृत्य करने लगते हैं। जब गाने की प्रशंसा की जाती है ऊंचे स्तर से गाने लगते थे। ये सब प्रसंग, तरह-तरह की बाल क्रीड़ाएं पढ़कर मन हर्षातिरेक भर जाता है। जब श्री कृष्ण की अवस्था पांच वर्ष की थी वे गोप बालकों के साथ गाय चराने का दूर-दूर स्थानों में जाया करता था। ऐसे ही संस्कारों से संस्कारित यादव थे जाति है। पृथ्वी के कंसादि राक्षसों से द्रोह करने वाले सूर्य से अलंकृत हैं यह वंश ! क्षुद्र जीव से सूर्य देवता पर्यंत सभी के पूजनीय हैं यादव वंश।
उस समय का एक पवित्र जीवन था, सीधी सीधी चाल-ढाल, सीधा रहन-सहन और वन में गौओं एवं सखाओं के साथ भ्रमण करते समय गुजरता था, उस समय सब धनों में गो-धन ही सब धनों में श्रेष्ठ माना जाता था। गौ के प्रभाव से पुरुष बल- वीर्यशाली बड़े पराक्रमी होते थे। शास्त्रों और उपनिषदों में गो पालन की मुक्त कंठ की प्रशंसा की गई है। श्री बलराम जी और भगवान कृष्ण के  गांवों में ग्वाल बालों के संग गो चराते थे।  एक बार नहीं देता और न  ही फल को खाने देता था। भगवान के संग ये सखाओं ने फल खाने की इच्छा व्यक्त किया- तब वे बलराम सहित एकाएक तालवन में प्रवेश हुए। फल गिराने पर श्री बलराम और कृष्ण पर जंगल में निद्र्वन्द होकर फल खाये तथा गायें भैंसे निर्भयता से चारा चरने लगे। गायें और ग्वाल बाल कालिन्दी की तट पर कालिंग विषधर के विष से दूषित जल ग्रहण कर     प्राणहीन हो गए, तब भगवान कृष्ण ने अपनी अमृतमयी दृष्टि से देखकर उन्हें जीवन-दान दिया। ये यदुवंशी राउत उसी के वंशज है। भगवान कृष्ण कालिंग को दण्ड देने चंदन के पेड़ पर से यमुना जी में कूद पड़े और जल क्रीड़ा किये तब सर्पक्रोध से फन उठाकर भगवान को लपेट लिया, कृष्ण छलांग लगाकर उसके मस्तक पर सवार हो गए और नृत्य करने लगे। आखिरकार भगवान के चरण प्रहार से घायल सर्प उनके शरणागत हुआ तथा उनकी पत्नियां भगवान के आश्रय से समुद्र से निवर्तक होने स्तुति करने लगी-
नम: कृष्णाय रामाय, वसुदेव सुताय च।
प्रद्युभ्याना निरुद्वाय सात्वनां पतये नम:।।
इस तरह भगवान यदुवंशी कुल श्री कृष्ण राक्षसों का उद्धार नहीं किया वरन् देवताओं के भी गर्व का सर्वनाश किया। एक बार इन्द्र को भी अभिमान हो गया कि इन्द्र के अलावा अन्य और कोई विधाता नहीं है, तब भगवान ने संभाषण किया-
'साकर्मणा तभभ्यच्र्य सिद्धि विन्दति मानव:Ó
हम लोगों का वर्णाश्रम कर्म गो- पालन है, गोवर्धन से पर्व से गोरक्षा होती है। इन्द्र की पूजा व्यर्थ है। गोप ने इन्द्रयज्ञ नहीं किया। इन्द्र के कोप भाजन से मेघ ने भारी जल वर्षा, वज्रपात और ओलों की वृष्टि करने लगे जिससे धरती पर प्रलय की प्रबल संभावना हो गई तब यदुवंशी नन्दपुत्र कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को हाथ की एक उंगुली से उठा लिया था। उसी के संदर्भ छत्तीसगढ़ में यदुवंशियों का लोकदर्शन और संस्कृति का दस्तावेज देवरहट की प्रणम्य भूमि के मंच में होती रउताही लोक व्यापीकरण और जन-जन की भागीदारी में एक अद्वितीय भूमिका है, ताकि आगामी यदुवंश पीढिय़ों में अपनी संस्कृति और सभ्यता कायम रहे। अहीरों की यह एक गौरवशाली परंपरा है, छत्तीसगढ़ की भूमि के इतिहास में रीति-रिवाजों में गो-पालन का मुख्य स्थान है और आज भी इस युग में श्रीकृष्ण उनके आराध्य हैं। छत्तीसगढ़ में देवी-देवताओं की आराधना का विशिष्ट स्थान है। यदुवंशी अपनी गाय-भैंसों को सर्वथा बाधामुक्त रखने ठाकुर देव, सांहड़ा देव व अपने पूर्वजों से पूजित देवों गुरु बेताल और अखरा देव आदि अन्य देवताओं को भी पूजते हैं। अहीरों में देव-पूजन की खास प्रथा है। विशेष पर्व में संगरी बनाकर परिवार व अपने समाज के लोगों को निमंत्रण देकर बुलाते हैं और पूजा पाठ के साथ भोज दिया जाता है। जन्माष्टमी जैसे विशिष्ट त्यौहार में भी श्रीकृष्ण की पूजा, भक्ति में डूबकर मटकी फोडऩा, मंदिर जाना, दही लूटना आदि करते हैं। दीपावली में अपने कुल देवता को मनाने कांछन चढ़ते हैं। सिर पर साज श्रृंगार करके पगड़ी और मौर बांधते हैं। संस्कृति के भिन्न-भिन्न आयाम में राउत नाचा भी एक लोकपर्व है। इस पर्व का प्रतीक संस्कार है जो संस्कृति का स्वरूप लेती है, इसके मूल में एक परंपरा है। यह उन्हीं की स्मृति में यह पर्व होते हैं। किसी भी पर्व को मनाने के पीछे एक परंपरा होती है, जिससे प्रभावित होकर लोग शुरुआत करते हैं, जो उत्सव के रूप में परिणित हो जाता है।
देश के विभिन्न प्रांतों के क्षेत्रों में क्षेत्रीय पर्व मनाए जाते हैं, उसी तरह छत्तीसगढ़ राज्य में लोक उत्सवों व त्यौहारों की एक लंबी श्रृंखला है। छत्तीसगढ़ में होली, पोला, छेरछेरा, खमरछठ, राउत नाचा, और गौरा लोकपर्व हैं, जो छत्तीसगढ़ में ही होते हंै। यहां लोकपर्व को मनाने के अलग-अलग ढंग, शैली, रीति हैं जो ग्रामीण परिवेश में मनाए जाते हैं। आज का युग वैज्ञानिक है, जिसमें भौतिकता का विशेष स्थान लोकतत्व विलोप होते जा रहे हैं। लोक संस्कृति की घोर उपेक्षा हो रही है। भौतिकता की आंधी के थपेड़ों से यहां के लोक संस्कृति के अस्तित्व के फूल झडऩे लगे हैं, उपेक्षित होने लगे हैं। इस युग में भौतिकवादी समाज के गांव के लोग भी भौतिकवाद के अतिक्रमण से त्रस्त होकर मानवीय कत्र्तव्य, व्यवहार  और समाज की संस्कार और संस्कृति परे हो गये हैं जिससे गांवों में लोकजीवन कठिन हो गया है। गांव में शहरीकरण होने से लोकपर्व की उपेक्षा की गिद्ध नजरों को ग्रहण लगने लगा है।
आजादी के पहले के लोक पर्वों का उत्साह लोगों में कम दिखने लगा है। लोक के आनंद और सुख का साधन लोक में प्रचलित रीति-रिवाज होते हैं जिनका मूल आधार सामूहिक व्यवहार व लोक व्यवहार के शिष्टाचार और लोकाचार हैं जो खास तौर पर लोक पर्व या कोई मांगलिक कार्यों में दृष्टिगोचार होते हैं। गांवों में बसे जाति के लोगों की उनकी अपनी जातिगत संस्कृति होती है। जातिगत संस्कृति उनके सामूहिक कार्य एवं पर्वों में स्पष्ट देखने को मिलता है। लोक संस्कृति में धर्म का महत्वपूर्ण स्थान होता है। धर्म, प्रेम, उदारता, सहानुभूति उनका प्राण है।
ग्रामीण संस्कृति, लोक पर्व लोकवार्ता, लोकगीत, लोकगाथा, लोकनृत्य, लोक संस्कृति का सम्मिश्रण स्वरूप है। लोक का तात्पर्य जन से है, साहित्य में इसका संबंध सामान्य लोगों में जुड़ा हुआ है। लोक साहित्य, जन सामान्य की भाषा होती है। लोक साहित्य में लोक तत्व का विशिष्ट स्थान होता है। लोकतत्व के दायरे में प्रत्येक तत्व की अपनी विशेष भूमिका होती है। लोकनृत्य राउत नाचा की अपनी अलग-अलग विशेषता है जो राउत जाति के संस्कृति में विशेष महत्व रखता है। इस जाति का एक लोक महोत्सव होता है-जिसमें इनके लोकनृत्य का विराट स्वरूप हमें लोक तत्व के विभिन्न आयामों के सामने आता है। उनके राउत नाचा का अपना इतिहास है।  इसका इतिहास आदि युग से जुड़ा हुआ है। 'राउत नाचÓ लोक नृत्य होते हुए भी मात्र मनोरंजन नहीं है, यह एक धार्मिक अनुष्ठान और लोक उल्लास के रूप में उभरता है। राउत जाति का यह विशिष्ट लोक नृत्य राउत नाचा के नाम से विख्यात है।
राउत जाति की अलग से राउत संस्कृति है। राउत लोक संस्कृति में गायों की सेवा और गायों को चराना राउतों का धर्म-कर्म हैं सचमुच ये भगवान श्री कृष्ण  के वंशज है। जिस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीला में अनेक लीलाओं के साथ गो चराने की लीला की एक अलग छवि है, उसी परंपरा को यदुवंशी जाति गाय चराने की परंपरा बनाये रखे हैं। लोक महोत्सव के समय नृत्य करते दोहा में उनकी लाठी का संदर्भ-
पातर-पातर लाठी, पातर अंग शरीर
पातर है, हमर ठाकुर, तेकर हम अहीर
इनके लोकनृत्य उस काल की घटना की याद दिलाती है जब नंद बाबा पुत्र रत्न के मिलने से आनंद में डूबते हैं और खुशी से उल्लास में गोप-जन खुशी से उनके घर में आकर नृत्य करते हुए बधाई देते हैं-
जैसे ठाकुर लिये दिये, वैसे देव असीस हो
अन्न धन तो घर भरे जुग जुग जियो लाख बरीस हो
राउत नाचा महोत्सव का दूसरा पक्ष यह भी है कि श्रीकृष्ण ने भयानक वर्षा से ब्रजवासियों की सुरक्षा के लिए गोवर्धन पर्वत को धारण किया था। इसकी खुशी के परिप्रेक्ष्य में समस्त ब्रजवासी नंदबाबा के दरबार में जाकर उन्हें बधाई देने उनके घर में आनंदित होकर राउत नाचा करते हैं और भिन्न-भिन्न लोकोक्तियों से उन्हें बधाई देते है। उसी समय से परंपरा के अक्षुण्ण रखने के लिए यादव वंश रावत देव-उठनी एकादशी से राउत नाचा महोत्सव को एक पर्व के रूप में बड़ी खुशी से मनाते हैं-
भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है -
यदा-यदा ही धर्मस्य, ग्लानिर्भवति भारत:
अभ्युत्थानं तदात्मनं सृजाभ्यहम
वर्तमान युग में प्रतिद्वंद्विता के बीच रहकर अन्र्तमन की व्यथा शांति की तलाश करती है और धीरे-धीरे व्यक्ति के अन्तस पर स्थापित हो जाता है तब व्यक्ति धर्म से विमुख नहीं होता, श्रीकृष्ण का अवतरण धर्म की स्थापना के लिए हुआ था और अधर्म का विनाश करने। श्री कृष्ण पहले महापुरुष हैं, जिन्होंने प्रवृत्ति और निवृत्ति का समवेश स्वरुप उद्घाटित किया।
कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन, प्रवृत्ति निवृत्ति का सूत्र है। कर्म बंधन नहीं है, कर्म से फल की आशा ही बंधन है। यही एकमेव महान सत्य है। आंख तो देखेगा, पाद तो चलेगा, उदर तो खाएगा, मस्तिष्क है सोचेगा अत: कर्म के बिना पूर्ण विकास की अभिलाषा नहीं की जा सकती  और निष्कर्म व्यक्ति रह ही नहीं सकता, यही कृष्ण का संदेश है। श्रीकृष्ण नियमों के प्रवर्तक थे, मर्यादाएं जानते-समझते थे। नैतिक मूल्यों की स्थापना एक आम धर्म है। इसी धर्म का परिपालन करना राउत नृत्य का आदर्श है। इसे राउतों का महायज्ञ कहा जाये जो अपनी परंपरा एवं रीति-रिवाज को बनाए रखने आज भी उसका स्वरूप विद्यमान है। राउत हमें अपने संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखने में पूर्ण सहायक हैं। राउत नाच संस्कृति एवं धर्म की अटूट शक्ति और विश्वास का प्रतीक है।
 साभार- रऊताही 2004

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