Wednesday 10 April 2019

रऊताही बाजार (राउत नाचा)

शब्द कहने में अटपटा लगता है पर यह राउत नाचा महोत्सव बहुत पुराने काल लगभग साढ़े पांच हजार वर्ष पुराने अट्ठाइसवें द्वापर काल से जब परमात्मा के सोलहवें कला ईश्वर  अवतार भगवान कृष्ण का अवतार हुआ था जिसके विषय में ईश्वर अवतार महर्षि व्यास (तत: सप्तदशे जात: सत्यवत्यां पराशरात्।। च के वेद तरो शाखा दृष्टवा पुन्सोस्त्य मेघ स:।। 21 भा.पु. स्कंध) अपने अपूर्व ग्रंथ श्रीमद्भागवत में प्रथम स्कंध में एते चां श कला: पुन्स: कृष्णास्तु भगवान वयम्।। इन्द्राणीव्याकलं लोकं ऋष्यंति युगे-युगे। श्रीमद् नाचा महोत्सव जो कि अपने मुखिया (राजा) के प्रथम पुत्र जन्मोत्सव के समय अपने गोधन गायों और बछड़ों के सहित अनेक परिधानों में (गायों नृषा वत्सतरा हरिद्रातैत सषिता: 22 निमित्त धातु बर्हस्त्रग्वस्त्र कांच न मालिन:।। महादेवस्त्रानातरणं कंज्त्रु कोंष्णीय भूषिता:।। गोपा: समाययु राजान्नानों पायन पाणय:। दशम स्कँध 15।
नाचते-कूदते नन्दराय को बधाई दिया गया तथा उसी रुप में दूसरा महोत्सव गोवर्धन पूजा के समय इन्द्र का मानमर्दन हेतु दिखाया गया इसी तरह यह महोत्सव अन्याय अत्याचार कंस के द्वारा गरीब गायों के शोषण के विरोध में किया गया शुद्ध अहिंसक एकता का प्रतीक के रुप में पुराणों में लिखा गया है। उक्त महोत्सव का प्रमुख उद्देश्य उस समय अन्याय, अत्याचार के विरोध में ग्वाल बाल जो कि यदुवंशी क्षत्री थे पर गौ ब्राह्मण के ऊपर बढ़ते हुए अत्याचार को देखकर भगवान कृष्ण ने बलिष्ठ यादवों जिन्हें गाय गोधन सेवा के कारण ग्वाल बाल कहा जाने लगा जहां पर मांस मदिरा का बिलकुल निषेध था और बड़े-बड़े असुरों (असुरी प्रवृत्ति के धनी) को बिना किसी हथियार के विनष्ट किया गया था। इसी का प्रतीक आज के दिन ग्वालों के द्वारा गायों की बीमारी एवं पशुधन की खुशहाली हेतु गोष्ठान में कुल देवता भगवान कृष्ण का पूजन कर राउत नाचा महोत्सव किया जाता है। इसमें खासकर छत्तीसगढ़ के सभी वर्ग अपना तन मन धन से सहयोग कर उक्त महोत्सव में सम्मिलित होते हंै। इसमें खासकर छत्तीसगढ़ के सभी वर्ग अपना तन मन धन से सहयोग कर उक्त महोत्सव में सम्मिलित होते हैं। इसी हेतु गांव में सभी घरों में ग्वालबाल जाकर राउत नाचा कर उनकी उनके बहुमुखी विकास की दुहाई अनेक दोहे के रुप में दिया करते हैं इस ऐतिहासिक पौराणिक परम्परा को समाज के हर वर्ग को प्रोत्साहित करने एवं इस छत्तीसगढ़ी ही नहीं वरन अनेक रुप में हर प्रांत में यादवों के द्वारा मनाये जाने हेतु प्रोत्साहन दिया जाना चाहिये एवं ग्वाल बालों को सामाजिक उत्थान हेतु अपने को सभी बुराईयों से बचाते हुए सामाजिक संगठन हेतु प्रयासरत रहना चाहिये।
इस महोत्सव को आज भी मातर जगाने के नाम से ग्वालों के द्वारा मनौती के रुप में माना जाता है। जिसमें यदुवंशी अपने कुल देवता की पूजा करने हेतु अपने मुखियों के घरों से खोड़हर को विधि विधान से बाजे गाजे से नाचते कूदते उल्लास के साथ पूजा कर गोठान के बीच में गड़ाकर उनके सम्मान में खूब पूजन भंडारा तथा उस समय हर वर्ग के ग्वाल चाहे कनौजिया, देशहा, झेरिया, तथा वन्य प्रांत में आदिवासी जन भी एकजुट होकर अपने देवता के सम्मान में खूब उत्सव मनाते हुए विविध परिधान में अनेक दूर-दूर के गांवों में झुण्ड के झुण्ड बाजे-गाजे के साथ अपनी वर्ग भेद जाति ऊंच नीच के कुत्सित विचारों से अलग होकर उक्त उत्सव में सम्मिलित होकर अपने गांव ग्राम देवता, कुल देवता ग्राम के मुखिया के चहुंमुखी विकास तथा परम्परा को कायम रखने तथा अपनी मातृभाषा मातृभूमि गोवंश एवं अपने मालिक एवं स्वयं परिवार के मंगलकामना के दोहे बोल बोल कर इतने भाव विभोर हो जाते हैं कि उन्हें तन-मन की सुधि-बुधि भूल जाती है जिसे काछन चढऩा कहा जाता है। ये यदुवंशी क्षत्री इस रुप से उस समय कंस के बढ़ते हुए अत्याचार और आज भी गोवंश के विनाश के प्रति अपना रोष प्रकट कर एकता की दुहाई देकर मानो मर मिटने की शपथ लेते हैं। मातर शब्द का अर्थ मातृ शक्ति को जागृत कर माँ गोवंश की रक्षा हेतु समाज को जागृत कर जगाना होता है तथा स्पष्ट है खोंडहर शब्द खंड हर का अपभ्रंश है जो कंस के अत्याचार से घरबार छोड़कर भागे हुए सीधे-साधे यदुवंशी भोज वंशी क्षत्रिय एकत्र होकर अन्याय को चुनौती देकर अपने छोड़े हुए खंडहरों से अपने कुल देवता को मुक्ति दिलाकर बाजे-गाजे के साथ लाया जाता है। आज भी आप लोगों ने देखा होगा मातर जगाने वाला ग्वाल को काछन चढ़ता है वह अपने देवता अपने घर को खडंहर तथा इष्ट को गड्ढे तथा अंधेरे में सिसकते हुए उसमें मातृशक्ति का भाव आ जाता है। वह उसमें आक्रोश में अपने ही शरीर व घर छप्पर को पीटने लगता है और अपने आप मना करने वाले प्रतिद्वंद्वी को ललकारने लगता है उस समय उसको शासन द्वारा प्रदत्त सुरक्षा बल भी संभालने में असमर्थ हो जाता है। यह एक शुद्ध दैविय शक्ति का जागरण एवं अपने मातृभूति, राष्ट्र, गोवंश के दीन-हीन दशा के प्रति एक आक्रोश प्रकट होना स्वाभाविक है। उसके बाद अपने जो ग्वाले घर-घर में राउत नाचने को जाते हैं अगर हम लोग इसका सही मूल्यांकन करें।
हमें हमारे समाज एवं पूरे देशवासियों को इस वंश का आभार मानना चाहिए यह कि ये यदुवंशी क्षत्रियवंश का ही लक्षण है जो ये लोग लाठी लेकर अपने शौर्य का प्रदर्शन करते है। हर हिन्दू मुसलमानों एवं सभी छोटे बड़े लोगों के घर जाकर उनकी गुलामी अंग्रेजों के द्वारा गोवंश का विनाश एवं भारतवासियों को हथियार रखने पर पाबंदी के विरोध में केवल लाठी के बल पर ही अपने आन बान गोवंश एवं राष्ट्र के प्रति हर वर्ग के घर-घर जाकर जगाकर सावधान रहकर अपने ऊपर किये जा रहे अत्याचार शोषण के प्रति अलख जगाना ही है। उसमें जो उन्हें पुरस्कार प्राप्त होता चला आ रहा है वह एक प्रोत्साहन राशि के रुप में ही था जिसे वे बेचारे सदियों से शोषित अपनी गरीबी समाज से उपेक्षित एवं अशिक्षित रहने के कारण उक्त राशि को समाज संगठन के उत्थान में न खर्च कर अपने पेट तथा कपड़ा बाजा आदि में उड़ाते चले आ रहे हैं। आजादी की लड़ाई में जिस तरह स्व. लोकमान्य तिलक जी ने महाराष्ट्र में गणेश सत्यनारायण की कथा आदि में संगठनात्मक विचार गोष्ठी का रुप दिया था। उसी तरह इस समाज के तरफ छत्तीसगढ़ के समाज सेवियों का ध्यान नहीं गया न ही उन्हें बढ़ावा मिला बल्कि उनकी हंसी उड़ाया जाकर उन्हें दबाने हेतु अनेक कार्य किये गये। इस विषय एवं इस समाज के संबंध में जितना भी कहा जाय, लिखा जाय थोड़ा है। इस समाज ने सदियों से अपना परिश्रम अथक सेवा भाव जो दिन भर हमारे कृषि प्रधान भारत वर्ष के महत्वपूर्ण अंग गोधन की सेवा करने बड़े भोर से ही मालिक को जगाकर गाय भैंसों को बरसात, पानी गिरते एक कंबल खुमरी ओढ़ कर जंगलों में ले जाकर ईमानदारी पूर्वक चराना न उन्हें उक्त कार्य में ठंड की परवाह न गरमी की चिंता। घर में मवेशियों की सेवा में अपना तन-मन-धन न्यौछावर कर समर्पण भावना से जो इस वर्ग ने सेवा किया है कोई ऐसा मिसाल आज भी जंगलों में जाकर इनके त्याग और तपस्या देखा जा सकता है। जंगलों में आपके पशुधन की सेवा और वे ग्वाल अपना और अपने परिवार को अनेक बीमारी प्रताडऩा के आग में झोंकते चले आ रहे हैं ऊपर से वन विभाग के कर्मचारियों द्वारा इनका शोषण दरिंदों से कम नहीं है फिर भी ये बेचारे आपके गायों भैंसों को इस जंगल से उस जंगल में भगाने पर असहाय होकर समाज सेवकों से अपनी गुहार लगाते फिरते हैं क्या किसी ने कोई ध्यान दिया है? मैं समाज से पूछता हूं आप लोगों में से कोई भी बताये इन्हें इसके बदले क्या मिला। थोड़ा सा अनाज बाढ़ी के टुकड़े मात्र हमारे प्रांत में कांग्रेस शासन में हमारे मुख्यमंत्री माननीय दिग्विजय सिंह जी को मैं साधुवाद प्रेषित करता हूं जिन्होंने हमारे समाज चिन्तक श्री बी.आर. यादव जी को हमारे म.प्र. शासन के वनमंत्री के रुप में नियुक्त किया है, वे समाज के प्रति जागरुक एवं संवेदनशील रहे हैं। अवश्य ही इस ओर अपना अमूल्य ध्यान देकर इन गरीब भोले-भाले ग्वाल बाल यादवों की दीनदशा पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करेंगे। काफी दिनों से मैं उक्त समाज के प्रति हमेशा ही अपनी आवाज उठाता रहा पर किसी ने ध्यान नहीं दिया आप अपने अंतरात्मा की आवाज से सोचें अगर इसी तरह समाज की उपेक्षा होती रही तो हमें समाज सेवा का कार्यबंद कर देना चाहिए अन्यथा वह एक ढोंग ही कहा जावेगा। हमारे समाज सेवी संस्थाओं की सच्ची सेवा भी सार्थक होगी। तय है कि अपने बहुमूल्य प्रहरी की उपेक्षा हमारे उत्थान में राष्ट्र के सुचारू संचालन में महान बाधक बनेगा। मैं तो चाहूंगा कि इस वंश के जो कभी समाज का शासक कहा जाता था आज मजदूर अशिक्षित लठैत कहे जाकर हंसी के पात्र बनते जा रहा है। समाज सेवियों से मेरी अपील है कि वे अपने सामाजिक यश प्रलोभन एवं दंभ से ऊपर उठकर सदियों से शोषित उत्पीडि़त समाज को शिक्षा संगठन सांस्कृतिक पहचान को उज्जवल कर उनके अंतर्रात्मा के आंतरिक भावना के अनुरुप सेवा का अवसर प्रदान कर उनकी खोई हुई अस्मिता उनको दिलाते। कंस के अत्याचार से भागकर विविध प्रांतों में बसे हुए श्रीमद्भागवत दशम स्कंधे द्वितीय अध्याय से पीडि़ता निविविध कुरु पांचाल कैकयान। शाल्वान विदनर्भन विषधान् विदेहान को सलानपि।। एके तमनुरुन्धानांज्ञातय: र्युपासते। हतेषु षटसु वालेषु देव क्या आग्रसेनिना। उन यदुवंशियों को एकत्रित कर उनको सामाजिक धारा की ओर मोड़े और इस प्रकार सदियों से चले आ रहे राउत नाचा को एक सामाजिक राष्ट्रीय एकता के रुप में महत्व देकर अपना योगदान देवें साथ साथ देश के सभी यदुवंशी यादवों से भी अनुरोध करुंगा कि आप लोग अपने अस्मिता को पहचानिये गंदे विचार कि वह झेरिया है यह केंवरई है यह कन्नौजिया है। इन सब झगड़ों में न पड़ वसुधैव कुटुम्बकम की भावना से समाज में कुछ व्याप्त बुराइयों से दूर रहकर शिक्षा को महत्व देकर अपने आगे आने वाली पीढ़ी को साक्षर बनाइये और ग्राम नगर समाज राष्ट्र के उत्थान में सहभागी बन स्वदेश का नाम रौशन करें। संगठन में इतनी ताकत है कि किसी राष्ट्र को उठाने सजाने संवारने में वर्तमान युग में महत्वपूर्ण आवश्यकता है। संघे शक्ति कलीयुगे जिस समाज में एकता है वही जागरुक है। यह तो यादव समाज में कुछ जागरुक लोग हुए जिनका सामाजिक उत्थान के तरफ ध्यान गया जो अब कुछ वर्गों के लिए समाज में जो बुराई है कुछ स्वार्थी लोगों के बहकावे में आकर लठैती कर मारपीट तथा अपने ही यादव समाज से वर्ग भेद लगाकर झगड़ा झांसा करने के प्रवृत्ति पर रोक लगाकर समाज को सुसंस्कृत कर संगठित कर पूरे सामाजिक धारा की ओर यदुवंशियों का ध्यान मोड़ा जाये तो मेरे अंदाज से सबसे उत्तम क्षत्रित्व समाज एवं राष्ट्र के सजग प्रहरी के रूप में खुलकर विकसित होगा। शास्त्रों में जो क्षत्रिय गुण वर्णित समाज माना जा सकेगा। श्रीमद्भागवते दशम स्कंधे वर्तत ब्रह्मण विप्रो राजन्यो रक्षया भुव:।। वैश्यस्तुवतिया जलायनम।। दान भीश्वर भावच्श्र क्षात्रं कर्मस्वभाव जान्। मेरे मन में काफी बचपने से ही यादव समाज के इस रौताही राउत नाचा को देखकर संगठन के बारे में लोकमान्य तिलक डॉ. हेडगेवार महात्मा गांधी जी के अहिंसात्मक आंदोलन याद आते रहे हैं। यह समाज किसी भी तरह आज भी अहिंसक भावना से ओतप्रोत समाज के सभी वर्ग को साथ लेकर यह कार्य प्रारंभ से आतंक अत्याचार शोपण अनाचार गुलामी के प्रति चेतावनी ही थी तो इनके गरीबी अशिक्षा एवं समझ के ऐसे बड़े वर्ग जो आज भी इनके माध्यम से अपनी रोटी सेंक रहे हैं पुन: समाज उत्थान के प्रति अपनी शुभकामना प्रेषित करते हुए सबसे अधिक भाई डॉ. मंतराम यादव जिनके ऊपर मेरा पुत्रवत स्नेह हमेशा ही रहा है। लगातार हमें हमेशा ही इन विषयों पर मेरा ध्यान दिलाते रहे तथा इस पर कुछ अपना विचार लिखने हेतु पे्ररित करते रहे।
मैंने जो कुछ भी अपनी टूटी फूटी भाषा एवं अपने अल्प ज्ञान के द्वारा इस लेख में लिपिबद्ध किया है विद्वानों से क्षमा याचना करते हुए आशा करुंगा कि इसमें वर्णित कमजोरी चाहे वह शाब्दिक हो भावनात्मक हो मेरे जिम्मे छोड़कर सार ग्रहण कर यादव समाज की उन्नति संगठन पर अपना ध्यान लगाकर छत्तीसगढ़ के अमूल्य सामाजिक विधि को हर बुराइयों से दूर कर, विकसित कर नया रूप लाकर आदर्श प्रस्तुत करेंगे।
साभार रऊताही 2016

राउत नाचा : वीर वेश धारण कर नाचते हैं राउत

भारतीय ऋषि मुनियों ने प्रकृति का सूक्ष्मतम अध्ययन करने के बाद पूरे समाज के लिए बहुत वैज्ञानिक धरातल पर नियम बनाये थे ताकि मनुष्य समुदाय को प्रकृति के अनुकूल चलाते हुए उसे अधिकृत सुख-सुविधा दी जा सके तथा उपयोगी बनाया जा सके।
राजाओं के लिए भी इन नियमों का परिपालन आवश्यक था। युद्ध आदि कार्यों को समाप्त कर देवशयनी एकादशी से सारी शैन्य शक्ति को वापस राजधानी अथवा अपने राज्य सीमा में वापस आना अनिवार्य था। आषाढ़ शुक्ल पक्ष की इस एकादशी से ही चतुर्मास आरंभ हो जाता है, विवाह -शादी आदि सभी कार्यों में बंदिश लग जाती है, युद्ध रूक जाते हैं और साधु सन्यासियों का प्रवास और यात्रा का क्रम भी रूक जाता है। अगले चार माह वर्षा के होते हैं अतएव पथ चलने लायक नहीं रहते थे। साधु संत किसी एक ग्राम में रह कर ईश्वर भजन तथा उपदेश देने का कार्य करते थे। देवता और देवियों का यह शयनकाल है।
सेना से वापस आये सैनिक तथा अन्य लोग कृषि कार्यों में जुट जाते हैं। यह चार माह कृषि कार्यों के लिए समर्पित माह है। व्यापारी जो बाहर व्यापार करने गऐ थे वे भी घर वापस आ जाते थे। महिलाओं को अपने पतियों का चार माह भरपूर साथ मिलता। यदि किसी का पति नहीं आ सका तो उसके लिए यह विरह काल माना जाता था। विरह गाया जाता था  'सावन बीता जाये पिया नहीं आये वगैरह-वगैरह।Ó
चार मास बीतने के बाद नवरात्रि में देवी-देवताओं से लगभग पैंतीस चालीस दिन पूर्व अश्विन शुक्ल एक को नवरात्रि आरंभ में जागृत अवस्था में आ जाती है। देवी उपासना पूरे नौ दिन चलती है। दसवें दिन विजयादशमी का त्यौहार मनाया जाता है, इस दिन समस्त वीरजाति सैनिक आदि फिर अपने सैन्य कार्यों की तैयारी में अपने अस्त्र-शस्त्रों को धार देते हैं और इनकी पूजा करते हैं। अहीर, यादव, ठेठवार, ग्वाला, गोप, ग्वाली, पहटिया, चरवाहा, बरदिहा या रावत कहा जाने वाला वर्ग जो इन बीते चार महीनों में पशु सेवा में लीन रहते हैं, ये आज इस अवसर पर मातर जगाते है। ये दोहा पारते हैं-
चार महीना चराएंव खाएँव दही के मोरा,
आगे मोर दिन देवारी छोड़ेंव तोर निहोरा।
छत्तीसगढ़ में इस समाज को राउत के नाम से सामान्यत: संबोधित किया जाता है। मातर जगाने के कार्य में गांव के बाहर दैहान में जहां गायों को प्रतिदिन सुबह मालिकों के घर से ढीलकर एकत्र किया जाता है एक गड्ढा खोदकर पुराने हल के टूटे हुए टुकड़े को गाड़ दिया जाता है या गाय के खूंटे को जिसे खोडहर कहते हैं गड़ा देते हैं यहां मातर याने मातृदेवी की पूजा की जाती है। हल के टुकड़े को गाडऩा याने हल विषयक काम समाप्त करना है मातर कार्य में भी बाजार या मेला सा दृश्य उपस्थित रहता है। इस दिन गाय बैलों का श्रंृगार किया जाता है उन्हें अच्छा भोजन कराया जाता है।
दैहान में पकवान खीर पूरी मिष्ठान आदि बनाया जाता है। कुछ राउत लोग बकरों की बलि भी माता को चढ़ाते हैं यहां यज्ञ की तरह  अग्नि में गुड़ घी की आहुति दी जाती है और अपने नाता रिश्ता और इष्ट मित्रों को खिलाया पिलाया जाता है। इस मातर कार्यक्रम में कई बार दूसरे गांव के राउत भी सम्मिलित होते है। कभी-कभी इस कार्यक्रम में भी मड़ई ध्वज रखा जाता है। मातर शब्द वास्तव में संस्कृत के मातृ शब्द का अपभ्रंश है।
मड़ई ध्वज- मड़ई एक बड़े बांस में चारों तरफ बांस की खप्पच्चियों द्वारा बनाया जाता है इसे पन्नी रंगीन कागज की झंडिय़ों व झालरों से सजाया जाता है यह आधुनिक बिजली के टावर की आकृति का नीचे तीन फुट बांस छोड़कर मोटा बनाया जाता है जो ऊपर जाकर कुछ सकरा हो जाता है। दीप स्तम्भ की तरह इसकी के ऊंचाई 15-20 फुट से कम नहीं रहती सब के शीर्ष में मयूर की पूंछ से इसे अलंकृत किया जाता है और मुर्गे के पंख भी बांधे जाते हैं। इसे प्राय: गोंड़ जाति का व्यक्ति उठाए रखता है इसके लिए वह अपनी कमर में एक  गमछा मजबूती से लपेटकर रखता है उसी में इसके नीचे के भाग को अटका दिया जाता है ताकि इस भारी भरकम ध्वज को आराम से संभालकर उठाया जा सके।
मातर जगाने के समय राउत जाति के लोग अपने अस्त्र-शस्त्रों की पूजा भी करते हैं इसे अखाड़ा कहा जाता है। देवउठनी एकादशी को अन्य सैनिकों की तरह राउत जाति के लोग भी वीर वेशभूषा धारण करते हैं। अपने देवताओं की होम धूप से पूजा करने के बाद कभी-कभी कुछ राउतों पर देवता चढ़ आता है इसे काछन कहा जाता है,  इस समय राउत मदोन्नमत स्थिति में रहता है, राउत नाच के समय राउत अपने सिर पर पगड़ी बांधता है और उसे रंग-बिरंगी पन्नियों से अथवा गेंदा के फूलों की माला लपेटकर सजाता है।
ऊपर मोर के पंखों के डंठल से बनी फुंदना लगी कलगी खोंसता है। माथे पर लाल सिंदूर से टीका लगाता है मुंह को वृंदावन से लायी पीली मिट्टी से रामरज कहते हैं प्रसाधित करता है कभी-कभी अभ्रक से भी चमकाता है आंखों में काजल आंजता है गालों को भी हल्के लाल रंग से सजाता है या उसमें काजल की छोटी-छोटी बूंदे लगाता है। गले में गेंदा फूल या कागज के रंग-बिरंगी फूलों की माला पहनता है अपने वक्ष स्थल पर कवच की तरह कौडिय़ों से सज्जित वस्त्र पहनता है इसके नीचे चकमकी कपड़े या मखमल का सलूखा, कुरता, बंडी जो छींटादार होता पहनता है। कमर के नीचे चुस्त कसी हुई घुटने तक ऊंची धोती पहनी जाती है। पैरों में जूते मोजे के ऊपर पहने जाते हैं।
वीर वेश धारण करने के क्रम में राउत अपने कमर में कमरपट्टा, हाथ के बाजुओं में बाजू बंध तथा कलाईयों में भी पट्टीनुमा कौडिय़ों का बना पट्टा बांधता है। पीठ पर मयूर पंख से बना झाल बांधता है हाथ में खुली तलवार की तरह लाठी धारण करता है और बाएं हाथ में फरी या ढाल रखता है।
इस शौर्ययुक्त वेशभूषा वाला वीर सैनिक राउत क्योंकि इस अवसर पर नाचने निकलता है। इस लिए पैरों में घुंघरु और कमर में भी बड़ी-बड़ी घंटिया बांधता है। इसका पद चालन भी सिपाही की तरह होता है।
सैनिक वाद्य के स्थान पर गड़वा बाजा होता है जिसमें ढोल, निसान, टिमकी, ढपली, मोहरी, डफला, मांदर, गुरदुम दुतहरी झांझ, मजीरा आदि वाद्य होते है आजकल इसे ज्यादा श्रंृगारिका बनाने के लिए परियां भी नाचते हुए साथ चलती है जो वास्तव में पुरुष भी होते हैं, नारी वेशभूषा धारण किये रहते हैं। नाचने वाले राउतों का एक समूह चार पांच से लेकर तीस-चालीस तक कुछ भी हो सकता है, इसे गोल कहते है।
देवउठनी एकादशी को ही राउत लोग साप्ताहिक बाजार में जाकर बाजा वालों को ठेके पर लेते है। राउत नाचा का पूरा सरजाम युद्ध जाती सैनिक टोली की ही तरह ही रहता है। राउत जो दोहा नाच के मध्य में पारते हैं वे कबीर, रहीम, तुलसीदास आदि के होते हैं और कभी-कभी स्वरचित  आशु पद भी होते है जो मौके की नजाकत के अनुसार होते हैं। साप्ताहिक बाजार में जाकर राउतों का यह दल पूरे बाजार की परिक्रमा करता है, जिसे बाजार बिहाना कहा जाता है।
आजकल बाजा वाले बहुत महंगे हो गये है अतएव इनके लिए पैसे की व्यवस्था करने राउतों का गोल अपने-अपने किसानों व मालिकों के घर-घर जाकर नाचता है और उनसे धोती तथा नगदी पुरस्कार प्राप्त करता है इसी कारण अब राउत नाच कार्तिक पूर्णिमा के बाद भी पौष पूर्णिमा तक चलता रहता है। राउत नाचा के दिनों में राउतों का दैनिक कार्य पशुओं को चराना और दुहना इत्यादि बंद रहता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि यह सारा दृश्य शौर्यमय रहता है इन्हीं दिनों वे अपने सारे त्यौहार गोवर्धन पूजा इत्यादि मना लेते हैं।
साभार रऊताही 2016

जन जागरण का प्रतीक अहीर नृत्य रऊताही महोत्सव

छत्तीसगढ़ अंचल का लोकप्रिय मड़ई महोत्सव जिसे रौताही के नाम से जाना पहचाना जाता है। रौताही-पौराणिक ,ऐतिहासिक, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परम्पराओं, रीति-रिवाजों का अनूठा संगम राष्ट्रीय एकता स्नेह एवं सद्भाव का प्रेरणा स्त्रोत है साथ ही भारतीय ग्राम्य जीवन के उल्लास स्नेह उमंगों का प्रतीक वीरत्व शिवत्व एवं शौर्य प्रदर्शन का एक श्रेष्ठ सफल माध्यम है।
इस महोत्सव में मानव अपनी आंतरिक खुशियों की लहर से समस्त वातावरण को रसमय तन्मय कर देना चाहता है। ऐसे समय में जिधर देखें उधर प्रकृति पूरी उल्लसित हो झूमने लगती हैं, धरती उमंग में फूल उठती है शीतल मंद सुगंध त्रिविध मलय समीर लहराने लगता है। छैल-छबीले, रसीले श्रृंगार प्रिय नवयुवकों व गोपाल बन्धुओं के पाँव थिरकने लगते है।
दसों दिशाओं में झमकते घुंघरुओं की झनकार कमर बंध जलाजल की आवाज से हर ग्राम गली चौराहा चौपाल व तुलसी बिरवा से सुसज्जित आंगन शब्दायमान हो रसमय होने लगता है, मन भ्रमरों के मौन अधर गुनगुना उठते हैं।
वन्य प्रान्तर पुण्यमयी भूमि नव वधु सी पल्लवित पुष्पित सुरभित हो मुस्कराने लगती है। विहम वृन्द आनंदित हो कलरव करते प्रफुल्लित नजर आते हैं। धरा से गगन तक खुशियां ही खुशियां प्रेम में नया उल्लास गीत संगीत में विशेष माधुर्य एवं तन मन में नई उमंग छाने लगती है। सूर दुर्लभ मानवीय भौतिक, आत्मिक सुख सौंदर्य से युक्त रावत लोक नृत्य में भगवान श्रीकृष्ण के रास नृत्य स्मृति सुमन के सदृश्य रोम-रोम में सुवासित होने लगता है।
इसी तरह लोक नृत्यों में गीत-संगीत एवं वाद्य स्वरों की मनभावनी पतित पावनी त्रिवेणी प्रवाहित हो तन मन प्राणों में अकथनीय आनंद की सृष्टि रच देती है।
छत्तीसगढ़ का लोक मानस भावात्मक-लयात्मक एवं उल्लासमय वातावरण में परमानंद का प्रत्यक्ष अनुभव करता है। ग्रामवासी अपने इस सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा के लिये सदैव सजग समर्पित रहते हैं।
रावत नृत्य के अतिरिक्त छत्तीसगढ़ अंचल में करमा नृत्य, सुआ नृत्य, ददरिया गीत, भोजली गीत नृत्य, जंवारा गौरा नृत्य, डंडा नृत्य, पंथी नृत्य, पंडवानी नृत्य, डीड़वा नृत्य, बांसती फगुआ नृत्य, देवार नृत्य एवं झूमर नृत्य अपनी बहुरंगी सांस्कृतिक विशेषताओं के कारण लोक जीवन लोक साहित्य में विशिष्ट स्थान प्राप्त कर भारतीय समाज की महत्ता को उजागर करने के लिए कृत संकल्पित है।
लोक नृत्यों में लोक मंगल की पवित्र भावना राष्ट्रीय प्रेम का संदेश विद्यमान है।
मेरे परम आदरणीय गुरु देव श्री विद्या भूषण मिश्र के अनुसार- छत्तीसगढ़ अंचल अपनी लोकप्रिय संस्कृति परम्पराओं के लिए विश्वविख्यात है। बहुचर्चित है उसके लोक गीतों, लोक नृत्यों और लोक संगीत में उसकी सभ्यता,  संस्कृति, जागृति, धार्मिक विचार भावनाओं की मधु गूंज आती है।
छत्तीसगढ़ में रावत जाति के लोग सबसे प्राचीन उत्सव जीवी नृत्य धर्मी, संगीत प्रेमी, सत्य व्रत नेमी होते हैं। रावत नाच कार्तिक अमावस्या और कार्तिक पूर्णिमा से प्रारंभ होकर निरंतर चलता रहता है। दीपावली पर्व पर दीपोत्सव नृत्य को देवारी नाचा के नाम से जाना जाता है।
लक्ष्मी पूजा, गोवर्धन पूजा से अहिरा देव शक्ति अर्जित कर आंतरिक बल, शौर्य, साहस, वीरता का भाव संजोता है और अपना सन्मार्ग सिद्ध लक्ष्य प्रशस्त करता है। गोवर्धन पूजा के पश्चात गाय बैलों के गले में पलाश वृक्ष की छाल जिसे आंचलिक बोली में बांक कहते हैं, से निर्मित सुहाई बाँधता है और अपने मालिकों-किसानों के धान की कोठी में गउ गोबर से धन देवता कुबेर का चित्र बनाते हुए मालिक के दीर्घायु जीवन की कामना करते हुए गऊ माता से प्रार्थना करता है-
बांधेव मया सुहाई बंधना, धन लक्ष्मी तोर रुप हो।
देव सुघर आशीष जमो ल, झन रहिबै तंय चूप हो।
इसके पश्चात मालिक उसे अपनी तरफ से खुश होकर निछावर पुरस्कार भेंट स्वरूप रुपया देता है। मान-सम्मान करता है। मगन मन नर्तक रावत भी सद्भाव आशीष देता है-
जइसे मालिक लिये दिये, तइसे झोकौं आशीष हो।
अन्न धन में भंडार भरे तोर, जीवौ लाख बरीस हो।
अहिरा निर्भय हो पवित्र मन से लोक मंगल की कामना से ओत प्रोत है। वह अपने साथ सबका कल्याण चाहता है। देवउठनी एकादशी के दिन ही गन्ने का मंडपाछादन कर भगवती तुलसी विवाह व भगवान शालिग्राम की पूजा अर्चना की जाती है। गाय बैलों को खिचड़ी खिलाते आरती पूजा की जाती है। आंगन में पूरे चौक की चमक से मन प्रसन्न हो उठता है। हिन्दू लोग अपने समस्त मांगलिक शुभ कार्यों का शुभारंभ इसी दिन करके जीवन सफल मनाते है। अहिरा अपने मालिक को गाय बैलों के उत्तरदायित्व सौंप कर स्वतंत्र  रुप से नृत्य करने में व्यस्त-मस्त हो जाता है।
अरररा भाई हो, हो भाई हो, एकात्म समवेत स्वर लहरी से नृत्य प्रारंभ होता है। नृत्य करते समय रावत लोग अपने आत्मिक विभिन्न भावों गुणों से युक्त कबीर, तुलसी, सूर, मीरा, रहीम एवं मौलिक लोकांचलिक पारम्परिक दोहे बोलकर अपने हृदय के सद्भाव, भक्ति भाव एवं स्नेह को वाणी द्वारा व्यक्त करते हैं। बाएं हाथ में फरी, गुरुद ढाल व दाएं हाथ में तेंदू की लाठी लिए नृत्यांगना, मड़ई महोत्सव, रौताही बाजार में उतर आते हंै। इनकी तेन्दू की लाठी मानो बज्र शक्ति, ब्रह्मास्त्र जैसा प्रणाधार सी लगती है अहिरा लोग सोते जागते उठते बैठते, खाते पीते, हर समय अपने सहोदर भाई सदृश्य लाठी को एक पल के लिये अलग नहीं करते। कुल देवता ठाकुर देव, दूल्हा देव, ठकुराईन, सोनइता, ठगहा देवता, रक्त चंडी, महामाया, सारंगढिऩ, गौराईया,  बजरंगबली, परउ बइगा, अखरा के गुरु बैताल, नौ सौ योगनियां, सिद्ध बाबा महादेव वृषभ, संडहादेव आदि देवी देवता इनके जगत प्रसिद्ध है।
अखरा सुहई काछन मातर जागरण, बाजार बिहाना और मड़ई रौताही महोत्सव रावत नृत्य के महत्वपूर्ण अंग माने जाते हैं।
नृत्य करने  की भाव भंगिमा बहुरंगी, वेशभूषा की चमक-दमक से समस्त वातावरण जगमगा उठता है। राम रज अभ्रक जरी से सुसज्जित चमकते-दमकते चेहरे माथे पे श्वेत व लाल रंग की सुर्खी चंदन टीका, लाल होंठ, गुलाबी गाल, घुंघराले काले घने झुलुप दार मनमोहक बाल, हृष्ट-पुष्ट शरीर, मदमस्त चाल, सिर पे रंग बिरंगी कलगीदार तुर्रा लच्छेदार पगड़ी। बाजू बंद, माड़ी घुटने व कमर तक कसी चुस्त धोती, पैरों  में मोजा व कपड़े का जूता, घुंघरुओं की छमाछम झनकार कुहुक के साथ दोहे की कर्णप्रिय मिठास, गुदरुम गंधर्व बाजे की आवाज, सज धज कर मस्त नाचते गाते राउतों के गोल, जिसे देखकर जनमानस का मन मुग्ध हो उठता है। लगता है मानो ग्राम्यांचल की सहज सूर संस्कृति कलात्मक अभिव्यक्ति ने शहर को भी भाव विभोर कर दिया है।
अहिरा नृत्य में एकता, विश्वबन्धुत्व, प्रेम की अभिव्यक्ति, समर्पण की शक्ति, उत्साह-उमंग, शौर्य एवं भातृत्व भाव का परिचायक लोक संस्कृति की जीवंतता का सजीव उदाहरण जन जागरण सूर्योदय स्नेह का अमर संदेश है जिसे जीवित अक्षुण्ण बनाये रखने हम सब का परम धर्म एवं नैतिक
कत्र्तव्य है।
 साभार रऊताही 2016

छत्तीसगढ़ के लोकनृत्यों में 'राउत नृत्य'

मनुष्य अपनी आत्माभिव्यक्ति हंसकर, रोकर, गाकर या नाच कर व्यक्त करता है। वह जब अत्यधिक प्रसन्न हो जाता हैं खुशी से भर उठता है तब उसके अंगों में हलचल होने लगती है। पैर थिरकने लगते हैं हाथ हरकत करने लगते हंै। पूरा शरीर झूमने लगता है। इस प्रकार की आत्माभिव्यक्ति को हम नृत्य कहते हैं। नृत्य के द्वारा मनुष्य का मन दुख, कठिनाईयों जीवन की जटिलताओं से दूर हो आनंद के प्रवाह में प्रवाहित होने लगता है।
लोक जीवन की भावुकता को अभिव्यक्त करने वाली प्रकृति से प्रभावित बंधनहीन उन्मुक्त नृत्य को लोक नृत्य कहा जाता है। लोक नृत्य वस्तुत: प्राकृतिक नृत्य है क्योंकि जब मनुष्य ने हवा में पेड़-पौधों को हिलते और इठलाते देखा तो वह भी आनन्द विभोर होकर अपने शरीर को उसी प्रकार हिलाने-डुलाने लगा।
हिलाने-डुलाने से इस क्रिया ने धीरे-धीरे नाच का रुप धारण कर लिया और समय बीतने पर हम उसे लोकनृत्य कहने लगे। लोक नृत्य में सरलता, सर्वगम्यता अप्रत्यनशील सरलता स्वसर्जित वैविध्य में एकरुपता आदि विशेषताएं होती हं। लोक नृत्य में जन जीवन की परम्परा, उसके संस्कार तथा लोगों का आध्यात्मिक विश्वास होता है। लगभग सभी लोक नृत्य सामूहिक होते हैं जो शास्त्रीय नृत्यों की तरह शास्त्रीय बंधनों और सीमाओं से परे होते हैं। शास्त्रीय एवं लोकनृत्यों में वही भेद है जो सीमाओं से आबद्ध तालाब तथा स्वच्छंद प्रवाहमान सरिता में है।
भारत  के चप्पे-चप्पे में अनुगूंजित लोक नृत्य ने लोक जीवन के हृदय को सुरक्षित रखा है। इस संदर्भ में श्री जवाहरलाल नेहरु के विचार उल्लेखनीय है- 'यदि मुझ से कोई पूछे कि भारत की प्राचीन संस्कृति और उसकी जनता के स्फूर्ति पूर्ण जीवन और कला प्रेम का सबसे सुन्दर चित्रण कहाँ होता है तो मैं कहूंगा कि हमारे लोकनृत्यों में।
छत्तीसगढ़ ने हमेशा लोककलाओं जिनमें जनता के प्राणों का स्पन्दन है को जीवित रखा इसलिए यहाँ की लोक संस्कृति जीवित रही। यहां के लोकनृत्य एवं लोकगीत यहां की संस्कृति के सच्चे प्रतीक हैं। छत्तीसगढ़ में अतीत गौरव के प्रतीक लोक नृत्य किसी ग्राम उत्सव के समय प्राय: अपने पुरानेपन में भी सौन्दर्य को समाए मानव मन को आनन्दित एवं आकर्षित किये रहते हैं। डॉ. कुन्तल गोयल ने लिखा है -'छत्तीसगढ़ लोक नृत्यों की भूमि है। लोकनृत्य यहाँ के लोक जीवन के आधार हैं। प्रकृति के उन्मुक्त प्रागंण में विचरण करने वाले इन प्रकृति पुत्रों का वास्तविक स्वरूप इनके नृत्य में ही परिलक्षित होता है। सच कहा जाए तो नृत्य के बिना इनकी भक्ति अधूरी है, इनके कर्म अधूरे हैं और जीवन अधूरा है।
छत्तीसगढ़ के लोक मानस ने गीत और नृत्य के माध्यम से अपने मन में उत्पन्न भावनाओं को अभिव्यक्ति प्रदान करने में विशिष्ट योगदान दिया है यहां के जन जीवन में नृत्य इस प्रकार  घुलमिल  गया है कि इसे कभी अलग नहीं किया जा सकता।
इनके रीति रिवाज इतने अधिक है कि प्रत्येक माह में एक न एक त्यौहार आता है और इस अवसर पर मानो नृत्य की घटा छा जाती है और गीत की वर्षा होने लगती है। इनके अनेकानेक त्यौहारों को नृत्य प्रधान त्यौहार कह सकते हैं-
छत्तीसगढ़ में विभिन्न लोकनृत्य प्रचलित है वे इस प्रकार हैं-
(1) करमा नृत्य (2) सुआ नृत्य (3) डंडा नाच (4) पंथी नृत्य (5) गोरा नृत्य (6) जंवारा तथा माता सेवा नृत्य (7) देवार नृत्य (8) गेड़ी नृत्य (9) सरहुल नृत्य (10) झूमर नृत्य (11) गवर नृत्य (12) नाचा (13) डोमकच नृत्य (14) डिड़वा नृत्य (15) रहस नृत्य (16) बार नाच (17) होलेडाँड़ नृत्य (18) दहिकाँदो नृत्य (19) वसुदेव व किसबिन नाच (20) राउत नाच
राउत नाच-
अब वांछित लेख 'राउत नाचÓ का विवरण इस प्रकार है- राउत नाच छत्तीसगढ़ का एक प्रमुख नाच है। इस नाच को राउत जाति के लोग बड़े उत्साह के साथ नाचते हैं। यह नृत्य कार्तिक एकादशी से प्रारंभ हो जाता है। इस नृत्य को प्रारंभ करने से पूर्व राउत जाति के बालक युवक व प्रौढ़ विभिन्न प्रकार के आकर्षक पोषाक धारण करते हंै। साज सज्जा के लिए पीले रंग का रामरज फूलों अथवा कागज के फूलों की माला सिर पर लपेटते हंै।
आँखों में रंगीन चश्मा, घुटनों तक मोजा, पैरों में जूते चुस्त धोती बाँधे व चुस्त कमीज व जाकेट पहन कर वे साक्षात वीर रस के अवतार प्रतीत होते हैं। हाथों में सुशोभित लाठी व दूसरे हाथ में ढाल बाँधे हुए अपने परंपरागत आन-बान शान का प्रतिनिधित्व करते हैं।
ये अपने हाथ में लाठी लिए हुए वादक गण को घेरकर नृत्य करते हैं। नृत्य करते हुए ये घर-घर जाते हैं और नृत्य के बदले गृह स्वामी से धन-वस्त्र आदि प्राप्त करते हैं। राउत नाच के पूर्णता विभिन्न सोपानों को पार करने पर ही प्राप्त है, वे सोपान इस प्रकार है-
1. अखरा-
अखरा शब्द हिन्दी के 'अखाड़ाÓ शब्द का अप्रभंश है। शौर्य और श्रृंगार के संगम राउत नाच की शुरुआत अखरा से की जाती है। राउत नाच में राऊतों को घंटों नाचना व शस्त्र संचालन करना पड़ता है। अखरा में वे बारंबार अभ्यास कर नृत्य कुशलता व देर तक नाचने की शक्ति प्राप्त करते हैं। अखरा, ग्राम के बाहर दइहान पर प्रतिस्थापित किया जाता है। कार्तिक एकादशी के समय इसे गोबर से लीप कर आम पत्तों के तोरण आदि से सजाया जाता है चारों कोने में पत्थर गड़ा कर देवताओं की स्थापना प्रतीक रुप में करते हैं। देव स्थापना के बाद नृत्य अभ्यास प्रारंभ हो जाता है।
 (2) देवाला -
राउत अपने निवास स्थान में एक पूजा कक्ष विशेष रूप से रखता है इसे ही देवाला कहते हैं। देवाला में मिट्टी से गोल या चौकोर आकृति का छोटा चबूतरा बना कर इसमें दूल्हादेव की स्थापना करके कुछ गोलाकार या त्रिशंकु पत्थर स्थापित कर दिये जाते हैं। देवाला में ही विभिन्न प्रकार के अस्त्र शस्त्र रखकर उनको नित्य पूजा की जाती हैं।
(3) काछन-
राउत देवालय में पूजा करने के पश्चात अस्त्र से सुसज्जित होकर एक विशेष भाव में भावाविभूत होकर बाहर आंगन में आता है। उस समय उसके शरीर में इष्ट देव आवाहित होकर विद्यमान रहते हैं, परिणामत: वह रोमांच से परिपूर्ण होता है इसी भाव को 'काछनÓ कहते हैं। काछन प्रत्येक राउत पर नहीं चढ़ता। यह कोमल एवं अत्यधिक भावानुभूति ग्रहण करने वाले राउत पर ही चढ़ता है।
(4) सुहई-
सुहई पलाश के धागे से बना हुआ तीन या पांच तागों से कलात्मक ढंग से गुथी हुई माला होती है। कार्तिक एकादशी के दिन चन्द्रोदय होते ही राउत अपने मालिकों एवं किसानों के घर जाता है और दुधारु गायों के गले में सुहई पहनाता है और आशीर्वचन के रूप में यह दोहा कहता है-
चार महीना चरायेंव खायेंव मही के मोहरा
आइस मोर दिन देवारी, छोड़ेंव तोर निहोरा।
(5) सुखधना-
सुहई बाँधने की प्रक्रिया के बाद राउत गृहस्वामी के अन्नागार (धान की कोठी) में सुखधना देने पहुंचता है। सुखधना का अर्थ है कि सुख समृद्धि, अन्न धन देने वाला। राउत एक थाली में सेम पत्ती चांवल, चंदन दीपबाती फूल और सुगंधित धूप लेकर कोठी के पास पहुंचता है और धनदेवी का चित्र बनाकर पूजा करता है। तत्पश्चात यह दोहा कहता है।
    अंगना लीपे चक चंदन-हरियर गोबर भीने।
    गाय-गाय तोर सार भरे बढ़हर है सै तीनों।
(6) राउत नाच एवं आशीष-
राउत दल सुसज्जित हो एक स्थान पर एकत्र होते हैं। तत्पश्चात घुंघरु की सुमधुर ध्वनि की झंकार गड़वा बाजे के गुदगुदरुम का मादक स्वर और दोहा पारने की वीरोन्मत शैली का प्रदर्शन करते हुए गलियों को निनादित करते हुए अपने मालिक के यहां पहुंचते हैं। मालिक के घर के सामने पहुंचते ही संबंधित राउत अपने आगमन की सूचना दोहा पार कर देता है-
ऐसन झन जानबे मालिक कि अहिरा दौड़ आये हो
बरीष दिन के पावन मं मुख दरसन बर आये हो।
वे स्वामी के आँगन में नृत्य प्रस्तुत करते है और नृत्य समाप्ति के पश्चात गृहस्वामी अपने आर्थिक स्तर के अनुरुप अन्न-वस्त्र एवं मुद्रा प्रदान करता है। इस समय आशीर्वाद स्वरुप राउत अपनी भावाभिव्यक्ति प्रगट करता है-
जइसे मालिक लिहे-दिहे तइसे देबो असीस।
अन्न धन ले घर भरै-जीओ लाख बरीस।।
(7) मड़ई- राउत नाच के अवसर पर स्थापित की जाने वाली मड़ई का बहुत महत्व है। यह राउत नाच का प्रमुख अंग है। इसलिए मड़ई राउत नाच का पर्याय बन गया है। मड़ई का अर्थ मंडप होता है।
भारतीय संस्कृति में प्रत्येक पवित्र कार्य पर मण्डप का उपयोग होता है। राउत नाच श्रीकृष्ण की स्मृति में किया जाने वाला नृत्य है। मड़ई, शाल्मली, बांस जैसे वृक्षों से बना 10-15 फुट का स्तंभ होता है। इसे रंग बिरंगी फूलों व कागजों से सजाया जाता है। इसके शीर्ष पर मयूर पंख व पलाश बाँधकर उसके साथ श्रीकृष्ण का चित्र नारियल व पूजा का सामान लटका देते है। मड़ई का निर्माण निषाद या गोंड़ जाति के लोग करते हैं तथा बनाने वाला ही मड़ई को लेकर दल के साथ चलता है। एक मड़ई के निमंत्रण पर अन्य मड़ईयां अपने दल के साथ पहुंच जाते हैैं। दल के सभी सदस्य नृत्य करते हुए इस मड़ई की परिक्रमा करते हंै। विभिन्न दलों के आ जाने से मेला सा लग जाता है इसलिए इस आयोजन को मड़ई मेला भी कहा जाता है।
(8) बाजार परिभ्रमण- बाजार परिभ्रमण राउत नाच का अंतिम सोपान है। इसे बाजार बिहाना भी कहते हैं। स्थानीय साप्ताहिक बाजार के दिन को ध्यान में रखकर ही मड़ई मेला आरंभ होता है। राउत नाच के विभिन्न दलों में प्रतिस्पर्धा होती है। उक्त क्रमबद्ध प्रक्रिया का परम्परागत रूप से आज भी पालन किया जाता है।
राउत नाच में लोक गीतों का संसार
राउत अपने उत्सव कार्तिक अमावस्या से मड़ई समाप्ति तक निरंतर दोहे कहते जाते हैं। इन दोहों में गंभीरता, कथा, जन जीवन अपने व्यवसाय से संबंधित वस्तुओं का वर्णनात्मक चित्रण व्यक्त करता है। छोटे-छोटे दोहों में बड़ी से बड़ी बात कह दी जाती है।
राउत दोहों में प्रमुखत: पर्व उत्सव से संबंधित जातिगत कार्य से संबंधित कवियों से संबंधित मौलिक एवं पारम्परिक दोहे, आधुनिकता से संबंधित दोहे आते है। इनका संक्षेप में क्रमानुसार उल्लेख इस प्रकार है-
पर्व उत्सव से संबंधित दोहे-
कृष्ण बाजत आवय बाँसुरी उड़ावत आवय धूल
नाचत आवय कन्हाई खोंचे कमल के फूल
लागत महीना भादों के आठे दिन बुधवार हो
रुप गुन महि आगर ले के मथुरा अवतार हो।
जातिगत कार्य से संंबंधित दोहे
तोर मां चदन रुख वजोर माढ़े दइहान हो
डारा-डारा माँ पंडरा बछुरा पाल्हा बगरगय गाय हो।
खाय दूध धौरी के बइहां रखे भोगाय
चार कोरी तोर सेना बर राउत बइहां देहय उड़ाय।
संत कवि से संबधित दोहे
चित्रकूट के घाट में भई संतन की भीर
तुलसीदास चंदन घिसै तिलक देय रघुवीर।
मौलिक एवं पारम्परिक दोहे
बरीख दिन के पावन मां संगी मुख दर्शन बर आये हो
ऐसन देवारी नाचे संगी जीव रहे कि जाय हो।
सदा भवानी दाहिनी सम्मुख रहे गनेश
पांच देव रक्षा करें ब्रह्मा, विष्णु, महेश।
5 आधुनिकता से संबंधित दोहे
सतयुग त्रेतायुग द्वापर बीतगे धरती घलो बुढ़ागे
देवता धामी मन पथरा लहुटगे, नीति धर्म गंवागे।
पंच परमेश्वर बनिन अन्यायी मचगे हा हा कारगा
जनता मन अनजान बनिन अठ नेता मन बटमारगा।
6. विविध दोहे
चिरई मां सुंदर पतरेंगवा सांप सुघर मनिहार
रानी मां सुघर कनिका मोहत हे संसार।
संगत करले साधु के भोजन करले खीर
बनारस मां बासा कर ले मरना गंगा तीर।
राउत नाच ऐसा नृत्य हैं जिसमें श्रृंगार रस और वीर रस का अद्भुत संगम है। अपनी विशेषता और आयोजन की विशालता के कारण राउत नाच ने छत्तीसगढ़ के लोक नृत्यों में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया है। छत्तीसगढ़ में राउत नाच जितने उल्लास और व्यापकता के साथ प्रदर्शित होता है उतना भारत वर्ष ही क्या पूरे विश्व में शायद ही कोई लोक नृत्य प्रदर्शित होता हो।
इस राउत नाच में निहित मनोरंजन, शिक्षा, विकास एवं सभ्यता की झलक स्पष्ट रूप से दर्शकों को आनंदित व लाभान्वित करती है। छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध इस लोक नृत्य ने अपनी विशिष्टता के कारण लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। लोगों का यह आकर्षण छत्तीसगढ़ की कला और संस्कृति के प्रति अनुराग को प्रदर्शित करता हैं जो कि राष्ट्रोत्थान का एक शुभ चिह्न है।
साभार रऊताही 2016

छत्तीसगढ़ की संस्कृति में रावत नाच

रावत नाच को एक महोत्सव का स्वरुप देने एवं उसे क्रमबद्ध करने के पीछे हमारी मंशा यही रही है कि इस लोकनृत्य का पारंपरिक एवं कलात्मक स्वरुप मुखर होकर सामने आये।
समाज में बरसों तक बने रहने वाले आपसी झगड़ों के कारण अनेक यादव परिवार आर्थिक चिन्ता के शिकार होते जा रहे थे। रावत नाच जो कि समूह में नाचा जाने वाला नृत्य है शस्त्र एवं श्रृंगार का अद्भुत नृत्य है वह विवादों एवं कुरीतियों से प्रभावित हो रहा था। समाज के पढ़े लिखे यादव समाज के लोग उन्हीं बुराईयों के कारण नृत्य में भाग नहीं लेते थे। आपसी झगड़ों एवं विवादों को दूर करने के लिए समिति का गठन किया गया इसी समिति के फलस्वरुप यादव समाज में बैर भाव लगभग खत्म होता जा रहा है और भाई चारे की भावना विकास हो रहा है।
रावत नाच के कलात्मक एवं पारंपरिक स्वरुप को उजागर करने के लिए व्याप्त बुराईयों को दूर करने के लिए तथा देश में इस लोकनृत्य को सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए अहीर नृत्य कला परिषद देवरहट के तत्वावधान में अनेक निर्णय लिए गए। समिति के संचालक के रुप में डॉ. मन्तराम यादव को सर्वसम्मति से स्थान दिया गया।
श्री मंतराम यादव जी प्राथमिक शाला अमेरी में सहायक शिक्षक के पद पर कार्यरत हैं व उनमें समाज कल्याण की भावना है और यादव समाज का नाम उजागर करने में तन-मन-धन से त्याग की भावना से समाज के कार्य में जुटे रहते हैं।
छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति में रावत नाच
छत्तीसगढ़ में मिलने वाली विभिन्न जातियों में रावत जाति का विशिष्ट स्थान है। यहां के लोक जीवन और लोक संस्कृति को जितना इस जाति में प्रभावित किया है संभवत: उतना किसी अन्य ने नहीं, यह जाति रावत, अहीर, यादव, यदुवंशी, पहटिया आदि अनेक नामों से अभिहित है। रावत शब्द अपने साथ एक पीछे ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक परंपरा लिए हुए है। शब्दकोष से पता चलता है कि राऊत का अर्थ राजा और राऊत का अर्थ राजवंश कोई व्यक्ति क्षत्रिय वीर पुरुष अथवा बहादुर दिया गया।
अत: यह सिद्ध हो जाता है कि गोचरण एवं दुग्ध दोहन आदि की अपनी रीति को लिए हुए थे, रावत पूर्ण युग में राज्य का संचालन करते रहेंगे और राजवंशी है। रावत की उत्पत्ति राव से हुई प्रतीत होती है जब यदुवंशी नरेश थे तब से यह नाम आज तक प्रवाहित है।
स्पष्ट है कि यदुवंशियों के सभ्य ही रावतों का संबोधन होता रहा है। यही कारण है कि बांसगीतों में नायक रावत राजा या राजवीर के रुप में विख्यात है इनके राज्यकाल में प्रजा सुखी थी और दूधो नहाओं से अलंकृत थी। यह तथ्य बांसगीतों में संरक्षित है। रावतों की अलौकिक वीरता का निदर्शन आज हमें भले ही अतिश्योक्ति पूर्ण या विचित्रता से युक्त लगते हों लेकिन यह उनकी पूर्वजों में श्रद्धा और अलौकिक वीरता के प्रति भक्ति भावना को ही चरितार्थ करती है।
रावत नाच लोक कला एवं साहित्य की दृष्टि में
रावत जाति के संबंध में अपने विचार व्यक्त करतेहुए कह रहा हूं कि छत्तीसगढ़ की यह रावत जाति भी बड़ी रहस्यमय है इसने छत्तीसगढ़ लोक जीवन को कई प्रकार से प्रभावित किया है राजपूत का अपभ्रंश ही रावत हुआ है।
ये अपने को कृष्णानुयामी अमीर वंशज अहिरा कहते हैं मानस में तुलसीदास ने भी बहादुर के अर्थ में रावत शब्द का प्रयोग किया है।
निज निज साजु समाजु बनाई।
गुह राउतहि जोहोरे जाई।।
छत्तीसगढ़  के रावत स्वयं को यदुवंशी मानते हैं और यादव कहलाकर गर्व का अनुभव करते है। प्रसिद्ध पौराणिक पुरुष यदु से यादव वंश चला। वैवश्वत मनु के दस बेटे-बेटी थी इसमें एक इला थी, इला का विवाह सोम या बुध के साथ हुआ जिसके बेटे पुरुरवा ने ऐलवंश से यादव वंश निकला ।
रऊताही 1994 से साभार

Sunday 24 February 2019

हिन्दी लोकगीतों के अनुषंग

लोकगीत मानव मन की अनुभूतियों की सरस रागात्मक अभिव्यंजना का लयात्मक उपहार है। लोक संस्कृति की सच्ची, मधुर, मनमोहक तथा स्वरमूला अभिव्यक्ति को 'लोकगीतÓ की संज्ञा से अलंकृत किया जा सकता है। यह लोक आस्था तथा लोकानुभूत सत्य का अकृत्रिम, सहज तथा नैसर्गिकी गीतात्मक उद्गार है। मनुष्य के सुखदुखात्मक, हर्ष-विषाद मूलक नोवेगों के आरोह-अवरोह की रसात्मक अभिव्यंजना है। लोकगीत लोकवाड्.मय की अनमोल धरोहर है। लोकगीत अपने विषय-वैविध्य के अलंकरण से अभिमंडित है। इसलिए यहाँ लोरियाँ में झूलता तथा सोचता बचपन, प्रेम के संयोग रंग में आकंठ निमज्जित यौवन, विरह से उद्दीप्त अनुराग, वैराग्य बोध से उद्बोधित वार्धक्य-सभी कुछ तो लोकगीतों के भाव-जगत में समाया हुआ है। सामाजिक मान्यताओं तथा वर्जनाओं का वृहद कोष लोकगीतों की विशाल सृष्टि में पग-पग पर सृजित होता हुआ दिखाई पड़ता है। प्रौढ़ावस्था तक आते-आते मनुष्य संसार के यथार्थ अनुभावों का खजाना बन जाता है और इन्हीं खजानों में से लोकगीत रत्नों की भाँति चमकते हुए हमें मिलते हैं। सभ्यता के आदिमकाल से ही इन लोकगीतों ने मानव चेतना तथा आस्था के तारों को अलंकृत किया है। लोकगीत प्राचीन होते हुए भी अर्वाचित है। चिर नवीन और चिर यौवन सौन्दर्य ही लोकगीतों की सबसे बड़ी विशेषता है। लोकगीतों में शास्त्रीय नियमों के बन्धनों की सीमा नहीं होती। आकाश की उन्मुक्तता, पवन की स्वच्छन्दता, सागर की गम्भीरता, सरिताओं की कल-कल नाद भरी सुंदरता, झरनों की चंचलता लिए हुए लोकगीत, मनोरंजक, मनोमाहक तथा मनोआहृलादकारी होते हैं। लोकगीतों में वर्ग या वर्ण का वैषम्य, अमीरी-गरीब का भेद या सम्पन्न विपन्न का अंतर नहीं होता है। लोकगीत सार्वजनिक सार्वदेशिक, सार्वलौकिक तथा सार्वजनीन हैं। देश-काल और परिस्थितियों की विभेदक लक्ष्मण रेखा लोकगीतों के लिए नहीं बनी है। किसी भी राष्ट्र की संस्कृति को प्रदीप्त करने वाली सुरीली बानगी ही लोकगीत है। लोकगीत बौद्धिकला के शुष्क तथा बेजान कटीले झाड़-झंखाड़ नहीं है। यह हृदय-महासागर में अनंत भावनाओं के मंथन के उपरान्त रसमय नवगीत है। लोकगीत सामान्य लोकजीवन की पाश्र्वभूमि में अचिन्त्य रूप से अनायास की फूट पडऩे वाली लयात्मक अभिव्यक्ति है। लोकगीतों में संगीत और काव्य का समन्वय होता है। लोकगीत हमारे जीवन-विकास का इतिहास है। लोकजन द्वारा विशेष परिस्थिति , स्थल, कर्म, तथा संस्कार के समय हुई अनुभूतियों की लयपूर्ण सामूहिक अभिव्यक्ति है। लय और ताल इसके अनुचर  तथा नृत्य इसका सहचर है। लोकगीत मसिकागढ़ जीवी नहीं कण्ठजीवी है। इसमें अलंकारों का घटाटोप एवं छंदों की बाधाएं नहीं होती। ये सर की अनुपम सरिताएँ हैं जहाँ भाव-माधुर्य के विविध कमल खिलते हैं। ये मनोरंजन के साथ ही साथ मनोबोधन के साधन भी होते हैं।
लोकगीत श्रुतिपरम्परा की देन है। लोकसंगीत वह विशाल वटवृक्ष है जिसकी जड़े धरती में कितनी गहराई तक धँसी है, कहानहीं जा सकता है। लोकगीत आज भी ग्रामीण कंठो ें अपने मौलिक रूप से सुरक्षित हैं। आज इनका विस्तार गाँवों से बढ़कर नगर और महानगर तक हो गया है। लोकगीतों की सीढ़ी चढ़कर बड़े-बड़े संगीत प्रख्यात हुए हैं। यद्यपि ये ग्राम्यगीत हैं तथापि इनमें शास्त्रीयता का पुट भी विद्यमान रहता है। यह और बात है कि लोकसंगीत गायक एक लम्बे समय तक इस सत्य से अनभिज्ञ रहे हैं। बड़े-बड़े शास्त्रीय संगीत गायकों ने लोकधुनों की मौलिकता को संरक्षित रखते हुए उसमें यत्किंचित् परिष्कार कर दुनिया के सामने रखा। बड़े गुलाम अली खॉं, पं. रामप्रसाद मिश्र, उर्फ रामूजी(गया वाले), बेगम अख्तर, शोभा गुर्ट गिरिजा देवी, आश्रया पाण्डेय, उर्मिला श्रीवास्तव आदि के स्वरों में कजरी, चैता, होली आदि सुनकर लोकगीतों की मौलिक बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है। किन्तु ये प्राय: अशास्त्रीय ही होते हैं। वास्तव में शास्त्रीय नियमों की परवाह न करके सामान्य लोक-व्यवहार के उपयोग में लाने के लिए मानव अपने आनंद की तरंग में जो छन्दोबद्ध वाणी सहज उद्भूत करता है, वही लोकगीत है। ये गीत लोक में प्रचलित, लोक-सर्जित तथा लोक विषयक होते हैं। इसका तात्पर्य यह है लोक में प्रचलित जनगीत ही वस्तुत: लोकगीत होते हैं। लोक-मानस से तादात्म्य स्थापित करके एक व्यक्तित्वविहीन कवितर की सृष्टि करना यह सिद्ध करता है कि उसमें एक व्यक्तित्व के स्थान पर लोक-व्यक्तित्व की प्रतिच्छाया होती है। इसीलिए समस्त जनसमूह(लोक) उसे अपनी रचना मानने लगता है और वही गति लोक का गीत हो जाता है और परम्परा के प्रवाह से होकर घिस-पिट कर जिस रूप में हमें प्राप्त होता है, उसे लोक की सृष्टि कहा जा सकता है। इसीलिए लोकगीत लोक मानस की लयात्मक अभिव्यक्ति होते हैं। इसमें लोक की स्वेच्छा की स्वत: स्फूर्तिजन्य अभिव्यक्ति होती है इसमें लोक प्रतिबिम्बित होता है। अत: लोकगीत लोक के लिए एक स्वराकार की स्वराधृत अभिव्यक्ति है।
लोकगीत की उत्पत्ति के विषय में सभी विद्वान प्राय: एकमत हैं कि यह निरक्षर जनता की सम्पत्ति रही है जो श्रुति परम्परा पर आधारित है, जिसका रूप वर्णमाला के उद्भव से भी पहले का माना जाता है। इसे कलात्मक साहित्य का अंग न कहकर जनश्रुति की परम्परा ही समझना अधिक समीचीन है। इस प्रकार लोकगीत की परम्परा श्रुति परम्परा ही साथ ही साथ वैदिक युग से आज तक चली आ रही है। लोकगीत की उत्पत्ति के संबंध में संगीत और कल्पनाओं को आधार माना जाता है। सुखदु:खात्मक भावावेश की अवस्था के चित्रण का माध्यम अश्रुपात, दीर्घ नि:श्वास, फलक और मुस्कान आदि अनुभाविक आंगिक चेष्टाओं तक ही सीमित न रहकर हर्ष और वेदना का रूप धारण कर कण्ठ के द्वारा साकार हो उठती है, तभाी गीतों के स्वर फूट पड़ते हैं। ये गीत किसी कवि के नहीं, अपितु सामान्य जनमानस की अज्ञात सृष्टि है।
भारत के लोकगीत वैदिक मंत्रों के ही उत्तराधिकारी कहे जा सकते हैं क्योंकि इनमें लोकगीतों के शब्द और भाव विद्यमान हैं। प्राचीन काल में पुत्रजन्म, यज्ञोपवीत, विवाहादि उत्सवों तथा विभिन्न पर्वों पर सरस तथा सुमधुर स्वर में गाये जाने वाले गीतों का निर्देश वैदिक ग्रन्थों में मिलता है। लोकगीत को वेदमन्त्रों के कालक्रमों द्वारा प्रकल्पित अनुवाद के रूप में स्वीकार किया जाता है। इसके सन्दर्भ ऋग्वेद(९०,८५.६)मैत्रायणी संहिता (३.६.३),गृहृासूत्र (१०,७), शतपथ ब्राम्हण (१.३.५.४.१३) तथा ऐतरेय ब्राम्हण(८.४)में विद्यमान हैं।
इसके पश्चात् बाल्मिकि रामायण में रामजन्म के समय तथा श्रीमद्भागवत में कृष्ण के जन्म के अवसर पर स्त्रियों द्वारा सामूहिक रूप से गाये जाने वाले गीतों का वर्णन मिलता है। इसके अतिरिक्त संस्कृत साहित्य के अनेक कवियों ने लोकगीत गाये जाने का वर्णन अपने काव्य में किया है। इनमें पर्व तक सीमित न रहकर मेहनत-मजदूरी, जैसे-चक्की पीसना, धान कूटना, खेत निराना, थकान दूर करने के लिए गीतों द्वारा अपने चित्त प्रसन्न करने का प्रयास दिखाया गया है। संस्कृत की सुप्रसिद्ध कवियित्री विज्जका ने धान कूटते समय गीत गाती हुई एक स्त्री का सुन्दर चित्र खींचा है जिसमें मूसल के उठाने और गिराने के कारण उसकी चूडिय़ाँ, झनझना रही हैं और उर स्थल हिल रहा है। मीठी हुंकार की ध्वनि तथा चूडिंयों की झंकार से उसका गाना एक विशिष्ट प्रकार का मनोरम आनन्द पैदा कर रहा है। जिससे उसके गीत और काम को गति मील रही है-
विलास मसृणोल्लास-मुसललोलादो:कन्दली-
परस्पर पर्रिस्खदु्रलयनि: स्वतोद्धन्धुश:।
लसन्ति कलहुंकृति सभयकम्पि तोरस्थल
त्रुटदगमकसड्कुसा कलभकण्ठनी गीतय:।।
संस्कृत के नैषधीयचरित महाकाव्य(२,८५)में भी श्री हर्ष ने स्त्रियों द्वारा गाये जाने वाले गीतों की प्रकृति में भी लोकगीतों की परम्परा का वर्णन किया है। राजा शालिवाहन हाल द्वारा संग्रहित गााधा सप्तशती तथा पालि के जातकों की कथा में भी लोकगीतों का प्रचलन बड़े जोर-सोर से बताया गया है। रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास ने भी जानकी के विवाह के अवसर पर स्त्रियों द्वारा गीत गाये जाने का उल्लेख किया है-
चली संग लै सूखी सयानी।
गावहिं गीत मनोहर बानी।।
इस प्रकार लोकगीतों का सृजन तो प्राय: कुछ ही व्यक्तियों के द्वारा होता है किन्तु उसकी अनुभूति ही व्यापकता जन-सामान्य के हृदय से मेल खाती है। प्रणय-सम्बन्धी सहज वृत्ति की तरह लोकगीत-सृजन की सहज-वृत्ति भी जनमानस में समान रूप स्पन्दित होती है। सुख और दु:ख में आशा-निराशा में, आसक्ति-विरक्ति में, उत्साह और भय में जब कभी मनुष्य भावातिरेक से तन्मय और विहृल सा हो जाता है तभी मानस से वेगवती स्रोतधारा फूट निकलती है। बस उसी क्षण लोकगीत की उत्पत्ति होती है। शब्द-विन्यास की सादगी, मर्मस्पर्शी , प्राकृतिक और आदि मनोराग, सूक्ष्म किन्तु, प्रभावोत्पादक, चरित्र-चित्रण, देशकाल का स्थूल अंकन, साहित्यिक कृत्रिमताओं का न्यूनातिन्यून प्रयोग या सर्वथा बहिष्कार सच्चे लोकगीतों की नितान्त आवश्यक विशेषताएँ हैं। लोक-गीतों में अभिव्यक्ति की भंगिमाओं, भावों और विचारों की विलक्षणता मिलती है। इसमें क्षेत्र विशेष की सभ्यता, संस्कृति और परम्परा की सच्ची झाँकी प्राप्त होती है। इसमें भारतीय जीवन की अन्तरंग आत्मा प्रवाहित होती है। विभिन्न संस्कारों, ऋतुओं और त्यौहारों से सम्बन्धित गीत लोकानुरंजन करने में सफल होते हैं। लोकगीत का मूल जातीय संगीत में है। गा्रमगीत प्रकृति गीत हैं। इनमें अलंकार नहीं केवल रस है, छन्द नहीं केवल लय है, लालित्य नहीं केवल माधुर्य है। ग्रामीण मानव के स्त्री. पुरूषो ं के मध्य हृदय नाम आसन पर बैठकर प्रकृति गान करती है। प्रकृति के ये ही गान ग्राम गीत है।
लोकगीतों का वर्गीकरण करना एक कठिन कार्य है। वास्तव में लोकगीतों में रूपात्मक वैविध्य एवं विषय-वस्तुगत व्यापकता इतनी अधिक है कि इसका सर्वमान्य वर्गीकरण असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। विद्वानों ने इसका वर्गीकरण करते हुए संस्कार सम्बन्धी गीतों को प्रधानता ही है। इसके अतिरिक्त ऋतु, उत्सव, जाति, वीरगाथा तथा खेती सम्बन्धी गीतों का विभाजन मिलता है। डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय ने लोकगीतों को सात प्रकारों में विभाजित किया है जो 1. संस्कार सम्बन्धी गीत 2. ऋतु सम्बन्धी गीत 3. व्रत सम्बन्धी गीत 4. जाति सम्बन्धी गीत, 5. श्रम गीत 6. देवी-देवताअेों के गीत तथा विविध गीत है। यद्यपि व्रत सम्बन्धी गीत एवं देवी-देवताओं से सम्बन्धित गीतों को एक ही श्रेणी में रखा जा सकता है।
संस्कार सम्बन्धी गीत:- भारतीय समाज धर्म से ओतप्रोत है। इसीलिए भारतीय(हिन्दु)को जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त नाना प्रकार के संस्कार करने पड़ते हैं। धर्मशास्त्रों में सोलह संस्कारों का विधान है किन्तु वर्तमान समाज में पुत्रजन्म संस्कार, मुण्डन संस्कार, यज्ञोपवीत संस्कार, तथा विवाह संस्कार का विशेष प्रचलन है। इन संस्कारों के अवसर पर स्त्रियाँ मधुर स्वरों में संस्कार सम्बन्धी गीत गाती हैं। सामान्य रूप से हमारे समाज में पुत्रजन्म के समय प्रसन्नता व्यक्त की जाती है मिठाई बाँटी जाती है। इस अवसर पर गाँव की स्त्रियाँ एकत्र होकर सोहर गीत गाती हैं। सोहर गाने वाली स्त्रियों को सामथ्र्य के अनुसार मिठाई पान आदि खिलाने की प्रथा है। कहीं-कहीं सोहर को मंगल भी कहा जाता हैं-
गावहु ए सखि! गावहु गाइ के सुनावहु हो।
सब सखि मिलि जुलि गावहु आजु मंगल गीत हो
आधि राति गइले महरराति होरिला जनम ले ले हो।
बाजे लागत अनंद बधावा, महल उठे सोहर हो।
सोहर लगातार बारह दिन तक गाने की परम्परा है। पुत्र-जन्म के गीतों में आनन्द और उल्लास का विशद वर्णन होता है। सोहर में नव प्रसूता स्त्री के हृदय में गुदगुदी पैदा करने वाले गीतों की झाँकी मिलती है। सोहर का प्रमुख वण्र्य संभोग श्रृंगार का वर्णन है। इसमें स्त्री-पुरूष की कामक्रीड़ा, गर्भाधान गर्भिणी की देह-यीष्ट, प्रसव-पीड़ा, दोहद, धाय का बुलाना और पुत्रजन्म का वर्णन होता है।
जन्म के पश्चात पहली बार जब बच्चे का मुण्डन कराया जाता है तो उसे मुण्डन संस्कार कहते हैं। इसे संस्कृत में चूड़ाकर्म हैं। कुछ लोग देव-स्थान में जाकर इस संस्कार को सम्पन्न कराते हैं। यदि गाँव पर ही यह संस्कार सम्पन्न कराना होता है तो किसी नदि या सरोवर के किनारे बच्चे के जन्म के बाद पहले तीसरे पाँचवे या साँतवें वर्ष में यह संस्कार सम्पन्न कराया जाता है। इस अवसर पर स्त्रियाँ जो गीत गाती है, उसे मुण्डन संस्कार गीत कहते हैं-
समवा बइठल राजा दसरथ, कोसिला अरज करे हो।
राजा राम के कर जग मूडऩ एहो सुख देखबि हो।
अरहिलबन केरे खरहिल कठइबो वृन्दावन केरो बाँस हो।
से दो पहिले माड़व छवइयो गजमोती चऊक पुरइबो हो।
हिन्दु समाज में यज्ञोपवीत(जनेऊ)संस्कार बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। वैसे तो ब्राम्हण, क्षत्रिय और वैश्य में यह संस्कार प्रचलित है, परन्तु ब्राम्हण और क्षत्रियों में यह संस्कार विशेष रूप से सम्पन्न किया जाता है। प्राचीन परम्परा के अनुसार यज्ञोपवीत संस्कार के पश्चात बालक गुरू के पास विद्याध्ययन के लिए जाता है। अब यह परम्परा केवल नाटकीय ढंग से सम्पन्न की जाती है। यज्ञोपवीत संस्कार के जो गीत गाये जाते हैं उसमें विविध विधानों का वर्णन मिलता है। कहीं पर ब्रम्हचारी किसी स्त्री को माता कहकर भिक्षा माँगता है तो कहीं वह विद्याध्ययन हेतु काशी या कश्मीर जाने के लिए उद्यत होता है। यज्ञोपवीत सम्बन्धी लोकसाहित्य लोकगीतों से आपूरित है। यज्ञोपवीत के सभी गीतों में एक प्रकार की ही भावधारा सारे देश में प्रचलित है।
कासी में ठाढ़ बरूअवा, बरूअवा पुकारेला हो।
केइ हव कासी के मालिक, जनेऊवा दियावसु हो।
कोइरिनि हरदी उपराजेली, अमुक बाबा बेसहेले हो।
अमुक बरूआ के सिखा चढ़ावल, हरदी सोहावन हो।
यज्ञोपवीत संस्कार व्यय: साध्य होता है। इस अवसर पर लोगों को भोजन कराया जाता है तथा ब्राम्हणों को दान दिया जाता है। व्यय साध्य संस्कार होने के कारण आजकल लोग प्राय: देवस्थान में इस संस्कार को सम्पन्न कराते हैं।
सम्पूर्ण मानव-जाति में विवाह संस्कार अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि इस संस्कार के सम्पन्न होने पर जीवन साथी की प्राप्ति होती है। अतएव इस अवसर पर नाना प्रकार के आयोजन होते हैं। मनुष्य के जीवन में जितना विवाह संस्कार महत्वपूर्ण है उतना अन्य संस्कार नहीं। विवाह के गीत वर और कन्या दोनों के घर में गाये जाते हैं। वर के तिलकोत्सव से ही इन गीतों का गायन आरम्भ होता है। वर तथा कन्या दोनों के घरों में गाये जाने वाले इन गीतों पार्थक्य दिखाई पड़ता है। जहाँ वर पक्ष के गीतों में उल्लास और उत्साह की प्रचुर मात्रा दिखाई पड़ती है, वहीं कन्या पक्ष के गीतों में विषाट् की गहरी रेखा पायी जाती है। विवाह को धार्मिक संस्कार माना जाता है। कन्यादान एक पुतीत कर्म माना जाता है-
अन्नदान के दान ना कहीं, सोना दान जगदीस जी।
कन्यादान उतिम बड़ बाबा जाहु मन राखहु ज्ञानजी।
हिन्दुओं में विवाह के समय गोत्र, पिंड और पूज्य का विशेष ध्यान रखा जाता है। वहाँ स्वर्ण विवाह ही मान्य है। सगोत्र और सपिण्ड विवाह नहीं होता है। विवाह के लिए कन्यापक्ष से पिता, भाई, ब्राम्हण, नाई आदि वरक्षा के लिए जाते हैं। इसके बाद तिलकोत्सव होता है। तिलकोपरान्त सगुन के गीत गाये जाते हैं। विवाह संस्कार में नेवता, माटीकोड़ा, हरदी, लावा भुजाना, भतवानि, नहकू-नहावन, ईमली घोटावन, परिछन, माड़ो गाडऩा, कोहबर, द्वारपूजा, लावा, मेलन, भाँवरि, सिन्दूरदान, हवन तथा लाजाहोम आदि कृत्य सम्पन्न होते हैं। विवोहपरान्त कन्य की विदाई होती है। विवाह के सुअवसर पर शुभगीतों(सगुन)का गायन होता है-
आरे आरे सगुनी, सगुनबा भल आइल।
तोहरे सगुनवा ए सगुनी, होरबेला बिआह।
आरे और कोइरिया हरदिया लेइरे आउ।
तोहरे हरदिया ए कोइदिनि होरबेला बिआह।
चुटुकी सेनुरवा महँग भइले बाबा, चुनरी भइल अनमोल।
चुटकी भरो सेनुरवा के कारन, बाबा छुटेला नगरिया तोहार।
भारत की प्रत्येक भाषा और बोली में इस संस्कार से संबंधित सभी रीति रिवाजों और परम्पराओं के गीत विद्यमान हैं। ये लोकगीत अवसरानुकुल कानों में रस घोलने की शक्ति रखते हैं।
ऋतु सम्बन्धी गीत:- भारत संस्कार का एक ऐसा अद्भुत भू-भाग है, जहाँ विभिन्न ऋतुएँ, अपने सम्मोहक रूप से भारतवासियों के मन को आन्दोलित करती हैं और अपने हृदय के उद्गार को वह संगीतमयवाणी देकर सहज भाव से लोकभाषा में अभिव्यक्त करता है। भारत में छह ऋतुएँ होती हैं तथा गर्मी, वर्षा, जाड़ा तीन मौसम होते हैं। प्रत्येक ऋतु और मौसम में अलग-अलग प्रकार के गीतों का प्रचलन है।
उत्तरी भारत में कजली, तीज, चैता, होली, फाग के गीत विशेष रूप से प्रचलित हैं। इन ऋतुगीतों के साथ बारह मासा के गीत गाये जाते हैं। सावन के मनभावन महीने में उत्तर प्रदेश में कजली गाने की विशेष प्रथा है। इस मास में प्रकृति सर्वत्र हरी-भरी दिखाई देती है। भक्तप्रवर सूरदास जी ने अपनी बंद  आँखों के माध्यम से प्राकृतिक छटा का मनोहारी चित्र प्रस्तुत किया है-
जहँ देखौ तहँ स्यायममयी है।
स्याम कुंज वन यमुना स्यामा, स्याम स्याम घनछटा छाई है।
वर्षा ऋतु में जब गगन-मंडल काले-काले मेघों से आच्छादित दृष्टिगोचर होता है, तब इसी प्राकृतिक परिवेश के निर्बन्ध वातावरण में कजली का गायन होता है। तब ऐसा प्रतीत होता है कि श्यामवर्ण के इन्ही मेघों के काल में गाये-जाने के कारण इन गीतों का नाम 'कजलीÓपड़ा। सावन तथा भादों की शुक्ल पक्ष की तीज-जिस दिन कजली के गीत विशेष रूप से गाये जाते हैं इनका नाम ही कजली तीज है। ये गीत श्रृंगार रस से ओत-प्रोत होते हैं। यद्यपि इन गीतों में श्रृंगार के दोनो पक्षों की झाँकी देखने को मिलती है किन्तु संयोग श्रृगार की ही प्रधानता अधिक है। वर्षा की फुहार के साथ कजली की गुहार हो ही जाती है। कजली की धुन की गुनगुनाहट सब के कंठ में घूमने लगती है। डाल पर लगे झूले के बिना कजली का गायन सूना लगता है। हृदय के उठे उमंग को प्राकृतिक रूप से हम कजली के माध्यम से ही व्यक्त कर सकते हैं। हरे रामा की टेक तो मील का पत्थर बन गयी है, जिससे ध्वनि स्वयं नर्तन करने लगती है।
गड़बड़ मिरजापुर की कजरिया चहुँ दिशि छाई बदरिया ना।
उत्तर में गंगाजी की लहरइ ताल तरंग चहूँ दिरिश छहरइ।
चमकइ रहि रहि के बीजुरिया, चहुँ दिशि छाई बदरिया ना।
यों तो उत्तरप्रदेश में सर्वत्र कजली गायी जाती है किन्तु मिर्जापुर की कजली विश्वप्रसिद्ध है। कजली का प्रमुख प्रतिमाद्य प्रेम है। ये गीत श्रृंगार रस से ओतप्रोत होते हैं।
फाल्गुन मास में होली के अवसर पर गीत विशेष गाये जाते हैं जिसे होली या फगुआ कहते हैं। ये फागगीत के नाम से प्रसिद्ध हैं। होली हिन्दुओं का प्रमुख त्यौहार है। इस त्यौहार को मनाने के पीछे होलिका की पौराणिक कथा है। जिस आदर्श और निष्ठा को बनाये रखने के लिए यह त्यौहार मनाया जाता है, वह आदर्श और उद्देश्य जब इस त्यौहार में नहीं है। परन्तु इतना सत्य है कि बसन्त पंचमी के आगमन के साथ ही होली का रंग लोगों पर चढऩे लगता है। राम-कृष्ण उत्तरी भारत के अवतारी पुरूष हैं, इसलिए वे यहाँ की संस्कृति में समाये हुए हैं। इसलिए लोक कंठ झूमकर गाता है-
होरी खेलैं रघुबीरा अवध में होली खेलैं रघुबीरा।
केकेर हाथ कनक पिचकारी केकरे हाथ अबीरा।
राम के हाथ कनक पिचकारी सीता के हाथ अबीरा।
होरी खेलैं रघुबीरा अवध में।
ब्रजमंडल की होली विश्वप्रसिद्ध है। इस त्यौहार में आनन्द और मस्ती का सवरूप दिखाई देता है। होली गीत में कही राधा और कृष्ण होली खेलते दिखाई पड़ते हैं तो कही शिव भी होली खेलते हैं।
ब्रज में हरि होरी मचाई।
इतते आवत नवल राधिका उतते कुँवर कन्हाई।
हिल मिल फाग परस्पर खेलत शोभा बरनि न जाई।
होली गीत परम्परागत तो हैं ही, इनमें राष्ट्रीय चेतना के स्वर भी मिलते हैं। १८५७ के प्रथम स्वाधीनता संग्राम सेनानी वीर कुँवर सिंह की वीरता का वर्णन भी होलीगीत में मिलता है।
भोजपुर अइसे होली मचाई।
गोली बारूद के रंग बनाये, तोपन के पिचकारी।
बीच भोजपुर में फाग मचल बा,
खेलैं कुँवर सिंह भाई।
होली के गीतों की गति, उनकी भाषा का बन्ध और स्वरों का संधान अत्यन्त मधुर होता है। प्रेम की रंगीन फुलझडिय़ाँ और वैभववती वन-वीथियों के नैसर्गिक चित्रण होली की संगीत महफिलों में ताने-बाने का काम करते हैं। होली के गीत चैत्र माह तक गाये जाते हैं। चैत के महीने में गाये जाने के कारण इस गीत को चैता कहा जाता है। लोकगीतों के विभिन्न प्रकारों में मधुरता, सरलता और कोमलता के कारण चैता अपनी सानी नहीं रखता। चैता भलकुटिया और साधारण दो प्रकार का होता है। दोनों हाथों में झाल नामक वाद्य के साथ समूह में गाया जाने वाला चैता झलकुटिया कहा जाता हैं। साधारण चैता वह है जिसे कोई व्यक्ति विशेष गाता हैं। जब चैता सामूहिक रूप से गाया जाता है तब गवैये दो दलों में विभक्त हो जाते हैं। पहला दल प्रथम पंक्ति कहता है तेा दूसरा दल उसके टेक पद को उच्च स्वर में गाता है। इसी प्रकार गीत का क्रम चलता रहता है। चैता प्रेम के गीत होते हैं। इसमें संयोग, श्रृंगार की कथा रागों में निबद्ध होती है। इनमें कहीं आलसी पति को सूर्याेदय के बाद तक सोने से जागने का वर्णन है, तो कहीं पति और पत्नी की प्रणय-कलह की झाँकी दृष्टिगोचर होती है। कही ननंद और भावज के पनघट पर पानी भरते समय किसी चरित्रहीन पुरूष द्वारा छेडख़ानी का उल्लेख है, तो कहीं सिर पर मटकी रखकर दही बेचने वाली ग्वालिनों से कृष्ण के द्वारा गोरस माँगने का वर्णन है। मैथिली में चैता को चैतावर कहते हैं। इसमें बसन्त की मस्ती और रंगीन भावनओं का अनुपम सौन्दर्य अंकित किया गया है। प्रिय वियोगिनी नायिका अपने प्रियतम का समाचार कौए से पूछती हुई कहती है-
ननदी के अँगना चननवा के गछिया हो रामा।
ताही तर कगवा बोलेला सुवहन हो रामा।
तोके देबो कगवा  दूध भात खोरवा हो रामा।
तनि एक सँइया के कुसल बतलावा हो रामा।
आलसी पति सूर्याेदय के पश्चात भी सोया हुआ है। उसे जगाने का अथक प्रयास उसकी पत्नी करती है तथा ननद से उसे जगाने के लिए कहती है-
रामा सांझहि के सुतल फूटली किरनिआ,
तंबो नहिं जागैले हमारे बहभुआ हो रामा।
रामा गोड़ तोरा लागी लें लहुरी ननदियाँ हो रामा,
तनि एक आपन भइया के जगइबो हो रामा
पावस ऋतु में जो गीत गाये जाते हैं उन्हें 'बारहमासाÓकहते हैं। इन गीतों में विरहिणी की वेदना की अभिव्यक्ति की जाती है। जीविकोपार्जन के लिए पति परदेश गया है, बहुत दिन हो गये किन्तु लौटकर नहीं आया है। वर्षाऋतु में उसका छप्पर चू रहा है, किन्तु उसको छाने वाला कोई नहीं है। ऐसी स्थिति में विरहिणी वेदना की पराकाष्ठा पर पहुँच जाती है और उसकी मनोव्यथा बारहमासे के रूप में प्रकट होती है। इन गीतों में पति के वियोग के कारण बारह महीनों में जो-जो कष्ट उठाने पड़ते हैं, उसका बड़ा ही माॢमकवर्णन होता है। इसीलिए इन विरह गीतों को बारहमासा कहते हैं।
हिन्दी साहित्य में बारहमासा लिखने की परम्परा प्राचीन है। सुप्रसिद्ध सूफी कवि जायसी ने पद्मावत में नागमती का वियोग वर्णन बारहमासा के अन्तर्गत किया है। अपभ्रंश कवि अब्र्दुरहमान ने संदेशरासक नायिका की विरहजन्य दशा का वर्णन इसी शैली में किया है। बारहमासा पावसऋतु का मधुर गीत है। इस लोकगीत में वियोगावस्था की करूण तथा विरहदशा की मार्मिक अभिव्यंजना मिलती है। बारहमासा आषाढ़ महीने से आरम्भ होकर ज्येष्ठाषाढ़ पर समाप्त होता है। इसमें विरहिणी की विरह व्यथा का मार्मिक चित्रण होता है-
सवनवा मोरा लेखे बैरी भइल।
भादौं भवन सोहावन न लोगे आसिन मोहि ना सुहाई।
कातिक कंत बिदेस गइल हो, समुझि समुझि पछिताई।
अगहन आइल ना, कहि गइल उधौ, पूस बितल भरि मास।
माघ मास जोवन के मातल, कइसे धरब जिऊ आस।
फागुन फरकेला नैन हमार, चैत मास सुनि पाई।
पियना ने अइहन एहि बैसाखे, फुलवन सेजिया सजाई।
जेठ मास में आकुल जैसे राधे, नाहिं बाड़े साम हमार।
सवनवा मोरा लेखे बैरी भइल असाढ़।
इस प्रकार बारहमासा लोकजन की विरहजन्य मनोवेदनाओं की अभिव्यक्ति है। इसमें वियोगिनी अपनी विरह व्यथा कहकर कुछ शान्ति का अनुभव करती है।
श्रमगीत:- श्रमगीत वे गाते हैं जो किसी काम को करते समय गाये जाते हैं। प्राय: देखा जाता है कि मजदूर लोग अपनी शारीरिक थकावट को दूर करने के लिए काम करते समय गाना भी गाते जाते हैं। इससे काम करने में मन लगा रहता है और परिश्रम का पता नहीं चलता। इस प्रकार के गीतों में जँतसार, रोपनी, सोहनी आदि के गीत प्रमुख हैं।
चक्की पीसते समय जो गीत गाये जाते हैं उन्हें जँतसार या जाँत के गीत कहा जाता है। धान की रोपाई का कार्य बहुधा स्त्रियाँ करती हैं। अत: बैठकर अथवा खड़े होकर यह कार्य करना कठिन है। यह कार्य झुककर किया जाता है। खेत की बोआई-रोपाई हो जाने के बाद अनावश्यक खर-पतवार खेत में उग जाते हैं। ऐसे अनावश्यक पौधों और घास को निकालने की क्रिया को सोनही या निराई कहते हैं। रोपनी करते समय जिस प्रकार स्त्रियाँ गीत गाकर अपनी थकान को दूर करती हैं, उसी प्रकार सोहनी करते समय भी गीत गाती हैं। खेतों में जब फसल पक जाती हैं तब किसान उसे काटने में जुट जाते हैं। कटाई का यह कार्य भी बहुत श्रमसाध्य होता है। दिन में भयंकर गर्मी और हवा के कारण यह कार्य भोर में ही आरम्भ कर दिया जाता है। खेत काटते समय जो गीत गाये जाते हैं उन्हें ''कटनीÓÓ  या ''कटियाÓÓ  के गीत कहते हैं।
जाँते पर आटा पीसते समय जँतसार गीत का पहले बड़ा प्रचलन था। जाँते का प्रचलन अब धीरे-धीरे समाप्त हो चला है। पहले घर में जाँता रहता था तथा भोर में उठकर स्त्रियाँ आटा पीसतीं थीं। जँतसार गीत में बन्ध्या स्त्री की वेदना तथा विधवा का करुण क्रन्दन मिलता है। पारिवारिक जीवन की करुण कथा भी इस गीत में मिलती है-
सेर भरि गेहुआँ रे सासु जोखि दिहली हो रामा,
अरे जतवाँ गड़वली गज ओबरि हो रामा,
जतवाँ धइले साँवरि भुराते हो रामा,
बाट बटोहिया तुहू मोरे, भइया हो रामा,
पिया से कहिहि सनेस धाइ के हो रामा।
जँतसार, रोपनी, सोनी के श्रमगीतों के अतिरिक्त अन्य श्रमगीत भी मिलते हैं जिन्हें गाकर लोग अपनी थकान मिटाते हैं। कोल्हू चलाते समय, पैदल चलते समय, धोबी कपड़े धाते समय, चरवाहे गाय चराते समय विभिन्न प्रकार के गीत गाकर अपने श्रम का परिहरण करते हैं।
त्यौहार एवं व्रत संबंधी गीत- हमारा देश एक धर्मप्रिय देश है। यहाँ के लोग विभिन्न धर्मों के अनुयायी हैं। हिन्दू धर्म में अनेक शाखाएँ एवं उपशाखाएँ विद्यमान हैं। यहाँ के नर-नारी विभिन्न देवी-देवताओं की उपासना करते हैं। यहाँ कोई न कोई्रवत या त्यौहार हर मास होता रहता है। इन अवसरों पर स्त्रियां विविध प्रकार के गीत गाती हैं। तीज, नागपंचमी, जन्माष्टमी, पिंडिया , गोधना, बहुरा, निउतिया, छठ आदि व्रतों के अवसर पर जो गीत गाये जाते हैं उन्हें व्रत तथा त्यौहार संबंधी गीत कहते हैं।
तीज विवाहित स्त्रियों का व्रत है जो भादो शुक्ल तृतीया को मनाया जाता है। सौभाग्यवती बनी रहने के उद्देश्य एवं सभी पापकर्मों के क्षय के लिए यह व्रत रखा जाता है। स्नानोपरांत स्त्रियाँ गौरी की उपासना करती हैं। जो स्त्रियाँ अपने मायके में रहती हैं उनके लिए ससुराल से पीली साड़ी, सिन्दूर, चूड़ी, मिठाई आदि भेजी जाती है। पति के मंगल कामना हेतु यह व्रत स्त्रियाँ रखती हैं। भोजपुरी और अवधी में समान उमंग और गौरव के साथ यह पर्व मनाया जाता है। हरितालिका तीज का व्रत विशेष रुप से शिवजी का व्रत है। इस व्रत के साथ शिव और पार्वती के विवाह संबंधित कथा प्रचलित है।
गौरी बियाहन आये भोला अब गौरी बियाहन आये।
आजन बाजन एकौ न देखौ डमरु बजाइ चले आये।
नलकी पलकी एकौ न देखौ बसहा बरद चढि़ आये।
गहना गुरिया एकौ न देखौ रुद्रमाला पहिन के आये।
मौर आ कलँगा एकौ न देखौ जटा जूट धरि आये।
''बहुराÓÓ  व्रत पुत्र की मंगल कामना के लिए किया जाता है। यह व्रत भाद्र पद कृष्ण चतुर्थी को किया जाता है। इसे ''बहुलाÓÓ  भी कहते हैं। इस व्रत की कथा की नायिका बहुला है। इसके नामकरण का यही कारण है। इस व्रत में स्त्रियाँ दिन भर व्रत करती हैं और संध्या समय स्नान करके गाय, बछड़ा और सिंह की प्रतिमा बनाकर पूजती हैं। इस अवसर पर गीत गाने का प्रचलन है। भोजपुरी क्षेत्र में बहुरा के जो गीत गाये जाते हैं वे श्रृंगार से आपूरित रहते हैं। बहुरा के गीतों में कथावस्तु के आधार पर माता का पुत्र के प्रति अकृत्रिम स्नेह तथा सत्य प्रतिज्ञा का जो स्वाभाविक उल्लेख होना चाहिए, वह उन गीतों में नहीं है। इस अवसर के गीतों में सास-बहू का विरोध, पति-पत्नी का प्रेम, किसी पुरुष का स्त्री के प्रति आकर्षण आदि का वर्णन अधिक पाया जाता है। निम्नलिखित गीत में रेशमी नामक स्त्री को बाजार में देखकर किसी राजा के आकर्षित हो जाने का वर्णन प्रस्तुत है-
पहिर ओहिर रेसमी चलती बजरिया
परि गइले रजवा की दीठि गोरिया रेसमी
किया गोरी रेसमी रे माँचवा के ढारल
किया तोरा गहेला सुनार, गोरिया, रेसमी
नाहीं मोरा रजवारे माँचवा के ढारल,
नाहीं हमरा के गहेला सोनार गोरिया रेसमी
जनम देता राम माई रे बायवा
सुरति उरेहे भगवान गोरिया रेसमी।
रेसमी श्रंृगार करके बाजार गयी है तो राजा उसके रंग रुप पर आकर्षित हो गया है। वह जानना चाहता है कि उसके स्वरुप को क्या किसी सुनार ने ढालकर गढ़ा है? इस पर वह स्त्री बड़े ही सरल स्वभाव से कहती है कि वह किसी साँचे में ढली हुई नहीं है और न ही उसे किसी सुनार ने ही तराशा है। उसे जन्म देने वाले उसके माता-पिता ही हैं और मेरी सूरत ईश्वर द्वारा ही निर्मित है। इस गीत में स्त्री की सरलता और उसका भोपालन अत्यंत मधुर है।
गोधन का व्रत कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को किया जाता है। ''गोधनÓÓ  शब्द गोवर्धन का अपभ्रंश है। प्राचीनकाल से ही गोवर्धन पूजा का उल्लेख मिलता है। सर्वप्रथम श्रीकृष्ण ने इन्द्र पूजा के विरोध में गोवर्धन पूजा का महत्व प्रतिपादित किया था। गोधन पूजा उसी गोवर्धन पूजा के प्रतीक के रुप में मनाया जाता है। इस व्रत में गोबर की बनी हुई मनुष्य की प्रतिमा इन्द्र की प्रतिकृति होती है। गोधन कूटने की यह प्रथा इन्द्र के मद को चूर्ण करने का प्रतीक स्वरुप है। इस व्रत का प्रमुख उद्ेश्य भाई-बहन में प्रेम-भावना की वृद्धि है।
गोधन बाबा अइले या हुनरे का ले बइठे के देऊँ।
चनन काठ के पिढइया रे उहै बैठे के देऊँ।।
इसी प्रकार गोधन पूजा के बाद पिंडिया का व्रत किया जाता है। यह व्रत कार्तिक शुक्ल पक्ष द्वितीया से प्रारंभ होकर अगहन शुक्ल पक्ष प्रतिपदा तक एक माह तक चलता है। इसमें गाँव की लड़किया किसी एक  स्थान पर गोबर की पिंडिया लगाती है। इस उत्सव को भाई के कल्याण के लिए किया जाता है।
लडुवा चिउवा से हम पूजबि पिडिअवा हो
तोहरि बधइया भइया पिडिया बरतिया हो।
पुत्रवती स्त्रियाँ अपने पुत्र के संकट निवारण के लिए जिउतिया का व्रत करती हैं। यह व्रत आश्विन कृष्ण अष्टमी के दिन होता है। इस व्रत की पूर्व संध्या पर स्त्रियाँ सरपुतिया की सब्जी खाती हैं। दिन भर व्रत के बाद स्नान करके नए कपड़े पहनती हैं तथा निर्दिष्ट जलाशय के किनारे गोठ में जाती हैं। नए धागे से गुंथी हुई चाँदी-सोनी की जिउतिया, लड्डू, नया वस्त्र, फल फूल आदि थाली में सजाकर गोठ में रखा जाता है। घी का दीपक जलाया जाता है। इसके बाद सभी स्त्रियाँ गीत गाती हुई अपने घर जाती हैं। अगले दिन नवमीं को अन्न जल ग्रहण के साथ पारणा होती है।
डाला छठ व्रत का प्रचलन मगध, मिथिला और भोजपुर में सर्वाधिक है। वैसे इसे बिहार प्रदेश का राष्ट्रीय व्रत माना जाता है। धीरे-धीरे इसका प्रचलन पूर्वी उत्तरप्रदेश में भी हो गया है। बिहार के जो लोग अन्य प्रांतों में रहते हंै वे लोग इस त्यौहार को वहीं मनाते हैं। यह पर्व कार्तिक शुक्ल षष्ठी को मनाया जाता है। इस  व्रत को ''छठ पूजाÓÓ  भी कहते हैं। यह व्रत जिउतिया के समान ही अत्यंत कठिन है। इस व्रत का प्रधान उद्देश्य पुत्र की प्राप्ति और उसका दीर्घायु होना है। वास्तव में छठ का व्रत भगवान सूर्य का व्रत है क्योंकि इन्हीं की पूजा के बाद स्त्रियाँ अन्न ग्रहण करती हैं। इस व्रत में सभी सामग्री एक डाला (टोकरी) में रखी जाती है, इसी से इसे ''डाला छठÓÓ  कहते हैं। इसमें दो दिन का निर्जला उपवस करना पड़ता है। पंचमी के दिन एक बार बिना नमक का भोजन कर व्रत प्रारंभ किया जाता है। षष्ठी को संध्या के समय सूर्य को अघ्र्य दिया जाता है। सप्तमी को उगते सूर्य को अघ्र्य देकर इसका समापन किया जाता है। सप्तमी को सूर्योदय के पूर्व अर्धरात्रि में ही स्त्रियाँ गीत गाती हुई नदी या पोखर के किनारे एकत्रित होती हैं। व्रती स्त्रियाँ एवं पुरुष कमर तक जल में खड़े होकर दो दिन के उपवास से शिथिल शरीर के साथ तीन-चार घंटे हाथ जोड़कर सूर्योदय की प्रतीक्षा करते हैं। सूर्योदय होने पर अघ्र्य के पश्चात व्रत समाप्त हो जाता है।
खोइका अछलावा गेडुववा जुड़ हो पानी,
चलली उरा देई आदित मनाव।
थोरा नाहि सेबो ए आदित, बहुतन मागि ले,
पाँच पुतवा एआपित हमरा के दीन्हि।
जाति सम्बन्धी (कौमी) गीत- लोकगीतों में कुछ ऐसे भी गीत हैं जो किसी जाति विशेष से जुड़ हुए हैं। इन्हें जातीय अथवा कौमी गीत कहा जाता है। ऐसे लोकगीतों का संबंध अधिकतर पिछड़ी एवं अनुसूचित जातियों से है। एक समय था जब ये जातियाँ जातीय लोकगीतों को गा-बजाकर विवाह आदि के समय अपना काम चला लेती थीं किन्तु नगरीय प्रभाव के कारण अब इनमें परिवर्तन हो गया है। अब ये लोकगीत किसी जाति विशेष के नहीं रह गए हैं। धनोपार्जन की लोलुपता से इन गीतों ने अन्य जाति के लोगों को भी आकर्षित किया है। फलस्वरुप रेडियो एवं कलाकार के रुप में सभी लोग इस होड़ में जुट गये हैं। फिर भी ये कौमी गीत आज भी अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं।
''बिरहा  अहीर जाति का प्रसिद्ध गीत है। शादी-विवाह के अवसर पर, रास्ता चलते समय, गाड़ी हाँकते समय, पशुओं को चराते समय, लोगों को बिरहा गाते हुए सुना जा सकता है। बिरहा की लोकप्रियता विदेशों में भी है। जो लोग भारत से जाकर विदेशों में बस गए हैं उनके साथ यहां के लोकगीत किसी न किसी रुप में जीवित हैं।
''बिरहा  की उत्पत्ति विरह शब्द से हुई है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारंभ में इन गीतों का वण्र्य-विषय विरह रहा होगा, किन्तु आजकल इन गीतों का प्रतिपाद्य विषय कोई भी वस्तु हो सकती है। डॉ. ग्रियर्सन के अनुसार यद्यपि इन गीतों का कोई साहित्यिक महत्व नहीं है तथापि जनता के मनोभावों और आकांक्षाओं के प्रतीक होने के कारण इनका सामाजिक महत्व अधिक है। बिरहा एक छोटा गीत है, परन्तु अपनी सुगठित पदावली और चुभती शैली के कारण सहृदय-हृदय को प्रभावित किए बिना नहीं रहता।
बिरहा के कई रुप हमें मिलते हैं। कुछ आकार में छोटै होते हैं तो कुछ बड़े होते हैं। छोटे बिरहा चार कडिय़ों के होते हैं जिन्हें ''चरकडिय़ाÓÓ कहते हैं ये बिरहा सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। लम्बे बिरहा गाथा के रुप में होते हैं, जिनमें रामायण तथा महाभारत की कथाएँ होती हैं अथवा ऐतिहासिक सामाजिक समस्याओं और घटनाओं का कोई महत्वपूर्ण विवरण रहता है। 
साभार - रउताही 2015

लोकगीतों में रस-व्यंजना

लोकगीतों में रस-परिपाक की दृष्टि से विचार करने पर यह ज्ञात होता है कि उसमें रस का अद्वितीय सागर हिलोंरे लेता हुआ परिलक्षित होता है। जन समुदाय के ये गीत रस से सने हुए हैं। इन गीतों की रसात्मकता के समक्ष बड़े-बड़े कवियों की सूक्तियां नीरस जान पड़ती हैं। ये लोकगीत रस से लबालब भरे हुए प्याले की भाँति होते हैं जिनके पीने से प्यास बूझने के बजाय और अधिक बढ़ती जाती है। रस की यह प्रक्रिया हिन्दी के लोकगीतों तक ही सीमित नहीं  है, अपितु बंगला एवं सभी प्रदेशों के लोकगीतों में यही रस का प्रवाह परिलक्षित होता है। लोकगीतों की अजस्र पयस्वनी जिस देश में प्रवाहित होती है, वह अपने तट पर स्थित वृक्षों को ही जीवन प्रदान नहीं करती, अपितु उसका शीतल प्रवाह सभी जनों को समान रुप से आनंद प्रदान करता है। अपनी इसी रसात्मकता के कारण ही लोक जीवन से संबंधित ये गीत मानव हृदय को इतना उत्प्रेरित करते हैं कि शुष्क हृदय भी इनको एक बार सुनकर द्रवित हुए बिना नहीं रहता है।
लोकगीतों में नारी जीवन का चित्र विशेष रुप से देखने को मिलता है। एक अबला जीवन की करुण कहानी सोहर, बारहमासा, कजली, झूमर में परिलक्षित होती है। इसी संदर्भ में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की पंक्तियां हमारे मानस-सागर में हिलोरें लेने लगती है।
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी
आंचल में है दूध और आँखों में पानी।।
पुत्र या पुत्री के जन्मोत्सव से लेकर गौना के गीतों तक स्त्री जीवन की किसी न किसी दशा का वर्णन इनमें उपलब्ध होता ही है, यों तो लोकगीतों में समस्त रसों का परिपाक दृष्टिगत होता है। वैवाहिक प्रसंगों के अंतर्गत हास्यरस का भी सम्मिश्रण रहता है। आल्हा-उदल से संबंधित लोकगीतों में वीर रस की प्रचुरता विद्यमान रहती है। सोरठी की कथा में अद्भुत रस निहित रहता है।
इस परिपाक की दृष्टि से लोकगीतों में सर्वाधिक श्रृंगार रस से संबंधित इतिवृत्त वर्णित किये जाते हैं। पे्रमी-प्रेमिका के मिलन एवं विछोह दोनों ही स्थितियों का चित्रण श्रृंगार का वण्र्य-विषय होता है। रसिक समाज  को यह भलीभाँति ज्ञात है कि श्रृंगार रस के दो भेद होते हैं। प्रथम संयोग श्रृंगार है तो दूसरा वियोग श्रृंगार। फलत: इसी के अनुरुप लोकगीतों में भी हमें श्रृंगार के दोनों पक्ष देखने को मिलते हैं। रीतिकालीन कवियों और लोकगीतकारों के गीतों में प्रयुक्त श्रृंगार रस में पर्याप्त अंतर पाया जाता है। लोकगीतों में जो श्रृंगार रस पाया जाता है, वह नितांत पवित्र संयमित शुद्ध एवं दिव्यता की पराकाष्ठा है, जबकि रीतिकालीन कवियों के काव्य में श्रृंगार रस को भद्दा, अश्लील एवं कुरुचिपूर्ण प्रदर्शन किया गया है। इसका मुख्यत: कारण यही है कि रीतिकाल के कवि लोग राज्याश्रित कवि होते थे। अत: उन्हें अपने आश्रयदाता को प्रसन्न करने के लिए श्रृंगारिक कविताओं की रचना करनी पड़ती थी। इसलिए उनमें श्रृंगारिकता का होना आवश्यक था जबकि लोकगीत स्वान्त: सुखाय ही लिखे जाते हैं।
लोकगीतों में श्रृंगार रस का स्वरुप हमें  ''सोहरÓÓ अथवा विवाह के गीतों में देखने को मिलता है। जिस प्रकार से महाकवि कालिदास ने रघुवंशम में गर्भवती सुदक्षिणा का वर्णन किया है, ठीक उसी प्रकार का वर्णन हमें लोकगीतों में भी देखने को मिलता है। गर्भवती स्त्री की देहयष्टि, दोहद तथा प्रसव के कष्टों का उल्लेख स्थान स्थान पर देखने को मिलता है। अधोलिखित गीत में एक गर्भवती स्त्री का सजीव चित्रण बहुत ही सुंदर ढंग से किया गया है-
सुपली खेलत तुहु ननदी, मोर पियारी ननदी रे।
ए ननदी आयन भइया देई बोलाई,
हम दरद बेआकुल रे
जुववा खेलत तुहु, भइया, अबस वीरन भइया हो
ए भइया प्रानप्यारी भउजी हमार
दरद से व्याकुल हो।
डांड मोर नथेला गाहा गहि, कहार मोर टनकेला हो।
ए प्रभु पिरिथवी मोरे सुझेली अलोपित
अंगुरी में दम बसे हो।
पुत्रोत्पत्ति के अवसर पर आनन्द और उत्साह का उल्लेख प्राय: सभी गीतों में परिलक्षित होता है। इसी अवसर पर सास रुपया लुटाती है ननद ब्राह्मणों को मुहर दान में देती है। अन्य स्त्रियाँ बन्धु-बान्धवों को अन्य वस्तुएं लुटा देती हैं। इन सभी स्वरुपों से युक्त गीत की पंक्तियाँ दर्शनीय है-
सासु जे आवेली गवइत, ननदी बजवइत रे
ललना गोतिनि आवेली विसाधल
गोतिन के घर सोहर रे
सासु लुटावेलि रुपैया
त ननदी मोहरवा रे
ललना गोतिनि लुटावे ली बनउरवा
गोतिनियां फेरिहे पाँइच रे
वैवाहिक गीतों में श्रृंगार रस का आनन्द अत्यधिक मात्रा में मिलता है। विवाह के बाद जब वर को ''कोहबरÓÓ में ले जाते हैं तब उस समय के गीत अधिक श्रृंगारिक हो जाते हैं। लेकिन श्रृंगारिक होने के बावजूद भी उनमें अश्लीलता एवं भद्दापन रंचमात्र भी नहीं झलकने पाता है-
झोप झोपरी रे फरेला सोपारी,
तर नरियरवा के बारी
कंचन सेज डसावेली कवन देई
केहूँ न आवेला केहू जाई।
धावत धूपत अइले कबन राम
मोहर दे गइले साई
आधी राति जानि अहइ मोरे राजा हो,
हम रउरा करब लेटाई।
निचवा रजाई रे उपरा बोलाई
ताहि बीचे हो खेला लटाई
अहो लाल ताहि बीचे खेला हो लटाई।
यद्यपि यह वर्णन संयोग श्रृंगार से संबंधित है, तथापि इसमें अश्लीलता कहीं नहीं है। यह अत्यंत शिष्ट और संयमित है।
करुणरस की अभिव्यक्ति परिस्थितिजन्य होती है। यह रस विशेष परिस्थिति में निष्पन्न होता है। जब कोई व्यक्ति भावावेश से पूर्ण होता है तो वही किसी व्यक्ति के पूछने पर फफक कर रोने लगता है। इसी सन्दर्भ में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने ''साकेतÓÓ के नवम सर्ग में कहा है कि
करुणे क्यों रोती है तू
उत्तर में तू और अधिक है रोई।
जब कभी किसी प्रिय जन का अभाव किसी को अखरने लगता है तब उसकी भावनाओं में कारुण्य परिलक्षित होने लगता है। लोकगीतों में भी करुणरस का उदे्रक सघन मात्रा में उपलब्ध होता है। करुणरस की अभिव्यक्ति लोकगीतों में तीन अवसरों  होता है। करुणरस की अभिव्यक्ति लोकगीतों में तीन अवसरों पर विशेष रुप से देखने को मिलती है-
1. विदाई
2. वियोग
और 3. वैधव्य
उपर्युक्त तीनों अवसरों पर सुखमय जीवन का अवसान होने लगता है तथा दु:ख का नवीन अध्याय प्रारंभ हो जाता है। जीवन के बसन्त में अचानक पतझड़ का साम्राज्य स्थापित हो जाता है। यह अवसर स्त्रियों के हृदय पर गहरी चोट करने के लिए पर्याप्त है। इस प्रकार के करुण गीतों को सुनकर किसका हृदय द्रवीभूत न होगा।
पुत्री जब अपने मायके से पति के घर जाती है तो उस समय विदाई का जो कारुणिक दृश्य उपस्थित होता है, उसका वर्णन वाणी के माध्यम से करना असम्भव है। पितृगृह के लाड-प्यार की स्मृतियाँ उसके हृदय को मसोसने लगती हैं। उसका भाव विह्ल हृदय आँसुओं के माध्यम से बह निकलता है। ऐसे अवसर पर धैर्यवान व्यक्तियों की आँखें भी नम हो जाती हैं। महाकवि कालिदास ने शकुंतला की विदाई के अवसर पर महर्षि कण्व के मुख से जिस प्रकार के हृदयोद्गार को व्यक्त कराया गया है, वह काव्य की अमूल्य धरोहर है।
लोकगीतों में पुत्री की विदाई के अवसर पर माता-पिता के रोदन का पारावार उमड़ पड़ता है। उन लोगों के रोदन से गंगा में बाढ़ आ जाती है। माता के रोदन से उसकी आँखों के सामने अँधेरा छा जाता है। भाई के रोदन से उसकी धोती और चरण तक भींग गये हंै, परन्तु भावज की आँखें गीली भी नहीं हुई हैं। इस परिवारिक स्थिति का करुण चित्रण अवलोकनीय है-
बाबा के रोवल गंगा बढि़ अइली
 आमा के रोवले अनोर
भइया के रोवले चरण धोती भीजै
भउजी नयनवा न लोर।
लोकगीतों में करुण रस की अभिव्यक्ति प्रिय वियोग के अवसर पर अत्यधिक मार्मिक हो जाती है। निम्नलिखित भोजपुरी में प्रेषितपतिका का नायिका अपनी दयनीय दशा को दर्शाती हुई कहती है कि-
धरावा रोवे धरिनि ए लोभियी,
बाहरवा राग हरिनवा
दाहारवा रोवे चाकवा चकइया
बिछोहवा कइले निखामोहिया।
लोकगीतों में पति को भौंरे के प्रतीक के रुप में चित्रित किया गया है, जो एक पुष्प के मकरन्द का पान करने के अंतर अन्य पुष्प से संबंध स्थापित करने चला जाता है। इसी आशंका से ग्रस्त स्त्री अपने पति से कहती है कि-
आजु के गइल भँवरा, कहिया ले लवटब
कतेक दिनवाँ हम जोहिब तोरि बटिया।
एक बन गइलीं दोसर बन गइली,
तीसरे बनवाँ मिलन गोरु चरवहवा।
गोरु चरवहवा तुही मोर भइया,
कतहू देखत ना, मोर भँवरवा परदेसिया।
इस गीत में वियोगिनी की व्याकुलता देखने योग्य है। प्रियतम की खोज में विरहिणी घर की सीमा तोड़कर बाहर निकल पड़ती है। अपने प्राणप्रिय को वन-वन खोजती है लेकिन कहीं पता नहीं चलता। ऐसी वियोगिनी की पीड़ा असह्य हो जाती है जो केवल अनुभवगम्य है।
वैधव्य के गीतों में करुणरस अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है। बाल-विधवाओं में कितना भोलापन भरा है जो अपने विवाह जैसी अजनबी चीज को जानती ही नहीं। उसकी दर्दभरी आहों से किसका हृदय विदीर्ण नहीं हो जाएगा। इनके गीतों में बड़ी तीव्र वेदना समाई हुई है। एक भोली-भाली बाल विधवा अपने पिता से लिपट कर रोती हुई पूछती है-
बाबा सिर मोरा रोवेला सेनुर बिनु
नयना कजरवा बिनु ए राम।
बाबा गोद मेरा रोवेला बालक बिनु
सेजिमा कन्हइया बिनु ए राम।
इसी प्रकार वैधव्यजनित अनेक गीतों में मार्मिक वेदना भरी पड़ी है जो कि परिस्थितिवश हुआ करती है।
लोकगीतों में शांत रस का परिपाक भी अपने भव्यतम रुप में दिखाई पड़ता है। भजनों में ऐहिक जीवन की नि:सारता और पारलौकिक जीवन की महत्ता प्रतिपादित की गई है। स्त्रियों की कामना के दो ही केन्द्र बिन्दु हैं- माँग और कोख अर्थात पति और पुत्र। इन दोनों के कल्याण के लिए वह अनेक देवी-देवताओं से मंगल की कामना किया करती हैं। इन देवियों में प्रमुख देवी षष्ठी माता (छठ माई) हैं जिनकी पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भोजपुरी प्रदेश में बड़े ही उमंग और उत्साह के साथ ही जाती है। कोई वन्ध्या स्त्री छठमाता से पुत्र की कामना करती हुई कहती है-
ए आमा के कोख पइसि सुते ले अदितमल
मोरे हो गइले बिहान
आरे हाली हाली उग ए अदितमल अरघ दिआऊ
फलवा फुलवा ले मालिनी बिटि ठाढ़
गोड़वा दु:खद तेरे, डांडवा पिरइले,
कब से जे हम बानी ठाढ़।
भजनों में शांत रस की प्रबलता परिलक्षित होती है। इसमें जीवन की अनित्यता और वैभव की क्षणभंगुरता का सुंदर प्रतिपादन मिलता है। लोकगीतों में हास्यरस का भी पुट देखने को मिलता है। यह आश्चर्य की बात है कि इन गीतों में ग्रामीण हास्य होते हुए भी ग्राम्यता नहीं है। वैवाहिक अवसरों पर ससुराल में वर एवं वधू के साथ जो हास-परिहास किया जाता है वह मधुर और विशुद्ध होता है। कहीं-कहीं इन गीतों में व्यंग्य इतना चुटीला होता है कि पाठक के हृदय पर उसका अमिट प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता।
भगवान शिव के विवाह के अवसर पर पार्वती की माता शिव की विचित्र तथा वीभत्स आकृति को देखकर डर जाती हैं और कहती हैं
धिया ले के उड़वी धिया के बुड़वी
धिया लेके खिलबो पाताल।
अइसन तपसिया के गउरा नाही देबो
बलु गउरा रहिहैं कुँआरि।
पार्वती अपनी माता से शिवजी की हुलिया का बखान करती है, जिसे सुनकर कोई भी व्यक्ति अपनी हँसी को रोकने में असमर्थ हो जाता है-
सूप अइसन दहिया ए आमा, बरघ अस आँखी।
उहे तपेसिया ए आसा, हमे भइल माई।
भँगिया विसत  ए आमा, जिया अकुलाई
धतुरा के गोलिया ए आमा, हथवा रे खिआई।
ऐसे हास्यपूर्ण चित्रण में हमारे लोकगीतकारों ने अपनी भावयित्री प्रतिभा का अद्भुत प्रदर्शन किया है।
जगनिक की अमर कृति ''परमाररासोÓÓ वीररस से संबंधित प्रसिद्ध लोककाव्य  है। आम जनमानस में यह कृति ''आल्हखंडÓÓ के नाम से प्रसिद्ध है। आल्हा का गायन करने वाले अल्हैत कहें जाते हैं। ये लोग जब आल्हा का सस्वर पाठ करते हैं, तब वृद्धों के हृदय में भी जोश हिलोरें लेने लगता है और उनके भुजदण्ड फड़कने लगते हैं तो युवा वर्ग की बात ही निराली है। जनकवि जगनिक द्वारा रचित ''आल्हखंडÓÓ आदिकालीन लोकगीत ही है। सिरसा गढ़ की लड़ाई का निम्नलिखित वर्णन दर्शनीय है जिसमें गाढ़बन्धता लाने के लिए कवि ने प्रसंगानुकूल उपयुक्त शब्दों का चयन किया है-
दोनों फौजन के अन्तर में, रहि गयो तीन पैग मैदान।
खट खट तेगा बाजन लागे, जूझन लगे अनेकन ज्वान।
बढ़े सिपाही दोनों दल के, सबके मारु मारु रटि लाग।
पैदल अभिर गये पैदल संग औ असवारन ते असवार।
हौदा के संग हौदा मिलि गये, हाथ्रि अड़ी दांत से दांत।
सूडि़ लपेटा हाथी होइगे और बहि चली रकत की धार।
प्रसिद्ध वीर कवि प्रसिद्ध नारायण सिंह ने भोजपुरी वीरकाव्य का सृजन किया है। सन् 1857 के विद्रोही नेता वीर कुंवर सिंह का वर्णन उन्होंने बड़ी ओजपूर्ण भाषा में किया है। अंग्रेजों के साथ कुंवर सिंह ने बड़े पराक्रम के साथ युद्ध किया और युद्धस्थल शत्रु के रक्त से लाल हो गया था-
छंद-छंद गोरन के काटि चलल
रनभूमि रकत से पाटि चलल।
सन् 1942 ई. में अंग्रेजों द्वारा पूर्वी उत्तरप्रदेश के बलिया जनपद में जो अत्याचार किये थे उसका सजीव स्वरुप कवि के द्वारा आधोलिखित रुप में व्यंजित कराया गया है-
सड़कन डालन से पाटि पाटि,
पूलन से दिहली काटि काटि।
तहसील खजाना लूट फूँकि,
अगवढि़ दिहनी तनख्वाह बाटि।
अपना खूनन से सींच सींच,
गड़ली हम झंडा जिला बीच।
गूंजल हमार जब विजय घोष,
आइल तब नेदर सोल नीच।
इस दृष्टान्त से यह अवश्य ही ज्ञात होता है कि कवि ने ओजस्वी भाषा का सहारा लेकर वीररस से अभिमंडित एक नहीं अनेक वीरगीतों का सृजन किया है। उनके ये गीत लोकसाहित्य की अक्षय्य निधि हैं।
उपर्युक्त रसों की पूर्ण व्यंजना के साथ लोकगीतों में अन्य रसों का भी सुंदर मंजुल परिपाक मिलता है। रस व्यंजना से परिपूर्ण ये गीत हृदय तंत्री को झंकृत कर देने में पूर्ण समर्थ हैं। लोककवियों ने लोकगीतों में विभिन्न रसों की अभिव्यक्ति करते हुए लोकसाहित्य को समृद्ध किया है। इन लोककवियों की रससंवेदना साहित्य की अनुपम धरोहर है। लोकगीतों में व्यंजित रसों की आस्वादकता शिष्ट साहित्य की रस व्यंजना से कथमपि न्यून नहीं है। जीवन के अनुभवों का यह रागात्मक अभिव्यंजन है। लोकगीत रस के निर्झर है। लोकगीतों स्वत: स्फूर्त भावोच्छ्वासों का सहज व सरल, अकृत्रिम एवं सगीतपूर्ण उद्गार है। यह लोक समाज का रसोद्वेग है। इन लोक गीतों की रसानुभूति में दुनिया को विश्रान्ति मिलती है। सहज रसात्मकता, स्वाभाविकता तथा स्पष्टता इन गीतों का प्राणतत्व है। यह रस-सरिता में निमज्जित करने वाली भावधारा है। गेयता तथा संगीतात्मकता इसकी रसमयी संप्रेषणीयता की मूल शक्ति है। लोकगीत अजातशत्रु हैं, अपराजेय है। कालचक्र भी इनके समक्ष नतमस्तक है।
साभार - रउताही 2015