Thursday 14 February 2013

रावत नृत्य मड़ई (मेला)

मेला यह शब्द मिलन के अर्थ में है। इस शब्द के पूर्व विशेषण के रुप में 'कुंभ का मेलाÓ 'ग्रहण का मेलाÓ 'शिवरात्रि का मूेलाÓ इत्यादि पर्व विशिष्ट रुप से जोड़े जाते रहे हैं। 'मेलाÓ में तीन प्रकार की मिलन की परिकल्पना की गयी है। भिन्न संस्कृतियों के लोगों का पर्व विशेष में मिलन दूरस्थ कुटुम्बी लोगों का पर्व विशेष मिलन तथा संत महात्माओं से गृहस्थियों का मिलन। हम मेला की कल्पना उस काल में करें जब यातायात के लिये आज की तरह न तो आकाशगामी वायुयान न ही दु्रतगामी रेल, बस की यात्राएं थी और न ही आज जैसे स्थान-स्थान पर सुविधायुक्त भोजन, शयन की व्यवस्था हेतु धर्मशालाएं या भोजनालय आदि बने थे। उन दिनों कल्पना कीजिए बंगाल, उड़ीसा और समुद्र तटीय यात्री तथा केरल तथा मद्रास के दक्षिणी लोग और हिमालय के शिखरों से पश्चिमी सिन्धु नदी के पास से लोग 'कुंभÓ के मेले में प्रयाग पदयात्रा करके आते रहे होंगे जो प्रत्येक 12 वर्ष में मेला पड़ता है। वर्ष भर पूर्व उनकी पदयात्रा होती रही होंगी और वर्ष भर बाद अपने घर पहुंचते रहे होंगे। विचार किया जाये यह सब क्यों ? केवल  इसलिए ना कि उन्हें संस्कृतियों का ज्ञान, परिजनों से भेंट और महात्माओं के उपदेश प्राप्त होते थे। इसी चिन्तन की धरातल पर आधारित है 'रावत नाच का मड़ई (मेला)Ó।
जैसा कि मैंने अपने पिछले लेखों में इस बात पर हमेशा बल दिया है कि यह 'रावतÓ जाति न तो यादव है न ही यह 'ग्वालÓ है। यह भारत की तात्कालिक राष्ट्रीय संपत्ति जो 'गो-धनÓ कहाती थी उसका एक न्यासी है। यह राष्ट्रीय सम्पत्ति इस जाति के पास धरोहर के रूप में सौंपी जाती थी। कब तक जब जंगलों में हिंसक प्राणियों से इस संपत्ति को बचाना होता और जब राजकीय लुटेरों जैसे विराट के गौओं को कौरवों ने लूटना चाहा था। उससे इन संपत्तियों की रक्षा करनी होती उसे उसी के हाथ पर सौंपा जाता था जिसमें 'रामत्व अर्थातÓ क्षत्रियत्व अथवा 'पुरुषार्थÓ 'साधनाÓ 'धर्मÓ और श्रद्धा कूट-कूट कर भरी हो। यह कोई जटा और माला लेकर ब्रह्म चिन्तन करने वाली तपस्वी नहीं अपितु भरी बरसात में कम्बल और भाला लेकर कीचड़ से भरे बीहड़ वन प्रांतों में गोधन को चराते, हिंसकों से बचाता और गायों के साथ भूमि में शयन कर साधनामय जीवन बिताता था।
'रावतÓ के सामने 'यादवÓ शब्द अत्यंत हल्का है। यादव एक वंश का द्योतक है किन्तु रावत एक पुरुषार्थ, तपस्या और निष्ठा का द्योतक है, यादव शब्द में व्याकरण के अनुसार 'तद्धितÓ है जो वंशसूचक है किन्तु रावत में 'कृदन्तÓ है जो क्रिया और प्रयोग के द्वारा नाम पाता है।
भगवान श्रीकृष्ण का गो-पालन यादव के कारण नहीं। यदु तो क्षत्रिय थे भगवान श्रीकृष्ण स्वयं रावत थे जिन्होंने बिना तलवार, गदा या अस्त्र-शस्त्रों के केवल  पुरुषार्थ के बल पर ब्रज के गायों की रक्षा की।
दूसरे शब्दों में यह समाज सृष्टा भी है। राष्ट्रीयता के लिये वह सत्ता की ओर नहीं दौड़ता। मड़ई (मेला) में नाच का एक ही अर्थ है कि वह बांये हाथ में रक्षा कवच के रूप में फरी और दाहिने हाथ में वही इन्द्रविजेता कृष्ण की लाठी जिस पर गोवर्धन टिका और स्वर्ग हिल गया। गोप बचे और इन्द्र का मान मर्दन हो गया वह मड़ई नाच में अपना शौर्य प्रदर्शन करता है तथा अपने न्यासकर्तागण गोस्वामियों को विश्वास दिलाता है कि वह राष्ट्र और प्रजा की पूंजी को न तो विनाश होने देगा और न स्वयं उसका दुर्विनियोग करेगा। इस जाति का चरित्र गंगा की धारा की तरह निर्मल था। यदि वह चाहता तो गायों को दुहकर बेच खाता किन्तु सामने स्वामी का धरोहर और छोटे से बछड़े के माँ की वात्सल्य का प्रश्न होता है। वह रावत नाच में सामूहिक रूप से इसलिये एकत्रित होता था कि विभिन्न क्षेत्र  से आये गोरक्षक न्यासी रावत अपनी कलाओं को एक-दूसरे को देता और दूसरे से प्राप्त करता था और समाज के उन लोगों को जो गो स्वामी थे जिनको विश्वास दिलाता कि हमारे पास शौर्य के वे आधार हैं कि हमारे हाथों तुम्हारी गो-सम्पत्ति का कोई हस नहीं होगा।
इसीलिये यह जाति इतनी पवित्र मानी गई थी कि कोई भी परिवार नहीं है जो अपने भोजन के स्थान पर प्रवेश से इनको रोक सके।
यह 'न्यासीÓ किसी भी 'सन्यासीÓ  से श्रेष्ठ था। क्योंकि सन्यासी कर्म से विमुख होता है जबकि यह न्यासी मरण-पर्यन्त रक्षा कर्म को धारण करता है। समाज ने इसके विश्वास के कारण ही अपनी बहू-बेटियों के साथ भेजे जाने वाले अपने विश्वसनीय लोगों में इन्हें रखा था। इसीलिये अंतपुर में विश्वासपूर्वक इस वर्ग का प्रवेश हमेशा से रहा है आज जिसे रावत नाच महोत्सव कहा जाता है, यह कला की वह छवि नहीं है जिसे इस जाति ने स्वीकारा था मोटी और लम्बी शिखा और गले में यंत्र संघों की ताबीज की माला और वर्ष में कुलदेवी के सामने सौगंध से पूजा की गई रक्षा की लाठी और वह पूर्ण सनातनीय है इसके द्योतक 'काछÓ के चिन्ह से युक्त कटिवस्त्र। इनकी पर्व जैसे नागपंचमी में सर्प का दर्शन, दशहरा को नीलकण्ठ, यात्रा में दूध पिलाती गाय और पुस्तकों से युक्त ब्राह्मण दुर्लभ होते है वैसे ही कार्तिक के शुक्ल पक्ष में रास महोत्सव के पर्व पर इस जाति का दर्शन दुर्लभ होता था।
इसीलिये सामुदायिक रूप से मड़ई मेला में वीरवृत्ति साधकों के दर्शन हेतु सभी वर्ग के लोग एकत्रित होते चले आ रहे हैं। इनके डाबर मंचों की भांति तंत्र प्रयोग गाय के गोबर कुसमाण्ड (रखिया) के बीज और धान के दानों का गोला बनाकर अपने मंत्रों से प्रत्येक परिवार को वह आशीर्वाद प्रदान करता है। जिसकी अभिलाषा प्रत्येक गृहस्थी रखते उन्हें भेंट स्वरूप वस्त्र, गो प्रसाद के रूप में 'जड़ावरÓ देते और अपने आशीर्वाद से साधक हर परिवार को प्रसन्न कर देता था-
'जैसे मालिक देहे लेहे, तैसे लेब असीस।Ó
अन्न धन तोर घर भरै, जुग जियो लाख बरीस।
साभार- रऊताही 1997

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