Saturday 16 February 2013

देवरहट का रऊताही लोक महोत्सव

छत्तीसगढ़ अंचल, प्राकृतिक सृष्टि सौंदर्य की विविधता और विपुलता से भरी पड़ी है यह विभिन्न धार्मिक विश्वासों और सांस्कृतिक परम्पराओं का अनूठा संगम स्थल है यहां की ऐतिहासिक गौरवमयी पुनीत भूमि में प्राचीन परम्पराओं रीति-रिवाजों अनूठी कलाकृतियों लोक संस्कृतियों की रस गंगा गौरवशाली इतिहास की जितना साक्षी है उतनी ही भविष्य की महान आशाओं की प्रेरक भी है। भारत का हृदय स्थल अपना छत्तीसगढ़ जहां के लोकप्रिय रावत नाच मड़ई महोत्सव, रऊताही के नाम से विख्यात, ग्राम्य जीवन की विशिष्ट पहचान, सांस्कृतिक सम्पन्नता की जीवन्त प्रतीक है। गोचारण सभ्यता, दीपोत्सव की दिव्यता, धरती माँ अन्नपूर्णा की अभ्यर्थना आराधना है। रावत नाच में गड़वा बाजा सुमधुर स्वर लहरी लोक वाद्य संगीत नृत्य गीत का अद्भुत समिश्रण मिलता है। अन्तरात्मा में स्थित दिव्य मनोंभावों का प्रकाश पुंज प्रस्फुटित हो उठता है, लोगों में दृढ़ आस्था, भावनात्मक एकता, अखण्डता, समन्वयता, सहिष्णुता, सौहाद्र्रता, सदाशयता नीति दर्शन, सभ्यता, सामाजिक संस्कार शूर, कबीर, तुलसी का काव्य सौष्ठव लोक संस्कृति का पुनर्जागरण हृदयग्राही सांस्कृतिक अभिव्यक्ति की झलक देखने को मिलती है।
छत्तीसगढ़ अंचल की पुण्यदायिनी धरती कृषि प्रधान रही है यहां की मुख्य फसल धान है इसलिए इस कर्मभूमि को धान का कटोरा कहा जाता है, यदुवंशियों का आर्थिक जीवनाधार कृषि एवं पशुपालन है धान की फसल कटने वार्षिक कृषि कार्य समापन होने के पश्चात निश्चिंत भाव से यादव बंधु अन्य धन सुख संपदा से परिपूर्ण आपसी स्नेह हार्दिक संतोष आत्मिक आनंदोल्लास और उमंग को रावत नृत्य के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं। कार्तिक शुक्ल पक्ष देवउठनी प्रबोधनी एकादशी से प्रारंभ होकर पंद्रह दिनों तक तथा ग्राम्यांचल में एक माह तक यह नृत्य चलता रहता है। रावत नृत्य महोत्सव यदुवंशियों की सांस्कृतिक परम्पराओं विशेषताओं का वैभवशाली उत्कृष्ट उदाहरण है। नैतिक आर्थिक, बौद्धिक सामाजिक उत्थान की दिशा में स्वत: स्फूर्त लोक आयोजन एक अनुकरणीय प्रयास है। रावत नर्तक बलिष्ठ योद्धाओं की तरह रंग-बिरंगे वेशभूषा से सुसज्जित होकर गड़वा बाजा की धुन पर एक लय ताल पे थिरकते पांव, घुंघरुओं की झनकार समवेत स्वरों में भाई हो की ललकार नयनाभिराम साज श्रृंगार, लाठियों के कलात्मक प्रहार करते पूरी दक्षता तन्मयता के साथ अस्त्र-शस्त्र का संचालन भी करते हैं। जब यदुवंशियों की टोलियां सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ में निकल पड़ती हैं तब हर छत्तीसगढ़ी का रोम-रोम प्रफुल्लित हो उठता है, ऐसी प्रतिभा सम्पन्न अद्वितीय, गौरवपूर्ण लोककला को अक्षुण बनाने और परिष्कृत करने के लिए रावत नाच के झुंड का प्रत्येक  सदस्य  सर्वांग साज श्रृंगार करता है, सजा संवरा रहता है, सिर पर धोती की पगड़ी बांधे जिस पर कागज के फूलों की रंग-बिरंगी गोलाकार माला कसी हुई होती है। मोर पंख की कलगी लगाये चेहरे पर राम रज वृंदावन की पवित्र पीली मिट्टी, माथे पर मलयागर चंदन का टीका, आंखों में शुद्ध घी से निर्मित काजल, दोनों गालों में गुलबियां, ठोडी में काली बिंदिया लगाये, मनोहर वेश धारण करता है वक्ष स्थल पर रंगीन कपड़े के जरीदार बेलबूटे से सुसज्जित सलूखा, पूरे आस्तीनों का सलमा सितारा जड़ा हुआ होता है सीने में कौडिय़ों की बनी हुई पेटी दोनों बाहों में कौडिय़ों से निर्मित बहकर बंधा रहता है। कमर में घुंघरुओं का बेल्ट नुमा जलाजल और कमर के नीचे कपड़े का रंगीन छींटेदार चोलना घुटनाओं के ऊपर तक सा होता है। जिसके सिरों पर फुंदरे लगे रहते हैं, बटे कोर की सफेद धोती जिसके कोर का रंग लाल होता है। चोलना के स्थान पर इसे पहनते हैं। रावत नर्तकों के दाहिने हाथ में तेंदू की चमचमाती लाठी जिसे कई साल तक घी-डोरी तेल संवार-संवार सिझाया हुआ रहता है और बायें हाथ में पीतल की बनी ढाल-फरी सुशोभित होते हैं। कई लोग हिरन सींग के निर्मित फरी व मारण अस्त्र-गुरुद धारण करते हैं दोनों पांवों में गुच्छेदार घुंघरुओं के लच्छे, कपड़े का जूता, माडी तक रंग-बिरंगे मोजे पहना रावत नर्तक जब झूमता हुआ जिस गली चौक चौराहों में गुजरता है तो लोग उसे देखते ही रह जाते हैं, जवानी की मस्ती, डील डौल हृष्ट-पुष्ट स्वस्थ सुगठित शरीर, पचहत्था गबरु जवान जिसके नाचने गाने से कुहुकी पारने से दसों दिशा झूम उठती है। प्रत्येक नर्तक दल के साथ गंधर्व जाति के लोक वाद्य संगीत गुदरुम वाद्य जिसे आंचलिक बोली में गड़वा बाजा के नाम से जाना जाता है, रहता है। ये वादक रावत नर्तकों के साथ सजे-धजे परी नर्तकी के रूप में लय ताल धुन पर नाचते गाते दोहा पारते अपनी कला कौशल का प्रदर्शन करते हैं। रावत नाच में प्रत्येक होने वाले वाद्य जिसमें टिमकी डफरा, ढपली ढोल, निशान, गुदरुम, मोहरी, झुमका आदि लोक वाद्य प्रधान होते हैं गड़वा बजाने वाले बजगरी लोग नृत्य-गीत संगीत मर्मज्ञ चंचल चित्त प्रसन्न मुद्रा सुमधुर स्वभाव मृदुभाषी कलाकार होते हैं। इन्हीं लोक कलाकारों के लय ताल सूर, प्रवाह से मनमंत्र मुग्ध हो जाता है जिनके लोक धुनों के बल पर रावत नर्तक दलों का दल स्वमेव हजारों लाखों दर्शकों के भावुक मन को आकर्षित कर आल्हादित किये बिना नहीं रहता, उनका विजयोल्लास शौर्य प्रदर्शन देखते ही बनता है। गंधर्व लोगों की वादन शैली में बड़ी विचित्रता रहती है इसमें विभिन्न रागों लय तालस्वरों का प्रयोग किया जाता है। साथ ही ये सम, मध्यलय, द्रूत, अतिद्रूत विलंवित ताल, ध्वनि तरंग प्रस्तुत करते हैं, चार, छै:, सोलह मात्रा के अन्तर्गत वाद्य बजाते हैं जिस नर्तक दल की लोकाभिव्यक्ति जितनी सशक्त और पैनी होती है उतनी ही उसकी यादव संस्कृति जनाकर्षक लगने लगती है। यादव नृत्य में प्रयुक्त होने वाली कबीर, सूर, तुलसी व मनगढ़ंत आशु कवि की तरह त्वरित स्वरचित दोहे होते हैं जिसमें यदुवंशियों की पारंपरिक लोक जीवन का उल्लास, मिठास, आस, विश्वास, आस्था, स्नेह, प्रेम की रस गंगा परिलक्षित होती है वीरता, धीरता, साहसिकता, संघर्षशीलता, लोक मंगल की भावना अभिव्यक्त हो उठती है बौद्धिक, नैतिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, विसंगतियों अवांछनीयताओं को समाप्त करने, आपसी प्रेम स्नेह, सद्भाव संगठन, राष्ट्रीय भावना बनाए रखने का अमर संदेश ग्राम्य परिवेश की लोक चेतना दोहों के माध्यम से सर्वतोमुखी उजागर होती है। धर्म, जाति, सम्प्रदाय के भेदभाव को त्याग रावत नाच छत्तीसगढ़ अंचल का सामूहिक लोकप्रिय नृत्योत्सव है, ये नृत्य व्यापक जनाधार के कारण समाज में जनता जनादेश की रुचि का केन्द्र बना हुआ है। जाति धर्म परम्परा के अनुसार अहिरा बंधुओं का जीवन चक्र नृत्यमय संसार इस प्रकार है-
देवाला पूजा- मनुष्य जीवन भी एक यात्रा है जिसमें पग-पग पर कठिनाइयों के महासागर पार करने पड़ते हैं। इंद्रियों की लालसाएं मन में पनपते भ्रमों की बहुतायात जीवन को पल-पल पर भटकाने की कोशिश करते हैं फिर संसार में भयावह संकटों, विध्नों, परेशानियों की कमी कहां है। संसार का हर थपेड़ा जीवन नौका को नेस्तनाबूद कर देने के लिए प्रयत्नशील रहता है। जहां के चित्र-विचित्र आकर्षणों का हर भंवर समूचे जीवन को डुबो देने के लिए आतुर आकुल रहता है। इसीलिए यदुवंशी रावत जीवन यात्रा की शुरुआत से ही श्री सतगुरुदेव  को अपने घर के कुल देवताओं को अपना नाविक बना लेते हैं उनके हाथों में अपने को सौंप देते है। गुरुदेव व कुल देवता स्वयं उनकी यात्रा को सरल बना देते हैं क्योंकि जीवन पथ की सभी कठिनाइयों के वही ज्ञाता  और हम सबके सही सच्चे सहचर होते हैं।
अखरा धाना- देवाधिदेव भगवान शंकर सड़हादेव गुरु बैताल, भैरवनाथ, बीर बजरंगबली, चौसठ जोगनियों नव शक्ति दुर्गे माँ की साधना-आराधना कर अखरा के मैदान में अस्त्र-शस्त्र संचालन व लाठी चालन अभ्यास के लिए अहिरा बंधु नित्य प्रति प्रात: संध्या के समय अभ्यास किया करते हैं जिससे उन्हें महत्वपूर्ण उपलब्धियां शारीरिक मानसिक एवं आत्मिक शक्तियां संस्कारित जीवन की प्राप्ति होती है।
सुहाई बांधना- सुहाई पवित्र माला का प्रतीक है जिसे परसा नामक वृक्ष के जड़ से बनाया जाता है। उसे मोर के पंख से सुसज्जित कर गौ माता के गले में पहनाते हैं जिन्हें वे चराते हैं रावत अपने गौ स्वामी किसान मालिक के आंगन में मगन मन नाचता गाता दोहा पारता राम जोहार कर कोठे की लक्ष्मी को भी प्रणाम करता है इतना ही नहीं वे अपने गौ स्वामी के कल्याण की शुभ कामना भी व्यक्त करता है। आशीर्वाद प्रदान करता है। किसान अपने गौ चारक को वस्त्रादि रुपये धान चढ़ावा में देता है मन पसंद न्यौछावर नहीं मिलने पर रावत बाल हठ सा हठ करने लगता है तब उसे प्रसन्न करने के लिए भाव भीनी प्रक्रिया की जाती है उसको मना लेने सत्कार कर लेने के पश्चात उसके वादक दल को भी न्यौछावर देकर सम्मानित किया जाता है।
मड़ई ध्वज- जिसे रावत लोग बहुत ही आत्मीयता के साथ धारण करते हैं, मड़ई का निर्माण केंवट या गोड़ जाति के लोगों द्वारा किया जाता है। एक लम्बे ऊंचे बांस पर गोंदला नामक जंगली पौधे से बनाया जाता है जब  रावत बाजार बिहाने के लिए आते हैं तो इसे अपने साथ लेकर आते हैं और नाचते है जहां बाजार बिहाने की प्रथा नहीं है वहां इसे एक स्थान पर स्थापित कर दिया जाता है और उसके चारों ओर परिक्रमा करते शौर्य नृत्य का प्रदर्शन कर आल्हादित होते हैं।
काछन चढऩा- नृत्य दल के साथ रावत जब नृत्य करने के लिए सज धज कर तैयार हो जाता है तो लोक वाद्य के धुन पर उसके पांव थिरकने लगते हैं रोमांचित शारीरिक वेग उन्माद हर्षोल्लास को सम्भाल नहीं पाता देवी देवताओं की सुमरना कर नतमस्तक हो तेंदू की लाठी को धरती आसमान के बीच घुमाने लगता है कभी पांच सात फिट ऊपर छलांग देता है कभी कूंद फांद कर शरीर के वेग को शांत चित्त हो आत्मसात कर लेता है फिर कुहुकी पारते नाचने लगता है इस प्रकार की कला कौशल को काछन चढऩा कहा जाता है स्वस्थ मनोरंजन का प्रदर्शन करने लगता है उसे देखने से ऐसा लगता है कि अहिरा के शरीर के भीतर कोई दैवी शक्ति संचालित हो रही है यह गजब आश्चर्य की बात है उसकी अद्भुत नृत्य शैली नि:संदेह प्रशंसनीय है।
बाजार बिहाना- परंपरागत रीति के अनुसार बाजार बिहाना का अर्थ है नाचते गाते कुहुकी पारते मड़ई ध्वज फहराते बाजार की परिक्रमा करना, फिर एक स्थान पर विभिन्न ग्राम्यांचल से पधारे अहिरा बंधु एकत्रित हो रंग-बिरंगी पोशाकों से युक्त चारों तरफ रावत नर्तकों के दलों द्वारा अद्भुत मनोहारी दृश्य उपस्थित करना इनके नृत्य में श्रृंगार वीर रसों के साथ नव रसों का भी ताल मेल देखा जाता है इनकी शूरता, वीरता को देखने से लगता है कि ये निर्बलों के ऊपर होने वाले अत्याचार का प्रतिरोध करने के लिए अपनी समस्त शक्ति लगा देंगे, आपत्ति ग्रस्तों शोषित पीडि़त दलित उपक्षितों निराश्रितों की सहायता करेंगें। अनकहे परिचय की प्रिय पोशाकों से रावत दूर से पहचानते जा सकते हैं।
सामाजिक मूल्यांकन की दृष्टि से उनके कला कौशल रावत नाच को क्षणिक मनोरंजन का साधन समझा जाता था। इस अंचल का सौभाग्य ही कहा जाये कि बिलासा की नगरी बिलासपुर में डॉ. कालीचरण यादव व छत्तीसगढ़ अंचल के सुप्रसिद्ध ग्राम देवरहट की पावन धरित्री को सुवासित करने वाले डॉ. मन्तराम यादव का जन्म हुआ दोनों महापुरुष समाजसेवी, देशभक्त छत्तीसगढ़ लोक कला और सांस्कृतिक चेतना को जागृत करने के लिए अहर्निश लगे हुए हैं जिन्होंने दिग्भ्रमित यादवों को सन्मार्ग सत्य पथ पर चलने लिए आह्वान किया शंखनाद किया जिनके भागीरथी प्रयासों से यदुवंशियों का डूबता हुआ भाग्य का सूरज फिर से नया जोश उत्साह शौर्य के साथ पूर्वांचल में जगमगाने लगा चमकने लगा।
भारतीय संस्कृति बहुआयामी तथा अति प्राचीन है। हर्षोल्लास के अवसरों को हम उत्सव के रुप में धूमधाम से मनाते हैं और ऐसे अवसरों पर नृत्य गीत संगीत के परंपरागत आयोजन हमारे देश में सहस्त्राद्धियों से होते रहे हैं। यह हमारी सांस्कृतिक निधि है और इसका रक्षण पोषण संवर्धन करना हमारा महत्वपूर्ण परम कत्र्तव्य है।
स्वाधीन भारत की पच्चासवीं वर्षगांठ स्वर्ण जयंती के शुभ अवसर पर रऊताही स्मारिका का प्रकाशन नि:संदेह श्लाघ्नीय है, ऐतिहासिक महत्व है। सामाजिक साहित्यिक प्रकाशन के लिए अहीर नृत्य कला परिषद, देवरहट बिलासपुर को अनेक हार्दिक बधाईयां शुभकामनाएं-
साभार- रऊताही 1998

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