Saturday 16 February 2013

अलबेले अहीरों की अनोखी दीवाली

मध्यप्रदेश में नर्मदा नदी के तट पर वीर बुंदेलों की धरती से सटा ब्रज जल जीवन की स्पष्ट छाप लिये छत्तीसगढ़ क्षेत्र आज भी आभीरों की प्राचीन लोक-संस्कृति व सभ्यता का गुंजित स्वर में बखान कर रहा है। नन्दवंशी, जुझौतियों, झेरिया, कोसरिया, नोई, कनौजिया, सांझा, नखरिया, भरोतिया, देसहा, कौरा आदि विभिन्न यादव वर्गों (शाखाओं) के लोग अपने को गौपालक श्रीकृष्ण का वंशज मानते हुए उनकी ग्वाल-बाल लीलाओं व नृत्यों को याद कर दीपावली के अवसर पर झूम उठते हैं। दीपावली के दूसरे दिन से ही कार्तिक मास में प्रारंभ होने वाला 'नृत्यदीवारीÓ या कृष्ण के विरह में गाये जाने वाले 'दीपावली गीतÓ कार्तिक पूर्णिमा तक अनवरत चलते हैं व सम्पूर्ण क्षेत्र मनमोहक गीतों, थिरकते कदमों, झूमते पुरुषों व ढोल-नगाड़ों की कर्णभेदी आवाज से गूंज उठता है।
अमावस की काली रात में महालक्ष्मी की प्रतीक्षा करते चौकी-चौवारों पर रखे टिमटिमाते दीयों  की लौ मद्धिम होते ही ये 'बरेदी बुन्देलेÓ भोर होते ही अपनी गायों के शरीर को विविध रंग के ठप्पों से सजाकर गले में मोर पंखी हार व सींगों में घी, तेल लगाकर समूहों में अलख जगाते चारागाहों या दुहनी स्थलों की ओर निकल पड़ते हैं व अपनी भाषा में पशुओं को चौकाते उनके सदा स्वस्थ रहने की मंगल-कामना अपने गीतों में करते हैं। दीवाली की रात को बांस के लम्बे सिरे पर मेमरी, चचेड़ा व चकोड़ा के पौधों को बांध उन्हें अभिमंत्रित कर पवित्र 'छाहूरÓ बनाई जाती है व गायों की आरती उतार कर छाहुर से छाहू की आवाज करते गायों का सम्मान व उनके दीर्घ जीवन व सुख की कामना करते हैं। पशुओं की गौशाला में धान की पूजा कर नारियल व गुड़ का प्रसाद बांटा जाता है। गायों के बांधने के स्थान की पूजा में कहीं-कहीं गोधन के कल्याण हेतु सूकर शिशु की बलि दी जाती है व नारियल फोड़ते हैं। पशुजीवन के लिए पशु बलिदान की परम्परा अतीत काल से चली आ रही है।
भगवान श्री कृष्ण द्वारा बारह वर्ष तक मौन चराये जाने के स्मृति स्वरूप धोती कुर्ता पहने मोर पंख सजायें मौन साधे मौनियों की पूजा आरती व सम्मानजनक बिदाई इस पर्व का एक अन्य आकर्षण है। बारह वर्ष तक इस व्रत को धारण कर मौनिये अंतिम वर्ष में ब्रज जाते हैं। मौनियों को मौन रहकर ही पीछे हाथ कर पशुओं की नकल करते देव स्थलों की परिक्रमा व कुएं व तालाब से पानी पीना होता है।
सतरंगी साफा, गले में मोर मुकुट, लाख की कंठी, जरी का कुर्ता या काली बाड़ी, कमर में रंगीन दुपट्टा, कलाईयों व बाहों में कौडिय़ों के बने घुंघरु व पैरों में घुंघरु बांधे पुरुषों के समूह गायों के चलने, हांकने, घूरे व रंभाने आदि की मुद्राओं की नकल कर दर्शकों का मन मोह लेते हैं। गाय की पूूंछ के बालों में कौडिय़ों को गूंथकर बने विभिन्न अलंकरण यथा  घघरिया, बोहचा बाना, धागा पहिने ये बड़े ही लुभावने लगते हैं। दाबाड़ी नृत्य करते ढोल, थाली ढपला, नग बरसाते विविध प्रकार का करतब दिखाते हैं। मैदान के मध्य ऊंचा बांस गड़ाकर केले के पत्ते की झालरों व मोर पंखों से सजाकर चांवल पकते, परिक्रमा करते, मड़ई ब्याहने की रस्म अदा की जाती है।
मड़ई भरने की इसी परम्परा में प्रत्येक गांव में एक निश्चित दिन गायों का मेला लगता है। इसमें गाँववासी अपनी-अपनी गायों को सजाकर लाते हैं और पूजन कर अपनी आस्था प्रकट करते हैं। गोवर्धन पूजा या अन्नकूट का यह पर्व गोपालक उत्साह से मनाते हैं। गाय के गोबर से जमीन लीप पोत कर उस पर स्तूप आकार में पहाड़ बनाते हैं। छोटे बालकों को गोवर्धन पर्वत व गिरधारी कृष्ण की कथा बड़ी रुचि व श्रद्धा से सुनाते स्तूप की पूजा करते हैं। कार्तिक पूर्णिमा के दिन यह बरेदी बुंदेले अपने-अपने छाहुर, बाना, धागा आदि को अपने प्रिय नर्मदा मईया में अर्पित कर उल्लासपूर्ण रंगीली दीपावली व नृत्य कार्यक्रम का समापन करते हैं। लोक कला व लोकसंस्कृति का ऐसा मनमोहक संगत अब प्राय: बहुत ही कम स्थलों व पर्वों पर देखने को मिलता है। नई पीढ़ी इस प्रकार के कार्यक्रमों से मुंह मोडऩे लगी है। तब भला एक सशक्त परम्परा का निर्वाह पुरानी पीढ़ी के सहारे कब तक लोक संस्कृतियों को बनाये रखने का दिव्य स्वप्न देखा जा सकता है। इस कारण इन लोक नृत्यों व लोक गायन को सरकार द्वारा पर्याप्त संरक्षण व प्रोत्साहन दिये जाने की महती आवश्यकता है। कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को दीपावली व गोवर्धन पूजा में तो मानो राम वनवास वापिसी व श्रीकृष्ण की गोवर्धन लीलाओं के बीच की युगों पुरानी दूरी को पास कर मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम व लीला पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण को एकरूप जैसा कर दिया है तथा अलबेले अहीरों की अलबेली छटा को और भी मुखरित कर दिया है। बरेदी बुंदेलों की ही भांति गूजरों की दीपावली व गौ-वंश के प्रति सम्मान की परिचायक गोवर्धन पूजा का सारा कार्य जहां गूजर स्त्रियाँ मनोयोग से करती हैं तो गूजर पुरुषों द्वारा बैलों को तालाब में स्नान कराकर हाथों या आलू के ठप्पों से उनको इंद्रधनुषी रंगों में सजाकर आभूषणों से अलंकृत कर बैलों की दीवाली मनाते हैं।
बैलों को पूर्ण रुप से सजाकर उनकी पूजा की जाती है जिस गोबर से गोवर्धन बनाया जाता है उसी से कुछ 'गोबर की गुणीÓ लगाते हैं। गोबर से खिची पंक्ति पर बैलों की जोडिय़ां खड़ी हो जाती हैं। एक थाल में पांच पुंए, सिंदूर, धूप, चांदी का रुपया, अनाज, पगड़ी रखे व हाथ में जल का लोटा लिए गूजर धरती पर अनाज रखकर धूपबत्ती व दीया जलाते व बैलों को लम्बा टीका मारकर उनकी आरती उतारते हैं। बैलों को अपने हाथों पुए खिलाते व लोटे का जल पिलाते हैं। बैल के मुंह से छूकर गिर पुए खेतों में दबा देते हैं। बैल दांतली बैलों के पैरों में छुआ देते हैं बैलों को पैरा से गोवर्धन रौंदते 'गुंणीÓ कोलाध अपने-अपने घरों पर ले आते हैं जहां गृहणियां उनके माथे पर तिलक लगाती व कृषि यंत्रों को उनके पैरों से स्पर्श कराती हैं। इस पूजन कार्य में पुरुष व स्त्रियां दोनों साथ रहते हैं।
बैल पूजन के बाद 'भैरुÓ जी की पूजा कर सोलह बैलों की जोडिय़ों की मदद से सारे गांव की परिक्रमा कराई जाती है व बाद में बैलों की दौड़ आयोजित होती है। दीपावली के पावन पर्व पर श्री समृद्धि की कामना करके गाय-बैलों का पूजन हमारे देश की एक सांस्कृतिक विरासत है। जीवनदात्री माँ व अन्न उत्पादन में सहायक बैलों का पूजनकर न केवल हम उनका सम्मान करते हैं बल्कि देश की अर्थ व्यवस्था व धर्म संस्कारों में उनके अमिट योगदान की सराहना
भी करते हैं।
साभार -रऊताही 1999

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