Saturday 16 February 2013

लाठी और फरी का सफरनामा

वीर क्षत्रीय अहीर योद्धाओं की अमर गाथा, उनकी लोक संस्कृति, रीति-रिवाज परम्पराएं इतिहास के सुनहरे पन्नों में अंकित है। यदुवंशी वक्त के बदलते करवटों में गो चारण एवं  दुग्ध दोहन के कार्यों में लग गये, हिमालय से कन्याकुमारी तक  अलग-अलग क्षेत्रों में अनेकों नाम से जाने जाते हैं। बड़े पशुओं को चराने के लिए अहीर लोग खेत, खार जंगलों में घूमने से ढेर सी जड़ी बूटियों की इन्हें सहज ही पहचान हो जाती है और कुछ हद तक प्रकृति के रहस्यमय रूपों से भी परिचित हो जाते हैं।
एक विचार बार-बार मानस पटल में कौंध रहा है कि वह कौन प्रथम पुरुष था जिसने प्रथम बार लाठी को तलवार के रूप में प्रयोग किया होगा? लाठी और मनुष्य का संबंध अनादि काल से चला आ रहा है पर लाठी का विशेष आत्मीय संबंध यदुवंशियों से रहा है। जब तक यादव भाई के हाथ में लाठी है, वह अपने आप का किसी विजेता से कम आंकलन नहीं करता और जब शत्रु पर लाठी का वार करता है तो उसके मानस पटल में गुंजित हो उठता है कि-
'तेन्दु सार के लाठी संगी सेर-सेर घी खाये रे
जेखर ऊपर गिर जाये संगी राई-राई छित राय रे।।Ó
लाठी तो एक शक्तिपुंज है। आत्मबल का प्रतीक है एक वफादार साथी बन कर सदा घर बाहर रहता है।
1. बांसगीतों का लोकतात्विक अध्ययन- डॉ. रुद्रदत्त तिवारी
लाठी की महिमा का किन शब्दों से करें गुनगान, लाठी ही जीवन है लाठी करता है सदा मार्गदर्शन लाठी बड़े-बड़े उत्पातों को करता रहता है शान्त लाठी ही सुरक्षा का बनता है एक पहिचान। युद्धकाल में अहीर लोग शासक, सैनिक बनकर शत्रुओं का मुकाबला बड़ी वीरता से करते थे और विजयश्री का ताज धारण करते थे। शांतिकाल में पशुओं पर अपना नियंत्रण स्थापित करने के लिए लाठी का ही उपयोग करते थे क्योंकि बड़े-बड़े खतरनाक पशुओं को भाारी भरकम लौह शस्त्र जो वजनदार होने के कारण उठा कर चल नहीं सकते थे और सभ्य समाज में लौह शस्त्र उठाकर चलना आम बात नहीं थी।
अत्याचारी अन्यायी, क्रूरता का प्रतीक कंस का संहार भगवान योगीराज श्री कृष्ण के हाथों से हुआ। सर्वत्र सुख शांति समृद्धि अमृत बनकर बरसने लगी। तीनों लोक में शंख वेदाणी गूंज उठी। पर असुरी शक्ति के ओत-प्रोत जरासंध प्रतिशोध की अग्नि में दहकते हुए मथुरा पर आक्रमण किया। उस समय मथुरा में अमन-चैन सुख समृद्धि एकता की पावन अविरल धारा बहती थी। योगीराज श्री कृष्ण जो सर्वज्ञाता थे अपने बाल ग्वाल सखाओं की एक सेना तैयार की। कान्हा चाहते तो जरासंध को पल मारते ही यमलोक पहुंचा देते पर उन्हें तो लीला करना था। मानव सभ्यता को संकट के समय आत्मबल को जागृत करने की विभिन्न कलाओं से अवगत कराना था। पुरुषार्थ का पाठ पढ़ाना था।
मथुरा वासी सौम्य शान्त और श्रीकृष्ण के भक्ति भाव में डूबे रहते थे। युद्ध एवं संहार की प्रक्रिया से कोसों का नाता नहीं था मथुरा नगरी पर आयी मुसीबत का डटकर सामना करने के लिए कान्हा अपने ग्वाल बाल सखाओं के पास शस्त्र रूपी लाठी था और वे लाठी चलाने में महारत हासिल किये थे। जरासंध बार-बार आक्रमण करता और हर बार पराजय का मुंह देखना पड़ता। कान्हा ग्वाल बाल सखा मथुरावासी शत्रुओं के वार से बचने के लिए ढाल के रूप में सम्भवत: फरी का प्रथम प्रयोग किया और विजयश्री की मुस्कान बिखेरी।
इसी परिवेश में अहीर लोग अपनी गौरवशाली परम्परा को जीवन्त रखने के लिए कार्तिक पूर्णिमा से पौष पूर्णिमा के पर्व पर अपने कुल देवी-देवताओं का सुमिरन करते हुए विधि-विधान के साथ बड़े मनोभाव से भक्तिमय रस में डूबकर पूजा अर्चना करते हैं। उनके देव स्थल पर लाठी फरी भी विराजमान होती है। नए धान का अनाज भोजन में प्रयोग करते हैं। संवरते समय सिर पर पगड़ी खुसे झालर मोर पंख बाजू में कोडिय़ों का बाजूबंध - 'मानो किसी वीर शासक के शौर्य का स्मरण कराता है।Ó हाथ में लाठी और फरी होती है। उन्हें पूजा के समय काछन चढ़ता है जिसका अर्थ होता है कि उनके कुल देवता उनकी पूजा अर्चना से प्रसन्न होकर साक्षात् प्रकट होके आशीर्वाद देने आये हैं। प्राचीन काल में शासक जब रण भूमि से विजयी होकर अपने नगर वाद्य संगीत नृत्य गायन के साथ लौटता था, अहीर लोग भी उसी की भांति जब देवारी करने अपने स्वजनों के साथ निकलते हैं तो विभिन्न एवं विविध प्रकार के वाद्यों के संग अपनी सुरक्षा हेतु ढाल के रूप में फरी एवं तलवार के रूप में लाठी से संवर कर विभिन्न अहीर महोत्सव में अपने लोक संस्कृति को जन-जन में पहुंचाते हैं। वक्त के बदलते परिवेश ने गदरुम बाजा का रूप धारण कर लिया है।
अहीर महोत्सव मड़ई, रऊताही या कोई अहीर मेला हमें यह सीख देता है कि आज भी अहीर लोग अपनी गौरवशाली परम्पराओं, रीति-रिवाजों को अपने भावी पीढिय़ों के लिए बड़े ही सहेज कर रखे हुए हैं और योग्य हाथों में विरासत के रूप में देते आ रहे हैं। चाहे समय ने जैसी भी करवट ली किन्तु अहीर अपने दृढ़ता से इंच भर भी नहीं डिगे है। इस कम्प्यूटर, रोबोट युग में भी लोक संस्कृति को जीवन्त रखने की प्रेरणा भी अपने आप में एक मिसाल के साथ-साथ मील का पत्थर सिद्ध हो रहा है।
लाठी जैसे वफादार साथी पर कभी कोई प्रतिबंध नहीं लगा। अंग्रेजों के समय 144 धारा को छोड़कर। लाठी फरी की महिमा अपरम्पार है। लाठी आज भी घर-घर में अपना एक विशेष एवं विशिष्ट् स्थान रखती है।
लाठी सुरक्षा की है एक पहिचान, फरी देती है सदा जीवन दान।
लाठी का सही प्रयोग होता है तो अन्याय के प्रतिकार के लिए। न किसी के प्राण लेने के लिए बच्चे बूढ़े नर नारी सभी लाठी  के उपासक हैं क्योंकि लाठी जीवन में सुरक्षा कवच ही नहीं अपितु मार्गदर्शक बन कर कष्ट रूपी वैतरणी पार कराता है।
साभार - रऊताही 1998

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