Tuesday 19 February 2013

नृत्य नटवर मदन मनोहर

सनातन धर्म में एवं आर्यावत्र्त की संस्कृति में गो-सेवा को इहलौकिक एवं पारलौकिक सद्गति का मूल माना गया है। यदुवंश विभूषण श्री कृष्ण का अवतार ही माना गो सेवार्थ हुआ था और गो सेवा से प्राप्त शौर्य-माधुर्य त्रिलोक का अतिक्रमण कर यदुकुल की कीर्ति पताका बना।
गोपालन-संरक्षण वैश्य कर्म है, इस वर्ण पर शेष तीनों वर्णों के भरण-पोषण का भार हैं। श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है-
'हम वैश्य, चतुर्विध कर्म विहित हम करे ताता।
अब तक गोपालन कर्म मात्र करते आए।Ó
(श्रीमद्भागवत 10।24।29)
और यही गोपालन का सुकर्म ही अद्यपर्यंत यदुवंशियों की पहचान बना हुआ हैं। वेत्र-वेणु और पाश से सुशोभित कृष्ण की छवि माधुरी अब भी यादवों में झलकती है भौतिक विपन्नता में अपनी मस्ती एवं फक्कड़पन के लिए द्वापर से अब तक यदुवंशी पहचाने जाते हैं।
'पुर-गेह-ग्राम, जनपद कुछ अपना नहीं यहाँ,Ó
वन शैल निवासी गोपालक वनवासी हम।।Ó
(श्रीमद् भागवत 10।24।25)
श्री कृष्ण द्वारा इन्द्रयज्ञ का विरोध इन्द्रदेव का मानमर्दन करने के अतिरिक्त एक स्वावलंबी और क्रियाशील जीवन जीने की प्रेरणा भी हैं। वस्तु: भगवत गीता का कर्म योग यही अंकुरित हुआ हैं। व्यय साध्य देवयज्ञों के स्थान पर उपयोगितावादी-प्रकृतिवादी और पुरुषार्थवादी चिंतन प्रस्तुत कर गोवर्धन- पूजा, गौ पूजा करना प्रकृति के साथ मानव के जुड़ाव को परिलक्षित करता है। यज्ञ अदृश्य देवों के सम्मुख मनुष्य को याचक बना देता है किन्तु प्रकृति उसे श्रमार्जित वस्तु के उपभोग का संदेश देकर पुरुषार्थी बनाती है-
'नर तो स्वभाववश सकल कर्म करता जग में,
जग भी स्वभाव में स्थित, सुर-नर-असुर-सकल।
कर्मानुसार उच्चाधम तन पाते प्राणी,
यह कर्म सभी का गुरु-ईश्वर, है सखा मित्र।।Ó
(श्रीमद्भागवत 10।24।16-17)
अप्रतिम माधुर्य के मध्य गुम्फित शौर्य, यही श्रीकृष्ण की विशिष्टता है जो उन्हें अन्य अवतारों से अलग लक्षित करताहै। संघर्षों के भीषण नागों की फुफकारों के मध्य वेणु की तान पर पैरों की थिरकन अन्यत्र दुर्लभ है। प्रकृति के स्नेह आँचल में क्रीड़ारत, प्राकृतिक उपादानों  से सज्जित श्रीकृष्ण का श्यामल सौंदर्य आज भी मोह रहा है-
'पल्लव प्रसून से, मोरपंख से सजे सभी,
हो मुदित नृत्य करते, गाते थे ग्वाल-बाला।Ó
(श्रीमद् भागवत 10।18।9)
आज भी यदुवंशियों के इस नृत्योत्सव में मेरे नटवर प्रतिबिंबित होते हैं। वही बेफिक्री, वही फक्कड़पन, वही मस्ती, वही साज-सज्जा, वही वाद्य-गायन मुझे द्वापर के द्वार तक ले जाते हैं। इन्द्रध्वज की मनभावनी छटा और उत्तुंगता आज भी देवराज के दर्प का दलन कर रही है।
यह नृत्योत्सव शौर्य और माधुर्य का मणिकांचन योग है। भुवनमोहन यदुवंश भूषण नटवर श्रीकृष्ण की अल्हड़ता, मधुरता, चिंतन और सहज-सरल जीवंत व्यक्तित्व इस नृत्य महोत्सव में साकार हो रहा है।
वस्तुत: लीलापुरुषोत्तम की लीला का यह साभार स्मरण है। लगता है कि इन यादवों के मध्य आज भी मेरे नटवर नाच रहे हैं, सकल सिद्धियों के साथ/पंचभूतों के साथ सचराचर जगत नृत्यरत है। जीवन की जटिलताओं, संघर्षों और बाधाओं के बीच मेरे गोपाल का यह अलौकिक नृत्योत्सव चलता रहे, यही आकांक्षा है।
साभार- रऊताही 2000

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