Sunday 19 October 2014

छत्तीसगढ़ के लोकनृत्यों में 'राउत नृत्य'

मनुष्य अपनी आत्माभिव्यक्ति हंसकर, रोकर, गाकर या नाच कर व्यक्त करता है। वह जब अत्यधिक प्रसन्न हो जाता हैं खुशी से भर उठता है तब उसके अंगों में हलचल होने लगती है। पैर थिरकने लगते हैं हाथ हरकत करने लगते हंै। पूरा शरीर झूमने लगता है। इस प्रकार की आत्माभिव्यक्ति को हम नृत्य कहते हैं। नृत्य के द्वारा मनुष्य का मन दुख, कठिनाईयों जीवन की जटिलताओं से दूर हो आनंद के प्रवाह में प्रवाहित होने लगता है।
लोक जीवन की भावुकता को अभिव्यक्त करने वाली प्रकृति से प्रभावित बंधनहीन उन्मुक्त नृत्य को लोक नृत्य कहा जाता है। लोक नृत्य वस्तुत: प्राकृतिक नृत्य है क्योंकि जब मनुष्य ने हवा में पेड़-पौधों को हिलते और इठलाते देखा तो वह भी आनन्द विभोर होकर अपने शरीर को उसी प्रकार हिलाने-डुलाने लगा।
हिलाने-डुलाने से इस क्रिया ने धीरे-धीरे नाच का रुप धारण कर लिया और समय बीतने पर हम उसे लोकनृत्य कहने लगे। लोक नृत्य में सरलता, सर्वगम्यता अप्रत्यनशील सरलता स्वसर्जित वैविध्य में एकरुपता आदि विशेषताएं होती हंै। लोक नृत्य में जन जीवन की परम्परा, उसके संस्कार तथा लोगों का आध्यात्मिक विश्वास होता है। लगभग सभी लोक नृत्य सामूहिक होते हैं जो शास्त्रीय नृत्यों की तरह शास्त्रीय बंधनों और सीमाओं से परे होते हैं। शस्त्रीय एवं लोकनृत्यों में वही भेद है जो सीमाओं से आबद्ध तालाब तथा स्वच्छंद प्रवाहमान सरिता में है।
भारत  के चप्पे-चप्पे में अनुगूंजित लोक नृत्य ने लोक जीवन के हृदय को सुरक्षित रखा है। इस संदर्भ में श्री जवाहरलाल नेहरु के विचार उल्लेखनीय है- 'यदि मुझ से कोई पूछे कि भारत की प्राचीन संस्कृति और उसकी जनता के स्फूर्ति पूर्ण जीवन और कला प्रेम का सबसे सुन्दर चित्रण कहाँ होता है तो मैं कहूंगा कि हमारे लोकनृत्यों में।Ó
छत्तीसगढ़ ने हमेशा लोककलाओं जिनमें जनता के प्राणों का स्पन्दन है को जीवित रखा इसलिए यहाँ की लोक संस्कृति जीवित रही। यहां के लोकनृत्य एवं लोकगीत यहां की संस्कृति के सच्चे प्रतीक हैं। छत्तीसगढ़ में अतीत गौरव के प्रतीक लोक नृत्य किसी ग्राम उत्सव के समय प्राय: अपने पुरानेपन में भी सौन्दर्य को समाए मानव मन को आनन्दित एवं आकर्षित किये रहते हैं। डॉ. कुन्तल गोयल ने लिखा है -'छत्तीसगढ़ लोक नृत्यों की भूमि है। लोकनृत्य यहाँ के लोक जीवन के आधार हैं। प्रकृति के उन्मुक्त प्रागंण में विचरण करने वाले इन प्रकृति पुत्रों का वास्तविक स्वरूप इनके नृत्य में ही परिलक्षित होता है। सच कहा जाए तो नृत्य के बिना इनकी भक्ति अधूरी है, इनके कर्म अधूरे हैं और जीवन अधूरा है।Ó
छत्तीसगढ़ के लोक मानस ने गीत और नृत्य के माध्यम से अपने मन में उत्पन्न भावनाओं को अभिव्यक्ति प्रदान करने में विशिष्ट योगदान दिया है यहां के जन जीवन में नृत्य इस प्रकार  घुलमिल  गया है कि इसे कभी अलग नहीं किया जा सकता।
इनके रीति रिवाज इतने अधिक है कि प्रत्येक माह में एक न एक त्यौहार आता है और इस अवसर पर मानो नृत्य की घटा छा जाती है और गीत की वर्षा होने लगती है। इनके अनेकानेक त्यौहारों को नृत्य प्रधान त्यौहार कह सकते हंै।
छत्तीसगढ़ में विभिन्न लोकनृत्य प्रचलित है वे इस प्रकार हैं-
(1) करमा नृत्य (2) सुआ नृत्य (3) डंडा नाच (4) पंथी नृत्य (5) गोरा नृत्य (6) जंवारा तथा माता सेवा नृत्य (7) देवार नृत्य (8) गेड़ी नृत्य (9) सरहुल नृत्य (10) झूमर नृत्य (11) गवर नृत्य (12) नाचा (13) डोमकच नृत्य (14) डिड़वा नृत्य (15) रहस नृत्य (16) बार नाच (17) होलेडाँड़ नृत्य (18) दहिकाँदो नृत्य (19) वसुदेव व किसबिन नाच (20) राउत नाच
राउत नाच-
अब वांछित लेख 'राउत नाचÓ का विवरण इस प्रकार है- राउत नाच छत्तीसगढ़ का एक प्रमुख नाच है। इस नाच को राउत जाति के लोग बड़े उत्साह के साथ नाचते हैं। यह नृत्य कार्तिक एकादशी से प्रारंभ हो जाता है। इस नृत्य को प्रारंभ करने से पूर्व राउत जाति के बालक युवक व प्रौढ़ विभिन्न प्रकार के आकर्षक पोषाक धारण करते हंै। साज सज्जा के लिए पीले रंग का रामरज फूलों अथवा कागज के फूलों की माला सिर पर लपेटते हंै।
आँखों में रंगीन चश्मा, घुटनों तक मोजा, पैरों में जूते चुस्त धोती बाँधे व चुस्त कमीज व जाकेट पहन कर वे साक्षात वीर रस के अवतार प्रतीत होते हैं। हाथों में सुशोभित लाठी व दूसरे हाथ में ढाल बाँधे हुए अपने परंपरागत आन-बान शान का प्रतिनिधित्व करते हैं।
ये अपने हाथ में लाठी लिए हुए वादक गण को घेरकर नृत्य करते हैं। नृत्य करते हुए ये घर-घर जाते हैं और नृत्य के बदले गृह स्वामी से धन-वस्त्र आदि प्राप्त करते हैं। राउत नाच के पूर्णता विभिन्न सोपानों को पार करने पर ही प्राप्त है, वे सोपान इस प्रकार है-
1. अखरा-
अखरा शब्द हिन्दी के 'अखाड़ाÓ शब्द का अप्रभंश है। शौर्य और श्रृंगार के संगम राउत नाच की शुरुआत अखरा से की जाती है। राउत नाच में राऊतों को घंटों नाचना व शस्त्र संचालन करना पड़ता है। अखरा में वे बारंबार अभ्यास कर नृत्य कुशलता व देर तक नाचने की शक्ति प्राप्त करते हैं। अखरा, ग्राम के बाहर दइहान पर प्रतिस्थापित किया जाता है। कार्तिक एकादशी के समय इसे गोबर से लीप कर आम पत्तों के तोरण आदि से सजाया जाता है चारों कोने में पत्थर गड़ा कर देवताओं की स्थापना प्रतीक रुप में करते हैं। देव स्थापना के बाद नृत्य अभ्यास प्रारंभ हो जाता है।
 (2) देवाला -
राउत अपने निवास स्थान में एक पूजा कक्ष विशेष रूप से रखता है इसे ही देवाला कहते हैं। देवाला में मिट्टी से गोल या चौकोर आकृति का छोटा चबूतरा बना कर इसमें दूल्हादेव की स्थापना करके कुछ गोलाकार या त्रिशंकु पत्थर स्थापित कर दिये जाते हैं। देवाला में ही विभिन्न प्रकार के अस्त्र शस्त्र रखकर उनको नित्य पूजा की जाती हैं।
(3) काछन-
राउत देवालय में पूजा करने के पश्चात अस्त्र से सुसज्जित होकर एक विशेष भाव में भावाविभूत होकर बाहर आंगन में आता है। उस समय उसके शरीर में इष्ट देव आवाहित होकर विद्यमान रहते हैं, परिणामत: वह रोमांच से परिपूर्ण होता है इसी भाव को 'काछनÓ कहते हैं। काछन प्रत्येक राउत पर नहीं चढ़ता। यह कोमल एवं अत्यधिक भावानुभूति ग्रहण करने वाले राउत पर ही चढ़ता है।
(4) सुहई-
सुहई पलाश के धागे से बना हुआ तीन या पांच तागों से कलात्मक ढंग से गुथी हुई माला होती है। कार्तिक एकादशी के दिन चन्द्रोदय होते ही राउत अपने मालिकों एवं किसानों के घर जाता है और दुधारु गायों के गले में सुहई पहनाता है और आशीर्वचन के रूप में यह दोहा कहता है-
चार महीना चरायेंव खायेंव मही के मोहरा
आइस मोर दिन देवारी, छोड़ेंव तोर निहोरा।
(5) सुखधना-
सुहई बाँधने की प्रक्रिया के बाद राउत गृहस्वामी के अन्नागार (धान की कोठी) में सुखधना देने पहुंचता है। सुखधना का अर्थ है कि सुख समृद्धि, अन्न धन देने वाला। राउत एक थाली में सेम पत्ती चांवल, चंदन दीपबाती फूल और सुगंधित धूप लेकर कोठी के पास पहुंचता है और धनदेवी का चित्र बनाकर पूजा करता है। तत्पश्चात यह दोहा कहता है।
    अंगना लीपे चक चंदन-हरियर गोबर भीने।
    गाय-गाय तोर सार भरे बढ़हर है सै तीनों।
(6) राउत नाच एवं आशीष-
राउत दल सुसज्जित हो एक स्थान पर एकत्र होते हैं। तत्पश्चात घुंघरु की सुमधुर ध्वनि की झंकार गड़वा बाजे के गुदगुदरुम का मादक स्वर और दोहा पारने की वीरोन्मत शैली का प्रदर्शन करते हुए गलियों को निनादित करते हुए अपने मालिक के यहां पहुंचते हैं। मालिक के घर के सामने पहुंचते ही संबंधित राउत अपने आगमन की सूचना दोहा पार कर देता है-
ऐसन झन जानबे मालिक कि अहिरा दौड़ आये हो
बरीक दिन के पावन मं मुख दरसन बर आये हो।
वे स्वामी के आँगन में नृत्य प्रस्तुत करते है और नृत्य समाप्ति के पश्चात गृहस्वामी अपने आर्थिक स्तर के अनुरुप अन्न-वस्त्र एवं मुद्रा प्रदान करता है। इस समय आशीर्वाद स्वरुप राउत अपनी भावाभिव्यक्ति प्रगट करता है-
जइसे मालिक लिहे-दिहे तइसे देबो असीस।
अन्न धन ले घर भरै-जीओ लाख बरीस।।
(7) मड़ई- राउत नाच के अवसर पर स्थापित की जाने वाली मड़ई का बहुत महत्व है। यह राउत नाच का प्रमुख अंग है। इसलिए मड़ई राउत नाच का पर्याय बन गया है। मड़ई का अर्थ मंडप होता है।
भारतीय संस्कृति में प्रत्येक पवित्र कार्य पर मण्डप का उपयोग होता है। राउत नाच श्रीकृष्ण की स्मृति में किया जाने वाला नृत्य है। मड़ई, शाल्मली, बांस जैसे वृक्षों से बना 10-15 फुट का स्तंभ होता है। इसे रंग बिरंगी फूलों व कागजों से सजाया जाता है। इसके शीर्ष पर मयूर पंख व पलाश बाँधकर उसके साथ श्रीकृष्ण का चित्र नारियल व पूजा का सामान लटका देते है। मड़ई का निर्माण निषाद या गोंड़ जाति के लोग करते हैं तथा बनाने वाला ही मड़ई को लेकर दल के साथ चलता है। एक मड़ई के निमंत्रण पर अन्य मड़ईयां अपने दल के साथ पहुंच जाते हैैं। दल के सभी सदस्य नृत्य करते हुए इस मड़ई की परिक्रमा करते हंै। विभिन्न दलों के आ जाने से मेला सा लग जाता है इसलिए इस आयोजन को मड़ई मेला भी कहा जाता है।
(8) बाजार परिभ्रमण- बाजार परिभ्रमण राउत नाच का अंतिम सोपान है। इसे बाजार बिहाना भी कहते हैं। स्थानीय साप्ताहिक बाजार के दिन को ध्यान में रखकर ही मड़ई मेला आरंभ होता है। राउत नाच के विभिन्न दलों में प्रतिस्पर्धा होती है। उक्त क्रमबद्ध प्रक्रिया का परम्परागत रूप से आज भी पालन किया जाता है।
राउत नाच में लोक गीतों का संसार
राउत अपने उत्सव कार्तिक अमावस्या से मड़ई समाप्ति तक निरंतर दोहे कहते जाते हैं। इन दोहों में गंभीरता, कथा, जन जीवन अपने व्यवसाय से संबंधित वस्तुओं का वर्णनात्मक चित्रण व्यक्त करता है। छोटे-छोटे दोहों में बड़ी से बड़ी बात कह दी जाती है।
राउत दोहों में प्रमुखत: पर्व उत्सव से संबंधित जातिगत कार्य से संबंधित कवियों से संबंधित मौलिक एवं पारम्परिक दोहे, आधुनिकता से संबंधित दोहे आते है। इनका संक्षेप में क्रमानुसार उल्लेख इस प्रकार है-
पर्व उत्सव से संबंधित दोहे-
कृष्ण बाजत आवय बाँसुरी उड़ावत आवय धूल
नाचत आवय कन्हाई खोंचे कमल के फूल
लागत महीना भादों के आठे दिन बुधवार हो
रुप गुन महि आगर ले के मथुरा अवतार हो।
जातिगत कार्य से संंबंधित दोहे
तोर मां चदन रुख वजोर माढ़े दइहान हो
डारा-डारा माँ पंडरा बछुरा पाल्हा बगरगय गाय हो।
खाय दूध धौरी के बइहां रखे भोगाय
चार कोरी तोर सेना बर राउत बइहां देहय उड़ाय।
संत कवि से संबधित दोहे
चित्रकूट के घाट में भई संतन की भीर
तुलसीदास चंदन घिसै तिलक देय रघुवीर।
मौलिक एवं पारम्परिक दोहे
बरीख दिन के पावन मां संगी मुख दर्शन बर आये हो
ऐसन देवारी नाचे संगी जीव रहे कि जाय हो।
सदा भवानी दाहिनी सम्मुख रहे गनेश
पांच देव रक्षा करें ब्रह्मा, विष्णु, महेश।
5 आधुनिकता से संबंधित दोहे
सतयुग त्रेतायुग द्वापर बीतगे धरती घलो बुढ़ागे
देवता धामी मन पथरा लहुटगे, नीति धर्म गंवागे।
पंच परमेश्वर बनिन अन्यायी मचगे हा हा कारगा
जनता मन अनजान बनिन अठ नेता मन बटमारगा।
6. विविध दोहे
चिरई मां सुंदर पतरेंगवा सांप सुघर मनिहार
रानी मां सुघर कनिका मोहत हे संसार।
संगत करले साधु के भोजन करले खीर
बनारस मां बासा कर ले मरना गंगा तीर।
राउत नाच ऐसा नृत्य हैं जिसमें श्रृंगार रस और वीर रस का अद्भुत संगम है। अपनी विशेषता और आयोजन की विशालता के कारण राउत नाच ने छत्तीसगढ़ के लोक नृत्यों में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया है। छत्तीसगढ़ में राउत नाच जितने उल्लास और व्यापकता के साथ प्रदर्शित होता है उतना भारत वर्ष ही क्या पूरे विश्व में शायद ही कोई लोक नृत्य प्रदर्शित होता हो।
इस राउत नाच में निहित मनोरंजन, शिक्षा, विकास एवं सभ्यता की झलक स्पष्ट रूप से दर्शकों को आनंदित व लाभान्वित करती है। छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध इस लोक नृत्य ने अपनी विशिष्टता के कारण लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। लोगों का यह आकर्षण छत्तीसगढ़ की कला और संस्कृति के प्रति अनुराग को प्रदर्शित करता हैं जो कि राष्ट्रोत्थान का एक शुभ चिह्न है।
 
 

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