Thursday 30 October 2014

लोकगीत : मानव जीवन का विराट महोत्सव

हमारे समाज में जो कुछ घटित होता है, लोक उसके  सकारात्मक पक्ष को ग्रहण करके और दीर्घ चिंतन से उत्पन्न अपनी सोच में उसे ढालता है अर्थात् आत्मसात् करके पुन: समाज को लौटा देता है। भारत बहुसांस्कृतिक दृष्टि सम्पन्न राष्ट्र है अत: लोकमानस की डगर -पनघट बहुत कठिन है किन्तु प्रकृति मंच पर लोकजीवन के सभी कथानक एक होकर घुल जाते है। लोककण्ठों में समाया प्रकृति रस वहाँ कभी मंत्र बनकर तो कभी गीत बनकर बाँसुरी-शंख सा बजता है। लोकजीवन की 'कहावतेंÓ 'सूक्तिÓ बनकर हमारे लोकमानस को परिभाषित करती है और कभीा यही लोकरसायन, कथा -गाथाओं में अनेक रूपों में नायक-प्रतिनायक बनकर अभिनय करता है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने 'अशोक के फूलÓ में इसे व्याख्यायित करते हुए गंगा की अबाधित -अनाहत धारा के समान सब कुछ को हजम करने के बाद भी पवित्र माना है और इन्हीं लोकगीतों में लोकमानव रहता है, गुनगुनाता है और सब कुछ सघन करता है। यही लोकगीत, लोककथा उसकी प्रेरणा है, उसकी जीवन शाक्ति है, जिसकी अंत: प्रेरणा ही उसे निराश होने से
बचाती है।
इन गीतों में मन की उन्मुक्त उड़ान के साथ जीवन की गहरी समझ है, शिक्षा के साथ जीवन खास सभी एक है। यहाँ व्यक्ति सत्य के स्थान पर सामाजिक सत्य की प्रतिष्ठा है। कुण्ठाओं और तनावों के दमघोंटू वातावरण में यह लोकचेतना ठण्डी हवा का झोंका है जिसमें माटी की भीनी -भीनी गंध है। यह लोकसाहित्य जीवन और संस्कृति के 'मौलीसूत्रÓ हैं और भारतीयता तथा अस्मिता के 'मण्डपकलशÓ है।
यहाँ कृ ष्ण की बाँसुरी के स्वर के साथ ,ख्याल और लावनी की भूमि इन लोकगीतों में सांस होती है, तथा आल्हा और अलगोजा जीवन का सार्वभौमिक रूप प्रस्तुत करते है।
भक्ति गीत, संस्कार गीत, ऋतुगीत, जातिगीत से लेकर जीवन के विविध पक्ष से जुड़े इन गा्रम्यगीतों में दुख: सुख विरह-श्रृंगार, धर्म का आहलाद, दर्शन का गांभीर्य, इतिहास की ललकार समाहित है। यह लोक परम्परा मनुष्य और प्रकृति के बीच में व्यक्त व अव्यक्त के बीच में संबंध स्थापित करती है। पं. विद्यानिवास मिश्र ने लोक का अर्थ माना है, 'इंद्रियगोचर संसार, जो इंद्रियों द्वारा अनुभूत होता हो, जिसका प्रत्यक्ष अनुभव होता हो। Ó एेसे अनेक उदाहरण हमारे जीवन में देखने को मिलते हैं। ट्रेन के डिब्बे की खिड़कियों को टटोलते हुए सूरदास  ऊंचे आलाप में गाता हुआ मिल जायेगा-'पिया मोर, मति जाओ पुरूबवा, पुरब देस मा टोना बेसीबा, पानी बहुत कमजोर, सुनत बानी आँख पानी देत बा, सारी भइल सरबोर, एक नाथ बिनु मन अनाथ रही, घुसी महल में चोर।Ó गायक को यह भ्रम है कि बिदेसिया उसके स्वर से प्रभावित होकर 'बिदेसÓ नही जायेगा? क्योंकि वह भोला-भाला युवक पूरब जाने के मर्म को क्या समझेगा। वह बिदेसिया पूरब अर्थात् कलकत्ता रोजगार के लिए गया है लेकिन उसकी पत्नी को यहाँ की रूपवती बंगालिन से डर है- 'प्यारो देसा तनी देखेद हम के , जात आवत में देरी न लागी जल्दी से भेजब सनेसा ,बल-बुद्धि से रोजे कमाइब, नगद माल हरमेस।Ó यही नकद हरमेस (हमेशा)ही  पूरब का आकर्षण था। घर में थोड़ी 'बतकहीÓ हुई कि 'धरे टीसन की बाटÓ। सीधे हाबड़ा स्टेशन, कुलीगिरी और हाथ रिक्शा खींचकर जो कुछ कमाया, उसे लेकर फिर वापस गाँव। गाँव आते ही सभी लोक कहने लगे-'ललबा त, अब लाल बाबू बन गए।Ó भौजी के लिए स्नो-पाउडर,बाबूजी के लिए सेनगुप्ता की धोती, मां के लिए तांत साड़ी, कुछ नगदी जो हाथ में पहुँचने से पहले ही महाजन झटक लिए,  गांव भर में सनसनी- 'अरे ललबा त, बाजी मार लीहलस, हई देख                   ,एतना देख .....। Ó विवश नौजनावों की टोली कलकत्ते की राह पकड़ते है। इसके साथ शुरू होती है वह दारूण कथा, जो बिदेसिया संस्कृति को जन्म देती है। 2  ये लोकगीत, लोककंठ से फू टते हैं अत: उनमें लोकजीवन की संवेदना और अनुभूति की एक सहज स्वाभाविक धड़कन होती है। सत्य चाहे जीवन का हो या लगातार परिवर्तित होते सामाजिक-राजनीतिक परिवेश का, लोकगीत सत्य को पूरी आँच के साथ अभिव्यक्ति देने में सर्वथा सशक्त और समर्थ है। अवध में चरखा चलाते समय महिलायें जो गीत गाती हैं उसमें लगभग सभी गीतों, में चरखा और सूत के साथ गांधी जी का नाम किसी न किसी रूप में आता है।  एक गीत में महात्मा गांधी को दूल्हा बनाकर प्रस्तुत गीत में चरखा को गतिशील बनाने का प्रयत्न किया गया है-'मोरे चरखा के टूूंटै न तार, चरखवा चालू रहे , गांधी महात्मा दूल्हा बने हैं, दूल्हिन बनी है सरकार, चरखवा चालू रहे। सारे कांग्रेसवा बने है बराती, पुलिस बनी है कहार, चरखवा चालू रहे। Ó इस लोकगीत में दूल्हा, दूल्हिन, बराती तथा कहार आदि प्रतीकों के माध्यम से राष्ट्रीय भावनाओं की सुंदर अभिव्यक्ति के साथ-साथ यह दृढ़ संकल्प भी किया गया है कि स्वतंत्रता की भावना हम सबमें सदैव बलवती रहे। इन गीतों में एक अद्भूूत संास्कृ तिक  ऊष्मा  और लालित्य है, साथ ही अभिव्यक्ति की एक खास ललक भी दृष्टिगत होती है।
कुछ गीतों में आज की बढ़ती हुई मंहगाई की कटु आलोचना की गई है। यह कटु सत्य है कि जब पेट में भूख की ज्वाला प्रज्वलित होती है, उस समय किसी भी प्रकार के गीत अच्छे नहीं लगते है निम्नलिखित बिरहे में इसी प्रकार का वर्णन है-'मंहगी के मारे बिरहा बिसरि गयौ, भूलि गई कजरी धमार। देखि के गौरी का जुबना, अब उठै न करेजवा मा पीर ।Ó किसी भी समाज के यथार्थ चित्र का अवलोकन लोकागीतों में किया जा सकता है। रीति-रिवाज, आचार-विचार, रहन-सहन, विश्वास-पंरपरा सब कुछ इन गीतों में निहित है। दहेजप्रथा जैसी सामाजिक बीमारी का उल्लेख भी इन लोकगीतों में मिलता है-'उइ कनवजिया दायज बहु मांगै तुम्हरे बूते दियौ न जाएÓ साथ ही परिवार में कन्या जन्म को संकट के रूप में भी चित्रित किया गया है- 'जब बेटी तुम पैदा भई, छायी अँधेरी रात Óलोकगीतों में लोकमानस का हृदय बोलता है, प्रकृति स्वंय उनमें गाती और गुनगुनाती हुई अनुभव की जाती है। नीले आकाश के चंदोवे तले प्रकृति के बहुरंगी परिवर्तन, विविध स्तरों पर रहस्यमयी आभा बिखेरने वाली सृष्टि के विभिन्न रूप इन लोकगीतों के प्रधान विषय रहे है।
सावन के महीने में गाई जाने वाली 'कजलीÓ अवध प्रदेश के ग्रामीण अँचल के प्रमुख ऋतुगीतों में से एक है। कजली होली की तरह खेली जाती है। कजरी तीजपर्व भाद्रपद के कृष्णपक्ष की तृतीया को मनाया जाता है। इसकी पूर्व संध्या से आरंभ होने वाली रात 'रतजगाÓ के रूप में मनायी जाती है जिसमें सारी रात जागकर गाते बजाते इस पर्व को नमन करते है। कजरी भी खेली जाती है-
'कइसे खेलै जइबू सावन में कजरिया, बदरिया घेरि आई ननदी, तू त जात है अकेल , संग में संगी ना सहेली ,छैला छेकि लेहिहैं तोहेरी डहरिया, बदरिया घेरि आई ननदी।Ó पूरे पूर्वांचल में बरसात भर  'कजरी Óका गायन होता है। ये गीत बहुत प्रचलित हैं और पीढिय़ों से चले आ रहे है। श्रंृगार के पर्व पर नायिका मेंहदी लगाने की इच्छा व्यक्त करते हुए पति से आग्रह करती है-'पिया मेंहदी लियाय मोतीझील से , जायके साईकिल से ना। जाके मेंहदी लियाय दा, छोटी ननदी से पिसाय दा, अपने हथवा से लगाय दा काँटा कील से जायके साईकील से ना।Óहमारे समाज में स्त्रियों को दोयम दर्जे का स्थान मिला है और पुत्री का जन्म ही दुख का कारण माना जाता है। निम्नलिखित लोकगीत में नीम के पेड़ से लड़की की माँ में साम्य स्थापित किया गया है। लड़की अपने पिता से कहती है, 'पिताजी नीम के पेड़ को मत काटना क्योंकि नीम के पेड़ पर चिडिय़ा बसेरा करती है। पिताजी किसी की बेटी को दुख नहीं देना चाहिए, क्योंकि बेटियाँ भी चिडिय़ा की तरह होती है। जिस प्रकार चिडिय़ों के उड़ जाने से नीम का पेड़ अकेला रह जाता है , उसी प्रकार जब लड़कियंा ससुराल चली जाती है, तो मां भी अकेली रह जाती है-'बाबा निमिया के पेड़ जिनि काटेउ, निबिया चिरैया बसेंर ,बुलैया लेउ बीरन। बाबा बिटियउ जिनि कोउ दुख देय, बिटिया चिरैया की नाई, बलैया लेउ बीरन। सबेरे चिरैया उडि़ जइहै, रह जइहै निबिया अकेलि, बलैया लेउ बीरन। सबेरे बिटियां जइहैं ससूरारि, रहि जइहै माई अकेलि, बलैया लेउ बीरन।Ó भारतीय संस्कृति में वृक्ष प्रकृति के अनूठे वरदान माने गए है- वृक्षों में देवी-देवताओं का वास होता है। अत: उनकी पूजा-अर्चना करना कल्याणकारी माना गया है। हमारी संस्कृति में नीम, पीपल, तुलसी, आंवला, चंदन आदि वृक्षों का विशेष महत्व है। आम्रपल्लव प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान का अनिवार्य तत्व माना जाता है। लोकगीतों मेंं नीम वृक्ष का उल्लेख 'शीतला माताÓ के स्तुतिगान के रूप में मिलता है-'निबिया के डारी मैया झूलेली हिंडोलवा हो कि झूली-झूली। मैया गावेली गीतिया कि झूली-झूली ना। सूतल बाड़ू  कि जागिलै मालिन, उठि घोड़ा पनियां पियाऊ, कि झूली-झूली ना।Ó आरोग्यता और शुचिता की प्रतीक 'तुलसीÓ के पौधे का कार्तिक मास में विशेष पूजा की जाती है। सांयकाल तुलसी के पौधे के निकट दीप जलाना भी वातावरण को पवित्र बनाता है-'चारि महीना तुलसी सैयेउं कातिक दियना बारेउं, तुलसी जब मोरे होइहैं होरिलवा त पियरी चढ़ाव । भा आनंद आइस शुभ घरिया , तउ  होरिलवा जनम लिहे बाजै लाग अनंद  बधैयां, गावै सखियां सोहर, नउआ रगिर हरदिया ता तुलसी क पूजी ।Ó विवाह के अवसर पर गाये जाने वाले 'सगुनÓ लोकगीतों में वक्तव्य, कहीं गंभीर करूण एकालाप और कहीं बातचीत की लय में छोटे-छोटे संदर्भ चित्रों में भी पर्यावरण और वृक्षों को याद किया गया है-'निहुरि-निहुरि बाबा तुलसी लगावइँ, अमवा लगाइवँ  अकेलि। जहँवा कै तुलसी हुवइँ चली जइहइॅ, रहि जइहइँ उनमवा अकेलि जवनी की बिटिया धिया मोरी रोइहइॅ, बजर के छतिया हमारि। Ó इन गीतों में संगीत अपनी पूर्ण सरसता और समरसता के साथ विद्यमान रहता है। ऋतु गीतों में झूले के गीतों में सावनी बहार की भांति मीठी फुहारें हैं तो फाग गीतों की पनपनी अलग मस्ती है। विवाह के गीतों में हर्ष है तो बेटी की विदाई की मार्मिकता भी है। श्रमगीतों मेें श्रम के कारण श्वांस के उतार -चढ़ाव का प्रभाव इन गीतों की धुन पर स्पष्ट है। डॉ. चिंतामणि उपाध्याय लोकगीतों में संगीत के महत्व को बताते हुए कहते है-'संवेदनशील मानव हृदय के भाव सहजत: जब मुख से अभिव्यंजित होते है, स्वर एंव लयबद्ध हो जाने के पश्चात् एक निश्चित धुन गेय पद्धति में प्रकट होते है। इन लोकधुनों की संख्या अनन्त है। भारत के प्रत्येक जनपद में जितने भी लोकगीत प्रचलित है,उनकी विशेष धुने है,ये धुन निसर्ग सिद्ध है। इन्हीं लोक धुनों में भारतीय संगीत के प्रत्येक राग छिपे है।Ó4 चाहे भाषा को लें या संस्कृति को ,वैदिक विचार अपने मूल स्वरूप में आज भी लोकसाहित्य की धरोहर बने हुए है। धर्म और दर्शन की विविध परतें है, जो भारतीय संस्कृति की सही पहचान कराने में सक्षम है। लोकगीतों में ऐसे सूत्र हैं जो केवल राष्ट्र को ही नहीं पूरे विश्व को जोड़े रहने में सक्षम भूमिका निभा सकते है। यह जुड़ाव केवल मनुष्य का मनुष्य के साथ नहीं बल्कि चर-अचर, सम्पूर्ण सृष्टि को एक रागात्मक संबंध में जोड़ता है। गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की  उक्ति इस संदर्भ में उल्लेखनीय है- 'आधुनिक भारत की संस्कृति एक विकसित शतदल के समान है जिसका एक -एक दल, उसकी प्रान्तीय भाषा, साहित्य और उसकी संस्कृति है। किसी एक को मिटा देने से उस कमल की शोभा नष्ट हो जायेगी। हम चाहते हैं कि भारत की सब प्रांतीय बोलियां जिनमेंं सुंदर साहित्य की सृष्टि हुई है, अपने घर में रानी बनकर रहें। प्रातं के जनगण की हार्दिक चिंता की प्रकाशभूमि स्वरूप कविता की भाषा होकर रहें, और आधुनिक भाषाओं के हार की मध्यमणि हिन्दी, भारत-भारती होकर बिराजती रहे।Ó लोकगीत हमें विरासत में मिले है। ये मौखिक -परंपरा का अवगाहन करते सहजानुभूति से सम्पन्न है- साथ ही समाज, समुदाय और राष्ट्र की धरोहर तथा पहचान है। देवेन्द्र सत्यार्थी ने लोकगीतों को जीवन के बीच से कहकर सम्बोधित किया-'कहाँ से आते हैं ये लोक गीत? कुछ अट्टहास, कुछ उदास हृदय से। जीवन के खेत में उगते हैं वे सब गीत । कल्पना, भावना, नृत्य का हिलोरा भी अपना काम करती है। जीवन के सुख-दु:ख ये है लोकगीत के बीज।Ó5 अस्तु लोकगीतों में मानवमन की संवेदना है। मानव-समाज के सांस्कृतिक विकास के पहरेदार हैं ये लोकगीत। जो जन-मन की गहराई से जोड़े हुए है: ये एेसे वटवृक्ष हैं जिनकी छाया में जीवन की संवेदनाओं को शांति, शीतलता और आनंद की प्राप्ति होती है।
साभार रउताही 2014
 

No comments:

Post a Comment