Thursday 30 October 2014

काया की अमरता और नश्वरता का संदेश गायन है : खँजेरी भजन व गीत

छत्तीसगढ़ की संस्कृति अत्यन्त वैभवशाली एवं काफी समृद्ध है। यहाँ लोकगीतों की विपुलता है। एक ओर छत्तीसगढ़ 'धान का कटोरा' है, तो दूसरी ओर यहाँ लोकगीतों की  'माई कोठीÓ भी है। जहाँ अनेक लोकगीतों का अक्षुण्ण भंडार है। इसमें मनुष्य के जन्म से लेकर सोलहों सस्ंकारों में लोकगीतों का सुंदर अवगुम्फन है। इनके माध्यम लोकशिक्षण भी होता है। प्राचीन समय से जबकि आज की तरह सूचना एवम् संचार के पर्याप्त और प्रभावी साधन नहीं थे, तब लोक संस्कृति के यही विधाएँ लोगों की जीवन को दिशा-बोध कराती थी। लोगों की अपार श्रद्धा व विश्वास इन विधाओं पर थी। लोक घंटों , कभी-कभी रात-रात भर तक आसन पर बैठकर गाते बजाते थे, वहीं दर्शक श्रोता मंत्रमुग्ध होकर श्रवण करते थे। कलाकार और दर्शक एकदम आमने-सामने होते थे।  छत्तीसगढ़ संस्कृ ति में परम्परा से प्रचलित खँजेरी भजन भी इसी तरह की लोकविधा है, जहाँ गायक दल और श्रोता ठीक आमने-सामने होते हैं।
प्राचीन पृष्ठभूमि :  लगभग दो सौ वर्ष पूर्व तक छत्तीसगढ़ में  खड़ी साज नाच की परम्परा प्रचलित थी। तब किसी तरह का चबूतरा, चौरा, सांस्कृतिक मंच ग्रामों में नहीं होता था। लोककलाकार रात-रात भर खड़े होकर नाचते, गाते व बाजा बजाते थे। तब वे रामायण, महाभारत, सूर,मीरा, तुलसीदास, कबीरदास, बहमानंद, परमानंद  के भजनों को गाते थे। कुछ दिनों बाद संत-समागम परम्परा से प्रभावित होकर लोग एक स्थान, चौक, चबूतरा, परछी चौरा पर बैठ कर लोक भजन गाने लगे। साथ में ताल वाद्य बजाकर उसे रोचक बनाने लगे। तब से प्रदेश की लोक सस्ंकृति में खँजेरी भजन का प्रचलन हो गया। यह प्रदेश की अति प्राचीन लोकविधा है। यह विलुपता की कगार पर है, पर नवोदित राज्य के अनुरूप कु छ क्षेत्रों के बुजुर्ग कलाकार इस विधा को समृद्ध करने का प्रयास कर रहे है।
नामकरण : लोकसंस्कृति में प्रचलित लोकविधाओं  गीत, नृत्य, तीज-पर्वो का नाम हमारे बुजुर्गों  केे द्वारा अपने जीवन के लंबे अनुभवों के अनुरूप रखा गया है। इस तरह के भजनों का स्वंय हमारे बुजुर्गोँ द्वारा गायन किया जाता है। वे अब प्रौढ़ता को पार कर चुके होते हैं। अत: अपने तन की नश्वरता , अंतिम पड़ाव, सद्गति प्राप्त होते , जीवन के सार तथ्यों को लोगों  के सम्मुख रखने की दृष्टि  से मनुष्य शरीर की कोमलता, नश्वरता, क्षणभंगुरता को अनेक उद्धरणों के माध्यम से रखने का प्रयास करते हैं। यही कारण है,कि इस तरह के लोक भजन को काया खंडी भजन कहा जाता है। इसे खँजेरी भजन भी कहा जाता है क्योंकि इस तरह के भजनो का गायन करते समय खँजेरी नामक लोक वाद्य का उपयोग गायकों के द्वारा किया जाता है। कुछ इसे निर्गुणी भजन भी कहते है। 
खँजेरी लोक वाद्य : हमारे बुजुर्गों  के द्वारा  आज भी लोकवाद्यों का निर्माण व वादन अत्यन्त कुशलता के साथ किया जाता है। काया खण्डी भजनों को गाते समय बजाए जाने वाले वाद्य खँजेरी का निर्माण भी हमारे बुजुर्गों द्वारा स्वंय कर लिया जाता है। बाजार में मिल जाने पर खरीद भी लेते हंै। खँजेरी वाद्य लकड़ी की छोटी खोल लगभग आठ-दस इंच व्यास वाले गोलाकृति पर सामने की ओर गोल की खाल मढ़ा होता है। यह अवनद्ध वाद्य है। इसमें तीन-चार जगह घेरों पर घँुघरू का गुच्छा लगा दिया जाता है। इस तरह इसमें एक साथ दो वाद्यों का वाद्न हो जाता है। यह एक तरह  से एकांत लोक वाद्य है। इसमें दूसरे कलाकार या ताल वाद्य की आवश्यकता नहीं होती । गायक स्वंय खँजेरी का वाद्न करते हुए भजनों का गायन करते है। इस वाद्य को बारहों मास बजाया जा सकता है। इसे एक-दो हथेली ढोंक कर ठीक सूर पर लाया जाता है। फि र जब तक चाहे वादक लयबद्धता के साथ गाते-बजाते है। इस को रखना भी सरल होता है। कहीं आते-जाते समय भी गायक आसानी से ले जाते हैं। पर इसका वादन किसी साधना से कमतर नहीं होता। निरतंर अभ्यास के द्वारा इसका वादन सीखा जा सकता है।
भजन के विषय : खँजेरी भजन आज भी ज्यादातर हमारे प्रौढ़ व बुजुर्ग गायकों, कलाकारों द्वारा गाया जाता है। जीवन का काफ ी गूढ़ व संघर्षपूर्ण अवस्थाओं को पार कर चुके होते हैं। एेसे में इनके द्वारा काया का मोहभंग हो चुका रहता है। तब वे काया की नश्वरता, आत्मज्ञान,आध्यात्म, पवित्रता व परमआनंद की प्राप्ति को जीवन का लक्ष्य मानने लगते हैं। इसमें गायक लोकजीवन से जुड़े विषयों, संस्कारों, सूर, मीरा, तुलसी, कबीर चैतन्य महाप्रभु, परमानंद,ब्रह्मानंद सहित अन्य स्थानीय गुरूओं, संतों , उस्तादों द्वारा रचित गीतों को खँजेरी भजन के साथ गाते हैं। क्योंकि वे ज्यादातर प्रौढ़ महिला -पुरूषों के बीच भजन गाते हैं, तब वे इनकी रूचि व जीवन अवस्था का ध्यान रखकर गीत गाते है। इसका केन्द्रीय भाव काया का मोह छोड़कर परम् गति यानी स्वर्ग प्राप्ति की भावना मूल होती है। वेदांग जीवन जीने की संकल्पनाएँ भजनों में मौलिक रूप से होती है।
खँजेरी गीतों के प्रकार :  भले ही लोग या कलाकार इस तरह के गीतों को काया खण्डी भजन की संज्ञा देकर भक्ति-भावना में डूब से जाते हैं। पर इन भजनों, गीतों के सूक्ष्म अध्ययन से इसमें तीन तरह के लोकगीतों का समावेश होता है-
1) काया खण्डी : इस तरह के लोक भजनों में मानुष तन की नश्वरता, क्षण भंगुरता, पानी खरी बात के उद्धरणों द्वारा लोक मानस को यह कह कर जागृत करने का सुप्रयास किया जाता है, कि इसे भगवत् भजन करते हुए, माया-मोह, घमंड का त्याग कर सद्भावनापूर्ण जीवन जीने की प्रेरणा शामिल होता है। जैसे :
दिन चारी मैहरवा मं,
खेली लेतेंव ओ दिन चारी।
चार गज चर गजी मॅंगावेय,
चढ़े काठ कर घोड़ा.....
अऊ घोड़ा जी ......
चार संत तोला बोली कर लेगे,
तोर कमर के कटी डोरा जी 'Ó
मैहरवा मं खेली लेतेंव दिन चारी ।
जीयत भर तै खाबै पीबे,
करबे भोग बिलासा।
काल उड़ाही हँसा तन के ,
माटी मं मिल जाही राखा ।।
मैहरवा मं, रवेली लेतेंव दिन चारी ।
हाड़ जरे तोर बन कस लकड़ी,
केंस जरे बन घासा...
अरे अउठ हाथ के बोला जरगे,
माटी मं मिल जाही सखा।।'Ó
मैहरवा मं,
खेली लेतेंव दिन चारी ............
दिन चारी मैहरवा मं,
खेली लेतेंव दिन चारी .......।।
इस भजन में यही मुख्य बात है कि  'प्रौढ़ावस्था के पूर्व मानुष शरीर प्राप्त करने का वास्तविक सुख भोग लँूँ । अंत में यह काया मिट्टी में मिल जाना हैÓ को स्पष्ट किया गया है। यह भजन कायाखण्डी श्रेणी में शामिल है। इस स्थिति में सद्गुरू की संगति, संतों का सानिध्य प्राप्त करके तथा भगवत् भक्ति की आेर मन लगाने की प्रेरणा भजन गायकों द्वारा दी जाती है ।
2) धार्मिक :  भजन तो  सदैव धार्मिक ही होते हैं। पर खँजेरी भजनों में गायकों  लोक प्रचलित आस्थाओं पर केन्द्रित भजन भी गाए जाते हैं। इस काम में रामायण, महाभारत अन्य वेद-पुराणों की कथा प्रसंगों, विशेष रूप से शिव जी पर आधारित भजनों का लोकधुनों में सुंदर ढंग से गायन किया जाता है। जैसे :
'खड़े रह गए कानिसटेबल,
सोए रह कप्तान।
पैदा हुए कृष्ण भगवान।।
काले-काले मेघ गरजते,
उमड़-घूमड़ चंहु ओर बरसते
रात अंधेरी बिजली चमके,
माता देवकी का दिल धड़के।
कैसे बचेंगे प्राण का प्यारा,
अब तक कंश ने सबको मारा।।
यही आँठवाँ पुत्र है मेरा,
दुश्मन का है सब तरफ  घेरा ।
फि र भी किसी ने कुछ न बिगाड़ा,
चहँू और खड़े हैं शैतान ।।
पैदा हुए भगवान ,
सोए रहे कप्तान ..........
श्री वासुदेव सूप में धर के ,
जमुना पार किए धर कर सर्पे।
जमुना उमड़ गयी चरण पकडऩे,
वासुदेव देव जी लगे अकडऩे।।
यों सोचा फि र वासुदेव जी ,
मौत कहे डर जान ।।
पैदा हुए भगवान...........
सोए रहे कप्तान .............।।
इस भजन में द्वापर युग की घटना का उल्लेख है, जब राजा कंस ने अपनी मौत का कारण बहन देवकी के आठवें पुत्र को बनने की बात आकाशवाणी से सुनी थी। तब से वह वसुदेव और बहन देवकी को मथुरा की जेल में बंदी बना लिया था। चारों ओर से सैनिक -सिपाहियों की पहरेदारी के बाद भी श्रीकृष्ण का जन्म हुआ और वसुदेव जी उफ नती यमुना जी को पार करके बालक  कृष्ण को माता यशोदा के पास छोड़ आए। यह  खँजेरी भजनों में धार्मिक श्रेणी में शामिल है। इस तरह के गीतों में धार्मिक कथा-प्रसंगों को शामिल किया जाता है।
3) छैलानी :
इसे युवा वर्ग के लिए गाया जाता है। इसमें संयोग श्रँृगार के गीत होते हैं। कभी-कभी प्रदेश की लोक संस्कृति में प्रचलित प्रेम गाथाओं जैसे लोरिक चंदा, दशमत कैना, रेवा-मालिन सहित अन्य क्षेत्रीय गाथाओं को भी लोक भजन व लोकगीत के रूप में खँजेरी गायक गाते हंै। चँूकि ज्यादातर खँजेरी भजन राऊत, ठेठवार समुदाय के लोग गाते हैं, एेसे में परम्परागत् रूप से अपने समुदाय के वीर नर-नारियों, नेतृत्वकर्ताओं, महापुरूषों, रक्षकों, नायक-नायिकाओं के जीवन-प्रसंगों का गायन का विषय अवश्य बनाते हैं। तब यह छैलानी श्रेणी में आता है। समय और समूह  को ध्यान में रखते हुए एेसे संयोग श्रँृगारपरक और प्रेमगीतों को भी खँजेरी गीतों के रूप में गाया जाता हैं। इसमें कुछ गीत बेहद लोकप्रिय भी हुए है।
जैसे :
'तोर मन कइसे लागे राजा ....।
महल भीतरी मं , तोर मन कइसे लागे ...।।
नहर के पानी रेंगा ले टारे-टार ।
मया वाले तेहा होबे आ जाबे पारे-पार ।।
तोर मन कइसे लागे राजा ....।
ऐसों के अमली  फ रे ल चेपटी,
ऊपर छावा तोर मया भीतर कपटी।।
तोर मन कइसे लागे राजा ....।
पिपर पाना डोलत नइ हे।
क ा होगे टूरी ल बोलत नइ हे।।
तोर मन कइसे लागे राजा ....।
तोर मन कइसे लागे राजा ....।
महल भीतरी मं , तोर मन कइसे लागे ...।।Ó
सर्जक समुदाय : प्रादेशिक संस्कृतियों को सृजित करने से लेकर इसे प्रेषित करने, निरंतर समृद्ध करने में किसी न किसी समुदाय व कबीला विशेषज्ञ का योगदान अवश्य होता है। इस काम में खँजेरी भजन की परम्परा को प्रारंभ करने का श्रेय छत्तीसगढ़ में राऊत और  ठेठवार समुदाय को है। पशु चारण के समय एकांत रहकर लोक जीवन को समझने व समुदाय के बीच रखने का प्रयास इन लोगों द्वारा सदैव किया जा रहा है। आज भी इस परम्परा को राऊत -ठेठवार और इनकेे साथ संगति करने वाले लोग ही खँजेरी भजन में  दक्ष हैं। पर बाद के क्रम में कबीरदास के प्राकट्य के साथ ही कबीर के पदगान, संगत में भी खँजेरी वाद्य का प्रयोग किया जाने लगा । तब कबीरपंथ के गायक भी खँजेरी भजन शैलियों को अपनाने लगे। वर्तमान में किसी खास जाति समुदाय से हटकर खँजरी लोक गायन की परम्परा प्रचलित हो गयी है। जहाँ उस्दातों की संगति में लोकगीत गातें हैं, और अपने को पवित्र भाव  से भरने का सद्प्रयास करते हैं।
समय : खँजेरी भजर ज्यादातर सावन-भादों के मास में गाया जाता है। चँूकि इस  समय चौमासा होता है। लोग धान को रोपाई,निंदाई व ब्यासी करके लगभग खाली होते हैं। लगातार झड़ी व वर्षा के कारण बाहर घूम-फि र नहीं पाते , तब लोग चौक-चौपाल पर बैठ कर मनोरंजन के लिए लोक भजन गायन व श्रवण करते हैं। इसके साथ ही शिशु जन्मोत्सव, दशगात्र , वैवाहिक कार्यक्रम सहित अब आयोजित होने वाले लोक कला महोत्सवों में भी खँजेरी भजन दल को विशेष पहचान मिलने लगी है।
दशा और दिशा : वर्तमान में खँजेरी भजन परम्परा लगभग विलुपता की कगार पर है पर दीप पूर्णत: सुप्त नहीं हुआ है। इसे वातावरण देकर पुन: प्रज्वलित किया जा सकता है। प्रदेश के कई क्षेत्रों साजा, मोहतरा, अहिवारा, धमधा, बेरला, सिरसोकला जैसे स्थलों में आज इसके कलाकार जीवंत है, जो अपने व समुदाय के प्रोत्साहन से खँजेरी भजन परम्परा को जीवित रखे हैं, इन्हें व्यक्तिगत, सामुदायिक व शासन स्तर पर प्रोत्साहित करने की जरूरत है। यह प्रदेश की संस्कृति की भजन व लोकगीत विधा की अत्यन्त महत्वपूर्ण विधा है। समय रहते इसे समृद्ध करने की जरूरत है। प्रदेश की विशिष्ट सांस्कृतिक विधा के रूप में पहचान देकर स्थापित करने की जरूरत है, ताकि यह परम्परा समृद्ध हो सके । प्रदेश के दूरदर्शन केन्द्र, आकाशवाणी सहित स्थानीय चैनलों के संचालकों द्वारा खँजेरी भजन को प्राथमिकता के साथ आगे लाने की जरूरत है।
साभार रउताही 2014
 

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