Thursday 30 October 2014

लोकगीत

भारतवर्ष में अनेक भाषायें, उपभाषायें, बोलियाँ , बोली जाती हैं। इन भाषाओं में अनगिनत लोक-गीत है, जो अपने - अपने प्रदेश के रीति -रिवाजों, परम्पराओं, उत्सव, महोत्सवों, प्रेम, विरह, फ सलों  के  कटने  पर  खुशहाली को रेखाकंन करता है । लोक-गीत साहित्य, समाज का दर्पण होता है ।
हर प्रदेश का लोकगीत अपनी विशिष्ट विशेषताओं से परिपूर्ण होता है।
 'डॉ. शिवन कृष्णा रैणा- लिखते है कि कश्मीरी लोकगीत वण्र्य विषय  व शिल्प की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध-परिपुष्ट तथा उत्कृष्ट हंै, यहां के लोकगीतों में स्वर माधुर्य के संग-संग सजीवता व सरसता कूट-कूटकर भरी पड़ी है। कश्मीरी लोक-गीतों में संस्कार, ऋतु तथा त्योहार संबंधी गीतों का विशेष योगदान होता है । संस्कार संबंधी कश्मीरी लोकगीतों को मुण्डन, यज्ञोपवीत, विवाह व मृत्यु आदि के गीतों के अंतर्गत बांटा गया है। मुण्डन संस्कार को कश्मीरी में  'जरकासयÓ कहते हैं, और संस्कृत में  'चूड़ाकर्म Ó गोस्वामी तुलसीदास ने भी  'चूड़ाकर्मÓ कीन्ह गुरूआई कहकर इस संस्कार की प्राचीनता प्रमाणित की है ।
राजस्थान की गंगा, मांगणियार, ढोली कालबेलिया आदि जातियों के लोकगीत प्रसिद्ध हैं।
भारत की हर भाषा में सास-ननद, देवर पर अनेक लोकगीत प्रचलित हंै। डोंगरी में भी हजारों लोकगीत हैं, हर त्योहार , हर संस्कार मौसम, और सिपाहियों की पत्नियों के मन की असीम दर्द, पीड़ा और वेदना के अनगित लोकगीत हैं।
पंजाब की पावन धरा पर रचे जाने वालो  'ऋ ग्वेद Ó में सर्वप्रथम गीतों के रूप में पूजागीत, विवाह गीत, चरवाहों के गीत, चरखे के गीत, विष झाडऩे के गीत, मृतक संबंधी गीत और लोक साहित्य में लोकगीतों की अहम भूमिका है ।
भोजपुरी में लोकगीतों - में संस्कार गीत, ऋतुगीत, त्यौहार गीत, रसगीत, जातियों के गीत, जयगीत,बालगीत आदि।
तमिल के लोकगीतों में वात्सल्य और शहदत के समावेश मिलते हंै। लोकगीत एकल, सामूहिक जन जीवन की अंर्तआत्मा में प्रवाहित होकर अभिव्यक्ति के रूप में प्रदर्शित होता हैं। लोकगीत में माधुर्य और प्रभावोत्पादकता निहित है। लोकगीतों के माध्यम से समाज और जाति की प्राचीन और वर्तमान की वास्तविक संवेदनाओं को एक स्वर मिलता है । लोकगीत जनमानस के कंठ से निसृत है।
लोकगीतों की महत्ता को उल्लेखित करते हुए लाला लाजपतराय ने एक पत्र में लिखा है- कि  'Óदेश का सच्चा इतिहास और उसका नैतिक व सामाजिक आदर्श इन गीतों में ऐसा सुरक्षित है, कि इनका नाश हमारे लिए दुर्भाग्य की बात होगी।
लोक गीतों में अचंल की भीनी-भीनी खुशबू की महक चहुं दिशा में बिखेरती रहती है।
विदेशों में लोकगीतों की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है, पाश्चात्य देशों के लोकगीतों में एक बड़ी विशेषता दिखाई पड़ती है। यह कि उनमें किसी पात्र या घटना को के न्द्रित कर रचा जाता है। भाषा सहज और सरल होती है, जिससे लोकगीत जनमानस के हृदय में सहज ही समाहित हो जाये, और उसमें वे खो जायें ।
केरल की लोकगीत परम्परा प्राचीन है। लोकगीत हिन्दी, आंग्ल, पंजाबी, तमिल, कन्नड, तेलगू, मलयालम, उडिया, असमी, कश्मीरी, मराठी, गुजराती, छत्तीसगढ़ व देश विदेश की अनेक भाषाओं व बोलियों में समाहित है। अलग-अलग देश, राज्य मे ं निवास करने वालों की अपनी मौलिकता के अनुरूप रीति-रिवाज परम्परा के अनुसार लोक गीत रचित हैं। जो उनके मन में एक उमंग-उत्साह की अमृत धारा प्रवाहित करती रहती है। कभी किसी विशेष पात्रऔर घटनाक्रम के परिवेश में लोकगीत गढ़ा  जाता है।
लोकगीत मानव जीवन में वह साँसे पैदा करने की सामर्थ रखते हैं, जो आज के वैज्ञानिक युग में कभी-भी सम्भव नहीं हो सकती , अभी तक कोई भी प्रणाली एेसे कारगर पग नहीं उठा सकी जिससे लोकगीतों की ज्योति को बुझा सकें, हमारे सम्पूर्ण परिवेश में आज भी एक अहम भूमिका निभा रहे हंै, क्षेत्रीय परम्परा और वहाँ की रीति-रिवाजों का उजाला हमें उस क्षेत्र विशेष के लोकगीतों से ही ज्ञात होता है,सामाजिक , आर्थिक  , नैतिक स्थिति का पता वहाँ के लोक साहित्य लोक-गीतों से पता चलता है।
लोकगीत भोगी हुई पीड़ा का यथार्थ की झलक और जातिगत भाव भंगिमा को अंर्तआत्मा में समाहित किए हुए होते हैं, लोक-गीत उन तमाम जातियों को टूटने से बचाते हैं, जो वर्तमान में उनकी स्थिति को विचलित करने के लिए कदम-कदम पर बाध्य करती रहती हंै। लोकगीत आत्मीय काव्य की धरा मानवेत्तर सृष्टि की परिचायक होते हैं, एेसे लोकगीत समूची सृष्टि के  लोक जीवन की अनमोल धरोहर होते हंै, कभी रिक्त न होने वाला खजाना है ।
लोकगीत को लिखने की प्रेरणा गीतकार को अपने आस-पास के परिवेश एंव समाज में घटित होने वाले कालखण्डों से मिलती है-
लोकगीत क्या है, हृदय का उद्गार है।
जीवन के घटनाओं से रूबरू होने भवसागर है
सत्यतम, सुंदरम् शिवम् से जोडऩे का सूत्रधार है,
सपनों के सुनहरे इतिहास का अनमोल संसार है।
वधिक के बाण से आहत मादा क्रोंच पक्षी को देखकर वाल्मीकि के हृदय से अचानक  मा निषाद प्रतिष्ठाम् शब्द निकलना इस तथ्य के साक्षी हैं।
लोक-गीत की प्रत्येक स्थान की प्रकृति , भौगोलिक परिस्थिति रहन-सहन रीति-रिवाज, खान-पान एंव आस्थाओं  से ओत-प्रोत रचा बसा होता है। लोक -गीत ग्रामीण संस्कृति का एक अभिन्न अंग होता है।
करमा गीत भी लोकगीत का रूप ही है। लोकगीत करमा  के माध्यम से आदिवासी महिला-पुरूष अपने आराध्य देव की पूजा-अर्चना एंव वंदना करना है। करमी वृक्ष से  करमा की उत्पत्ति हुई है, जिसे कर्म (काम) का अधिष्ठाता देव माना जाता है। जब कार्य से लौटकर रात्रि भोजनोपरांत किसी गुड़ी या सार्वजनिक स्थल में महिला और पुरूष एकत्र होकर गीत गाते -नाचते मस्ती में झूमते हैं, जिसे करमा कहा जाता है।
सुआ गीत आदिवासी समाज की महिलाएँ व छोटी लड़कियाँ धान से भरी बांस की टोकरी में दो मिट्टी का सुआ (तोता)रखकर दीपावली के  साथ नृत्यकर शिव-पार्वती से आर्शीवाद मांगती हंै। उन्हें घरों से पैसा, रूपया, धान मिलता है,सुआ गीत के माध्यम से महिलाएं परदेश गये-पति के विरहव्यथा को व्यक्त करती हैं। इस सुआगीत में अपने पति तक संदेश पहुंचाने की बात शामिल करती है। इस गीत को विरह गीत भी कहते हैं, सुआगीत दीपावली से पूर्व पडऩे वाले पुण्य नक्षत्र से प्रारंभ होकर देव उठनी एकादशी और फ सल कटकर खलियान में आने के बाद से रवी की खेती प्रांरभ होने तक सुआ नृत्य चलता रहता है।
पंथी गीत व नृत्य का शुरूवात  की संत बाबा गुरूघासीदास  'Óजी के श्रेष्ठ पुत्र  गुरू अमरदास Ó जी ने की थी । वे परमयोगी थे, और वे गुरूघासी दास जी के आदेर्शों को आत्मसात  कर के समाज मेें व्यापक प्रचार-प्रसार करना चाहते थे। पंथी गीत और नृत्य मानव जीवन के सत्य का समावेश है। पंथी गीत आत्मिक लोककल्याणकारी की भावनाओं के ओत-प्रोत होता है। पंथी गीत और नृत्य देश में ही नहीं विदेशों में धूम मचा चुका है ।
लोकगीत में इतिहास के पन्नों में भी अंकित है, ब्रज में राधा और कृ ष्ण तो  राजस्थान में ढोला और मरवरण से सम्बद्ध लोकगीत मिलते हैं। छत्तीसगढ़ के रतनपुर (रत् ननगर) ,श्रीपुर इत्यादि स्थानों के इतिहास में देवारों के लोकगीत का भी अपनी भूमिका है। डॉ. छोटेलाल बहरदार के शब्दों में   'लोकगीतों का समाजशास्त्रीय में रेखांकित किया है कि लोकगीत सामान्य जन-जीवन के बीच गुंजने वाली बाँसुरी की तान है, उसके अंदर की धड़कन है, और है उसके सुख-दुख , हर्ष-निषाद तथा संस्कृति की एक साफ  - सुथरी तस्वीर । Ó
जॉन मेयर, लुई पाउण्ड आदि सैद्धांतिकों के अनुसार-'सारे लोकगीत किसी व्यक्ति की रचना है, बाद में समाज ने अपनाया और गाया।
एफ  बी गमरी,  डब्ल्यु यू एम हार्ट जैसे विद्वानों का कथन में लोकगीत अपने निजी रूप में समूह नृत्य के उल्लास और उमंग की उपज है।
छत्तीसगढ़ की पावन माटी में अनेक लोक-गीत अपने खुशबूओं  से सारे विश्व को महका रहा है।
पण्डवानी- महाभारत के पात्रों के बीच के संवादों को इस महाविधा के माध्यम से गीत-संगीत और भूमिका के द्वारा देश -विदेश में इसका सफ ल संचालन कर रहे हैं।
भोजली-सावन के महिने में भोजली का पर्व मनाया जाता है। छोटी-छोटी बच्चियाँ, किशोरियाँ, महिलायें बड़े उत्साह के संग सावन के उजियारी पक्ष में अष्ट्रमी के दिन छोटी-छोटी टोकरियों में रेत मिश्रित मिट्टी भरकर उसमें भीगे हुए गेहँू व जौ के दाने को बो देते है। राखी के दूसरे दिन इसमें अंकुुर फट आता है। इसी पूजा- अर्चना का बड़े उल्लास व कही गाजे-बाजे के संग भोजली गीत गाते हुए - देवी गंगा, देवीगंगा, लहर तूरंगा हो लहर तूरंगा जल्दी जल्दी बाढ़ा, भोजली को नदी, तालाब में विसर्जित करते हैं । फि र भोजली एक दूसरे को देती । इस दिन लड़कियाँ व महिलायें भोजली देकर सखी-भोजली बदती है, और तमाम उम्र भर इस रिश्ते को निभाती ।
ददरिया ग्रामीण अचंलों में जब धान की फसल कटती है, तो सांध्य ढले महिलायें विभिन्न व रंग बिरंगी लुगरा  (साड़ी) पहनी कान और सिर में मौसमी  फूल लगाये अपनी सखियों के संग ददरिया गाती घर की ओर वापस होती हैं, तो लगता है। सारा ग्रामीण परिवेश ददरियामय हो उठा हो। मानो प्रकृति की परी बेटियाँ स्वर्ग से उतर कर खुशियों कोई मधुरमय अलाप छेड़ दी है। उनके इस लोकगीत में सहज सरल माधुर्यता के वीणा के झंझार गूंज उठती है।
ग्रामीण क्षेत्रों व शहरी उत्सवों में जब ददरिया की मधुर -मधुर वाणी कानों को कर्ण प्रिय की अनुभूति का अहसास कराती है। यदुवंशियों का वीरता का पर्व देवारी दीपावली के बाद प्रबोधनी एकादशी से यह पर्व प्रारंभ होकर यदुवंशी समाज इसे करीब पंद्रह दिनों तक मनाता है। रावत समाज का यह पर्व छत्तीसगढ़ का लोकपर्व है क्योंकि इसका सीधा संबंध अन्य समाज से सहज ही जुड़ जाता है। यह पर्व निर्मलता पूर्ण बिना भेदभाव, राग द्वेष से कोसों दूर है।
जनमानस में लोक -साहित्य, लोकगीत जिसमें समष्टि का सुख-दुख-जय-पराजय, हर्ष-निषाद, आचार-विचार, रहन-सहन संस्कार, परम्पराएँ प्रतिबिंबित होती हंै, लोकगीत में यादवों के दोहों में इन्द्रधनुषीय छटा बिखेरती है। रऊताही, मड़ई बाजार बिहाने का दृश्य अति मनभावन होता है।
छ.ग. का एक और लोक गीत बांस गीत गायक द्वारा गीत गाता और बीच-बीच में बाँसुरी की तान छेड़ता।अब बहुत ही कम ग्रामीण व शहरी क्षेत्र में सुनाई पड़ता है।
शिशु के जन्म से लेकर मानव की अन्येष्टि तक के समूचे चित्र लोकगीतों में शोभायमान हो रहा है। प्रत्येक ग्रामीण-शहरी अचंल की अपनी परम्पराओं से जुड़े तीज, त्यौहार, विवाह संस्क ार, देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना व अनेक अवसरों पर भारतीय संस्कृति की अनमोल निधि है और इसे बड़े ही जतन व सहेज कर भावी पीढ़ी को सौपना है।  ताकि वे अपने अतीत के सुनहरे पलों का इतिहास गर्व से आत्मसात कर सदियों - सदियों तक आगे बढ़ाते रहं। लोकगीत की अमृत धारा जनमानस में अनवरत् बहती रहे। यही शुभकामनायें है, बाध्याओं की आंधी तो आती रहेगी, युग परिवर्तन के संग।
साभार रउताही 2014
 

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