Thursday 30 October 2014

भोजपुरी लोकगीत सोहर

लोक साहित्य संस्कृति का सहज संवाहक होता है। निर्बन्ध, अलिखित, जन-जीवन की झाँकी प्रस्तुत करने वाली विधा के रुप में लोकगीतों का अपना विशिष्ट महत्व है। इसमें लोक जीवन साँसे लेता है। प्रत्येक क्षेत्र में अपने कुछ विशेष लोकगीत होते हैं, जो लोक गायकों द्वारा समय-समय पर गाये जाते हैं, जिनके माध्यम से हमें वहाँ के जनजीवन के बारे में जानकारी मिलती है। ये लोकगीत शब्दों के हेर-फेर से अपना स्वरुप बदलते रहते हैं, परन्तु भाव ज्यों के त्यों विद्यमान रहते हैं। इनका गायन, श्रवण, लोक जीवन में आनंद की सृष्टि करता है। ये व्यक्तिगत न होकर समष्टिगत होते हैं। इनके माध्यम से पारिवारिक संबंध, सुख-दु:ख, मेल मिलाप, उत्तरदायित्व बोध, सामाजिक संबंधों और व्यावहारिक पक्षों के साथ ही अधिकार और कत्र्तव्य, रीति, परम्परा, रुढिय़ों, भाषाई वैविध्य, स्थान विशेष की सामान्य जीवन पद्धति का निदर्शन होता है।
भारत विविध संस्कृतियों रुपी पुष्पों का एक सुन्दर गुलदस्ता है। जहाँ प्रत्येक फूल की अपनी पहचान है, परन्तु वह एक ही गुलदस्ते में सजा है।
बिहार प्रान्त के भोजपुर जिले सहित उसके आसपास के जिलों में बोली जाने वाली भोजपुरी भाषा, अपने आप में एक श्रेष्ठ साहित्य समेटे हुए हैं। यहाँ के जन अपनी भाषा, संस्कृति की रक्षा में सदैव तत्पर रहते हैं। वे विश्व में जहाँ-जहाँ गये भारतीय संस्कृति को न केवल जीवित रखा, बल्कि उसे पुष्पित पल्लवित भी किया। यह जिला एक ओर उत्तरप्रदेश से, दूसरी ओर बिहार से जुड़ा है। बंगाल भी पड़ोसी राज्य है, अत: इस पर विविध संस्कृतियों का प्रभाव परिलक्षित होता है।
देश के अन्य भागों की तरह यहाँ भी सुसंस्कृत जीवन का समग्र निर्माण सोलह संस्कारों के माध्यम से होता है। इन संस्कारों के द्वारा समाज विशेष अपने सदस्यों को अपनी रीति-नीतियों के अनुसार संस्कारित कर अपने समाज के अनुकूल बनाता है। इन अवसरों पर कुछ विशेष विधि-विधान, पूजा पाठ किये जाते हैं, कुछ लोकाचार निभाये जाते हैं। जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होते रहते हैं। देखने में साधारण, ये लोकाचार अपने में महत्वपूर्ण अर्थ छिपाये रहते हैं। इन अवसरों पर गाना बजाना, नाचना, स्वांग भरना, हास्य विनोद करना आदि जीवन में रंग भर देते हैं।
पुंसवन संस्कार के पश्चात जब घर में किसी नये सदस्य का जन्म होता है, तब परिवार, जाति, बिरादरी, टोले मोहल्ले मे उमंग छा जाती है। यह प्रसन्नता मात्र माता-पिता की न होकर पारिवारिक के साथ-साथ सामाजिक होती है। इन अवसरों पर जिन गीतों को टोले-मोहल्ले, घर परिवार की बड़ी बूढिय़ों, बहू-बेटियों द्वारा गाया जाता है उन्हें सोहर कहते हैं। सोहर की परंपरा भोजपुर में ही नहीं है, यह बिहार, उत्तरप्रदेश, छत्तीसगढ़ में भी पुत्रजन्म के अवसर पर गाया जाता है। जहां तक इनके संवहन का प्रश्न है, स्त्रियाँ ही इनकी संवाहक है। जब कन्या ब्याह कर अन्यत्र वधू बनकर जाती है, तब अपने साथ स्थानीय लोकाचार, लोकगीत, लोकगाथा, रीति व्यवहार आदि अपने अदृश्य रुप से लेकर जाती है। कालान्तर में मायके ससुराल की संस्कृति में मेल मिलाप होता है और संस्कृति अपने जूड़े में एक और पुष्प टाँक लेती है।
'सोहर तीन प्रकार से गाया जाता है-
(1) देवता जगाना
(2) सोहर
(3) खेलौना
देवता जगाना : जैसे ही किसी के घर पुत्र का धरती पर आगमन होता है। दाई बाहर निकलकर फूल काँस की थाली हँसिया से बजाती है। जिसकी ध्वनि पूरे टोले-मोहल्ले को ध्वनित करती है। सब समझ जाते हैं मानव वंश में वृद्धि हुई है।
तत्काल बड़ी: बूढिय़ाँ एकत्र होकर अपने पूर्वजों को इसकी सूचना देने के लिए नाम ले लेकर जगाने लगती है।
आवहू गोतिया रे आवहु गोतिनि आरे...ऽऽ
गाई रे जगाव हू शिवमुनि बाला-जनमे ले नाति नू हो।
वे अपने कुल के प्रत्येक पूर्वज को जगाकर यह शुभ सूचना देती हैं कि आपकी आत्मा की शांति के लिए तर्पण करने वाला धरती पर जन्म ले चुका है। आप आनंदित होकर आशीष दें।
समय देखकर तय कर लिया जाता है कि कब सोहर गाने बैठा जाय? शाम, रात या दोपहर जब सभी एकत्र हो जांय, मिल बैठती हैं । बैठने के लिए ऐसी जगह का चयन किया जाता है जहाँ से गीत प्रसूता के साथ नवजात को भी श्रवण गोचर होता रहे।
बरही तक प्रतिदिन सोहर गाये जाते हैं। ये ज्यादातर राम कृष्ण के जन्म से संबंधित होते हैं, कुछ में माँ न बन सकने की पीड़ा तो कुछ में गर्भावस्था में कुछ विशेष खाने की अभिलाषा या पुत्र जन्म की खुशी  में देवी-देवता पूजन का आख्यान समाहित रहता है। बधाई सूचक सोहर भी गाये जाते हैं। इनमें 'देवताÓ जगाना बड़ी बूढिय़ों की ओर से प्रारंभ होता है। इसमें ढोलक की आवश्यकता नहीं होती, वस्तुत: यह पूर्वजों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने वाला सोहर होता है। अब बहू-बूटियाँ सोहर प्रारंभ करती हैं, इसमें दोनों तरह के सोहर होते हैं झाँझ ंजीरा ढोल सहित या गाना मात्र।
जहाँ तक बन पड़ता है पहले पहल बधाई वाला सोहर उठता है इसे 'कढ़ानाÓ कहते हैं। एक ने सोहर कढ़ाया बाकी साथ देने लगती हैं।
देखिए एक बानगी :
बाजन बाजे सत बाजन
नउबति बाजन हो
राजा राम लीहसे अवतार (आवृति)
अयोध्या के मालिक हो।
हंक्रहू नग्र के धगडिऩ बेगे चलि आवहू हो,
धगंडिन छीन ना रमइया जी के नार
त अबटी सुताबहू हो।
तब धगडिऩ कहती हैं-
मचिया ही बैठी कोसिला रानी,
बड़ी चउधराइन हो,
रानी हम लेबो सोने के हंसुआ-2
त रुपवा के खापड़ी हो,
रानी हम लेबो सोने के हंसुलिया
त राम के नेछावरि हो...ऽ....ऽ...
पहिरी ओढिय़ धगडिऩ ठार भइली,
चउतरा चढ़ी मनावेली हो
आरे बंस बाढ़ों रे, फलाना राम के
बँस बरिसइने हम आइंबि, बरिसइने हम आइबी हो।
इस सोहर में चारों वर्णों के महत्व का प्रतिपादन हुआ है। बहुत दिनों बाद राजा के घर पुत्र हुआ है। सास रानी हरकारों को दौड़ाती है, जाओ ! जल्दी से धगडिऩा (दाई) को बुलाकर लाओ! ताकि वह राम जैसे शिशु की नाल काटे और तेल मालिश करके सुला दे।
दाई आती है, वह भी अवसर को समझती है, आज वह जो चाहे गृहस्वामिनी से नेग स्वरुप माँग सकती हैं। वह कौशिल्या जैसी सास से कहती है- आप तो बड़े दिल और रसूख वाली हैं। मैं बच्चे की नाल काटने के लिए सोने का हँसिया लूंगी, उसे उठाने के लिए चाँदी की खपड़ी लूँगी (बच्चे की नाल काटने के बाद टूटे मटके के अद्र्ध गोल भाग में रखकर उसे दाई उचित स्थान पर गड़ाती है) बच्चा कोई साधारण नहीं है, वह तो राजकुमार है। साथ ही मुझे नेग के रुप में सोने की हँसुली (गले में पहनने का आभूषण) न्यौछावर चाहिये।
सब कुछ प्रसन्नतापूर्वक दिया जाता है। पहन ओढ़कर दाई चबूतरे पर चढ़कर आशीष देती है, कि वह वंश बढ़े, ऐसा हो कि प्रतिवर्ष मैं आऊँ। इस सोहर में आगत शिशु के बाबा, दादा, चाचा आदि का नाम क्रम से लिया जाता है।
मातृपद प्राप्त करना स्त्री जीवन की पूर्णता है। संतानहीन स्त्री किसी भी कीमत पर सन्तान सुख प्राप्त करना चाहती है, चाहे उसके जन्म से उसे सुख मिले या दु:ख।
देखिए :
ऊँच मंदिल पुर पाटल बेतवा के छाजनि हो,
राजा राम लीहले अवतार अजोध्या के ठाकुर हो
धावहू नग्र के पंडित, बेगे चलि आवहू हो,
ऐ पंडित काढऩ ऽ....ऽ... पोथिया पुरान-2
कइसन राम जनमे ले हो?
रोहिनी नक्षत्रे राम जनमे
बहुत सुख पइहनि हो
कोसिला बरहो बरिस के जब होइहें त
बने चलि जइहनि हो-2
तब बौखलाकर  (स्त्री)
कौशिल्य कहती है-
कइसन हवे...ऽ...ऽ तुहु
पंडित कइसन पोथी हवे हो?
पंडित बोलिया कुबोली बोले हो,
पंडित जिभिया पर धर बो अंगार
त देस से निकालबि हो।
वह जानती है कि भाग्य से कोई नहीं लड़ सकता है अत:धीरज धर कर कहती-
बरहो बरिस के राम हाइहें-2
त बने चलि जइहनी हो
ललना छुटले, बंझिनियाँ के
नांव बलइया से राम बने जइहें हो।
इस सोहर में परंपरात्मक क्रियाकलापों के दर्शन होते हैं। दाई के बाद पंडित को बुलाया जाता है, संतान के भविष्य के प्रति उत्कंठा स्वाभाविक है। माता पंडित से पोथी निकालकर राम जन्म के समय ग्रहगोचर के बारे में जानना चाहती है। पंडित कहते हैं- राम का जन्म रोहिणी नक्षत्र में हुआ, उन्हें जीवन में बहुत सुख मिलेगा, किन्तु जब ये बारह वर्ष के होंगे तब वन चले जाएंगे।
माँ का कलेजा चाक हो जाता है, वह तड़प उठती है। ऐसी अशुभ बात बोलने वाले पंडित को धिक्कारती है- यह क्या बोल रहे हैं? मेरा मन हो रहा है कि आपकी जीभ पर अंगारा रख दूँ या देश से निकलवा दूँ।
स्त्री का भाग्य पर अटूट विश्वास होता है वह जानती है कि पंडित की पोथी झूठ नहीं बोलती, मन को कड़ा करके कहती है- कोई बात नहीं! राम वन जाएंगे तो आ भी जाएंगे। मेरा बाँझिन का नाम तो छूट गया। यह सोहर बड़े से बड़े दु:ख में स्त्री के धैर्य को रेखांकित करता है।
नि:संतान स्त्री के हृदय की व्यथा को प्रकट करता हुआ एक सोहर देखिए-
गंगाजी के ऊँच अररवा,
तेवइया एक रोलवे हो ऽ...ऽ...ऽ
गंगा जी अपनी लहरिया मोही दिहितु त,
हम मरि जाइति होऽ....ऽ....ऽ
सुतलि गंगा उठि बइठेली, चिहाई उठि बइठेली हो,
ऐ तेवई कवन संकट तोरा परले,
अधियराति रोवेलू हो-2
किया तोरे सासु ससुर दु:ख
नइहर दूरि बसे हो,
ऐ तेवई किया तोरे कान्ता बिदेसे
कवने दु:ख रोवेलू हो।
नाहि मोरे सासु ससुर दु:ख
नइहर दुरि बसे नइहर दूरि बसे हो,
गंगा जी, नाही मोरे कान्ता विदेसे,
कोखिय दु:ख रोइले कोखिय दु:ख
रोइले हो-2-3 आवृति
अपनी हम उम्र स्त्रियों की गोद में खेलते बालक को देखकर स्त्री को अपने संतानहीन होने की व्यथा गहरे तक सालती है। घर, परिवार, रिश्तेनातेदारों के व्यंग्य बाण उसे घायल करते हैं, वह देवी देवताओं से मन्नते माँगती है, यहाँ तक कि अद्र्ध रात्रि में गंगाजी के ऊंचे कगार पर खड़ी होकर रुदन करती कहती है- हे गंगा जी! जरा अपनी लहरे ऊँची  कर दो! मैं तुम्हारी गोद में समाना चाहती हूँ। उसका करुण क्रन्दन सुन, सोइ हुई गंगा जी चौककर उठ जाती हैं और उससे पूछती हैं, तुम्हें किस दु:ख ने इतना दु:खी कर दिया? क्या तुम्हारे सास-ससुर तुम्हें कष्ट देते हैं या मायका बहुत दूर है या फिर तुहारे पति परदेशी है? बोलो क्या कष्ट है? तब वह कहती है, न तो मुझे सास-ससुर का दु:ख है न मायका दूर है और ही मेरे पति परदेशी हैं, मैं तो कोख के दु:ख से रो रही हूँ।
गंगा जी कहती हैं- अब तुम अपने घर जाओ साथ ही मेरा आशीर्वाद लेती जाओ, आज से ठीक नौ माह बाद तुम पुत्रवती होगी। तब स्त्री प्रसन्नता से अभिभूत कहती है- हे माँ! यदि आपका आशीर्वाद सत्य हुआ तो मैं आपके घाट सोने से मँढवा दूंगी, चाँदी की सीढिय़ाँ लगवा दूँगी।
रंगमहल में गोरी सी पतली सी रानी राजा से खिलवाड़ करती है, वह कहती है मुझे पियरी की बड़ी साध है, ला दीजिये।
तब गोरे से पतले से राजा कहते हैं तुमतो बचपन से ही बाँझ हो! पियरी तुम्हें शोभा नहीं देगी। प्रिय की ऐसी मर्मभेदी वाणी सुनकर प्रिया मर्माहत होती है। चादर से मुँह ढांककर अन्दर वाले कमरे में सो जाती है।
बाहर से छोटा देवर भाभी को पुकारते आता है। उसका उदास मुख देखकर पूछता है कि तुम्हें क्या तकलीफ है? तब वह कहती है कि तुम्हारे भइया ने ऐसा व्यंग्य किया कि मेरा कलेजा फट गया।
तब देवर कहता है- तुम तो भाभी पागल हो, इसमें उदास होने की क्या बात है ? खोंइछा (आँचल) में तिल चांवल लेकर देवता से प्रार्थना करो।
देव की कृपा से समय पर रानी पुत्रवती होती है तब पति रंगरेज से पियरी और सोनार से तिलरी लेकर मनाने आते हैं। नायिका मान करती है और कहती है कि मैं तो बाँझ हूँ न, यह सब मुझे कहाँ शोभा देगा?
इस सोहर में पति-पत्नी के संबंधों में आने वाली खटास के साथ देवर भाभी  के पवित्र रिश्ते को उजागर किया गया है। सबकी बात तो स्त्री ही सह लेती है परन्तु पति की व्यंग्य भरी वाणी सहना बहुत कठिन हो जाता है। विविध बिम्बों की रचना करते असंख्या सोहर भोजपुरी में गाये जाते हैं। विषय विस्तार से बचने के लिए इस सोहर के तीसरे रुप खेलौना की चर्चा करते हैं। इसे नई उम्र की बहू बेटियों के हिस्से का माना जाता है। बीस-पच्चीस सोहर के बाद उन्हें संकेत किया जाता है कि अब शुरु करो खेलौना या उठान। इसमें बच्चे के आने से घर में छाई खुशी, मिलती बधाईयाँ, नंनद भाभी की हँसी ठिठोली, नेग के लिए मीठी लड़ाई, जच्चा का नग देने से कतराना और ननद का हठ करके लेना, रीति-रिवाज की बातें होती हैं, लोकनृत्य होता रहता है। लोक कलाकार अनसीखे नृत्य का सम्पादन करते हैं। इस पर आज कल सिनेमा के गीतों का विशेष प्रभाव परिलक्षित हो रहा है।
कुछ खेलौने-
बबुआ रुन मुन झुन मुन अंगना
सोहावन अइले नाऽ...ऽ...ऽ।
अपना बाबा के खरचा करावन अइले ना नाऽ...ऽ...ऽ।
अपना दादी के चोरिका लुटावन अइले नाऽ...ऽ...ऽ।
ननद भौजाई की ठिठोली का यह मोहक बिंब
ननदिया मांगे फूल झाड़ी रे...2
भाभी सभी गहने, बरतन आदि देने की कोशिश करती है लेकिन ननद नहीं लेती बल्कि सब गदहों में हेकों ही उसे भला लगता है उसे लेकर चली जाती है। देवी दुर्गा के वरदान से घर में लाला हुए हैं।
देवी दुर्गा ने दिये वरदान हमारे घरे लालन हुआ-2
जाई कहो ओही बारे ससुर से द्वारे पर जग्य करावे हमारे घर लालन हुआ।
स्त्री अधिकार की बात भी उठती दिखाई दे जाती हैं कहीं-कहीं-
पीरा तो मैंने सहि रे...
पिया के लाल कइसे कहाई?
वह अपनी सास, ननद, जेठानी सबसे न्याय की गोहार लगाती है। सभी एक स्वर में कहती हैं- यह तो मेरे बेटे या भाई देवर की कमाई है। अंत में वह अपनी सौतन को पलंग पर बैठाकर पूछती है तब वह कहती हे-
इत लाल दूनों के कहाई
अकेले लाल कइसे कहाई।
पीरा तो मैंने सही रे पिया के लाल कइसे कहाई।
या फिर
कोई लेगा जी बचवे का खिलौना
इस प्रकार के अनेक लोकगीत, भोजपुरी भाषा की अमर धरोहर हैं। जिन्हें न सिर्फ सहेज के रखा है भोजपुरियों ने बल्कि उन्हें अपने जीवन में रस धार की तरह प्रवाहित करते रहते हैं।
साभार रउताही 2014

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