Monday 20 October 2014

अहीरवाल के लोकगीत

हरियाणा प्रदेश का अहीरवाल ऊबड़-खाबड़ शुष्क धरातल एवं रतीले टीलों वाला क्षेत्र है। यहाँ के लोगों का प्रमुख व्यावसाय कृषि है तथा रहन-सहन और खान-पान बड़ा सादा है। परिवार की महिलाएँ पुरूषों के साथ हर काम में हाथ बँटाती हैं। कृषि एवं पशुपालन के अतिरिक्त इस क्षेत्र के लोग बड़ी संख्या में भारतीय सशस्त्र सेनाओं में सेवारत हैं।
राजनैतिक रूप से भले ही यह क्षेत्र पिछड़ा हुआ है, परन्तु मेलों, तीज-त्यौहारों, लोक संगीत व लोकगीतों के मामलें में यह अपना विशिष्ट स्थान रखता है। प्राचीनकाल से ही ये इस क्षेत्र की लोक संस्कृति जन जीवन के प्रमुख अंग रही है।
लोक संगीत और लोकगीत तो यहाँ के कण-कण में समाहित हैं। लोक संगीत की सरिता को अपने प्रबल आवेग के साथ बहने से यहाँ के रेत के टीले भी कभी नहीं रोक पाये। तेज लू तथा आँधियों के थपेड़ों से इन्हीं रेत के टीलों पर लहरे बनाती चली जाती हैं। सायं जब रेत ठण्डी होती है, तब यही लहरें लोकगीतों की पंक्तियाँ सी नजर आती हैं। अरावली पर्वतमाला को अपनी गोद में समेटे अहीरवाल क्षेत्र के लोकगीतों एवं उनकी लोक धुनों पर यहाँ के संघर्षमय जीवन की छाप स्पष्ट परिलक्षित होती है।
लोकगीत यहाँ के सामाजिक जीवन में ऐसे प्रकाशपुंज हैं, जो मानव-मन की अथाह अंधेरी गलियों तक को चमकाते व आलोकित करते रहे हैं। लोकगीतों से सामाजिक जीवन के परिदृश्य कितने सजे-सँवरे हैं, यह सब इन गीतों को सुन कर जाना जा सकता हैं। लोकगीतों की यह सरिता यहाँ के सामाजिक जीवन में इतने सरल व सतत प्रवाह से बहती आई है, जिसकी बदौलत न केवल मानवीय संंवेदनाएँ और संबंध ही पुख्ता होते रहे हैं, अपितु दारूण दु:खों के बादलों को भी इन गीतों ने छितराया है और खुशी के पलों को यादगार बनाया है।
तीज-त्यौहारों एवं शादी-उत्सवों पर यहाँ औरतों के सामूहिक कंठ कोयल की भाँति कुक उठते हैं, तब वातावरण की रंगत में एक खास तरह का उन्माद एवं मस्ती छा जाती है। यहाँ के जन-जीवन में आने वाली विडम्बनाओं व घटनाओं का इन गीतों में मर्मिक चित्रण हुआ है। यदि यहाँ के आदमी परिश्रमी है, तो महिलाएँ भी बेहद परिश्रमी हैं। खेतों में जाते, पनघट से आते, फसल काटते, क्यारियों में नलाते नारी कंठ हिल मिलकर जहाँ-तहाँ, यहाँ-वहाँ गाते नजर आते हैं।
यहाँ के लोक-जीवन से अगर लोकगीत पृथक कर दिए जाएँ तब जो शेष बचेगा वह या तो श्मशान की वीरानगी जैसा होगा या फिर पत्थर की भाँति खुरदुरा व कठोर होगा। इस क्षेत्र की संस्कृति के आकाश में भी ये गीत झिल-मिल सितारों की भाँति जगमगाते हैं। इन गीतों में प्रीत है, जीत है, रीति है। यहाँ को लोक विश्वास और आस्थाएँ इन गीतों में रच-बस गए हैं।
ये लोकगीत यहाँ के जन-जीवन के संस्कारों में रमे हुऐ हैं। स्मृति-रेखाओं पर सुगन्ध की तरह जमे हुए हैं। इन गीतों की लोकधुनें मन-मस्तिष्क पर आषाढ़ की बदलियों की की भाँति मँडराती हैं। ये गीत और ये धुनें जहाँ पति-पत्नी, देवर-भाभी, ननद-भावज आदि इन्सानी रिश्तोंं का अनजाने में ही मनोहारी विश्लेषण करते हैं, वहीं भाई-बहन और माँ-बेटे जैसे पवित्र रिश्तों को गौरवान्वित भी करते हैं।
ये लोकगीत इस क्षेत्र की सांस्कृतिक ऊर्जा की एक ऐसी सामाजिक अभिव्यक्ति है जो रसवादी सौन्दर्य-शास्त्र से अभिप्रेरित हैं। यहीं रसवादी सौन्दर्य बोध यहाँ के लोक-जीवन एवं संस्कृति का ऐसा ऊर्जा स्त्रोत है, जो जीवन की अनवरत विडम्बनाओं एवं घटनाओं के बीच भी आत्म-विश्वास रूपी संजीवनी प्रदान करते हैं।
यहाँ के लोकगीतों में यहाँ के रीति-रिवाज, लोकाचार, लोकविश्वास, सामाजिक मान-मर्यादा, लोक-जीवन के गुण-दोष अपनी सुघड़ताओं के साथ प्रतिपादित होते हैं। लोक-जीवन का ऐसा कोई आयाम नहीं, जो इन लोकगीतों में मुुुुुखरित नहीं होता है।
यहाँ के लोकगीतों में वीर रस और श्रृंगार रस की प्रधानता है। जिसमें व्याकरण और भाषा का कोई विशेष संयम देखने को नहीं मिलता। खड़ी व सरल भाषा में बिना किसी लाग-लपेट के लिखे गए इन गीतों को हिन्दी भाषा को थोड़ा-सा भी जानने वाला आसानी से समझ जाता है। इन गीतों का रचयिता कौन है, कोई नहीं जानता। ऐसा लगता है कि ये लोकगीत समय-समय पर आवश्यकतानुसार स्वयं बनते चले गए हैं और पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमें विरासत के रूप में मिलते रहे हैं।
यूँ भी गीतों की परम्परा कभी नष्ट नहीं होती। पुराने गीतों के साथ-साथ ही नये गीत भी जन्म ले लेते हैं। इसी कारण गीतों का जीवन चिरन्तन बनकर सतत् रूप से प्रवाहित होता रहा है। अनादिकाल से उनका अस्तित्व अमरत्वपूर्ण होकर चला आ रहा है।
किसी भी क्षेत्र समाज तथा जाति को जानने से पूर्व उसके लोकगीतों को जानना जरूरी है। यहाँ के लोकगीतों का अध्ययन करने से इस क्षेत्र के रंग-रंगीले उत्सवों, त्यौहारों तथा सामाजिक रीति-रिवाजों का परिचय आसानी से मिलता है। विवाह के अवसर पर महिलाएँ अनेक प्रकार के मनोरंजन व हास्य-विनोद से परिपूर्ण गीत गाती हैं। इन गीतों में वे उलाहना देना भी नहीं भूलतीं। जब बारात पूरी सज-धज कर  दुल्हन के द्वार पर पहुँचती हैं तो गाँव की महिलाएँ गीतों के माध्यम से बारातियों को चिढ़ाती हैं।
सालियाँ अपने जीजा से सीठने के रूप में हँसी-मजाक करती हैं। इसके अतिरिक्त और भी न जाने कितने भाव-प्रणय, वीर रस से सराबोर, हास्य-विनोद, करूणा-उल्लास व मस्ती से परिपूर्ण लोकगीत यहाँ की संस्कृति को समृद्ध बना रहे हैं। महिलाएँ इन्हीं गीतों से साहस, शील, भक्ति, प्रेम, दया, पतिव्रत, आज्ञपालन आदि अनेक आदर्श गुण ग्रहण करती हैं। ये गीत इस क्षेत्र की आत्मा के गीत हैं, जो खुली हवा में बड़ी रोचकता से पिरोये जाते हैं।
हरियाणा के अहीरवाल क्षेत्र के जिन लोकगीतों का यहाँ वर्णन किया जा रहा है, उनका राजस्थान के जिला अलवर का राठ क्षेत्र, जिला सीकर का नीमका थाना व माऊंडा क्षेत्र, जिला झुन्झुनू की खेतड़ी, तहसील तथा दिल्ली सूबे के नजफगढ़ क्षेत्र भी प्रचलन है। इस क्षेत्र का खान-पान, पहनावा, रीति-रिवाज और भाषा एक है। इन क्षेत्रों के निवासियों का आपस में रोटी-बेटी का रिश्ता है। वैसे तो इस क्षेत्र में छत्तीस बिरादरी के लोग रहते हैं, लेकिन अहीर जाति के लोग बहुसंख्या में हैं। इसी कारण यह सम्पूर्ण क्षेत्र अहीरवाल के नाम से जाना जाता है।
यद्यपि अहीरवाल के लोकगीतों का लिखित साहित्य बहुत कम उपलब्ध है, क्योंकि इस दिशा में कभी भी सार्थक कदम नहीं उठाया गया है। इसी कारण आज इनके रेखांकन की महती आवश्यकता बनी हुई है। यह कार्य लोकसाहित्य का कोई समर्थ व तथ्यशोधक छात्र ही कर सकता है। इस क्षेत्र में प्रचलित लोकगीतों में से कुछ को ही इस पुस्तक में संकलित किया गया है। इस दिश में यह पुस्तक मात्र एक लघु कदम ही है। आशा है यह आपका भरपूर मनोरंजन तो करेगा ही, साथ ही आपकी आशा और अपेक्षा के अनुरूप खरी भी उतरेगी।
देवी-देवताओं के गीत व भजन
अहीरवाल प्रदेश में कोई भी शुभ कार्य करने से पहले भगवान व अन्य लोक देवी-देवताओं को याद करने की परम्परा पुरातन से चली आ रही है, क्योंकि क्षेत्र के लोग इन देवी-देवताओं को अपने सामाजिक जीवन में शुभ अशुभ को धुरी मानते हैं। इसी कारण इन देवी-देवताओं को क्षेत्र में प्रचलित लोकगीतों में भी बड़ी श्रद्धा के साथ स्मरण किया गया है। इस कड़ी में ग्राम देवता व गौरी पुत्र गणेश को विघ्र विनाशक देवता के रूप में किसी भी मांगलिक अवसर पर गीतों के माध्यम में सबसे पहले याद किया जाता हूँ।
रतजगा, विवाह-शादी तथा अन्य मांगलिक अवसरों पर देवी-देवताओं को गीत व भजनों के माध्यम से याद करने की प्रथा इस प्रदेश में यहाँ प्रचलित गीतों की शब्दावली जहाँ ठेठ देहाती हूं, वहीं इसके भावार्थ हूबहू आरतीनुमा है। इन गीतों में न कल्पना के पंख है और न ही शैलीगत पेंच। यहाँ के लोक जीवन में सदा से रची-बसी इन देवताओं की कीर्ति ही सरल सुरीले नारी कंठों से निकलकर सरस एवं सकल गीतों का अहसास बन जाती है-
गणेश जी की आरती
दुन्हाला दु:ख भजना सदा सदा उजला भेष।
सारा पहिला सुमरिया गौरी पुत्र गणेश।
जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा।
माता थारी पार्वती पिता महादेवा।
जय गणेश, जय गणेश..........।
एक दन्त दयावन्त चार भुजा धारी।
माथे थारे तिलक विराजे, मुसे की सवारी।
जय गणेश, जय गणेश............।
पान चढ़ै फूल चढ़े और चढ़े मेवा।
लडूवन का भोग लगे सन्त करें सेवा।
जय गणेश, जय गणेश............।
अन्धे को आँख देव कोढ़ी को काया।
बांझन को पुत्र देव निर्धन को माया।
जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा।
जो भी शरण आये, सफल कीजे सेवा।
जय गणेश, जय गणेश.............।
जच्चा गीत
जब किसी के घर शिशु जन्म लेता है, तो इस अवसर पर भी गीत गाने की परम्परा है, जिन्हें क्षेत्र में जच्चा गीत के नाम से पुकारा जाता है। इस अवसर पर जच्चा, कुआँ पूजन, पीला व अन्य गीत कई-कई दिन गाये जाते हैं, जो निम्न हैं-
(1)
हाय मैंने पाँचवों महिनो लाग्यो, सासू नै बेरो पाट्यो,
हे वा हलवो बणाकै ल्याई, मैंने दूर सी थरथरी आई।
हाय मैंने छठो महिनो लाग्यो, देवर न बेरो पाट्यो,
हे वो बेर तोड़ के ल्यायो, मैंने घाल जेब मैं खायो।
हाय मैंने सातवों महिनो लाग्यो, ननदी नै बेरो लाग्यो
हे वा दाल भून कै ल्याई, मैंने घाल जेब मैं खाई,
हाय मैंने आठवों महिनो लाग्यो, राजा नै बेरो लाग्यो,
हे वो बालूस्याही ल्यायो, मैंने बैठ पलंग पै खाई।
हाय मैंने नोवों महिनो लाग्यो, दाई न बेरा पाट्यो,
हे दाई इबकै गैल छुड़ा दे, फेर ना जाऊंँ पिया की अटारी
हाय मैं जलवा धोक के आई, राजा नै आँख चलाई,
हो पिया तू चाल मैं आई, तू करले गर्म रजाई।
(2)
छोटी से जच्चा लाडली,
हरमोनियम बजा रही जी।
सुसरो जी आवै, दिखा बोहडिय़ा ललणा म्हारा,
ललणा सो रह्या पलणा मैं, झूला झुला रही जी।
छोटी सी.....
विवाह के नेगाचार गीत
इस क्षेत्र में विवाह-शादी के प्रत्येक चरण में माधुर्य एवं मंगल भावना से ओत-प्रोत लोकगीत गाने की परम्परा रही है। सगाई, भात, रतजगा, लग्न, सेहरा, घुड़चढ़ी, बारात खोडिय़ा, भाँवरें, विदाई व काँगन आदि लोकचारों को भिन्न-भिन्न गीतों के माध्यम से सुमधुर एवं सौन्दर्ययुक्त किया जाता है। सचमुच इन गीतों की बदौलत ही विवाह का अवसर विवाह उत्सव में बदल जाता है। निश्चित तौर पर इन गीतों से संबंधित नेगियों को आत्मबल और उत्साह तो मिलता ही है, साथ ही इनके अन्र्तभावों से प्रस्फुटित ऊर्जा, इन अवसरों की लयात्मक गतिशीलता को निरन्तरता प्रदान करती है। इससे विवाह उत्सव का कोई भी क्रिया-कलाप थका देने वाला या उबाऊ नहीं लगता, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति इनमें रमता चला जाता है।
इस क्षेत्र में वैवाहिक रस्मों का श्रीगणेश सगाई की रस्म से होता है। जब किसी के घर सगाई एवं लग्न का अवसर होता है, तो लड़के के घर 'बनड़ाÓ (बन्ना) तथा लड़की के घर बनड़ी (बन्नी) के गीत गाये जाते हैं, जो इस प्रकार हैं-
बनड़ी (बन्नी) के गीत
(1)
बन्नी को दादो बरजै सै,
लाडो नीम तलै मत जाय।
कड़ा नीम की कड़ी निम्बोरी,
चालै हुचकी।
मेरो रायबर याद करै सै,
डट ज्या ये हुचकी।
बन्नी को चाचो बरजै सै,
लाडो नीम तलै मत जाय।
कड़ा नीम की कड़ी निम्बोरी,
चालै हुचकी।
मेरो रायबर याद करै सै,
डट ज्या ये हुचकी।
मेरो रायबर याद  करै सै,
डट ज्या ये हुचकी।
बन्नी को जीजो बरजै सै,
लाडो नीम तलै मत जाय।
कड़ा नीम की कड़ी निम्बोरी,
चालै हुचकी।
मेरो रायबर याद करै सै,
डट ज्या ये हुचकी।
बन्नी को बीरो बरजै सै,
लाडो नीम तलै मत जाय।
कड़ा नीम की कड़ी निम्बोरी
चालै हुचकी।
मेरो रायबर याद करै सै,
डट ज्या ये हुचकी।
(2)
बन्नी खड़ी सड़क पर अनार माँगे।
अपणे दादा से दो-दो हजार माँगै,
अपणे ताऊ से दो-दो हजार मांगै।
अपणी दादी से गूँठी रुमाल माँगै।
अपणी ताई से गुँठी रुमाल मांगै।
बन्नी खड़ी...
अपणे चाचा से दो-दो हजार मांगै,
अपणे पिता से दो-दो हजार मांगै,
हाँ रे गोरी दे दिये और उल्टा ले लिये,
हाँ रे गोरी बातचीताँ सी राजी कर लिये,
हाँ रे गोरी ज्यादा करै तो डण्डा दो दिये।
हाँ ओ पिया तड़के सबेरे सासड़ आवैगी,
हाँ ओ पिया पोतड़ा धुवाई नेग मांगेगी,
हाँ रे गोरी दे दिये और उल्टा ले लिये,
हाँ रे गोरी बातचीताँ सी राजी कर लिये,
हाँ रे गोरी ज्यादा करै तो डण्डा दो दिये।
हाँ ओ पिया तड़के सबेरे सुसरो, आवैगो,
हाँ ओ पिया खाट पे बैठण को नेग मांगैगो,
हाँ रे गोरी दे दिये और उल्टा ले लिये,
हाँ रे गोरी बातचीतों सी राजी कर लिये,
हाँ रे गोरी ज्यादा करै तो डण्डा दो दिये।
हाँ ओ पिया तड़के सवेरे सुसरो आवैगो,
हाँ ओ पिया खाट पै बैठण् को नेग मांगैगो,
हाँ रे गोरी दे दिये और उल्टा ले लिये,
हाँ रे गोरी बातचीताँ सी राजी कर लिये,
हाँ रे गोरी ज्यादा करै तो डण्डा दो दिये।
हाँ ओ पिया तड़कै सवेरे देवर आवैगो,
हाँ ओ पिया जालिया खुलाई नेग मांगैगो,
हाँ रे गोरी दे दिये और उल्टा ले लिये,
हाँ रे गोरी बातचीताँ सी राजी कर लिये,
हाँ रे गोरी ज्यादा करै तो डण्डा दो दिये।
पीला गीत
बच्चे के जन्म पर जच्चा के पीहर से छूछक आता है, उसमें पीला की तील जरुर आती है, जिसे ओढ़कर जच्चा कुआँ पूजने जाती है। इस अवसर पर यह गीत गाया जाता है-
पाँच मोहर की साहिबा, पीलो रंगा दूयो जी।
पाँचा बीसी, गोडा मारुँ जी।
पीला रंगा...
के पीलो तेरी माँ रंगायो जी,
के काई नन्दशाला से आयो जी।
पति प्यारा जी।
पीला रंगा...
ना पीलो मेरी माँ रंगायो जी,
ना कोई नन्दशाला से आयो जी,
गोडा मारुँ जी।
पीला रंगा...
सासू रो जासो भोली,
बाई जी रो बीरो जी।
कोई उण म्हारी सेज पजोई,
पति प्यारा जी।
पीलो रंगा...
पीलो तो ओढ़ म्हारी जच्चा,
सरवर चाल्ली जी।
कोई सारे शहर सराही,
गोडा मारुँ जी
पीलो रंगा...
भायली गीत
जब जच्चा कुआँ पूजने जाती है, तो उसकी सखी-सहेली पीला तथा कुड़ता-टोपी घालती हैं। देहात में इस सहेली को 'भायलीÓ के नाम से जाना जाता है। इस अवसर पर यह गीत गाया जाता है-
भँवर म्हारो भायली कै जाय।
भायली कै आबो-जाबो छोड़ दे ओ,
मरुँगी विष खाय।
भँवर म्हारो....
भायली के आबो-जाबो न छूटै ओ,
कल मरो जित आज।
भँवर म्हारो...
भायली के आशा रह गई हे,
म्हारो ढोलो फिरै सै उदास।
भँवर म्हारो...
भायली के होलर हो गयो हे,
भायली रही सै खिलाय।
भँवर म्हारो...
भायली पाणी नै जाव सै ऐ,
मैँ भी पाणी नै जाऊँ।
भँवर म्हारो...
आधो होलर बाँट ले ऐ,
म्हारो भँवर उनियार।
भँवर म्हारो...
आधो होलर ना बँटे ऐ,
अपणो भँवर समझा ऐ।
भँवर म्हारो...
अटेली का थाणा कै माँय ऐ,
आई भँवर नै रुकवाय।
भँवर म्हारो...
अटेली का थाणा कै माँय ऐ,
पङ्यो ऐ न्योहरा खाय।
भँवर म्हारो...
इबकै तो छुड़वाय ले रै गोरी,
फेर जाऊँ तो तेरी सूँ।
भँवर म्हारो...
थाणा मायसी ऐ छूटतो ही,
फिर भी भायली के जाय।
भँवर म्हारो...
जो तेरो राजा ना डटै ऐ,
नाड़ा कै ले बाँध।
भँवर म्हारो...
नाड़ो तोड़ो रेशमी ऐ,
घूमर घीस्यो जाय।
भँवर म्हारो...
जै तेरो बालम ना डटै ऐ,
कोठा मैं दे ऐ रोक।
भँवर म्हारो...
तू मेरी बहना लुहार की ऐ,
एक तालो घड़ लाय।
भँवर म्हारो...
साँकल तोड़ी स्यार की ऐ,
फिर भी भायली कै जाय।
भँवर म्हारो...
भात गीत
लग्न के पश्चात अपने लड़के या लड़की के विवाह का न्यौता देने जब बहन अपने पीहर (भाई के घर) जाती है, तो उसे 'भात न्यौतनाÓ कहा जाता है। यूँ भी इस क्षेत्र की लोक संस्कृति में भात, भाई-बहन के निश्छल पवित्र संबंधों की पराकाष्ठा का एक परम पवित्र गौरवमय अवसर माना गया है। क्षेत्र में भात के अवसरों पर गाये जाने वाले गीतों की लय इतनी मार्मिक और करुणाजनक होती है कि सुनने पर समूचे नारी जगत की एक 'हूकÓ का सा अहसास होता है।
भाई-बहन के प्यार का प्रतीक भात के, विविध रुप भी देखने को मिलते हैं। कहीं प्यार, कहीं हास्य तो कहीं इन्तजार तो कहीं भाई दिल खोलकर बहन को रुपयों व कपड़ों से लाद देता है, तो कहीं उलाहणा मिलता देखा जा सकता है। अत: भात गीतों में भाई-बहन के प्यार का स्त्रोत बहता है। इन गीतों को सुनकर प्यार से आँखें गीली हुए बिना नहीं रहतीं।
बहन जब अपने भाई के घर भात न्यौतने जाती हैं, तो निम्न गीत गाये जाते हैं-
 (1)
हे! मैं रुनझुन बहल जुड़ाय,
भात नोतणे चाल्ली।
हे बाबल  की आई हबेली,
मैंने उत ही बहली डाटी।
हे! इतना मैं बोल्यो कन्हैयो,
हम ना ल्यां भेली रुपयो।
हे! भीतर से बोल्यो चोखो,
म्हारै कोन्या भात को मोको।
हे! ऊपर से बोल्यो भगवानो,
म्हारे कोन्या भात को आन्नो।
हे! मैं भीतर बड़कै रोई,
मेरी कन्ही ना धीर बँधाई।
हे! मेरो छोटो बीर लाडलो,
मेरी उण ही धीर बँधाई।
हे! मत रो मेरी माँ की जाई,
तेरे भात भरूँ बड़ो भारी।
हे! भीतर से बोल्यो कन्हैयो,
हम इब ल्यां भेली रुपयो।
हे भीतर से बोल्यो चोखो,
म्हारैं इब सै भात को मोको,
हे! ऊपर से बोल्यो भगवानो,
म्हारे इब सै भात को आणो।
रै धन्य-धन्य सै मेरी माँ का जायो,
रै रोवती की धीर बँधाई।
(2)
रै बीरा नौकर मत ना जाईये,
मेरा कौण भरेगा भात।
ऐ जीजी नौकरी का के डर सै,
तेरा आण भरुँगा भात।
रे बीरा पाँचों भाई आइयो,
मेरो सारो लाइयो परिवार।
रै मेरा काका, ताऊ सब ल्याइयो,
भावज नै ल्याइयो साथ।
बान गीत
विवाह के पाँच या सात दिन शेष रहने पर वर व कन्या को बान बैठाने की तैयारी की जाती है। वर व कन्या को नहलाने से पहले जौ या चने का आटा, हल्दी व सरसों के तेल से तैयार किया गया 'उबटनÓ लगाया जाता है। इस अवसर पर वर व कन्या को घर तथा पास-पड़ोस की औरतें तेल चढ़ाती हैं। इस समय निम्न गीत गाये जाते हैं-
तेल चढ़ाने का गीत
आ ऐ तेलण तेल ऐ,
म्हारै चमेली का तेल ऐ।
रोहताश घर सै कुल बहू,
बहू शौखा तेल चढ़ाइयो।
आ ऐ....
इसी तरह बारी-बारी से सभी औरतों के नाम आगे लिए जाते हैं।
उबटना लगाने का गीत
काहे कटोरी मैं उबटणों,
काहे कटोरी मैं तेल।
रूप कटोरी मैं उबटणों,
सूण कटोरी मैं तेल।
जौ-चणे का उबटना,
जौ ऐ चमेली का तेल।
आज लाड़ो बैठी उबटणै,
मैल झड़ै झड़-झड़ पड़ै,
नूर चढ़ै तेरै आय।
आज लाड़ो बैठी उबटणै।
आ मेरे दादा जी देखले,
आ मेरे ताऊ जी देखले,
थम देख्याँ सूख होय,
आज लाडो बैठी उबटणै।
इसी प्रकार चाचा, भाई, फूफा, जीजा आदि के नाम लेते जायें। उपर्युक्त गीत कन्या को नहलाते समय गाया जाता है। यही गीत बनड़े को नहलाते समय गाया जाता है। इसमें फर्क इतना है कि 'लाड़ो बैठीÓ की जगह 'बनड़ो बैठ्योÓ का इस्तेमाल किया जाता है।
तेल उतारने का गीत
आ ऐ तेलण तेल ऐ,
म्हारै चमेली का तेल ऐ।
यादराम घर सै धोयडिय़ा,
बाई सोमलता तेल उतार ऐ।
आ ऐ तेलण...
इसी तरह अन्य औरतों के नाम लेकर आगे यह गीत गाया जाता है।
वर व कन्या का आरता उतारने का गीत
एक हाथ लोटो, गोद बेटो,
कर एक सुहागण जीजी आरतो।
एक हाथ कसीदा गोद भतीजा,
कर एक सुहागण जीजी आरतो।
एक हाथ ताक्कू, गोद बापू,
कर एक सुहागण जीजी आरतो।
एक हाथ कैंची, गोद चाची,
कर एक सुहागण जीजी आरतो।
खोडिय़ा गीत
जब वर पक्ष के घर से बारात प्रस्थान कर जाती है, तो घर में महिलाएँ अकेली रह जाती है। इस एकान्त का वे भरपूर लाभ उठाती हैं, नाच-गान के साथ रात भर जागरण करती हैं। जिसे देहात में 'खोडिय़ाÓ के नाम से जाना जाता है। वैसे भी खोडिय़ा का उद्देश्य वर-विजय, बारात की सकुशल वापसी तथा मंगल कामनाएँ करना ही होता है।
नारी सनानत से शर्म और हया के परम्परागत आवरण से लिपटी रही है। अत: वह अपने अंतर की कोमल भावनाओं तथा पुरुष-प्रधान समाज की बंदिशों को अभिव्यक्ति नहीं दे पाती। खोडिय़ा के अवसर पर कोई पुरुष आस-पास नहीं होता। तब वे अपनी दबी हुई कोमल इच्छाओं व भावनाओं को नि:संकोच निकालती हैं।
इस अवसर पर वे घर के आंगन में सारी रात बेतुके संवाद, अश्लील गीत एवं लोकनृत्य करके एक ऐसा समाँ बाँधती हैं कि विवाह के अवसर को नई उमंग और हर्षोल्लास से सराबोर कर डालती हैं। जिस तरह वधू के घर  वर-वधू का पाणिग्रहण हो रहा होता है, उसी तरह खोडिय़ा में वर पक्ष के यहाँ महिलाएँ नकली विवाह कर आधि-व्याधि निवारण का उपक्रम करती हैं। इनका धरातल बड़ा रंग-बिरंगा, उन्मुक्त तथा जीवन की करवटों से आन्दोलित होता है।
इस अवसर पर स्त्रियाँ नृत्य के साथ निम्न गीत गाती हैं।
(1)
माँ मेरा ब्याह कर दे
ना तो बन्दड़े की भाभी नै लै कै भाग जाऊँगो।
वा तो लम्बी घणी रै मेरा लाल,
तेरी ऊँकी ना ही बणै।
माँ मेरा ब्याह कर दे,
ना तो बन्दड़े की ताई नै ले कै भाग जाऊँगो।
वा तो काली घणी रै मेरा लाल,
तेरी ऊँकी ना ही बणै।
माँ मेरा ब्याह कर दे,
ना तो बन्दड़े की चाचाी नै ले कै भाग जाऊँगो।
वा तो मोटी घणी रे मेरा लाल,
तेरी ऊँकी ना ही बणै।
(2)
सपेला बीन बजाइये हो,
चालूँगी तेरे साथ।
ये महलाँ की रहणे वाली रै,
तनै झोपड़ी लगै उदास।
झोपड़ी मैं गुजर करूँगी ओ,
पर चालूँगी तेरे साथ।
सपेला बीन...
ये हलवा खाणे वाली रै,
तनै रोटी लगै उदास।
रोटी मैं गुजर करूँगी ओ,
पर चालूँगी तेरे साथ।
सपेला बीन...
ये गद्दा पै सोणे वाली रै,
तनै खटिया लगै उदास।
खटिया पै गुजर करूँगी ओ,
पर चालूँगी तेरे साथ।
सपेला बीन...
(2)
दामण की सिमाई मांगै री दरजी को।
दामण की सिमाई म्हारो सुसरो देगो,
ससुर मेरे नै झोटी बक्शी,
ना ल्यूँ ना ल्यूँ, करै री दर्जी को,
कैंची की ओट हँसै री दरजी को।
दामण की...
दामण की सिमाई म्हारो देवर देगो,
देवर मेरे नै नारा बक्श्या,
ना ल्यूँ, ना ल्यूँ, करै री दरजी को,
कैंची की ओट हँसै री दरजी को।
दामण की...
दामण की सिमाई म्हारो राजा देगो,
राजा मेरे नै गोरी बक्शी,
इब ल्यूँ, इब ल्यूँ, कहै री दरजी को,
कैंची की ओट हँसै री दरजी को,
ले कै जूता राजा पीटण लाग्या,
ना ल्यूँ, ना ल्यूँ, करै री दरजी को
छोड़ो-छोड़ो करै री दरजी को
दामण की...
फेरों पर गाये जाने वाले गीत
फेरों के समय जब लड़की को पाणिग्रहण संस्कार हेतु पाटड़े पर बुलाया जाता है, तो लड़की का मामा उसे लेकर मंडप में आता है। तब स्त्रियाँ निम्न गीत गाती हैं।
(1)
गढ़ छोड़ रुकमण बाहर आई, चौरी तो छाई म्हारै बालमा।
मैं तो क्यूँ कर आऊँ बाबल मेरे, बाहर बैठ्यो मेरो बालमा।
तेरे बालम नै हम दान देंगे, मान देंगे, चौरी तो राखै तेरी ऊजली।
मेरा बालम के चार ओबरी, चारों मैं जगमग हो रही।
पहली ओबरी मैं लाडो जन्म लियो, दूजी मैं हवन करायो।
तीजी ओबरी मै लाडो 'लग्न लिखी सैÓ, चौथी मैं ब्याह रचायो।
(2)
या तो पहलो फेरो लियो, म्हारी लाडो, दादा की हे पोती।
या तो दूजो फेरो लियो, म्हारी लाडो, ताऊ की है बेटी।
या तो तीजो फेरो लियो, म्हारी लाडो, बाबल की हे बेटी।
या तो चोथो फेरो लियो, म्हारी लाडो, चाचा की हे बेटी।
या तो पाँचवों फेरो लियो, म्हारी लाडो, भाई की हे बहना।
या तो छठो फेरो लियो, म्हारी लाडो, मामा की हे भाणजी।
या तो सातवों फेरो लियो, म्हारी लाडो, हुई हे पराई।
सावन के गीत
प्राचीन समय से ही मेले और तीज त्यौहार इस क्षेत्र की लोक संस्कृति एवं जन-जीवन का प्रमुख हिस्सा रहे हैं। ये तीज-त्यौहार बहुत ही सादगी एवं सरलता से मनाये जाते हैं, जो बनावट से कोसों दूर रहते हैं।
सावन के महीने में जब इन्द्र भगवान कृपालु होन लगते हैं, वर्षा की बौछारें तपती धरती की प्यास बुझाने लगती हैं, तब ग्राम्यांचलों में एक खुमारी सी चढऩे लगती है। तीज का त्यौहार भी इसी महीने में आता है। वर्षा ऋतु का यह मोहक त्यौहार महिलाओं के जीवन में सरसता का संचार करता है। तीज वैसे भी महिलाओं का खास त्योहार है और झूले-झूलना इस त्योहार का प्रमुख आकर्षण है। तीज के कई-कई दिन पहले ही गतबाड़ों में खड़े नीम, पीपल के पेड़ों पर, घर के आँगन और दालान में हिन्डोले डालकर झूलने का सम्पूर्ण आनन्द लिया जाता है।
लोकगीतों का इस त्योहार के साथ गहरा संबंध माना गया है। लोकगीतों की गूँज से गाँवों का वातावरण रसमय व सजीव हो उठता है। कहीं कोयल कूकती हैं तो कहीं मयूर का नृत्य देखने को मिलता है। प्रकृति अपने पूर्ण सौन्दर्य के साथ धरती पर उतर आती है। जिस प्रकार मस्ती में मोर कूक उठता है, उसी प्रकार मस्त होकर ऊँची आवाज में गाँव की महिलाएं भी गीत गाती हुई हिन्डोले पर झूलती हैं। 
 फागुन के गीत
फागुन का महीना एक मदमस्त महीना है। इस महीने में न ठण्ड कँपकँपाती है और न ही गर्मी की तपन से शरीर झुलसता है। ऐसे सुहावने मौसम में प्रकृति की भीनी-भीनी सुगन्ध वातावरण में चारों ओर फैल जाती है और जनमानस के मन में एक हिलोर सी मचल उठती है। खेतों में फसल पककर तैयार हो जाती है। इस मौके पर चारों ओर खुशी और उल्लास छाया रहता है।
ऐसे फागुनी मौसम में होली का रंगों भरा पर्व तो तन और मन दोनों को उन्माद के रंग में रंग देता है। फागुन लगते ही होली के स्वागत और सत्कार में महिलाएँ लग जाती हैं। महिलाएँ अपने काम धन्धे से निबटकर रात को गली-मोहल्लों में इकट्ठी होकर धमाचौकड़ी मचाती हैं, वही नवयौवनाएँ झुण्डों में नाचती और गाती हैं। आधी रात तक यह सिलसिला जारी रहता है।
होली के पर्व पर इस क्षेत्र में खूब खेल तमाशे होते हैं। चाँद की चाँदनी में नवयौवन के अल्हड़ नृत्यों की मधुरता और सुन्दरता सिर चढ़कर बोलती है। किशोरियों के अन्दर की भावनाएँ गीतों में फूट पड़ती हैं। फागुन का महीना अपने संग विरह, मस्ती, उन्माद एवं उल्लास का खजाना लेकर आता है जो क्षेत्र के समूचे जनमानस को अपने रंग में रंग लेता है और गुलाल के साथ गीतों के रूप में बिखर उठता है-
(1)
एक सुसर कै दो बहू रै लाला,
दोनों पाणी नै जायँ
अमरसिंह फागण आयो रंग भरो रै लाला।
अगली का सिर पै टोकणी रै लाला,
पिछली का सिर पै माट।
अमरसिंह फागण....
अगली को बिछवो ढह पड्यो रै लाला,
पिछली नै लियो सै उठाय।
अमरसिंह फागण....
लड़ती-झगड़ती वो गयीं रै लाला,
गयीं सुसर के पास।
अमरसिंह फागण....
सुसरो म्हारो चौधरी रै लाला,
भोडिय़ाँ का न्याय चुकाय।
अमरसिंह फागण...
भोडिय़ा हमसै न्याय न चुकता रै लाला,
जाओ थारा जेठ जी के पास।
अमरसिंह फागण....
लड़ती-झगड़ती वो गयीं रै लाला,
गायीं जेठ के पास।
अमरसिंह फागण...
जेठ म्हारो चौधरी रै लाला,
भोडिय़ाँ को न्याय चुकाय।
अमरसिंह फागण....
भोडिय़ा हमसै न्याय ना चुकता रै लाला,
जाओ थारा राजा के पास।
अमरसिंह फागण....
राजा जी म्हारो मोरधी रै लाला,
दोनवाँ को न्याय चुकाय।
अमरसिंह फागण....
अगली का बिछवा दिवाय द्यो रै लाला,
पिछली नै टोकणी दुवाय।
अमरसिंह फागण....
साभार रउताही 2014
 

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