Tuesday 21 October 2014

समरसता के प्रतीक अहीरवाल के लोकगीत

ब्रह्माण्ड में धरती पर जन जीवन है वैसे वैज्ञानिकों की मानें तो दूसरे किसी अन्य ग्रह पर भी प्राणी रहते हैं जिनको एलियंस नाम दिया गया है। ये बातें वैज्ञानिकों की अपनी सोच व खोज पर आधारित हैं फिर भी अपनी धरती पर तो प्राणी हैं ही जो हम स्वंय हैं। धरती पर रहने वाले प्राणियों में लख चोरासी योनियों के बारे में कहा और सुना जाता है जिनमें मनुष्य श्रेष्ठ है। मनुश्य श्रेष्ठ इसलिए माना जाता है इस पर चर्चा करने से पहले लख चोरासी योनियों के इस रहस्य पर से पर्दा उठाने के प्रयास किए जा रहे हैं। संपूर्ण धरती पर सभी प्रकार के जीवों को अगर गिना जाता है तो शायद ही चौरासी लाख योनियों के समकक्ष पहुचना बहुत ही असंभव होगा। इससे तात्पर्य यह है कि लख का षाब्दिक अर्थ हुआ देखना/देख। चौरासी का शाब्दिक अर्थ हुआ चवराषी यानि चार राषी/चार हिस्से। कुल मिलाकर लखचवराषी हुआ जिसे हम चार राशियों में देख सकते हैं या देखते हैं। यथा; जेरज, अण्डज, जलज और कीटज। जेर में पैदा होने वाले जीव, अण्डे में पैदा होने वाले जीव, जल में पैदा होने वाले जीव और कीट में पैदा होने वाले जीव। सकल धरा पर इन चार तरह से पैदा होने वाल जीवों में सभी जीव आ जाते हैं। सभी जीवों में मनुष्य श्रेष्ठ बुद्धि का धनी होने के कारण माना जाता है। जहां मनुष्य के पास अपनी बुद्धि अपनी सोच है तो मनुष्य अपनी पसंद की चीज की खोज भी कर सकता है। मनुष्य में खुशी और गम दोनों को महसूस करने की क्षमता भी है। जहां खुशी और गम होगा तो वहां पर हर तरह के प्रचलन भी होंगे, मनोरंजन भी होंगे, जहां मनोरंजन होगा वहां संगीत भी होगा, जहां संगीत होगा वह गीत बिना अधूरा ही होगा। गीत होगा तो वहां की संस्कृति की झलक स्वत: ही दिख पडेगी। पूरी धरती पर अगर प्रकाश डालें तो पता चलता है कि सबसे प्राचीन गूढ रहस्य के चार वेद हैं जिनका गूढ रहस्य आज भी छिपा हुआ है। उस रहस्य को आजतक किसी ने पूर्णरूप से उजागर नहीं किया है। इन चार वेदों की रचना हरियाणा की पावन धरा पर हुई है। ये वेद हैं- ़ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद। ऋग्वेद में भौतिक ज्ञान, यजुर्वेद में आयुर्वेद, सामवेद में संगीत है तो अथर्ववेद में आर्थिक ज्ञान भरा पड़ा है। हरियाणा की भूमि पर सबसे पहले अहीरों की बसाहत हुई जिससे इस क्षेत्र का नाम पहले पहल अहीरवाल पडा इसी नाम से अहिराणा बाद में उसका अपभ्रंस हरियाणा पडा। जिस धरती पर वेदों की रचना हुई जिसमें संगीत के रहस्य को छुपाए हुए एक वेद हो तो वह क्षेत्र संगीत के मामले में भला किसी से पीछे क्यों रहता। अहीरवाल के पास गीत तो हैं ही साथ में अनेक विद्वानों की राय के अनुसार संस्कृत के बाद बोली जाने वाली प्रथम भाषा अहीरवाटी थी फिर हिन्दी का जन्म हुआ। अहीरवाटी बोली एेसी सरल बोली है जिसका मेल संस्कृत से ज्यादा है, हिन्दी से कम है फिर भी थोड़ी बहुत हिन्दी भाषा को जानने वाला भी आसानी से समझ सकता है जबकि हरियाणा ही आज प्रचलित जटवाटी बोली को समझना बहुत ही कठिन है। मेरे दिल ने कहा कि संस्कृत और हिन्दी के बीच की प्यारी और श्री कृष्ण की बांसुरी की तरह सुरीली बोली अहीरवाटी में रचे गए गीतों पर एक लेख लिखा जाए ताकि सभी विद्वत जनों का ध्यान इस आेर खिचे।
अहीरवाल क्षेत्र में जीवन से मरण तक के हर अवसर पर गीतों को गाने का प्रचलन है, इन गीतों को पुरूष व महिला दोनों ही गाते हैं। आप के समक्ष महिलाआें द्वारा गाए जाने वाले गीतों पर प्रकाश डाला जा रहा है। महिलाआें द्वारा गाए जाने वाले गीतों को धरती के गीत कहा जाता है क्योंकि ये गीत धरती से जुड़े हुए हैं। लोगों के द्वारा हर अवसर पर इन गीतों को गाने का प्रचलन होने के कारण इन्हें लोक गीत की संज्ञा दी जाती है। लोक गीत साज और बाज के साथ बिना साज और बाज के भी गाए जाते हैं। आज के इस युग में बडे-बड़े शहरों और नगरों में बड़े-बड़े कवि सम्मेलनों का प्रचलन कुछ ज्यादा ही हो रहा है इन सम्मेलनों में जो कवि अपनी कविता का कविता पाठ करता है वह बिना साज और बाज के करता है। उस कवि की स्वयं द्वारा रचित गिनती की बहुत ही कम कविताएं होती हैं, बहुत से कवियों के पास तो पांच से दर्जन भर ही कविताएं होती हैं जिन्हें वह बारी-बारी से अलग-अलग शहरों में होने वाले सम्मेलनों में प्रस्तुत करके श्रोताआें की वाहवाही लूटता है। कई बार तो एेसा भी हो जाता है कि जो इस वर्ष जिस शहर में कविता प्रस्तुत की उसी कविता को अगले वर्ष उसी शहर में प्रस्तुत कर देता है। अगर श्रोताआें के सामने तुरंत किसी विषय पर कविता रच कर सुनाने को कहे तो शायद ही कोई कवि एेसा कर पाए। जबकि धरती से जुडे कवि जिन्हें लौकिक कवि/लोक कवि कहा जाता है उनकी बराबरी किसी भी तरह सम्मेलन वाले कवि नहीं कर सकते हैं। वासतव में लौकिक कवि लोगों के कवि होते हैं लोगों के प्रश्नों के उत्तर कविता के माध्यम से तुरंत देना जानते हैं और संगीत द्वारा अच्छी धुन में गाकर भी सुनाना जानते हैं। लौकिक कवि आदमी और औरत दोनों ही होते हैं। इसलिए औरत द्वारा रचित कविता को धरती के गीत/ लोक गीत कहा जाता है। महिलाआें द्वारा रचित गीतों की संख्या अहीरवाल क्षेत्र में लाखों में है। प्रख्यात साहित्यकार श्री रोहित यादव ने कड़ी मेहनत से अहीरवाल के लोक गीतों का संकलन किया है इसके लिए वह बधाई के पात्र हैं। विभिन्न अवसरों पर गाए जाने वाले लोक गीतों की  कुछ झलक प्रस्तुत हैं- सावन के गीत - सावन मास में गाए जाने वाले गीतों की कुछ पंक्तियां प्रस्तुत हैं- और सखी तो अम्मा मेरी सब चाली जी, एे जी कोई हमनै भी झूलन भेज, घल्यो एे हिन्डोलो चम्पा बाग मै जी। दूसरे गीत की पंक्तियां दृष्टव्य है- बागां में पपीहो बोल्यो, मै जानी कूण आवै सै। आवै सै यो शमशेर बीरो, के के सौदा ल्यावै सै। मां की तील भान को जाडो, बहू की रिमझिम ल्यावै सै।
सावन मास में तीज त्यौहार पर गीत की पंक्तियां प्रस्तुत हैं- आई री सासड साावन की तीज हिन्डोलो घल्यादयो जी चम्पा बाग मै। म्हारै तो बहुवड चम्पा ना बाग, जाए घलाआे अपना बाप कै। सावन मास में भाई अपनी बहनों की ससूराल में कुछ न कुछ दे कर आते हैं जिन्हें कोथली कहा जाता है। पढ़ें प्रस्तुत पंक्तियों में- मीठी तो करदे अम्मा कोथली, जाउ भान कै देष पपीहो बोल्यो पीपली। फागुण के गीत - अहीरवाल क्षेत्र में फागुण मास में जवान से बूढे तक सब किसी में मस्ती आ जाती है मस्ती भरे परिवेश में गाए जाने वाले गीतों में भी मस्ती की झलक साफ नजर आती है प्रस्तूत हैं ये पंक्तियां- एक सूसर कै दो बहू रै लाला, दोनू पानी नै जाय। रामचंद्र फागण आयो रंग भरयो रै लाला, आगली का सिर पै टोकणी रै लाला, पिछली का सिर पै माट, रामचंद्र फागण आयो रंग भरयो रै लाला। फागुण मास में मस्ती भरे माहौल में राजा, नबाब, किसान व मजदूर सभी बराबर होते हैं। प्रस्तुत पंक्तियों में देखें- होली खेलन आवै नबाब कहियो मुरेटन नै, होली भी खेलै गलियों मैं उडावै गुलाल। फागुण मास की समाप्ति पर होली का त्यौहार आता है। इसलिए होली के गीत भी गाए जाते हैं जिनमें बहनें भाईयों का मान बढाने व वीर बनाने की कामना यूं करती हैं- होली होली एे तेरो लम्बो टीको, लाम्बा डस की डोरी। डोर फिरावै रजनीश बीरो, रजनीश की बहू गौरी। फागुण के मस्त मास पर ये पक्तियां दृष्टव्य हैं- भागण का मस्त महिना मन्नै तेरी सूं। कोरी-कोरी चांदी की तागड़ी घड़ाई, उस पै जड़ाया नगीना मन्नै तेरी सूं। कहियो री उस सूसर मेरे नै बिन घाली ले जाए फागण मै, कहियो री उस बोहडिया म्हारी नै, दो महिना दम खाय पिहर मै। अगली पंक्तियां - षीषी जैपूर का रै बजार मै, पडयो नगादी सांप। मेरो इब रै निवाणों दिल्ली आगरो, षीषी दिल्ली का रै बजार मै, लोटन कबूतर जाय। अगली पंक्तियां- कैठे तो बोवा केषरो, कैठे कसूबा रो पेड। कसूबे केषरो तेरा रंग पै रीझी रै, क्यारी तो बोआ केषरो रै, धोरा कसूबा रो पेड। मंगल गीत- ये गण जाया अर्जन पाण्डे, यो कण जायो हनुमान। हनुमान पियारे ये दल कित रै समाये। कुंती जाया अर्जन पाण्डे, अंजनी नै जायो हनुमान। जच्चा गीत - जब किसी महिला को बच्चा पैदा होता है तो उसे जच्चा कहा जाता है। अहीरवाल में जच्चा गीत बहूत ज्यादा गाए जाते हैं। एक गीत की पंक्तियां दृष्टव्य हैं- छोटी सी जच्चा लाडली, हरमूनयो बजा रही जी। सूसरो जी आवै, दिखा बोहडिया ललना म्हारा, ललना सो रहया पलना, मै झूला झूला रही जी। जच्चा को तरह-तरह के व्यंजन- पकवान खिलाए जाते हैं। इस पर महिलाएं प्रस्तुत गीत के माध्यम से ठिठोली करती हैं- जच्चा की चटोरी जीभ जलेबी भांवै सैं, हे सुसरा नै गिरवी धरदे हे सासू का लगादे ब्याज जलेबी भांवैं सैं। बच्चा होने पर विभिन्न नेग दिए जाते हैं। उस पर गीत की प्रस्तुत ये पंक्तियां- हां आे पिया तडकै सबेरी दाई आवैगी, हां आे पिया होलर जनाई नेग मांगै गी। हां रै गौरी दे दिये और उल्टा ले लिये, हां रै गौरी बात चितां सी राजी कर लिये, हां रै गौरी ज्यादा करै तो डण्डा दो दिये। पीला गीत- कूआ/जलवा पूजन के अवसर पर पीला आेड कर जच्चा जाती है। इस गीत को प्रस्तुत ये पंक्तियां- पीलो तो आेढ म्हारी जच्चा सरवर चाली जी कोई सारे शहर सराही गोडा मारू जी। पीलो रंगादयो जी। भायली गीत- जच्चा की सखी पीला पोतडा जच्चा के घर ले कर आती है तो महिलाआें का झुण्ड साथ ले कर गीत गाती हुई आती हैं। गीत की प्रस्तुत पंक्तियां- भवर म्हारो भायली कै जाय, भायली कै आबो-जाबो झोडदे आे, मरूंगी विष खाय, भवर म्हारो भायली कै आबो-जाबो ना छूटै आे, कल मरो जित आज। बंदडी गीत- जिस कन्या का विवाह होना होता है उसे बंदडी/बनडी/बन्नी कहा जाता है। बंनडी गीत लगन देने के उपरांत विवाह तक प्रतिरोज रात्री को गाए जाते हैं। एक गीत की कुछ पंक्तियां प्रस्तुत हैं- बन्नी की दादो बरजै, लाडो नीम तलै मत जाय, कडा नीम की कडी निम्होली चालै हुचकी। मेरो रायबर याद करै सै, डट ज्या ए हुचकी। दूसरे गीत की पंक्तियां प्रस्तुत हैं- लाडो बूझै दादी से हे दादी, लाडो बूझै ताई से हे ताई, मै कैसे देखन जाउ, रंगीले आ उतरे बागां मै। बंदडा गीत- जिस लडके का विवाह होना होता है उसे बंदडा/बनडा/बन्ना कहा जाता है। बंदडा गीत लगन लेने के उपरांत विवाह तक प्रतिरोज रात्री को गाए जाते हैं। एक गीत की कुछ पंक्तियां प्रस्तुत हैं- बन्ना हो थारी हेली कै चौसठ पैडी, बन्ना हो मै तो चडती उतरती हारी। ये पंक्तियां दृष्टव्य हैं- बन्ना चावलों का हो रहया महंगा भाव हो, मै कैसे बुलाउ रिस्तेदार हो। मैनै दादा बुलाया दादी आई हो, सारे बालकां नै संग ले आई हो। भात गीत- विवाह से पूर्व बहन भाई के घर विवाह का न्योता देने जाती है तब गीत गा कर भात नोतने जाया करती हैं। ये पंक्तियां प्रस्तुत हंै- हे मै रूणझुन बहल जुडाय भात नोतने चाली। हे बाबल की आई हवेली मैनै उत ही बहली डाटी, हे इतना मै बोल्यो कन्हैयो, हम ना ल्यां भेली रूपइयो। अहीवाल सैनिकों की खान है। बहन भाई को कहती है कि भाई नौकरी पर मत जाना तैरी भान्जी का विवाह है भात भी भरना है। फिर भी भाई नौकरी पर जाता है और समय पर छुट्टी ले कर आता है और भात भरता है। ये पंक्तियां दृष्टव्य हैं- रै बीरा नौकर मतना जाइये मेरा कूण भरैगा भात। एे जीजी नौकरी का के डर सै तेरा आण भरूंगा भात। रै बीरा पांचू भाई अइयो, मेरो सारो लाइयो परिवार। जब भाई भात भरने आता है और बहन को देहली पर चुन्दडी आेडाता है उस समय के गीत की ये पंक्तियां प्रस्तुत हैं- आज सीम मै मेरो बीरो जगमग्यो, आयो मेरो मा को जायो बीर, हीराबंद लायो चुन्दडी। जै मै आेढू ंतो हीरा झड पडीं, डिब्बा मै धरूं तो तरसै जी, सादी क्यूना लायो चून्दडी। अपने भाई की जिठानी दोरानी के भाईयों के द्वारा लाई गई चुन्दडी से ज्यादा बढिया बताती हुई गाती हैं जिसकी पंक्तियां प्रस्तुत हैं- मेरी जिठानी कै पांच भाई मेरी मा को जायो एक सै। वे तो पांचू आया पचाय ल्याया, मांगी तो ल्याया वे चूंदडी। बान गीत- लगन के बाद और विवाह से पहले बान किये जाते हैं। जिस मौके पर बान गीत गाए जाते हैं, बान गीत की पंक्तियां प्रस्तुत हैं- आ एे तेलन तेल एे म्हारै चमेली का तेल एे। षमषेर घर सै कुल बहू संतोष तेल चढाइयो। दूसरे गीत की पंक्तियां दृष्टव्य हैं- काहे कटोरी मै उबटनो, काहे कटोरी मै तेल। रूप कटोरी उबटनो सूण कटोरी मै तेल। विवाह वाले दिन तेल उतारा जाता है उस गीत की पंक्तियां प्रस्तुत हैं- आए एे तेलन तेल एे, म्हारै चमेली को तेल एे। संजय घर सै बोहडिया षुषीला तेल उतार एे। आरता गीत-आरता वर व कन्या दोनों का ही किया जाता है। आरता सुहागन जीजी करती है कभी-कभार बुआ/भाभी भी आरता करती हैं। आरता गीत की पंक्तियां प्रस्तुत है- एक हाथ लोटो गौद बेटो, कर एक सुहागन जीजी आरतो। एक हाथ कसीदा, गौद भतीजा कर एक सुहागन जीजी आरतो। निकासी गीत- वर की निकासी निकाली जाती है उस समय के गीत की पंक्तियां प्रस्तुत हैं- घोडी डाट ले बंदडा, चलती तो घोडी ना डटै दादी एे, एे जी या तो जाय डटैगी सूसराल। दूसरे गीत की पंक्तियां प्रस्तुत हैं- अनोखा लाडला आे रायबर, मजल्यां-मजल्यां चालै। एक मंजिल तेरी आगरै आे रायबर दूजी संगानेर। कै तीजी सासरै आे रायबर। खोडिया गीत- जब वर की बारात विवाह करने चली जाती है उस रात को घर व गांव की महिलाएं घर के आंगन में इकट्ठी हो कर खोडिया नृत्य करती हैं। इन गीतों में सभी प्रकार की हांसी व ठिठोली होती है, वहीं सभी तरह के अभिनय नर-नारी आदि महिलाएं ही करती हैं। खाडिय़ा गीत की पंक्तियां प्रस्तुत हैं- मा मेरा ब्याह कर दे ना तो बंदडे की भाभी नै लेकै भाग जाउगो। वा तो लंबी घनी रै मेरा लाल, तेरी उं की नाही बनै। दूसरे गीत की पंक्तियां यूं हैं- सपेला बीण बजाइये हो चालूगी तेरै साथ। एे महलां की रहने आली, रै तनै झोंपडी लगै उदास। झोंपडी मैं गुजर करूंगी आे पर चालूंगी तेरै साथ। अगले गीत की पंक्तियां ये दर्षाती हैं- मेरी पसली मै दर्द उठयो री मेरी माय। कहो तो बेटी तेरा सूसरा न बुलादयू, नहीं री मेरी माय, नहीं री मरी माय, उस बूडला का काम नहीं री मेरी माय। अगले गीत की मंक्तियां क्या बताती हैं- मन्नै चूंदडी मंगादे हो आे ननदी का बीरा। तनै नू तनै नू घूंघट पै राखू हो आे ननदी का बीरा। फेरा गीत- फेरों पर गाए जाने वाले गीतों में से एक गीत की बानगी देखिए- गढछोड रूकमण बाहर आई, चौरी तो छाई म्हारै बालमा। कन्यादान गीत- कन्यादान गीत की एक झलक देखिए- लाडो को दादो दे रहयो दान, दादी राणी बरज रही, मत बरजो तिरिया नार, लाडो कोई दिन की। सीठना- अहीरवाल क्षेत्र में सीठनों का बडा ही महत्तव है। सीठना एक एेसी परम्परा है जिसमें अपशब्दों, गालियों और फूहडता का इस्तेमाल भी सरेआम किया जाता है फिर भी लडाई झगडा नहीं होता है और इन सीठनों से ज्ञानवर्धन भी होता है। सीठना गीतों की कुछ पंक्तियों की निम्नलिखित झलकें प्रस्तुत हैं- बारातियों पर- हमनै बुलाये मूछाआले, ये मुछकटे क्यूं आए जी हमनै बुलाए गौरे-गौरे ये काले-काले क्यूं आए जी। समधी पर- चाकी मै राछ घलादयो री चाकी मै। समधी नै पीसन लगाादयो री चाकी मै। जै पीसैगा मोटा मारूंगी रै सोटा, भागते का पाडल्यूं लंगोटा रै समधी का। मौसा पर- सुन मेरे मौसा सुण कै जा, मौसी नै गिरवी धरकै जा। सुन मेरे मौसा सुनकै जा सोने की हसली देकै जा। दामाद पर- हे जी बडा रगड मसल धोया पाव, तडकै तो जांगा सासरै जी मा का राज। ननदौई पर- कैठासी आया प्यारा पावना जी, कैठेे लियो सै मकान ननदेउ जी। लाड जमाई प्यारा पावना जी। स्याणा सीं आया प्यारा पावना जी, आनंदपुर लियो सै मकान ननदेउ जी। जीजा पर- बिन बादल बिन बादली, यो अंबर क्यानै छायो जी।
मै तूनै पूंछू एे सखी यो षमषेर क्यानै आयो जी, यो जीजो क्यांनै आयो जी। दूसरे गीत की पंक्तियां- हरी-हरी मुरेलन कै इक्कादुक्का पान, वो तो साला बहनेउ दोनू नहायबा नै जाय, जीजा नै नहानू ना आवै वो तो लोटपलोटा खाय, उको सालो होशियार, उकै मारै दबोचा चार, मत मारा आे साला तनै भान ब्याहदूं चार। विदाई गीत- जब कन्या की शादी के बाद विदाई होती है उस अवसर पर अनेक गीत प्रचलित हैं। जिनकी बानगी देखिये- तुलियां का बंगला हो, बाबल चिडिया नै खोस लियो और मंगादयो दो चार धीयड घर जा अपने। दूसरे गीत की पंक्तियां- जीजी राम राम हे, कदे फेर भी मिलां, तू तो भूल ज्यागी हे, हम तो याद करां। तीसरे गीत की पक्तियां- सुन आे जीजा सुनतो जाइये, महारी नमस्ते लेतो जाइये। चौथे गीत की पंक्तियां- साथन चाल पडी, मेरा डबडब भर आया नैन। नापने का गीत- वर वधू को ब्याह कर घर पहूंचने पर घर के द्वार पर वधू को नापा जाता है। उस गीत की पंक्तियों के अंश देखिए- गोर गडी एे गोर गडी। सासू छोटी बहू बडी। सेडभईया गीत- वधू को ब्याह कर लाने के बाद अगले दिन सेडभईया की धोक लगाई जाती है। इस अवसर पर गाए जाने वाले गीत की ये पंक्तियां प्रस्तुत हैं- छोटो निंबू बडो एे अनार, छोटो सो निंबू रस भरयो टपक टपक रस जाय चुसन आलो घर नहीं। बधावा गीत- लडकी की शादी करने के बाद जब वह ससुराल के लिए रवाना हो जाती है उस समय पर बधावा गीत गाया जाता है। उसके अंश देखिये- म्हारै आंगन बाजो बाज्यो जी मा का राज। पिछवाडे जी साहिबा लग्यो सै निसान, बधावा नै सुनो जी मा का राज। बाबा भईया गीत- उंचा थारा कोट, नीची थारी खाई जी। उठो बाबा भोमिया खोल किवाडी जी।
गीतों की झलक जो उपर दर्शाई गई इनके अलावा उक्त अवसरों पर बहुत से गीत गाए जाते हैं तथा दर्शाए गए अवसरों के अलावा पुत्र कामना, पुत्री जन्म, आेजना, प्रसवपीड़ा, वायदा, नेग, उपहार, भतीजे के जन्म, छूछक, व्यंजन, कन्या के विवाह की चिंता, सुहाग, बारात की पहूंच, कंगण जुआ, परेवा, पनघट, चक्की, खान-पान, पहनावा, देवी-देवता, सींझा, देवोत्थान, कातक नहान, तुलसी पूजा, गनगौर, प्रेम, विरह, कृषि, सैनिक परम्परा, उल्हाना, शिक्षा, नसीहत, व्रत एवं त्यौहारों आदि अवसरों पर लोक गीत प्रचलित हैं ही साथ में पति की मौत पर, पत्नी की मौत पर, कुंवारी कन्या की मौत पर, विवाहिता पुत्री की मौत पर, जमाई की मौत पर भी लोक गीत प्रचलित हैं। महिलाएं जब गीत गाती हैं तो अपने बीच में या आस पास में पुरूष नहीं होते हैं मगर उनके गीतों को पुरूष पुरूषालय में भी बडी सहजता से सुनकर मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। महिलाएं कभी कभी तो इतने अभद्र गीतों को भी गा डालती हैं फिर भी उनके द्वारा गाये गये गीतों पर अहीरवाल समाज में कोई एेतराज नहीं होता है। अहीरवाल क्षेत्र दक्षिणी हरियाणा, दिल्ली सूबा, उत्तरी राजस्थान के अलवर, जयपुर, सीकर और झुंझंूनू जनपदों के अधिकतर हिस्से में बटा हुआ है। फिर भी इसे अहीरवाल कहा जाता है। प्राचीन काल में इसका विस्तार बहुत ज्यादा था। विभिन्न राजाआें, बादशाहों की राजधानी इसी अहीवाल क्षेत्र में होने के कारण इसने बहुतसी परेशानियों को झेला है।
यहां के वीर सैनिकों ने अपने प्राणों की आहुतियां दे कर देश की रक्षा की है। भारत वर्ष के प्राचीन काल से लेकर अब तक के सभी छोटे से बडे़ युद्धों  में अहीरवाल के वीर जवानों ने अपनी सहादतें बहुत ज्यादा संख्या में दी हैं। इसीलिए अहीरवाल को सैनिकों की खान कहा जाता है। अहीरवाल की मानी जाने वाली राजधानी भगवान श्री कृष्ण के बडे भ्राता बलराम की पत्नी रेवती के नाम पर पडे़ रेवती नगर जो अब रेवाड़ी नाम से जाना जाता है। अहीरवाल की राजधानी रेवाड़ी मानी जाती है। पाण्डवों का बनवास काल का अधिक समय इसी अहीरवाल क्षेत्र में बीता वहीं अज्ञातवास भी इसी क्षेत्र में बिताया। संसार की प्राचीनतम पर्वतमाला अरावली का बहुतसा हिस्सा, मरूस्थल का हिस्सा भी अहीरवाल क्षेत्र में आता है। संसार के प्रथम वैज्ञानिक ऋषि उद्दालक ने भी अहीरवाल क्षेत्र में ही अपनी तपस्या की थी। हमें भागदौड़ भरे जीवन और तकनीकी युग में लोक गीत गाए जाने का समय ही नहीं मिल पाता है क्योंकि बहुत सी शादियां समारोह स्थलों में होने लग गई हैं। लगन भी तीन या दो दिन के ही आने लग गए हैं। अन्य अवसरों पर तो लोक गीत आज भी खूब प्रचलन में हैं। अहीरवाल के लोक गीत सभी में मेलजोल बढ़ाने वाले हैं। इसीलिए ये समरसता के प्रतीक हैं। अगर इनके हर पहलू के लोक गीतों का अलग अलग संग्रह किया जाए तो अलग अलग पुस्तकें तैयार हो सकती हैं। 
साभार रउताही 2014


No comments:

Post a Comment