Monday 20 October 2014

सावन सरब सोहाओन सखि हे बज्जिकांचल के वर्षागीत

ऋतुगीतों के गायन की परंपरा बज्जिकांचल में रही है। पारंपरिक अनुष्ठानों एवं विवाह के उपलक्ष्य में ऋतुगीत गाये जाते हैं। परंतु बरसात के गीत इनमें सबसे अलग हैं। ये गीत न सिर्फ संख्यात्मक दृष्टि से अधिक हैं, बल्कि इनके गायन का प्रचलन बरसात के समय में और भी अलग से हैं। विवाह के समय ''बटगमनीÓÓ और ''मलारÓÓ गाने की परंपरा है। इन दोनों प्रकार के गीतों में वण्र्य विषय की विविधता रहती है। विवाह के अन्य अनुष्ठानों के गीतों के विषय निर्धारित रहते हैं, पर ''मलारÓÓ और ''बटगमनीÓÓ के विषयों को सभी विषयों से अलग स्त्री समस्याओं, दंपति अनुराग और प्रेम कल्पनाओं से जोड़ा गया है। महिलाओं ने इन गीतों को उल्लास, राग और समाज सम्मोहक वातावरण के लिए और उन्हीं पर तैयार किया होगा। इस प्रकार वर्षा के गीत ''मलारÓÓ और ''बटगमनीÓÓ में बहुधा आये हैं। बज्जिकांचल में प्रकृति के स्वभावों के बारह रूप देखे गए हैं। प्रत्येक माह का अपना अपना स्वभाव दिखा है और उन सभी महीनों में कामिनी के हृदय, जीवन एवं संवेदना पर पडऩे वाले प्रभावों का सरस एवं प्रभावी वर्णन किया गया है। चैत से लेकर फागुन तक पूरे के पूरे महीने गीतों में रुपायित हुए हैं। ऐसे गीतों को बारहमासा कहा गया है ''बारहमासाÓÓ से अलग ''छौमासाÓÓ भी प्रचलित हैं और इन सबसे चौमासा गाये जाते हैं। उल्लेखनीय है कि ''बारहमासाÓÓ एवं ''छौमासाÓÓ के चार महीनों में वर्षा का जो वर्णन है, वैसा ही ÓÓचौमासाÓÓ में है। इन तीनों प्रकार के गीतों की धुनों में भी समानता है और वर्षा के आगमन से लेकर उसकी विदाई के समय का चित्रण तथा इन महीनों में कामिनी अर्थात् कामासक्त स्त्री के शारीरिक एवं मानसिक आरोह-अवरोह की अभिव्यक्ति अत्यंत सजीवता के साथ हुई है। महीनों के वर्णन करते उन गीतों में चार माह तो निस्संदेह वर्षा वर्णन के हुए हैं। इन गीतों के अतिरिक्त ''बरसातीÓÓ और ''कजरीÓÓ गाने की भी परंपरा है। ''बरसातीÓÓ तो स्वयं अपने स्वभाव का रचनाबोध कराते गीत हैं, ''कजरीÓÓ बादल के काले अर्थात् काजल रंग का द्योतक है। बरसात में किशोरियाँ एवं युवतियाँ एक विशेष प्रकार का खेल भी खेलती रही हैंं। इन गीतों में ऐसे खेलों का वर्णन है कि कजरी खेलने में सिर्फ बादल और बरसात ही स्त्रियों के बाधक बनते हैं। बज्जिका लोकगीतों में एक अद्भूत विशेषता उनकी कथात्मकता है। प्रत्येक गीत की कथावस्तु अपनी संपूर्ण दृश्यात्मकता के साथ उत्पन्न होती है। यहाँ हम बज्जिका के वर्षा गीतों के प्रकारों एवं उनकी कथात्मकता से जुडऩे का प्रयास करेंगे।
मलार
सखि! मुझे मुरारी भूल गये। पहले अषाढ़ में ही वह मुझे त्याग गये और अब अंधेरा किसके भरोसे कटेगा? रिमझिम वर्षा में यही चिंता सताये जाती है। कामाग्रि मेघ की बूंदों में बरसती है, भादो बीता जाता है और आसिन भी यही पुकार-पुकारकर कहता है-मोहन! कैसे भूल गये!
गीत:-     सखि रे बिसरल मोहि मुरारी
    प्रथम असाढ़ तेजल मोहि मोहन
    कोन विधि खेपन अन्हारी
    रिमझिम रिमझिम सावन बरसे
    बैठल सोच विचारी
    मदन मेघ बूंद बन बरसे
    हरि बिसरल गिरधारी
    आसिन कहे पुकार हे ऊधो
    बिसरल मोहे मुरारी
तब, ऊधो का बड़ा अनर्थ दिखता है, जब योग और भक्ति से अधिक गोकुल की सित्रयाँ मोहन के रंग में रंगना सर्वाेपरि मानती हैं। उनके ज्ञान का दंभ उन उपालंभों से दब जाता है, जो बार-बार स्त्रियों के मुँह और हृदय से निकलते हैं-उधो! इस कठिन बरसात में बादल गरज रहे हैं, मेरी छाती फाटी जाती है और मैं चौंक-चौंक उठती हूँ। उनका हृदय कितना कठोर हो गया। उन्होंने जन्मों के प्रेम को ठुकराकर हमारी अवहेलना कैसे कर दी उधो! क्यों नहीं आये प्राणनाथ?
गीत:-     ऊधो प्राननाथ नहीं आये
    आएल प्रबल दिवस ऋतु बरसा
    तापर घन घहराये
    चितवन चौंक फटय मोर छतिया
    कत दिन मोहि सताये
    कुलिश कठोर भेल हुन छतिया
    हरि घरिया नहिं आये
    नारि विरानि जानि मोहि त्यागल
    एहन आदेश चलाये।
    विसरल प्रेम पुरातन अब हरि
    वर नागरि मन भाये
    सुनकर वचन सुबाब कब बाँसुरी
    अमृत पाँती नहिं पाये।
        बटगमनी
''बटगमनीÓÓ रास्ते का गीत है। स्त्रियाँ रास्ते-रास्ते इसे गाती चलती हैं। परंतु यह समूह गीत है और इसे किसी पूजा, विवाहादि आदि अवसरों पर ही गाया जाता है। ''पानी काटनेÓÓ, ''आम महुआ ब्याहनेÓÓ या ऐसे ही किसी पूजा-पाठ से लौटने अथवा निर्धारित स्थल पर जाते वक्त इसे गाया जता है। बटगमनी बाट और गमनी से निर्मित शब्द है। बाट का अर्थ रास्ता औरा गमनी का अर्थ गीत लगाया जाता है। इस प्रकार के गीतों का वण्र्य, वियोग, विलास और उल्लास तो हैं ही, किसी परपुरूष की कामोदीप्त, कुदृष्टि, और उनके प्रति स्त्रियों का प्र्रतिकार भरा उत्तर भी गीतों में कथात्कता के साथ उपलब्ध हंै। यहाँ बटगमनी के बहाने वर्षा वर्णन ही हमारा अभीष्ट है।
सजनी! इस भादों मास में वह मुझे सांत्वना दे गये हैं, पर वियोग अब सहा नहीं जाता । व्याकुलता बढ़ी जाती है। सभी दिशाओं में मदन की ज्वाला धधकती प्रतीत होती है और मेरी देह में तरह-तरह की पीड़ाएँ उठती जाती हैं। यह दु:ख किसके सम्मुख बैठकर कहूँ। विद्यापति का यह गीत अपनी श्रुतिपरंपरा में लोकगीत की प्रसिद्धि पा गया है-
गीत:-     अवधि मास ई भादो सजनी गे
    निज कय गेला बुझाय
    से दिन आबि तुलायल सजनी गे
    धीरज धरल नहिं जाये
    अति आकुल पहु बिनु सजनी गे
    सुंदर अति सुकुमारी
    अकछि हिया पथ हेरथ सजनी गे
    अजहूँ न आएल मुरारी
    खन-खन मदन दसों दिस सजनी गे
    पीर उठे तन जागि
    से दु:ख काहि बुझाएल सजनी गे
    बैठूँ केकरा लग जाये
    हरि गुण सुमर बिकल भेल सजनी गे
    के बूझत दुख मोर
    विद्यापति कवि गाबे सजनी गे
    आएल नंद किशोर
        बारहमासा
चैत माह में बेलियाँ फुलायीं और मोहन पता नहीं किस अपराध के कारण मुझे त्याग गया। बैशाख आया, तो पसीने तर-ब-तर हुई जाती हूं, मोहन रहते तो शरीर में चंदन घिसकर लेप लगा देते। जेठ में भारी बूंदों के गिरने की संभावना व्यक्त करते दादुर शोर मचाने लगे। उनके बिना उदासी में मुझे कुछ भी नहीं भाता। सावन का सुहाना समय, कोयल और मोर की आवाज ; ऐसे में मेरी आँखों से गिरनेवाली विरह बूंदों से मेरी साड़ी भींगी जाती है। भादो की काली और डरावनी रात में किसके संग रहूँ। अब आसिन माह में मोहन को पत्र लिखूंगी और मोहन को भेजूंगी। पत्र भेजा पर कार्तिक में भी मोहन नहीं आया, मनोरथ की पूर्ति ना हुई। अगहन में कई प्रकार के अन्न खेतों में उपजे, हृदय डोला और मेरी कामाग्रि मुझमें और तीव्रता से दमकने लगी। पूस में ठण्डक और बढ़ी और सारी-सारी रात मैंने बैठकर बितायी। माघ में मोहन की मुरली सुनायी पड़ी। चलो सखि! मोहन कहीं जमुना के किनारे खड़ा होकर तो बंशरी नहीं टेर रहा। फागुन में रँग और गुलाल उड़े, तो मन में और हूक उठी-कृष्ण होते, तो उनके संग केलि करती, और मैं भी अबीर रंग खेलती-
गीत:- चैत हे सखि फुलल बेली, निकस कुंज नेवार हे
    तेजी मोहन गेल मधुपुर हमर कोन अपराध हे
    बैशाख हे सखि ऊष्णा ज्वाला घाम से भींजल शरीर हे
    रगडि़ चंदन अंग लेपितौ घर जो रहइत कंत हे
    जेठ हे सखि बूंद भारी दादुर शोर मचावे हे
    सुनि बिना मोहि कछु न भावे सतत सेज उदास हे
    सावन हे सखि रैनि सोहावन कोइली कहुके मोर हे
    नयन ढरि ढरि भीजें साड़ी दादुर शोर मचावे हे
    भादो हे सखि निशि भयावन सोचब कत दिन रात हे
    केकर संग हम ठाढि़ होएब के कहव निज बात हे
    आसिन हे सखि लिखन पाती मोहन निकठ पठाव हे
    अपन विनती कहब हरि से हमर खबर जनाब हे
    कार्तिक हे सखि इहे मनोरथ आएत नंदगोपाल हे
    मोर प्रियतन भेल भारी ओतहि बसु नंदलाल हे
    अगहन हे सखि उपज सारी भाँति भाँतिक अन्न हे
    हृदय डोले मदन दमके तैयो न आबे कंत हे
    पूस हे सखि बढ़ल जाड़ा पहु बिना नहिं जाय हे
    सगारि रैनि हम बइठि गमाओल होएत कखन परात हे
    माघ हे सखि कान्ह कामना मुरली टेरथि नंदलाल हे
    चलहु सखि घाट जमुना होएव तरूवर ठाढ़ हे
    फागुन हे सखि खेलब होरी उड़त रंग गुलाल हे
    अबीर अबरख धै जो रखितौ कृष्ण संग करितौं केलि हे।
बारहमासा के बारहों महीनों में कामविदग्धा स्त्री की करूण व्यथा वर्णित हुई है, जिसमें वह सखियों, ऊंधो या अपनी तरह की अन्य स्त्रियों को रो-रोकर अपना हाल कहती है। कई बारहमासाओं में कुछ दूसरे प्रकार के वण्र्य भी आये हैं, परंतु ये वण्र्य मथुरा और गोकुल से अलग नहीं हुए। यह भी उल्लेखनीय है कि कुछ बारहमासाओं का गीतारंभ आषाढ़ से होता है, तो कुछ गीत सावन से भी शुरू होते हैं। अग्रलिखित बारहमासा सावन से आरंभ हुआ है- सावन में कुंजवन में ग्वालिन दही बेचने आयी है, वह हमसे विवाद कर बैठी और कंस के नाम की धमकी दे गयी। ग्वालिन! भादो में भ्रम त्यागो और वापस घर चली जाओ, यमुना घाट दान मांगता है, वह चुका देना-
गीत :     सावन शाखा कुंज वन में ग्वालरी दहि बेचुरी
    करत वाद विवाद हम से देहू कंस दोहाय री
    भादव भरम गमाय ग्वालिन धुरहू घर चलि जाहुरी
    घाट यमुना दान मांगय देहू दान चुकाय री
बारहमासा के शेष पंक्तियों में अन्य माहों में वियोगिनी का हृदयस्वर उभरा है। परंतु आषाढ़ माह में कृष्ण राधा की करूणा से द्रवित होकर राधा को आ मिले। इसे सूरदास ने गाया-
गीत :     आषाढ़ राधा ठानल करूणा कृष्ण राधा साथ री
    सूरदास गाओल इहो पद राधा कृष्ण मिलान री
अगला बारहमासा आषाढ़ से आरंभ हुआ है। जीवों के अनेक प्रकार के बोलों को सुनकर विरहिनी को नैहर भी नहीं भा रहा। पिया मुझे छोड़ गये और आँखों से बहने वाले आँसू यह पुकार-पुकार कर कहते हैं कि संसार के सभी पुरूष एक से कठोर होते हैं। सावन में सर्वत्र सुहावनी छटा बिखर आयी, बाबा की फुलवारी में झूला झूलने जाऊंगी। भादो की अंधेरी रात में कैसे अकेली रह पाऊँगी। बारहमासा के इन चार माह के वण्र्य में वर्षा वर्णन आये हैं-
गीत :     आएल मास आषाढ़ बोली बाजे हजार
    पिया बिना नीको न लागे नइहरवा में
     पिया गेलन हमरा छोड़ गिरे नैना से लोर
    होइय पुरूष कठोर सारी दुनिया में
    सावन सरब सोहावन झूला करूँ तैयार
    झूला झलि लियऊ बाबा फुलवरिया में
    भादो रैन अन्हार अति भीषण रात
    कइसे रहब अकेले अन्हरिया में
सावन में हरियाली छाने से प्रकृति में मनोरम छटा विकसित हो जाती है। ऐेसे में जिन स्त्रियों के पति उनके संग है, वे तो सौभाग्यशाली हैं पर जिनके पति अलग हैं, उनका जीवन व्यर्थ ही महसूस होता है। सावन में सर्वत्र शोभा विराजने लगी, भादो में दामिनी चमकी और रिमझिम बूंदे छिटक आयीं-
गीत: सावन सरब सोहाओन सखि हे फुलल बेली चमेली हे
    सुरभि सौरभ भ्रमर भ्रमि करे मधुरस केलि हे
    भादो घन झहराय दामिनी गरज शब्द सुनाय हे
    बरसु घन घनघोर रिमझिम मोहे न कुछ अभाव हे
आगे की पंक्तियों में वर्षा वर्णन नहीं है। पर जेठ के बाद आषाढ़ का वर्णन जैसे ही आया है वियोग की पीड़ा बढ़ चली और विदग्धा को पहाड़ सा जीवन महसूस होने लगा। वह चिंता में है किस प्रकार जीवन नैया को पार लगाया जाये-
कौन विधि अषाढ़ खेपब परम दु:ख अपार हे
बनत सरोवर बहत बहि बहि नयन युग जलधार हे
अग्रलिखित बारहमासे की शुरूआत चैत से हुई और तीसरे माह के बाद आषाढ़ से वर्षा की धमक मिली। अभी से जलधार और विद्युत का शोर देह में कँपकँपी पैदा करता है। सावन में मेघ और ठंडी हवा ने प्रिय का स्मरण करा दिया, यौवन उमड़ा पर प्रिय तो संग नहीं। भादो में जलधार और बिजली की कड़क से अचेत होकर गिरी। सखि! श्याम बिना अब जिया न जाये-
गीत:     आषाढ़ हे सखि झहरि झमकत नीर बिजुरी शोर हे
    देखि काँपे देह थरथर अपन धारा नीर हे
    आएल सावन नीर बरसत मेघ धीर समीर हे
    सुमरि यौवन उमडि़ आवत प्राणपति नहिं संग हे
    भादौ जलधर कड़कि ठनके खसब चौंकि अचेत हे
अगले बारहमासा में सीता-राम आए हैं। बारहमासाओं का अभिप्राय केलि आनंद है और इनके पात्र प्राय: कृष्ण, राधा या गोपिकाएँ हैं। परंतु राम और सीता की पवित्र जोड़ी पर भी बारहमासा गाये गये हैं। अगहन में सीता का राम से विवाह हुआ और पूस में कोहवर सजा। माघ में रघुवर को सम्मानित किया जाएगा। फागुन में फगुआ खेलवाया जायेगा, चैत में फूल तोड़ लायेंगे और बैशाख में उनके लिए पंखा झला जाएगा। जेठ की गर्मी असह्य जैसी होती है और आषाढ़ में बूंदों की झड़ी लगती है। सावन में रघुवर को झूला झूलवायेंगे। भादो की अंधेरी रात में वह याद आयेंगे, आसिन में सीता उनके लिए श्रृंगार करेगी और कातिक में उन्हें मिथिला आना पड़ेगा-
    अगहन सीता के विवाह पूस कोहवर तैयार
    माघ सीरक भराय देव रघुवर जी के
    फागुन फगुआ खेलायब चैत फूल लोढि़ लायब
    वैशाख बेनिया डोलाएब रघुवर जीके
    सावन झुलवा झूला दे रघुवर जी के
    भादो रात अन्हार आसिन करब सिंगार
    कातिक आ गेल मिथिला रघुवर जी के
वर्षा के तीन महीनों में प्रिय की याद सर्वाधिक आती है। स्त्रियाँ तमाम आध्यात्मिक एवं पौराणिक धारणाओं में रमती हैं। व्याकुल हृदय में कई प्रकार के ख्याल आते हैं और वह अपने प्रिय को तरह-तरह के वास्ते देती हैं। स्त्रियों को प्रीति सर्वाेपरि लगती है। वे अपनी इस धारणा के पीछे पारंपरिक कथाओं का हवाला देती हैं-प्रीति के कारण ही तो श्रीराम ने सेतु बंधवाया। आषाढ़ में जलधार सजी और राम सीता की तलाश में निकल पड़े। सखि! सावन में जल की बूंदे बरसते ही सभी के साजन घर लौटे, तब भी हमारे प्रिय परदेस में है। भादों की अंधेरी भयानक रात में अकेले डर लगता है।
प्रथम मास आषाढ़ हे सखि साजि चलल जलधार हे
प्रीति कारण सेतु बान्हल सीता उदेश श्रीराम हे
सावन हे सखि सर्व सुहावन रिमझिम बरसत बूंद हे
समक बलमुआ रामा घरे-घरे आएल हमर बलमुआ परदेस हे
भादो हे सखि रैन भयावन दूजे अन्हरिया रात हे
ठनका जो ठनकल राम बिजुली जे चमकये
देखि जियरा डेराय हे
आषाढ़ के पहले ही दिन जलधार सजी। सखि! मेरी तो बाली वय है, पिया परदेस है। कौन उपाय करूँ। सावन में पपीहों ने भी पिया की रट लगायी। भादो में जल-थल नदी उमड़ी और चारों दिशाओं में कालिमा छा गयी। पिया सुबह में मधुपुर गये और पुन: भोर होने को आयी, वह नहीं लौटे-
प्रथम मास आषाढ़ हे सखि साजि चलल जलधार हे
वारी वयस विदेस बालम करब कोन प्रकार हे
सावन रिमझिम बूंद बरसत पिया बसथि बड़ी दूर हे
पिया पिया के रटत पपीहा जंगल बोलत मोर हे
भादो जल-धल नदी उमडि़ गेल चहुँदिशि श्यामा श्याम हे
एक भोर जब गेल मधुपुर ओतहिं भै गेल भोर हे
बारहमासाओं में आज के संदर्भ भी व्याख्यायित हुए हैं। रोजगार की तलाश में कलकत्ता गये पुरूष की स्त्री ने उसके रास्ते हर माह देखें। अगहन में चूरा कुटवाया और पूस में दही जमाया। वह फागुन में फगुआ खेलने के लिए विकल रही और चैत में फूल तोड़कर श्रृंगार कर बैठी। वैशाख एवं जेठ ने उन्हें पंखे की हवा देने को तैयार रही। वह आषाढ़ में भी आ जाते तो सावन में दोनों केलि करते, भादो, भी ऐेसे ही बीता, आसिन में भी आशा न पूरी, कलकतिया(कलकत्ता में प्रवास करनेवाला)तो कार्तिक में आया-
कातिक अएले कलकतिया जोहन बटिया
अगहन चूरबा कुटाएब पूस दही पौराएब
फागुन फगुआ खेलाएव चैत फूल लोढि़ लाएब
बैसाख बेनिया डोलाएव जोहन बटिया
जेठ हेठ भ गमाएब आषाढ़ घर चल जाएब
सावन दुनू मिलि खेलब जोहन बटिया
भादो नहीं घहराय आसिन आस लगायब
कातिक ऐलै कलकतिया जोहन बटिया।
        चौमासा
चौमासा गीतों में बरसात के चार माह आये हैं। यद्यपि बारहमासा भी बरसात में ही गाया जाता है। प्राय: झूला झूलते स्त्री-पुरूष बारहमासाओं को गाते-सुनते हैं। तथापि, चौमासा गीतों में सिर्फ बरसात के महीनों की ही चर्चा आती है। चौमासा के चार माह के वण्र्य बारहमासा के बरसात माह के वण्र्य की तरह ही हैं। बारहमासा के चार मास निकालकर भी चौमासा गायन की परंपरा है।
ऊधो! आप स्वयं मधुपुर जाइए। अंगों में शीतल चंदन लगाकर कामिनी ने श्रृंगार किया है। अन्य दिन प्रीत भले ही भाग्य में न हो, पर आषाढ़ में सुख मिलना अति आवश्यक है। एक तो गौरी की उम्र कच्ची है, उस पर पिया परदेस जा बसे, तीसरे बूंदें झमाझम बरसीं। इस प्रकार सावन ने अधिक क्लेश किया। भादो की अंधेरी रात ने डराया, आसिन में भी आश न पूरी। कृब्जा सौतिन ने श्याम को भरमा रखा है।
गीत : ऊधो अपने से मधुपुर जाऊ
    शीतल चंदन अंग लगाओल कामिली कैल सिंगार
    आये दिन के प्रीत पाछे सुख करू मास आषाढ़ हे
    एक त गौरी बारी बयस के दोसरे पिया परदेस
    तेसर बूंद झमाझम बरसे साओन अधिक कलेस
    भादो हे सखि रैन भयाओन एक त अन्हरिया रात हे
    ठनका जे ठनके बिजुली जे चमके होएव ककरा लग ठाढ़ हे
    आसिन हे सखि आस लगाओल आसो न पूरल हमार हे
    आसो जे पुरलइ कुब्जा सौतिनिया के जे कंत रखल लोमाय हे
       कजरी
कजरी बादल के कज्जल रंगों से जुड़ा राग का खेल है जिसमें स्त्रियाँ जमा होकर गाती हैं। ऐसे खेल में बादल ही बाधक बनता है, गीतों में इसका चित्रण है- ननद! कैसे कजरी खेलने जाऊँ। बादल घिर आये-
गीत :     कइसे खेले जाएब सावन में कजरिया
    बदरिया घेरि आये ननदी
बज्जिका के लोकगीतों में बरसात के गीत सिर्फ प्रिय-वियोग से नहीं जुड़े। बरसा के अभाव में कृषकों की स्थितियाँ भी चित्रित हुईं:-
गीत :- बरसहु बरसहु इन्नर देवता
पानी बिना पड़ल अकाल हो राम
वर्षा नहीं होने की स्थिति में बज्जिकांंचल में कई अनुष्ठान भी होते हैं। स्त्रियाँ जट-जटिन खेलती हैं और विधवाएँ अंधेरी रात में हल चलाकर इन्द्र से अनुनय करती हैं। ऐसी कई क्रीड़ाए यहाँ प्रचलित हैं।
बज्जिकांचल के वर्षागीत मनोरम वण्र्य एवं कर्णप्रिय धुन के लिए अत्यंत प्रसिद्ध हैं।         
साभार रउताही 2014 

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