Monday 20 October 2014

प्रमुख संस्कार गीत और लोकव्यवहार

छत्तीसगढ़ की जनता का धर्म के प्रति अटूट विश्वास है।  भारत के शास्त्रकारों ने जिन सोलह संस्कारों का विधान किया है उनमें से तीन प्रमुख संस्कार छत्तीसगढ़ में विशेष रूप से मनाये जाते हैं - जन्म, विवाह और मृत्यु ।
1. जन्मगीत - छत्तीसगढ़ में संतान जन्म को अपार सुखकारी उत्सव के रूप में मनाया जाता है।  यहंा की नारी अपनी संपूर्णता मातृत्व सुख प्राप्त करने में समझती है ।  गर्भिणी होना उसके लिए सबसे अधिक सुखदायी होता है परंतु नौ महीने तक उसे जिस आनंदमयी कष्ट का सामना करना पड़ता है उसे अन्य कोई नहीं समझ सकता ।  इस व्यक्त/अव्यक्त प्रसन्नता से संबंधित; गर्भाधान से लेकर संतान जन्मोत्सव तक पूरे नौ माह की अवधि के गीत जन्मगीत के अंतर्गत आते हैं ।  छत्तीसगढ़ में प्रथम गर्भाधान के सातवें माह में 'सेधौरीÓ संस्कार होता है ।  नौ माह में संतानोत्पत्ति के तीसरे दिन 'कांकेपानीÓ पीने का संस्कार होता है ।  छठे दिन 'छठी' और बारहवें दिन 'बरहीÓ का संस्कार होता है ।  इसी दिन 'कांकेपानी' के घड़े को विसर्जित किया जाता है ।  इन गीतों में बालक के जनमने के पूर्व गाया जाने वाला 'सेधौरी और सोहरÓ प्रमुख है ।  सेधौरी 'साधÓ शब्द से विनिर्मित है जिसका अर्थ है - 'इच्छा की पूर्तिÓ गर्भधारण के बाद कष्ट रहित प्रसव और मनमोहक संतान की कामना हर स्त्री को होती है । उस कामना की पूर्ति के लिए गाया जाने वाला गीत 'सेधौरीÓ गीत है।  सेधौरी का संस्कार प्रथम गर्भधारण के सातवें माह के बाद और नौवे माह के पूर्व किसी भी शुभ दिन में संपन्न किया जाता है । निम्नलिखित गीत में संतान कामना से आल्हादित गर्भवती नारी की प्रसन्नता, शील-संकोच, उसकी शारीरिक अवस्था का संश्लिष्ट चित्रण हुआ है ।  वहीं दूसरी आेर सास-ननद की मनोकामनाआें और उल्लास, उमंग को प्रस्तुत करता यह गीत दृष्टव्य है -
छत्तीसगढ़ी सेधौरी एवं सोहर गीत
पहिली महिना जब लागीस अंग फरियाइस
अंग पियर मुंहु दुरदुर गरभ के लच्छन हो ॥
दूसर महिना जब लागीस सास गम पाइस
जेवनी गोड़ पिछलाय जिया मचलाये हो ॥
तीसर महिना जब लागीस ननद मुसकाइस
आहै लाल कन्हइया पंच लर पाबो जी ॥
चौथा महिना जब लागिस सास पुलकाइस
होही कुल रखवारा मोतियन लुटइहौ जी ॥
पांच महिना जब लागीस बहू माटी खाइस
बीरा पान न भाय मुंह सिट्ठाइस हो ॥
छै महिना जब लागीस पिया के पग लागीस
आआे न पलंग तुम्हार अंग मोर भारी हो ॥
सात महिना जब लागीस सास तीर रोइस
अब नहीं भीतर अमावे दरद मोला सताय हो ॥
आठ महिना जब लागीस अंग भरि आइस
कइसे करके पहिरे लुगरा न सम्हरे हो ॥
नव महिना जब लागीस सास संग मं सोइस
कब उठ जाही पीर सुइन घर दउड़बो हो ॥
दस महिना जब लागीस कन्हइया जनमिस
बजत आनंद बधइया मंगल सब गावे हो ॥
 2. विवाह गीत - विवाह छत्तीसगढ़ का ही नहीं भारत का सबसे प्रधान संस्कार है । भारत के विभिन्न प्रदेशों में विवाह की अलग-अलग परंपराएँ हैं ।  छत्तीसगढ़ की विवाह प्रणाली में आर्य और अनार्य पद्धति का मिला जुला रूप है ।  वरपक्ष द्वारा गये जाने वाले गीतों में उत्साह एवं तदजन्य हर्ष की अभिव्यक्ति होती है तो वधुपक्ष के गीतों में उत्साह और विषाद के भावों की प्रबलता होती है ।  विवाह के अवसर पर अनेक प्रकार के विधि विधानों में 'चूलमाटी, तेलचघी, मायमौरी, बरात प्रस्थान, बरात स्वागत, गारी, टिकावन, भांवर, बिदाई और डहर छेकौनीÓ गीत प्रमुख है ।  चूलमाटी को विवाह का प्रारंभ माना जाता है जिसमें विवाह में उपयोगी चूल्हों के लिए प्रयुक्त मिट्टी को खोदकर लाने के समय गाये जाने वाले गीत सम्मिलित हैं इन गीतों में हास-परिहास प्रमुख रूप से होता है ।  यथा -
तोला माटी कोड़े ला नई आवे मीत धीरे-धीरे,
धीरे-धीरे तोर मेछा ला तीर धीरे-धीरे ।
जतके परोसे आेतके ला लील धीरे-धीरे,
धीरे-धीरे तोर कनिहा ला ढ़ील धीरे-धीरे ॥
( एे मित्र, तुम्हें मिट्टी खोदना नहीं आता ।  तुम अपनी मूंछ को धीरे-धीरे खींचों, तुम्हें जितना परोसा जाता है उतना ही धीरे-धीरे निगल लो, कमर को धीरे-धीरे ढ़ीला छोड़ो। )
तेलचघी के गीतों में 'चूलमाटी' के उपरांत विवाह मंडप में वर-वधु के अधो अंग से उपांग में किए जाने वाले हल्दी लेपन के समय गाये जाने वाले गीत आते हैं ।  इन गीतों में वर-वधु के जीवन की सुखद कल्पना के अतिरिक्त उनके माता-पिता के हृदय के विविध भावों यथा पीड़ा, कातरता, प्रसन्नता, हर्ष, खुशी के भाव समाहित होते हैं ।
तेलचघी गीत -
एक तेल चढिग़ेे हो, हरियर हरियर,
मडवा मं दुलुरवा तोर बदन कुमहलाय ।
राम लखन के तेल चढ़ हे वो,
कहंवा के दियना होवे अंजोर ॥
'तेलचघीÓ के पश्चात संपादित होने वाले 'मायमौरीÓ के गीतों के माध्यम से घर की स्त्रियां अपने पुरखों और देवी-देवताआें का आह्वान करती है- 
मायमौरी गीत -
देवता धामी ल नेवतेंव
उन्हू ल न्योतेंव
जे घर छोडिऩ बारे थोरेन
ता घर पगुरेन हो।
माता पिता ल नेवतेंव
उन्हू ल न्योतेंव ।
बरात की पूरी तैयारी हो चुकने के बाद सजे-धजे बरात निकालने के पूर्व 'बरात प्रस्थानÓ के गीत गाते हैं, जिसमें वर के पूर्वानुराग का चित्रण मिलता है -
बारात प्रस्थान (नहडोरी) -
दे तो दाई, दे तो दाई,
असीस औ रूपैया,
सुंदरि ल लान्तेव बिहाय ।
सुंदरि-सुंदरि रटन धरे बाबू,
सुंदरि के देस बड़ दूर ।
तोर बर लानिहंव दाई, रधनी परोसनी,
मोर बर घर के सिंगार ।
बरात जब वधु के गांव पहुंचता है तो पुलकित वधुपक्ष 'बरात स्वागतÓ के गीत से वरपक्ष की अगुवानी करता है ।  इन गीतों में वर के सुदर्शन रूप, बरात की भव्यता और मंडप की शोभा का सुंदर चित्रांकन होता है-
बारात स्वागत (परघनी) -
बड़े-बड़े देवता रेंगत हे बरात
ब्रम्हा महेस
लालि हंसा मं रामचंद चघत हे,
अऊ लछमन चघे सिंह बाघ ।
लहकर रेंगत डांडी अऊ डोलवा,
नाचत रेंगय बरात ।
कै दल रेंगथे मोर हाथी अऊ घोड़ा,
कै दल रेंगथे बरात ।
हाथी मं लादके लाडू अऊ गुड़ ला,
कै ऊंटवा मां बांध चबेना ।
कै दुई घोड़वा सहस दुइ मोहथिया,
पैगा के हाबे अनलेख ।
लाली अऊ पिवरी बरतिया दिखत हे,
के कते दल दुलरू दमाद ।
झीनी पिछौरी के अलगा डारे ते,
के इह ह दुलरू दमाद ।
महल ल देखथे दुलही के भइया,
केतका दल आवते हे बरात ।
हमर सहर मं महादेव पहुंचे,
दुनियां के आवत हे देखइया ।
निकलव कइना अपन महल ले,
कि डोलवा परखिन लागव ।
नई मैं निकलव राजा अपने महल ले
कि डोलवा परिखय तोर बेटा ।
एक तोर परिखय भाई भतिजवा,
एक परिखय ममा के बेटवा ।
पानी के बूंदे सउते के बोली,
कइसे मं जनम पहाये हे ।
एक मिली रहिहो, एक मिलि रवइहौ,
एक मिली जनम पहाये हे।
एक मिली कुटि हौ, एक मिलि पिसिहौ,
एक मिली महादेव के सेवा करिहौ ।
गारी गीत के अंतर्गत वधुपक्ष द्वारा हास-परिहास और विनोद से परिपूर्ण गीत गाया जाता है, जिसमें वर पक्ष के रिश्तेदारों पर और उसके गांव खलिहान पर मधुर कटाक्ष होता है-
गारी गीत -
आमा पान के बिजना, हालत झूलत आये रे ।
किसबिन के बेटा हर, बरात लेके आये रे ।
करिया करिया दिखथय दुलरवा, काजर कस नइ आंजव रे ।
तोर दाई गेहे पठान घर, घर-घर बासी मांगी रे ।
बड़े-बड़े तोर अखियां दुलरवा, काजर कस नइ आंजव रे ।
तोर दाई गेहे लोहार संग, गोहने कसनी लागे रे ।
साम्थ्र्यानुसार कन्यापक्ष 'दामाद बेटीÓ को 'टिकतेÓ हैं ।  'टिकावनÓ के गीत इन्हीं भावों से संपन्न गीत होते हैं-
टिकावन गीत -
हलर हलर मोर मड़वा हाले,
खलर खलर दाइज परे ।
सुरहिन गइया के गोबर मंगइले,
खूंटि धरि अंगना लिपइले ।
गज मोतिन के चऊक पुरइले,
सोन कलस धरइले ।
कोन देवै मोर अचहर पचहर,
कोन देवे धेनु गाय ।
ददा मोर टिकथे लिलि हंसा घोड़ा,
दाई मोर टिकथे अचहर पचहर ।
भइया मोर टिकथे कनक के थार,
भौजी कहा किया काम ।
'भांवरÓ के गीत सात फेरों के समय गाये जाते हैं-
भांवर गीत -
कामा उलोथेकारी बदरिया
कामा ले बरसे बूंद ।
सरग उलोथे कारी बदरिया
धरती मं बरसे बूंद ।
काकर भीजे नवरंग चुनरी
काकर भीजे उरमाल ।
सीता के भीजे नवरंग चुनरी
राम के भीजे उरमाल ।
कैसे चिन्हव सीता जानकी
कैसे चिन्हव भगवान ।
कलसा बोहे चिन्हेव सीता जानकी
मुकुट पहिरे भगवान ।
कामा के चिन्हव सीता जानकी
कामा के चिन्हव भगवान ।
जामत चिन्हेंव अटहर कटहर
मौरत चिन्हेंव आमा डार ।
चऊंक मं चिन्हेंव सीता जानकी,
मटकू मं चिन्हेव भगवान ।
आगू-आगू मोर राम चलते हे,
पाहू लछिमन भाई ।
अऊ मंझोलन मोर सीता जानकी,
चित्रकूट बर चले जाई ।
सात फेरों के पड़ते ही विवाह संपन्न माना जाता है ।  बेटी की बिदाई बेला का दृश्य बड़ा कारूणिक होता है ।  'बिदाई गीत' में कन्या और उसके माता, पिता, भाई, बहन की मनोदशा का हृदय विदारक चित्रण मिलता है-
बिदाई गीत -
दाई के रेहेंव में दुलारी
दाई तोरे रोवय महल वो ।
अलिन गलिन दाई रोवय
ददा रोवय मूसरधार वो ।
बहिनी घलव रोवत हावय
भाई करय डण्ड पुकार वो ।
तुमन रहिहव अपन महल मं
दुख ल देइहव भुलाय वो ।
असुंवन तुम झन ढरियाव बहिनी
सबके दुख विसार वो ।
दुनिया के ये ह रीत ए नोनी
दिये हे पुरखा चलाय वो ।
दाई ददा के कोरा में रहेने
अचरा मं मुंह ल लुकाय वो ।
अपन घर तुम जावव नोनी
झन करव सोंच-बिचार वो ।
बिदाई के बाद वर जब वधु को लेकर अपने घर पहुंचता है तो ननदें (छोटी बहनें) नववधु के घर में प्रवेश करने के पूर्व उसका 'डहर छेंकतीÓ हैं यह मात्र एक नेंग है, इस अवसर पर भी गीत गाया जाता है ।
3. मृत्यु गीत - जन्म और मृत्यु शाश्वत सत्य है ।  सामान्यत: मृत्यु के अवसर पर गीत गाये जाने की प्रथा नहीं है क्योंकि मृत्यु शोक प्रसंग है तथापि छत्तीसगढ़ के कबीरपंथी समाज में दशकर्म के दिन गीत गाया जाता है ।  इस अवसर पर गाये जाने वाले गीतों में आत्मा परमात्मा के मिलन को, लौकिक दृष्टांतों के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है ।
साथ ही मृतकों के परिजनों के करूणक्रन्दन को पंक्तिबद्ध गीत का रूप दे दिया जाता है यथा-
येदे जिनगी ह भइगे पहार,
ये जिनगी के नईये बिस्वास ।
येदें छिन भर म ढहिगे पहार,
पंछी बिन पिंजरा उदास ।
चार कांधा मं चउथिया जाये,
चारे दिन के करथे राज ।
चार आंसू मं राजा छोड़ागे,
इस तरह छत्तीसगढ़़़़ में उपरोक्तानुसार प्रमुख संस्कार हैं और उन प्रमुख संस्कारों में उपरोक्तानुसार गीत गाये जाते हैं। स्पष्ट है कि छत्तीसगढ़ लोकगीतों का अविरल अजस्त्र स्त्रोत है । यहॉं  दु:ख, पीड़ा, वेदना के पल हो अथवा हर्ष, मंगल या खुशी के ; छत्तीसगढ़वासियों को लोकगीतों में झूमने और लोकनृत्यों में थिरकने से कोई शक्ति, कोई ताकत नहीं रोक पायी ।  भले ही इन लोकगीतों में शब्द शिल्प या भाषा की सुगढ़ता का अभाव है किन्तु ये बिना किसी छद्म के, प्रकृति के निकट, अनुभवों की सच्चाइयों की अभिव्यक्ति से आेत-प्रोत हैं और किसी की हो या न हो; निसंदेह इन्हें सहेजने, सम्हालने और लिपिबद्ध करने की जवाबदारी छत्तीसगढ़ वासियों की है।
साभार रउताही 2014

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