Monday 20 October 2014

लोक जीवन की सहज अभिव्यक्ति : लोकगीत

भारत की सही पहचान लोकभाषा और लोक संस्कृति के बिना नहीं हो सकती है। भारतीय संस्कृति को यदि हम अलग-अलग लोक अंचलों की संस्कृतियों का जैविक समुच्चय कहें तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। भारत के हृदय अंचल 'मालवाÓ में तो समूची भारतीय संस्कृति गागर में सागर की तरह समाई हुई है। मालवा की परम्पराएँ समुचे भारत से प्रभावित हुई हैं और पूरे भारत को मालवा की संस्कृति ने किसी न किसी रूप में प्रभावित किया है।
मालवा की धरती अत्यन्त उपजाऊ और धन-धान्य से परिपूर्ण रही है। यथा-
'देश मालवा का गहन गंभीर
डग-डग रोग पग-पग नीर।Ó(कबीरदास)
इसका बाहरी रूप जितना मनोरम है, उतना ही सुन्दर, कोमल और आत्मीय है इसका अंतरंग। हृेनसांग सातवीं शदी मेें मालवा में आया था तो वह भी यहाँ के पर्यावरण और लोकजीवन से गहरे प्रभावित हुआ था। तब उसने लिखा भी था कि इसकी भाषा मनोहर और सुस्पष्ट है। मालवा क्षेत्र के जल, पर्यावरण और सदैव सुकाल की अवस्था पर संत कवि सुन्दरदास लिखते हैं-
'वृच्छ अनन्त सुनीर वहंत सुसुन्दर संत बिराजे तहीं ते
नित्य सुकाल पड़ै न दुकाल सुमालवं देस भलो सबहीं ते।Ó
मालवा भारत का हृदय अंचल है। आज का मालवा संपूर्ण पश्चिमी मध्यप्रदेश और उसके साथ सीमावर्ती पूर्वी राजस्थान के कुछ जिलों तक विस्तार लिए हुए हैं। इसकी सीखा रेखा के सम्बन्ध में एक पारम्परिक दोहा प्रचलित है-
'इस चम्बल उस बेतवा, मालव सीमं सुजान।
दक्षिण दिसि है नर्मदा, यह पूरी पहचान।।Ó
मालवा के लगभग दो करोड़ बाशिंदे इसकी संस्कृति को अपने सुख-दु:ख, संस्कार व्रत-तेवार, अनुष्ठान के मौकों पर गीत कथा गाथा से लेकर विविध लोकाभिव्यक्तियों के जरिए जिंदा रखे हुए है। महज मालवी भाषा और साहित्य की दृष्टि से ही नहीं, वेशभूषा, श्रृंगार-प्रसाधन, लोकाचार, खान-पान, चित्र, मूर्ति, संगीत आदि सभी क्षेत्रों में मालवा की अभी खास पहचान शताब्दियों से बनी हुई है।
यहाँ का लोकमानस अतीत ही नहीं, अपने वर्तमान से भी सीधे संवाद करता है। यथा-
'बीरा थारा कारणे वोट का भिखारी उबारे द्वार।
एक बोट का माँगे दान, बेनड़ी रखजे म्हारो मान।।Ó
मालवा लोक-साहित्य की दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध है। जीवन का ऐसा कोई प्रसंग नहीं है जब मालवजन अपने हर्ष-उल्लास सुख-दु:ख को दर्ज करने के लिए लोक-साहित्य का सहारा न लेता हो।
'छोटी-छोटी नानी होण ने माँडी संजा प्यारी।
संजा बइका गीत उगेरया या धुन सबसे न्यारी।।Ó
ई हिकी-मिकी ने जीवने को संगीत गुंजाणे लागी
म्हणे लाल-गुलाबी संजा देखी, तो दूर उदासी भागी।
इनने जग का सुख-दुख गाया कई भीनी राख्यो है सेस।
यो हँसतो-गातो म्हारो देस। मदनमोहन ब्यास
धार्मिक चेतना के विकास के फलस्वरूप लोक-कथाओं, लोकगीतों, लोकनाट्यों, लोकनृत्यों आदि का निर्माण सुगम हो गया। जातीय रीति-रिवाज का निर्माण हुआ और अन्त में सामाजिक मूल्यों के निर्धारण में लोक साहित्य समृद्ध होकर समाज की दिशा और दशा निर्धारित करने लगा।
'कुर्सी का मद में चर हुवो, बोले तो एँठई ने बोले।
कोई साँचा रोणा केवे तो मकना हाथी सरको डोले।
जिको दिल नी समन्दर सो गेरो, ऊराज चलाणो कइँजाणे।
जिने देखी नी टूटी नान कदी, ऊ पार लगाणो कइँजाणे।Ó
            -नरेन्द्र सिंह तोमर
लोक साहित्य के अन्तर्गत लोकगीतों की भी कई शैलियाँ प्रचलित हैं। इनमें वसन्त-ऋतु के गीत जैसे-फगुआ, होरी, रसिया, कबीर चैती, वर्षा-ऋतु के गीत, जैसे सावन, हिण्डोला, कजरी, चौमासा, बारहमांसा, मल्हार, व्रत-पूजा के गीत जैसे लंगुरियँ, छठीमाता, के गीत देवी गीत, भजन श्रम गीत जैसे-सोहनी, रोपनी के गीत, कोल्हू के गीत, चरखा गीत, जतसार, चाँचर, जाति गीत, जैसे-बिरहा(अहीरों के गीत), कहरवा,(कहारों के गीत)पचरा(दुसाधों के गीत), तेलियों के गीत, धोबियों के गीत, चमारों के गीत आदि। बच्चों के गीत जैसे-लोरी, ओक्का-बोक्का, चन्दामामा, चुटकुलें आदि, अन्प्य गीत-जैसे दादरा, पुरबी, नयारी, झूमर आदि।
भारतीय समाज में संस्कारों का बड़ा महत्व माना गया है। गर्भधान से लेकर मृत्यु तक संस्कारों का क्रम चलाता रहता है। इस समय व्यक्ति को इन समस्त संस्कारों के शास्त्रीय तथा लौकिक अनुष्ठानों के बीच से गुजरना पड़ता है। प्रत्येक संस्कार के अपने गीत हैं, जो उत्संवों पर गाए जाते हैं। जन्म-संस्कार के गीत, जैसे साथ, सरिया, रोचना, सोहर, खेलावना, मंगल, बधाई नेग-निछावर, जच्चा-बच्चा की देखभाल से संबंधित गीत, छठी नामकरण के गीत, मुण्डन तथा जनेऊ के गीत जैसे-बरूआ विवाह, के गीत, जैसे सगुन, लगन, कोहवर, बन्ना-बन्नी, नहछू, घोडी़, सेहरा, सोहाग, जोग नकदा गाली विदाई, भात भांवर अत्येष्टि-संस्कार के गीत आदि के माध्यम से लोक जीवन ही अभिव्यक्त होता है।
मालवी लोक से गहरा तादातम्य लिए श्री बालकवि बैरागी की भाव एवं सौन्दर्य-दृष्टि का साक्ष्य देती कुछ पंक्तियाँ देखिए-
'उतारूँ थारा वारणा ए म्हारा कामणगारा की याद
नेणा की काँवड़ को नीर चढांऊ
हिवड़ा को रातों-रातों हिंगलु लगाऊं
रूडा़-रूड़ा रतनारा थाक्या पगा से
ओठों ही ओठों ती मेहंदी रचाऊँ
ढव थारे चन्दा को चड़लो चिराऊं
नौलख तारा की बिछियाँ पेराऊँ
ने उतारूँ थारा वारणा ऐ म्हारा मन मतवारा की याद।Ó
विज्ञान और तकनीकी के इस भौतिक दौर में लोक साहित्य की परम्पराओं का काफी हृास हुआ है। परिवार में नाना-नानी और दादा-दादी अपने नातियों-नतनियों और पोते-पोतियों को कहानियाँ सुनाकर तथा उनके यश-प्रश्रों का उत्तर देकर जिस परम्परा का पालन और रस का अनुभव करते थे, वह परम्परा ही खोखली हो गई है। आधुनिकता की आँधी ने उन्हें इस प्रकार के सरोकारों से दूर कर दयिा है। बाल सुलभ मानवीय उत्सुकता के साथ जुड़कर अधिक उम्र का अनुभव एक वृद्ध के जीवन में जो चाव पैदा करता था, आज वह नहीं है। बच्चे के भीतर आत्म विश्वास का जो संचार इससे होता था, आज वह गायब है। वाचिक-परम्परा केवल बोली जानेवली भाषा ही नहीं है अपितु वह जीवन-दर्शन भी है। लेकिन बदलते परिवेश ने इस जीवन दर्शन का सर्वाधिक अवमूल्यन किया है।
उपभोक्तवादी संस्कृति और हर वस्तु के खरीदे जाने की मानसिकता ने लोक साहित्य की परम्पराओं पर कुठाराघात किया है, जिसके तले हमारी लोक संस्कृति दबी जा रही है। आज इसके सूख रहे खेतों पर प. विद्यानिवास मिश्र ने अपनी चिन्ता को इन शब्दों में व्यक्त किया -''साहित्यकारों, शास्त्रकारों और कलाकारों-सबकों अपनी जड़ों का रस चाहिए। वह रस कभी लोकसाहित्य में मिलता है, लोकाचार में मिलाता है, लोक-कला, लोक-संगीत मेें मिलता है, लोक नृत्य में मिलता है लोक-गीत में मिलता है और कभी केवल ऐसे आदमी के साथ बैठकर मिलता है जो स्मृतियों में जीता नहीं, स्मृतियों को जीता है, स्मृतियों को व्यतीत नहीं मानता, अपने जीवन और जातीय जीवन से अविलग देखता है।ÓÓ
''लोक साहित्य में प्राचीन संस्कृतियों के तत्व विद्यमान रहते हैं।ÓÓ रूसी-साहित्य वाई.एम.सोकोलोव। ऐसे ही विचार ओरोलियो एम. एसपिनोजा ने भी व्यक्त किए हैं.
आज का कोई भी सभ्य मानव यह दावा नहीं कर सकता है कि उसने अपने अंदर से आदिम संस्कारों के बीजों को नष्ट कर दिया है। लोक साहित्य में सर्व भूत हिताय और सर्वजन सुखाय की भावना प्रचुर मात्रा में पाई जाती है।
लोक-साहित्य उस निर्मल दर्पण के समान हैं जिसमें लोकमानस का अविरल तथा विराट स्वरूप पूर्णरूपेण दिखाई पड़ता है। जो भगवान के विराट स्वरूप की ही भांति विराट और अनन्त है लोक संस्कृति के वास्वविक रूप को देखने के लिए हमें लोक-साहित्य का ही अनुसंधान करना होगा।
अन्त में- डॉ. शिव चौरसिया का मालवी-गीत-
''धरती से आकास तलक जो फेल्यो हे आंखो संसारयो सगलो म्हारो परिवार।
सूरज दादो चंदो मामो, तारा संग-संगाती,
समन्दर-परबत खेत-खला सब, रुत हण रंग उड़ाती
इन्दरधनुष करतब जादू को, कुदरत को
अदॅभत सिणगांर यो संगलो म्हारो परिवार।
धरती तो माता हे म्हारी, फसल नरी निपजावे
बीर बायरो बादल साँते, बरखा-अमरत लावें।
बिजली नयन कड़-कड़ नाचे, डरप भरी लागे चमकार।
यो संगलो म्हारो परिवार।
भोत बड़ा आकास दायजी, सीतल गेरी छाया,
बायर की बाधा झेले वी, अपने सदा बचाया।
रोजरात की चौपड़ माँडें, गिरह-नरवत देखे नर-नारे।
यो सगलो म्हारो परिवार।
नाना-मोटा झाड़-झड़कला सब साँचा हम जोली।
नदरी बेन्या नखराली सब धरती पे रंगोली।
जुग-जुग ती जीवन बाँटी री, महिमा इनकी अपरम्पार
यो सगलो म्हारो परिवार।
मोरया नाचे गाय डेंडका, झिंगर झन-झन गाजे।
उड़े चिरकलीरची ची करतीं तार हिया का बाजे।
लंगे सेंत का झरना सरखी, कोयल की मीठी लयकार।
यो सगलो म्हारो परिवार।
वेद-पुरान कुरान-बाइबिल राम-रहीमा-ईसा।
बुदष जरस्दुत-महावीर से ग्यान मिल्या है बीसा।
योग-भोग ने दरसन संगला धरम-करम को जो विस्तार
यो सगलो म्हारो परिवार।
व्यास-वाल्मिकी, चेखव-गेटे, तुलसी-सूर-कबीरा।
गालिब-भूषण-नानक, दादू, दरद दीवानी मीरा।
प्रेमचन्द सा साँचा सेवक जितरा भी है रचनाकार।
यो संगलो म्हारो परिवार।
 साभार रउताही 2014 

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