Thursday 30 October 2014

छत्तीसगढ़ का अनूठा लोकगीत बाँस-गीत

बाँस गीत छत्तीसगढ़ का बहु प्रचलित लोकगीत है। एक तरह से यह यादव समाज की निजी धरोहर है, क्योंकि इस विधा में यादव बंधु ही पारंगत होते हैं। यादव मूलत: पशु पालक होते हैं, वैदिक काल से लेकर आज पर्यन्त तक अधिकांश यादवों का मुख्य व्यवसाय पशुपालन ही है। ये अपने पशुओं को चराने के लिए जंगलों में जाते थे और वहीं निवास करते थे, जाहिर है जंगलों में मनोरंजन का कोई साधन नहीं होने के कारण मन-बहलाव के लिए प्राकृतिक संसाधनों से युक्त इस विधा का जन्म हुआ होगा।
सर्वप्रथम बाँस-गीत में वादन यंत्र के रुप में प्रयुक्त बाँस की संरचना का विश्लेषण करते हैं, जैसा कि शीर्षक से ही स्पष्ट है इस लोकगीत का नाम बाँस-गीत है अर्थात इसमें बाँस और गीत दोनों सम्मिलित हैं। बाँस बजाया जाता है, शंख की तरह फूंककर बाँस बजाने वाले को बँसकहार  की संज्ञा दी जाती है और समाज में इनका विशिष्ट स्थान होता है। बँसकहार बाँस का मर्मज्ञ होता है, वह जंगल या गाँव से जहाँ बाँस का भीरा उपलब्ध हो से बाँस जो न तो ज्यादा मोटा होता है न पतला और आगे की ओर जरा सा मुड़ा हुआ होता है जिसे स्थानीय भाषा में ठेडग़ी बाँस की संज्ञा दी जाती है का लगभग तीन फीट लंबा टुकड़ा आरी से काटकर लाया जाता है। हालांकि बाँस पोला होता है लेकिन उसमें गाँठ होते हैं जिस लोहे की सरिया को गर्म कर भेदा जाता है ताकि स्वर आसानी से पार हो सके तत्पश्चात लगभग छ: इंच की दूरी में एक बड़ा छेद बनाया जाता है जिसे ब्रह्मरंध कहा जाता है इसे मोम (मैंद) लगाकर दो भागों में विभक्त किया जाता है तथा तालपत्र से आधा आच्छादित किया जाता है ताकि विशेष स्वर स्फुटन हो। बाँस के मध्य में क्रमश: चार छिद्र किये जाते हैं आखिरी छिद्र थोड़ी बुजुर्गों के कथनानुसार इसे धर्म, अर्थ काम एवं मोक्ष का परिचायक बताया गया है और इस तरह शुरु होता है नाद ब्रह्म को साधने का उपक्रम।
बाँस गीत में मुख्यत: चार लोगों की भूमिका होती प्रथम बाँस को बजाने वाला बँसकहार दूसरा गीत गाने वाला गायक जिसे गीत गायन कहा जाता है तीसरा गायक का साथ देने वाला रागी जो गायक के स्वर से स्वर मिलाता है तथा चौथा गीत की समाप्ति पर रामजी रामजी का उद्घोष करने वाला जिसे टेहीकार कहा जाता है। टेहीकार विशेष गुण और स्वर प्रतिभा संपन्न व्यक्ति होता है जो लोकोक्ति एवं मुहावरों तथा स्वरचित दोहों को पिरोकर श्रोताओं को मुग्ध कर बांधने का कार्य करता है। वैसे तो बाँस-गीत परिणयोत्सव, मांगलिक पर्व पर आयोजित होते हैं किन्तु यह एक ऐसा लोकगीत है जो अधिकांश शोकमय वातावरण दशगात्र एवं तेरहवीं के समय भी आयोजित होते हैं। इसका मनोवैज्ञानिक तथ्य है जो परिवार शोक संतप्त होता है इन गीतों मेंं समाहित आध्यात्मिक एवं उपदेशात्मक तथ्यों के द्वारा उनके जनजीवन को सामान्य बनाने का अभीष्ट कार्य संपन्न किया जाता है।
बाँस गीत में छत्तीसगढ़ के जनजीवन से संबंधित गीत, यादव वीरों की गाथा, रामायण के दोहे, कबीर के दोहे तथा आध्यात्मिक गीतों का समावेश होता है, इन गीतों में लोकभाषा में गूढ़ रहस्यों का भी प्रतिपादन किया जाता है जो विद्वानों के लिए भी आश्चर्य का विषय प्रस्तुत करती है। बाँस गीत मात्र लोकगीत ही नहीं अपितु हमारे सरल, सहज, सादगी पूर्ण संस्कार का भी द्योतक है, इसके श्रोताओं में महिलाएं, बच्चे, पुरुष सभी होते हैं।
बाँस गीत के आयोजन में किसी विशेष प्रयास या आर्थिक प्रयोजनों की आवश्यकता नहीं होती एक दरी बिछाकर बाँस-गीत के कलाकारों को सम्मानपूर्वक विराजित करा दिया जाता है और उनके सम्मुख श्रोतागणों को बिठा दिया जाता है और शुरु हो जाता है रसास्वादन का दौर। सर्वप्रथम गीतगायन द्वारा अपने ईष्ट देव एवं देवताओं का स्मरण किया जाता है ताकि उसके उत्तरदायित्व के निर्वहन में कोई व्यवधान उत्पन्न न हो यथा:-
अंठे मा बइठै गुरु कंठा न तो, जिभिया मा गौरी गणेश।
ज्यों-ज्यों अक्षर भूल बिसरौ माता, भूले अक्षर देवे सम झाय।।
इसे सुमरनी कहते हैं तत्पश्चात गायक दोहों के माध्यम से अपने कुल गौरव का भी बखान करते हैं जैसे-
कऊने दियना तोरे दिन मा बरे, कउने दियना बरे रात
कऊने दियना घर अंगना मा बरे, कऊने दिया दरबार हो।।
सुरूज दियना तोरे दिन मा बरे, चंदा दियना बरे रात।
सैना दियना घर अंगना मा बरे, भाई दियना दरबार हो।
इसी प्रकार इन लोकगीतों में रामायण के प्रसंगों को भी रोचक ढंग से प्रस्तुत किया जाता है जैसे सीता हरण का प्रसंग ही ले लें जटायु सीता जी से पूछते हैं:
काखर हौ तुम धिया पतोहिया, काखर हौ भौजाई।
काखर हौ तुम प्रेम सुन्दरी, कऊन हरण लेई जाई।।
दशरथ के मैं धिया पतोहिया, लछमन के भौजाई।
रामचन्द्र के प्रेम सुन्दरी, रावण हर ले जाई।।
गीत का पद खत्म होते ही टेहीकार अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते हुए टेही लगाता है रामजी-रामजी सत्य हे और हास्य उत्पन्न करने के लिए स्वरचित आशु कविता उद्धृत करता है।
इहाँ ले गयेन कुण्डा, सब लइका होवत रहंय मुण्डा
इहां ले गयेन दाबो, सब टुरी कहंय तुंहरे घर जाबो।
साधारण लोकगीतों के माध्यम से गूढ़ रहस्यों का प्रतिपादन भी गायकों की अपनी विशिष्टता होती है जिसकी बानगी देखिए-
केंवट घर के बेंवट लइका, घन के गांथय जाल।
दहरा के मछरी थर-थर कांपय, चिंगरा टोरय जाल।।
अर्थात् परब्रह्मा रूपी केंवट के बच्चे अंशावतारी देवों के द्वारा मायारूपी घना जाल बुना जाता है जिसको देखकर गहरे मोह रुपी संसार में रहने वाला जीव भय से कांपता है लेकिन ज्ञानरुपी आरा का आलंबन करने वाला ज्ञानी इस माया रूपी जाल से सहज ही मुक्त हो जाता है। इसी तरह ढोला-मारु यादव वीर लाला छऊरा आदि की कथाओं को भी बाँसगीत के गायन में समाविष्ट किया जाता है। बाँस गीत सनातन है तथा छत्तीसगढ़ के संस्कारों का परिवाहक है लेकिन दुख है यह विलुप्तता के कगार पर है इसे पोषित और संरक्षित किये जाने की आवश्यकता है।
जय जोहार।
साभार रउताही 2014
 

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